1 ग़ज़ल हम ही बस दीवाने निकले, दूजे बहुत सयाने निकले। जिन-जिनको समझे थे अपना, वे सब ही बेगाने निकले। ज़रा-सा छेड़ा है जब-जब ...
1
ग़ज़ल
हम ही बस दीवाने निकले,
दूजे बहुत सयाने निकले।
जिन-जिनको समझे थे अपना,
वे सब ही बेगाने निकले।
ज़रा-सा छेड़ा है जब-जब भी,
दसियों ज़ख़्म पुराने निकले।
अपना कहने वाले हमको,
वक़्त पड़ा, अनजाने निकले।
रहा ख़याल तुम्हारा ही, जब,
घबरा के मर जाने निकले।
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2
ग़ज़ल
जैसे कोई पत्थर हूँ मैं,
रूठा-सा मुकद्दर हूँ मैं।
लगता है सब हैं बेहतर,
सबसे ही कमतर हूँ मैं।
रक्खे न रिश्ता कोई,
क्या इतना बदतर हूँ मैं?
दूर-दूर रहते सब लोग,
जैसे कोई डर हूँ मैं।
फिर भी इतना विष्वास मुझे,
इक इन्सान मगर हूँ मैं।
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3
ग़ज़ल
चार दिनों की दुनिया है,
कहीं धूप कहीं छैंया है।
समझ न पाए हम अब तक,
उससे अपना रिश्ता क्या है।
हमको मिले हैं ज़ख़्म बहुत,
बस यही हमने पाया है।
आया है वह बनकर दोस्त,
लेकिन बरबादी लाया है।
ख़ुशी मिलेगी जाने कब,
दिल पर ग़म का साया है।
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4
ग़ज़ल
धीरे-धीरे टूट गया मैं,
दुनिया से ही छूट गया मैं।
ज़िन्दा रहने की कोशिश में,
पीता मौत के घूँट गया मैं।
मिला नहीं फल मेहनत का,
पत्थर कितने कूट गया मैं।
दिया इल्ज़ाम लुटेरों ने ही,
कि उनको तो लूट गया मैं।
दिल में भर गए ग़म इतने,
मटके जैसा फूट गया मैं।
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5
ग़ज़ल
सच को याद करने का फ़ायदा ही नहीं,
सच से मिलने का अब कायदा ही नहीं।
मिलता है झूठ, चढ़ाकर सच के मुलम्मे,
सच यह है कि सच अब बचा ही नहीं।
सच और इन्सानियत को दिया है दफ़ना,
सिर्फ़ किया गया उन्हें विदा ही नहीं।
वे रखते हैं यक़ीन तबाह कर देने में,
दूजों को डरा देना उनकी अदा ही नहीं।
वे लोग क्या समझेंगे मोल इन्सानों का,
जिनकी नज़रों में ख़ुदा-ख़ुदा ही नहीं।
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6
ग़ज़ल
कभी कुछ, कभी कुछ और होने लगे हैं लोग,
गिरगिट की तरह रंग बदलने लगे हैं लोग।
ग़ैरों की बात और है, उनको तो छोड़ दीजिए,
अपने भी अब तो वादे से मुकरने लगे हैं लोग।
हम ही लिए बैठे हैं उसूलों की बैसाखियाँ,
वरना तो आसमान में उड़ने लगे हैं लोग।
अब जा के सुनाएँ भी किसे ग़म का हाल हम,
अपने ही आप में तो डूबे रहने लगे हैं लोग।
कह दो इन्सानियत से कि अब डूब मरे कहीं,
हैवानियत से चूँकि प्यार करने लगे हैं लोग।
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7
ग़ज़ल
ज़िन्दगी अंधा कुआँ है इन दिनों,
हर तरफ़ धुआँ-धुआँ है इन दिनों।
देखकर शैतानियत के नंगे नाच,
काँप उठता रुआँ-रुआँ है इन दिनों।
इन्सानियत तो मिल चुकी है ख़ाक में,
ढूँढा उसको कहाँ-कहाँ है इन दिनों।
अंधी दौलत कमा ली है उसने इतनी,
रहता इसलिए बहुत परेशां है इन दिनों।
देखे उसका चेहरा इक ज़माना हुआ,
ख़ुश रहे सदा वह जहाँ है इन दिनों।
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8
ग़ज़ल
ज़ख़्म इतना गहरा न होता,
देखा गर तेरा चेहरा न होता।
बनता सिलसिला अपने बीच,
दुनिया का गर पहरा न होता।
तेरी यादों में गुम नहीं होते,
