अपनी ही राख से (काव्य-संग्रह) डॉ. संगीता सक्सेना ग्रंथ भारती दिल्ली- 10051 ISBN 81-88527-30-1 सर्वाधिकार@ लेखिका प्रकाशक ग्रंथ भारती ५-४, गल...
अपनी ही राख से
(काव्य-संग्रह)
डॉ. संगीता सक्सेना
ग्रंथ भारती
दिल्ली- 10051
ISBN 81-88527-30-1
सर्वाधिकार@ लेखिका
प्रकाशक
ग्रंथ भारती
५-४, गली न. 5, वैस्ट कान्तनिगर
दिल्ली-। 110051
प्रथम संस्करण
2०17
अक्षर संयोजक
राजेश लेजर प्रिंट्स
शाहदरा, दिल्ली110032
मुद्रक
राजौरिया ऑफसेट,
नन्दनगरी, दिल्ली! 110093
अपनी ही राख से (काव्य-संग्रह)
डॉ: संगीता सक्सेना
अनुक्रम
1. अनलिखा हुआ
2. कंपन
3. रीतना
4. इंतजार
5. कुछ पल
6. समुद्र के प्रति (पुरी का समुद्र तट)
7. चाहत
8. माँ के प्रति
9. वह औरत
1०. प्यार
11. दिल पर लगी खरोचें
12. मौत से करते हुए मुठभेड...
13 मह मह सुगंध
14. धूर्जटी ने ज्यों बिखरा दिए केश
15. दर्द को साझा कर लें
16. कुछ सपनों की मिट्टी पे रोना...
17. बे-चेहरा खाहिशें...
1 टूटी किरचों को चुनते रहते हैं...
19. सुनते रहना, गुनते रहना
2०. नटखट सूरज जाते-जाते
21. कुहरीली सुबह की चादर को
22. लम्हौं की नन्हीं लड़ियाँ
23. क्या करे स्त्री?
24. ओ रे पागल बादल '
25 मौसम के फगुनाहटी तेवर
२६. ठिठकी-सी एक नन्हीं बूंद
27. अँधेरे से जूझते हुए...
28. अचानक फूट पड़ता है
29. रात कितनी ही गहन काली हो
3०. किरणें बरसाता सूर्य
31 चिकनी हरी पत्ती पर ठहरी
32. दर्द खाद-सा
33. मृत्यु का क्षण
34 खुशबू के झोंके को बांधना
35. गुजल-सा कुछ
36. मैं नदी होती तो...
37. अद्भत जिजीविषा है औरत में
38. प्रेम के नाम पर
39. 16 दिसंबरए 2०13
4०. औरत
41. तितलियों. ..
42. दिल-दरिया में उठ रहा दर्द
43. निशा : उषा
44. अब यहां पर तितलियाँ आती नहीं
45. क्षण
46. कुछ हाइकू
47. जलाती हुई तामस को अग्नि-तिलकित मां!!!
अपनी बात
एक बार किसी ने व्यंग्य से कहा- 'ये बस लिखती ही रहती हो कि कभी कहीं छपता भी है ?' मनोबल तोड़ने की कोशिश से कहा गया यह वाक्य मन की न जाने कितनी ही परतों के भीतर तक चला गया और फिर चोटिल मन से कुछ भी व्यवस्थित लिखा ही न जा सका। फिर फीनिक्स की तरह अपनी ही राख से उबरकर, अपनी कमजोरियों से जूझकर हाथ में कलम पकड़ी। बरसों-बरस मन ही मन में खदबदाते भावों के रेशे इतने उलझ गए थे कि उन्हें सुलझाते-सुलझाते आधा जीवन ही बीत गया।
तमाम बाहरी बेसुरेपन के बावजूद अपने जीवन में भीतर के सुर को पकड़े रखने की कोशिश में कितने ही सृजन-क्षण यूँ ही व्यतीत हो गए। फिर सोचा कि जैसे भी हो इन रेशों को सुलझाकर कुछ बुन ही लिया जाए।
प्रकृति हमेशा से मेरी शरणस्थली रही है। बाहरी विसंगतियों के कारण धूलधूसरित इस जीवन ने प्रकृति में लय करके खुद को बारबार मांजा और धोया है। यही कारण है कि अधिकतर कविताएं प्रकृति-केंद्रित हैं। चूँकि स्त्री हूँ तो उनके जीवन की विसंगतियाँ भी आ ही गई हैं।
