आज़ादी के पूर्व साहित्य में देशभक्ति की भावना // सुशील शर्मा

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आज़ादी के पूर्व साहित्य में देशभक्ति की भावना सुशील शर्मा ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति। देश की भूमि, संस्कृति, परम्परा, प्रशासन औ...

आज़ादी के पूर्व साहित्य में देशभक्ति की भावना
सुशील शर्मा

ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति।
देश की भूमि, संस्कृति, परम्परा, प्रशासन और सामाजिक तेजस्विता आदि का समन्वित प्रभाव मानव की जीवन साधनापर पड़ता है, और उससे जो शक्ति प्रकट होती है उसी का नाम है- राष्ट्रीयता। इसी क्रम में आगे देशभक्ति का भाव जागृत होता है। राष्ट्रीय परंपराओं का गौरव-गान और राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने के साथ एक विशेष भूभाग के भौगोलिक रूप के प्रति संपृक्ति एवं भक्ति राष्ट्रवाद के व्यावहारिक रूप हैं। राष्ट्रवाद आधुनिक व्यक्ति का धर्म भी है। इसलिए कहा गया है कि राष्ट्रधर्म सर्वोपरि धर्म है। महात्मा गांधी ने कहा है, ‘राष्ट्रवाद में कोई बुराई नहीं, बुराई तो संकीर्णता, स्वार्थपरता और अलगाव में है, जो कि आधुनिक राष्ट्रों के कलंक हैं।’
वन्देमातरम् का जयघोष साहित्य से ही निकलकर बंगला के आन्दमठ से होते हुए जनगणमन का कण्ठहार बन सका। वह संस्कृत पाठशाला ही थी मुम्बई की, जहां तत्कालीन मूल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। आजादी और भारतीय स्वाभिमान के युवा प्रतीक योद्धा सन्यासी विवेकानंद पूरा राष्ट्रीय चिंतन वेद और वेदान्त की पृष्ठभूमि से ही निकला है। उठो! जागो!! श्रेष्ठ लोगों से सही ज्ञान प्राप्त करो!! बढ़ो जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो। ये सब गीता और उपनिषदों का ही चिन्तन है। देश की स्वतंत्रता के लिए 1857 से लेकर 1947 तक क्रांतिकारियों व आन्दोलनकारियों के साथ ही लेखकों, कवियों और पत्रकारों ने भी महत्वपूर्ण आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेंदु काल से राष्ट्रीय भावना का उदय माना जाता है। शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जन-जन में देशभक्ति एवं राष्ट्र प्रेम की ज्वाला धधक रही थी। भारत की मिट्टी के कण-कण में चिंगारी व्याप्त थी। हर व्यक्ति स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने को तत्पर था। कवियों के शब्द दहकते अंगारे बने हुए थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र, श्रीधर पाठक, अयोध्या सिंह उपाध्याय, रामधारी सिंह दिनकर आदि अनेक कवि भारतीय जनमानस को जागृत करने के लिए तथा राष्ट्रभक्ति की भावना भरने के लिए हुंकार लगा रहे थे।
भारतेंदुजी ने अपने नाटकों और कविताओं में पराधीन भारतीयों के मन में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत् करने की भरपूर कोशिश की। उनके साहित्य में राष्ट्रीय भावनाओं के विविध स्वर मिलते हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का 'भारत -दर्शन' नाटक देश प्रेम की भावनाओं से ओतप्रोत है भारतेंदुजी देशप्रेमी होने के साथ-साथ राजभक्त कवि भी थे, किंतु राजभक्ति का आवरण ओढे़ उन राजभक्त कवियों से नहीं, जिन्होंने देशभक्ति की भावना को राजभक्ति से ढक रखा था। ‘भारत दुर्दशा’ नाट्य-कृति देशप्रेम की एक महत्त्वपूर्ण रचना है—
रोअहुँ अब मिलि के आवहु भाई।
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई॥

बंकिम चन्द्र चटर्जी का देशप्रेम से ओत-प्रोत “वन्दे मातरम्“ उस समय स्वतंत्रता का ध्वज वाहक बना जब सम्पूर्ण भारत में चेतना की मुर्दनी छायी हुई थी।
वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयज शीतलां
शस्य श्यामलां मातरम्! वन्दे मातरम्!
शुभ्र ज्योत्स्ना-पुलकित-यामिनीम्
फुल्ल-कुसुमित-दु्रमदल शोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरत्। वन्दे मातरम्!


