सुशील शर्मा गर तुम खुदा होते सुशील शर्मा गर तुम खुदा होते। तो न यूँ हमसे जुदा होते। हमारे दिल में सदा बहते। न मंदिर न मस्जिद में तुम र...
सुशील शर्मा
गर तुम खुदा होते
सुशील शर्मा
गर तुम खुदा होते।
तो न यूँ हमसे जुदा होते।
हमारे दिल में सदा बहते।
न मंदिर न मस्जिद में तुम रहते।
ये बुतशिकनी का इल्जामे मंजर है।
हज़ारों खुदा बैठे हमारे अंदर हैं।
ये बेअदबी या अदावत है।
या पत्थर के खुदा से बगावत है।
जो खुदा तूने बनाया है वो मंजूर नहीं।
मंदिर और मस्जिद की दीवारें अब और हुजूर नहीं।
कुछ तेरे खुदा हैं कुछ मेरे खुदा हैं।
कुछ मंदिर के कंगूरे कुछ मस्जिद नुमा हैं।
बहुत ढूंढा अब तक न मिला वो खुदा।
रूह को शैतानियों से जो कर दे जुदा।
खुदा को ढूंढ कर मैं बहुत पछताया।
खुदा तो माँ के दामन में नजर आया।
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पहली बरसात
सुशील शर्मा
प्रथम बूंद वर्षा की जब
अंगों पर साकार हुई।
जैसे चुम्बन लिए प्रेयसी,
अधरों पर असवार हुई।
छन छन करती बूंदे,
जलबिंदु की मालाएं।
भरतनाट्यम करती जैसे,
छोटी छोटी बालाएं।
घनन घनन करते है बादल
ज्यों जीवन का शोर सखे।
टप टप करती बूंदें नाचें
ज्यों जंगल में मोर सखे।
आज प्रथम बारिश में भीगे,
सुख का वो आधार सखे।
जलती सी धरती पर जैसे,
शीतल जल की धार सखे।
छपक छपक बच्चे जब नाचें,
सड़कों और चौबारों पर।
वर्षा की धुँधयाली छाई,
गांवों बीच बाजारों पर।
सूखे ताल तलैय्या देखो,
भर गए मेघ के पानी से।
रीते रीते से तन मन में,
जैसे आये जोश जवानी से।
ठंडा सा अहसास दिलाती
देखो बारिश मुस्काई।
चाँद टहलता बादल ऊपर
तारे खेलें छुपा छुपाई।
कोयल बोली कुहुक कुहुक
दादुर ने राग अलापा है।
चिड़ियों की चीं चीं चूं चूँ से
गूंजा सुनसान इलाका है।
सूखे ठूंठों पर भी अब देखो,
नई कोपलें इतराईं।
जैसे नीरस बूढ़े जीवन में,
आशा की कलियां मुस्काईं।
हँसते हुए पेड़ पौधे हैं,
जैसे बच्चे मुस्काते।
बारिश की नन्ही बूंदों में,
हिलते डुलते इतराते।
अंदर के बचपन ने देखो,
फिर से ली अंगड़ाई है।
बारिश की बूंदों से देखो,
कर ली मैंने लड़ाई है।
बच्चा बन पानी में उछला,
उमर छोड़ दी गलियों में।
सड़क के बच्चों संग मैं कूदा,
कीचड़ वाली नलियों में।
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दो जून की रोटी
सुशील शर्मा
दो जून की रोटी
सहमी सिसकती
पसीने में डूब कर
स्वादिष्ट लगती।
लोकतंत्र के नारों में
रोती बिलखती।
संसद के गलियारे में
खूब करे मस्ती।
चुनावी रातों में
नोटों में बिकती।
भूख भरी रातों में
रोती सिसकती।
अम्मा के हाथों में
गोल गोल नचती।
बापू के पसीने में
मोती सी झलकती।
मुनिया की आँखों में
चाँद सी चमकती।
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हाइकु
सुशील शर्मा
चढ़ता पारा
अंतस अँधियारा
ठंडा सूरज
प्यासा मटका
तपती दोपहर
रिश्ता चटका
खाली है पेट
मुरझा कर भूख
कुदाल थामें।
पानी है खून
जंग का जुनून
भूखी बंदूकें।
श्रम का स्वेद
रक्त शोषित भेद
रोटी में छेद।
सूरज चूल्हा
दिखती है चाँद सी
दो जून रोटी .
उदित सूर्य
संजीवनी जिंदगी
नवल ऊर्जा।
उगता चाँद
अंधेरे से विस्मित
रात गुजारे।
पूर्णिमा चाँद
भागता अंधियारा
मुस्काई रात।
चाँद कटोरा
दूध भरी चांदनी
मुन्नी निहारे।
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मैं लड़ूंगा
सुशील शर्मा
मैं लड़ूंगा मेरा युद्ध
भले ही तुम कुचल दो मेरा अस्तित्व।
तुम्हारी शोषण की वृत्ति को दूंगा चुनौती।
ये जानकर भी कि तुम अत्यंत शक्तिशाली हो।
तुमने न जाने कितनों को तहस नहस किया है।
तुम्हारे अहंकार ने तुम्हारी विचारधारा ने।
गैरबराबरी की साजिश ने कितनों
को रक्तरंजित किया है।
मैं नहीं डरूंगा तुमसे तुम्हारी कुटिल चालों से।
मुझे मालूम है तुम मुझे हरा दोगे
कुचल दोगे।
मेरे जायज़ अहसास के अस्तित्व को।
लेकिन मैं फिर भी लड़ूंगा
नहीं बैठूंगा तुम्हारे सामने घुटनों पर।
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नशे पर क्षणिकाएं
(तम्बाखू निषेध दिवस पर)
सुशील शर्मा
तम्बाखू ने अपना रंग दिखाया
केंसर को उकसाया
पूरा गला कट गया
जीते जी
रामू को मरवाया।
सिगरेट के दो कश
एक में
खुमारी
एक में
टूटा अंतस।
खैनी को चबाया
ऊपर से
यमराज
मुस्कुराया।
सुलगी बीड़ी
टीबी से
तबाह
नई पीढ़ी।
अपराधी के तीन ठौर
चरस
गांजा
ड्रग्स सिरमौर।
उड़ता पंजाब
ड्रग्स का तेजाब
सुलगी सिगरेट
मौत को सरेट
तम्बाखू और खैनी
मौत बड़ी पैनी
चरस ओर गांजे
बीमारी के भांजे।
एक शराबी
लड़खड़ाते हुए आया
देसी ठर्रा का पेग लगाया
बोला साले
सब हरामखोर है।
अंदर से चोर है।
नशा बंदी की बात करते हैं।
रात को शराब के साथ
गोश्त चरते हैं।
नशा है विनाश
मौत आसपास
मन को कसो
नशे में मत फंसो।
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दोहा बन गए दीप -24
सुशील शर्मा
नदिया सूखी घाट पर ,ताल सिसकियाँ लेय।
पंछी सब बेचैन हैं ,ढूंढे शीतल पेय।
आग बरसती सड़क पर ,लू के चलते तीर।