कुछ कवितायें शीर्षकहीन भी हैं। कुछ स्कूट क्षण हैं जो कविता-से घटित हो गए, पता नहीं वे कविता हैं या नहीं। बस जो भी भीतर से आया, वही यहां है पोलेंड की नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवयित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का ने कहीं लिखा है कि कविता खरे और सच्चे क्षणों की उपज है और हम अपने जीवन में खरे और सच्चे कम ही हो पाते हैं।
अस्तु, जो भी बुना, जो भी बना, खरा या खोटा, अब तक मेरा था पर अब मेरा नहीं रहा, आप सब का हुआ।
हालाहल को अमृत में बदलने की शक्ति देने वाली परम सत्ता की कृतज्ञ हूँ। उन सबके प्रति आभार, जिन्होंने इस जीवन को ठोका-पीटा।
उनको भी शुक्रिया, जिन्होंने संबल दिया। ग्रन्थ भारती प्रकाशन के प्रति क्रुतज्ञता व्यक्त करती हूँ कि इतने सुन्दर, सुष्ठु रूप में मेरी बात प्रस्तुत हुई। इन सबके ही कारण यह सब इस तरह संभव हो पाया।
डॉ. संगीता सक्सेना
जीवन की अर्धशती पर,
22 मार्च, 2०17
1. अनलिखा हुआ
आम्र बौरों की कसैली सुवास के पृष्ठ पर
फगुनाई हवा रच ही रही थी भूमिका वसंत की.
लेकर पलाशों का चटख्ता रंग
एकाएक अंधड़ घिरा उड़ा ले गया सुवासित पृष्ठ अनरंगे.
कागज पर उतरने से रह गई एक कविता
पर
एक कविता उतर गई मन में
बार बार जिसे दोहराती हूँ बार बार दुहराता है मन
बार-बार यह जीवन ...
2. कंपन
मानस सर में लहरें उठाकर
तुम खो जाते हो कहीं
कहे क्या मालूम कि
तरंगों से घिरी मैं
कितने विषादमय क्षणों को
झेल कर हो पाती हूँ थिर
3. रीतना
तुम्हें आस्थाओं के
आलिंगन में बांधा था मैंने
पर तुम छुटे जाते हो
ज्यों रेत बंधी मुट्ठी से।
4. इंतजार
मोमबत्ती से टपकते पल...
पर्त दर पर्त जम रहे मन पर मेरे
धुँधलाता जा रहा मन
बोझिल होता जा रहा तुम्हारा इंतजार।
5. कुछ पल
कई दिनों के बाद मन पर जमी हुई गर्द
फूँक मारे उड़ गई
देह से पीते हुए सुनहरी धूप को
मैंने महसूसा कि मन हो गया है धुला-पुँछा
नेह से लिपापुता
और अनायास
उकेरने लगा है रंग बिरंगी अल्पना
जीवन की दौड़ से चुराये यह पल
कर गये मुझे ताजादम
पंख-सा मन उड़ गया इधर-उधर।
6. समुद्र के प्रति (पुरी का समुद्र तट)
विदा समुद्र!
तुम्हारे तट पर बिताये हुए क्षणों को विदा!
संजोये हुए हूँ केवल तुम्हारी बहुरंगी छटा. ..
कभी नीलाकाश ही प्रतिबिंबित किये हुए कभी,
सलेटी, धूसर, विराट, कभी शैवाली हरेपन में डोलते हुए
तो रात की कालिमा से भयावह हो उठे कभी
कभी सुबह के पावन श्वेताभ दर्पण में
राग रंजित सूर्य को नमन करते हुए मौन
दौड़ती नटखट लहरें कभी कूदतीं-फांदती,
कभी धीमी गति से बाधा दौड़ लगाती हुई
पीली तितली, नावों को हिलोरती,
तिराती हुई तो कभी धमकाती हुई
समुद्र! तुम्हें देखना
भीतर तक उतारना तुम्हारी तरह असीम हो
जाना क्यों नहीं हो जाता?
