एक नयी दुनिया के सपनों का नाम प्रोस्तोर: वंदना गुप्ता ............................... ‘प्रोस्तोर’ एक लघु उपन्यास एम. एम. चन्द्रा जी द्वारा ल...
एक नयी दुनिया के सपनों का नाम प्रोस्तोर: वंदना गुप्ता
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‘प्रोस्तोर’ एक लघु उपन्यास एम. एम. चन्द्रा जी द्वारा लिखा डायमंड बुक्स से प्रकाशित है. आज बड़े बड़े उपन्यास लिखे जाने के दौर में लघु उपन्यास लिखा जाना भी साहस का काम है और यही कार्य लेखक ने किया है. शायद चुनौतियों से आँख मिला सके वो ही सच्चे साहित्यकार की पहचान होती है. उपन्यास में नयी आर्थिक नीति के कारण मजबूर मजदूर वर्ग की उस दुर्दशा का चित्रण है जिसमें जब बड़े पैमाने पर मिलें बंद हो रही थीं तब हर वर्ग उसकी चपेट में आया.
उपन्यास के मुख्य पात्र बच्चे हैं. यहाँ एक बार फिर लेखक एक नया संघर्ष लेकर आया है. चाहता तो किसी भी बड़े पात्र को मुख्य पात्र बनाकर भी लिख सकता था लेकिन लेखक ने ऐसा किया नहीं बल्कि उस दौर में बच्चों पर , उनके सपनों पर क्या प्रभाव पड़ा मानो लेखक यही कहना चाहता है. जैसे बच्चे छोटे होते हैं शायद उसी को ध्यान रख उपन्यास भी लघु रखा. वर्ना ये एक ऐसा सब्जेक्ट था जिस पर चाहते तो पूरा शोध प्रबंध रूप में एक उपन्यास लिख सकते थे. यहाँ मानो लेखक बच्चों की मनोस्थिति के माध्यम से पड़ते प्रभाव को दर्शाना चाहता है कैसे ऐसे दौर में वो किन किन मोड़ों से गुजरते हैं जब मिल बंद हो जाती है, अन्य कोई साधन आमदनी के बचते नहीं क्योंकि पिता ने उम्र भर सिर्फ यही काम किया तो और कोई काम आता नहीं. ऐसे में घर के हालत बद से बदतर कैसे होते हैं कि यहाँ तक कि सिवाय पेट की आग के और कुछ दिखाई नहीं देता. उसे बुझाने के लिए इंसान किसी भी हद तक जा सकता है फिर चाहे पहले कितने ही ऊंचे आदर्श हों, मगर धराशायी हो जाते हैं, जब पेट अपनी माँग रखता है. फिर चोरी करनी पड़े या डाका डालना पड़े.
मुख्य पात्र अघोघ, योगेश, विपिन, बंटी , भुवन, राजीव, जितेन्द्र आदि मित्र हैं और कोई ज्यादा उम्र नहीं. 16 वर्ष की उम्र आते आते तो वो सीधे बचपन से जवानी भी नहीं और वृद्धावस्था भी नहीं बल्कि परिपक्व अवस्था में प्रवेश कर जाते हैं. शायद गरीबी होती ही वो शय है जो उम्र से पहले वयस्क बना देती है. यूं तो उस दौर में बहुत आन्दोलन होते रहते थे, मजदूर वर्ग संघर्ष करता रहता था लेकिन कभी कोई हल नहीं निकलता था. जब विदेशियों को लाभ पहुँचाना हो और दुनिया में देश के नाम का डंका बजाना हो तब अनदेखा कर दिया जाता है उपेक्षित, शोषित वर्ग को. यही उस वक्त हुआ लेकिन यदि आज के संदर्भ में भी देखो तो लगता है एक बार फिर वही दौर आ गया है जब पेटीएम, भीम एप जैसी कंपनियों को फायदा पहुंचाने को सारे देश पर इ वॉलेट द्वारा पेमेंट करना जरूरी कर दिया गया. फिर चाहे देश में अभी भी शिक्षित वर्ग कितना है सभी जानते हैं, वो नहीं जानते कैसे पैसे मोबाइल द्वारा भेजे जाएँ और लिए जाएँ, या उनके भेजे गए पैसे यदि भेजने में गलती से फंस गए तो कब और कैसे मिलेंगे , वो कमाई जिसे उन्होंने अपने खून पसीने से कमाया है एक गलती से महीनों के लिए ब्लाक हो जाती है, आज यदि एक कम पढ़ा लिखा बैंक जाता है और उसे नहीं पता कैसे