कविताएँ अरविंद भट्ट राधा राधा ! कौन जान पाया तुम्हारे हृदय की पीड़ा, तुम्हारा बिछोह, अंतहीन प्रतीक्षा. तुम दिखती रहीं हमेशा प्रतिमाओं में कृष...
कविताएँ
अरविंद भट्ट
राधा
राधा !
कौन जान पाया
तुम्हारे हृदय की पीड़ा,
तुम्हारा बिछोह, अंतहीन प्रतीक्षा.
तुम दिखती रहीं हमेशा प्रतिमाओं में
कृष्ण के साथ, प्रेम के प्रतिरूप में.
और सकल संसार ने भी
देखा तो मात्र कृष्ण को
कृष्ण-राधा युगल को.
पर कोई नहीं देख पाया तो बस राधा को
कृष्ण से बिलग राधा को.
नहीं समझ पाया तो
होंठों पर विलसित मुस्कानों के साए में
अंतहीन प्रतीक्षारत राधा को.
प्रेम त्याग का आकांक्षी होता है
और तुम तो प्रेम में त्याग के
अंतिम सोपान से भी परे थीं.
कुछ शेष नहीं था उसके पश्चात् त्यागने हेतु.
बचा भी क्या था तुम्हारे पास
त्यागने के लिए
मात्र नश्वर शरीर के अलावा.
पर तुम नहीं त्याग सकती थीं उसे भी
त्यागती भी तो कैसे
कृष्ण के कमलनयनों की साक्षी थी ये देह
उनकी एक-एक लीलाओं का
प्रत्यक्ष प्रमाण थी यह देह
उनके साथ व्यतीत अलौकिक क्षणों का
प्रसाद थी यह देह.
प्रेम के परिभाषा की
नयी व्याख्या थीं तुम राधा
तुम प्रेम की पर्यायवाची थीं
अथवा प्रेम राधा का.
यह अबूझ प्रश्न,
प्रश्न बनकर अंकित हो गया
काल के ललाट पर सदा सर्वदा के लिए.
धन्य हो गया था प्रेम शब्द
राधा के संसर्ग में
एक नए अर्थ के साथ,
नए आयाम के साथ.
पर कितना मूल्य चुकाया था राधा ने
कौन जान पाया.
कृष्ण शब्द राधा के बिना अपूर्ण है
और राधा ही है कृष्ण शब्द की पूर्णता,
कृष्ण की पूर्णता, प्रेम की पूर्णता.
पर यह भी इतना ही सत्य है की
कोई नहीं समझ पाया
कृष्ण-राधा की युगल प्रतिमाओं में परिलक्षित
राधा के भुवन मोहिनी मुस्कान में छिपी वेदना,
और न ही कोई देख पाया
अश्रुओं से भीगी पलकों के पीछे की
पीड़ा, बिछोह
और एक अंतहीन प्रतीक्षा को.
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माटी
कभी पूछा था किसी ने मुझसे
आखिर माटी का मोल होता ही क्या है
रज कण ही तो हैं.
मैं कोई उत्तर नहीं दे पाया था.
ऐसा नहीं था कि
उत्तर के लिए पर्याप्त शब्द बोध
नहीं था मेरे पास,
और ऐसा भी नहीं कि
मेरे मौन ने हस्ताक्षर कर दिए थे
उसके सहमति पत्र पर.
मैं असमंजस में था
उसकी अनभिज्ञता और अतिवादिता को लेकर
शायद ही वो आत्मसात कर पाता
मेरे उत्तर की गंभीरता को, उसके मर्म को.
काश उसने महसूस किया होता कभी
बारिश की पहली बूंदों से उठने वाली
माटी की सोंधी मादक सुगंध को,
काश उसने देखा होता कभी
माटी में लथपथ, जूझते, खटते किसानों को
महसूस कर सकता
माटी से जुड़े उनके सरोकारों को,
काश वो अनुभव कर पाता
देह में समाहित माटी को
समझ पाता
देह के माटी में विलय के चरम सत्य को.
कितना अच्छा होता
यदि उसने पूछा होता
माटी में खेलते, लोटते बच्चों से
उनके अल्हड़पन से.
अखाड़ों में स्वेद बहाती देहों से,
माटी के कच्चे घरों में बसने वालों से
सने हाथों माटी को आकार देते कुम्हारों से
कितना अच्छा होता
यदि पूछ पाता वो
घट की शीतलता से, जलते दीयों से,
दीयों की टिमटिमाती शिखाओं से.
काश वो पूछ पाता और जान पाता
माटी के मोल को उसके सार को ,कि
जन्म का मूल है माटी
जीवन का अंतिम वरण है माटी
आदि है, अंत है माटी
समस्त कालचक्र की साक्षी है माटी.
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स्वप्न
आऊँगा मैं
आज तुमसे मिलने
रात्रि के प्रथम प्रहर में
थामे निंदिया का दामन
हो मन के पंखों पर सवार
तुम्हारे स्वप्नों में.
दे देना निद्रा को आमंत्रण
समय रहते ही.
कही ऐसा न हो कि
सपनों की प्रतीक्षा में
उसकी आकुलता में
रह जाये निशा का आमंत्रण
तकिये के सिराहने ही.
कह देना अंखियों से भी
कि कर ही लें जल्दी आने की मनुहार
धीरे से निशा के कानों में कि,
आ जाये अपना आंचल फैलाये
मंद पवन के साथ.