समुद्र! विदा
छोड़ कर तुम्हें चली आई हूं
पर तुम हो अभी भी मन में वैसे ही उत्ताल, तरंगायित
फेनिल! विदा कहां हुए?
7. चाहत
बरसों जमती रही चुपचाप कडुवाहट मन में
बरसों बिंधा-बिंधा ये मन
दरारों से अब
फूटने लगी है दर्द की देवापगा
ये बात और है कि बरसों बुनती रहीं
ये अँगुलियाँ रेशमी दुनिया सपनों की
फर्क इतना ही है कि अब काँधे पिराने लगे हैं
दुखने लगा है पोर-पोर
मन का लावा
मन ही मन में
उफनता रहा है बरसों
अब तो फूट ही जाये तो अच्छा हो
मन की धरती हो जाये फिर से उर्वर! हरी भरी,. ..
साँस लेने और कुछ नया सिरजने लायक...
8. माँ के प्रति
अदम्य जिजीविषा हो तुम!
कच्चे घड़े-सी टूटीं पर बिखरीं नहीं
मिटटी बनीं पर गढ़ लिया नया रूपाकार
बरसों कुटी
चाक पर चढीं,
तपती रहीं सदा धूप में
आज जो भी, तुम्हारी छाया
बदल गई हूँ तुममें,
टूटते, बिखरते
मैं भी-
हो गई हूँ तुम-सी ही अब।
9. वह औरत
वह औरत चकरघिन्नी-सी
घड़ी की सुईयों को उनींदे देखती है मन मार
सुबह
उठती है थकी हुई
जूझने को फिर एक नया दिन
यह औरत डीजल के धुएं में
बसों की धकमपेल में
और
बीड़ी की दमघोंटू हवा में तय करती है रोज सफर
सुनती है कानफोड़ू चालू गाने
दफ्तर में झेलती है तनाव
काइयाँ टुच्चापन
लौटती है फिर एक बार
दुहराते हुए वही सब
पस्त बोझिल
कटे पेड़ सी गिरती है औरत
शाम होते ही उसे चिपकानी होती हैं मुस्कुराहटें अक्सर
सूखती हुई 'भूख और छीजते हुए शरीर को लेकर
वह बिताती है फिर एक रात एक और दिन
रोज जूझती है थकती है, पर टूटती नहीं है औरत..
1०. प्यार
ठिठुराती ठंड में जलता हुआ अलाव प्यार है
प्यार है धुंध में घिरे शहर पर सूरज की थाप
गर्म थपेडों के बीच खिलता हुआ पलाश है प्यार
घनी बौछारों में एक छत का है अहसास
प्यार है उगता सूर्य, सरसों पीताभ वसंत,
बौराया सावन सुखी धरती पर
प्यार केवल है एक जिसने बाँधा है
मुझे, तुम्हें, उसे
यही एक पूंजी है खुरचते हुए
जो होती नहीं खत्म!
11. दिल पर लगी खरोंचे
दिल पर लगी खरोंचे
फिर से न हो जाएं हरी
कीटों-लगे पैरों से
फिर कहीं न चलने लगना तुम!
12. मौत से करते हुए मुठभेड...
मौत से करते हुए मुठभेड़
बेतहाशा प्यार किया जिंदगी से...
अंधेरे के मुहाने पे होकर खड़े, आँखों में
भरा फूटता हुआ उजाला.
दमघोंटू दरारों से साँस भर खेंची ताजा हवा...
मन की नम जमी पे उगाए कुछ फूल-पौधे...
जिये कुछ इस तरह से...
कि अब खौफ नहीं मरने का...
13 मह-मह सुगंध...
मह-मह सुगंध..
सब खुले बंध...
जुड़ा ये तन...
अहरह मत्त मन...
फिर आ गया बसंत।
14. धूर्जटी ने ज्यों बिखरा दिए केश
धूर्जटी ने ज्यों बिखरा दिए केश'
मुक्त कर दी
आबद्ध जलधार
लास्य की ऋतु में
ये कैसा तांडव!!!
ओ प्रकृति माँ!!!
15. दर्द को साझा कर लें
दर्द को साझा कर लें,
हां! आधा-आधा कर लें
थोडा-थोडा जी लें,
हां! थोडा-थोडा मर लें ...