स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लोगों को लामबंद करने, उनमें देशभक्ति की भावना पैदा करने तथा आजादी के बाद उसे कैसे संभाल कर रखना है, इन विषयों पर कवियों ने अनेक रचनाएं की हैं।  सुमित्रानंदन पंत ने "ज्योति भूमि, जय भारत देश।"कह कर भारत की आराधना की है ,सुमित्रा नंदन पंत की निम्न पंक्तियाँ आज भी मन में देशप्रेम का जज्बा जगाती हैं।
चिर प्रणम्य यह पुण्य अह्न जय गाओ सुरगण,
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन!
नवभारत, फिर चीर युगों का तिमिर आवरण,
तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन!
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
आज खुले भारत के संग भू के जड़ बंधन!


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला भारत माँ की स्तुति करते हुए कहते हैं।
भारति जय विजय करे
कनक शस्य कमल धरे
लंका पदतल-शतदल
गर्जितोर्मि सागर-जल
धोता शुचि चरण युगल
स्तव कर बहु अर्थ भरे
तरु तृण वन लता वसन
अंचल में खचित सुमन
गंगा ज्योतिर्जल-कण
धवल धार हार गले!


देशप्रेम की भावना जगाने के लिए जयशंकर प्रसाद  ने "अरुण यह मधुमय देश हमारा" लिख कर भारतीय आत्मा को आंदोलित किया। देशप्रेम और देशचिंता प्रसाद की नाटकों के मूल में हमेशा रही. उनके नाटकों की ही अगर बात की जाए तो ‘कामना’ और घूंट’ को छोड़कर सभी नाटकों (इनमें ध्रुवस्वामिनी, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त आदि काफी लोकप्रिय हैं) के केंद्र में देशप्रेम ही था। जयशंकर प्रसाद का 'चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त' नाटक आज भी देशप्रेम की भावना जगाने के लिए बड़े कारगर सिद्ध हैं।सीमित अर्थों में राष्ट्र और राष्ट्रवाद को आंकने वाले लोगों के लिए प्रसाद एक राष्ट्रवादी लेखक हो सकते हैं, प्रबल राष्ट्रवादी भी. लेकिन जिस दौर में वे थे उस समय राष्ट्रवाद उस प्रचलित अर्थ में नहीं था जैसा कि आज है।
‘हिंदी साहित्य का इतिहास” के लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने निबंध “श्रद्धा-भक्ति” में कहा है, “प्रेम का कारण बहुत कुछ अनिर्दिष्ट और अज्ञात होता है; पर श्रद्धा का कारण निर्दिष्ट और ज्ञात होता है।” आचार्य शुक्ल ने आगे कहा कि, “श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।” इससे स्पष्ट होता है कि समर्पण की भावना का पहला आयाम प्रेम है, उसके बाद श्रद्धा और फिर भक्ति। भक्ति यह समर्पण की सर्वोच्च स्थिति है। इसलिए प्रेम, श्रद्धा और भक्ति की अवधारणा को समझे बिना देशप्रेम और देशभक्ति की संकल्पना को नहीं समझा जा सकता।