सर पर पल्लू डाल कर ,चलें सूरमा वीर।
जंगल पर आरी चले ,डम्फर लूटें रेत।
बोतल में पानी बिके ,सूख गये हैं खेत।
कांक्रीट जंगल खड़ा ,पेड़ दिए हैं काट।
रिश्ते सब सूखे पड़े ,पानी बिकता हाट।
जल जन जन की जीवनी ,जल बिन है सब सून।
जल से जग जीवित रहे ,जल से बनता खून।
एक नदी शक़्कर कभी ,बहती मेरे गांव।
सुबक सुबक रोती रही ,छाले उसके पांव।
राम घाट कहता रहा ,मुझे बचालो यार।
राणा से रजनीश तक मुझ से करते प्यार।
निर्जल नदिया रो रही ,रिश्ते हैं वीरान।
मेरे प्यारे शहर में, मैं खुद हूँ अनजान।
दोहा बन गए दीप -23
सुशील शर्मा
अम्मा
अम्मा घर का शगुन है ,ईश्वर का उपहार।
अम्मा खुश्बू फूल की ,अम्मा मंद बयार।
धरती से अम्बर तलक ,ढूंढा मैंने खास।
अम्मा सरीखा न मिला ,कोई रिश्ता पास।
गम हो दुख हो या ख़ुशी ,अम्मा देती साथ।
हर मन्नत मुझको मिली ,सर पर उसका हाथ।
जेठ दुपहरी से लगें ,सारे रिश्ते मौन।
अम्मा नदिया सी बहे ,उससे निर्मल कौन।
अम्मा के पीछे फिरूं ,लेकर आँचल हाथ।
अम्मा आंगन झाड़ती ,लेकर मुझ को साथ।
शब्दों के संसार में ,गढ़ता भाव के चित्र।
दुश्मन जैसे सब लगें ,अम्मा मेरी मित्र।
बेटी में अम्मा दिखे ,अम्मा सुता समान।
इन दोनों के नेह से ,जीवन की पहचान।
अम्मा सुबह अज़ान है ,संध्या भजन पवित्र।
चर्च इबादत सी लगे ,अम्मा ज्ञान चरित्र।
अम्मा मिसरी की डली ,अम्मा दही की चाट।
मालपुआ सी वो लगे ,अम्मा बेसन खाट।
अम्मा बरगद पेड़ सी ,मैं उसका हूँ पात।
जीवन तपता धूप सा ,अम्मा है बरसात।
दोहे बन गए दीप -22
सुशील शर्मा
पिय के कंधे पर रखा, सिर अपना भर लाज।
साजन जब से तुम मिले,सपने हैं परवाज।
चांद देखने जब चढ़ी, गोरी छत पर रात।
हाथ कलाई गह लई, पिया न माने बात।
नहीं नहीं उनकी सुनी,अंदर से बेचैन।
आखिर में हाँ हो गई ,मिला हृदय को चैन।
गोरी से आंखें मिली,डूब गया सुख चैन।
बिन उसके मन बैठता,कटे नहीं दिन रैन।
तन टेसू सा महकता ,मन है उनके पास।
बासंती मौसम हुआ ,पिया मिलान की आस।
टेसू सा दहका बदन ,मन पलाश के रंग।
ख्वाबों में कलियाँ खिलें ,मन साजन के संग।
दीपक से ज्योति कहे ,हिम्मत तू मत हार।
संग जलूँगी मैं पिया ,मिट जाए अंधियार।
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नंदू को चाहिए रोटी
सुशील शर्मा
अपनी लोक चेतना का
चिंतन
सचेत होकर जब झांकता है
तो बाहर का
अग्निमय स्पर्श
झुलसाता है अंतर्मन को।
हर तरफ धुँआ है,
एक तरफ खाई है
एक तरफ कुँआ है।
विकास है
एक बंदर है
कुछ मदारी हैं
चारों ओर भीड़ है
सब मदारी मिल कर
स्वतंत्रता की जंजीर से कसे
उस बंदर को
राष्ट्रभक्ति, असहिष्णुता
साम्प्रदायिकता, धर्म निरपेक्षता
और न जाने किन किन
कठिन शब्दों का नृत्य
उस बंदर के चारों ओर
लगे हैं कुछ पिंजरे
जिन पर लिखा है
गांधीवाद, समाजवाद
मार्क्सवाद, राष्ट्रवाद
स्वतंत्रता, जनतंत्र
शांति सुरक्षा,रोजगार
बारी बारी से उस बंदर को
उन पिंजरों में घुसा कर
फिर निकाला जाता है।
फिर इन्ही नामों की कुछ
केंचुलिया पहने वो मदारी
सड़कों पर चिल्लाते है
देखो मेरी कमीज इससे सफेद है।
उस भीड़ से कोई दाना मांझी
निकलता है अपनी पत्नी का शव लेकर।
उसके पीछे बिलखती उसकी नन्ही बेटी।
तब कोई वाद की तलवार मुझे
चीरती निकल जाती है।
जब भूख से मरे हुए नेमचंद
की माँ को उसकी लाश के पास
स्तब्ध बैठा देखता हूँ तो खुद को
सड़क पर नंगा दौड़ता पाता हूँ।
मेट्रो के सामने भूख से बिलखते
बच्चे के पेट में समाजवाद तलाशता हूँ।
वृद्धाश्रम में बूढ़ी थरथराती टांगे
गांधीवाद को खोजती हैं।
पातालकोट के निरीह आदिवासी
उस मार्क्सवाद से पूछते हैं कई सवाल।
इस जनतांत्रिक जंगल में
हर शेर एक निरीह शिकार की खोज में है।
देखते ही फाड़ देता है निरीह अस्तित्व को।
हर टीवी चैनल चीखता है
भूख से मरे आदमी को बेचकर
खूब पैसा पीटता है।
रेत से भरे डंफरों की गड़गड़ाहट में।
लुटती नदियां सिसक रही हैं
किसी बलात्कार सहने वाली अबला सी।
इस जनतंत्र के वहशी जंगलों में
हर पेड़ पर सत्ता की आरी है।
घास की रोटी खाने वाले
उन आदिवासियों को नही पता
कि
उनका भारत अब इंडिया बन गया है।
ई वी एम मशीनों पर उनकी
उनकी उंगलियां वैसे ही लगवाई जाती हैं।
जैसे उनके दादाओं से साहूकार अंगूठे लगवाते थे।
हर भीड़ अपने हाथों में तलवार लेकर।
सत्ता से सड़क तक उन्मत्त है
सत्ता के गलियारों में बदलती टोपियां।
एक चेहरा उतार कर दूसरा चेहरा पहने।
बंदर को लुभाते जुमले
संसद के गलियारों में ठहाके है गाली गलौज है।
बंदरों के पैसों की मौज है।
गांव के नंदू को
न समाजवाद से कुछ लेना देना है
न जनतंत्र उसका बिछौना है।
उसे तो हर हाल में
कुछ रोटी,कुछ प्याज, नमक
अपनी बेटी की शादी
एक घड़ा पानी और घासफूस की छत चाहिए।
उसे ये दे दो
फिर नए नए चेहरों से
समाजवाद, राष्ट्रवाद, गांधीवाद, जनतंत्र आदि उगलते रहना
लड़ते रहना और भोंकते रहना।
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देवेन्द्र कुमार पाठक
पेड़ हितैषी हमारे,ये सच क्यों हमने बिसारे?
