असहिष्णुता के सुनियोजित प्रोपेगंडा के बरक्स डॉ. आशीष द्विवेदी ( निदेशक, इंक मीडिया इंस्टीट्यूट, सागर) आज के जमाने में लिखा और कहा तो बहुत क...
असहिष्णुता के सुनियोजित प्रोपेगंडा के बरक्स
डॉ. आशीष द्विवेदी ( निदेशक, इंक मीडिया इंस्टीट्यूट, सागर)
आज के जमाने में लिखा और कहा तो बहुत कुछ जा रहा है पर उसमें उतना असर दिखता नहीं है। कारण अंतस से मन, वचन और कर्म को एकाकार कर लिखने वाले गिनती के हैं। शायद इसीलिए वह लेखन शाम ढलते ही किसी अंधेरे कोने में दुबक जाता है। लेखन में मारक क्षमता तभी आती है, जब आपने उस लिखे को जिया हो या महसूस किया हो। अपनी बात को कैसे दस्तावेज बनाकर, तथ्य और तर्क के साथ संप्रेषणीय अंदाज से प्रमाणित तरीके से कहा जाता है, वह कला सिखाती है होनहार लेखक लोकेद्र सिंह की ‘हम असहिष्णु लोग’ यह पुस्तक उस वक्त के घटनाक्रमों का चित्रण है, जिसने अमूमन एक साजिश के तहत इस देश की महान समरस एवं अतिउदारवादी छवि को विकृत करने का कुत्सित किंतु असफल प्रयास किया। इसमें लोकेन्द्र सिंह ने दौ सौ पृष्ठों में 73 घटनाक्रमों की जिस सटीक ढंग से व्याख्या की है, वह हर उस भारतीय को पढ़ना चाहिए जो इस राष्ट्र से प्रेम करता है। मानस के अंर्तद्वंद को खत्म कर ये लेख आपके ज्ञानचक्षु खोल देंगे।
लेखकीय ईमानदारी का हर पृष्ठ गवाह है। कैसे-कैसे प्रपंच रचकर कथित बुद्धिजीवियों द्वारा इस राष्ट्र की अस्मिता को तार-तार करने की शकुनि चालें खेली गईं। वह भी केवल इसलिए कि वे सब ‘असहिष्णु‘ थे- एक विचार, एक व्यक्ति, एक परिवर्तन के प्रति। सो सारे कुंए में ही भांग डालने का काम पूरे प्राणपण से किया गया। क्या साहित्यकार, क्या पत्रकार, क्या फिल्मकार, क्या रंगकर्मी, क्या शिक्षक सभी पिल पडे़ कि देश खतरे में है बचाओ। लोकेन्द्र सिंह ने उन सबकी जमकर खबर ली है, पुस्तक का शीर्षक ही सबको डंक मारता है, उसके शब्दार्थ, निहितार्थ और गूढ़ार्थ सबकी कलई खोल देते हैं। उनके लेखों के शीर्षक भी देखिए क्या सवाल छोड़ जाते हैं- मुसलमानों की पहचान कौन, औरगंजेब या कलाम? जेएनयू के शिक्षकों और नक्सलवादियों का क्या रिश्ता है? उपराष्ट्रपति बताएं कौन-सा भेदभाव दूर करना होगा? ये प्रश्न सिर्फ लेखक के मन में उपजे प्रश्न नहीं, वरन् उन सभी भारतीयों के हैं, जिनके प्रतिनिधि बन उठाए गए हैं। अभिव्यक्ति की आड़ में जिस तरह का देशद्रोह का खेल रचा गया, उस पर लेखक का आक्रोश फूट पड़ा है।
