चौमासा घिर रहे होंगे जब आकाश में बादल देव जा रहे होंगे शेष शैया पर शयन को बरसेगी मानसून की पहली बारिश तड़पेगा कालिदास का यक्ष प्रियतमा क...
चौमासा
घिर रहे होंगे जब आकाश में बादल
देव जा रहे होंगे शेष शैया पर शयन को
बरसेगी मानसून की पहली बारिश
तड़पेगा कालिदास का यक्ष
प्रियतमा के वियोग में उदास अकेला
आषाढ़ शुक्ल पक्ष की हरिशयनी एकादशी से
शुरू होगी हमारी कृषि यात्रा
हल प्रवहण, वीजोप्ति, पौध – रोपण
जैसे चले जाते हैं भूख मिटाने को
क्षितिज तक बकुल – झुंड
आती रहेंगी दक्ष राजा की भुवन मोहिनी पुत्रियाँ
कभी दूज , चौथ , पूनों सा अनुराग लिए
मृगशिरा के गमन करते ही आर्द्रा लाएगी पियूष वर्षी
मेघों के समूह / सारी धरती हो जाएगी जल - थल
पुनर्वसु आएगी हरी साड़ियों में लिपटी हुई
बारिश से बचने मत जाना तुम महुआ - कहुआ पेड़ों के पास
सघन बूंदों के बीच गिरती बिजलियाँ दबोचेंगी तुम्हें
खड़ा न होना बड़हल , जामुन के तनों के पास
अरराकर टूटेगी डालियाँ / बरखा मुड़ – मुड़कर भिंगों देंगी तुम्हें
पुत्र शोक में रोयेगी पुष्य वह मड्जरनी
रिमझिम फुहारों से तृप्त हो जायेगी धरती की कोख
बिलबिलाकर अंकुरित हो जायेंगे बरसों के सोये बीज
अश्लेशा , मघ्घा नक्षत्रों की बेवफाइयों को याद करेगा
मुनेसर मेड़ों पर घास गढ़ता हुआ -- सन् 66 का अकाल
आएगी फाल्गुनियां पूर्वी हवाओं के साथ मदमाती
उत्तरा उतरेगी भूमि पर खारा बूंदों के साथ
जलाती हुई हमारे अभिलाषा के पसरे लत्तरों को
हहराती – घहराती पवन वेगों - सी आएगी हस्त
लोहा, ताम्बा, चांदी, सोना, पावों वाले हाथी पर सवार
बढ़ जायेगा नदी का वेग / जुडा जायेंगे खेत
चित्रा व स्वाती की राह देखेंगे किसान
निहारते धान की बालियाँ
जब पक रही होंगी उसकी फसलें
गुलामी से मुक्त हो रहा होगा तब कालिदास का यक्ष
कार्तिक शुक्ल पक्ष हरिबोधिनी एकादशी को
चिरनिद्रा से जागेंगे देव , कठिन दिनों में सबका साथ छोड़ सोने वाले
जैसे बालकथा ‘मित्रबोध’ में खतरा का संकेत होते ही
एक – एक कर टूट जाती है मित्रता की अटूट डोर
तब चतुर्मास के दुखों का पराभव हो चूका होगा
कृषक मना रहे होंगे फसल कटने के त्यौहार
उम्मीदों के असंख्य पंखों पर होकर सवार .
