समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद ¤ डॉ. महेन्द्र भटनागर वक्तव्य ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ मेरा शोध-प्रबन्ध है; जिसे मैंने श्रद्धेय आचार्...
समस्यामूलक उपन्यासकार
प्रेमचंद
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डॉ. महेन्द्र भटनागर
वक्तव्य
‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ मेरा शोध-प्रबन्ध है; जिसे मैंने श्रद्धेय आचार्य विनयमोहन शर्मा जी के निर्देशन में लिखकर, ‘नागपुर विश्वविद्यालय’ को, 1957 में, प्रस्तुत किया था।
इस प्रबन्ध में प्रेमचंद जी के मात्र औपन्यासिक दृष्टिकोण पर विस्तार से विमर्श किया गया है तथा उन्हें समस्यामूलक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है।
प्रतिपाद्य विषय से सम्बन्धित जितने तथ्यों और तर्कों को प्रस्तुत करना आवश्यक था; प्राय: उन सभी को विवेचना और विश्लेषण का आधार बनाया गया है। मात्र मौजू व युक्तियुक्त उद्धरण देकर निष्कर्षों की पुष्टि की गयी है। उद्धरण-बहुलता है ज़रूर; किन्तु उनकी उपादेयता सिद्ध है। इनसे पाठकों को, विविध विषयों पर, एक ही स्थान पर, प्रेमचंद जी के समस्त उपन्यासों में अभिव्यक्त उनके विचारों को जानने-पढ़ने की सुविधा भी उपलब्ध हुई है।
प्रेमचंद जी विश्व के प्रमुख उपन्यासकारों में स्थान पाने के अधिकारी हैं। उनकी उत्तरोत्तर बढ़ती लोकप्रियता उनकी कृतियों के कलात्मक मूल्य का असंदिग्ध प्रमाण है। सम्स्यामूलक तत्त्व पर दृष्टिक्षेप करने पर ही प्रेमचंद जी के उपन्यासों का वास्तविक मूल्यांकन सम्भव है।
आशा है, ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ की स्थापना को समीक्षक और शोधार्थी परखेंगे।
॰॰॰महेन्द्रभटनागर
110, बलवन्त नगर, गांधी रोड, ग्वालियर – 474002 (म॰ प्र॰)
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
भूमिका
डा. महेन्द्रभटनागर की पुस्तक ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ पढ़कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। महेन्द्रभटनागर जी ने प्रेमचंद के जीवन-दर्शन और मानवतावादी पक्ष का बहुत उत्तम विश्लेषण किया है। वे मानते हैं, “ प्रेमचंद मानवतावादी लेखक थे। गांधीवादी या साम्यवादी सिद्धान्तों से उन्होंने सीधी प्रेरणा ग्रहण नहीं की। उन्होंने जो कुछ जाना, सीखा, लिया; वह सब अपने अनुभव मात्र से। इसीलिए उनके साहित्य में अपरास्त शक्ति है। गांधीवाद और साम्यवाद कोई मानवता के विरोधी नहीं हैं; अतः प्रेमचंद के विचारों में जगह-जगह दोनों की झलक मिल जाती है। लेकिन उनका मानवतावाद सर्वत्र उभरा दीखता है।’’ यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं कि प्रेमचंद पूर्णरूप से मानवतावादी थे। उनके उपन्यासों में और लेखों में जड़-सम्पत्ति मोह - चाहे वह परम्परागत सुविधा के रूप में हो, ज़मीदारी या महाजनी वृत्ति का परिणाम हो, या उच्चतर पेशों से उपलब्ध हो - मानव की स्वाभाविक सद्वृत्तियों को रुद्ध करता है। प्रेमचंद ने सचाई और ईमानदारी को मनुष्य का सबसे बड़ा उन्नायक गुण समझा है। प्रेम उनकी दृष्टि में पावनकारी तत्त्व है। जब वह मनुष्य में सचमुच उदित होता है तो उसे त्याग और सचाई की ओर उन्मुख करता है। महेन्द्रभटनागर जी ने बड़ी कुशलतापूर्वक प्रेमचंद की इस मानवतावादी दृष्टि का विश्लेषण किया है। उनका यह कथन बिल्कुल ठीक है कि ’’ प्रेमचंद ने ’औद्योगिक नैतिकता’ का वर्णन कर उद्योगपतियों की मनोवृत्ति के विरुद्ध जन-मत तैयार किया है।’’ उन्होंने उस मूक जनता का पक्ष लिया है जो दलित है, शोषित है, और निरुपाय है। पुस्तक में प्रेमचंद के उपन्यासों और लेखों से उद्धरण देकर उन्होंने इस बात का स्पष्टीकरण किया है।
प्रेमचंद जी साहित्य सर्जक थे। उन्होंने केवल पात्रों के मुँह से ही विचार नहीं व्यक्त किये हैं बल्कि पात्रों और घटनाओं के जीवन्त गतिमय संघटना के द्वारा अपने मत की व्यंजना की है। महेन्द्रभटनागर जी ने इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया है। वे सीधे प्रेमचंद की कलम से निकले हुए विविध प्रसंगों दे उद्- गारों से ही अपने वक्तव्य का समर्थन करते हैं। उनके निष्कर्ष स्वीकार योग्य हैं, परन्तु साहित्य के विद्यार्थी की सभी जिज्ञासाओं को वे संतुष्ट नहीं करते। ऐसा जान पड़ता है कि समस्याओं का रूप स्पष्ट करके प्रेमचंद के उद्गारों से उनके समाधान की ओर इंगित करना ही उनका लक्ष्य है। इस कार्य को उन्होने बड़े परिश्रम और कौशल से सम्पन्न किया है। इस दिशा में उनका प्रयत्न सफल हुआ है।
पुस्तक बहुत उपयोगी हुई है। प्रेमचंद के विचारों को उन्होंने बड़ी स्पष्टता और दृढ़ता के साथ व्यक्त किया है। मुझे आशा है कि साहित्य-रसिक और समाज-सेवी इससे समान रूप से आनन्द पा सकेंगे। हमारे देश की बहु-विचित्र समस्याओं का इसमें उद्घाटन हुआ है और प्रेमचंद जैसे मनीषी का दिया हुआ समाधान इससे स्पष्ट हुआ है। महेन्द्रभटनागर जी से और सुन्दर रचनाअओं की आशा सâहृदयजन करेंगे। मेरी शुभकामना है कि परमात्मा उन्हें दीघ्र जीवन,सुन्दर स्वास्थ्य और अधिकाधिक शक्ति प्रदान करे।
57-11-24 ॰॰॰ डॉ. हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ]अध्यक्ष : हिन्दी-विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय[
अनुक्रम
1 प्रवेशक /7
2 प्रेमचंद के समय का भारत / 13
3 प्रेमचंद युग में मध्य-वर्ग की स्थिति / 24
4 प्रेमचंद की साहित्य-सम्बन्धी मान्यताएँ / 36
5 आदर्शवाद और यथार्थवाद / 53
6 प्रेमचंद : द-वनजीर्शन / 61
7 मानवतावादी प्रेमचंद / 72
8 समस्यामूलक उपन्यास / 86
9 समस्यामूलक उपन्यास और प्रेमचंद / 94
10 भारतीय स्वाधीनता की समस्या /117
11 रियासतों और देशी नरेशों की समस्या /130
12 साम्प्रदायिक समस्या /144
13 शैक्षणिक समस्या / 156
14 औद्योगिक समस्या / 169
15 ग्रामीण जीवन (किसान-वर्ग की समस्याएँ) / 178
16 अछूत वर्ग / 194
17 भारतीय नारी (क) वैवाहिक समस्या / 205
18 भारतीय नारी (ख) दाम्पत्य जीवन / 219
19 भारतीय नारी (ग) विधवा-समस्या / 231
20 भारतीय नारी (घ) वेश्या-समस्या / 244
21 ‘गोदान’ - समस्यामूलक तत्त्व के कोण से रेखांकन / 256
22 औपन्यासिक रचना-तंत्र और प्रेमचंद / 275
23 अभिमत / 298-308
प्रवेशक
सर्वप्रथम ‘समस्यामूलक’ शब्द की व्याख्या अपेक्षित है। ‘समस्या-प्रधान’ और ‘समस्यामूलक’ शब्दों के शास्त्रीय अर्थ में अन्तर है; लेकिन विरोध नहीं । प्रस्तुत प्रबन्ध का सीधा सम्बन्ध प्रेमचन्द के उपन्यासों में उठाई गई समस्याओं से है, जिनके कारण प्रेमचंद के उपन्यास समस्यामूलक अथवा समस्याओं के उपन्यास बन जाते हैं। प्रेमचन्द-साहित्य के प्रमुख आलोचक प्रेमचन्द के उपन्यासों को समस्यामूलक या समस्या-प्रधान नहीं मानते। सामाजिक उपन्यास और व्यक्ति-चरित्र के उपन्यास नामक दो कोटियों में वे उनके उपन्यासों की गणना करते हैं। मेरा इससे तात्त्विक मतभेद है।
इसमें सन्देह नहीं कि प्रेमचन्द के प्रायः सभी उपन्यास सामाजिक हैं, पर उनकी सामाजिकता किसी-न-किसी समस्या पर ही आधारित है। प्रेमचन्द का कोई भी उपन्यास ऐसा नहीं है जिसमें किसी समस्या को उठाया न गया हो। वस्तुतः वे समस्यामूलक उपन्यासकार ही थे। यहाँ तक कि किसी-न-किसी उपन्यास में तो अनेक समस्याएँ प्रधान समस्या के साथ बराबर दौड़ती हैं और छोटी-छोटी समस्याओं की ओर तो लेखक का ध्यान सदैव ही बना रहता है। जहाँ भी अवसर मिला है, प्रेमचन्द इन समस्याओं को बिना छुए नहीं रहे हैं। मेरी धारणा है कि प्रेमचन्द के समस्त उपन्यासों का उद्देश्य केवल हिन्दुस्तान की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, पारिवारिक आदि समस्याओं को अपने उपन्यासों में प्रस्तुत करना रहा है। समस्याओं का प्रश्न प्रधान है। शेष बातें समस्याओं को ही केन्द्र मानकर बढ़ती हैं और संकुचित होती हैं। समस्यामूलक उपन्यास में उपन्यासकार का लक्ष्य केवल समस्या को रखने और सुलझाने या ज्यों-की-त्यों छोड़ देने की ओर रहता है। उपन्यास के अन्य सामान्य तत्त्व उसकी रचना में बिखर जाते हैं। प्रेमचन्द के उपन्यासों में हमें यही बात मिलती है। बिना इस दृष्टिकोण को सम्मुख रखे प्रेमचन्द के उपन्यासों का शास्त्रीय अध्ययन करना असंगत होगा।
प्रेमचन्द पर कुछ आलोचकों ने ‘प्रचारवादी’ होने का आक्षेप लगाया है। यह आक्षेप बिना उनके मूल उद्देश्य को समझे किया गया है। प्रेमचन्द ने अपने ‘उपन्यास’ शीर्षक निबन्ध में साहित्य और प्रचार के सम्बन्ध में लिखा है: ”जब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिए की जाती है तो वह अपने ऊँचे पद से गिर जाता है - इसमें कोई सन्देह नहीं। लेकिन आजकल परिस्थितियाँ इतनी तीव्र गति से बदल रही हैं, इतने नए-नए विचार पैदा हो रहे हैं कि कदाचित् अब कोई लेखक साहित्य के आदर्श को ध्यान में रख ही नहीं सकता। यह बहुत मुश्किल है कि लेखक पर इन परिस्थितियों का असर न पड़े, वह उनसे आन्दोलित न हो। यही कारण है कि आजकल भारतवर्ष के ही नहीं, यूरोप के बड़े-बड़े विद्वान भी अपनी रचना द्वारा किसी ‘वाद’ का प्रचार कर रहे हैं। वे इसकी परवाह नहीं करते कि इससे हमारी रचना जीवित रहेगी या नहीं। अपने मत की पुष्टि करना ही उनका ध्येय है, इसके सिवाय उन्हें कोई इच्छा नहीं। मगर वह क्योंकर मान लिया जाए कि जो उपन्यास किसी विचार के लिए लिखा जाता है, उसका महत्त्व क्षणिक होता है ? विक्टर ह्यू गो का ‘ला मिज़रेबुल’, टाल्सटाय के अनेक ग्रन्थ, डिकेन्स की कितनी ही रचनाएँ विचार-प्रधान हाते हुए भी उच्च कोटि की साहित्यिक हैं और अब तक उनका आकर्षण कम नहीं हुआ। आज भी शॉ, वेल्स आदि बड़े-बड़े लेखकों के ग्रन्थ प्रचार ही के उद्देश्य से लिखे जाते रहे हैं।”1
सहित्य और प्रचार के सम्बन्ध में प्रेमचन्द के उपर्युक्त विचार इस बात की पुष्टि करते हैं कि उनका मुख्य उद्देश्य भारतीय जन-जीवन की समस्याओं को, विचार-प्रधान उपन्यासों के माध्यम से, प्रस्तुत करना था। वे अपने युग की समस्याओं को समझते थे और उन्हीं को लेकर उपन्यास-क्षेत्र में आए। देश की विभिन्न समस्याओं पर वे अपने विचार स्वतंत्र लेखों में भी व्यक्त कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। विचारों का प्रचार एवं समस्याओं के प्रति जनता का ध्यान आकर्षित करने के लिए किसी कलात्मक माध्यम की आवश्यकता होती है। प्रेमचन्द ने यह कलात्मक माध्यम कथा-साहित्य चुना। यह बहुत कुछ लेखक की अपनी व्यक्तिगत रुचि और विषय-वस्तु पर निर्भर करता है। प्रेमचन्द कलावादी नहीं थे। औपन्यासिक कला को उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त करने का साधन बनाया था; साध्य नहीं। वे किसी भी रचना में कलात्मक आवरण मात्र इस सीमा तक अनिवार्य मानते थे कि उसके अभाव में वह रचना नीरस और प्रभावशून्य न हो जाय। अपने ‘उपन्यास’ शीर्षक लेख में वे आगे चलकर लिखते हैं:
“उपन्यासकार को इतना प्रयत्न करना चहिए कि उसके विचार परोक्ष रूप से व्यक्त हों। उपन्यास की स्वाभाविकता में उस विचार के समावेश से कोई विघ्न न पड़ने पाए, अन्यथा, उपन्यास नीरस हो जाएगा।”2
उपन्यास-कला के व्याख्याकार के रूप में प्रेमचन्द की उपर्युक्त मान्यता थी। किसी सीमा तक वे इसमें सफल भी हुए हैं। लेकिन उपन्यासकार प्रेमचन्द अपनी स्वयं की मान्यताओं को जगह-जगह छोड़ जाते हैं और सीधे भाषाणकर्ता के रूप में आ उपस्थित होते हैं। उनके उपन्यासों में ऐसे स्थल अनेक हैं। उन्हीं स्थलों के आधार पर कुछ आलोचक उन पर प्रचारवादी होने का आरोप लगाते हैं। मूल प्रश्न यह है कि प्रेमचन्द ऐसा क्यों करते हैं ? उपन्यास-कला की व्याख्या करते हुए जिस तथ्य का उन्होंने विरोध किया है, उसे वे उपन्यास लिखते समय क्यों दृष्टि से ओझल कर जाते हैं ? उपन्यास-कला पर उनके जो विचार लेखबद्ध हैं वे पूर्णतः उनके उपन्यास-साहित्य में क्यों नहीं मिलते ? इसका एकमात्र उत्तर है - उनका समस्याओं के प्रति प्रेम। सामान्य औपन्यासिक कला-सम्बन्धी जितने दोष प्रेमचन्द के उपन्यासों में मिलते हैं, उसका कारण बहुत कुछ उनका समस्याओं के प्रति गहरा आकर्षण है। वे सभी तत्त्वों को पीछे छोड़कर समस्याओं के ताने-बाने में उलझ जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनके उपन्यासों को केवल सामाजिक उपन्यास की संज्ञा नहीं दी जा सकती। उनकी सामाजिकता समस्याओं के साथ है। कड़ी आलोचनाओं और आक्षेपों के बावजूद प्रेमचन्द ने यह मार्ग नहीं छोड़ा था। अतः उनके उपन्यास समस्यामूलक हैं। वे उपन्यास की पुरानी परम्परागत शास्त्रीय सीमाओं में नहीं बँध पाते।
दूसरे, कूछ आलोचक प्रेमचन्द के उपन्यासों को व्यक्ति-चरित्र के उपन्यास बताते हैं। यह अवश्य है कि प्रेमचन्द का एक-आध उपन्यास चरित्र-प्रधान है; लेकिन इस तथ्य को स्वीकार कर लेने पर भी प्रेमचन्द के समस्यामूलक उपन्यासकार होने में कोई रुकावट नहीं आती। किसी भी लेखक के साहित्य का मूल्यांकन उसकी केवल एक-आध रचना के आधार पर नहीं किया जा सकता। चरित्रांकन के सम्बन्ध में भी प्रेमचन्द की स्वयं की मान्यताओं में विरोध मिलेगा। ‘उपन्यास’ नामक निबन्ध के प्रारम्भ में ही वे लिखते हैं:
“मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।”3
प्रेमचन्द के अधिकांश आलोचकों के लिए उपर्युक्त वाक्य ‘वेद-वाक्य’ हो गए हैं। वे प्रेमचन्द के उपन्यासों का मूल्यांकन पूर्वाग्रह पर करते हैं। माना कि प्रेमचन्द ने औपन्यासिक रचनातंत्र में चरित्रांकन को प्रधानता दी है, पर यह कोई पूर्व निश्चित शर्त नहीं कि वह तथ्य उनके उपन्यासों में भी प्रधान हो। व्यक्ति-चरित्र की सूक्ष्मता प्रेमचन्द के उपन्यासों में है; किन्तु इसी आधार पर उनके उपन्यासों को चरित्र-प्रधान नहीं ठहराया जा सकता। समस्याओं में उलझे हुए पात्रों का चित्रण कुशलता के साथ होना ही चाहिए। प्रश्न यह है कि क्या पात्र समस्या-तत्त्व की प्रधानता को दबा देते हैं एवं प्रेमचंद अपनी कला का सर्वोत्कृष्ट तथा अधिकाधिक उपयोग केवल पात्रों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में ही करते हैं ? उनके आगे के उपन्यासकारों में अवश्य यह प्रवृत्ति पाई जाती है, पर प्रेमचन्द के सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसका कारण केवल इसके अतिरिक्त और कोई नहीं कि प्रेमचन्द के सम्मुख मात्र एक उद्देश्य था कि उपन्यास के माध्यम से भारतीय जीवन में परिवर्तन लाया जाय। वे अपने को ‘क़लम का मज़दूर’ कहते थे और वही कार्य जो महात्मा गांधी अपनी सक्रिय राजनीति से कर रहे थे, प्रेमचन्द अपनी लेखनी से पूरा करना चाहते थे। प्रत्येक असाधारण प्रतिभा में पात्रों के मनोभावों की तह तक पहुँचने की एक अलौकिक क्षमता होती है और वह प्रेमचन्द में भी थी।
प्रेमचन्द पहले समस्यओं को महत्त्व देते हैं और बाद में चरित्रांकन को। इस बात की पुष्टि उनके विरोधी आलोचकों के आक्षेपों से भी होती है। उनके कथनानुसार प्रेमचन्द का चरित्रांकन बड़ा दुर्बल हैं। उनके पात्र स्थान-स्थान पर लेखक की इच्छानुसार कठपुतली की तरह नाचने लगते हैं। यहाँ तक कि प्रेमचन्द उनके स्वभावों में भी एकाएक परिर्वतन कर देते हैं। अतः उनके चरित्रों में मानव मनोविज्ञान की दृष्टि से दोष आ गया है। मनुष्य का मन इतना सरल नहीं होता, जो बड़ी सुगमता से अपनी इच्छानुसार मोड़ा जा सके। विशेष परिस्थितियों में अथवा एक लम्बा समय निकल जाने के बाद ही चरित्र-परिवर्तन कभी-कभी सम्भव हो सकता है। निस्संदेह प्रेमचन्द के पात्र कहीं-कहीं निर्जीव हो गए हैं। वस्तुतः प्रेमचन्द की महानता चरित्रांकन में दृष्टिगोचर नहीं हाती, भले ही कुछ श्रद्धालु आलोचक उनकी मान्यताओं के अनुसार उनके उपन्यासों को मानव-चरित्र का दर्पण समझें। कहीं-कहीं कहानियों में चरित्रांकन की कसौटी पर वे अवश्य खरे उतरे हैं, पर उपन्यासों में नहीं। उनके उपन्यासों को व्यक्ति चरित्र के उपन्यास कहना उनके महत्त्व को कम करना है।