काटे पेड़, उजाड़े जंगल; आप ही अपना किया अमंगल.
कहर प्रदूषण गुजारे; ये सच क्यों हमने बिसारे?
हमको दें ईंधन,छत-छप्पर; प्राणवायु देते हैं स्वच्छ कर.
सबके प्राणसहारे; ये सच क्यों हमने बिसारे?
धरती के सृंगार-सुरक्षक, बदबू,धूल,धुएँ के भक्षक;
धरती के सुत प्यारे; ये सच क्यों हमने बिसारे?
पत्थर खाते पर फल देते; भूख-रोग सब के हर लेते.
जगहितकारी न्यारे; ये सच क्यों हमने बिसारे?
लड़ें न किसी से, न देवें गाली; हर प्राणी को दें खुशहाली.
सब के तारनहारे; ये सच क्यों हमने बिसारे?
कुदरत की हैं शान पेड़-वन; इनसे ही कायम जन-जीवन.
देते हैं सुख सारे; ये सच क्यों हमने बिसारे?
पेड़ों की इतनी अभिलाषा, कोई रहे न भूखा-प्यासा.
पर नरपशुओं से हारे; ये सच क्यों हमने बिसारे?
-देवेन्द्र कुमार पाठक;
साईं पुरम् कॉलोनी ,
कटनीम.प्र.
ईमेल-devendrakpathak.dp@gmail. com
00000000000000000
डॉ मनोज 'आजिज़'
होती है सियासत
(सीधे-सादे अश'आर)
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भूख पर प्यास पर होती है सियासत
घोटालों को छुपाने की होती है सियासत
छुपीं है दौलतें बेहिसाब तिजोरी में
दिवालिया कह बचाने की होती है सियासत
सालों साल बाबा बन धंधा बड़ा किया
सलाख़ों से छुड़ाने की होती है सियासत
सरहद को मजफूज़ रख खुद की जान गंवाते
उनको इज़्ज़त बख़्शने की होती है सियासत
सच क्या झूठ क्या इसी कश्मकश में
अपनी बात बताने की होती है सियासत
ख़िदमत हो मजहब इस मुल्क में 'आजिज़'
क्यूँकर शोर मचाने की होती है सियासत
पता:
आदित्यपुर-२, जमशेदपुर-१४
झारखण्ड
९९७३६८०१४६
--
From :-
Dr. Manoj K Pathak (Dr. Manoj 'Aajiz')
Adityapur, Jamshedpur.
00000000000000000
सलिल सरोज
गर अपना ही चेहरा देखा होता आईने में
तो आज हुई न होती मुरब्बत ज़माने में ।।1।।
गर मशाल थाम ली होती दौरे-वहशत में
तो कुछ तो वजन होता तुम्हारे बहाने में ।।2।।
जिसकी ग़ज़ल है वही आके फरमाए भी
वरना गलतियाँ हो जाती है ग़ज़ल सुनाने में ।।3।।
बाज़ार में आज वो नायाब चीज़ हो गए
सुना है मज़ा बहुत आता है उन्हें सताने में ।।4।।
रूठना भी तो ऐसा क्या रूठना किसी से
कि सारी साँस गुज़र जाए उन्हें मनाने में ।।5।।
एक उम्र लगी उनके दिल में घर बनाने में
अब एक उम्र और लगेगी उन्हें भुलाने में ।।6।।
दौलत ही सब खरीद सकता तो ठीक था
यहाँ ज़िंदगी चली जाती है इज़्ज़त कमाने में ।।7।।
वो आँखें मिलाता ही रहा पूरी महफ़िल में
देर तो हो गई मुझ से ही इश्क़ जताने में ।।8।।
जिधर देखो उधर ही बियाबां नज़र आता है
नदियाँ कहाँ अब मिल पाती हैं मुहाने में ।।9।।
गर बाप हो तो जरूर समझ जाओगे कि
कितना दर्द होता है बच्चियाँ रुलाने में ।।10।।
जो गया यहाँ से वो कभी लौटा ही नहीं
अब कौन मदद करे उजड़े गाँव को बसाने में ।।11।।
माँ तो पाल देती है अपनी सब ही संतानें
पर बच्चे बिफ़र जाते हैं माँ को समझ पाने में ।।12।।
सलिल सरोज
B 302 तीसरी मंजिल
सिग्नेचर व्यू अपार्टमेंट
मुखर्जी नगर
नई दिल्ली-110009
Mail:salilmumtaz@gmail.com
00000000000000000
सुनीता असीम
अब खुदा की भी इनायत हो गई है।
प्यार करने की इजाजत हो गई है।
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क्यूँ नहीं रखता ये धीरज दिल मेरा भी।
शोखियों को भी शिकायत हो गई है।
**************
चाशनी मे प्रेम की हैं .......डूबते हम।
दूर हमसे अब हिकारत हो गई है।
***************
इक नजर में दे दिया ये दिल किसी को।
यूँ लगे रबकी ...इबादत हो गई है।
**************
दिल लगाकर तोड़ देना बाद में फिर.।
ये शरीफों की शराफत हो गई है।
**************
एक दूजे से वफा ही आज करना।
दो दिलों की ये जमानत हो गई है।
***********†
जो बसा जी में हमारे ...आज.है बस ।
जिन्दगी उसकी अमानत हो गई है।
*************
00000000000000000
मीनाक्षी
ये आकृति, प्रतीक, चिन्ह , या कोई शब्द
नहीं समझा पाते भली भाँति
मन के भावों को
जस का तस...!
लाख बताने पर भी
छुपे रह जाते हैं
कुछ भाव मन में भी
बड़ी चालाकी से, , ,
जैसे की पूर्ण विराम के बाद
लगता है सब कुछ खतम हुआ
फिर पाठक रुक कर
सोचता है वह भी
जो लेखक लिख नहीं पाता,
शब्दों के चुक जाने से,,
फिर भी बहुत कुछ कहता है
ये रीता अंतराल , ,
शब्दों की कीमत नहीं
लिखने से पहले , ,
हो जाते है अक्सर अनमोल
लिखने के बाद ही...!