16. कुछ सपनों की मिट्टी पे रोना...
कुछ सपनों की मिट्टी पे रोना
और...
फिर फिर
कुछ नए सपने बोना...
इसी में रीत जाती है जिंदगी...
कितनी खूबसूरत है
जिंदगी ...
रोने और बोने में...
बीत जाती है...
17. बे-चेहरा ख्वाहिशें...
बे-चेहरा ख्वाहिशें...
करती हैं बेकल.,
छूने को सूरज
और तब पहनना होता है आंच का बाना...
हमको...
हम सबको...
मोम होंगे तो कैसे छू पाएंगे...
सूरज... अपनी ख्वाहिशों का ?
18. टूटी किरचों को चुनते रहते हैं...
टूटी किरचों को चुनते रहते हैं...
सुनते रहते हैं
खामोशियों को...
बुनते रहते हैं...
ख्वाबों के रेशे-रेशे
इस तरह
ही इस तरह...
ऐ जिन्दगी तुझे हम गुनते रहते हैं...
19. सुनते रहना, गुनते रहना
सुनते रहना, गुनते रहना,
नन्हे लम्हे चुनते रहना...
जिस्म के धागे टूट भी जाएं,
सपने हमेशा बुनते रहना..
20. नटखट सूरज जाते-जाते
नटखट सूरज जाते-जाते भी
छींट देता है रंग चल पर नभ के
धो देता वह उन रंगों को
और
टाँक देता है जरीगोटा किनारी पर
आते-आते उधेड़ देता सूरज
और
फिर रंग देता पूरा-का-पूरा आंचल...
थकता नहीं सूरज रंगते-रंगते,
और धोते-धोते नभ...
अनवरत, अविराम चलती रहती
यह रंग-रास-लीला.
प्रकृति-नटी की...
21. कुहरीली सुबह की चादर को
कुहरीली सुबह की चादर को,
धीरे-से सूरज ने थपका तो ..
तितर-बितर हो गई,
रुई-सी बिखर गई.
गुनगुनी धूप..
कृतज्ञ हुआ मन
22. लम्हों की नन्हीं लड़ियाँ
लम्हों की नन्हीं लड़ियाँ
पूरा जीवन बन जाती हैं...
कभी अश्कों में ढल जाती है,
कभी मुस्कुराहटों में गाती हैं...
23. क्या करे स्त्री?
क्या करे स्त्री?
स्त्री क्या करे??
समा जाए धरती में या
खो जाए आकाश में?
जलकर राख हो जाए आग में या
घुल जाए पानी में,
गायब हो जाए हवा में?
पंचतत्वों का ठीकरा सर पर उठाये. ..
रौंदी जाती अनवरत...
क्या करे वह. ..
कि दरिंदों की आँख से
ओझल हो जाए?
यह देह धरे का दंड उठाये
कब तक भला वह...
पिशाचों के बीच???
24. ओ रे पागल बादल!
ओ रे पागल बादल!
तेरा प्यार रहा है मैंने धरती-सा...
रस-सिक्त, समर्पित हो...
आनत हो फूल-सा...
स्वीकारा है.
कोंपलें उमगती हुई...
यह बूँदें झरती हुई...
.आनत दूर्वा-
मेरी कृतज्ञता...
25. मौसम के फगुनाहटी तेवर
मौसम के फगुनाहटी तेवर देख, फूल उठा सेमल लाल-लाल,
गदबदा उठे पलाश, रास्ते के दोनों ओर दहक गये जंगल...
गेहूँ की सुनहली उँगलियों ने पुकारा मुझे,
आम की बौर लदी शाखों ने रोका..
और, मैंने देखा, हरेक पेड़ पर मौजूद है शगुन फागुन का...
बरस रहे है रंग चहुँ ओर.. .और, मैंने सुना,
' 'तुम कोई ठूंठ हो जो रह जाओ यूं ही अनरंगे
रंगों के इस उत्सव में फीके-फीके ?
बौराई हवा की इन लहरों से अनछुए ही,
सिकुडे रहो अपने बोझ तले ?