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देखना फिर से शुरू किया दुनिया को
उस भरी दुपहरी में
जब गया था घास काटने नदी के कछार पर
तुम भी आई थी अपनी बकरियों के साथ
संकोच के घने कुहरे का आवरण लिए
अनजान, अपरिचित, अनदेखा
कैसे बंधता गया तेरी मोह्पाश में
जब तुमने कहा कि
तुम्हें तैरना पसंद है
मुझे अच्छी लगने लगी नदी की धार
पूछें डुलाती मछलियाँ
बालू, कंकडों, कीचड़ से भरा किनारा
जब तुमने कहा कि
तुम्हें उड़ना पसंद है नील गगन में पतंग सरीखी
मुझे अच्छी लगने लगी आकाश में उड़ती पंछियों की कतार
जब तुमने कहा कि
तुम्हें नीम का दातून पसंद है
मुझे मीठी लगने लगी उसकी पत्तियां, निबौरियां
जब तुमने कहा कि
तुम्हें चुल्लू से नहीं, दोना से
पानी पीना पसंद है
मुझे अच्छी लगने लगी
कुदरत से सज्जित यह कायनात
जब तुमने कहा की
तुम्हें बारिश में भींगना पसंद है
मुझे अच्छी लगने लगी
जुलाई – अगस्त की झमझम बारिश, जनवरी की टूसार
जब तुमने कहा की यह बगीचा
बाढ़ के दिनों में नाव की तरह लगता है
मुझे अच्छी लगने लगी
अमरुद की महक, बेर की खटास
जब तुमने कहा कि
तुम्हें पसंद है खाना तेनी का भात
भतुए की तरकारी, बथुए की साग
मुझे अचानक अच्छी लगने लगीं फसलें
जिसे उपजाते हैं श्रमजीवी
जिनके पसीने से सींचती है पृथ्वी
तुम्हारे हर पसंद का रंग चढ़ता गया अंतस में
तुम्हारी हर चाल, हर थिरकन के साथ
डूबते – खोते – सहेजने लगी जीवन की राह
मकड़तेना के तना की छाल पर
हंसिया की नोक से गोदता गया तेरा नाम, मुकाम
प्रणय के उस उद्दात्त क्षणों में कैसे हुए थे हम बाहुपाश
आलिंगन, स्पर्श, साँसों की गर्म धौंकनी के बीच
मदहोशी के संवेगों में खो गये थे
अपनी उपस्थिति का एहसास
हम जुड़ गए थे एक दूजे में, एकाकार
पूरी पवित्रता से, संसार की नज़रों में निरपेक्ष
मनुष्यता का विरोधी रहा होगा वह हमारा अज्ञात पुरखा
जिसने काक जोड़ी को अंग – प्रत्यंग से लिपटे
देखे जाने को माना था अपशकुन का संदेश
जबकि उसके दो चोंच चार पंख आपस में गुंथकर
मादक लय में थाप देते सृजित करते हैं जीवन के आदिम राग
पूछता हूँ क्या हुआ था उस दिन
जब हम मिले थे पहली बार
अंतरिक्ष से टपक कर आये धरती पर
किसी इंद्र द्वारा शापित स्वर्ग के बाशिंदे की तरह नहीं
बगलगीर गाँव की निर्वासिनी का मिला था साथ
पूछता हूँ कल-कल करती नदी के बहाव से
हवा में उत्तेजित खडखड़ाते ताड के पत्तों से
मेड के किनारे छिपे, फुर्र से उड़ने वाले ‘घाघर’ से
दूर तक सन्-सन् कर सन्देश ले जाती पवन-वेग से
सबका भार उठाती धरती से
ऊपर राख के रंग का चादर फैलाए आसमान से
प्रश्नोत्तर में खिलखिलाहट
खिलखिलाहटों से भर जाती हैं प्रतिध्वनियाँ
यही ध्वनि उठी थी मेरे अंतर्मन में
जब तुमने मेरे टूटे चप्पल में बाँधी थी सींक की धाग
देखना फिर से शुरू किया मैंने इस दुनिया को
कि यह है कितनी हस्बेमामूल, कितनी मुक़द्दस.