सच मायनो में ऐसे मामलों में बेबाकी से अपनी बात कहना लेखकीय धर्म भी होना चाहिए। यह आनंद का विषय है कि इन तमाम मुद्दों पर वे लगभग बरस पड़ते हैं, किसी को नहीं बख्शते। सभी के मुखौटे बारी-बारी से गिराए गए हैं। वे एक लेख में स्पष्ट करते हैं कि यह देश गांधी और बुद्ध की धरती है, यहां असहिष्णुता जैसे शब्द की कोई जगह ही नहीं बनती। इस दुष्प्रचार के खिलाफ लेखकीय प्रयास अभिनंदनीय है और अनुकरणीय भी। यह पुस्तक सवाल छोड़ती है कि क्या वाकई मीडिया, साहित्य, शिक्षक, कलाकार निष्पक्षता से अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं? क्या महावीर, बौद्ध और गांधी के देश में वाकई असहिष्णुता का माहौल रहा या एक सुनियोजित पटकथा गढ़ी गई? क्या इस तरह के प्रोपेगंडा से वैश्विक मंचों पर भारत की छवि को जो आघात लगा, उसकी भरपाई हो पाएगी? क्या वाकई उपराष्ट्रपति जैसे अहम् पद पर बैठे एक संवैधानिक व्यक्ति द्वारा जो असहिष्णु टिप्पणी की गई, उचित थी? इस तरह के अनेकानेक प्रश्नों को छोड़ती यह पुस्तक नई पीढ़ी के साथ उन सभी को पर्याप्त सामग्री मुहैया कराती है जो असहिष्णुता के आरोपों पर ज्यादा कुछ बोल नहीं पाते, बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं। लोकेन्द्र ने उनके और सबके लिए अपने लेखन से क्रमवार उन सारे प्रकरणों को सामने रखा है, जिसे पढ़कर आप उन तमाम असहिष्णु लोगों की बोलती बंद कर सकते हैं, जो अपने नापाक एजेण्डे से राष्ट्र को विखंडित करने की नाकाम कोशिशों में लगे हैं।
प्रियवर लोकेन्द्र ने जिस समर्पण, निष्ठा, कौशल एवं पवित्र भाव से इस पुस्तक की रचना की है, उसके लिए वे बारंबार साधुवाद के पात्र हैं। आमतौर पर इन माध्यमों पर लेखन और टीका-टिप्पणीयों से परहेज ही करता हूं पर इस किताब को पढ़कर लिखने का मोह संवरण नहीं कर सका। आपकी किसी भी तरह की प्रतिक्रियाओं की परवाह किए बगैर।
कृति- 'हम सहिष्णु लोग'
कृतिकार- लोकेंद्र सिंह
पृष्ठ संख्या- 200
मूल्य- 200 रुपये
प्रकाशक- अर्चना प्रकाशन, भोपाल
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नाग को दूध पिलाते- "हम असहिष्णु लोग"
समीक्षक- डॉ. विकास दवे (समीक्षक प्रख्यात साहित्यकार हैं।)
युवा कलमकार लोकेंद्र सिंह की सद्य प्रकाशित कृति 'हम असहिष्णु लोग' हाथों में है। एक-एक पृष्ठ पलटते हुए भूतकाल की कुछ रेतीली किरचें आंखों में चुभने लगी हैं। संपूर्ण विश्व जब घोषित कर रहा था कि - 'मनुष्य जाति ही नहीं अपितु प्राणी जगत और प्रकृति के प्रति मानवीय व्यवहार की शिक्षा विश्व का कोई देश यदि हमें दे सकता है,तो वह केवल और केवल भारत है।' ऐसे समय में इसी भारत के कुछ कपूत अपनी ही जांघ उघाड़कर बेशर्म होने का कुत्सित प्रयास कर रहे थे। आश्चर्य है कि जन-जन की आवाज होने का दंभ पालने वाले इन वाममार्गी बधिरों को भारत के राष्ट्रीय स्वर सुनाई ही नहीं दे रहे थे। 'अवार्ड वापसी गैंग' की भारत के गांव-गांव, गली-गली में हुई थू-थू को गरिमामयी शब्दों में प्रस्तुत करने का नाम है-'हम असहिष्णु लोग'।
