लघुकथाएँ देवेन्द्र सोनी रक्तदान छोटे बेटे की बीमारी से परेशान सुनीता जैसे तैसे अपने दिन काट रही थी। मजदूर पति सुरेश सुबह ही दिहाड़ी के लिए ...
लघुकथाएँ
देवेन्द्र सोनी
रक्तदान
छोटे बेटे की बीमारी से परेशान सुनीता जैसे तैसे अपने दिन काट रही थी। मजदूर पति सुरेश सुबह ही दिहाड़ी के लिए निकल जाता।
मजबूरी थी उसकी बीमार बेटे को अनपढ़ पत्नी के भरोसे छोड़ कर जाना। खुद भी ज्यादा कहाँ पढ़ा - लिखा था वह। आठवीं पास को भला आज के जमाने में कौन पूछता है। कई जगह नौकरी के लिये कोशिश करने के बाद मजदूरी करने में ही उसने अपनी भलाई समझी। परिवार का पेट तो पालना ही था उसे।
पत्नी भी मजदूरी करती थी संग -संग तो जैसे तैसे गुजारा हो जाता था पर अब बेटे को न जाने यह कौन सी अंग्रेजी बीमारी हो गई कि रोज ही खून की बॉटल लगवाओ।
गरीब को कोई अपना खून क्यों देने लगा। इतना पैसा भी नहीं कि खरीद सके। बस अब तो सब भगवान की दया पर है। जिए या मरे। यही सोचकर वह दिहाड़ी पर जाने लगा और सुनीता घर रहकर बेटे की देखभाल करने लगी।
एक दिन ज्यादा हालत बिगड़ती देख वे दोनों बच्चे को लेकर फिर सरकारी अस्पताल पहुंचे लेकिन खून न मिल सका। सुनीता तो अपने आँचल में बेटे को समेटे रोये ही जा रही थी। उसे रोता देख समीप बैठे एक नौजवान ने उससे कारण पूछा और अपना रक्त देकर उन्हें थोड़ी राहत दी, पर होनी को जो मंजूर था वही हुआ। बच्चा नहीं बचा।
मां का रूदन थमने का नाम नहीं ले रहा था मगर तभी सुरेश ने दुःखी ह्रदय से मन ही मन उस नौजवान का आभार व्यक्त कर यह प्रण ले लिया कि अब से वह हर जरूरतमंद के लिए रक्तदान करेगा , चाहे उसकी जान ही क्यों न चली जाए।
रक्त के अभाव में बेटे की मौत और उस नौजवान के रक्तदान ने सुरेश को एक बड़ी सीख दी थी जो अब कई जिंदगियों को बचाने के काम आने के प्रण में बदल चुकी थी।
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पिता का विश्वास
अपने पिता का अंतिम संस्कार कर लौट रहे सिद्धार्थ की आँखों से अविरल धारा वह रही थी। वह अपने साथ वापस हो रही भीड़ के आगे - आगे चल जरूर रहा था पर उसका मन उसी तेजी से पीछे भाग रहा था। साथी उसके कंधे पर हाथ रखकर सांत्वना दे रहे थे पर वह जानता था ये आंसू दरअसल उसके मन में चल रहे प्रायश्चित के आँसू भी हैं।
उसे रह रह कर अफ़सोस हो रहा था कि वह अपने पिता के कहे अनुसार क्यों नहीं चला। क्यों उसने वह सब किया - जिनसे पिता हमेशा दूर रहने के लिए कहते थे।
बेचैन मन लिए वह जैसे तैसे थके कदमों से घर पहुंचा पर अब उसे कोई कुछ बोलने वाला नहीं था। कोई उसे प्यार और निस्वार्थ भाव से समझाने वाला नहीं था। वह एकांत में जाकर फिर फूट फूट कर रोने लगा। उसे लग रहा था कि - हो न हो , उसका विजातीय विवाह ही पिता की मृत्यु का कारण बना है। अभी पिछले महीने ही तो उसने पिता को बताए बिना अपनी मर्जी से मंदिर में शादी की है। एक बार भी उसने पलट कर पिताजी का आशीर्वाद लेना उचित नहीं समझा और शहर से बाहर चला गया। बिना यह सोचे कि उसके बगैर मां पिताजी का क्या हाल होगा।