वास्तव में उनके मानस-पट पर भारतीय जनता की समस्याओं का ऐसा जाल बिछा हुआ था कि वे उससे किसी भी दशा में मुक्ति न पा सके और न पाना ही चाहते थे। समस्याओं को यथासम्भव ओैपन्यासिक कला के भीतर रखने और उन्हें सुलझाने में वे प्रायः पात्रों को अपनी इच्छानुसार मोड़ लेते हैं। यही कारण है कि कुछ आलोचक उनके पात्रों को कठपुतली-पात्र की संज्ञा देते हैं। प्रेमचन्द तुलसीदास की तरह लोक-हितवादी थे। उनका साध्य चरित्रांकन मात्र नहीं था। यदि होता, तो यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि उनके पात्र किसी भी प्रकार हलके नहीं ठहरते; क्योंकि उनमें एक असाधारण प्रतिभा थी, जो उस दिशा में भी अपना प्रभाव निश्चय ही दिखाती।
अतः प्रेमचन्द के उपन्यासों का वैज्ञानिक मूल्यांकन उनके चरित्रांकन को या उनकी समाजिकता को प्रधानता देकर नहीं हो सकता। हमें इनके भी मूल में जाना होगा। और वह है उनका समस्यामूलक रूप। इसी क्षेत्र में उनका गौरव निहित है।
प्रस्तुत प्रबन्ध में यह खोजने का प्रयत्न किया गया है कि प्रेमचन्द के समय में देश की जो अवस्था थी उसके अनुरूप उन्होंने किस प्रकार अपने उपन्यासों को गढ़ा। वे कौन-कौन-सी समस्याएँ थीं जिन्हें प्रेमचन्द हल करना चाहते थे, उनकी ओर समाज का ध्यान आकर्षित करना चाहते थे। उन समस्याओं के प्रति प्रेमचन्द के अपने क्या विचार थे और इस प्रकार प्रेमचन्द समस्यामूलक उपन्यासकार के रूप में कहाँ तक सफल रहे।
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संदर्भ-संकेत
1 कुछ विचार, पृ. 42
2 वही, पृ. 42-43
प्रेमचन्द के समय का भारत
प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई सन् 1880 ई॰ को हुआ था। उनका साहित्यिक जीवन लगभग सन् 1901 से प्रारम्भ होता है। सन् 1901 से 1936 तक भारत प्रेमचन्द की सूक्ष्म दृष्टि का केन्द्र रहा। अतः यह अवश्यक है कि प्रेमचन्द के समय के भारत की राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक दशा पर पहले विचार कर लिया जाय; क्योंकि प्रेमचन्द व्यक्तिवादी लेखक नहीं थे; उन पर उस समय की परिस्थितियों तथा समस्याओं का पूरा-पूरा प्रभाव है। किसी काल-विशेष में जो दृष्टिकोण मान्यता प्राप्त करता है उसका सम्बन्ध जागरूक लेखकों से निकट का रहता है। वस्तुतः विचारक और लेखक ही अपने समय की विचारधारा के वाहक होते हैं। वे ही राष्ट्र तथा समाज को जीवन व गति प्रदान करते हैं।
प्रेमचन्द-युग भारतीय जनता के राष्ट्रीय संघर्ष का युग है। पराधीनता के कारण प्रत्येक क्षेत्र में भारत का विकास रुका हुआ था और उसकी सभी समस्याओं का निराकरण बिना स्वाधीनता-प्राप्ति के सम्भव नहीं हो पा रहा था। राष्ट्रीय पराधीनता एक ग्रन्थि के समान बन गई थी जो भारतीय जीवन की आर्थिक तथा सामाजिक समस्याओं के सूत्रों को सुलझाने नहीं देती थी। सबसे पहला प्रश्न देश को साम्रज्यवादी शक्तियों से मुक्त करने का था। भारत की समग्र चेतना व कर्म-शक्ति ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने में लगी हुई थी। अतः सर्वप्रथम राजनीतिक भारत पर दृष्टिपात करना उपयुक्त होगा।
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में देश में निराशा का वातावरण छाया हुआ था। सन् 1857 का स्वाधीनता-संग्राम विफल हो चुका था। ब्रिटिश सरकार का दमनचक्र अपनी पूरी गति से चल रहा था। भारतीय जन-जीवन उसमें कोई राह न पाकर अनिश्चितता के बीहड़ प्रदेश में भटक रहा था। सन् 1885 में ‘इडियन नेशनल कांग्रेस’ का निर्माण हुआ। भारत के सुप्त प्राण पुनः जाग उठे। देश में एक नई हलचल उत्पन्न हुई।
सन् 1901 में महारानी विक्टोरिया की मृत्यु के पश्चात् सप्तम एडवर्ड गद्दी पर बैठे। सन् 1885 से 1905 तक ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ ने काफ़ी प्रगति की और वह जन-संस्था के रूप में देखी जाने लगी। इस बीच कांग्रेस के कार्य शांतिपूर्ण समझौते तथा विश्वास के आधार पर ही इुए। “कांग्रेसियों के दिलों में कभी-कभी कुछ उत्तेजना और रोष के भाव आ गए हों, पर इसमें कोई शक़ नहीं कि ठेठ 1885 से 1905 तक कांग्रेस की जो प्रगति हुई उसकी बुनियाद थी वैध आन्दोलन और अंग्रेज़ों की न्यायप्रियता के प्रति उनका दृढ़ अटल विश्वास ही।”1
बीसवीं शताब्दी के प्रथम पाँच वर्ष लार्ड कर्ज़न के दमनपूर्ण शासन के थे। भारत को इस दमन का सबसे बड़ा धक्का बंग-भंग से लगा। बांग्ला भाषा-भाषी जनता की इच्छा के प्रतिकूल बंगाल को दो प्रान्तों में बाँट दिया गया। सन् 1911 की शाही घोषण से बंग-भंग का निर्णय वापस ले लिया गया। इसी समय भारत के राजनीतिक मंच पर सर आगा खाँ के दर्शन हुए। आगा खाँ के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई जिसने साम्प्रदायिक पृथक् प्रतिनिधित्व की माँग की और इस प्रकार भारत-विभाजन की नींव डाली। “1912 में लार्ड हार्डिंग जब जुलूस के साथ हाथी पर नई राजधानी दिल्ली में प्रवेश कर रहे थे, किसी ने उन पर बम फेंका और वह मरते-मरते बचे।”2 अफ्रीका के भारतीय आन्दोलन से भी देश की राष्ट्रीय चेतना को नया बल मिला।
जुलाई, 1914 में महासमर छिड़ गया। इस समर में भारतीय फौजों ने ब्रिटेन की पूरी रक्षा की। महात्मा गांधी ने सरकार को पूर्ण सहयोग दिया, क्योंकि युद्ध ‘आत्मनिर्णय’ के आधार पर किया गया था। लेकिन भारत की पराधीनता ज्यों-की-त्यों रही। इसी समय अंग्रेज़ सरकार द्वारा रोलट बिल (1919) को कानून बनाने के प्रयत्न किये गये। गांधी जी ने इसका कड़ा विरोध किया। “गांधी जी ने यह घोषणा की कि यदि रोलट कमीशन की सिफारिशों को बिल का रूप दिया गया तो वे सत्याग्रह-युद्ध छेड़ देंगे।”3 गांधी जी ने सम्पूर्ण देश का दौरा किया और अन्त में उन्हें आन्दोलन छेड़ना पड़ा। देश ने चारों तरफ़ से इस आन्दोलन का साथ दिया। जगह-जगह गोलियाँ चलीं। सबसे भयंकर नर-संहार जलियांवाला बाग (अमृतसर) में जनरल डायर द्वारा हुआ।
“सबसे बड़ी दुख बात वास्तव में यह थी कि गोली चलाने के बाद मृतकों के शव और वे लोग जो सख़्त घायल हो गये थे, उन्हें सारी रात वहीं पड़ा रहने दिया गया। वहाँ उन्हें रात-भर न तो पानी ही पीने को मिला और न डाक्टरी या कोई अन्य सहायता ही। डायर का कहना था, जैसा कि बाद को उसने प्रकट कियाः चूँकि शहर को फौज के कब्ज़े में दे दिया गया था और इस बात की डौंडी पिटवा दी गई थी कि कोई भी सभा करने की इज़ाजत नहीं दी जायगी, तो भी लोगों ने उसकी अवहेलना की, इसलिए मैंने उन्हें एक सबक देना चाहा, ताकि वे उसकी खिल्ली न उड़ा सकें।’ आगे चलकर उसने कहा कि ‘मैंने और भी गोली चलाई होतीं, अगर मेरे पास कारतूस होते। सोलह सो बार ही गोली चलाई, क्योंकि मेरे पास कारतूस ख़त्म हो गये थे।’ उसने कहा : ‘मैं तो एक फौजी गाड़ी (आरमर्ड कार) ले गया था, लेकिन वहाँ जाकर देखा कि वह बाग के भीतर घुस ही नहीं सकती थी। इसलिये उसे वहीं छोड़ दिया था।”4 सितम्बर 1919 में हण्टर-कमीशन की नियुक्ति की घोषण की गई। जिससे पंजाब के उपद्रवों की जाँच करने के लिए कहा गया। गांधी जी ने सत्याग्रह स्थगित कर दिया।
आगे चलकर 1920 के असहयोग-आन्दोलन ने ज़ोर पकड़ा। सन् 1920 की 28 मई को हण्टर-रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसके कारण देश में क्षोभ और छा गया। भारतीय सदस्य उस रिपोर्ट से सहमत नहीं थे। असहयोग की योजना 1 अगस्त से प्रारम्भ हुई। जगह-जगह आन्दोलनों की बाढ़-सी आ गई। अनेक आन्दोलनकारी जेलों में ठूंस दिये गये। नवम्बर, 1920 में प्रिन्स ऑफ़ वेल्स के स्वागत का बहिष्कार किया गया। आन्दोलन सफलता की सीमा को पहुँचने लगा। लोगों के हौसले बहुत बढ़े हुए थे। असहयोग-आन्दोलन में हिन्दू-मुसलमानों ने मिलकर संघर्ष किया। लार्ड रीडिंग भी इस आन्दोलन से परेशान हो उठे। असहयोग-आन्दोलन अहिंसात्मक था, लेकिन चौरीचौरा के एक थाने पर लोगों ने आक्रमण किया और उसे जला दिया। गांधी जी ने हिंसा देख, आन्दोलन स्थगित कर दिया। गांधी जी भी इस आन्दोलन में छह वर्ष के लिए जेल भेजे गये।
सन् 1922 में टैक्स न देने का आन्दोलन छिड़ा, जिसमें सरकार ने बड़ी कठोरता से काम लिया। सन् 1923 में जेलों से छूटे नेताओं ने कौंसिलों में जाने का निश्चय किया। स्वराज्य पार्टी का निर्माण हुआ। साइमन कमीशन का बहिष्कार किया गया; क्योंकि उसमें एक भी भारतीय नहीं था। सन् 1927 में होने वाले हिन्दू-मुस्लिम दंगों5 को शांत करने के लिए ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने साइमन कमीशन भेजा था, लेकिन उसमें कोई भी भारतीय न होने से भारत ने उसे अपना अपमान समझा। धीरे-धीरे असंतोष तीव्रतर होता गया। जवाहरलाल नेहरू ने मद्रास कांग्रेस में भाग लिया। कांग्रेस में नया खून आया और गांधी जी द्वारा विरोध करने पर भी पूर्ण स्वराज्य की घोषणा कर दी गई। 1930 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में नमक-कानून भंग करने के लिए आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। 6 अप्रैल, 1930 को दाण्डी पहुँचकर नमक बनाया गया। स्त्रियों ने पर्दा छोड़कर इस आन्दोलन में भाग लिया। ब्रिटिश सरकार ने लाठियों और गोलियों से इस आन्दोलन को भी दबाना चाहा। गांधी-इरविन पैक्ट सामने आया। तत्पश्चात् गांधी जी कांग्रेस के प्रतिनिधि बनकर गोलमेज कान्फ्रेंस में भाग लेने इंगलैंड गए। गांधी जी जब वापस लौटे तब देश की हालत और भी बिगड़ी दिखाई दी। उस समय लार्ड विलिंगटन का शासन था, जो बड़ा कठोर था। संयुक्त-प्रान्त के किसान लगान-बन्दी आन्दोलन कर रहे थे। नये भारत-कानून के अनुसार हरिजनों को हिन्दुओं से अलग करने की चेष्टा की गई। गांधी जी ने इस साम्प्रदायिक निर्णय के विरुद्ध आमरण अनशन की घोषणा कर दी। बाद में पूना-पैक्ट हुआ और व्रत तोड़ दिया गया। सन् 1935 में भारतीय शासन-विधान बना। कांग्रेस ने विधान के अनुसार चुनावों में भाग लिया; यद्यपि वह संतुष्ट न थी। इस प्रकार कांग्रेसी बहुमत वाले प्रान्तों में शासन-सूत्र कांग्रेस के हाथ में आ गया। मंत्रिमंडल बन ही रहे थे कि 7 अक्टूबर,1936 को प्रेमचन्द की मृत्यु हो गई।
प्रेमचन्द के जीवन-काल में भारत उपर्युक्त राजनीतिक घटना-चक्रों में से गुज़रा था। वास्तव में प्रेमचन्द का युग भारतीय स्वाधीनता-संग्राम का युग है। उनके समय देश का यौवन अपने पूरे विकास पर था। एक ओर नवयुवक बड़े उत्साह से स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर रहे थे तो दूसरी ओर ब्रिटिश साम्राज्यवाद का दमन-चक्र अपनी पूरी कठोरता व निर्दयता के साथ चल रहा था। देश में जगह-जगह सभाओं और आन्दोलनों की धूम थी। विशाल जनसमूह के जुलूस प्रमुख नगरों में प्रायः निकला ही करते थे। प्रसिद्ध इतिहासकार और अर्थशास्त्री रजनी पामदत्त ‘आज का भारत’ नामक ग्रंथ में लिखते हैं : “1914-18 के पहले महायुद्ध से, और उसके बाद सारी दुनिया पर जो क्रांति की लहर छा गई थी, उससे दूसरे सभी उपनिवेशों की तरह हिन्दुस्तान में भी बड़े-बड़े परिवर्तनों का युग आरम्भ हुआ। 1919-22 में बड़े-बड़े जन-आन्दोलनों से भारत हिल उठा और विश्वव्यापी आर्थिक संकट के बाद, जिसका हिन्दुस्तान पर बहुत असर पड़ा, 1930-34 में और भी ज़ोरों से जन-आन्दोलनों की लहर आई। ब्रिटिश हुकूमत इस उठते हुए राष्ट्रीय आन्दोलनों का मुक़ाबला बारी-बारी से सुधार और दमन के जरिये करती थी। एक तरफ भविष्य में खुदमुख़्तार सरकार देने के वादे किए जाते थे, दूसरी तरफ वैधानिक सुधार किये जाते थे कि जिन हाथों में ताक़त पहले थी वह वहीं बनी रहती थी।”6 प्रेमचन्द ने अपनी आँखों से भारतीय चेतना के इस उभार को देखा ही नहीं था; वरन् वे उस चेतना के वाहक एवं प्रसारक भी थे। व्यक्तिवादी लेखक न होने के कारण वे अपने को उपर्युक्त महत्त्वपूर्ण घटना-चक्रों से अलग नहीं रख सकते थे।
लेकिन उनके उपन्यास भारत के राजनीतिक जीवन का ही प्रतिनिधित्व नहीं करते, वरन् उसके आर्थिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर भी दृष्टिपात करते हैं। वस्तुतः प्रेमचन्द के उपन्यास भारत की राष्ट्रीय भावनाओं और उसकी विविध ज्वलंत समस्याओं के प्रतीक हैं। वे मात्र ऐतिहासिक महत्त्व के उपन्यास नहीं हैं। वर्तमान जीवन अर्थनीति पर निर्भर है। आर्थिक संगठन का सामाजिक जीवन पर पूरा-पूरा प्रभाव पड़ता है। प्रेमचन्द के समय देश की आर्थिक स्थिति बड़ी भयानक थी। स्वयं प्रेमचन्द का जीवन आर्थिक अभावों का जीवन था। उन्होंने गरीबी का कटु अनुभव किया था। ग्रामों और नगरों में समान रूप से उनका जीवन बीता था। हिन्दुस्तान की निर्धनता और उससे मुक्त होने का उसका संग्राम प्रेमचन्द के उपन्यासों मे एक विशेष महत्त्व रखता है। भारत की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में प्रेमचन्द से पूर्व भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लिखा था :
अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।।
ताहू पैं महँगी काल रोग विस्तारी।
दिन दिन दूने दुःख ईस देत हा हा री।।
सब के ऊपर टिक्कस की आफ़त आई।
हा हा ! भारत दुर्दशा न देखी जाई।।7
अंग्रेज़ी राज्य में भारतीय जनता के शोषण का यह यथार्थ चित्र है। इस देश की सारी सम्पत्ति धीरे-धीरे ब्रिटेन पहुँच रही थी। भारतीय जनता आर्थिक अभावों में बड़ी कठिनाई से जीवन काट रही थी। इस अपार निर्धनता के बीच जनता पर विभिन्न करों का भारी बोझ लाद दिया गया था; और इस प्रकार भारतीय जनता के रक्त से ब्रिटिश साम्राज्य का भव्य भवन बन रहा था। हिन्दुस्तान ब्रिटिश साम्राज्य की धुरी था। यहाँ के व्यापार का सबसे बड़ा भाग अंग्रेज़ों के हाथ में था। हिन्दुस्तान के दारिद्र्य के संबंध में भारतके प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शाह और खंबाटा ने लिखा -
“हिन्दुस्तानियों की औसत आमदनी इतनी होती है कि तीन आदमियों की आमदनी से दो का ही पेट भर सकता है। उनको तीन बार खाना खाने की ज़रूरत होती है। तीन बार न खाकर दो ही बार खाएँ तो इतना हो सकता है कि इन तीनों आदमियों का पेट भर जाय। लेकिन इसके लिए शर्त यह है कि वे कपड़े न पहनें न घर में रहें बल्कि साल-भर बाहर ही दिन काटें। तभी अपनी आमदनी से वे भरपेट खाना खा सकते हैं, लेकिन यह खाना भी ऐसा होना चाहिए जो सबसे मोटा-झोटा और शारीरिक शक्ति के लिए बिलकुल मामूली हो।”8
सरकारी रिपोर्टों से भी साधारण जनता की दयनीय दशा प्रकट होती है : “कुशल मज़दूरों को छोड़कर हिन्दुस्तान के मज़दूरों को इतनी पगार मिलती है कि मुश्किल से ही उनका पेट भर सकता है और तन ढका रह सकता है। हर जगह इनकी बस्ती में ठूंसा-ठूंस मची हुई है। गन्दगी और तबाही की कोई हद नहीं।”9
“हिन्दुस्तान के लोगों का एक बहुत बड़ा हिस्सा अब भी ऐसी गरीबी मे दिन काट रहा है कि इस तरह की चीज़ पश्चिम के देशों में है ही नहीं। ज़िन्दगी और मौत के कगार पर इनके दिन कट रहे हैं।”10
“उद्योग-धंधों के अधिकांश केन्द्रों में मज़दूरों की कुल आबादी का दो-तिहाई भाग ऐसे लोगों का है जो कर्ज़ में डूबे हुए हैं।.... अधिकांश लोगों का खर्च उनकी तीन महीने की मज़दूरी से ज़्यादा और अक़्सर इससे भी बहुत ज़्यादा पड़ता है।”11
“आजकल बंगाल के अधिकतर किसान ऐसा भोजन करते हैं जिसके सहारे चूहे भी पाँच हफ़्ते से ज़्यादा नहीं चल सकते। उचित खुराक न मिलने से उनकी शक्ति इतनी क्षीण हो गई है कि वे गन्दी बीमारियों की छूत का मुक़ाबला कर ही नहीं सकते।”12
प्रेमचन्द के उपन्यासों में किसान-वर्ग का चित्रण बड़े विस्तार से किया गया है। भारतीय गाँवों और किसानों की दशा से वे अत्यधिक निकट से परिचित थे। ‘प्रेमाश्रम’ और ‘गोदान’ ग्रामीण जनता अथवा किसान-वर्ग के महाकाव्य माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त ‘वरदान’, ‘सेवासदन’ आदि उपन्यासों में भी प्रेमचन्द ने किसान और उसकी विभिन्न समस्याओं की ओर सशक्त संकेत किये हैं।
भारत की अधिकांश जनता का धंधा खेती रहा है। खेती पर निर्भर लोगों का अनुपात सन् 1891 से 1931 तक की जनसंख्या-रिपोर्ट से देखा जा सकता है।12 सन् 1933 के लगभग भारतीय किसान और खेती की दशा के सम्बन्ध में प्रोफ़ेसर राधाकमल मुकर्जी अपनी पुस्तक ‘हिन्दुस्तान में भूमि की समस्या’ में लिखते हैं :
“धरती से जीविका चलानेवालों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि खेत बिल्कुल छोटे-छोटे हो गये हैं। इन छोटे खेतों में एक पूरे परिवार को भी पूरा काम नहीं मिलता।.........साथ ही ज़मीदार अपने पुराने और सम्मानपूर्ण चलन को नहीं निभाते। वे किसी तरह की दौलत पैदा नहीं करते, उनका काम सिर्फ़ लगान वसूल करना है। न वे खेती के लिए पूँजी देते हैं, न किसान के धंधों का संचालन करते हैं। इनके नीचे कारिन्दों की एक ऐसी जमात है, जो उलझी हुई भूमि-व्यवस्था से पूरा फ़ायदा उठाती है। इससे खेत जोतने वाले किसान की हालत बद से बदतर होती जाती है।”13