भाव निस्सीम है
तो शब्द ब्रम्ह है
हम देखते है हर शाम
घर लौटते पंछियों को, ,
झुंड से भटके कुछ
भटकते पंछियों को,
घर के कोने-कोने में
कुछ खोजती सी हवाएँ
बादलों में बनते-बिगड़ते
नदी ,पहाड़ , झरने झुरमुट
साथ साथ जो भाव
बनते बिगड़ते है मन में
जो महसूस करती है आँखें
कहाँ व्यक्त कर पाते हैं
उन्हें हम हूबहु ,
कितना और किसे कह पाते हैं !
शब्दों को बाँधकर
कविता,कहानियों में
सोचती हूं खाली हो गये
सारे शब्द सभी अर्थ
मगर कुछ पलों के बाद ही
लग जाती है विचारों की झड़ी
शब्दों को जितना सीमित करुं
उतने ही विस्तृत होते जाते हैं, ,
इन अस्त व्यस्त शब्दों को
व्यवस्थित करने के क्रम में
पन्ने भर जाते हैं मन नहीं , ,
कागजों पर जी भर रंग
बिखेरने के बाद भी
पाती हूं मन में रंगो को
बिखरा हुआ बेतरतीब, ,
सारे पल शब्दों में बाँध कर भी
सारे अहसास
रह जाते हैं खुले हुऐ
मन के भावों को
लिखने की कोशिश में
अटक जाते हैं कुछ शब्द
बीच में ही कहीं. , ,
क्या बाँध सकते हो तुम
"प्रेम " को
शब्दों की परिधि में , ,
क्या दे सकते हो "प्रेम" की कोई निश्चित परिभाषा
या बचपन को उस सलोने अहसास के साथ
सारी खट्टी मीठी यादों के साथ
व्यक्त कर सकते हो शब्दों में
यकीनन जितना कहोगे
उतना ही अनकहा रह जायेगा .!
शब्द सब कुछ है
पर इतने सक्षम नहीं कि व्यक्त कर सकें मन का ज्वार,
सारी अंकुरित भावनायें ,
अनियंत्रित वेदनायें,
चन्द कागजों पर....!
00000000000000000
चंचलिका
" जिन्हें हम भूलना चाहें "
अक्सर
जिन्हें भूलना
चाहते हैं हम
उन्हें ही
सबसे ज़्यादा
याद भी
करते हैं हम .........
अपनों के दिए
दर्द को
सहलाते भी हम
मरहम की जगह
उन्हें याद कर के
कुरेदते भी हम ........
उन
गुज़रगाहों पर
नज़रें अब भी
दौड़ाते हैं हम
जहाँ से गुज़रे उन्हें
ज़माना बीत गया
कदमों के निशां
ढूँढते हैं हम ........
कभी - कभी
बंद आँखों में ही
आँखों को
खोलते हैं हम
यादों के झुरमुट में से
बस एक ही गिरह
खोलते हैं हम..
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00000000000000000
अंकिता जैन
सपनों को सच हो जाने दो"
सपनों को सच हो जाने दो,
खुल के यूं मुझे गाने दो,
किस्मत को आजमाने दो,
कुछ मुझे भी कर दिखाने दो,
जानती हूं मैं है, टेढी मगर,
जीत की तो यही हैं, डगर,
इस राह पर मुझे भी कदम बढाने दो,
मंजिल को अब पाने दो,
मेरी झिझक को अब खुल जाने दो,
सपनों का जहां बनाने दो,
रोको मत उड़ जाने दो,
मैं बदल दूंगी जमाने को,
सपनों को सच हो जाने दो,
खुल के यूं मुझे गाने दो,
अंकिता जैन
पता- पुराना बाजार जैन मंदिर के पास अशोक नगर - 473331 (म.प.)
0000000000000000
आभा सिंह
ज़द्दोज़हद
नींद खुल गयी तपाक से
ऐसा लगा, जैसे तुम मेरे पास बैठे हो
आँखें अभी भी नींद से बोझिल ही थीं
तुम्हें छूने को जैसे ही मैंने हाथ बढ़ाया
तुम तो कहीं हवा में भी नहीं थे मेरे पास
तुम तो इतनी दूर किसी ऐसी जगह जा बैठे हो
न तुम तक मेरी ख़ामोशी पहुंचती है
न मेरे होने की आहट.......
एक कमज़र्फ तुम्हारे होने का अहसास
जिसे मैं सीने में कहीं दफ़न कर देना चाहती हूँ
कि तुम्हारे होने की फ़िक्रमंदी से बिलख होकर
पर तुम.....
तुम्हें अहसासियत का 'अ' का इल्म तक नहीं है.....
तुम सूरत ढूंढने वाले ख़रीदारार निकले
और मैं सीरत की दुकान पर बैठती हूँ
वही बेचती हूँ
वही खरीदती हूँ
तुम्हें जो मैंने बेचने के लिए
अपनी दुकान की सभी
सीरतों को बिछा दिया था तुम्हारे सामने
अपने अंचल में,
सभी सीरतों को नज़रअंदाज़ कर
तुमने मेरा आँचल उठा लिया था.....
तुम तो चले गए
मेरा आँचल तुम्हारे साथ ही चला गया
सीरत यहीं रह गयी
सूरत से पराजित होकर.......
0000000000000000
संस्कार जैन
मेरी गोद में सर रखकर !
तुमने तो तय कर दिए थे मेरी ज़िंदगी के रास्ते,
और
उड़ा ले चली थी कही दूर एक सूखे पत्ते की तरह
लेकिन अब वक़्त रुक सा गया है उस मोड़ पर जहाँ तुमने साथ छोड़ा था
मैं आज भी वहीं हूँ ...
और
सोचता हूं तुम्हें आवाज़ दूँ
पर जानता हूँ..
तुम कभी नहीं लौटोगी.. कभी नहीं..