तो यह वक़्त ठहरा न होता।
दुनिया बदलती आसानी से, गर,
कानून अंधा-बहरा न होता।
भूल जाने की आदत नहीं है,
वरना हर जख़्म हरा न होता।
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9
ग़ज़ल
बेचैन बहुत दिल का दर्द करता है,
तेरा जाना मेरे चेहरे को ज़र्द करता है।
तेरी ऐसी बातों की हमें आदत नहीं,
ऐसी बातें तो कोई हमदर्द करता है।
ज़माने को हर कोई झुका नहीं सकता,
ऐसी ज़ुर्रत तो कोई-कोई मर्द करता है।
उसे पैसे की क़ीमत नहीं मालूम शायद,
तभी सोने-चाँदी को भी ग़र्द करता है।
सोचें मेरे दिल की भटकें कहाँ-कहाँ पर,
जैसे आवारगी कोई आवाराग़र्द करता है।
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10
ग़ज़ल
झूठे-सच्चे चेहरे देखे,
सच पर सौ-सौ पहरे देखे।
ख़ुशी न मिल पाई अलबत्ता,
कितने ख़्वाब सुनहरे देखे।
बेपरवाज़ों को उड़ते देखा,
पर वाले वहीं ठहरे देखे।
चेहरों की मुस्कान के पीछे,
हमने मतलब गहरे देखे।
जिनको दर्द बताने चाहे,
वे सब लोग ही बहरे देखे।
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परिचय
नाम - हरीश कुमार ‘अमित’
जन्म 1 मार्च, 1958 को दिल्ली में
शिक्षा बी.कॉम.; एम.ए.(हिन्दी); पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
प्रकाशन 700 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. एक कविता संग्रह 'अहसासों की परछाइयाँ', एक कहानी संग्रह 'खौलते पानी का भंवर', एक ग़ज़ल संग्रह 'ज़ख़्म दिल के', एक बाल कथा संग्रह 'ईमानदारी का स्वाद', एक विज्ञान उपन्यास 'दिल्ली से प्लूटो' तथा तीन बाल कविता संग्रह 'गुब्बारे जी', 'चाबी वाला बन्दर' व 'मम्मी-पापा की लड़ाई' प्रकाशित. एक कहानी संकलन, चार बाल कथा व दस बाल कविता संकलनों में रचनाएँ संकलित.
प्रसारण - लगभग 200 रचनाओं का आकाशवाणी से प्रसारण. इनमें स्वयं के लिखे दो नाटक तथा विभिन्न उपन्यासों से रुपान्तरित पाँच नाटक भी शामिल.
पुरस्कार-
(क) चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की बाल-साहित्य लेखक प्रतियोगिता 1994, 2001, 2009 व 2016 में कहानियाँ पुरस्कृत
(ख) 'जाह्नवी-टी.टी.' कहानी प्रतियोगिता, 1996 में कहानी पुरस्कृत
(ग) 'किरचें' नाटक पर साहित्य कला परिाद् (दिल्ली) का मोहन राकेश सम्मान 1997 में प्राप्त
(घ) 'केक' कहानी पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान दिसम्बर 2002 में प्राप्त
(ड.) दिल्ली प्रेस की कहानी प्रतियोगिता 2002 में कहानी पुरस्कृत
(च) 'गुब्बारे जी' बाल कविता संग्रह भारतीय बाल व युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा (म.प्र.) द्वारा पुरस्कृत
(छ) 'ईमानदारी का स्वाद' बाल कथा संग्रह की पांडुलिपि पर भारत सरकार का भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, 2006 प्राप्त
(ज) 'कथादेश' लघुकथा प्रतियोगिता, 2015 में लघुकथा पुरस्कृत
(झ) 'राष्ट्रधर्म' की कहानी-व्यंग्य प्रतियोगिता, 2016 में व्यंग्य पुरस्कृत
(ञ) 'राष्ट्रधर्म' की कहानी प्रतियोगिता, 2017 में कहानी पुरस्कृत
सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त
पता - 304, एम.एस.4, केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56, गुरूग्राम-122011 (हरियाणा)
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