ओढे रहो मटमैली चादर खुद पर ? '
सुना मैंने.. .और शरमा गयी मैं,
बरस रहा है रंग, फैल रही है सुगंध.
क्यों रहूं मैं ही फिर अनरंगी, सिकुड़ी-सी ?
और फिर, ओढ़ ली मैंने भी राग-रंगी चुनरिया
ठीक सेमल की तरह,
झाडू लिये विगत-विकार ठीक पलाश की तरह,..
बिखरा दिये केश गेहूं की तरह ठीक-ठीक,
हो उठी उन्मत्त, झूम झुकी ठीक बोर-सी आम की...
घुल गयी उस मुक्तहस्ता के सु-रंग और सुगंध में,
हो गयी खुद भी फागुन-सी...
26. ठिठकी-सी एक नन्हीं बूँद
ठिठकी-सी एक नन्हीं बूँद
सूर्य-तेज को धारते हुए...
है आश्वस्त कि
वह सहेज सकती है...
विराट को...
27. अँधेरे से जूझते हुए...
अँधेरे से जूझते हुए...
दर्द सहें,
टूटे औ' बिखरे...
जगह दें रौशनी को...
28. अचानक फूट पड़ता है
अचानक फूट पड़ता है
अजस्र धाराओं में...
बजता रहता है
चाहे-न-चाहे
धड़कन की ताल पर...
अनहद नाद-सा...
गूंजता रहता है
.अजपा-जाप की तरह...
देह की गहराइयों में पैठ जाता है...
आत्मा के जल में,
बन के कमल
एक दिन अनायास ही....
प्रेम!!!
और हो जाता है
बद्ध जीवन मुक्त-
मुक्ति ही गूत्य है...
प्रेम का...
29. रात कितनी ही गहन काली हो
रात कितनी ही गहन काली हो,
सूर्य को रोक सका है कौन?
उसकी किरण-अंगुलियों
छूकर सुप्त धरा को,
कर देगी अगजग
जगमग...
3०. किरणें बरसाता सूर्य
किरणें बरसाता सूर्य
पिघलती अंधकार की बर्फ
बहती जीवन- धार किलक...
31. चिकनी हरी पत्ती पर ठहरी
चिकनी हरी पत्ती पर ठहरी,
ओस की बूँद,
सूरज को धारण कर-
फिर लय हो गयी उसी में...
32. दर्द खाद-सा
दर्द खाद-सा,
मन की अंधेरी परतों में दबे,
असंख्य स्मृति-बीजों को सींचता है आँसुओं से,
अँखुआती है कुछ कोंपलें
और,
खिल उठते हैं फूल फिर,
बिखर जाती हैं खुशबुएँ...
इस तरह,
दर्द खाद से हो जाता है खुशबू
और
फैल जाता है हर सू...
33. मृत्यु का क्षण
मृत्यु का क्षण
धीरे-धीरे बढ़ती आ रही एक पगचाप तमावृता,
आँखों की चमक छीजने लगी,
फीकी होने लगी मुस्कान,
अचानक घिरने लगा अंधेरा,
गले की नस बंद हो गयी फड़कना,
लील लिया उस तमावृता पगचाप ने
सबकुछ धीरे-धीरे
फिर एक बार मिट्टी हो गयी मिट्टी।
34. खुशबू के झोंके को बांधना
खुशबू के झोंके को
बांधना चाहती हूँ क्यूं भला ?
ये जो मौसम है आज है,
कल नहीं होगा,
रेत ज्यों बंद मुट्ठी में से
झर जाएगा कल,
आज जो है इस तरह,
कल वो पल नहीं होगा।
35. गजल-सा कुछ
दरिया के सामने भी ये तिश्नगी की बात है,
कड़ी धूप में चलते हुए भी चाँदनी की बात है।
तेरी नजर से पिघलती जा रही है दर्द की शमा
राहों की तीरगी में भी तू रोशनी की बात है।
दुनिया -के कायदों का कफस कैद में है दिल
चाहा है तुमको फिर भी ये जिंदगी की बात है।
तेरी मुस्कान की खुशबू से, महक उठी है रहगुजर
दामने-खार में बस एक तू ही खुशी की बात है।
तेरी आँखों के उजाले में खुद को पा लिया है हमने,
होठों से कुछ कहा नहीं ये खामोशी की बात है।
नहीं है सामने लगता है फिर भी तू है यहीं
अपना ही अक्स छू लिया ये बेखुदी की बात है।
36. मैं नदी होती तो...