कैसा डर था यह , कैसी सम्वादहीनता पसरी थी पिता - पुत्र के बीच जिसने उसे अपने पिता का सामना भी नहीं करने दिया। काश ! वह एक बार तो अपने मन की बात पिता से कहता। पिताजी तो उससे कितना प्यार करते थे ...और मां। मां से ही बता देता। शायद , नहीं ...नहीं ...पक्के से पिताजी उसकी शादी मनोरमा से ही करा देते। वे तो जात -पांत मानते ही नहीं थे। क्या वे अपने इकलौते पुत्र की बात नहीं मानते। जरूर मानते। उसने ही गलती की है जिसकी इतनी बड़ी सजा उसे मिली है। अब वह माफ़ी मांगे भी तो किससे मांगे ? क्या समय लौट कर आ सकता है।
तभी मनोरमा की मार्मिक आवाज से सिद्धार्थ की तन्द्रा टूटी। वह कह रही थी - अपने को सम्हालो सिद्धार्थ। अब मांजी को देखो। उनका रो रो कर बुरा हाल हो रहा है। बार बार अचेत हो रही हैं। मैंने डॉक्टर अंकल को फोन कर दिया है। वे आते ही होंगे। अब चलो भी। कब तक मां का सामना नहीं करोगे। मां ने हमें माफ़ कर दिया है। मुझे बेटी कहकर गले लगाया है। अब से मैं ही उनकी देखभाल करूंगी। आप जरा भी चिंता न करें और मां से मिल लें।
मनोरमा की बातों से सिद्धार्थ थोड़ा सम्हला। खुद को संयत कर वह मां के कमरे में उनसे लिपट कर रोने लगा।
तीसरे दिन , सिद्धार्थ ने जब पिताजी की अलमारी खोली तो उसमें एक खत मिला जिसके ऊपर लिखा था- प्रिय बेटे सिद्धार्थ।
थरथराते हाथों से सिद्धार्थ ने चिट्ठी खोली।
लिखा था - सिद्धार्थ। तुम इतने बड़े कब से हो गए कि - अपने जीवन का निर्णय खुद कर लिया। मुझे बताया भी नहीं। एक बार मुझसे या अपनी मां से कहकर तो देखते। कितनी धूमधाम से करते हम तुम्हारी शादी। बचपन से आज तक तुम्हारी खुशियां ही तो देखी है। जानता हूँ - तुम जिद्दी स्वभाव के रहे हो लेकिन यह नहीं जानता था कि तुम मुझसे इतना डरते हो। नहीं जानता - तुमने बिना बताए शादी मेरे डर की वजह से की या कोई और कारण था। यदि हर बेटा ऐसा करेगा तो माता पिता का तो अपने बच्चों पर से विश्वास ही उठ जाएगा।
खैर , जो हुआ सो हुआ। जब भी घर लौटो। इस विश्वास से लौटना कि यह घर तुम्हारा है। हम तुम्हारे हैं।
अंत में लिखा था - काश ! तुम मेरे रहते लौट आओ। तुम और तुम्हारी माँ नहीं जानते , मुझे ब्लड कैंसर है। यदि तुम्हारे लौटने से पहले ही मैं दुनिया छोड़ दूँ तो मन में यह बोझ लेकर नहीं जीना कि मेरी मृत्यु तुम्हारे कारण हुई है। बहू को मेरा आशीष।
अपनी माँ का ख्याल रखोगे , इतना विश्वास है मुझे।
- तुम्हारा पिता।
- देवेंन्द्र सोनी, इटारसी।
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