“युक्त-प्रान्त में खास तौर से मालगुज़ारी की दर बेतहाशा बढ़ाई गई है।”14
‘युक्त-प्रान्त की विकट स्थिति’ शीर्षक से डा॰पट्टाभि भारतीय किसान की दशा का विवरण इस प्रकार देते हैं, “युक्त-प्रान्त में विकट परिस्थति उत्पन्न हो रही थी।......युक्त-प्रान्त में किसानों की, अधिकांशतः ताल्लुकेदारों व जमींदारों के अधीनस्थ किसानों की, आर्थिक दशा बहुत खराब हो रही थी। उनकी विपत्ति बढ़ रही थी। लगान-वसूली के तरीकों में नरमी का नाम-निशान न था।........ बेदख़लियों तथा दबाव की ज़्यादती से यह विपत्ति और भी अधिक गंभीर हो गई। अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में तो किसानों पर आतंक का राज्य छा गया और उनके साथ क्रूरता पर क्रूरता होने लगी।’’15 यह विवरण लगभग सन् 1931 की स्थिति को दृष्टि में रखकर दिया गया है।
इसके अतिरिक्त भारतीय किसान कर्ज़ के बोझ से भी बुरी तरह लदा हुआ था। इस कर्ज़ का कारण अर्थिक है। बिटिश साम्राज्यवाद के समर्थक इस कर्ज़ का कारण किसानों की फ़िजूलखर्ची बताते हैं, जैसे-ब्याह-शादी, मुंडन-छेदन आदि-आदि अवसरों पर निरर्थक व्यय होनेवाला द्रव्य। पर वास्तव में ऐसी बात नहीं है। बंगाल में दक्षिण-पश्चिमी वीरभूम के देहातों के कर्ज़ की जाँच (1933-34) के अनुसार16 यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कर्ज़ का लगभग एक-चौथाई भाग लगान देने के लिए लिया गया है।17 अतः कर्ज़ के कारण आर्थिक हैं, मात्र सामाजिक कुरीतियों व अंधविश्वासों तक ही सीमित नहीं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेमचन्द के समय भारत राजनीतिक पराधीनता के पाश में ही बद्ध न था; वरन् भंयकर गरीबी का भी शिकार था। कर्ज़ के बोझ से लदा हुआ अधिंकाश भारतीय समाज असंतोष के धुएँ में साँस ले रहा था। इसका प्रमुख कारण अंग्रेज़ी राज की लूट-नीति थी। अंग्रेज़ी शासकों ने भारतीय जनता की गरीबी दूर करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया ; वे शोषण-शस्त्र से अपना ही घर भरते रहे।
प्रेमचन्द ने भारत की इस लूट को अपनी आँखों देखा था। उन्होंने समाज के प्रत्येक अंग - मज़दूर, किसान, मध्यमवर्गीय परिवार आदि की आर्थिक स्थिति अपने उपन्यासों में चित्रित की। तत्कालीन भारत की आर्थिक दशा का यथार्थ ज्ञान प्रेमचन्द-साहित्य से होता है। आर्थिक समस्या का सीधा सम्बन्ध राष्ट्रीय पराधीनता से था, अतः देश को स्वाधीन करने का प्रश्न प्रमुख था। प्रेमचंद ने पूर्ण राष्ट्रीय स्वाधीनता के आन्दोलन को इसीलिए प्राथमिकता दी। सामाजिक समस्याएँ आर्थिक कारणों पर ही अवलिम्बत रहती हैं। अर्थव्यवस्था में परिवर्तन होने से सामाजिक ढाँचा अपने-आप बदलने लगता है। अनेक सामाजिक कुरीतियों को जन्म देने वाली दूषित अर्थव्यवस्था ही होती है। प्रेमचन्द के उपन्यासों में जहाँ कहीं भी सामाजिक समस्याएँ आई हैं उनका आधार आर्थिक है। वेश्यावृत्ति, विधवा-विवाह, अनमेल-विवाह, छुआछूत, शिक्षा, ग्राम्य-जीवन आदि सभी के मूल में आर्थिक पहलू है। हमें यह देखना चाहिए कि प्रेमचन्द ने अपने समय के भारत का किस प्रकार प्रतिनिधित्व किया। वे कौन-कौन-सी तत्कालीन समस्याएँ थीं, जिनकी युग-धर्म को माननेवाला जागरूक साहित्यकार उपेक्षा नहीं कर सकता था।
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संदर्भ-संकेत
1 कांग्रेस का इतिहास, पहला खंड - डॉ. पट्टाभि सीतारमैया, पृ. 58
2 वही, पृ. 67
3 वही, पृ. 129
4 कांग्रेस का इतिहास, पहला खंड - डॉ. पट्टाभि सीतारमैया, पृ. 113
5 ‘‘1926 के मध्य में हमें देश की राजनीतिक स्थिति का सिंहावलोकन करने के लिए उत्तर जाना चाहिए। 6 अप्रैल 1926 को लार्ड इर्विन भारत में आये। लगभग उसी समय कलकत्ते में बड़ा ही भयानक साम्प्रदायिक दंगा हो गया।’’
- कांग्रेस का इतिहास, पृ. 243
‘‘सन् 1927 की गर्मियों में अन्य सालों की भाँति कोई मार्के का क़ानून नहीं पास हुआ, लेकिन देश में हिन्दू-मुस्लिम दंगों की बाढ़-सी आ गयी। सबसे भीषण दंगा लाहौर में हुआ, जो 3 मई से 7 मई तक होता रहा और जिसमें व्यक्ति मारे गये और 272 घायल हुए। बिहार, मुल्तान (पंजाब), बरेली (युक्त-प्रांत) व नागपुर (मध्य-भारत) में भी इसी प्रकार के दंगे हुए।’’
- कांग्रेस का इतिहास, पृ. 252
6 आज का भारत, पृ. 8
7 भारत दुर्दशा
8 भारत की सम्पत्ति और उसकी करोपयोगी क्षमता, 1924, पृ. 153
9 1927-28 में हिन्दुस्तान
10 1929-30 में हिन्दुस्तान
11 व्हिटले कमीशन, 1929, पृ. 224
12 ‘बंगाल स्वास्थ्य रक्षा विभाग’ के डायरेक्टर की रपोर्ट, 1927-28
13 जनसंख्या रिपोर्ट के अनुसार खेती पर निर्भर लोगों का अनुपात-
सन् 1891 ..... 61.1 फीसदी
सन् 1901 ..... 66.5 ’’
सन् 1911 ..... 72.2 ’’
सन् 1921 ..... 73.0 ’’
सन् 1931 ..... 66.6 ’’
14 पृ. 161-62
15 पृ. 206
16 कांग्रेस का इतिहास, पृ. 404
17 लगान देने के लिए / रु. 13,000 / 24.2 फ़ीसदी
पक्के सुधार के लिए / 12,736 / 23.7 ’’
सामाजिक और धार्मिक कार्यों के लिए / 12,021/ 22.3 ’’
पुराना कर्ज़ अदा करने के लिए / 4,503 / 8.4 ’’
खेती के लिए / 2,423 / 4.5 ’’
मुक़दमों के लिए / 708 / 1.3 / ’’
फुटकर / 8,471 / 15.6 ’’
(एस. बोस - आँकड़ों की हिन्दुस्तानी पत्रिका, सितम्बर, 1937)
प्रेमचन्द-युग में मध्य-वर्ग की स्थिति
भारत में मध्य-वर्ग का उदय अंग्रेज़ी साम्राज्य के फलस्वरूप हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय मध्यवर्गीय समाज का स्वरूप सामने आया। सुप्रसिद्ध कवि और विचारक श्री हुमायूं कबिर अपनी पुस्तक ‘दि इंडियन हेरिटेज’ में तत्कालीन भारतवर्ष की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं : “समस्त प्राचीन मूल्यों और विश्वासों को चुनौती दी जा रही थी। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाएँ तीव्र गति से टूट रही थीं। भारत वास्तविक अर्थ में परिवर्तन की अनिश्चित दशा में था। प्राचीन सामाजिक संगठन अव्यवस्थित हो रहा था। नए तत्त्व उभर रहे थे, जिनकी किसी भी बीते युग मे कोई मिसाल नहीं मिलती।”1
“सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन का परम्परागत ढंग अव्यवस्थित ही नहीं, कहीं-कहीं, नष्ट तक हो रहा था। यही नहीं, नए और सामंजस्यपूर्ण दृष्टिकोण के निर्माण का भी कोई प्रयत्न नहीं था जो अतीत की विरासत को पश्चिम से आये नये तत्त्वों के साथ जोड़ता। पर, प्रकृति रिक्त स्थिति नहीं रहने देती। निदान असंघटित तथा खंडित विश्वास और स्वभाव जीवन के प्राचीन ढंग का स्थान लेने लगे। प्राचीन अप्रत्याशित रूप से नष्ट हो रहा था, लेकिन नए दृष्टिकोण का उत्पन्न होना अभी शेष था।”2 भारतीय समाज पर पाश्चात्य प्रभाव बढ़ता गया जिसके फलस्वरूप मध्यवर्ग का जन्म हुआ।
यह वर्ग पढ़े-लिखे लोगों का बना। अंग्रेज़ी राज्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए विभिन्न कार्यालयों में पढ़े-लिखे व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ी। इस आवश्यकता-पूर्ति के निमित्त अंग्रेज़ों ने देश-भर में विद्यालय और महाविद्यालयों के स्थापना की और अंग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम बनाया। इन विद्यालयों और महाविद्यालयों से इस वर्ग के मस्तिष्क का उत्तरोतर विकास हुआ और मध्यवर्ग देश के प्रधान बुद्धिजीवी वर्ग के रूप में सामने आया। ब्रिटिश शासकों की शैक्षणिक नीति का स्पष्टीकरण करते हुए हुमायूं कबिर आगे लिखते हैं, “काफ़ी समय तक शासन व्यावसायिक लाभ को दृष्टि में रखकर किया जाता रहा। देश के साधनों का पूर्णरूपेण शोषण करने के हेतु ब्रिटेन को ऐसे मध्य श्रेणी के मनुष्य-समुदाय की आवश्यकता थी जो उसके और भारतीय लोगों के बीच मध्यस्थ का कार्य कर सके। शासन-प्रबन्ध की आवश्यकता के सम्बन्ध में भी यही समस्या थी। उच्चस्तरीय नीति स्वयं अंग्रेज़ नियत करते थे, पर शासन-प्रबन्ध में उसके दैनिक प्रयोग के लिए भारतीय लोगों की सेवाओं की आवश्यकता पड़ती थी। परिणाम यह हुआ कि प्रबंध के लिए एक व्यापक कर्मचारी वर्ग का निर्माण हुआ, जिसने अंग्रेज़ों को शासन-प्रबंध और व्यापार में सहायता दी। इन सेवकों की प्रमुख योग्यता अंग्रेज़ी भाषा में ‘प्रवीणता’ मानी जाती थी। शिक्षा का स्वरूप भी शासकों की आवश्यकतानुसार निर्मित हुआ। मनुष्य के व्यक्तित्व-निर्माण के स्थान पर शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य अंग्रेज़ी की भाषागत प्रवीणता प्राप्त करना हो गया।”3
मध्यवर्ग पर एक ओर पाश्चात्य प्रभाव पड़ रहा था तो दूसरी ओर भारतीय सुधारवादी संस्थाओं का। वास्तव में मध्यवर्ग की स्थिति का कोई निश्चित रूप दिखाई नहीं देता। इस वर्ग में अनेकरूपता मिलती है। हुमायूं कबिर के शब्दों में, “पढे़-लिखे नए वर्गों ने अपने विचार अधिकतर पश्चिम से ग्रहण किये। उन्होंने किसी-न-किसी रूप में अंग्रेज़ों के सम्पर्क के कारण उनके रहन-सहन को भी अपनाया।.......अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान गत शताब्दी में लगातार बढ़ता गया। जिसके कारण मध्यवर्ग का अत्यधिक फैलाव हुआ।”4 इसके अतिरिक्त इस नवोदित वर्ग पर कुछ सुधारवादी संस्थाओं का भी प्रभाव पड़ा। ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज, थियोसोफ़िकल सोसायटी, कांग्रेस आदि संस्थाओं का दृष्टिकोण सुधारवादी ही रहा। बुद्धिजीवी मध्यवर्ग अपने को इन सुधारवादी आन्दोलनों से मुक्त न रख सका और इस प्रकार उसके मानस पर सुधारवादी रंग भी चढ़ता गया। यह भारतीय मध्यवर्ग की मानसिक बनावट का विशिष्ट पहलू है जो उसे विश्व के अन्य मध्यवर्गीय जनों से पृथक करता है। मध्यवर्गीय समाज की आर्थिक श्रेणियाँ भी ध्यान देने योग्य हैं। हुमायूं कबिर लिखिते हैं, “मध्यवर्ग कभी एकरूप नहीं हो सकता। कोई भी सामाजिक वर्ग पूर्ण रूप से एकरूप नहीं होता; लेकिन मध्यवर्गीय लोगों में स्तरहीन विभाजन विशेष रूप से द्रष्टव्य है। एक ओर तो वे बिल्कुल निम्नवर्ग की सीमा पर होते हैं तो दूसरी ओर उनमें और पूँजीपतियों में अन्तर करना कठिन हो जाता है।”5
मध्यवर्ग के उदय और विकास मे पूँजीवादी व्यवस्था का भी हाथ है। पूँजीवादी देशों में मध्यवर्ग की स्थिति काफ़ी अच्छी है। भारत चूँकि पराधीन रहा इसलिए यहाँ पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का स्वतंत्रतापूर्वक विकास न हो सका। भारतीय मध्यवर्ग की स्थिति अच्छी न होने के कारण मध्यवर्गीय जनता में सर्वाधिक असंतोष व्याप्त है। हुमायूं कबिर जैसा लिखते हैं, “सभी जगह मध्यवर्ग यह अनुभव करने लगा है कि उसका कोई भविष्य नहीं है। भारत में उसकी दशा और भी दयनीय है। पूँजीवाद के विकास ने अन्य देशों में सामाजिक अर्थव्यवस्था में उनके लिए स्थान बना दिया है, पर भारत में पूँजीवाद को अंग्रेज़ों ने राजनीतिक और आर्थिक दबावों के कारण बढ़ने नहीं दिया। इस पर भी, समाज की अन्य श्रेणियों का झुकाव, मध्यवर्ग की अपेक्षा, अधिक अच्छी दशा देख कर उसकी ओर बराबर हो रहा है। मध्यवर्ग इतना बढ़ा कि मौजूदा आर्थिक स्थिति उस संख्या को सँभाल न सकी। उसके सदस्य आर्थिक श्रेणी के निचले स्तर पर वापस जाने को उद्यत नहीं थे और पूँजीवाद के प्रति उनके बढ़ते हुए क़दम हज़ारों तरीक़ों से रोक दिए गए। बेकारी बढ़ती गई और उसके साथ-साथ असंतोष भी।”6
भारत का सर्वाधिक चिंत्य वर्ग यही मध्यवर्ग है। इसकी अधिकांश समस्याएँ इसकी स्वयं की दुर्बलताओं के कारण हैं। मध्यवर्ग के व्यक्तियों के स्वभाव का विश्लेषण करने पर यह तथ्य समाने आता है कि उनके मन और मस्तिष्क का आधार अभिजातवर्गीय समाज की श्रेणी तक पहुँचने की भावना है; पर यह भावना आर्थिक अभावों के कारण कुंठित हो जाती है। इस कारण मध्यवर्गीय परिवारों में ‘दिखावे का रूप’ प्रायः पाया जाता है। बाहर से वे अपने ऊपर एक अभिजात वर्गीय परदा डाले रहते हैं। यह परदा इस कारण प्रभावहीन सिद्ध नहीं होता; क्योंकि मध्यवर्गीय व्यक्ति मानसिक विकास में किसी से पीछे नहीं होते - विकसित मानसिक धरातल के साथ अभिजातवर्गीय ढोंग निभ जाता है। पर, जीवन-संघर्ष के बीच मध्यवर्ग का यथार्थ रूप सहज ही प्रकट हो जाता है। घर में धन के नाम पर कुछ नहीं निकलता। पर, सम्मान-भावना के पीछे मध्यवर्गीय परिवार कर्ज़ लेते हैं और अपने जीवन को धीरे-धीरे उलझाते हैं। यदि अभिजात-वर्ग की प्रतिस्पर्धा की भावना का लोप इस वर्ग में हो जाए तो इस वर्ग की अधिकांश समस्याएँ दूर हो सकती हैं अथवा उनको सुलझाने में सुगमता उत्पन्न हो सकती है। निःसंदेह दिखावे की भावना के कारण ही आर्थिक तंगी का विशेष शिकार इस वर्ग को रहना पड़ता है।
मध्यवर्गीय समाज के मनोवैज्ञानिक पहलू और उसकी अन्य श्रेणियों से तुलना करते हुए श्री हुमायूं कबिर लिखते हैं, “आधुनिक भारत का संभवतः सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य मध्यवर्ग का असंतुलित फैलाव है। सम्पूर्ण विश्व में मध्यवर्ग के लोग अशांत, आलोचनात्मक और व्यक्तिवादी हैं। ऐसी स्थिति के कारण उनकी आर्थिक स्थिति डावाँडोल है। पूँजीवादी श्रेणी में ऊपर उठाने की प्रबल इच्छा के फलस्वरूप उनमें बहुत से निम्न श्रेणी की स्थिति में पहुँच जाते हैं। वे अनुभव करते हैं कि उन्हें सम्मानपूर्ण स्तर बनाए रखना आवश्यक है; जो प्रायः उनके साधनों की पहुँच के बाहर होता है। लगातार आर्थिक संघर्ष उनके जीवन के समस्त दृष्टिकोण पर प्रभाव डालता रहता है। अपनी स्थिति के सम्बन्ध में निश्चिन्त होने के कारण अभिजातवर्गीय कभी अपने महत्त्व को जताने की आवश्यकता नहीं समझता। निम्नवर्गीय भी अपने भाग्य से संतुष्ट रहता है। मध्यवर्ग संतुष्ट नही रहता और वह प्रायः उद्दण्ड, आत्मप्रदर्शनकारी और मुँहफट होता है। अपने पक्ष का समर्थन करने के लिए वह दूसरों की आलोचना करता है।”7
कुल की तथाकथित मर्यादा मध्यवर्ग के विकास में सबसे बड़ी रुकावट है। यह समस्या उच्च और निम्नवर्ग में नहीं है। निम्नवर्ग में पायः सभी सदस्य काम करते हैं और इस प्रकार अपना-अपना जीविकोपार्जन करते हैं। उनको एक-दूसरे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। परिवार के सभी सदस्य - युवक, बालक, स्त्रियाँ आदि कुछ भी काम करके थोड़ा-बहुत धन कमा ही लेते हैं। दूसरे, उनकी आवश्यकताएँ भी अधिक नहीं होती। वह बहुत कुछ संतुष्ट रहता है, पर निम्नवर्ग की तुलना में मध्यवर्ग की स्थिति बड़ी भयावह होती है। मध्यवर्गीय परिवार में कमानेवाला केवल एक सदस्य होता है। कुल की मर्यादा के कारण स्त्रियाँ नौकरी नहीं करतीं। इस प्रकार परिवार का सारा आर्थिक बोझ केवल एक व्यक्ति के कंधे पर पड़ता है, और फिर मध्यवर्ग को अपनी थोथी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए भी अनावश्यक बातों में अनिवार्य रूप से खर्च करना पड़ता है। इस प्रकार मध्यवर्ग आर्थिक अभावों में बुरी तरह ग्रस्त मिलेगा। उच्चवर्ग के पास पैसा है। वह अपने धन के बल पर हर वस्तु खरीद सकता है। अतः मध्यवर्ग का जीवन ही सर्वाधिक जटिल और अभावग्रस्त जीवन है।
पर मध्यवर्गीय अपने वर्ग को, अपने स्वतंत्र अस्तित्व को छोड़ना नहीं चाहता। “.......इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि मध्यवर्गीय भावनाओं से युक्त जनसमूह प्रतिस्पर्द्धा के दृष्टिकोण के होते हुए भी न तो ‘शासक-वर्ग’ मे विलीन हुआ है; और न शोषित औद्योगिक कामगारों के समान बना है। प्रत्युत पूँजीवाद के विस्तार-युग में उसकी संख्या बढ़ी है और उसने उस युग के महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तनों में प्रायः निर्णयात्मक भाग लिया है।”8
मध्यवर्ग की नारी की समस्या भी जटिल समस्या है। आर्थिक पराधीनता तो उसके साथ है ही; सामाजिक और नैतिक नियमों से भी वह बुरी तरह बँधी हुई है। निम्नवर्ग की नारी एक पति को छोड़कर दूसरा पति कर सकती है। इसी प्रकार उच्चवर्ग की नारी में भी यौन-पवित्रता को इतना महत्त्व नहीं दिया जाता, पर मध्यवर्ग में नारी घर की लक्ष्मी समझी जाती है। उस पर उस घर की प्रतिष्ठा आधारित रहती है। मध्यवर्गीय नारी को अपनी इच्छाओं को दबाना पड़ता है। प्रेमचन्द ने ‘ग़बन’ की ‘रतन’ में और ‘निर्मला’ में यही तथ्य प्रस्तुत किया है।