कभी लौट भी नहीं सकती ।।।
Sanskar jain
Dept. Of pharmacy
Sagar university
0000000000000000
अनिल उपहार
-शायद तुम लौट आओ ------
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मन का मरुस्थली सन्नाटा तोड़ती
तुम्हारी यादें
घोल देती थी
देह की हर दस्तक में मिठास ।
पलकों पर सजे सिंदूरी स्वप्न ।
बार बार देते निमंत्रण
मन देहरी पर
भावनाओं के
अक्षत चढाने को ।
संस्कारों की सड़क के मुसाफिर सा
तुम्हारा बेखौफ चलना ।
तहजीब की ग्रंथावली के
कोमल किरदार को
सलीके से निभाना ।
पढ़ा देना बातों ही बातों में
मर्यादा का पाठ ।
विरदा वलियों का संवाद ।
जिसने रिश्तों के रंग मंच पर
अपना अभिनय
बखूबी करना सिखाया ।
अचानक-
वक़्त की आई तेज आंधी ने
सब कुछ
बिखेर कर रख दिया ।
और धूल धुसरित कर दिया
उन सभी रिश्तों को ,
जिनकी छाँव में
हमने जीवन के सतरंगी सपनों को
बुना था ।
कहने कों अब नहीं हो
साथ मेरे ।
पर आज भी अहसास ज़िन्दा है
मन के किसी कोने में ।
तुम्हारा शांत नदी सा बहना ।
लहरों सा अठखेलियाँ करना ।
और
अचानक छोड़ कर चल देना ।
मेरे गीत और छंद सूने है
तुम्हारे बगेर ।
फिर भी विश्वास है कि -
तुम लौट आओगे
और
अधरों पर गीत बन
बिखेर दोगे
अपने माधुर्य की ताज़गी ।
मैं अपने गीत और छंद
तुम्हारे नाम करता हूँ ।
श्रद्धा की पावन प्रतिमा
मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ ।
--------अनिल उपहार -------
कवि गीतकार
काव्यांजलि पोस्ट पिडावा जिला झालावाड
राजस्थान
0000000000000000
अविनाश ब्योहार
(जाल रूप का)
नवयुवती फेंक रही
जाल रूप का!
कमनीय है
मादक है
उनका इशारा!
नदिया का
जल लगे
जैसे शरारा!!
सुबह हुई लहराया
पाल धूप का!
मौसम रंगीन है
इन्द्रधनुषी शाम!
थरथराये लब लेते
उनका नाम!!
पनिहारिन चूम रही
भाल कूप का!
(मजनू की लैला)
अंधियारा इस जग
में फैला है!
आग उगलती
जल की धारा!
काल कोठरी
में उजियारा!!
लोगों का नेचर
हुआ बनैला है!
धोखा धड़ी
बन गई फितरत!
घिरी बबूलों
से है इशरत!!
फ्लर्ट करे मजनूं
की लैला है!
(बंद हुये नाके)
महानगर में होते हैं
रोज धमाके!
बदहवास सी
भीड़ भाड़ है!
दहशत का
पसरा पहाड़ है!!
अंधी खोहों में
किरणें न झांके!
पुलिस कर रही
है पेट्रोलिंग!
बिगड़ी बाजारों
की रोलिंग!!
एहतियात के नाते
बंद हुये नाके!
---
1
बास यदि
मुट्ठी में
हो तो
मुट्ठी गर्म
करना कोई
बड़ी नहीं है बात !
ताक रहे
हैं घात !!
2
कोई पगड़ी
बांधता है
कोई पगड़ी
उछालता है !
लोगों का
ऐसा बर्ताव
सच बहुत
सालता है !!
यह तो एक
मुगालता है !!!
3
आड़े वक्त
में जिसने भी
रत्ती भर
सहायता
पहुँचाई !
उसके लिये है
रत्ती रत्ती ,
पाई पाई !!
4
उन्होंने
टके सा
जवाब दिया
तो वे
टके सा
मुंह लेकर
रह गईं!
लेकिन आपको
टके के लिये
न पूछेंगे यह
जाते जाते
कह गईं!!
5
नित्य प्रति
निष्कपट न्याय
का टोटा है!
यानी कि
मुंसिफ टकसाल का
खोटा है!!
6
उनकी पीठ
पर नेता जी का
हाथ है
इसलिये पीठ
नहीं दिखायेंगे!
लेकिन वक्त के
करवट बदलते ही
वे पीठ पर खायेंगे!!
अविनाश ब्योहार, रायल एस्टेट,
माढ़ोताल, कटंगी रोड, जबलपुर।
0000000000000000
माधव झा
जैसे जैसे होती मेरी बिटिया सयानी
क्षण क्षण बढ़ती चिन्ता मेरी
कैसे इसका ब्याह रचाऊं,
हो रही दहेजों की मांग भारी
जैसे जैसे होती।
जीवन अपने जो भी कमाया,
सारी इनकी परवरिश में है लगाया।
अब कहां से लाऊं इतना धन,
जिससे बनेगी मेरी बिटिया दुल्हन।
जैसे जैसे होती मेरी..........
देखकर दुनिया की जालिम रीति
प्रण किया मैंने न करूंगा इन संग प्रीत
चाहे रहे जीवन भर मेरी बिटिया कुंवारी
मांगूंगा ना कभी धन की भीख
जैसे जैसे होती मेरी ...
क्षण क्षण बढ़ती चिन्ता मेरी
शर्म करो ऐ बेटों वालों
कैसी ये मांग तुम्हारी
वंश बढ़ेगा जिससे तुम्हारा
उस से क्यों करते लेनदारी
जैसे जैसे होती . . .
000000000000000000
लकी निमेष
बस्तियां क्यों जल रही है शहर में
बारिशें होने लगी दोपहर में
देख अपने हाथ से ही मार दे
अब मज़ा कुछ भी नहीं है ज़हर में
और कोई टोटका तू आज़मा
कुछ नहीं रख्खा तेरे अब सहर में
दहशतों के साये तारी हो गये
कब तलक ज़िन्दा रहेंगे कहर में
क्या ज़रूरत है बड़े तूफान की
डूबती है नाव बस इक लहर में
राह कब से देखता है ये लकी'
मौत तू आजा किसी भी पहर में
लकी निमेष
गाँव- रौजा- जलालपुर
ग्रैटर नौएडा
गौतम बुद्ध नगर
000000000000000000
प्रमोद सोनवानी पुष्प
" पर्यावरण बचाना है "
--------------------------
धरा को स्वर्ग बनाना है ,
पर्यावरण बचाना है ।
गाँव-गाँव हर गली-गली में ,
हमको वृक्ष लगाना है ।।1।।
पेड़-पौधे देते हैं जग को ,
शीतल छाया और दवा ।
इसीलिये मिल-जुलकर हमको ,
करना है वृक्षों की सेवा ।।2।।
परम हितैषी पेड़ सभी ,
अब न काटें इसे कभी ।
मिल-जुलकर इन वृक्षों की ,
देखभाल करेंगे हम सभी ।।3।।
वृक्षारोपण करना है ,
जीवन सुखद बनाना है ।
प्यारे बच्चों इस दुनिया में ,
पर्यावरण बचाना है ।।4।।
" पर्यावरण का विस्तार "
-----------------------------
बंदर - भालू , बाघ - भेड़िये ,
रहते हैं जी जंगल में ।
तोता - मैना , श्यामा - बुलबुल ,
खूब चहकते जंगल में ।।
वहाँ भरे हैं घास हरे ।
गाय - बकरियाँ खूब चरे ।।
कंद - मूल , फल भरे पड़े ।
तरह - तरह के पेड़ खड़े ।।
अब इनको न छेड़ना है ।
बल्कि वृक्ष लगाना है ।।
काटें अब न एक भी पेड़ ।
कोई काटे तो उसे खदेड़ ।।
पर्यावरण का हो विस्तार ।
अब करना है उससे प्यार ।।
डॉ.प्रमोद सोनवानी पुष्प
श्री फूलेंद्र साहित्य निकेतन
तमनार / पड़िगाँव - रायगढ़
(छ.ग.) 496107
0000000000000000000000
बख्तयार अहमद खान
मरने के बाद एक पत्रकार का खत....