खुद पास बुक क्लियर की जा सकती है और वहां किसी फोर्थ क्लास को कह दे तो उसे दुत्कार दिया जाता है ये कहकर कि ये हमारा काम नहीं तो सोचिये ऐसे में कैसे संभव है ऑनलाइन लेन देन बिना किसी रुकावट के . मगर सरकारी आदेश सबको मानने होते हैं . बस ऐसा ही उस दौर में हुआ. बच्चे जो अभी पढ़ रहे थे नहीं जानते कैसे इस समस्या से निजात पाई जाए लेकिन सबसे जरूरी चीज होती है विपरीत परिस्थिति में भी आशा का दामन न छोड़ना और सपने देखते रहना. मानो अघोघ में ये गुण अपने पिता से आया जो हमेशा कहते एक दिन मिल चालू हो जायेगी. वहीँ अघोघ हमेशा सुखद भविष्य के सपने अकेले नहीं देखता बल्कि सब दोस्त मिलकर देखते हैं लेकिन वक्त के बेरहम हाथ उनसे अक्सर उनकी खुशियाँ छीन लेते हैं . अंत में एक कोशिश और मिल को पुनर्जीवित करने की कोशिश में अपना सब कुछ जब हार जाते हैं, सरकारी और निजी क्षेत्र की गठजोड़ के कारण डंडे लाठियाँ खाते हैं मजदूर और इन हालत में जब वो जगह ही छोड़नी पड़ जाती है तब भी उनमें जिजीविषा बची रहती है. सपनों को जिंदा रखते हैं वो युवा होते बच्चे फिर चाहे जिंदगी कहीं भी ले जाए लेकिन जिंदा रहने के लिए सपनों का जिंदा रहना बहुत जरूरी है मानो उपन्यास यही सन्देश दे रहा है . वहीँ ये भी कह रहा है युवावस्था की ओर कदम बढ़ाते बच्चे आसमान में सुराख़ करने की हिम्मत रखते हैं बस उनके हौसलों को उड़ान मिलती रहे और वो उड़ान देते रहे मास्टर रतनसिंह . शायद तभी कहा जाता है शिक्षक ही देश का भविष्य निर्माण करता है और उसने उनके अन्दर की उस आग को जीवित रखा. और कुछ चाहे न कर पाए लेकिन जीवन जीने के सूत्र मानो दे गए.
शायद यही जीवन होता है जिसमें शिक्षा कदम कदम पर मिलती रहती है बस जरूरत होती है उसे समझने और याद रखने की. कुछ पंक्तियाँ जिन्होंने बहुत कुछ कह दिया उनका उल्लेख जरूरी है :
“देखा, आज हमने अपने सपने खरीद लिए . वैसे भी सपने हर किसी को नसीब नहीं होते हैं, हमारे सपने जिंदा रहने चाहिये”
“लेकिन भूखे मरने से अच्छा है चोरी डकैती करके जियो, जिंदा रहना मुश्किल काम है, मर तो पहले से रहे हैं”
“नहीं यार! गरीबी अच्छे अच्छों को चोर बना देती है और स्वयं अमीरी चोर होते हुए भी जमीरवादी बना देती है”
मास्टर जी द्वारा कहा जाना – मंदिर मस्जिद का मुद्दा इसीलिए जानबूझ कर छेड़ा गया है ताकि जनता के मूलभूत मुद्दों और लड़ाई से लोगों का ध्यान हटाया जा सके. मानो ये कहकर लेखक ने आज को भी प्रस्तुत कर दिया. जैसा आज भी हो रहा है . किसी भी मुद्दे से ध्यान भटकाना हो तो कभी जाति तो कभी धर्म तो कभी आरक्षण आदि मुद्दे उभर आते हैं और मुख्य मुद्दा दबा दिया जाता है, लोगों का ध्यान भटका दिया जाता है. काल कोई रहा हो और सरकार भी कोई भी रही हो जनता कल भी निरीह थी और आज भी है, उपन्यास पढ़कर समझा जा सकता है. आज भी यदि वोट बैंक कमजोर पड़ने लगता है तो मंदिर मुद्दा जोर शोर से उठा दिया जाता है ये किसे समझ नहीं आता? सब समझते हैं लेकिन बात वहीँ आती है कि जनता न तो जागरूक होती है और यदि होती है तो उसे संगठित नहीं रहने दिया जाता जिसका खामियाजा ये कि नेता राज करते रहते हैं और जनता पिसती रहती है फिर मजदूर वर्ग और किसान वर्ग तो शुरू से ही सर्वहारा की श्रेणी में आता है.