मध्यवर्ग प्राचीन संस्कारों से बुरी तरह ग्रस्त है। उसमें अभी भी प्राचीन संस्कारों को नष्ट करने की शक्ति नहीं आई है, भले ही प्राचीन संस्कारों के प्रति मोह न रहा हो। परम्परागत रूढ़ियों को मध्यवर्ग आज भी इच्छा-अनिच्छा से ढोये जा रहा है। इन्हीं संस्कारों के फलस्वरूप मध्यवर्गीय नारी-समाज की दशा सर्वाधिक शोचनीय है। सामाजिक क्षेत्र में एक प्रकार का पिछड़ापन मध्यवर्ग के नारी-समाज में प्रायः मिलता है।
मध्यवर्ग में ढुलमुल नीति का अवगुण भी मिलता हे। उसके निश्चय बहुत कम पूरे हो पाते हैं। इसका कारण मध्यवर्ग का आत्मनिर्भर न होना है। उसे श्रम-क्षेत्र में निम्नवर्ग के और अधिकार-क्षेत्र में उच्चवर्ग के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। इस कारण उसे समय-समय पर अनेक विरोधी तत्त्वों से समझौता करना पड़ता है। समझौते की भावना इसलिए और भी उससे मिलती है, क्योंकि वह संघर्ष से यथासंभव बचना चाहता है। मध्यवर्ग के अधिकांश लोग नौकरी-पेशा पाये जाते हैं। सरकारी या ग़ैर-सरकारी नौकरी करने वाले व्यक्तियों की स्थिति ऐसी नहीं होती कि वे सरकार अथवा अपने मालिकों के विरुद्ध कोई क़दम उठा सकें। निदान उन्हें समझोते का मार्ग अपनाना पड़ता है। इससे उनके दैनिक जीवन में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं होता। मध्यवर्गीय व्यक्ति यदि कुछ आगे बढ़ेगा भी तो मात्र सुधार-भावना तक ही। वह कोई ठोस क्रांतिकारी कार्य करने में सर्वथा असमर्थ रहता है। बौद्धिक दृष्टि से यद्यपि उसमें कोई कमी नहीं होती फिर भी सक्रिय रूप में वह कोई आन्दोलन सफलतापूर्वक नहीं चला पाता।
प्रेमचन्द मध्यवर्ग और निम्नवर्ग के लेखक थे। वे जितनी सफलता से साथ मध्य और निम्न वर्गों का चित्रण कर सके उतनी सफलता के साथ उच्च वर्ग का नही ; यद्यपि इस क्षेत्र में भी उनका व्यक्तित्व अप्रतिम है। पर, जब हम उनके समस्त व्यक्तित्व का अध्ययन करते हें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनका मन जितना मध्य और निम्नवर्गों का समस्याओं में रमा है उतना उच्चवर्ग की समस्याओं एवं प्रश्नों में नहीं। स्वयं प्रेमचन्द और उनका घराना मध्यवर्ग से सम्बन्ध रखता है। मध्यवर्गीय होने के कारण मध्यवर्ग से उनकी निकटता स्वाभाविक थी। वास्तव में मध्यवर्ग से वे सर्वाधिक परिचित थे। यदि निम्नवर्ग का अधिकांश चित्रण उन्होंने तत्कालीन वातावरण को देखकर किया तो मध्यवर्ग का चित्रण व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर।
प्रेमचन्द के समय भारतीय मध्यवर्ग की स्थिति का यथार्थ वर्णन और वैज्ञानिक विश्लेषण डा॰ इन्द्रनाथ मदान ने अपनी पुस्तक ‘प्रेमचन्द : एक विवेचना’ में काफ़ी विस्तार से किया है। वे लिखते हैं : ‘‘मध्यम वर्ग जीवन के प्रधान और नवीन आदर्शों के संघर्ष के बीच से गुज़र रहा था। पूँजीवाद या पाश्चात्य सभ्यता के आघात ने जीवन के मध्यकालीन और आधुनिक दृष्टिकोण के बीच एक गहरी खाई खोद दी थी। प्रेमचन्द की प्रारंभिक कृतियों का सम्बन्ध विशेष रूप से मध्यवर्गीय समाज के इसी संघर्ष से है। वह सुधार करने के लिए कटिबद्ध था।........सामाजिक मामलों में मध्यवर्ग ने व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य का अधिक उपयोग आरम्भ किया।.......यह मध्यवर्ग उन जायदाद रखने वाले सज्जनों से मतभेद रखता था, जो अपने किराये की आमदनी के बल पर भविष्य की सभी चिंताओं से मुक्त थे। इसलिए मध्य-वर्ग और उत्साह के साथ नैतिकता को अपना रहा था।”9
प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में मध्यवर्ग के इसी दल का चित्रण किया है। उनकी सहानुभूति इसी सामाजिक दल के साथ रही। उनके प्रमुख मध्यवर्गीय औपन्यासिक पात्र नैतिकता को अपनाकर चले हैं। चूँकि प्रेमचन्द की नैतिक मूल्यों पर गहन आस्था थी इसलिए उन्होंने अनीति की कहीं विजय नहीं बताई। सत्य की सदैव असत्य पर विजय बताना ही उनका जीवन-दर्शन था। इस प्रकार प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों के माध्यम से भारतीय समाज में उभरने वाले इस प्रगतिशील मध्यवर्ग के नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किया है। यह बात दूसरी है कि कहीं-कहीं वे स्वयं के मध्यवर्गीय संस्कारों के कारण समझौते का मार्ग अपना लेते हैं। समझौते की भावना मध्यवर्गीय समाज के मानस में विशेष रूप से दिखाई देती है और इससे प्रेमचन्द भी नहीं बच सके हैं।
प्रेमचन्द के प्रथम उपन्यास ‘वरदान’ का सम्बन्ध मध्यवर्ग के जीवन से ही है। ब्रजरानी, प्रताप, कमलाचरण जैसे प्रमुख पात्र मध्यवर्ग के ही हैं और उनकी समस्याएँ भी मध्यवर्गीय परिवारों की समस्याओं से सम्बन्ध रखती हैं। मध्यवर्गीय समाज में विवाह और प्रेम का जो पारस्परिक विरोध दिखाई देता है उसका बड़ा ही सफल कथात्मक चित्रण ‘वरदान’ में हुआ है। प्रारम्भिक और साधारण उपन्यास होते हुए भी ‘वरदान’ से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रेमचन्द का मन किस प्रकार मध्यवर्गीय समाज की समस्याओं की ओर आकर्षित हो रहा था।
‘प्रतिज्ञा’ में प्रेमचन्द ने विधवाओं के पुनर्विवाह की समस्या का उद्घाटन मध्यवर्गीय समाज की पृष्ठभूमि पर ही किया है। मध्यवर्ग में पाई जाने वाली इस सामाजिक कुरीति का यथार्थ चित्रण ‘प्रतिज्ञा’ की प्रमुख विशेषता है। वे विधवाओं के जीवन की दयनीय स्थिति बताकर विधवा-विवाह के प्रचलन पर ज़ोर देते हैं। चूंकि ‘प्रतिज्ञा’ का युग मध्यवर्ग के जागरण और संघर्ष का उषाकाल था अतः प्रेमचन्द का दृष्टिकोण भी इस उपन्यास में सुधारवादी रहा है। वे सुधार के द्वारा इस सामाजिक कुरीति को मिटाना चाहते हैं। ‘प्रतिज्ञा’ का प्रमुख मध्यवर्गीय पात्र अमृतराय है जो विधवाओं की दशा सुधारने में ही अपने जीवन का होम कर देता है। प्रेमचन्द ने मध्यवर्गीय विशिष्ट नैतिक मूल्यों का अमृतराय के चरित्र में भली-भाँति बताया है।
‘प्रतिज्ञा’ और ‘वरदान’ के पश्चात् ‘सेवासदन’ में प्रेमचन्द मध्यवर्ग के जीवन का बड़े विस्तार से चित्रण करते हैं। वास्तव में ‘सेवासदन’ मध्यवर्ग के जीवन का ही उपन्यास है। उसमें मध्यवर्गीय परिवारों की एक ज्वलंत समस्या पर प्रकाश डाला गया है - यह समस्या नारी-जीवन की समस्या है जो वैवाहिक, वैधव्य और वेश्यावृत्ति के पहलू विशेष रूप से रखती है। डा॰ इन्द्रनाथ मदान ‘सेवासदन’ की समीक्षा करते हुए एक स्थल पर लिखते हैं, “ उपन्यास के सभी प्रमुख पात्र मध्यवर्ग के हैं और उनका चरित्र-चित्रण जीवन के सुधारवादी दृष्टिकोण से ही किया गया है। लड़की के पिता कृष्णचन्द्र में इस वर्ग के सब गुण और अवगुण विद्यमान हैं।”10 .....पद्मसिंह मध्यवर्ग का एक विशेष प्रकार का प्रतिनिधि है। वह पुराने विचारों का है और अपने व्यवहार में नैतिकता का आग्रह रखता है।11 इस प्रकार ‘सेवासदन’ की कहानी भी मध्यवर्गीय परिवारों की कहानी है। उसमें प्रायः सभी पात्र मध्यवर्गीय संस्कारों को अपनाए हुए चलते हैं।
‘वरदान’, ‘प्रतिज्ञा’ और ‘सेवासदन’ के पश्चात् मध्यवर्गीय समाज का उपन्यास ‘निर्मला’ हामरे सामने आता है। इसके पूर्व ‘प्रेमाश्रम’ लिखा जा चुका था, पर ‘प्रेमाश्रम’ में प्रेमचन्द किसानों और जमींदारों के संघर्ष में ही उलझ जाते हैं। मध्यवर्गीय समाज का चित्रण उसमें प्रधान नहीं है। ‘निर्मला’ में दो समस्याएँ हैं - (1) दहेज़-प्रथा और (2) एक ऐसे वृद्ध से, जिसकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी हो, एक युवा लड़की का विवाह। उपन्यास की कथा तीन मध्यवर्गीय परिवारों के जीवन से गुँथी हुई है - एक परिवार बाबू उदयभानु का है, दूसरा बाबू तोताराम का और तीसरा सिन्हा साहब का। इन तीनों परिवारों के पारिवारिक जीवन के चित्रण में मध्य-वर्ग के संस्कारों और धारणाओं का बड़ा ही सफल अंकन हुआ है।
‘निर्मला’ के उपरान्त ‘रंगभूमि’ आता है। ‘रंगभूमि’ में औद्योगिक समस्या प्रमुख है; अतः इस उपन्यास में थैलीशाहों अथवा पूँजीपतियों का उल्लेख ही अधिक है। किसानों और ग्रामीण जनता का भी चित्रण समानांतर हुआ है। अतः ‘रंगभूमि निम्न और उच्च वर्गों के जीवन से सम्बन्ध रखता है।
‘कायाकल्प’ में अवश्य उच्च, मध्य और निम्न वर्गों का सम्मिलित चित्रण द्रष्टव्य है। औपन्यासिक कथा के दो भाग इस उपन्यास में देखे जा सकते हैं। एक भाग का सम्बन्ध सामाजिक समस्या से है और दूसरे का सम्बन्ध आध्यात्मिक और रहस्यमय लोक के चित्रण से। प्रस्तुत उपन्यास में छह प्रसंग हैं : (1) चक्रधर-मनोरमा का प्रसंग, (2) अहल्या-चक्रधर की कथा, (3) मनोरमा-विशालसिंह की कहानी, (4) रोहिणी-विशालसिंह की कथा, (5) महेन्द्रसिंह-देवप्रिय की कहानी, और (6) हरिसेवक-लोंगी की कथा। उपर्युक्त प्रसंगों में केवल चक्रधर का प्रारम्भिक जीवन, उसके विचार और आचरण प्रगतिशील मध्यवर्गीय समाज के प्रतीक हैं, जबकि उसका पिता ब्रजधर पुरानी पीढ़ी के मध्यवर्गीय समाज का प्रतिनिधि है।
‘कायाकल्प’ के पश्चात् मध्य-वर्ग का सबसे प्रसिद्ध और विशिष्ट उपन्यास ‘ग़बन’ लिखा गया है। वास्तव में देखा जाए तो ‘ग़बन’ प्रेमचंद का मध्य-वर्ग की समस्याओं का उद्घाटन करने वाला सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। इस उपन्यास में चरित्र-चित्रण को भी पर्याप्त स्थान दिया गया है। ‘ग़बन’ का प्रमुख पात्र रमरकान्त है। रमाकांत के एवं अन्य प्रमुख पात्रों के चरित्रांकन में लेखक विशेष सजग दिखायी देता है। पर, इसमें भी मध्यवर्गीय समाज की समस्याएँ प्रमुख हैं; जिनके कारण ‘ग़बन’ भी समस्यामूलक उपन्यास ठहरता है। रमरकान्त स्वयं मध्यवर्गीय समाज का व्यक्ति है एवं मध्यवर्ग की अनेक चारित्रिक विशेषताएँ उसमें विद्यमान हैं। मध्यवर्गीय सम्मान-भावना के कारण ही रमाकान्त ग़बन करता है और अपने जीवन को संकट में डालता है।
‘ग़बन’ के बाद ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’ और ‘मंगलसूत्र’ लिखे गए । ‘मंगलसूत्र’ प्रेमचन्द का अपूर्ण उपन्यास है। इसमें अभिजातवर्ग की झाँकियों के साथ-साथ संघर्ष-शील मध्यवर्ग का चित्रण मिलता है। सम्भवतः यह उपन्यास भी मध्यवर्ग से सम्बन्ध रखने वाला बनता।
‘कर्मभूमि’ अछूतों की समस्या के अतिरिक्त राष्ट्रीय स्वाधीनता की समस्या से सम्बन्धित है। इसमें मध्यवर्ग वैशिष्ट्य प्राप्त नहीं कर पाता । अमरकान्त की पत्नी और विधवा सास अर्थिक दृष्टि से मध्यवर्ग की सीमा में नहीं आते अतः उनकी समस्या मध्यवर्गीय न होकर सामान्य हो गई है।
‘गोदान’ किसान-वर्ग का उपन्यास है - ग्रामीण जनता का महाकाव्य है। पूँजीपतियों और मिल-मालिकों का समावेश अभिजात-वर्ग के क्षयी स्वरूप को व्यक्त करने के निमित्त है। यह बात दूसरी है कि उसमें एक-दो पात्र मध्यवर्ग से सम्बन्ध रखते हों। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेमचन्द के उपन्यासों में मध्यवर्ग का विशेष महत्त्व है।
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संदर्भ-संकेत
1 ''All old values and beliefs were being challenged. Social economic and political institutions were breaking up at a terrifying pace. India was literally in the melting pot. The old social stratification was disturbed. New types emerged which have no parallel in any previous period.'' - Chap. Modern Ferment, p. 116-117.
2 ''The old traditional pattern of social, economic and political life was disturbed and at times destroyed. Nor was there any attempt to build up a new and integrated outlook which could combine the heritage of the past with new ingredients brought from the west. Nature cannot, permit a vacuum. Haphazard and fragmentary belief and habits took the place of the old way of life. The old was destroyed beyond recall but the new remains still unborn.'' — The same, p. 119.
3 ''Administration was long conducted with a view to commercial advantage. For full exploitation of the country's resources, Britain needed a group of middle men who could act as interpreters between her and the Indian people. The needs of administration also posed the same problem. Higher policy could be determined by the British themselves, but its application to the daily routine of administration required the services of indigenous men. The result was the creation of a large ministerial class who helped the British in administration and commerce. The primary qualiication for such subordinates was proficiency in the English language. Education was therefore remodelled to suit the needs of the rulers. Instead of development of human personality, the chief aim of education became the attainment of linguistic proficiency in English.'' — The Indian Heritage, p. 123-124.
4 ''The new literate classes largely derive their ideas from the West.They also have in one way or another derived their living from the British connection .... Literacy in English has continually expanded in the course of the last century and led to an inordinate expansion of the middle classes.'' — The Indian Heritage, p. 125-126.
5 '' For one thing, the middle classes can never be a homogeneous group. No social class is fully homogeneous. But stratification is even more marked in the case of the middle classes. At one extreme are those who just escape being proletariats. At the other are those who are hardly distinguishable from capitalists.'' — The same. p. 141.
6 ''The middle classes have everywhere started to realise that they have no future. In India their plight is still more pitiable. The growth of capitalism has in other countries secured them a place in the social economy. In India, the expansion of indigenous capitalism was resisted by the British through political and economic pressure. And yet, the relative comforts enjoyed by the middle classes continually attract recruits from other strata of society. A middle class has developed which is too numerous for support by the existing economy. Its members refuse to go back to a lower level of economnic competence. And yet their march forward to capitalism is hampered in a thousand ways. Un-employment has increased and so has discontent.'' — The Indian Heritage, p. 137-138.
7 ''The unbalanced growth of the middle classes is perhaps the most significant fact of modern India. Middle classes all over the world are restless, critical and individualistic. From the nature of the case, they are economically unstable. Impelled by the urge to move upward into the ranks of the capitalist, many of them are yet fated to relapse into the ranks of the proletariat. They feel they have to maintain a standard of respectability which is often beyond their means. The constant economic struggle colours their whole outlook of life. The aristocrat is so sure of his own standing that he feels no need to assert it. The proletariat also is apt to accept his lot. The middle class refuse to be content and often agressive, self-assertive and loud. They seek to justify themselves by criticising others.'' — The Indian Heritage, p. 141.
8 ''....there is cosiderable evidence that group marked by middle class sentiment, with their competitive attitudes and their refusal to become indentified with either the 'ruling class' or the exploited industrial workers, have grown in size during the period of expanding capitalism and have often played a crucial role in the important social changes of that era.'' — 'Society' by R. M. Maciver and C.H. Page, Chap. — 'Social Class and Caste', p. 364.