प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन नाम से आया जो १९०८ में प्रकाशित हुआ। सोजे-वतन यानी देश का दर्द। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होने के कारण इस पर अंग्रेज़ी सरकार ने रोक लगा दी और इसके लेखक को भविष्‍य में इस तरह का लेखन न करने की चेतावनी दी।
प्रेमचंद की 'रंगभूमि, कर्मभूमि' उपन्यास, वीर सावरकर की "1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम" हो या पंडित नेहरू की 'भारत एक खोज' या फिर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की 'गीता रहस्य' या शरद बाबू का उपन्यास 'पथ के दावेदार' राष्ट्रराग की प्रबल चेतना हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त और जयशंकर प्रसाद में सर्वाधिक दिखाई देती है।
          राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्ता ने “भारत-भारती“ में देशप्रेम की भावना को सर्वोपरि मानते हुए आह्वान किया-
“जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।।“
देश पर मर मिटने वाले वीर शहीदों के कटे सिरों के बीच अपना सिर मिलाने की तीव्र चाहत लिए सोहन लाल द्विवेदी ने कहा-
हो जहाँ बलि शीश अगणित, एक सिर मेरा मिला लो।“


   माखनलाल चतुर्वेदी की कविताओं ने आज़ादी के आन्दोलन के दौरान हज़ारों-लाखों युवाओं में विदेशी शासन के जुए को उखाड़ फैंकने के लिए ऐसा असाधारण जोश भरा कि वे आन्दोलन के महानायक महात्मा गाँधी के नेतृत्व में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए अभूतपूर्व रूप से तैयार होगए।      
“मुझे तोड़ लेना बनमाली! उस पथ में देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जायें वीर अनेक।।“


‘हिमालय के प्रति’ कविता में दिनकर की हुंकार से भारत के नौजवानों में राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ था।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव, विराट, पौरुष के
पुञ्जीभूत ज्वाल,
मेरी जननी के हिम किरीट, मेरे भारत के
दिव्य भाल।


सुभद्रा कुमारी चौहान की “झांसी की रानी" कविता ने  अंग्रेजी साम्राज्य की नीव हिला दी थी । वीर सैनिकों में देशप्रेम का अलख जगाने वाली यह कविता आज भी हमारे खून में उबाल ला देती है।
“सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढे़ भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की, कीमत सबने पहिचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन् सत्तावन में वह तनवार पुरानी थी,
बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी की रानी थी।“


पं. श्याम नारायण पाण्डेय ने महाराणा प्रताप के घोड़े ‘चेतक’ के लिए "हल्दी घाटी" में लिखा-
“रणबीच चौकड़ी भर-भरकर,
चेतक  बन गया निराला था,
राणा प्रताप के घोड़े से,
पड़ गया हवा का पाला था,
गिरता न कभी चेतक  तन पर,
राणा प्रताप का कोड़ा था,
वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर,
या आसमान पर घोड़ा था।“


         निराला ने "भारती! जय विजय करे। सवर्ग सस्य कमल धरे।।" कामता प्रसाद गुप्त ने "प्राण क्या हैं देश के लिए के लिए। देश खोकर जो जिए तो क्या जिए।।" इकबाल ने "सारे जहाँ से अच्छा हिस्तोस्ताँ हमारा" तो बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने 'विप्लव गान' में
''कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाये
एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर को जाये
नाश ! नाश! हाँ महानाश! ! ! की
प्रलयंकारी आंख खुल जाये।"

इसी श्रृंखला में  सियाराम शरण गुप्त, अज्ञेय ,शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, रामनरेश त्रिपाठी,  रामधारी सिंह ‘दिनकर’  बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन, , श्रीधर पाठक, माधव प्रसाद शुक्ल, नाथूराम शर्मा शंकर, माखनलाल चतुर्वेदी, राधाचरण गोस्वामी,राधाकृष्ण दास गया प्रसाद शुक्ल स्नेही (त्रिशूल),जैसे मूर्धन्य साहित्य मणियों ने अपनी कलम राष्ट्र को नई ऊर्जा से आप्लावित किया ।
भारत में राजनीतिक राष्ट्र से पहले भी सांस्कृतिक राष्ट्र की कल्पना मौजूद थी। भारत न केवल सीमा और जनसंख्या की कसौटी पर खरा भारत में जन्मे सब जन निश्चय महान् है।