मैं नदी होती तो...
तुम्हारे सागर-आह्वान पर,
दौडती हुई आती,
हर तटबंध को तोड़कर,
हर बाधा को पार कर,
और समा जाती तुममें...
फिर नहीं बिलगती, न लौटती,
पर
पर मैं नदी नहीं हूँ.
मुझे बिलगना भी है, लौटना भी...
मैं नदी नहीं हूँ
मैं नदी नहीं ही हूँ..
मैं नदी क्यों नहीं हूं ?? ''
मैं धरती होती तो...
तुम्हारी नेह-बारिश से भीग अंखुआ जाती...
पर रीत चुकी हूँ
सबकुछ उलीच चुकी हूँ...
मैं धरती नहीं हूं
मैं धरती नहीं ही हूँ...
मैं धरती क्यों नहीं हूँ??
37. अद्भुत जिजीविषा है औरत में
अद्भुत जिजीविषा है औरत में,
अपनी ही राख से फिर-फिर,
जी उठती है,
अगन पाखी की तरह
खोज लेती है फूल,
इर्द-गिर्द फैले बीहडों में
और मुस्करा उठती है बार-बार...
उसी फूल की तरह बीहडों में भी।
38. प्रेम के नाम पर
प्रेम के नाम पर
उसकी देह के पठारों,
घाटियों और नदियों को चीन्हा होगा
तुमने भले ही
छू नहीं पाए तुम उसके अंतर्कमल को,
चख नहीं पाए 'भीतर के अमृत को...
मथ डाला वहशियाना-सा उसको...
पा न सके कुछ भी...
.अरे! अभागे! वह धरती-सी बिछ गयी
तुम्हारे लिए
तुमने उसे दूब-सा रौंद डाला...
39. 16 दिसंबर, 2०13
16 दिसंबर, 2013
डूबते हुए
बुझती हुई आँखों से देखा होगा उसने,
उन वहशी दरिंदों को...
जिन्होंने पीस डाला था उसकी पंखुरी देह को...
पर,
रौंद न सके उसकी आत्मा को।
टूटती हुई सांसों ने छोडी होगी एक आह. ..
किस दुनिया के हैं ये !!
दरिंदगी की इन्तहा पर, क्या सोचा होगा उसने? ?
यही सोचकर...
दर्द से फट पड़ना चाहता है सीना...
आँखों से फूट पड़ना चाहती है एक नदी...
मगर
मगर नहीं हो पाता कुछ भी मुझसे...
कुछ भी मुझसे हो नहीं पाता...
बस, रह जाती हूँ यूँही पत्थर-सी बन जड़,
क्या करूँ मैं ऐसे नए साल का...
कि रहूंगी जिसमें बनके बस एक मादा? ?
4०. औरत
औरत-1
तितली-उम्र में
बोझ ढोते हुए मुरक जाते हैं उसके कंधे एक बार...
फिर क्या ?
झुके ही रहते हैं ताउम्र...
औरत-2
झुके हुए कन्धों के साथ
घर और बाहर एक कुशल नटीसी
रस्सी पर...
चलती हुई तो
कभी गिरने से
बचती हुई औरत
औरत-3
घर के दुर्ग में,
अपनों के ही
धोबीपाट से पछाडी जाती औरत...
टूटकर बिखरती और
फिर खडी हो जाती औरत
औरत-4
अयाचित प्रेम के मंजीरे पर
थिरकती, गाती, रटती अजपा जाप-सा प्रेम..
फिर इसी प्रेम से
धराशायी होती औरत...
औरत-5
अवसाद के अंधेरों में गम होकर
मृत्यु की कगार से बार-बार लौटती औरत
अंधी गली के मुहाने पर
फूटती किरण को अपने भीतर संजोकर
फिर उजला जाती औरत
औरत-6
मरुथल में जल की तलाश करती अनवरत,
वह असफल
हो जाती खुद भी रेत एक दिन...
औरत-7
उसके ही भीतर कहीं जमते रहते शिला-खंड.