कर लेना कुछ जोड़-जतन
शशि-तारों से भी कि
आ जाएँ निशा के संग-संग
कुछ बेला पहले ही.
फिर तुम विस्मृत कर
जग की दुनियादारी को
उसके क्रिया कलापों को,
मंद पवन में लिपटी,
निशा के अंधियारे में लुकते-छिपते,
शशि-तारों के साए में,
कर ही देना समर्पित
पलकों को निद्रा के आगोश में.
फिर आऊँगा मैं
तुम्हारे सपनों के संसार में,
निर्बाध, निडर, बिना किसी भय के.
न किसी की पीछा करती दृष्टि होगी
न ही तुम्हें छिपते-छिपाते आने की ज़हमत.
फिर चल पड़ेंगे हम दोनों ही
कल्पना के रथ पर सवार,
प्रेम के मोती चुनने
अपने सपनों के देश में.
बस इतना करना
आज देना सहेज
अपनी अंखियों को,
शशि-तारों की पलटन को
कि आ जाएँ समय रहते
निशा के आँचल में निंदिया के साथ.
ऐसा न हो कि
कहीं जगते रह जाएँ यह स्वप्निल नयन
नींद की आस में
स्वप्नों की आस में
अपने मिलन की आस में.
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बजरंग नगर मोड़
तुम्हें याद है
बजरंग नगर की पक्की सड़क का
अपने गाँव वाला मोड़?
पता नहीं ऐसा क्या था
बजरंग नगर के उस मोड़ पर
एक अजीब सा नाता जुड़ गया था उस जगह से.
चार-छह झोपड़ीनुमा चाय की दुकानें
कुछ किराने की भी
कभी कभी इन्हीं दुकानों में कोई काकी
समोसे भी बनाती दिख जाती थी.
एक और खास पहचान थी उस मोड़ की
चिलबिल और बबूल के पेड़ों की श्रृंखला.
रोडवेज बस से
कादीपुर स्टेशन से आगे बढ़ते ही
सब कुछ अपना-अपना सा लगने लगता था.
जैसे जैसे गाड़ी आगे बढ़ती थी
मन की सुरसुराहट बढ़ती जाती थी
और वो उत्तेजना, सरगर्मी
उसी मोड़ पर आकर ही विश्राम पाती थी.
वहीं उसी मोड़ पर अक्सर
अगवानी के लिए इंतज़ार में खड़े लोग
किसी भी बस को देखते ही
चौकन्ने हो जाते थे.
अंततः उनमें से किसी एक में हम
दिख ही जाते थे.
कोई न कोई गाँव से आ ही जाता था लेने
साईकिलों पर, गाहे बगाहे स्कूटर से भी.
हमारी अटैचियाँ, सामान
सब बांध जाता था साईकिलों पर.
और फिर एक पलटन चल पड़ती थी
विजयी भाव से अपने पड़ाव की ओर.
टेढ़ी-मेढ़ी कच्ची चकरोडों से आगे बढ़ते
खेतों बागों को निहारते,
अशोकवा की बाग़ में सुस्ताते
कब गाँव का सगरवा आ जाता था
पता ही नहीं चलता था.
सगरवा और सरपत का झुण्ड
दोनों ही एक दुसरे के पूरक थे.
सगरवा के बाद
हमारे खेतों की श्रृंखला शुरू हो जाती थी
और अपने ट्यूबवेल तक आते-आते तो
पेड़ों के झुरमुट में छिपा अपना गाँव भी
कनखियों से देखने लगता था.
आते-जाते लोगों का कुशलक्षेम पूछना तो
पक्की सड़क के मोड़ से ही शुरू हो जाता था.
आगे बढ़ते क़दमों में
धीरे-धीरे उत्तेजना भरती जाती थी.
गाँव के छोर पर खड़ी दादी
हाँथ में पानी का लोटा थामे
सगरवा के सरपतों में से
हर आने वालों को निहारा करती थी हमारी आस में.
कभी कभी तो कोई बच्चा
साईकिल से कैंची चलाता भागा जाता था
हमारी दूरियों का टोह लेने
दादी के अघोषित संदेशवाहक थे वो सब.
वारती थीं दादी सभी टोने-टोटकों को
उसी लोटे के जल से
तब जाकर खुल पाता था अदृश्य प्रवेशद्वार
अपने गाँव का, घर का.
सामने ही दिख जाते थे
सियवहा, विशनहवा सहित सारे पेड़
अपनी बाहें फैलाये, आशीर्वाद देते.
मुझे सब याद है
कुछ भी नहीं भूला.
पर धीरे-धीरे दूरियों को तय करने का समयांतराल
बहुत ही कम रह गया
अब किसी को साईकिल पर कैंची मार कर
किसी की टोह लेने की जरूरत नहीं पड़ती
सब मोबाईल से पता लग जाता है
अब मोड़ पर कोई इंतज़ार नहीं करता
इंतेजारी ख़त्म हो गयी
कच्ची चकारोडें ख़त्म हो गयीं
रह गया तो बस वो बजरंग नगर का मोड़ और दूरियां
मन की दूरियां
रिश्तों की दूरियां
अपनों से अपनों की दूरियां.
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अरविन्द भट्ट
06:10 pm
03 June 2018
कविता के क्षेत्र में अरविंद भट्ट जिस तन्मयता से सक्रिय हैं प्रशंसनीय है। सामाजिक जीवन का यथार्थ इनकी रचनाधर्मिता की प्रमुख विशेषता है। कविताएँ अच्छी लगी। शुभकामनाएं।
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