कविताएँ मुक्ता शर्मा स्पर्श ऐ माँ! तू रोज़ कहानी सुनाती है। आज तू कुछ और सुना ।। चल आज तू मुझे अपनों से बचने का गुर सिखा। सुनाना है तो सुना...
कविताएँ
मुक्ता शर्मा
स्पर्श
ऐ माँ! तू रोज़ कहानी सुनाती है।
आज तू कुछ और सुना ।।
चल आज तू मुझे अपनों से बचने का गुर सिखा।
सुनाना है तो सुना मुझे ,
बताना है तो बता मुझे,
कि करूं मैं कैसे स्पष्ट ।
अपने और पराए और
अच्छे-बुरे का स्पर्श ।।
कुछ स्पर्श मिर्ची से तीखे !
कुछ स्पर्श बिजली के झटके!
कुछ ऐसा जो तेरी कहानियों में न था।
कुछ ऐसा मेरी-तेरी सोच से परे।
यां डरती,हिचकचाती थी
इसलिए शायद नहीं जाती थी ।
पर माँ कसम से ,अगर तूने मुझे समझाया होता ।
तो मैं न घबराता !मैं बनता साहसी !
कि मैं मारूं चीख ,मैं भागूं कि।
बचा लेगी मेरी माँ ।मेरे साथ है मेरी माँ ।
काश ! पिता जी भी सपनों से दूर सच्चाई
का पाठ पढ़ाते तो ।
मैं भी अपने लक्ष्य को पाता !
डाक्टर की डिग्री लेने कालेज में जाता !
दुश्मन से लेता लोहा,आफिसर् बन पाता !
विद्यालय,घर,बस,रिक्शे,गली-कूचे मे रहने वाली
राक्षस जाति को पहचान पाता !
यह क्या हुआ ?रंगों की होली खेलते-खेलते
क्यों यह मेरे खून से होली खेली गई?
क्यों नोच के मेरे पंखों को मेरी उड़ान रोकी गई?
माँ !अब अगले जन्म में यह सब पाठ
तू मुझे पहले ही बता देना ।
गर्भ में ही यह घुट्टी पिला देना।
मेरे दादू ! मेरी दादी !
मेरे भाई !मेरी दीदी !
सबने हर आंच से मुझे बचाया था।
पर कभी इस आग के बारे में न बताया था ।
तो अब माँ तू अपना फ़र्ज निभाना ।
अपनी सखी हर माँ को समझाना ।
उनके संग बैठें,व्यवहार पर रखें नज़र ।
बच्चों के मन को जानें ।
बिमारी है या है कोई बहाना
इस अर्थ को समझें और सच्चाई जानें।
पूछते रहें -रहें सतर्क ।
बच्चों को रहें समझाते ।
यूँ अपना फर्ज निभाएँ ।
स्कूल भी रहे परखता अपने नियमों को ।
सरकारें भी कुछ ठोस कानून बनाएं ।
इन क्रूर नज़रों को निकालने!
उन हाथों को काटने
ऐसे पत्थर दिलों को चौराहे पर
मारने की सज़ा सुनाएं।
माना कि नियम है यह जंगल का।
तो समझाओ कि वह कहाँ के इंसान थे?
मुक्ता शर्मा
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कली
ओस की बूँद सी ।
उजली किरन सी ।
खिली एक कली ।
किसी एक आंगन में
उल्लास था,अहसास था ।।
नए जीवन का आगाज़ का ।।
मदमस्त पवन सी ।।
कुछ पगली कुछ संभली सी ।।
खिलती रही वो उस आंगन में
रंगों से सराबोर था ।।
उम्मीदों से आबाद था ।।
कभी तितली बन
कभी चिड़िया बन
उछलती-कूदती
वह कली खिल गई थी
उस आंगन में
रुकती थी, कभी-कभी
सहम भी जाती थी ।।
आंचल संभाल-संभाल
कर मन में विचार लाती थी ।।
क्यों कठोर क्रूर हाथ
मेरी ओर बढ़ते हैं ।।
मेरा रंग चुराने को गरजते हैं ।।
विडम्बना देख समाज की
वह मन में कसक भरती थी
कि कभी माता का रूप मान
पूजती है दुनिया ।।
तो कभी शाप मान
आँखें दिखाती है दुनिया ।।
फिर अधबुने सपने लिए
अनमने मन से
उस फूल को रोपा गया
कहीं और किसी दूसरे के आंगन में
एक जन्म में कई जन्म लेती
कई संघर्ष करती रहती है ।।
मगर कोई शिकायत नहीं
बस मन मसोस कर चुपचाप ही रहती है ।।
फिर था क्या-बस बार-बार
उसे मारा गया बार-बार जन्म हुआ
काश! कि समझ पाता समाज यह
हर आम और खास की
नहीं धन-दौलत की बस
प्यार के अहसास को
सम्मान के अधिकार को
तरसती रही है
और तरसाती रही है यह दुनिया
चलो अब उठ चलें
यह बात मान कर चलें
कि अब न देंगे बरसने
एक भी आँसू
उस कली की आँख से
देंगे हमेशा मस्त पवन
घर आंगन चाहे
बाहर द्वार के
बेगानी नहीं, अनजान नहीं
बस अपनी बन जाए सारी दुनिया ।।
---मुक्ता शर्मा
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ज़हर के व्यापार
मैं रहीम तू राम कोई ।
मैं मुहम्मद तू शाम कोई ।
धर्म के नाम पर न यूँ खंड किए जाएं ।।
ज़हर के ये व्यापार बंद किए जाएं ।।
यीशु तेरा गुरु मेरा ।
बुद्ध तेरा दिगम्बर मेरा ।
राजनीति के ये झूठे प्रपंच न रचे जाएं ।।
हथियारों के ये दौर रद्द किए जाएं ।।
मैं स्वर्ण तू दीन कहीं का !