9 प्रेमचंद : एक विवेचना, पृ. 41-42
10 वही, पृ. 47
11 वही, पृ. 49
प्रेमचन्द की साहित्य-सम्बन्धी मान्यताएँ
प्रेमचन्द की साहित्यिक मान्यताओं के सम्बन्ध में काफ़ी लिखा गया है। आलोचकों ने अपनी विचारधारा को दृष्टि में रखते हुए या तो उनकी इन मान्यताअओं को अपने अनुकूल प्रदर्शित किया है अथवा उनका खण्डन किया है। इस दृष्टिकोण से प्रेमचन्द की साहित्यिक मान्यताओं की वास्तविकता छिपी रह गई है।
मनुष्य में वैचारिक परिवर्तन होते हैं। जीवन-अनुभवों से वह अनेक नयी-नयी बातें सीखता है। यह परिवर्तन आकस्मिक नहीं होता। पहले, मनुष्य में अपनी पूर्व-धारणाओं के प्रति किंचित् अविश्वास-भाव जाग्रत् होता है। इस स्थिति में, वह नयी धारणाओं को अपने हृदय में एकदम स्थान नहीं दे पाता; क्योंकि उसे अपनी पूर्व-धारणाओं से, अविश्वास-अनुभूत होते हुए भी, मोह बना रहता है। क्रमशः उसके अविश्वास-भाव की पुष्टि होती है और वह नये विचारों की ओर आकर्षित होता है। एक समय आता है जब कि वह पूरी तरह से बदल चुका होता है। अतः यह वैचारिक परिवर्तन कुछ समय लेता है - कम या अधिक। जिस साहित्यकार में वैचारिक परिवर्तन होता है; उसके साहित्य में उपर्युक्त स्थितियाँ कम या अधिक रूप में विद्यमान रहती हैं। कहीं-कहीं असंगतियाँ भी पाई जाती हैं। अतः उसके साहित्य में हमें उपर्युक्त मनः स्थितियों की वैज्ञानिक खोज करनी चाहिए तभी हम उसकी वास्तविक मान्यताओं को क्रमबद्ध रूप में समझ सकेंगे। प्रेमचन्द के साथ यही बात है।
उनमें एक विशेष बात और देखने में आती है। वह यह कि पारिभाषिक (टेकनिकल) शब्दों का जो अर्थ वे लेते हैं, वह कोई सर्वमान्य नहीं हैं। ऐसे पारिभाषिक शब्दों के अन्तर्गत अनेक शब्द हैं, यथा शृंगार, आनन्द, आदर्श, यथार्थ, कला कला के लिए, सौन्दर्यवृत्ति आदि। प्रेमचन्द ने इन पारिभाषिक शब्दों का क्या अर्थ लिया है, हमें सर्वप्रथम उसके मूल में जाना चाहिए तभी हमारी व्याख्या उनके प्रति उचित न्याय कर सकेगी।
प्रेमचन्द आदर्शवादी हैं अथवा यथार्थवादी अथवा उनके दृष्टिकोण में दोनों का सम्मिश्रण था, इसका निर्णय करने के पूर्व, प्रेमचन्द ने साहित्य और कला को किस अर्थ में अथवा किस रूप में ग्रहण किया है, उसकी व्याख्या करना आवश्यक है।
साहित्य
प्रेमचन्द साहित्य की परिभाषा अपने ढंग से करते हैं। वास्तव में, किसी एक सत्य को लेकर साहित्य की परिभाषा सीमित भी नहीं की जा सकती। विरोधी तत्त्वों को हम अलग-अलग कर सकते हैं, पर पूरक तत्त्वों को प्रधान या अप्रधान की श्रेणी में ही विभाजित किया जा सकता है। प्रेमचन्द प्रगतिशील साहित्यकार थे। वे प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी व अप्रगतिशील तत्त्वों के विरोधी थे। ‘कलावाद’ से उनका साहित्य कोसों दूर है। कलावाद काल्पनिक अधिक तथा श्लील-अश्लील की सीमाओं से मुक्त, नितान्त वैयक्तिक भावनाओं का प्रतीक है। प्रेमचन्द ऐसे साहित्य के समर्थक नहीं थे। वे साहित्य का वास्तविक जीवन से अविच्छिन्न सम्बन्ध मानते हैं। जीवन साहित्य का आधार है, उससे कटकर साहित्य अपना महत्त्व खो देता है। वे लिखिते हैं -
“साहित्य का आधार जीवन है। इसी नींव पर साहित्य की दीवार खड़ी होती हैं।”1
अब सहज ही प्रश्न उठता है कि जीवन क्या है और उसका क्या उद्देश्य है? प्रेमचन्द जीवन को सामाजिक सापेक्षता में ही देखते हैं। वे उसमें गति और संघर्ष ही नहीं चाहते प्रत्युत सद्भावों की प्रतिष्ठा भी अनिवार्य मानते हैं। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण महान है। ऐसे जीवन का उद्देश्य क्या आनन्द हो सकता है ? प्रेमचन्द कहते हैं -
“जीवन का उद्देश्य ही आनन्द है। मनुष्य जीवनपर्यन्त आनन्द की खोज में पड़ा रहता है।”2
यहाँ आनन्द से अभिप्राय मात्र मनोरंजन अथवा भौतिक सुख-सुविधा की प्राप्ति से नहीं है। प्रेमचन्द आनन्द को मानसिक तृप्ति के अर्थ में प्रयुक्त करते हैं और इसी से आनन्द का आधार सुन्दर और सत्य बताते हैं। जैसा कि वे आगे लिखते हैं :
“किसी को वह (आनन्द) रत्न, द्रव्य में मिलता है, किसी को भरे-पूरे परिवार में, किसी को लम्बे-चौड़े भवन में, किसी को ऐश्वर्य में, लेकिन साहित्य का आनन्द इस आनन्द से ऊँचा है, इससे पवित्रा है, उसका आधार सुन्दर और सत्य है। वास्तव में सच्चा आनन्द सुन्दर और सत्य से मिलता है, उसी आनन्द को दर्साना, वही आनन्द उत्पन्न करना साहित्य का उद्देश्य है।”3
इसीलिए साहित्य की परिभाषा जीवन, आनन्द, सत्य और सुन्दर के मेल से बनती है। जो कुछ सत्य और सुन्दर है, वही साहित्य है। आनन्द के साथ सत्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है -
“जहाँ मनुष्य अपने मौलिक, यथार्थ, अकृत्रिम रूप में है, वहीं आनन्द है। आनन्द कृत्रिमता और आडम्बर से कोसों दूर भागता है।”4
प्रेमचन्द साहित्य को सत्य और सुन्दर का आराधक मानते हैं और उसी की अभिव्यक्ति को साहित्य की संज्ञा देते हैं -
“मनुष्य ने जगत् में जो कुछ सत्य और सुन्दर पाया है और पा रहा है, उसी को साहित्य कहते हैं।”5
लेकिन सत्य की खोज केवल साहित्यकार ही नहीं करता, दार्शनिक और वैज्ञानिक भी करते हैं। प्रेमचन्द सत्य से आत्मा का तीन प्रकार का सम्बन्ध बताते हुए लिखते हैं कि जहाँ सत्य आनन्द का स्त्रोत बन जाए वही वह साहित्य की सीमा में आ जाता है, यथा -
“सत्य से आत्मा का सम्बन्ध तीन प्रकार का है। एक जिज्ञासा का सम्बन्ध है, दूसरा प्रयोजन का सम्बन्ध है और तीसरा आनन्द का। जिज्ञासा का सम्बन्ध दर्शन का विषय है। प्रयोजन का सम्बन्ध विज्ञान का विषय है और साहित्य का विषय केवल आनन्द का सम्बन्ध है। सत्य जहाँ आनन्द का स्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है।”6
अतः साहित्य जीवन-आनन्द के लिए सत्य की खोज और सुन्दर की प्रतिष्ठा करता है। साहित्यकार जीवन की अवहेलना नहीं कर सकता। जब समाज में जीवन का स्तर गिरने लगता है तब साहित्यकार का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह उसकी आलोचना करे। साहित्य जीवन की व्याख्या है, आलोचना है। वह हमें जीवन की महत्ता से परिचित कराता है। प्रेमचन्द कहते हैं :
“साहित्य की बहुत-सी परिभाषाएँ की गई है, पर मेरे विचार से उसकी सर्वोत्तम परिभाषा,‘जीवन की आलोचना’ है। चाहे वह निबन्ध के रूप में हो, चाहे कहानियों के, काव्य के - उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।”7
इतना ही नहीं, वह मानव-जीवन से सम्बन्धित समस्त समस्याओं पर भी विचार करता है, उनको हल करने का प्रयत्न करता है। मात्रा आलोचना जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है। इसीलिए प्रेमचंद कहते हैं कि साहित्य का लक्ष्य जीवन का सही रास्ता बताना है, जिससे उसकी पवित्रता एवं महानता बनी रहे -
“साहित्य का उद्देश्य जीवन के आदर्श को उपस्थित करना है, जिसे पढ़कर हम जीवन में क़दम-क़दम पर आने वाली कठिनाइयों का सामना कर सकें। अगर साहित्य से जीवन का सही रास्ता न मिले, तो ऐसे साहित्य से लाभ ही क्या ? जीवन की आलोचना कीजिए, चाहे चित्र खींचिए, आर्ट के लिए लिखिए, चाहे ईश्वर के लिए, मनोरहस्य दिखाइए, चाहे विश्वव्यापी सत्य की तलाश कीजिए, अगर उससे हमें जीवन का अच्छा मार्ग नहीं मिलता तो उस रचना से हमारा कोई फ़ायदा नहीं। साहित्य न चित्रण का नाम है न अच्छे शब्दों को चुनकर सजा देने का, न अलंकारों से वाणी को शोभायमान बना देने का। ऊँचे और पवित्र विचार ही साहित्य की जान हैं।”8
साहित्य की उपर्युक्त परिभाषा से ऐसी ध्वनि निकलती है कि वह ‘नीतिशास्त्र’ का पर्यायवाची है। प्रेमचन्द साहित्य और नीतिशास्त्र का लक्ष्य एक मानते हैं। अन्तर केवल उपदेश की विधि में है। ‘नीतिशास्त्र’ का सम्बन्ध मस्तिष्क की तर्कशक्ति से है, जब कि साहित्य का हृदयगत भावों से -
“नीतिशास्त्र और साहित्यशास्त्र का एक लक्ष्य है; केवल उपदेश की विधि में अन्तर है। नीतिशास्त्र तर्कों और उपदेशों के द्वारा बुद्धि और मन पर प्रभाव डालने का यत्न करता है। साहित्य ने अपने लिए मानसिक अवस्थाओं और भावों का क्षेत्र चुन लिया है।”9
इस प्रकार साहित्य भावों के द्वारा मनुष्य को उसके मौलिक अकृत्रिम यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है।
“मनुष्य स्वभाव से देवतुल्य है। ज़माने के छल-प्रपंच या और परिस्थितियों के वशीभूत होकर वह अपना देवत्व खो बैठता है। साहित्य इसी देवत्व को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करता है, उपदेशों से नहीं, नसीहतों से नहीं ; भावों को स्पन्दित करके, मन के कोमल तारों पर चोट लगाकर, प्रकृति से सामंजस्य उत्पन्न करके।’’10
साहित्य जाति के चरित्र-निर्माण में बहुत बड़ा हिस्सा बँटाता है। साहित्यिक आदर्शों की महत्ता प्रतिपादित करते हुए प्रेमचन्द कहते हैं :
“किसी राष्ट्र की सबसे मूल्यवान सम्पत्ति उसके साहित्यिक आदर्श होते हैं। व्यास और वाल्मीकि ने जिन आदर्शों की सृष्टि की, वह आज भी भारत का सिर ऊँचा किए हुए हैं। राम अगर वाल्मीकि के साँचे में न ढलते, तो राम न रहते। सीता भी उसी साँचे में ढलकर सीता हुई।”11
अतः प्रेमचन्द साहित्य को मानवीय उत्थान का साधन मानते हैं और अपने पूर्व की महान सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करते हैं।
कला, सामयिकता और साहित्यकार
कला के सम्बन्ध में प्रेमचन्द के विचारों में कुछ असंगतियाँ भी दिखाई देती हैं; कहीं वे ‘कला के लिए कला’ का स्पष्ट समर्थन करते हैं, तो कहीं सैद्धान्तिक रूप से उसका महत्त्व प्रतिपादित कर मात्र वर्तमान में उसकी उपादेयता स्वीकार करते हैं तो कहीं उसका स्पष्ट खंडन करते हैं।
प्रेमचन्द ‘कलावादी’ नहीं थे, यह उनके समस्त साहित्य से स्पष्ट है। प्रेमचन्द के विरोधियों ने या प्रेमचन्दयुगीन कुछ आलोचकों ने उनके साहित्य पर कलाहीनता का आरोप भी लगाया था। किसी साहित्यकार की कृति को ‘कलावादी’ ठहराना एक अलग बात है तथा उसमें कलाहीनता बताना सर्वथा उससे भिन्न। प्रेमचन्द साहित्य और कला के सम्बन्धों को स्पष्ट करते समय ‘कलावाद’ और ‘कला’ में अन्तर नहीं कर पाए हैं। इसी कारण उनके वक्तव्यों में असंगतियाँ मिलती हैं। वास्तव में वे ‘कलावादी’ नहीं थे; यद्यपि साहित्य में कला का समावेश आवश्यक समझते थे। उस समय के ‘कलावादी’ आलोचकों को इससे संतोष न था। वे प्रेमचन्द के साहित्य में ‘कला के लिए कला’ की अभिव्यक्ति चाहते थे और जब उन्हें यह अभिव्यक्ति नहीं मिली तो उन्होंने निराश होकर प्रेमचन्द के साहित्य पर प्रचारवादी तथा कलाहीन होने के आरोप लगाये।
यदि तनिक गहराई से देखा जाय तो प्रेमचन्द के कला-सम्बन्धी विचारों में असंगतियाँ नहीं हैं, यह समझ में आ सकता है। इस दृष्टि से हमें उन अर्थों पर तटस्थ दृष्टि डालनी होगी जिनको प्रेमचन्द विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों के लिए ग्रहण करते हैं।
एक स्थान पर ‘कला के लिए कला’ सिद्धान्त को साहित्य का सबसे ऊँचा आदर्श घोषित करते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं :
“साहित्य का सबसे ऊँचा आदर्श यह है कि उसकी रचना केवल कला की पूर्ति के लिए की जाए। ‘कला के लिए कला’ के सिद्धान्त पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती।”12
इससे अधिक स्पष्ट शब्दों में ‘कला के लिए कला’ का समर्थन और क्या हो सकता है ? पर यह भी देखना आवश्यक है कि प्रेमचन्द ‘कला के लिए कला’ का मतलब क्या समझते हैं। आगे चलकर वे ‘कला के लिए कला’ की व्याख्या करते हुए लिखते हैं -
“वह साहित्य चिरायु हो सकता है जो मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों पर अवलम्बित हो। ईर्ष्या और प्रेम, क्रोध और लोभ, भक्ति और विराग, दुःख और लज्जा सभी हमारी मौलिक प्रवृत्तियाँ हैं। इन्हीं की छटा दिखाना साहित्य का परम उद्देश्य है और बिना उद्देश्य के तो कोई रचना हो ही नहीं सकती।”13
अतः स्पष्ट है कि प्रेमचन्द के लिए ‘कला के लिए कला’ का अर्थ कलावादियों का अर्थ नहीं है। वे उसे मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति समझते हैं और इसी कारण सामयिक तथा शाश्वत साहित्य का प्रश्न समाने आता है। वे लिखते हैं :
“......‘कला के लिए कला’ का समय वह होता है जब देश सम्पन्न और सुखी हो। हम जब देखते हैं कि हम भाँति-भाँति के राजनीतिक और सामाजिक बन्धनों में जकड़े हुए हैं, जिधर निगाह उठती है, दुःख और दरिद्रता के भीषण दृश्य दिखाई देते हैं, विपत्ति का करुण क्रन्दन सुनाई देता है, तो कैसे सम्भव है कि किसी विचारशील प्राणी का हृदय न दहल उठे।”14
यहाँ सिद्धान्त रूप में ‘कला के लिए कला’ का महत्त्व स्वीकार करते हुए भी वे वर्तमान सामयिक समस्याओं के सम्मुख, उसके ग्रहण की उपादेयता अस्वीकार करते हैं। सामयिक समस्याओं को मौलिक प्रवृत्तियों के सम्मुख प्राथमिकता देनी चाहिए। उन्हांने कलावादियों की समसामयिक की उपेक्षा का समर्थन नहीं किया। वे ‘कला के लिए कला’ की झोंक में आकर लोक-हित की चिन्ता करने की बात नहीं कहते । कलावादियों के ‘सौन्दर्य’ में श्लील-अश्लील में कोई अन्तर नहीं किया जाता। प्रेमचन्द ने इस सौन्दर्य-भावना को कहीं भी अच्छा नहीं बताया। अतः बिना ‘कला के लिए कला’ के प्रति प्रेमचन्द का निजी दृष्टिकोण समझे एवं बिना उनके भावों की गहराई में उतरे उनके विचारों में असंगतियाँ बताना अनुचित है।
समसामयिक साहित्य और शाश्वत साहित्य के बारे में लिखते हुए प्रेमचन्द कहते हैं कि सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता। मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियाँ सामयिक साहित्य में कभी भी लुप्त नहीं होतीं। और जब-तक वे मौलिक प्रवृत्तियाँ उसमें विद्यमान हैं वह मिट नहीं सकता। चाहे उसका विषय कोई सामयिक समस्या हो और चाहे कोई शाश्वत सत्य। प्रेमचन्द एक उदाहरण देते हुए कहते हैं -
“........टाम काका की कुटिया’ गुलामी की प्रथा से व्यथित हृदय की रचना है, पर आज उस प्रथा के उठ जाने पर भी उसमें वह व्यापकता है कि हम लोग भी उसे पढ़कर मुग्ध हो जाते हैं। सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता। वह सदा नया बना रहता है। दर्शन और विज्ञान समय की गति के अनुसार बदलते रहते हैं। पर साहित्य तो हृदय की वस्तु है और मानव-हृदय में तबदीलियाँ नहीं होतीं। हर्ष और विस्मय, क्रोध और द्वेष, आशा और भय आज भी हमारे मन पर उसी तरह अधिकृत हैं।”15
अतः वे कलावादियों की तरह लेखक को देश-काल के बन्धन से मुक्त नहीं करते ; जब तक वह देश-काल का नहीं बनता, तब-तक सर्वदेशीय और सर्वकालिक भी नहीं बन सकता। प्रेमचंद लिखते हैं :
‘‘साहित्यकार बहुधा अपने देश-काल से प्रभावित होता है। जब कोई लहर देश में उठती हैं, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है। उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और तीव्र विकलता में वह रो उठता है, पर उसके रुदन में भी व्यापकता होती है। वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता है।”16
साहित्य मानवीय इतिहास का सच्चा लेखा-जोखा है। युग का प्रतिबिम्ब है-
“जीवन पर साहित्य से अधिक प्रकाश और कौन वस्तु डाल सकती है क्योंकि साहित्य अपने देश-काल का प्रतिबिम्ब होता है।”17
लेकिन प्रेमचन्द ने सामयिकता का मात्र ऊपरी स्पर्श नहीं किया था। जैसा डा॰ रामविलास शर्मा लिखते है :
“उनका उद्देश्य सामयिकता व देश-काल की विशेषता से परे नहीं था, उनका साहित्य सामयिकता की सतह को छूने वाला साहित्य नहीं था, उसमें गहराई से डूबने वाला, देश-काल की विशेषताओं के परस्पर संबंध को चित्रित करने वाला साहित्य था। इसलिए वह इतना सशक्त और प्रभावशाली है।”18
कला, उपयोगिता और आनन्द के संबंध भी पर्याप्त विवादग्रस्त हैं। यहाँ भी ‘आनन्द’ शब्द अपनी विशिष्टता का परिचायक है। प्रारम्भ में यह बताया जा चुका है कि प्रेमचन्द आनन्द का आधार सुन्दर और सत्य मानते हैं। वह मनुष्य को मानसिक तृप्ति प्रदान करता है। उसे मनोरंजन या मनबहलाव के अर्थ में ग्रहण करने पर हम प्रेमचन्द-साहित्य की वास्तविकता से दूर चले जाएंगे। कला और उपयोगिता के संबंध में प्रेमचन्द लिखते हैं :
“मुझे यह कहने में हिचक नहीं कि मैं और चीज़ों की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तोलता हूँ। निस्संदेह कला का उद्देश्य सौंदर्य की पुष्टि करना है और वह हमारे आध्यात्मिक आनन्द की कुंजी है, पर ऐसा कोई रुचिगत मानसिक तथा आध्यत्मिक आनन्द नहीं, जो अपनी उपयोगिता का पहलू न रखता हो।”19
यहाँ भी आनन्द को प्रमुखता दी गई है। कला की उपयोगिता आनन्द के निमित्त भी है। जो साहित्यकार कला को उपयोगिता के दृष्टिकोण से ग्रहण करता है वही युगधर्म को निबाहता है। ऐसा करने से वह मानव-जाति को जीवन-आनन्द की ओर ले जाता है। आनन्द तक पहुँचना ही मनुष्य जाति का लक्ष्य है। जो लोग कला को उपयोगिता के लिए ग्रहण न करके ‘कला के लिए ही’ ग्रहण करते हैं, उनके संबंध में प्रेमचन्द कहते हैं :