लोकेंद्र पत्रकारिता धर्म के निर्वाह के लिए यायावर की तरह समाज में घूमे हैं, भारत का मन पढ़ने का प्रयास वह सदैव करते रहे हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि यहां का बहुसंख्य समाज समकाल पर जो विचार करता है, उसे अभिव्यक्त करने वाले कलमकार नहीं मिल पाते और जिन बातों को यह जन मन घृणा करता है, उसे कलमबद्ध कर भारत का स्वर बताने वाली एक पूरी की पूरी 'बड़ी बिंदी गैंग' छपाई अभियान में लग जाती है। ऐसे में लेखक ने सामान्यजन के हृदय-स्वर को जिस 'स्टेथस्कोप' के माध्यम से उन्हीं के कानों तक पहुंचाने का प्रयास किया है, उस यंत्र का नाम है-'हम असहिष्णु लोग'।
विषय अवार्ड वापसी का हो, असहिष्णुता का हो या जेएनयू का हो, लेखक की कलम चुन-चुनकर खलनायकों को निर्वस्त्र कर सड़क पर लाने का उपक्रम करती है। खलनायकों की यह चांडाल चौकड़ी जब मर्यादित जननायक को, संगठनों और सामाजिक उपक्रमों को खलनायक घोषित करने का षड्यंत्र रचती है, तब लेखक की लेखनी उन नायकों को अपेक्षित सम्मान प्रदान करने में कोताही नहीं बरतती। जब समाज व्यथित होता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आईएसआईएस से तुलना से जब भारत का मन कांटों पर लोटता है, अपने ही संवैधानिक नेतृत्व उपराष्ट्रपति को 'मज़हबी' होते देख, तब लेखक अपनी स्याही को मरहम का फोहा बनाकर समाज देवता के इन घावों को ठंडक पहुंचाने का काम करता है। ममता का विदेशी घुसपैठियों के प्रति ममत्व, सेना पर प्रश्न खड़े करते बुद्धिजीवी, पत्थरबाजों पर मेहरबान पत्रकार, कैराना से हकाले गए हिंदुओं पर मौन चैनल, केरल के 'लाल हिंसा' के शिकार एक ही विचार के कार्यकर्ताओं की संगठित हत्या, गौ मांस भक्षक के पक्ष में अपनी स्क्रीन काली करते व्यावसायिक चैनल, शिक्षा और कला संस्थानों पर किसी भी राष्ट्रवादी को सहन न करने वाले संकीर्ण 'ढपली गिरोह', आजादी समर्थक और 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' का स्वप्न देखने वाली कुटिल आंखें, सबको उनके हमाम से बाहर निकालता है, यह युवा पत्रकार लोकेंद्र। उनकी इस जीवटता को यह कहकर ही प्रकट किया जा सकता है- 'किन्तु डूबना मझधारों में, साहस को स्वीकार नहीं है।'
सचमुच जिस युवा भारत की कल्पना हम सब कर रहे हैं वह देहाकार में प्रकट होता है, लेखक लोकेंद्र सिंह के रूप में । प्रारंभ में भूमिका रूप में लेखक को आशीर्वाद देते हुए प्रख्यात चिंतक डॉ. रामेश्वर मिश्र पंकज ठीक ही कहते हैं- "लेखक ने इस राष्ट्रद्रोही गिरोह के साथ भाषायी संयम बरता है, अन्यथा वह तो इससे अधिक गरियाए जाने योग्य है।"
अर्चना प्रकाशन भोपाल के अनेक यशस्वी प्रकाशनों में इस कृति का उल्लेख सदैव रेखांकित किया जाता रहेगा।
कृति- 'हम सहिष्णु लोग'
कृतिकार- लोकेंद्र सिंह
पृष्ठ संख्या- 200
मूल्य- 200 रुपये
प्रकाशक- अर्चना प्रकाशन, भोपाल
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