कुछ भी हो जाए ऐसा मत करना ,
आइना उनके रु ब रु मत रखना
कि उन्हीं का अक्स वो पहचान न पायें गे,
खुद को देखें गे तो ग़ुस्से से भर जाएँगे
ये भी मुमकिन है कि आईने को ग़लत ठहरा दें ,
ये एक साज़िश के तहत है ऐसा बतला दें
ज़हन परेशान और दिल में बेचैनी लिए,
तुम्हें पता भी है कि वो क्या कर डालें,
मैंने जो भुगता है तुम भी वो भुगत सकते हो,
साफ़ लफ़्ज़ों में कहूँ तुम भी तो मर सकते हो
जानती हूँ तू बहादुर है तुझ में हिम्मत भी है,
मगर आज के इस दौर में तेरी ज़रूरत भी है
आइना गर रखना तो एहतियात भी रख लेना,
चाहने वालों को अपने साथ भी रख लेना,
मौत और ज़िंदगी यूँ तो खुदा के हाथ में है,
एक बड़ा हिस्सा आबादी का तेरे साथ में है,
मेरे लिए भी बहुत लोग फिक्रमंद रहे,
ये तो मुमकिन ही न था कि जुबां बंद रहे
मेरी सदा को हमेशा के लिए सुला डाला गया,
जो एक चिराग़ रौशन था बुझा डाला गया
मेरी लहू कि बूँदें रायगाँ न जाएँगी,
मेरी तरह कि नई फसल उग के आएगी,
नए अंदाज़ नई परवाज नई कोशिश होगी ,
ये भी सच है कि नई तरह कि साज़िश होगी
बंद कर दो कलम ऐसा मैं नहीं कहती,
खामोश सह लो सितम ऐसा में नहीं कहती,
ये मगर सच है कि चप्पे चप्पे पे एक साया है ,
जिसे अपना समझते हो वो पराया है,
वो जो हर शाम डायरी लिखा करते हो,
किन से ख़तरा है वो नाम लिखा करते हो?
अगर न मरती मैं तो कुछ और भी कर सकती थी,
नई बुनियाद का पत्थर भी रख सकती थी,
इसी तरह तुम सवालात पूछते रहना,
कैसे हैं उनके खयालात पूछते रहना,
हाँ मगर पूंछों सवालात तो एहतियात भी रख लेना,
चाहने वालों को अपने साथ भी रख लेना,
वरना ,मैंने जो भुगता है तुम भी तो भुगत सकते हो ,
और साफ़ लफ़्ज़ों में कहूँ, तुम भी तो मर सकते हो ,
(बख्तयार अहमद खान)
रानी बाग, आगरा-282001
000000000000000000
आदित्य मंथन
तलवार गला कर
तकली गढ़ना,
फर्जी दुनिया में
असली होना ,
इतना भी आसान नहीं है।
पर पीड़ा के खातिर
सच में रोना,
औरो के खातिर
खुद को खोना,
इतना भी आसान नहीं है।
सबको सदा
हंसाए रखना,
खुद को सदा
भुलाए रखना,
इतना भी आसान नहीं है।
ख़्वाबों के
हदबंदी में सोना,
यादों का
भार भी ढ़ोना,
इतना भी आसान नहीं है।
महबूब से
नजर चुराना,
मां से कोई
बात छुपाना,
इतना भी आसान नहीं है।
चाहत को
बेमन से ठुकराना,
फिर उसको
नकली बतलाना,
इतना भी आसान नहीं है।
अनहद प्रेम में
सब कुछ कहना
फिर भी अद्भुत
मर्यादा में रहना,
इतना भी आसान नहीं है।
आदित्य मंथन
पावरग्रिड (कोटपुतली उपकेंद्र, राजस्थान)
मो :8340295041
00000000000000000000000
आशुतोष मिश्र तीरथ
व्यंग्य
फसल लहलहाती तुम अफीम की
मैं सूखा पीड़ित ईख खेत प्रिये
हो मिट्टी तुम चिकनी और मुल्तानी
ज्येष्ठ धूप में तपती मैं गर्म रेत प्रिये
हो छड़ी जादुई बालपरी की तुम
जंगली टेढ़े बांस का मैं बेंत प्रिये
तुम लोकतंत्र की राजनीति प्यारी
मैं मतदाताओं का मत रेट प्रिये
हो बसंत माह सी आप सुहावन
तपता प्यासा मैं माह ज्येष्ठ प्रिये
पतली पतंग लौकी तुम जीरो साइ
मैं टेढ़े मेढ़े कद्दू कटहल का वेट प्रिये
पाक बलिदानी तुम राष्ट्रीय महरानी
हूँ दुर्घटनाग्रस्त मै विमान जेट प्रिये
हो तुम कांग्रेसी पवित्र कफन घोटाले
मैं टुटपुंजिया सा गली का सेठ प्रिये
हो मुकदमें तुम कपिल सिब्बल के
मैं श्री राम मन्दिर की डेट प्रिये
---
भ्रष्टाचार
ग्राम से लेकर तहसील तक
हर ओर हुआ भ्रष्टाचार है।
दलाली करने वाला युवा भी
पढा - लिखा बेरोजगार है।।
ऊपर से जनता के ऊपर
अफसरशाही की मार है।
लाख योजना लाए शासन
धरातल पर सब बेकार है।।
निम्न स्तर पर ध्यान नही
दे रही काहे ई सरकार है।
ठेकेदारों की आंख में
जाम गया यारों बार है।।
लूटने हेतु जनता को
नेता सभी बेकरार हैं।
आखिर संवैधानिक जो
मिला उन्हे अधिकार है।।
आशुतोष मिश्र तीरथ
जनपद गोण्डा
000000000000000000000000
आत्माराम यादव,पीव
गीत
*** नरबदा जी में, सपरन चलो मेरी गुंईया***
नरबदा जी में, सपरन चलो मेरी गुंईया
सपरन चलो मेरी गुंईया, सपरन चलो मेरी गुंईया
काय सोउत है, उठ जारी गुंईया,
छोर बिछौना, जाग मेरी गुंईया
डूब गयी रैना, उगन लगी भोर
सुनाई दे रओ, भुनसारे को शोर
छोर बिछौना, जागी सब गुंईया,
चंदा ने चकोरी को, दओ संग छोर मेरी गुंईया
दे रओ चकिया का, राग सुनाई मेरी गुंईया
नरबदा जी में, सपरन चलो मेरी गुंईया
झटपट उठ आई सभी बिछौना उठाय रही
लोटा उठाय सब खेत मैदान से आय रही
कोऊ मुंह धोबत, कोऊ गईया लगाय रही
नर्मदा सपरन की आई बेला, भई सभी तैयार
पीव चलन लगी सब गुईंया, जय बोलो नरबदा मैईया
नर्मदाजी में, सपर के आई सब गुंईया