*********.
दिल्ली की सड़कों पर किसान
(20-21 नवम्बर, 2017 को देश भर के किसानों का दिल्ली में महाप्रदर्शन)
छा गए हैं दिल्ली की सडकों पर
चूहों जैसी मज़बूत दाँत लिए किसान
खेत मजदूर , आदिवासी , भूमिहीन
बंटाईदार , मत्स्यपालक
कुतरने के लिए पूँजीवादी शासन की चोटियाँ
हाथों में बैनर , झंडे , प्लेकार्ड , फेस्टुन थामे
सर पर कफ़न जैसे अभियान का स्कार्फ
बाजुओं में प्रदर्शन की पट्टियां , तन पर शैश बांधे
मुख में नारों की बोल लिए
रामलीला मैदान से संसद मार्ग की राह में
जिनके प्रतिरोध के स्वर से
दुबक गए हैं दिल्ली के वनबिलाव , लकडबग्घे
ये शेरशाह सूरी या बाजीराव पेशवा की तरह
तलवारबाजी आजमाने कूच नहीं किये हैं सत्ता के केंद्र में
उनका मकसद राजमुकुट पाना नहीं है फिलहाल
उनके स्वर से छलक रहा है खेती के संकट की छटपटाहट
फसल उत्पादन का न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने का दर्द
कर्जों में डूबे किसानों की चिन्ताएं
आत्महत्या करते खेतिहरों की ब्याकुलतायें
बड़े बांधों , ताप बिजली घरों से विस्थापन की कसमसाहट
कीट व पर्यावरण की क्षति , फसलों के नुकसान
ग्रामांचलों में बढ़ते माफिया तंत्र के दबाव
पुलिस फायरिंग में मरते कृषक – मुक्ति के वीर
मनरेगा जैसी सरकारी योजनाओं में
भयंकर लूट से उपजी बेचैनियाँ
थिरक रहीं थीं देश भर से जुटे कृषि योद्धाओं के चहरे पर
कौन है वह शातिर चेहरा
जो छीन रहा है जनता से कृषि योग्य भूमि का अधिकार
सेज, हाइवे , बांधों , रेलखंडों के नाम
कौन बुला रहा है विदेशी कंपनियों को
कार्पोरेट खेती कराने, एग्रो प्रोसेसिंग इकाइयां
बनाने के लिए हमारी छाती पर मूंग दलते हुए
हाइब्रिड बीजों , केमिकल खादों , जहरीली दवाओं
महँगे यंत्रों से कौन चीरहरण करना चाहता है
हमारी उर्वरता का......??
वर्ल्ड बैंक , विश्व ब्यापार संगठन या अमेरिका के
ठुमके पर थिरकती हमारी केंद्र , राज्य सरकारें
तो आतुर नहीं है इस आत्मघाती खेल में
किसानों से छीन लेने को सामने के भोजन की थाली
लूट लेने को धान , कपास , मकई के खेतों की हरियाली
झुलसा देने को उनके चेहरे की उजास भरी रेखायें !
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धोबहीं के सिवान पर धमाका
खौफनाक बारूदी धमाकों से
काँप उठा है धोबहीं गांव
पगहा तूरा कर भागने लगे हैं पशु
पेड़ों पर घोसले में आराम करते पंछी
घरों में सोये नर-नारी, अबाल-वृद्ध
मामूली नहीं है धमाका
यह अनुगूंज है आने वाले समय की
विश्वास नहीं, तो कान लगाकर सुनो तड़प पृथ्वी की
गंगा के मैदानी इलाके के ये गॉव
पूँजीवादी बुलडोजरों के पांवों तले कुचले जाने हैं
प्राकृतिक तैलीय पदार्थों की खोज के नाम पर
छीनी जानी है सदियों से अन्न उपजाती भूमि
युगों से एक दूजे के सुख-दुख को बांटते
गरीब मेहनतकशों का ठिकाना
उनकी खुशहाली की रंगत बदलने ही वाली है, अब
पहाड़ों, पठारों, नदियों, समुद्रों, रेगिस्तानों को
लालचों की हवष में रौदने वाले सौदागरों ने
पेट्रोलियम मिलने की संभावना पर खोद डाले हैं
हमारे आंगन, जिसके जख्मों से टीस रही है धरती की छाती
एरियर, सेटेलाईट के टू स्पीव सर्वे से ताबड़तोड़ बटोरा जा
रहा है कम्प्यूटर से डाटा, जिसे भेजा जा रहा है देहरादून के लैब में
चिन्हित जमीनों पर पाईप धंसाकर समेटा जा रहा है भूगर्भ का नमूना
फिर थ्रीडी सर्वे के नाम पर लूट ली जायेगी कृषि योग्य भूमि
रौंद दिये जायेंगे किसानों के पसीने से सिंचित हरे-भरे खेत
बेदखल हो जायेंगे मेहनत-मजदूरी करते परिवार
अपनी जन्मभूमि, कर्मभूमि से
स्थापित होगा जब भीभाकाप कारखाना ओ0एन0जी0सी0 का
मिट जायेगा गांव का नाम धोबहीं, मोहनपुर, जटुली टोला
कट जायेंगे दिन-दुपहरिया में लू से बचाते गांव की लाज को
पीपल, पाकड़, बरगद, महुआ के पेड़
बगल में निर्मल जलधार लेकर चलती नदी
ठिठुर जायेगी कचरे के दलदल में
खेत-मैदानों में छापा हरा रंग झुलसकर पड़ जायेगा नीला
जैसे ही लगेगा पेट्रोलियम प्लांट गांव की सीमा में
एक अत्याधुनिक शहर से विस्थापित हो जायेगा गांव
उसका खान-पान, गीत-गान, बोल-चाल, रहन-सहन
सरे आम बिक जायेंगे खेत, नदी, तालाब, पेड़, मनुष्य
देह व्यापार को विवश कर दी जायेंगी
दनादन साइकिल चलाकर स्कूल जाती हुई बच्चियाँ ...!