मैं दलित तू मनु कहीं का !
यूँ चिंगारियों के न अलाव जलाए जाएं ।।
बात-बात पर देश में न यूँ बंद किए जाएं ।।
ज़हर के ये व्यापार बंद किए जाएं ।।
।।मुक्ता शर्मा ।।
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।।क्या थी मेरी गलती ।।
नन्ही कली ।
मासूम सा चेहरा , थी माँ की लली ।।
संग मदमस्त पवन के, फूलों में पली ।।
अपनी ही उमंग में
फूली-फली थी – थी बढ़ती-चली ।।
संग सहेलियों के,थी अपनी ही गली ।।
पर पता नहीं कब , गई थी छली ।।
की कोशिश पर , बला न टली ।।
थी चीखी मगर , दुश्मन था बली ।।
पैरों तले थी गई मसली-दली ।।
खुदा के बंदों ने ही,थी कालिख मली ।।
चोट की सिर पर,थी माटी में रली ।।
तन से विक्षत,मन से थी जली ।।
कुछ ही दिनों में, जैसे उम्र थी ढली ।।
वो नन्ही सी कली ।
कुछ टेढ़ी-टूटी-कुचली टहनी सी ।
बंद होंठों से – रक्त से सनी ।
समाज से थी पूछती ।।
क्या थी मेरी गलती !!
क्या थी मेरी गलती ??
क्या थी मेरी गलती ???
।।मुक्ता शर्मा ।।
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माँ अब बूढ़ी लगने लगी है—
माँ के जगने से
जगता था घर-आंगन ।।
सूर्य रश्मि छिटक कर ।
धूल पर बिखर कर ।
कर सुरम्य वातावरण
बन जाती थी पावन।।
अब वो माँ निस्तेज सी जगने लगी है।
माँ अब बूढ़ी लगने लगी है ।।
बिट्टू का नाम ले-लेकर ।
सीमा को आवाज दे-देकर ।
प्यार का रस बिखेर कर ।
रौनकें भरती थी जो
अब उसकी जुबान
कुछ शिथिल होने लगी है।
कमर थोड़ी सी झुकने लगी है।
माँ अब बूढ़ी लगने लगी है ।।
मस्त-मस्त थी पवन ।
भीनी-भीनी थी सुगंध ।
पकवानों में अमृत को घोल।
भिखारी के भी पूरे करती बोल।
डर-डर के चौंके में चढ़ने लगी है।
चाय में चीनी कम पड़ने लगी है ।।
माँ अब बूढ़ी लगने लगी है ।।
नसीहतों का बोझ उठा।
सास की हर बात सुन ।
पति के सब नख़रे उठा।
उलझनों को भी लेती बुन।
अब सारा छोड़ बांकपन
उसकी चुप्पी और बढ़ने लगी है ।।
जुबान बहू की छलनी करने लगी है ।।
बिट्टू के भी सिर चढ़ने लगी है ।।
माँ अब बूढ़ी लगने लगी है ।।
रानी इस घर-नगर की ।
दिखती नहीं भई !,गई किधर है ?
टूटा चश्मा कमजोर नज़र है ।
वृद्धाश्रम की विराना डगर है।
अब बीते कल में रहने लगी है ।
अकेली! पगली! क्या रटने लगी है ?
माँ अब बूढ़ी लगने लगी है ।।
।।मुक्ता शर्मा ।।
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कौआ और गिद्ध
निर्जीव का माँस नोचने वाले
सूरत से अलग पर
सीरत से एक-जैसे
देखो गिद्ध और कौआ एक डाल पर बैठे हैं|।
शायद योजना बन है बन रही
कि ढूंढे शिकार कहाँ?
ताज़ा या बासी
इसी उधेड़ बुन में रहते हैं
देखो गिद्ध और कौआ एक डाल पर बैठे हैं||
शायद लालच देकर गोश्त का
चाहता काम निकलवाना है
तभी ,देखो ! गिद्ध और कौआ एक डाल पर बैठे हैं||
एक दिन उस विशाल को
मिला एक अलबेला पंछी छुटकु सा
फूलों से रस निकालता
सुंदर कमर मटकाता सा
हैरान हो गिद्ध ने पूछा, यह है कौन?
यही बतियाते ,गिद्ध और कौआ एक डाल पर बैठे हैं ||
शिकार उसका करना चाहा
शायद शहद से भरा हो यह
जा लेकर आ किसी बहाने
यही राह बनाते ,गिद्ध और कौआ एक डाल पर बैठे हैं||
मध्यम ने कहा ,आका !
वो तो है मासूम सा हम्मिंग पंछी
सुई चोंच तो देखो
कहीं हमारा रस न बिखर जाए
छोड़ो इसे ,यही समझाते
कौआ और गिद्ध एक डाल पर बैठे हैं||
अहंकारी न माना
और विशाल पंखों के नीचे
छुपा लाया||
लहू ही लहू था गिर रहा
कामयाब है गिद्ध ,इन कौओं-गिद्धों की दुनिया में ,
तभी बहुत शोर से कुछ भारी गिरा थपाक !! से, तभी छुटकु सा नन्हीं धड़कन संभाले
लगा फिर फूल रस ढूंढने
अब अकेला कौआ एक डाल पर बैठा है ||
मुक्ता शर्मा
बहुत-बहुत धन्यवाद रचनाकार॰ org
जवाब देंहटाएंमेरी कविताओं को पसंद कर इस पटल पर स्थान देकर सम्मान देने के लिए ।🙏