उग आई सुनहरी भोर,चहुदिशी गूंज रओ शोर
नरबदा जी में, सपरन चली सब गुंईया
नरबदा जी में सपरन चलो मेरी गुंईया।
‘’’ सत्य की तलाश में’’’’’
- एक -
कभी सत्य न बीता है,
कभी सत्य न बीतेगा
हर युग में सत्य जीता है,
और सदा सत्य ही जीतेगा
सब हारे जग में,
पर सत्य न हारा है
यह सदा अजेय- अमर है,
कभी सत्य न हारेगा।
ये सत्य नया नहीं है
और न ये सत्य पुराना है।
यह सत्य सनातन अजन्मा है
न म़त्यु कभी सत्य की आना है।
सत्य समय के बाहर है
समय के भीतर
न सत्य को पाना है।
‘’पीव’’ जन्मम़त्यु है
जीवन की यात्रा
जीव को राह में मिले
केवल सत्य ठिकाना है।
-- दो--
प्राणों से अवतरित है सत्य यहॉ
यह भीड का अंग नहीं है प्यारे
प्राणों से झंक़त होता सत्य सदा
यह नहीं उधार की बात है प्यारे।
परम्परायें,याददाश्तें और आदतों से
मुक्त हुये न सत्य को पा सकते भाई
पीव किताबों की बातें मरी हुई
सब राख है, कैसे सत्य जानोगे भाई
जब खुद की तलाश में गहरे में उतरो
प्राणों में अवतरित होगा महासत्य
अनाहद नाद की वीणा से खुद खो जाओगे
तब रोम रोम पारदर्शी हो जायेगा
तुम खुद सत्य हो ऐसे पा जाओगे,
जैसे हर युग में सत्य को जीतने वाले
हर काल में सत्य को न बीतने वाले।
*** कितना खतरनाक होता है सपनों का मर जाना***
जब जब दिल का दर्द, असीम हो जाता है
तब-तब मुर्दा शांति सा, यह शरीर भर जाता है।
गायब हो जाती है तडप, ठहर जाते है मनोभाव
मर जाते है सपने, हो जाता है शमशान सा ठहराव।।
रोज रोज घर से काम पर निकलना, और लौट कर आना
कितना कष्टप्रद होता है, दुनिया में सब कुछ सह जाना।
द्वेष हिंसा और वासना,है आदमी के स्वार्थ की कहानी
छल,कपट और बेईमानी, है धर्म के विनाश की वाणी।
नींद के नहीं, मैं जागते सपनों को देखता रहा हूं
समय की हर करवटों में, सौ-सौ बार मरा और जिया हूं।।
खामोशी से शांत है शरीर, जीवन का हर पल थम सा गया है
डूब रहा आत्मा का सूरज, चेतनमन मौत में रम सा गया है।।
‘’पीव’’ कितना खतरनाक होता है, जीवन में सपनों का मर जाना
अपने जिस्म को मुर्दा बनाकर, उस मुर्दाशांति से खुद भर जाना।।
एक टीस उठी है अंतरमन में
जब भी मेरे प्राणों में
अवतरित होता है सत्यगीत
देह वीणा बन जाती है,
सत्य बन जाता है परमसंगीत।
एक टीस सी उठती है हृदय में,
किसी को मैं दिखला न सका
जीवन सांसों के बंधन पर,
ह़दय के क्रंदन को मैं जान न सका।
रिसता प्राणों से जो हरपल,
जैसे टूट रहा सांसों का बंधन
झूठी हॅसी है छलिया जीवन,
भटक रहा जीवन का स्पंदन ।
नयनों में सपने बिसरे-धुंधले,
अनछुई यादें है दिल में उलझी
सच से लगते है ये सारे सपने
बीते यौवन की बातें
न अब तक सुलझी।
ढूंढ रहा भवसागर में,
मिलते नहीं रूलाते हो
बिखरी कडिया जीवन की,
जोडते नहीं भटकाते हो।
पीव अंधकार भरे सूने पथ पर,
मैं एक दीप जलाना चाहूं,
जीवन में मादकता का ज्वर पसरा,
बेबस हूं मैं कुछ कर ना पाऊं।
एक गीत उठा है प्राणों में मेरे
गाना चाहूं पर मैं गा न पाऊं
जो टीस उठी है अंतरमन में,
दिखलाना चाहूं, पर मैं दिखला न पाऊं।।
जनता तिल तिल मरती है
भोलीभाली जनता यह शहर बडा निराला है
नेता रंग बदलता, प्रकृति ने बदला पाला है
बदनाम हुआ गिरगिट बात झुंझलाती है
सुलग रहा यह झूठ, तपिश इसकी जलाती है।
मैं खामोश नहीं रहा हूं अब तक
मेरी माटी अपना दर्द छिपाती है।
नदिया जंगल और पहाड भले बेजुंबा है
शान से जी रहे इनके कातिल शर्म आती है।
तुम यह सब सह लेते हो दिलदार हो बडे
मैं सह न पाता करता हूं कई प्रश्न खडे।
अकेले भभकता दिया, बनकर कब तक जिऊंगा
चोट करते है वे मातृभूमि पर, कब तक सहूंगा ।
पीव जननी ये जन्मभूमि है खामोश दर्द सब सहती है
सरकार हुई सौदाई जनता तिल तिल मरती है।
जीवन प्रवाह अब थम सके
हे देव तेरे चरणों में
समर्पित है मेरा तन,मन और धन
जीवन में घुल आई जो मादकता
मैं क्यों न कर पाता हूं तुझको अर्पण।
मैं ढूंढूं तेरे चरणों में
जीवन का सुख और अपना भवसागर
अंश्रुपूरित इन नयनों को मिलता
क्यों अंधकारभरा पथ और खाली गागर।
मैं धरू दीप तेरे चरणों में
जीवन में मेरे अंधकार की है काली छाया
मैं कोई दीप प्रज्जल्वित न कर पाया
कलकल में बीता हर पल,समय की माया।
मैं नतमस्तक हूं तेरे चरणों में
क्यों मेरे मन के अरमां अब तक न पिघल सके
पीव बरसों कामनाओं का मैंने दीया जलाया
ढली उम्र आया बुढापा, जीवनप्रवाह अब थम न सके।
अरी आत्मा तू जाये कहां रे
अरी आत्मा तू आती कहां से
अरी आत्मा तू जाती कहां है।
पुरूष को वरेगी या स्त्री को
ये परिणीता तू सीखी कहां है।
तू कन्या वधु है,या पुरुष वर है
स्तब्ध जगत तुझे,,न जान सका है।
क्या महाशून्य से आती है तू,