*********.
जन्मा था अँधेरे में
बांस में फूटती है कोंपल
ईख के पोरों में बहती है मीठी धार
रिसता है नदी का तलछट
पतझड़ के बाद टुस्सों से
भर जाती है पाकड़ की टहनियां
अंकुर होती है कोई उम्मीद बीच पठार में
वैसे ही जन्मा था अँधेरे में
जैसे थिरकती है हवा में
ढिबरी की जलती लौ
मेरे आने के समय
शासकों की तन गयी थी निगाहें
उसकी जलती आँखें कोड़े
बरसा रही थीं हमारी नन्हीं पीठ पर
उसके द्वारा भेजी गयी पूतना
संखियाँ घोल रही थी हमारे भोज्य में
पृथ्वी के इस कोने से उस कोने तक
खोजता रहा फिलिस्तीनियों की तरह बसेरा
अपने हिस्से की मिटटी – गंध
दालमोठ की तरह स्वादिष्ट लगी मुझे
अपने हाथों से खोदा कुआं का जल
मिटाता रहा बरसों की तृष्णा
अपनी सतरंगी खुशियों को खोजते रहे
अनवरत मेरे पाँव !
********.
जिन्दा जवाहरलाल
वह कभी देश का प्रधानमंत्री नहीं रहा
जिसका लोग रेडियो, टी० वी० पर भाषण सुनते
किन्हीं ग्राम पंचायत का वह मुखिया भी नहीं
जो अपनी मूंछों पर हाथ फेरते निठल्ले लोगों पर रौब जमाता
वह फ़िल्मी हीरो भी नहीं
जिसके पीछे फैन्स की जमात होती, नामवर क्रिकेटर भी नहीं
दुनियां की नज़रों में गुलर का फूल बना
जीवित घूमता एक परछाई, जिससे कोई बात भी नहीं करता
बक्सर की भीड़ भरी सड़कों पर
धोती – कुर्ता – बंडी - टोपी पहने
साईकिल पर सवार अधेड़ है वह
उसे देखकर अचंभित नहीं होते बूढ़े, नौजवान
बच्चों ने कभी उसे नहीं माना ‘चाचा नेहरु’
स्कर्ट मिडी पहनी लड़कियां कभी सेल्फी नहीं लेतीं उसके साथ
कहता है मुनीम चौक का पानवाला
उसके किस्से – कैसे सशरीर जीवित होकर भी बन गया वह मृत प्राणी
किशोरावस्था में पनपी थी उसे सुदूर को देखने की उत्कंठा
घर से बिना बताये वह चला गया चित्रकूट
करता गया यात्रायें – दर – यात्रायें
समुद्र को निकट से देखने की तमन्ना
अनगिनित नदियाँ, असंख्य पहाड़, झील, हरे – भरे मैदान
उसे खींचते रहे दशकों तक.