बनते रहते पहाड़
घुमड़-घुमड़कर बरसते रहते बादल. ..
उमड़ता रहता सागर...
धुंधुआते रहते दफन हुए सपनों के चिनगी-कण.
उठते रहते रेत के बगूले कंठ में कहीं...
सहती रहती धरती-सा दुःख कहीं भीतर...
लेकिन फिर भी अँखुए लेते रहते .अंगडाई उसके भीतर कहीं...
पंचतत्व की देह में औरत के...
औरत-8
घर और बाहर
शटलकॉक-सी.
कभी इधर से उधर,
तो कभी उधर से इधर...
गिरती-पड़ती
और फिर संभलती
औरत...
औरत-9
हांफ जाती है औरत,
खुद को छुड़ाने,
जब अष्टपद बन
जकड़ लेती है...
सप्तपदी उसे।
लब्बोलुआब ये कि
तमाम घटिया दाँवों से आदतन
निपटने लगती है वह...
लगातार पछीटी जाने के बावजूद
उठ खड़ी होती है बार-बार अगनपाखी-सी
औरत...
41. तितलियाँ...
तितलियां...
घेरों को तोड़कर, बाड़ों को लाँघकर...
पहुँच जाती है बागों से बीहडों तक...
गुलाबों से भटकटैया तक...
कभी रह भी जाती हैं बिंधकर उनमें...
लेकिन,
ढेरों को तोड़ना, बाड़ों को लाँघना...
बंद नहीं करती तितलियां...
तितलियां, परों से भी हल्की -
छिपाए हुए होती हैं
आँधियों की संभावनाएं
अपने नाजुक परों में...
बागों से बीहडों तक
पहुँच होती है उनकी...
42. दिल-दरिया में उठ रहा दर्द
दिल-दरिया में उठ रहा
दर्द का तूफान है,
कश्ती को बहने से
बचाने का मौसम आ गया।
समेट लूं किसी तरह,
अपने बिखरे हुए हिस्सों को,
उघड़े हुए को फिर से
तुरपाने का मौसम .आ गया।
कही ले के जाएँ
अपनी सादी-सी इस जिंदगी को,
अब तो चकाचौंध जमाने का
मौसम आ गया।
43. निशा : उषा
काली चूनर पर
मोती टॉक, गोटा लगा,
आई चांदनी दबे पाँव-
उतर गयी आँखों में।
आँख खुली,
नील भाल पर
छिटक गया सिंदूर
ओस-भीनी अंजोर
बिखर गयी फूलों पर।
44. अब यहाँ पर तितलियाँ आती नहीं
गीत प्यारे ये हवाएँ गाती नहीं,
दूर तक नजर आती बस रेत है,
पेडों की पत्तियों बुलाती नहीं,
धरती के जख्म रिसे, बन गए दरार,
कोई नदी मरहम लगाती नहीं,
जहां कल थे बागीचे, आज खडे ठूँठ वहाँ,
कहीं कोई खुशबू खिलखिलाती नहीं,
हरी-भरी धरती वीरान हुई जा रही,
पेड़ों की शाखें चहचहाती नहीं।
45. क्षण
क्षण! हां क्षण!
बदलकर रख देता है सब कुछ
एक क्षण वह-
जब धुनकी रुई-सी बादलों में उड़ता-फिरता था उल्लसित मन।
एक क्षण यह भी
जब गर्म तवे पर
पानी की बूंद-सा
छन-से मिट गया सब आवेग, उछाह।
46. कुछ हाइकू
सोया हुआ था...
किसने हिला दिया
मन का जल' ?
सोया था जल
किसने हिला दिया
और खो गया!!
उन्मन मन...
तप्त दुपहरिया-
उड़ता पत्ता...
अनायास ही...
आ गया है वसंत
पतझर में...
निरभ्र नभ...
मुक्त विहंग जैसा-
हो मेरा मन।
47. जलाती हुई तामस को
अग्नि-तिलकित माँ!!!
मैं भी दे सकूँ उस ज्वाला में अपना दाय...
उडाते हुए बह्रि-स्फुलिंग...
कर सकूँ दहन उस सबका...
जो भी अनय-महिषासुर हो ...
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