उपन्यास के माध्यम से लेखक ने नब्बे के दौर का बेशक जिक्र किया है लेकिन पढ़ने पर लगता है आज कौन सा ज्यादा बदलाव हुआ है. आज भी प्रासंगिक है.
“यार! मैं किसी को मरता नहीं देख सकता, इसलिए जिंदा हूँ. काम करता हूँ, सपने देखता हूँ, यदि सपने देखते हुए मर भी जाऊं तो भी गम नहीं ...कोई था अघोघ जो सपने देखता था एक नयी दुनिया के सपने, ऐसी दुनिया जो अभी बनी नहीं है- ऐसी दुनिया जहाँ गरीबी नहीं होगी. कोई बेरोजगार नहीं होगा, बच्चों को काम नहीं करना पड़ेगा और अपने गाँव से उजड़कर दूसरी जगह नहीं जमाना होगा” पंक्तियाँ सारी हकीकत बयां कर देती हैं वहीँ इसी के अंतर्गत एक प्रसंग याद आता है जब ये सब बच्चे सपने देखते हैं वो एक ही कॉलोनी में रहते हैं , सबका आमने सामने घर है, सब दूसरी मंजिल पर रहते हैं और सुबह उठकर चाय पीते हुए हाथ में अखबार लेकर बालकनी में आकर एक दूसरे को हैलो कहते हैं , पढ़कर अपना बचपन याद आता है जब हम भी ऐसा ही सोचा करते थे. काश हम सब आस पास साथ साथ रहें , जब चाहे एक दूसरे से मिल सकें, बात कर सकें. बचपन कितना निश्छल और मासूम होता है उसकी बानगी ही तो है ये उपन्यास. जहाँ सपनों को जिंदा रखने की जद्दोजहद है, ज़िन्दगी से लड़ने की जद्दोजहद है.
लघु कलेवर में प्रस्तुत उपन्यास का आकाश बेहद विस्तृत है. लेखक बधाई के पात्र हैं जो उन्होंने शोधग्रन्थ न बनाकर बिना कुछ कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया. हो सकता है कुछ लोगों को नागवार गुजरे कि इसमें ऐसा है क्या? ये तो सबको पता है लेकिन यदि सोचा जाए तो बहुत कुछ है इस उपन्यास में. कैसे बचपन पर असर पड़ता है ऐसे हालात का मानो यही कहने का लेखक का उद्देश्य है. या कहा जाए ऐसे हालात में भी खुद को बचा ले जाना और वो भी कच्ची उम्र में , बेहद कठिन कार्य है तो उसमें सपने देखना और उन्हें पूरा करने की ललक को बचाए रखना तो दुष्कर ही समझो लेकिन बच्चों ने अपने सपनों को जिंदा रखा, कह, मानो लेखक यही सन्देश दे रहा है हालात कैसे भी हों , अपने सपनों को जिंदा रखना जरूरी है फिर जिंदगी आराम से गुजर सकती है, जब बच्चे ऐसा कर सकते हैं तो बड़े क्यों नहीं. सरकार या उसकी नीतियों और मजदूर वर्ग का संघर्ष तो मानो वो जमीन है जिसके माध्यम से लेखक ने अपने मन की बात कही है वर्ना हर कोई जानता है सरकार या निजी क्षेत्र के साथ आम इंसान के संघर्ष के बारे में.
लिखने को तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन प्रतिक्रिया की भी एक मर्यादा होती है इसलिए अंत में इतना ही कहूँगी उपन्यास पढ़ते हुए लगा कि जैसे लेखक ने बहुत पास से ये सब देखा है यानि खुद इन पात्रों के आस पास रहे हैं या उन्हीं में से हैं और यही लेखन की सफलता होती है जब पाठक लेखक की छवि पात्रों में देखने लगे. लेखक बधाई के पात्र हैं और उम्मीद है उनसे आगे भी पाठक को अलग अंदाज़ में और नए नए उपन्यास पढ़ने को मिलते रहेंगे.
समीक्षक : वंदना गुप्ता
पुस्तक : प्रोस्तोर
लेखक : एम.एम.चन्द्रा
प्रकाशक :डायमंड बुक्स
कीमत : 60
बहुत शानदार समीक्षा.
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