“कला नाम था और अब भी है, संकुचित रूप पूजा का, शब्द-योजना का, भाव-निबन्धन का। उसके लिए कोई आदर्श नहीं है, जीवन का कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं है; भक्ति, अध्यात्म और दुनिया से किनाराकशी उसकी सबसे ऊँची कल्पनाएँ हैं। हमारे उस कलाकार के विचार से जीवन का चरम लक्ष्य यही है। उसकी दृष्टि अभी इतनी व्यापक नहीं कि जीवन-संग्राम में सौंदर्य का परमोत्कर्ष देखे। उपवास और नग्नता में सौंदर्य का अस्तित्व सम्भव है, इसे कदाचित् वह स्वीकार नहीं करता। उसके लिए सौंदर्य सुन्दर स्त्री में है, उस बच्चों वाली ग़रीब रूपरहित स्त्री में नहीं, जो बच्चे को खेत की मेड़ पर सुला पसीना बहा रही है, उसने निश्चय कर लिया है कि रँगे होंठों, कपोलों और भोंहों में निस्संदेह सुन्दरता का वास है, उसके उलझे हुए बालों, पपड़ियाँ पड़े हुए होठों और कुम्हलाए हुए गालों में सौंदर्य का प्रवेश कहाँ ? पर यह संकीर्ण दृष्टि का दोष है।”20
यहाँ उनकी कला समस्त कलावादियों व सौंदर्यवादियों से पृथक दिख रही है। प्रेमचन्द की कला हमें यही व्यापक दृष्टि प्रदान करती है। अतः प्रेमचन्द का साहित्य कलापूर्ण है। वह, जैसा कि कुछ आलोचकों ने बताया है, कलाहीन कदापि नहीं। ‘कला कला के लिए’ के समर्थकों को उनके साहित्य में, यह सच है, जैसी कला वे चाहते हैं, उसके दर्शन नहीं होते। अतः वे अपनी संकीर्ण दृष्टि से देखने के कारण उनके साहित्य को ही कलाहीन घोषित कर देते हैं। प्रेमचन्द ने स्पष्ट लिखा :
“कला केवल यथार्थ की नक़ल का नाम नहीं है।”21
कला की आवश्यकता पर उन्होंने पूरा-पूरा ज़ोर दिया है, क्योंकि बिना कला के लेखक अपनी बात प्रभावशाली ढंग से नहीं कह सकता और इस प्रकार वह अपने उद्देश्य में भी सफल नहीं हो सकता। सामाजिक उत्तरदायित्व निबाहने वाले लेखक कला की उपयोगिता को दृष्टि से ओझल नहीं कर सकते। कला क्रांति-भावना को तीव्रता प्रदान करती है। क्रांति से समाज-व्यवस्था में परिवर्तन आता है और यह परिवर्तन मानव-जीवन को आनन्द की ओर ले जाता है ; सत्य और सुन्दर की ओर ले आता है। साहित्यकार इसी क्रांति का साधक व उपासक है। इसी क्रांति को लाने के लिए वह कला के माध्यम से अपने विचारों का प्रसार करता है। कलायुक्त साहित्य प्रचार का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। प्रेमचन्द लिखते हैं :
“मेरा पक्का मत है कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सभी कलाएँ उपयोगिता के सामने घुटने टेकती हैं, प्रोपेगंडा बदनाम शब्द है; लेकिन आज का विचारोत्पादक, बलदायक, स्वास्थ्यवर्द्धक साहित्य प्रोपगंडा के सिवा न कुछ है, न हो सकता है, न होना चाहिए और इस तरह प्रोपेगंडा के लिए साहित्य से प्रभावशाली कोई साधन ब्रह्मा ने नहीं रचा।”22
एक स्थल पर वे प्रचार की आवश्यकता बताते हुए लिखते हैं :
“जब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिए की जाती है, तो वह अपने ऊँचे पद से गिर जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। लेकिन आजकल परिस्थितियाँ इतनी तीव्रगति से बदल रही हैं, इतने नये-नये विचार पैदा हो रहे हैं कि कदाचित् अब कोई लेखक साहित्य के आदर्श को ध्यान में रख नहीं सकता। यह बहुत मुश्किल है कि लेखक पर इन परिस्थितियों का असर न पडे़।”23
अवश्य, वह प्रचारत्मक साहित्य अपने ऊँचे पद से गिर जाता है जो कला की उपेक्षा करके चलता है। साहित्य के द्वारा कलात्मक प्रचार भी सत्य और सुन्दर की प्रतिष्ठा के लिए है। आनन्द के लिए है। आनन्द और मनोरंजन शब्द पर्यायवाची नहीं हैं। प्रेमचन्द मनोरंजनको साहित्य का निकृष्ट उद्देश्य मानते हैं:
“साहित्य केवल मनबहलाव की चीज़ नहीं है, मनोरंजन के सिवा उसका और भी कुछ उद्देश्य है।”24
साहित्यकार के लक्ष्य के सम्बन्ध में लिखते समय वे कहते हैं :
“साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं, उसका दरज़ा इतना न गिराइए।”25
मनोरंजन को एकमात्र उद्देश्य मानकर जो रचना की जाएगी वह तत्त्वहीन होगी। कहानी कला के संबंध में लिखते समय प्रेमचंद ने मनोरंजन की निकृष्टता के बारे में फिर लिखा है :
‘‘तत्त्वहीन कहानी से चाहे मनोरंजन भले ही हो जाए, मानसिक तृप्ति नहीं होती। यह सच है कि हम कहानियों में उपदेश नहीं चाहते, लेकिन विचारों का उत्तेजित करने के लिए, मन के सुन्दर भावों को जाग्रत करने के लिए, कुछ न कुछ अवश्य चाहते हैं।”26
आगे चलकर पठकों का मन बहलाने वाले साहित्यकारों की तुलना वे भाटों, मदारियों, विदूषकों और मसख़रों से करते हैं :
“साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है। यह तो भाटों और मदारियों, विदूषकों और मसख़रों का काम है। साहित्यकार का पद इससे कहीं ऊँचा है। वह हमारा पथ-प्रदर्शक होता है, वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है, हममें सद्भावों का संचार करता है, हमारी दृष्टि को फैलाता है। कम-से-कम उसका यही उद्देश्य होना चाहिए।”27
अतः प्रेमचन्द का साहित्य सत्य और सुन्दर की प्रतिष्ठा करने वाला, हमें मानसिक तृप्ति प्रदान करने वाला, संघर्ष के लिए प्रेरित करने वाला सत्-साहित्य है। वह ‘दिमाग़ी ऐयाशी’ का साहित्य नहीं है। जीवन में शृंगारिक मनोभावों की सत्ता अवश्य है; पर वे हमारे जीवन के अंग-मात्र हैं। साहित्यकार को अपनी दृष्टि शृंगारिक मनोभावों तक ही सिमित नहीं कर लेनी चाहिए -
“क्या वह साहित्य, जिसका विषय शृंगारिक मनोभावों और उनसे उत्पन्न होने वाली विरह-व्यथा, निराशा आदि तक ही सीमित हो, जिसमें दुनिया और दुनिया की कठिनाइयों से दूर भागना ही जीवन की सार्थकता समझी गई हो, हमारी विचार और भाव संबंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है ? शृंगारिक मनोभाव मानव-जीवन का एक अंग मात्र हैं, और जिस साहित्य का अधिकांश इसी से संबंध रखता हो, वह उस जाति और वर्ग के लिए गर्व करने की वस्तु नहीं हो सकता और न उसकी सुरुचि का ही प्रमाण हो सकता है।”28
कुछ साहित्यकार यथार्थवाद के नाम पर यौन-संबंधों का नग्न चित्रण करते हैं अथवा श्लील-अश्लील के बन्धन से मुक्त हो साहित्य में अति शृंगार का प्रचार करते हैं। प्रेमचन्द ऐसे कामोत्तेजक साहित्य के सख़्त विरोधी थे। उन्होंने इस नंगी संस्कृति का सदैव लिखकर तथा प्लेटफार्मों से विरोध किया। समाज की नैतिक गिरावट के लिए बहुत कुछ साहित्य उत्तरदायी होता है। प्रेमचन्द अश्लीलता को सहन नहीं कर सकते थे, चाहे वह कलावादियों की ओर से प्रकट हो और चाहे यथार्थवादियों की। ‘भारतीय साहित्य परिषद्’ नामक टिप्पणी में परिषद् के उद्देश्यों की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं :
‘‘एक दल साहित्यकारों का ऐसा भी है जो साहित्य को श्लील-अश्लील के बंधन से मुक्त समझता है। वह कालिदास और वाल्मीकि की रचनाओं से अश्लील शृंगार की नज़ीर देकर अश्लीलता की सफ़ाई देता है। अगर कालिदास या वाल्मीकि या औैर किसी नए या पुराने साहित्यकार ने अश्लील शृंगार रचा है तो उसने सुरुचि और सौंदर्य की भावना की हत्या की है। जो रचना हमें कुरुचि की ओर ले जाए, कामुकता को प्रोत्साहन दे, समाज में गंदगी फैलाए, वह त्याज्य है, चाहे किसी की भी हो। साहित्य का काम समाज और व्यक्ति को ऊँचा उठाना है। उसे नीचे गिराना नहीं।”29
रति-वर्णन या नग्न-विलास को साहित्य का ऊँचा आदर्श कौन लोग समझते हैं, इस संबंध में प्रेमचन्द आगे लिखते हैं :
“जो आँख केवल नग्न चित्र ही में सांदर्य देखती है, और जो रुचि केवल रति-वर्णन या नग्न-विलास में ही कवित्व का सबसे ऊँचा विकास देखती है, उसके स्वस्थ होने में हमें संदेह है। यह ‘सुन्दर’ का आशय न समझने की बरकत है। जो लोग दुनिया को अपनी मुट्ठी में बंद किए हुए हैं, उन्हें दिमाग़ी ऐयाशी का अधिकार हो सकता है। पर जहाँ फाका औैर नग्नता है और पराधीनता है, वहाँ का साहित्य अगर नंगी कामुकता और निर्लज्ज रति-वर्णन पर मुग्ध है तो उसका यही आशय है कि अभी उसका प्रायश्चित्त पूरा नहीं हुआ और शायद दो-चार सदियों तक उसे गुलामी में ज़िन्दगी और बसर करनी पडे़गी।”30
अतः स्पष्ट है कि प्रेमचन्द उस शृंगार के विरोधी थे जो हमें कुरुचि की ओर ले जाता है, जो समाज के नैतिक स्तर को गिराता है। शृंगार और प्रेम का हमारे जीवन में अस्तित्व है, लेकिन साहित्यकार को समय देखकर चलना चाहिए। ‘रंगभूमि’ में सोफी के मुख से प्रेमचन्द यही बात कहलाते हैं। सोफी प्रभुसेवक की कविता पर टिप्पणी देती है :
“तुम्हारी कविता उच्च कोटि की है। मैं इसे सर्वांग सुन्दर कहने को तैयार हूँ। लेकिन तुम्हारा कर्तव्य है कि अपनी इस अलौकिक शक्ति को स्वदेश के हित में लगाओ। अवनति की दशा में शृंगार और प्रेम का राग अलापने की ज़रूरत नहीं होती, इसे तुम स्वीकार करोगे।”31
साहित्य के संबंध में प्रेमचन्द की क्या मान्यता थी, वे उसके लिए कौन-कौन से अनिवार्य तत्त्व मानते थे उन पर भी दृष्टि डाल लेनी आवश्यक है। मनोरंजन और विलासित को ही साहित्य समझने वालों से प्रेमचन्द कहते हैं -
“हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं।”32
साहित्य युग का प्रतिबिम्ब होता है। जाति की गतिहीनता, उसका ह्रास ऐसे साहित्य से मालूम पड़ता है जिसमें प्रेम-वासना और वैराग्य-भावनाओं की प्रधानता हो :
“पतन के काल में लोग या तो आशिकी करते हैं, या अध्यात्म और वैराग्य में मन रमाते हैं। जब साहित्य पर संसार की नश्वरता का रंग चढ़ा हो और उसका एक-एक शब्द नैराश्य में डूबा हो, समय की प्रतिकूलता के रोने से भरा हो और शृंगारिक भावों का प्रतिबिम्ब बना हो, तो समझ लीजिए की जाति जड़ता और ह्रास के पंजे में फँस चुकी है और उसमें उद्योग तथा संघर्ष का बल बाक़ी नहीं रहा। उसने ऊँचे लक्ष्यों की ओर से आँखें बन्द कर ली हैं और उसमें दुनिया का देखने और समझने की शक्ति लुप्त हो गई है।”33
एक स्थल पर प्रेमचन्द शृंगार-रस के बारे में लिखते हैं :
“साहित्य मे केवल एक रस है और वह शृंगार है।”34
उनके इस वाक्य से ऐसा लगता है कि वे शृंगार-रस को ही साहित्य का एकमात्र उद्देश्य मान रहे हैं। यह वाक्य उनकी मान्यताओं में फिर असंगति उत्पन्न करता है। लेकिन वास्तव में असंगति कोई नहीं है। यहाँ शृंगार का अर्थ उन्होंने सौन्दर्य से लिया है। जैसा वे आगे लिखते हैं :
“कोई रस साहित्यिक दृष्टि से रस नहीं रहता और न उस रचना की गणना साहित्य में की जा सकती है जो शृंगार-विहीन और असुन्दर हो। जो रचना केवल वासना-प्रधान हो, जिसका उद्देश्य कुत्सित भावों को जगाना हो, जो केवल बाह्य जगत् से सम्बन्ध रखे, वह साहित्य नहीं है।”35
प्रेमचन्द ने सौन्दर्य-प्रेम पर बहुत ज़ोर दिया है, लेकिन यह सौन्दर्य-भावना शारीरिक नहीं है। उसका स्वरूप मानसिक है जो हमारे हृदय का संस्कार करता है। सौन्दर्य को देखकर हम मुग्ध होते हैं, उत्तेजित नहीं। प्रेमचन्द लिखते हैं :
“कलाकार हममें सौन्दर्य की अनुभूति उत्पन्न करता है और प्रेम की उष्णता।”36
“जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौन्दर्य-प्रेम न जाग्रत् हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं।”37
साम्प्रदायिक सद्भावना को साहित्य का लक्ष्य बताते हुए उन्होंने लिखा है :
“जो साहित्य जीवन के उच्च आदर्शों का विरोधी हो, सुरुचि को बिगाड़ता हो अथवा साम्प्रदायिक सद्भावना में बाधा डालता हो, ऐसे साहित्य को यह परिषद् हरगिज़ प्रोत्साहित न करेगी।”38
अतः साहित्यकार को उच्च भावों की अभिव्यक्ति करनी चाहिए -
“साहित्य कलाकार के आध्यात्मिक सामंजस्य का व्यक्त रूप है और सामंजस्य सौन्दर्य की सृष्टि करता है, नाश नहीं। वह हममें वफ़ादारी, सच्चाई, सहानुभूति, न्यायप्रियता और ममता के भावों की पुष्टि करता है। जहाँ ये भाव हैं, वहीं दृढ़ता है और जीवन है; जहाँ इनका अभाव है, वहीं फूट, विरोध, स्वार्थपरता है, द्वेष, शत्रुता और मृत्यु है।”39
साहित्य के विचारगत और कलागत तत्त्वों को प्रेमचन्द एक साथ लिखते हैं -
“साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सचाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित एंव सुन्दर हो और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो। और साहित्य के यह गुण पूर्ण रूप से उसी अवस्था में उत्पन्न होते हैं, जब उसमें जीवन की सचाइयाँ और अनुभूतियाँ व्यक्त की गई हों।”40
उपर्युक्त साहित्य के निर्माता का स्थान भी ऊँचा होना चाहिए। यदि साहित्यकार ऊँचे दर्ज़े का मनुष्य नहीं है तो वह सत्-साहित्य का सृजन नहीं कर सकता। इसीलिए हमें पहले मनुष्य बनने की साधना करनी चाहिए, फिर साहित्यकार बनने की। प्रेमचन्द के मत से साहित्यकार को सत्यभाषी होना चाहिए। वह हमारा पथ-प्रदर्शक होता है, मनुष्यत्व को जगाता है, सद्भावों का संचार करता है तथा हमारी दृष्टि को व्यापक बनाता है साहित्य के लक्ष्य को बताते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं :
“साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उसका दर्ज़ा इतना न गिराइये। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखती हुई चलने वाली सचाई है।”41
साहित्यकार का क्या कर्तव्य हे ? प्रेमचन्द कहते हैं :
“जो दलित है, पीड़ित है, वंचित है, चाहे वह व्यक्ति हो या समूह, उसकी हिमायत और वक़ालत करना उसका फ़र्ज है। उसकी अदालत समाज है, इसी अदालत के सामने वह अपना इस्तगासा पेश करता है, और उसकी न्यायवृत्ति तथा सौन्दर्यवृत्ति को जाग्रत करके अपना यत्न सफल समझता है।”42
लकिन मात्र वक़ालत से काम नहीं चलता। साहित्यकार उपेक्षितों, तिरस्कृतों का पक्ष लेता अवश्य है, लेकिन सत्य का आँचल नहीं छोड़ता है। वह एक सत्यवादी वकील है।
“पर साधारण वकीलों की तरह साहित्यकार अपने मुवक्किल की आरे से उचित-अनुचित सब तरह के दावे नहीं पेश करता, अतिरंजना से काम नहीं लेता, अपनी ओर से बातें नहीं गढ़ता। वह जानता है कि इन युक्तियों से वह समाज की अदालत पर असर नहीं डाल सकता। उस अदालत का हृदय-परिवर्तन तभी सम्भव है, जब आप सत्य से तनिक भी विमुख न हों, नहीं तो अदालत की धारणा आपकी ओर से ख़राब हो जाएगी और वह आपके खिलाफ़ फैसला सुना देगी।”43
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संदर्भ-संकेत
1 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 73
2 वही
3 वही
4 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 74
5 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 26
6 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 74
7 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 6
8 ‘हंस’, जनवरी, 1935
9 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 8
10 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 79
11 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 80
12 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 41
13 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 42
14 वही
15 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 77
16 वही
17 वही
18 प्रेमचंद और उनका युग, पृ. 152
19 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 14
20 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 15-16
21 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 27
22 ‘प्रेमचंद’, रामविलास शर्मा, पृ. 13
23 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 42
24 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 8
25 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 17
26 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 30
27 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 49
28 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 7
29 ‘हंस’, मई 1936
30 वही
31 रंगभूमि (भाग-1), पृ. 155
32 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 21
33 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 7-8
34 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 74
35 वही
36 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 11
37 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 8
38 ‘हंस’, मई 1936
39 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 11
40 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 6
41 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 17
42 प्रेमचंद : कुछ विचार, पृ. 9
43 वही
आदर्शोन्मुख यथार्थवाद
‘साहित्यकार एक सत्यवादी वकील है।’ - प्रेमचंद। इस सत्यवादिता के साथ ही साहित्य में आदर्शवाद और यथार्थवाद का प्रश्न उपस्थित हो जाता है। सत्यवादी आदर्श और यथार्थ दोनों पर अपनी समान दृष्टि रखता है। प्रेमचन्द का यही सिद्धान्त था, जिसे उन्होंने ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ कहा है। या यों कहा जाय कि वे यथार्थवादी आदर्शवाद के समर्थक थे। साहित्य में आदर्शवाद और यथार्थवाद के प्रचलित अर्थों से उनका क्या सम्बन्ध था, यह उनके लेखों और उपन्यासों के अन्तर्गत देखा जा सकता है।
प्रेमचन्द ने अनेक पहलुओं से यथार्थवाद और आदर्शवाद को देखा है,यथा -
1. उपयोगी यथार्थवाद
2. यथार्थवाद
3. अति-यथार्थवाद
4. आदर्शवाद
5. अस्वाभविक आदर्शवाद