पंजाबी साहित्य में राष्ट्रीय प्रेम के साथ साथ राष्ट्र पर बलिदानों कीएक अभूतपूर्व श्रृंखला है। पंजाब के क्रांतिकारियों ने लाला लाजपतराय, भगवतसिंह और सुखदेव बनकर राष्ट्रीयता की लहर को परवान चढाया। कौन होगा जो पंजाबी के इस गीत को भूल जाए।
पगडी संभाल ओ जट्टा पंगडी संभाल ओए-
हिंद है मंदर तेरा तू इस दा पुजारी ओए‘

बंगाल में जागरूकता के कारण १२वीं, १३वीं शताब्दी से कविता, नाटक और उपन्यास के रूप में राष्ट्रीयता का साहित्य में आविष्कार होता रहा। इसी श्रृंखला में आगे चलकर श्री बंकिमचंद्र चटोपाध्याय ने ’आनंदमठ‘ नामक अपने जग विख्यात उपन्यास में राष्ट्रवाद का भव्य चित्र प्रस्तुत करने का कीर्तिमान स्थापित किया। राष्ट्रीयता का सिरमौर कहा जाने वाले साहित्य बंगला है। बंगाल ने सांस्कृतिक ह्रास और राष्ट्रीयता के अपमान के जो दृश्य देखे थे उसकी पीडा उसके साहित्य में भली प्रकार झलकती है।श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता का १९०५ में  मातृभूमि वंदना का प्रकाशन हुआ। जिसमें वे लिखते हैं….
है प्रभु,
मेरे बंगदेश की
धरती नदिया वायु फूल सब पावन हों,
है प्रभु,
मेरे बंग देश के,
हर भाई, प्रत्येक बहन के उर अंतः स्थल,
अविछन्न, अविभक्त एक हों (बंगला से हिन्दी अनुवाद).

उर्दू भाषा  जिसने भारत की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दो शब्दों का यह नारा जिसे उर्दू ने जन्म दिया, न जाने कितने दिलों में नया जोश भरने का स्रोत बन गया है। इसी एक नारे की पुकार पर आजादी के अनगिनत मतवालों ने अपने सिरों को बलिदान कर दिया और अगर यह कहा जाए कि आजादी इस नारे की उपकृत है, तो किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। यह नारा आजादी का बिगुल और मंत्र साबित हुआ। इसी तरह बिस्मिल अजीमाबादी के शे’र को ले लीजिए
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है।।


जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन चलाया तो हसरत मोहानी और अदम लखनवी जैसे राष्ट्रवादियों की शायरी ने भी लोगों को जागरूक करने का काम किया। यह वह दौर था जब उर्दू शायरी में क्रांति की आग दिख रही थी। अदम लखनवी के इन शेरों को ही देख लीजिए:
जलाल-ए-आतिश-ए-बर्क शहाब पैदा कर।
अज़ल भी कांप उठे, वो शबाब पैदा कर।।
तू इंकलाब की आमद का इंतजार न कर।
जो हो सके तो खुद इंकलाब पैदा कर।।


प्रेमचंद, सआदत हसन मंटो, अली अब्बास हुसैनी, कृष्ण चन्द्र, इस्मत चुग़ताई और राजेंद्र सिंह बेदी आदि ऐसे नाम हैं, जिन्होंने उर्दू में अपने अनन्त लेखन से देश की स्वतंत्रता का झंडा बुलंद किया।
कन्नड साहित्य में  राष्ट्रीयता और राष्ट्र प्रेम यहाँ के साहित्य का अविभाज्य अंग रहा है। तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार उसके संदर्भ बदलते चले गए लेकिन राष्ट्रीयता की व्याख्या नहीं बदली। कन्नड के आदि कवि पंप का पद ‘आरंकुसमिटटोड नेनवुदेन्न मनं वनवासी देशमम्‘ उनके इस प्रदेश के प्रति और साहित्य में राष्ट्रीयता के पुट के प्रति प्रेम और जागरूकता का उज्ज्वल प्रतीक है।