थार मरूभूमि में
वह घूमता रहा भूखे पेट, लोभ – लाभ के लालचों से विलग
लम्बे सफ़र से लौटा जब वह अपने घर
अजनबी हो चुकी थी उसके लिए यह दुनिया
सम्बन्धी पुतला फूंककर कर चुके थे उसका श्राद्ध-कर्म
पत्नी छोड़ चुकी थी सुहाग की निशानियाँ
बच्चे पितृहीन होकर खो गए थे अपना बचपन
माता – पिता उसकी चिंता में छोड़ चुके थे जहान
सरकारी अभिलेखों, लोग – बाग़ की स्मृतियों में
वह अब हो चूका था मृत व्यक्ति
खो चूका अपनी नागरिकता
मतदान, राशन पाने का अधिकार
घर के लोगों ने मानने से इंकार कर दिया
कि वह है उसके परिवार का एक जरूरी सदस्य
रिश्ते – नातों के सातों फाटकों पर जड़ दिए गए वज्र ताले
वह चिल्लाता रहा कि वही है वास्तविक व्यक्ति
कल्पित ‘लहवारे’ से लौटा कोई ईश्वरीय कृपा पात्र नहीं
वह गवाही देता रहा पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, आकाश से
मौन साधे रहे सब, दो मिनट के शोक की चुप्पी
लिखता रहा खड़िया से बड़े – बड़े अक्षरों में लिखावट
रेलवे स्टेशन, चौक, मुख्य सड़कों की दीवालों पर
उजास भरी इबारत, अपनी उपस्थिति का पुख्ता सबूत
‘ जिन्दा जवाहरलाल’ , ‘जिन्दा जवाहरलाल’.
********.
कौन है वह
कौन खोद रहा है हमारे कोनसिया घर का कोना
जिसमें रखा गया है बड़ी जतन से मडुए के देशी बीज
कौन है चुपके से उड़ा ले जाने वाला
हमारे पत्तल से घरेलू व्यंजन
वह इस नई सदी का नए चाल का ठगहारा होगा
जो नित नयी मोबाइल कंपनियों के उत्पादों से
मचोट रहा है हमारे बच्चों की कोमलता
वह जालसाज तो नहीं जो हमारी मिटटी में जन्मी
दुधारू पशुओं को ले जा रहा है बूचडखाने में
बदले में लौटाते हुए फ्रीजियन जर्सी नस्ल की गायें
वह जरूर ही गिरहकट होगा इस दौर का
जो आम , जामुन , पाकड़ , बरगद , पीपल को काटता हुआ
सलाह देता है लिप्टस, पापुलर, कैक्टस के जंगल लगाने को
वह कौन है ?
जो खिसका रहा है हमारे पांवों के नीचे की मिट्टी
जो हमारा बोझ थामती आई है सदियों से .
*********.
गूंगी जहाज
सर्दियों की सुबह में
जब साफ़ रहता था आसमान
हम कागज़ या पत्तों का जहाज बनाकर
उछालते थे हवा में
तभी दिखता था पश्चिमाकाश में
लोटा जैसा चमकता हुआ
कौतूहल जैसी दिखती थी वह गूंगी जहाज
बचपन में खेलते हुए हम सोचा करते
कहा जाती है परदेशी चिड़ियों की तरह उड़ती हुई
किधर होगा बया सरीखा उसका घोसला
क्या कबूतर की तरह कलाबाजियाँ करते
दाना चुगने उतरती होगी वह खेतों में
कि बाज की तरह झपट्टा मार फांसती होगी शिकार
भोरहरिया का उजास पसरा है धरती पर
तो भी सूर्य की किरणें छू रही हैं उसे
उस चमकीले खिलौने को
जो बढ़ रहा है ठीक हमारे सिर के ऊपर
बनाता हुआ पतले बादलों की राह
उभरती घनी लकीरें बढ़ती जाती है
उसके साथ
जैसे मकड़ियाँ आगे बढ़ती हुई
छोडती जाती है धागे से जालीदार घेरा
शहतूत की पत्तियाँ चूसते कीट
अपनी लार ग्रंथियों से छोड़ते जाते हैं
रेशम के धागे
चमकते आकाशीय खिलौने की तरह
गूंगी जहाज पश्चिम के सिवान से यात्रा करती हुई
छिप जाती है पूरब बरगद की फुनगियों में
बेआवाज तय करती हुई अपनी यात्रायें
पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण निश्चित किनारों पर
पीछे – पीछे छोड़ती हुई
काले – उजले बादलों की अनगढ़ पगडंडियां.
नोट – हमारे भोजपुरांचल में ऊंचाई पर उड़ता बेआवाज व गूंगा जहाज को लोगों द्वारा स्त्रीवाचक सूचक शब्द “गूंगी जहाज” कहा जाता है. इसलिए कवि ने पुलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग शब्द का प्रयोग किया है.