उपयोगी यथार्थवाद से अभिप्राय है समाज और व्यक्ति का ऐसा यथार्थ चित्रण जो मानव को विकास की ओर उन्मुख करे। इसमें ‘असत्’ पक्ष सामाजिक स्वास्थ्य की दृष्टि से चित्रित किया जाता है। ‘सत्’ पक्ष भी यथार्थ के अन्तर्गत है, पर सत् के चित्रण में सामाजिक स्वास्थ्य का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वह स्वयं मानव-कल्याण का प्रतीक है। सामाजिक स्वास्थ्य का प्रश्न ‘असत्’ पक्ष के साथ ही लगा हुआ है। समाज या व्यक्ति में जो अभाव हैं, दोष हैं या कुरूपताएँ हैं उनका यथार्थ चित्रण यदि मानव-विकास के दृष्टिकोण से किया जाएगा तो वह उपयोगी यथार्थवाद कहलाएगा। यहाँ सामाजिक स्वास्थ्य की ओर दृष्टि रखना लेखक का प्रथम कर्तव्य माना जाता है।
यथार्थवाद के अन्तर्गत सामाजिक हित-अहित की कोई चिन्ता नहीं रहती। यथार्थवादी अपनी कला को फोटोग्राफ़ी मानता है। जो है, उसका ज्यों-का-त्यों चित्रण कर देना ही उसका धर्म है। वह भौतिक सत्य को ही सब कुछ समझता है। मौलिक सत्य में उसे विश्वास होता अवश्य है, लेकिन वह उसका चित्रण उस समय तक नहीं कर सकता, जब तक वह भौतिक सत्य का रूप धारण न कर ले। यथार्थवाद के अन्तर्गत मनुष्य में पाई जानेवाली समस्त कु-प्रवृत्तियों का चित्रण होता है। वह नग्न और भयानक रूप में हमारे सामने आता हे। यह नग्नता प्रायः शिष्टता की सीमा को भी लाँघ जाती है। यह भयानकता विश्वास-भावना तक को कुचल देती है और मनुष्य को निराशावादी या अविश्वासी बना देती है। यथार्थवाद के अन्तर्गत लेखक का कोई सामाजिक कर्तव्य नहीं होता। समाज उसके यथार्थवादी चित्रण से चौंक अवश्य जायगा, पर वह उसमें सत्वृत्तियों का संचार नहीं कर सकेगा। इसके विपरीत यदि वह सु-प्रवृत्तियों का यथार्थ चित्रण करता है तब सामाजिक स्वास्थ्य का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता; क्योंकि सुप्रवृत्तियाँ स्वयं में मानव-कल्याण की द्योतक हैं। यथार्थवादी लेखक कु-प्रवृत्तियों पर ही अपनी दृष्टि रखते हैं।
अति-यथार्थवाद से अभिप्राय यथार्थ की अतिरंजना से है। उपयोगी यथार्थवाद के अन्तर्गत अल्परंजना रहती है। अल्परंजना सामाजिक सुधार के लिए उपयोगी प्रमाणित होती है; क्योंकि वहाँ लेखक का उद्देश्य न तो ज्यां-का-त्यों चित्रण कर देना है और न अतिरंजना से काम लेकर उसे अस्वाभाविक स्थिति तक ले जाना। अति-यथार्थवाद झूठा होता है। मनुष्य का पतन किस सीमा तक हो सकता है - वह बताता है; चाहे उस सीमा तक मनुष्य पतित न भी हुआ हो। स्पष्ट है, ऐसा चित्रण मनुष्य को पतन की ओर ही ले जाएगा। समाज में अनाचार व व्यभिचार को ही प्रोत्साहित करेगा, क्योंकि उसे मानवी पतन-सीमा की यथार्थता प्रदर्शित-प्रमाणित करनी होती है। अति-यथार्थवाद समाज के लिये प्रत्येक स्थिति में घातक होता है वह मनुष्य के क्षयी व रुग्ण मन का परिचायक है।
यथार्थ के शाब्दिक अर्थ के अनुसार, जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, उसमें सत् और असत् दोनों पक्षों का समावेश है। जब यथार्थ ‘वाद’ का रूप धारण कर लेता है, तब वह मात्र ‘असत्’ या ‘कु’ के चित्रण का परिचायक हो जाता है। ‘सु’ का क्षेत्र आदर्शवाद ले लेता है। जो लोग ‘सु’ के चित्रण को भी यथार्थवाद के अन्तगर्त सम्मिलित कर लेते हैं; वे ‘यथार्थ’ के शाब्दिक अर्थ और प्रचलित यथार्थवाद के अर्थ में अन्तर नहीं करते।
आदर्शवाद मौलिक सत्य का उद्घाटन करता है। वह मनुष्य को मोलिक रूप में उपस्थित करता है। आज मनुष्य की क्या दशा है, इसकी वह चिन्ता नहीं करता। वह तो इस ओर ध्यान देता है कि मनष्य को कैसा होना चाहिए। उसका वास्तविक रूप क्या है। आदर्शवादी महान् विचारक होता है।
यदि आदर्शवादी लेखक महान् विचारक नहीं है - बौद्धिक नहीं है तो वह या तो अपने आदर्श का स्तर ओछा रखेगा या उसे अस्वाभाविक बना देगा। आदर्शवाद के अन्दर अस्वाभाविक तत्त्व तनिक-सी असावधानी से प्रवेश कर जाता है। इसी कारण आदर्शवादी लेखकों में यह दुर्बलता प्रायः पाई जाती है। अव्यावहारिक आदर्श को अस्वाभाविक आदर्शवाद कह सकते हैं।
कोरा आदर्शवादी सामाजिक स्वास्थ्य की ओर तो ध्यान देता ही है, वह वर्तमान समस्याओं से तटस्थ भी नहीं रहता। वर्तमान की सापेक्षता में ही वह अपना आदर्श सम्मुख रखता है। यदि आदर्शवादी ऐसा नहीं करे तो वह ‘कला के कला’ की श्रेणी में आ जाएगा। वह अलौकिक तथा काल्पनिक लोक में ही विचरण करता रहेगा।
प्रेमचन्द अपने लेखों और उपन्यासों के द्वारा ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ का समर्थन करते हैं। वे आदर्श और यथार्थ का समन्वय करते हैं। उनका दृष्टिकोण उपयोगी यथार्थवाद और आदर्शवाद के समन्वय का है। अस्वाभाविक आदर्शवाद, यथार्थवाद और अति यथार्थवाद का उन्होंने समर्थन नहीं किया। ये विचार लेखों के अतिरिक्त उनके उपन्यासों के प्रमुख पात्रों के मुख से भी व्यक्त किए गए हैं। अति-आदर्शवाद और पात्रों के मुख से लेखक के बोलने के संबंध में वे लिखते हैं :
“कल्पना के गढ़े हुए आदमियों में हमारा विश्वास नहीं है, उनके कार्यों और विचारों से हम प्रभावित नहीं होते। हमें इसका निश्चय हो जाना चाहिए कि लेखक ने जो सृष्टि की है, वह प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर की गई है और अपने पात्रों की ज़बान से खुद बोल रहा है”1
आदर्शवाद का ध्येय बताते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं :
“साहित्य और कला में केवल मानव-जीवन की नक़ल को बहुत ऊँचा स्थान नहीं दिया जाता। उसमें आदर्शों की रचना करनी पड़ती है। आदर्शवाद का ध्येय यही है कि वह सुन्दर और पवित्र की रचना करके मनुष्य में जो कोमल और ऊँची भावनाएँ हैं, उन्हें पुष्ट करे और जीवन के संस्कारों से मन और हृदय में जो गर्द और मैल जम रहा हो, उसे साफ़ कर दे। किसी साहित्य की महत्ता की जाँच यही है कि उसमें आदर्श चरित्रों की सृष्टि हो। हम सब निर्बल जीव हैं, छोटे-छोटे प्रलोभनों में पड़कर हम विचलित हो जाते हैं, छोटे-छोटे संकटों के सामने सिर झुका देते हैं। और जब हमें अपने साहित्य में ऐसे चरित्र मिल जाते हैं जो प्रलोभनों को पैरों तले रौंदते और कठिनाइयों को धकियाते हुए निकल जाते हैं तो हमें उनसें प्रेम हो जाता है, हममें साहस का जागरण होता है और हमें अपने जीवन मार्ग मिल जाता है।”2
अतः साहित्य में आदर्शवाद की स्थापना होनी चाहिए, लेकिन प्रेमचन्द सैद्धांतिक रूप से व्यावहारिक आदर्शवाद के समर्थक थे। उनका आदर्श उपयोगिता का शत-प्रतिशत पहलू रखता है। वे लिखते हैं :
“साहित्य का उद्देश्य जीवन के आदर्श को उपस्थित करना है, जिसे पढ़कर हम जीवन में क़दम-क़दम पर आनेवाली कठिनाइयों का सामना कर सकें।”3
वे यथार्थवादियों के दोषों का उल्लेख करते हुए उपयोगी यथार्थवाद से आदर्शवाद का सम्मिश्रण करते हैं :
“यथार्थवादियों का कथन है कि संसार में नेकी-बदी का फल कहीं मिलता नज़र नहीं आता; बल्कि बहुधा बुराई का परिणाम अच्छा और भलाई का बुरा होता है। आदर्शवादी कहता है, यथार्थ का यथार्थ रूप दिखाने से फ़ायदा ही क्या है, यह तो आँखों से देखते ही हैं। कुछ देर के लिए तो हमें इन कुत्सित व्यवहारों से अलग रहना चाहिए, नहीं तो साहित्य का मुख्य उद्देश्य ही ग़ायब हो जाएगा। वह साहित्य को समाज का दर्पण मात्र नहीं मानता, बल्कि दीपक मानता है, जिसका काम प्रकाश फैलाना है। भारत का प्राचीन साहित्य आदर्शवाद ही का समर्थक है। हमें भी मर्यादा का पालन करना चाहिए। हाँ, यथार्थ का उसमें ऐसा सम्मिश्रण होना चाहिए कि सत्य से दूर न जान पड़े।”4
यथार्थ भी उपयोगिता का पहलू रखता है। प्रचलित यथार्थवाद में और प्रेमचन्द के यथार्थवाद में यही अन्तर है। प्रचलित यथार्थवाद के सम्बन्ध में ‘कायाकल्प’ में चक्रधर एक स्थान पर कहता है :
“यथार्थ का रूप अत्यन्त भयंकर होता है और हम यथार्थ ही को आदर्श मान लें, तो संसार नरक के तुल्य हो जाय। हमारी दृष्टि मन की दुर्बलता पर न पड़नी चाहिए, बल्कि दुर्बलताओं में भी सत्य और सुन्दर की खोज करनी चाहिए।”5
प्रेमचन्द यथार्थवाद की एकांगिता के बारे में लिखते हैं :
“यथार्थवाद चरित्रों को पाठक के सामने उनके यथार्थ नग्न रूप में रख देता है। उसे इससे कुछ मतलब नहीं कि सच्चरित्रता का परिणाम बुरा होता है या कुचरित्रता का परिणाम अच्छा। उसके चरित्र अपनी कमज़ोरियाँ या खूबियाँ दिखाते हुए अपनी जीवन लीला समाप्त करते हैं। संसार में सदैव नेकी का फल नेक और बदी का फल बद नहीं होता, बल्कि इसके विपरीत हुआ करता है। नेक आदमी धक्के खाते हैं, यातनाएँ सहते हैं, मुसीबतें झेलते हैं, अपमानित होते हैं - उनको नेकी का फल उलटा मिलता है। बुरे आदमी चैन करते हैं, नामवर होते हैं, यशस्वी बनते हैं - उनको बदी का फल उलटा मिलता है। (प्रकृति का नियम विचित्र है।) यथार्थवादी अनुभव की बेड़ियों में जकड़ा होता है और चूँकि संसार में बुरे चरित्रों की प्रधानता है - यहाँ तक कि उज्ज्वल से उज्ज्वल चरित्र में भी कुछ न कुछ दाग-धब्बे रहते हैं, इसलिए यथार्थवाद हमारी दुर्बलताओं, हमारी विषमताओं, और हमारी क्रूरताओं का नग्न चित्र होता है और इस तरह यथार्थवाद हमको निराशावादी बना देता है, मानव-चरित्र पर से हमारा विश्वास उठ जाता है, हमको अपने चारों तरफ़ बुराई ही नज़र आने लगती है।”6
यह एकांगिता विशुद्ध यथार्थवाद के अन्तर्गत ही है। प्रेमचन्द उपयोगी यथार्थवाद से समझौता ही नहीं करते वरन् उसे आवश्यक भी मानते है; लेकिन वे विशुद्ध या अति-यथार्थवाद के विरोधी हैं -
“इसमें सन्देह नहीं कि समाज की कुप्रथा की ओर उसका ध्यान दिलाने के लिए यथार्थवाद अत्यन्त उपयुक्त है, क्योंकि इसके बिना बहुत सम्भव है, हम उस बुराई को दिखाने में अत्युक्ति से काम लें और चित्र को उससे कहीं ज़्यादा काला दिखाएँ जितना वह वास्तव में है; लेकिन जब वह दुर्बलताओं का चित्रण करने में शिष्टता की सीमाओं से आगे बढ़ जाता है, तो आपत्तिजनक हो जाता है।”7
आगे चलकर विशुद्ध यथार्थवाद की अनुपयोगिता का मनोवैज्ञानिक कारण देते हुए वे लिखते हैं -
“फिर मानव-स्वभाव की विशेषता यह भी है कि वह जिस छल, क्षुद्रता और कपट से घिरा हुआ है, उसी की पुनरावृत्ति उसके चित्त को प्रसन्न नहीं कर सकती। वह थोड़ी देर के लिए ऐसे संसार में उड़कर पहुँच जाना चाहता है, जहाँ उसके चित्त को ऐसे कुत्सित भावों से नजात मिले, वह भूल जाए कि मैं चिन्ताओं के बन्धन में पड़ा हुआ हूँ। जहाँ उसे सज्जन, सहृदय, उदार प्राणियों के दर्शन हाँ, जहाँ छल और कपट, विरोध और वैमनस्य का ऐसा प्राधान्य न हो। उसके दिल में ख़याल होता है कि जब हमें किस्से-कहानियों में भी उन्हीं लोगों से साबक़ा है जिनके साथ आठों पहर व्यवहार करना पड़ता है, तो फिर ऐसी पुस्तक पढ़ें ही क्यों ?”8
जहाँ वे एक ओर विशुद्ध यथार्थवाद की अनुपयोगिता प्रकट करते हैं वहाँ दूसरी ओर आदर्श की स्थापना उपयोगिता की आधार-शिला पर ही करते हैं -
“अँधेरी गर्म कोठरी में काम करते-करते जब हम थक जाते हैं तब इच्छा होती है कि किसी बाग में निकलकर निर्मल-स्वच्छ वायु का आनन्द उठायें। इसी कमी को आदर्शवाद पूरा करता है। वह हमें ऐसे चरित्रों से परिचित कराता है, जिनके हृदय पवित्र होते हैं, जो स्वार्थ-भावना से रहित होते हैं, जो साधु प्रकृति के होते हैं।’’9
यदि किसी को अँधेरी कोठरी में कार्य करने में असन्तोष है और वह अपनी वर्तमान स्थिति में परिवर्तन चाहता है, तो सर्वप्रथम उसे आदर्शवाद रूपी खुली हवा का ज्ञान होना आवश्यक है। तब उसे उस ‘अँधेरी कोठरी’ में पुनः कार्य करने की इच्छा नहीं होगी और वह अपने कार्यक्षेत्र को हवा से पूर्ण बनाने का उत्कट प्रयत्न करेगा।
लेकिन प्रेमचन्द जितने सजग यथार्थ की स्थापना में हैं, उतने ही आदर्श की :
“यथार्थवाद यदि हमारी आँखें खोल देता है, तो आदर्शवाद हमें उठाकर मनोरम स्थान में पहुँचा देता है। लेकिन जहाँ आदर्शवाद में यह सुख है, वहाँ इस बात की भी शंका है कि हम ऐसे चरित्रों को न चित्रित कर बैठें जो सिद्धान्तों की मूर्ति-मात्र हों - जिनमें जीवन न हो। किसी देवता की कामना करना मुश्किल नहीं है, लेकिन उस देवता में प्राण-प्रतिष्ठा करना मुश्किल है।”10
वे अव्यावहारिक आदर्शवाद के समर्थक कभी नहीं रहे। उनमें उपयोगी यथार्थवाद और व्यावहारिक आदर्शवाद का अद्भुत समन्वय है। आगे चलकर वे लिखते हैं :
“इसलिए वही उपन्यास उच्चकोटि के समझे जाते हैं, जहाँ यथार्थ और आदर्श का समावेश हो गया हो। उसे आप ‘आदर्शोंन्मुख यथार्थवाद’ कह सकते हैं। आदर्श को सजीव बनाने के लिए यथार्थ का उपयोग होना चाहिये।”11
इसी प्रकार ‘कर्मभूमि’ में भी अमरकांत और डा॰ शान्तिकुमार के संवादों में आदर्श और यथार्थ के समन्वय की चर्चा आयी है -
“तुम आदर्श की धुन में व्यावहारिकता का बिलकुल विचार नहीं करते। कोरा आदर्शवाद ख़्याली पुलाव है।
अमर ने चकित होकर कहा - मैं तो समझता था, आप भी आदर्शवादी हैं।
शान्तिकुमार ने मानो इस चोट को ढाल पर रोककर कहा - मेरे आदर्शवाद में व्यावहारिकता को भी स्थान है।
इसका अर्थ है कि आप गुड़ खाते है, गुलगुले से परहेज करते हैं।
जब तक मुझे रुपये कहीं से मिलने न लगें, तुम्हीं सोचो, मैं किस आधार पर नौकरी का परित्याग कर दूँ। पाठशाला मैंने खोली है। इसके संचालन का दायित्व मुझ पर है। इसके बन्द हो जाने पर मेरी बदनामी होगी। अगर तुम इसके संचालन का कोई स्थायी प्रबन्ध कर सकते हो, तो मैं आज इस्तीफ़ा दे सकता हूँ; लेकिन बिना किसी आधार के मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं इतना पक्का आदर्शवादी नहीं....
मुझे संसार का तुमसे ज़्यादा तजरबा है, मेरा इतना जीवन नये-नये परीक्षणों में ही गुज़रा हे। मैंने जो तत्त्व निकाला है, यह कि हमारा जीवन समझौते पर टिका हुआ है। अभी तुम जो चाहे समझो, पर एक समय आवेगा, जब तुम्हारी आँखें खुलेंगी और तुम्हें मालूम होगा कि जीवन में यथार्थ का महत्त्व आदर्श से जौ भर भी कम नहीं है।”12
‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ का सुलझा हुआ रूप उनके लेखों में द्रव्टव्य है, लेकिन यह स्पष्टता तभी दिखाई देगी जब विशुद्ध यथार्थवाद, उपयोगी यथार्थवाद, आदर्शवाद और अति-आदर्शवाद आदि के सूक्ष्म अंतर को सामने रखा जाए। जो आलोचक इस अन्तर की ओर ध्यान नहीं देते वे या तो उनके विचारों में असंगतियाँ ढूँढ़ते हैं या फिर उन्हें आदर्शवाद से यथार्थवाद की ओेर आते देखते हैं और ऐसा विश्वास प्रकट करते हैं कि प्रेमचन्द अगर और जीवित रहते तो वे निश्चय ही साहित्य में प्रचलित यथार्थवाद के समर्थक हो जाते। उपर्युक्त वैज्ञानिक विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचन्द अपनी साहित्यिक चेतना के प्रारम्भ से अन्त तक आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के समर्थक रहे। इस दृष्टि से उनमें कोई सैद्धान्तिक परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता।
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संदर्भ-संकेत
1 प्रेमचंद, कुछ विचार, पृ. 10
2 ‘हंस’, मार्च, 1935
3 वही, जनवरी, 1935
4 प्रेमचंद, कुछ विचार, पृ. 25
5 ‘कायाकल्प’, पृ. 129
6 प्रेमचंद, कुछ विचार, पृ. 39-40
7 प्रेमचंद, कुछ विचार, पृ. 40
8 वही
9 वही
10 प्रेमचंद, कुछ विचार, पृ. 40-41
11 प्रेमचंद, कुछ विचार, पृ. 41
12 ‘कर्मभूमि’, पृ. 110-111
जीवन-चिन्तन
प्रेमचन्द एक जागरूक कलाकार थे। कल्पना की अपेक्षा सत्य, अन्तर्मुख की अपेक्षा बहिर्मुख, मृत्यु की अपेक्षा जीवन, निराशा की अपेक्षा आशा तथा कुरूपता की अपेक्षा सौन्दर्य के वे सच्चे उपासक थे। उन्होंने यथार्थ का आँचल कभी नहीं छोड़ा। यथार्थ के सुदृढ़ धरातल पर ही उन्होंने अपने आदर्श-लोक का निर्माण किया, जिसे उन्होंने स्वयं ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ का नाम दिया है। जीवन में जो कुछ स्वस्थ, सुन्दर, सत्य एवं कल्याणकारी है, वही उन्हें ग्राह्य है, शेष सर्वथा त्याज्य। उन्होंने अन्धकार को कभी प्रकाश पर छाने नहीं दिया। पशुता और दानवता के समाने मनुष्यता का सिर ऊँचा रखा। धन, अधिकार-मद, शोषण तथा प्रचलित धार्मिक अव्यवस्था के विरोध में उन्होंने अपना जीवन अर्पित कर दिया। वे पीड़ित, पद-दलित व उपेक्षित जनता के लेखक थे। स्वयं मज़दूर थे - क़लम के मज़दूर। उनकी लेखनी फावड़े-कुदाली के समान युग-युग से संस्कारों, विश्वासों, धारणाओं रूपी कड़ी ज़मीन को खोदती चली गई। प्रेमचन्द भारत की महान सांस्कृतिक परम्परा के एक अंग हैं। सादगी व भोलेपन के वे साक्षात् अवतार थे।
प्रेमचन्द का जीवन-दर्शन अद्वितीय था। मानवतावादी लेखक होने के नाते उनका विकसित ‘मनुष्य’ उनके साहित्य से कहीं महान है। ‘रंगभूमि’ में सूरदास का गीत प्रेमचन्द के जीवन-दर्शन का प्रतीक है। इस गीत में उनके जीवन का रहस्य भरा हुआ है :
भई, क्यों रन से मुँह मोड़े ?
वीरों का काम है लड़ना,
कुछ काम जगत में करना
क्यों निज मरजादा छोडे़ ?
भई, क्यों रन से मुँह मोड़े ?
क्यों जीत की तुझको इच्छा,
क्यों हार की तुझको चिन्ता,
क्यों दुख से नाता जोड़े ?
भई, क्यों रन से मुँह मोड़े ?
तू रंगभूमि में आया
दिखलाने अपनी माया,
क्यों धरम नीति को तोड़े ?