मलयालम साहित्य का जन्म उसी समय हो चुका था जब केरल में अनेक हिन्दू गणराज्य स्थापित थे। मलयालम की उपलब्ध रचनाओं में सबसे पुराना काव्य ‘रामचरितम‘ है। महाकवि उल्लूर के कथनानुसार यह १२वीं शताब्दी में लिखी हुई रचना है। उसके रचनाकार वीर रामवर्मा हैं जो तिरूअनंतपुरम् के शासक रहे थे। १४वीं और १५वीं शताब्दी में लिखी गई कण्णंश्श कृतियाँ राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत हैं।

उड़िया साहित्य ने भी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध शब्दों की मशाल को प्रज्वलित किया था। मेशचन्द्र सरकार ने प्रथम पूर्णांग उपन्यास लिखा 'पद्म्माली'. फकीर मोहन सेनापती ने प्रथम क्षुद्र गल्प 'रेवती' में अंग्रेजो की दमन कारी नीतियों का विरोध किया है।  फकीर मोहन सेनापती का उपन्यास 'छ माण आठ गुंठ' बहु चर्चित रहा. जमींदारी अत्याचार व अन्ग्रेज़ी शोषण विरुद्ध लिखी गई  इस रचना ने रचना क्षेत्र में क्रान्ति पैदा कर दी थी।

आजादी के लिए संघर्ष का आंदोलन एक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण आंदोलन था जिसने पूरे देश को व्याप्त कर लिया था  और साहित्यिक बंधुता के बीच राष्ट्रीय चेतना के भाव पर जिसने अपना जबरदस्त प्रभाव डाला था। गांधी ने अगुवाई में स्वतंत्रता आंदोलन ने साहित्यिक दुनिया को प्रेरित किया। एक स्वायत्त, स्वतंत्र देश की आवश्यकता उस समय के साहित्य में स्पष्ट परिलक्षित होती है।  ।अंग्रेजी साहित्य में देश भक्ति के गीत रविंद्रनाथ टैगोर ,श्री अरविंदो ,महात्मा गाँधी ,सरोजनी नायडू ,मुल्कराज आनंद ,आर के नारायण आदि ने भारत की आज़ादी के लिए भारतीय मानस में चेतना के प्राण फूंके। सरोजनी नायडू की ब्रोकन विंग्स की ये पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक हैं।

Shall spring that wakes mine ancient land again
Call to my wild and suffering heart in vain?
Or Fate's blind arrows still the pulsing note
Of my far-reaching, frail, unconquered throat?
Or a weak bleeding pinion daunt or tire
My flight to the high realms of my desire?
Behold! I rise to meet the destined spring
And scale the stars upon my broken wing!


हर राष्ट्र-राज्य अपने साहित्यकारों  से देशभक्ति और देशप्रेम की अपेक्षा रखता है।  इसके साथ ही साहित्यकारों का कर्तव्य है कि वो नागरिकों को न्याय, अस्मिता, गरिमा, और सुरक्षा के मुद्दे अपने सरोकारों में शामिल करें। यह साहित्यकारों का ही जीवट था जिसने भारत को स्वतंत्रता का अमृत पिलाया ,साहित्यकारों ने ही भारत के सोये हुए स्वाभिमान को जगा कर आज़ादी के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने का जज्बा जगाया। जिस राष्ट्र के साहित्य में देशप्रेम के स्वर मुखर नहीं होते वो राष्ट्र पतन के गर्त में चला जाता है। 

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: आज़ादी के पूर्व साहित्य में देशभक्ति की भावना // सुशील शर्मा
आज़ादी के पूर्व साहित्य में देशभक्ति की भावना // सुशील शर्मा
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