*******.
सूचनाधिकार कानून
सत्तासीनों ने सौंपा है हमारे हिस्से में
गेंद के आकर की रुइया मिठाई
जो छूते ही मसल जाती है चुटकी में
जिसे चखकर समझते हो तुम आज़ादी का मंत्र
यह लालीपाप तो नहीं
या, स्वप्न सुंदरी को आलिंगन की अभिलाषा
या, रस्साकशी की आजमाईश
कि बच्चों की ललमुनिया चिरई का खेल
या, बन्दर – मदारी वाला कशमकश
जिसमें एक डमरू बजता है तो दूसरा नाच दिखाता
या, सत्ता को संकरे आकाश-फांकों से निरखने वाले
निर्जन के सीमांत गझिन वृक्षवासियों की जिद
या कि, नदी - पारतट के सांध्य – रोमांच की चुहल पाने
निविडमुखी खगझुंडों की नभोधूम
सूचनाधिकार भारतीय संसद द्वारा
फेंका गया महाजाल है क्या ?
जिसके बीच खलबलाते हैं माछ, शंख, सितुहे
जिसमें मछलियाँ पूछती हैं मगरमच्छों से
कि वे कब तक बची रह सकती हैं अथाह सागर में
जलीय जीव अपील-दर-अपील करते हैं शार्क से
उसके प्रलयंकारी प्रकोप से सुरक्षित रहने के तरीके
छटपटाहट में जानने को बेचैन सूचना प्रहरी
छान मारते हैं सागर की अतल गहराई को
हाथों में थामे हुए कंकड़, पत्थर, शैवाल की सूचनाएं
एक चोर कैसे बता सकता है सेंधमारी के भेद
हत्यारा कैसे दे सकता है सूचना
जैसा कि रघुवीर सहाय की कविता में है - ‘आज
खुलेआम रामदास की हत्या होगी और तमाशा देखेंगे लोग ‘
मुक्तिबोध जैसा साफ़ – स्पष्ट
कैसे सूचित करेगा लोक सूचना पदाधिकारी
जैसा कि उनकी कविता में वर्णित है कि
अँधेरे में आती बैंड पार्टी में औरों के साथ
शहर का कुख्यात डोमा उस्ताद भी शामिल था
एक अफसर फाइल नोटिंग में कैसे दर्ज करेगा
टाप टू बटम लूटखसोट का ब्यौरा
कि विष – वृक्षों की कैसी होती हैं
जडें , तनें , टहनियाँ और पत्तियां ?
बेसुरा संतूर बन गया है सूचना क़ानून
बजाने वाला बाज़ नहीं आता इसे बजाने से
यह बिगडंत बाजा, बजने का नाम नहीं ले रहा
आज़ाद भारत के आठ दशक बाद
शायद ही इसे बजाने का कोई मायने बचा हो
गोरख पाण्डेय की कविता में कहा जाए तो
‘रंगों का यह हमला रोक सको तो रोको
वर्ना मत आंको तस्वीरें
कम-से-कम विरोध में .
*******.
(भोजपुरी कविता)
भरकी में चहुपल भईसा
( l )
आवेले ऊ भरकी से
कीच पांक में गोड लसराइल
आर – डंडार प धावत चउहदी
हाथ में पोरसा भ के गोजी थमले
इहे पहचान रहल बा उनकर सदियन से
तलफत घाम में चियार लेखा फाट जाला
उनका खेतन के छाती
पनचहल होते हर में नधाइल बैलहाटा के
बर्घन के भंसे लागेला ठेहून
ट्रेक्टर के पहिया फंस के
लेवाड़ मारेले हीक भ
करईल के चिमर माटी चमोर देले
उखमंजल के हाँक – दाब
हेठार खातिर दखिनहा, बाल के पछिमहा
भरकी के वासी मंगनचन ना होखे दउरा लेके कबो
बोअनी के बाद हरियरी, बियाछत पउधा के सोरी के
पूजत रहे के बा उनकर आदिये के सोभाव
जांगर ठेठाई धरती से उपराज लेलन सोना
माटी का आन, मेहनत के पेहान के मानले जीये के मोल
( ll )
शहर के सड़की पर अबो
ना चले आइल उनका दायें – बायें
मांड – भात खाए के आदी के रेस्तरां में
इडली – डोसा चीखे के ना होखल अब ले सहूर