क्या महाशून्य को जाती है तू।
जब प्राणों में बस जाती है तू
तब कौन सा धर्म निभाती है तू।
पति धर्म से पत्नी बनती है तू
या पत्नी धर्म से पति बन जाती है तू।
ओ आत्मा री, तेरी हुई किससे सगाई
परमात्मा तेरा वर है,तूने भावरे उससे रचाई।
पीव प्राणों को छोड, आत्मा तू चली जाये
प्राणहीन देह पडी, दुनिया पंचतत्व में मिलाये।
मैं एक और जनम चाहता हूं, बस प्यार के लिये
मैं एक और जनम चाहता हूं,
मेरे हमदम मेरे प्यार के लिये।
प्यार अधूरा रहा इस जनम में,
अगला जनम मिले बस प्यार के लिये।
नये जनम का मीत, बस प्रीति ही करें
दिलोजिगर में संभाले, अपने आंचल में रखे।
सुबह उठे तो होठों पे उसके हो प्यारी हॅंसी
चेहरा कुंदन सा दमके, वो हो मेरी बाबरी।
हर घडी उसकी, मेरे इंतजार में बीते
शाम यू स्वागत करें, जैसे फासले सदियों के
हंसी रातें हों, मेरे अरमां सभी पिघल जाये,
आरजू बचे न कोई,प्रीति ऐसी मिल जाये।
मेरे सुखों को वह, अपनी वफा की ज्योति दे दे
मेरे दुखों को वह,अपने आंसुओं के मोती दे दे
समय कितना भी कठिन हो, वह कभी न डगमगाये
बात जनम मरण की हो,उसके माथे पे बल न आये।
‘’पीव’’ मुझे ऐसा ही प्यार मिले, जिसके संग हो मेरी भांवरे
जीवन में प्यार कभी न थमे, यह अभिलाषा पूरी हो सांवरे
मैं एक और जनम चाहता हूं,जिसमें मिले ऐसी हमदम
प्यार की वह ऐसी सरिता हो,जिसमें अन्हाये ही नहाये रहे हम।
आत्माराम यादव,पीव
द्वारकाधीश मंदिर के सामने, केसी नामदेव निवास, जगदीशपुरा, वार्ड नं- 2, होशंगाबाद मध्यप्रदेश
000000000000000000000000
महेन्द्र देवांगन "माटी"
पेड़ों को मत काटो
***************
एक एक पेड़ लगाओ , धरती को बचाओ ।
मिले ताजा फल फूल, पर्यावरण शुद्ध बनाओ ।
मत काटो तुम पेड़ को , पुत्र समान ही मानो ।
इनसे ही जीवन जुड़ा है , रिश्ता अपना जानो ।
सोचो क्या होगा अगर, पेड़ सभी कट जायेंगे ?
कहां मिलेगी शुद्ध हवा, तड़प तड़प मर जायेंगे ।
फल फूल और औषधि तो, पेड़ों से ही मिलते हैं ।
रहते मन प्रसन्न सदा , बागों में दिल खिलते हैं ।
पंछी चहकते पेड़ों पर , घोसला बनाकर रहती हैं।
फल फूल खाते सदा, धूप छाँव सब सहती हैं ।
सबका जीवन इसी से हैं, फिर क्यों इसको काटते हो।
अपना उल्लू सीधा करने, लोगों को तुम बाँटते हो।
करो संकल्प जीवन में प्यारे, एक एक वृक्ष लगायेंगे ।
हरा भरा धरती रखेंगे, जीवन खुशहाल बनायेंगे ।
--
1 जीवन एक गणित है
***
जीवन एक गणित है, इसे बनाना पड़ता है ।
कभी करते हैं जोड़ तो, कभी घटाना पड़ता है ।
चलती नहीं कभी समांतर, ऊंच नीच हो जाते हैं ।
सम विषम के खेल में, कितने आड़े आते हैं ।
कभी सुख की बिंदु पाते, तो वक्र का दुख भी होता है ।
आड़े तिरछे जीवन रेखा, अश्रु बीज फिर बोता है ।
कभी करते हैं गुणा तो, भाग भी करना पड़ता है ।
जीवन के इस गणित को, हल भी करना पड़ता है ।
महेन्द्र देवांगन "माटी"
पंडरिया (कवर्धा )
छत्तीसगढ़
00000000000000000000
प्रिया देवांगन "प्रियू "
पर्यावरण बचायेंगे
#############
एक एक पेड़ लगायेंगे ,
पर्यावरण बचायेंगे ।
नहीं फैलायेंगे कूड़ा कर्कट,
देश को स्वच्छ बनायेंगे ।
आओ मिलकर पेड़ लगाये,
जीवन में खुशियाँ फैलायें।
शुद्ध वातावरण बनाये ,
बीमारी को दूर भगायें ।
शुद्ध ताजा हवा चलेगा ,
राही को छांव मिलेगा ।
नहीं भटकेंगे पक्षी सारे
पेड़ों पर घोसला बनायेंगे,
एक एक पेड़ लगाकर
पर्यावरण बचायेंगे ।
प्रिया देवांगन "प्रियू "
पंडरिया (कबीरधाम )
छत्तीसगढ़
00000000000000000000
अनुज हूण
संकट आएगा जब तुम पर
तब तुम मेरे बारे में सोचोगे,
ये कैसी गलती हो गई हमसे
खुद अपने आप को कोशोगे,
काश बर्बाद ना करता जल को
तो ये दिन कभी आता नहीं
समझ लेता जल की एहमियत
तो आज में इतना पछताता नहीं,
सुख गए सब नल और नदियाँ
अब जल कहा से लाऊँ में
बच्चे प्यासे बैठे हैं मेरे
अब किसके पास जाऊँ मैं
बहुत बड़ी हुई थी गलती
जो जल को यूँ ही बर्बाद किया
दबाई चटकनी चलाया पानी
फिर बन्द करना ना याद किया,
जल ही जीवन है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी मुश्किल है।
अनुज हूण शुक्लमपुरा
000000000000000000
सर्वेश कुमार मारूत
गर्मी का तो हाल न पूछो यहाँ बस शोले बरसते है,
अब तो परिंदे भी आसमानों में उड़ने से डरते हैं।
बादल छुप रहे हैं देखो एक दूसरे पर चढ़कर,
कहीं गर्मी के यह शोले सुपुर्दे ख़ाक न कर दे।
यूँ पानी मौज़ूद था, सूखा ; जैसे ख़ाली हों यह तहख़ाने,
जो मछली धूप में उछली, और कुकुर: जीभ को ताने।
00000000000000
Dhanyavad Raviji...
जवाब देंहटाएंSabhi rachanakaron ko badhai...