उनकर लार चुवे लागेला
मरदुआ – रिकवंछ ढकनेसर के नाव प
सोस्ती सीरी वाली चिट्ठी बांचत मनईं
न बुझ पावल अबले इमेल – उमेल के बात
कउडा त बइठ के गँवलेहर करत
अभियो गंवार बन के चकचिहाइल रहेले
सभ्य लोगन के सामने बिलार मतिन
गोल – मोल – तोल के टेढबाँगुच
लीक का भरोसे अब तक नापे न आइल
उनका आगे बढे के चाह
माँल में चमकऊआ लुग्गा वाली मेहरारू
कबो न लुझेलीसन उनका ओर
कवलेजिहा लइकी मोबाईल प अंगुरी फेरत चोन्हा में
कनखी से उनका ओर बिरावेलीसन मुंह
अंग्रेजी में किडबिड बोलत इसकोलिहा बाचा
उनका के झपिलावत बुझेलसन दोसरा गरह के बसेना
शहरीन के नजर में ऊ लागेलन गोबरउरा अस
उनका के देखते छूछ्बेहर सवखिनिहाँ के मन में भभके लागेला
घूर के बास , गोठहुल के भकसी, भुसहुल के भूसी
( lll )
जब ले बहल बा बजरुहा बयार
धूर लेखा उधिया रहल बा भरकी के गाँव, ओकर चिन्हानी
खेत – बधार , नदी – घाट , महुआ – पाकड़
बिकुआ जींस मतीन घूम रहल बाड़ीसन मंडी के मोहानी प
जहवाँ पोखरी के गरइ मछरी के चहुपता खेप
चहुपावल जा रहल बा दूध भरल डिब्बा
गोडार के उप्रजल तियना
खरिहान में चमकत धान, बकेन, दुधगर देसिला गरु के देसावर
समय के सउदागर लूट रहल बा
हमनी के कूल्ह संगोरल थाती
धार मराइल बा सपना प
दिनोदिन आलोपित हो रहल बा मठमेहर अस
धनखर देस पुअरा से चिन्हइला के पहचान
मेट गइल फगुआ चइता – कजरी के सहमेल
भुला गइल खलिहा बखत हितई कमाये जाये के रेवाज
ख़तम हो रहल बा खरमेंटाव के बेरा
सतुआ खाये माठा घोंटे के बानि
छूट गइल ऊ लगन जब आदमी नरेटी से ना
ढोढ़ी के दम से ठठा के हँसत रहे जोरदार
जवानी बिलवारहल बाड़े एहीजा के नवहा
पंजाब, गुजरात, का कारखाना में देह गलावत
बूढ़ झाँख मारताडे कुरसत ज़माना के बदलल खेल प
बढ़ता मरद के दारु, रोड प मेहरारू के चलन
लइका बहेंगवा बनल बुझा रहल बाड़ें जिये के ललसा
सूअर के खोभार अस बन रहल बा गाँव – गली
कमजोर हो रहल बा माटी के जकडल रहे के
धुडली घास ,बेंगची, भरकभाड के जड़न के हूब.
(IV)
दिनदुपहरिये गाँव के मटीगर देवाल में
सेंध फोरत ढुक गईल बा शहर
कान्ही प लदले बाज़ार
पीठी प लदले विकास के झुझुना
कपार प टंगले सरकारी घिरनई
अंकवारी में लिहले अमेरिकी दोकान
एह नया अवतार प अचंभों में
पडल बा गाँव भरकी के
ना हेठारो के ना पूरा दुनिया – जहान के
जइसे सोझा पड़ गईल होखे मरखाहवा भंइसा
भागल जाव कि भगावल जाव ओके सिवान से
भकसावन अन्हरिया रात में लुकार बान्ह के.
परिचय
लक्ष्मीकांत मुकुल
जन्म – 08 जनवरी 1973
शिक्षा – विधि स्नातक
संप्रति - स्वतंत्र लेखन / सामाजिक कार्य
कवितायें एवं आलेख विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित .
पुष्पांजलि प्रकाशन ,दिल्ली से कविता संकलन “लाल चोंच वाले पंछी’’ प्रकाशित.
संपर्क :-
ग्राम – मैरा, पोस्ट – सैसड,
भाया – धनसोई ,
जिला – रोहतास
(बिहार) – 802117
ईमेल – kvimukul12111@gmail.com
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