भई, क्यों रन से मुँह मोड़े ?1
वे जीवन को एक खेल समझते थे। प्रत्येक प्राणी इस संसार-रूपी मैदान में खिलाड़ी बनकर आता है और अपना-अपना खेल खेलकर चला जाता है। खेल में हार-जीत होती ही है। सूरदास कहता है, “सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाज़ी पर बाज़ी हारते हैं, चोट पर चोट खाते हैं, धक्के सहते हैं, पर मैदान में डटे रहते हैं। उनकी त्यौरियों पर बल नहीं पड़ते। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती। दिल पर मालिन्य की छींटे भी नहीं आते, किसी से जलते हैं न चिढ़ते हैं। खेल में रोना कैसा ? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिये नहीं।”2
उनके जीवन का यह खेल धर्म व नैतिकता पर आधारित है, ‘क्यों धरम नीति तो तोड़े ?’ उनके जीवन का मूल मंत्र है। वे ‘विजय’ को विजय के साधनों से महान नहीं समझते। जीवन की सफलता मात्रा विजय में निहित नहीं है। संघर्ष की प्रणाली और उसके साधनों का नैतिकता से गहरा संबंध है। चाहे उन साधनों से विजय मिले या न मिले। पराजय, अनैतिक प्रयत्नों की विजय से कहीं श्रेष्ठ है सूरदास कहता है, “हमारी बड़ी भूल यह है कि खेल को खेल की तरह नहीं खेलते। खेल में धाँधली करके कोई जीत ही जाय, तो क्या हाथ आएगा? खेल तो इस तरह चाहिए कि निगाह जीत पर रहे, पर हार से घबराए नहीं, ईमान को न छोड़े। जीतकर इतना न इतराए कि अब हार कभी होगी ही नहीं। यह हार-जीत तो जिन्दगी के साथ है।”3
प्रेमचन्द के साहित्य में जीवन का यही दृष्टिकोण मिलेगा। वे बहुत हँसते थे। उनके पहुँचते ही मुर्दा गोष्ठियों में भी क़हक़हों की धूम मच जाती थी। हास्य उनके जीवन-दर्शन का एक अंग है। प्रेमचन्द के उपन्यासों में जगह-जगह ऐसे स्थल आये हैं, जहाँ प्रेमचन्द अपने पात्रों को बेहद हँसाते है तथा जिनके साथ पाठक भी हँसते हैं। जीवन की गम्भीरतम, अत्यधिक निराशाजनक, विवशताजन्य तथा भयानक परिस्थितियों के बीच यह हास्य कोई साधारण चीज़ नहीं है। ऐसा लगता है, प्रेमचन्द जीवन की विभीषिकाओं को एक साधारण वस्तु समझते थे। वे विभीषिकाएँ प्रेमचन्द के साहसिक मन की चट्टान से टकराती थीं और लौट जाती थीं और एक उन्मुक्त हँसी सदैव वातावरण में गूँजती रहती थी। प्रेमचन्द ने जीवन की विपदाओं को वास्तविक रूप में हँस-हँसकर झेला था।
सुख और दुःख जीवन-रथ के दो पहिए हैं। हास और रुदन मानव-जीवन की पूर्णता के लिए अनिवार्य हैं। एक के अभाव में दूसरे का कोई महत्त्व नहीं है। जो व्यक्ति दुःख की सत्ता को अस्वीकार करता है, वह वास्तविकता पर आवरण तो डालता ही है, समाज को अलौकिक जीवन की मृग-मरीचिका में भी भटका देता है। लौकिक जीवन से निर्लिप्त जीवन की सत्ता प्रेमचन्द को मान्य नहीं थी। उनके सभी पात्र सुख-दुःख की धूप-छाँह में अपना लौकिक जीवन व्यतीत करते हैं। हँसते हैं और रोते हैं। वे कोई ऐसे आदर्श महापुरुष अथवा अतिमानव नहीं; जो सुख-दुःख में समभाव धारण करते हैं। उनके पात्र शत-प्रतिशत मनुष्य हैं और प्रेमचन्द को उनकी मानवीय दुर्बलताओं से प्रेम है, सहानुभूति है। जहाँ एक ओर उनके पात्र सुख-दुःख में हँसते और रोते हैं; वहाँ दूसरी ओर ऐसा नहीं है कि वे दुःख में निराश होकर आत्महत्या कर लें अथवा सुख के मद में मानवीय मूल्यों को भूल जाएँ। मनुष्य के सम्मुख सबसे बड़ी लौकिक वेदना मृत्यु है ; और जब यह असमय ही हो जाए तब और भी मर्मान्तक है। मृत्यु मानव-जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है। मृत्यु मानव-जीवन का अनिवार्य अंग होने के कारण उपेक्षित वस्तु नहीं है। प्रेमचन्द के उपन्यासों में जहाँ किसी पात्र की मृत्यु होती है वहाँ का वातावरण और वर्णन कितना गम्भीर और दहला देने वाला होता है कि देखते ही बनता है। प्रायः औसत बुद्धि और हृदय की औसत गहराई वाले लेखक मृत्यु जैसे मर्मस्पर्शी प्रसंग को एकदम साधारण घटना समझकर छोड़-से जाते हैं। किसी पात्र की मृत्यु हो गई और मानो कुछ हुआ ही नहीं। कथा आगे बढ़ती जाती है। लेकिन प्रेमचन्द के साथ ऐसा नहीं है। मृत्यु को दो पंक्तियों में अख़बारी समाचार की तरह लिखकर वे आगे नहीं बढ़ जाते, वरन् डूबते-उतराते हैं और अपने महत् जीवन-अनुभव से जो कुछ उन्होंने ग्रहण किया है वह पाठकां के सामने रखते हैं। इतना मर्मस्पर्शी प्रसंग यदि पाठक को रुला न सका तो लेखक की जीवन-साधना उथली ही मानी जाएगी। प्रेमचन्द के उपन्यासों में वर्णित मृत्यु-प्रसंगों के कुछ उद्धरण, जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण को समझने में सहायक होंगे :
(क) “बसंतकुमार ने एक बार फिर ज़ोर मारा, पर हाथ-पाँव न हिला सके। तब उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। तट पर लोगों ने डूबते देखा। दो-चार आदमी पानी में कूदे, पर एक ही क्षण में बसतंकुमार लहरों में समा गए, केवल कमल के फूल पानी पर तैरते रह गए, मानों उस जीवन का अंत हो जाने के बाद उनकी अतृप्त लालसा अपनी रक्तरंजित छटा दिखा रही हो।”4
(ख) “हमारा अंत समय कैसा धन्य होता है। वह हमारे पास ऐसे-ऐसे अहितकारियों को खींच लाता है, जो कुछ दिन पूर्व हमारा मुख नहीं देखना चाहते थे और जिन्हें इस शक्ति के अतिरिक्त संसार का कोई अन्य शक्ति पराजित न कर सकती थी। हाँ, यह समय ऐसा ही बलवान है और बड़े-बड़े बलवान शत्रुओं को हमारे अधीन कर देता है। जिन पर हम कभी विजय न प्राप्त कर सकते थे, उन पर हमको यह समय विजयी बना देता है। जिन पर हम किसी शस्त्र से अधिकार न पा सकते थे, उन पर यह समय शरीर के शक्तिहीन हो जाने पर भी हमको विजयी बना देता है। आज पूरे वर्ष भर के पश्चात् प्रताप ने इस घर में पदार्पण किया। सुशीला की आँखें बन्द थीं, पर मुख-मंडल ऐसा विकसित था, जैसा प्रभातकाल का कमल।”5
(ग) “अँधेरा हो चला था। सारे गृह में शोकमय और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। रोने वाले रोते थे, पर कंठ बाँध-बाँधकर। बातें होती थीं, पर दबे स्वरों से। सुशीला भूमि पर पड़ी हुई थी। वह सुकुमार अंग, जो कभी माता के अंक में पला, कभी प्रेमांक में पोढ़ा, कभी फूलों की सेज पर सोया, इस समय भूमि पर पड़ा हुआ था। अभी तक नाड़ी मंद-मंद गति से चल रही थी, मुंशीजी शोक और निराशा-नद में मग्न उसके सिर की ओर बैठे हुए थे। अकस्मात् सिर उठाया और दोनों हाथों से मुंशीजी का चरण पकड़ लिया। प्राण उड़ गये। दोनों कर उनके चरण का मण्डल बाँधे ही रहे। यह उसके जीवन की अन्तिम क्रिया थी।
रोने वाले रोओ, क्योंकि तुम रोने के अतिरिक्त कर ही क्या सकते हो ? तुम्हें उस समय कोई कितनी ही सान्त्वना दे, पर तुम्हारे नेत्रा अश्रु-प्रवाह को न रोक सकेंगे। रोना तुम्हारा कर्तव्य है। जीवन में रोने के अवसर कदाचित् ही मिलते हैं। क्या इस समय तुम्हारे नेत्र शुष्क हो जायेंगे ? आँसुओं के तार बँधे हुए थे, सिसकियाँ के शब्द आ रहे थे कि महाराजिन दीपक जलाकर घर में लायी। थोड़ी देर पहले सुशीला के जीवन का दीप बुझ चुका था।”6
(घ) “लौंगी ने दोनों फैले हुए हाथों के बीच में अपना सिर दिया और अन्तिम प्रेमालिंगन के आनन्द में विह्नल हो गई। इस निर्जीव मरणोन्मुख प्राणी के आंलिगन में उसने उस आत्मबल, विश्वास और तृप्ति का अनुभव किया, जो उसके लिए अभूतपूर्व था। इस आनन्द में शोक भूल गई। पचीस वर्ष के दाम्पत्य जीवन में उसने कभी इतना आनन्द न पाया था। निर्दय अविश्वास रह-रहकर उसे तड़पाता रहता था। उसे सदैव यह शंका बनी रहती थी कि यह डोंगी पार लगती या मँझधार में डूब जाती है। वायु का हलका-सा वेग, लहरों का हलका-सा आन्दोलन, नौका का हलका-सा कंपन उसे भयभीत कर देता था। आज उन सारी शंकाओं और वेदनाओं का अन्त हो गया। आज उसे मालूम हुआ कि जिसके चरणों पर मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अन्त तक मेरा रहा। यह शोकमय कल्पना भी कितनी मधुर और शान्तिदायिनी थी !
वह इसी विस्मृति की दशा में थी कि मनोरमा का रोना सुनकर चौंक पड़ी और दीवान साहब के मुख की ओर देखा। तब उसने स्वामी के चरणों पर सिर रख दिया और फूट-फूटकर रोने लगी। एक क्षण में सारे घर में कुहराम मच गया। नौकर-चाकर सभी रोने लगे। जिन नौकरों को दीवान साहब के मुँह से नित्य घुड़कियाँ मिलती थीं, वे भी रो रहे थे। मृत्यु में मानसिक प्रवृत्तियाँ को शान्त करने की विलक्षण शक्ति होती है। ऐसे विरले ही प्राणी संसार में हांगे जिनके अन्तःकरण मृत्यु के प्रकाश से आलोकित न हो जाएँ। अगर कोई ऐसा मनुष्य है, तो उसे पशु समझो। हरि सेवक की कृपणता, कठोरता, संकीर्णता, धूर्तता एवं सारे दुर्गुण, जिनके कारण वह अपने जीवन में बदनाम रहे, इस विशाल प्रेम के प्रवाह में बह गये।”7
(ङ) “राजा साहब ने यह करुण विलाप सुना और उनके पैरों तले से ज़मीन निकल गयी। उन्होंने विधि को परास्त करने का संकल्प किया था। विधि ने उन्हें परास्त कर दिया। विधि को हाथों का खिलौना बनाना चाहते थे। विधि ने दिखा दिया, तुम मेरे हाथ के खिलौने हो। वह अपनी आँखों से जो कुछ न देखना चाहते थे, वह देखना पड़ा और इतनी जल्दी। आज ही वह मुंशी वज्रधर के पास लौटे थे, आज ही उनके मुँह से वे अहंकारपूर्ण शब्द निकले थे। आह ! कौन जानता था कि विधि इतनी जल्दी यह सर्वनाश कर देगी। इससे पहले कि वह अपने जीवन का अन्त कर दें, विधि ने उनकी आशाओं का अन्त कर दिया।”8
(च) “मुँह से ‘तीन’ शब्द निकलते ही बाबू साहब के सिर पर लाठी का ऐसा तुला हुआ हाथ पड़ा कि वह अचेत होकर ज़मीन पर गिर पड़े। मुँह से केवल इतना ही निकला, हाय मार डाला।... हाय, बेचारे क्या सोचकर चले थे, क्या हो गया। जीवन, तुमसे ज्यादह असार भी दुनिया में कोई वस्तु है ? क्या यह उस दीपक की भाँति ही क्षण-भंगुर नहीं, जो हवा के एक झोंके से बुझ जाता है? पानी के एक बुलबुले को देखते हो, लेकिन उसे टूटते भी कुछ देर लगती है, जीवन में उतना सार भी नहीं। साँस का भरोसा ही क्या ? और इसी नश्वरता पर हम अभिलाषाओं के कितने विशाल भवन बनाते हैं। नहीं जानते, नीचे जाने वाली साँस ऊपर आयेगी या नहीं, पर सोचते इतनी दूर की हैं, मानों हम अमर हैं।”9
प्रेमचन्द जीवन को यद्यपि खेल समझते थे तथापि यह खेल निरुद्देश्य नहीं है। सुख और दुःख के बीच मनुष्य अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहकर विश्व के रंगमंच पर अपना ‘अभिनय’ पूर्ण करता है। मनुष्य एक अभिनेता है, किन्तु वह कृत्रिम अभिनेता नहीं है। प्रेमचन्द उसे स्वाभाविक रूप में देखना चाहते हैं। उसका हँसना और रोना प्राकृतिक व्यापार है। उनके जीवन-दर्शन में अलौकिकता नाम की कोई चीज़ नहीं है, यद्यपि ‘कायाकल्प’ में वे आध्यात्मिक जीवन की अनेक गुत्थियाँ सुलझाते दृष्टिगोचर होते हैं एवं पुनर्जन्म में विश्वास व्यक्त करते हैं। तथापि ‘कायाकल्प’ प्रेमचन्द के विचारों की कोई सीमा नहीं है। उन्होंने भौतिक जीवन की वास्तविकता को ही व्यापक रूप में स्पर्श किया है। ‘गोदान’ में प्रो॰ मेहता के मुख से वे जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को ही एक तरह से व्यक्त करते हुए कहते हैं :
‘‘मेरे जीवन का क्या आदर्श है... मैं प्रकृति का पुजारी हूँ और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूँ। जो प्रसन्न होकर हँसता है, दुःखी होकर रोता है और क्रोध में आकर मार डालता है। जो दुःख और सुख दोनों का दमन करते हैं, जो रोने को कमज़ोरी और हँसने का हलकापन समझते हैं, उनसे मेरा कोई मेल नहीं। जीवन मेरे लिए आनन्दमय क्रीड़ा है, सरल, स्वच्छन्द ! जहाँ कुत्सा ईर्ष्या और जलने के लिए कोई स्थान नहीं। मैं भूत की चिंता नही करता। भविष्य की परवा नहीं करता। मेरे लिए वर्तमान ही सब कुछ है। भविष्य की चिंता हमें कायर बना देती है। भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है.... हम व्यर्थ का भार अपने ऊपर लादकर, रूढ़ियों, विश्वासों और इतिहासों के मलबे के नीचे दबे पड़े हैं। ... और जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है, इस पर तो मुझे हँसी आती है। यह मोक्ष की उपासना की पराकाष्ठा है, जो हमारी मानवता को नष्ट किये डालती है। जहाँ जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है, और जीवन को सुखी बनाना ही उपासना है और मोक्ष है। ज्ञानी कहता है, ओठों पर मुस्कराहट न आये। मैं कहता हूँ अगर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते तो तुम मनुष्य नहीं हो, पत्थर हो।”10
जीवन किस प्रकार जिया जाए, इसका यह उत्तर है!
लेकिन प्रेमचन्द का यह भौतिकवादी दृष्टिकोण भोग की भावना पर आधारित नहीं है। वे स्वयं ‘फ़कीर’ और ‘तपस्वी’ थे। उन्होंने धन की कभी चिंता नहीं की। कर्तव्य भूलकर वैयक्तिक सुख-सुविधाओं की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। उन्हें अपने आदर्श सर्वाधिक प्रिय थे। धन के लोभ में पड़कर वे अपने आदर्शों और सिद्धान्तों से कभी च्युत नहीं हुए। प्रेमचन्द का जीवन इसका प्रमाण है। आर्थिक संकटों के बीच वे कभी निराश नहीं हुए। महाराजा अलवर के निमंत्रण को अस्वीकार कर उन्होंने अपने आदर्शों के प्रति गहन निष्ठा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया था।
इसी प्रकार उपन्यासों के आदर्श पात्र, जो उनके विचारों के वाहक हैं, यही कहानी कहते हैं। गोविन्दी अपने पिता खन्ना से कहती है :
“सत्पुरुष धन के आगे सिर नहीं झुकाते। वह देखते हैं, तुम क्या हो। अगर तुममें सच्चाई है, त्याग है, पुरुषार्थ है, तो ये तुम्हारी पूजा करेंगे।”11
धन हमें आत्मसेवी, भोगी और विलासी बना देता है। हम जीवन की पवित्रता को भूल जाते हैं। धन के लोभ ने आज मानव-जीवन को किस तरह विकृत कर दिया है उसका यथार्थ चित्रण प्रेमचन्द-साहित्य में मिलता है। स्वार्थ-भावना की जड़ यही धन-लिप्सा है। धन की लालसा ने सेवा-भावना को कुंठित कर रखा है। प्रेमचन्द ने समाज के समाने सेवा-वृत्ति को प्रतिष्ठापित किया है। सेवा-मार्ग उन्हें अत्यधिक प्रिय था। व्यक्तिगत और समष्टिगत दोनों रूपों में वे सेवाभाव को प्राथमिकता देते थे। राज-प्रजा के संबंधों पर लिखते हुए वे कहते हैं :
“आज राजा और प्रजा में भोक्ता और भोग्य का संबंध नहीं है, अब सेवक और सेव्य का संबंध है। अब अगर किसी राजा की इज्ज़त है तो उसकी सेवा-प्रवृत्ति के कारण।........जब तक कि कोई सेवा-मार्ग पर चलना नहीं सीखता, जनता के दिलों में घर नहीं कर पाता।”12
प्रेमचन्द के प्रायः प्रत्येक उपन्यास में सेवा-धर्म की चर्चा मिलेगी। कितने ही पात्र सेवा-मार्ग के पथिक चित्रित किए गए हैं। ‘कर्मभूमि’ में अमरकांत, नैना, डा॰ शान्तिकुमार, गोदान’ में होरी, प्रो॰ मेहता, ‘कायाकल्प’ में यशोदानन्दन, चक्रधर, मनोरमा, शंखधर, ‘प्रेमाश्रम’ में प्रेमशंकर, ‘वरदान’ में विट्ठलदास, पद्मसिंह, ‘रंगभूमि’ में सूरदास, प्रेमसेवक, सोफी, विनयसिंह आदि सभी के जीवन का उद्देश्य सेवा है। अपने निबंध-संग्रह ‘कुछ विचार’ में भी प्रेमचन्द एक जगह लिखते हैं :
“अगर हमारा अन्तर प्रेम की ज्योति से प्रकाशित हो और सेवा का आदर्श हमारे सामने हो तो ऐसी कोई कठिनाई नहीं जिस पर हम विजय प्राप्त न कर सकें।”13
‘गोदान’ में प्रो॰ मेहता के विचारों की व्याख्या करते समय प्रेमचन्द ने सेवा मार्ग अथवा कर्मयोग पर एक विस्तृत टिप्पणी दी है :
“प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच में जो सेवा-मार्ग है, चाहे उसे कर्मयोग कहो, वही जीवन को सार्थक कर सकता है, वही जीवन को ऊँचा और पवित्रा बना सकता है।....... सभी मनस्वी प्राणियों में यह भावना (त्याग-भावना) छिपी रहती है और प्रकाश पाकर चमक उठती है। आदमी अगर धन या नाम के पीछे पड़ा है, तो समझ लो, अभी तक वह किसी परिष्कृत आत्मा के सम्पर्क में नहीं आया।’’14
उपर्युक्त विवेचन से उनका भौतिकवादी दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। निःसन्देह, प्रेमचन्द में हमें एक उदात्त नैतिकता के दर्शन होते हैं। उनकी विचारधारा अव्यावहारिक नहीं है। वे सिद्धान्त और जीवन की एकता के समर्थक थे। नक़ली ज़िन्दगी से उन्हें कोई सरोकार नहीं था। ‘गोदान’ में प्रो॰ मेहता जीवन और सिद्धान्तों के सम्बन्धों पर कहते हैं :
“मैं चाहता हूँ, जीवन हमारे सिद्धान्तों के अनुकूल हो।........मुझे उन लोगों से ज़रा भी हमदर्दी नहीं है, जो बातें करती हैं कम्युनिस्टों की-सी, मगर जीवन है रईसों का-सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ।”15
प्रेमचन्द के जीवन में सिद्धान्त-साम्य सर्वत्र मिलेगा। उनके साहित्य में जिस ईमानदारी के दर्शन होते हैं वह अन्यत्र दुर्लभ है। सिद्धान्त-रक्षा का आत्म-सम्मान से घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रेमचन्द मनुष्य में आत्मसम्मान देखना चाहते थे। उन्होंने मनुष्य मात्र को मरना और जीना सिखाना चाहा था। जनता को उत्तेजित करते हुए वे लिखते हैं :
“जब तक जनता स्वयं अपनी रक्षा करना न सीखेगी, ईश्वर भी उसे अत्याचार से नहीं बचा सकता।
हमें सबसे पहले आत्मविश्वास की रक्षा करनी चाहिये। हम कायर और दब्बू हो गये हैं, अपमान और हानि चुपके से सह लेते हैं, ऐसे प्राणियों को तो स्वर्ग में भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। ज़रूरत है कि हम निर्भीक और साहसी बनें, संकटों का सामना करें, मरना सीखें। जब हमें मरना न आएगा, जीना भी न आएगा।”16
प्रेमचन्द के जीवन-दर्शन के ये मुख्य तत्त्व हैं, जिन्होंने उन्हें महान बनाया है। ये तत्त्व विशुद्ध मानवीय हैं। इन्हीं के आधार पर प्रेमचन्द के हृदय और बुद्धि की गहराई का अनुमान लगाया जा सकता है; क्योंकि ये ही वे तत्त्व हैं जिनसे प्रेमचन्द बने हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनका यह जीवन-दर्शन उभर-उभरकर समाने आया है। इससे उनका मावनतावाद भी भँली-भाँति प्रकट हो जाता है। जो आलोचक गाधीवादी अथवा साम्यवादी विचारधाराओं के माध्यम से उनके जीवन-दर्शन की खोज करते हैं वे वास्तव में आधार की ओर नहीं देखते। प्रेमचन्द न सही अर्थों में गांधीवादी थे और न साम्यवादी। उन्होंने राजनीतिज्ञों अथवा समाजशास्त्रियों द्वारा निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर अपने साहित्य का सृजन नहीं किया। मानवीय मूल्यों को उन्होंने सर्वापरि स्थान दिया है। यदि उन्होंने साम्यवाद का समर्थन किया है तो इसीलिए कि साम्यवादी समाज-व्यवस्था में मानवीय मूल्यों की उपेक्षा नहीं की जाती। यही देखकर उन्होंने सोवियत रूस की ‘नई सभ्यता’ का ज़ोरदार समर्थन किया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी ‘रूस की चिट्ठी’ में सोवियत रूस की प्रशंसा की थी। इसी प्रकार प्रेमचन्द ने गांधीवादी दर्शन को इसीलिए अपनाया था कि उसमें भी मानवीय मूल्य अपनी पराकाष्ठा में विद्यमान थे। चाहे उसे गांधीवादी दर्शन या गांधीवादी नैतिकता कहा जाए, चाहे भारतीय संस्कृति। सत्य, अहिंसा, स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग, हरिजनों व शोषितों के प्रति प्रेम-भावना आदि बातें यदि उनमें मिलती हैं तो इस आधार पर हम उन्हें गांधीवादी नहीं ठहरा सकते, भले ही ये प्रेरणाएँ उन्हें गांधी जी के वैचारिक सम्पर्क से मिली हों। चाहे गांधीवाद से प्रभावित प्रेमचन्द हों और चाहे साम्यवाद से, उनका मौलिक दर्शन सर्वत्र स्पष्ट लक्षित है, तभी वे आज इतने महान बन सके, तभी वे मनुष्य जाति को कुछ दे सके और तभी उनके साहित्य में इतनी गहराई आ सकी।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 328
2 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 190
3 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 140
4 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 20
5 ‘वरदान’, पृ. 47
6 ‘वरदान’, पृ. 53
7 ‘कायाकल्प’, पृ. 363-364
8 ‘कायाकल्प’, पृ. 467
9 ‘निर्मला’, पृ. 15
10 ‘गोदान’, पृ. 268
11 ‘गोदान’, पृ. 397
12 ‘रंगभूमि’, (भाग71), पृ. 366
13 कुछ विचार, पृ. 19
14 ‘गोदान’, पृ. 414-415
15 ‘गोदान’, पृ. 69
16 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 245 (प्रभुसेवक का कथन)
मानवतावादी दृष्टि
प्रेमचन्द मानवतावादी लेखक थे। गांधीवादी और साम्यवादी सिद्धान्तों से उन्होंने सीधी प्रेरणा ग्रहण नहीं की। उन्होंने जो कुछ जाना, सीखा, लिखा वह सब अपने अनुभव-मात्र से। इसीलिए उनके साहित्य में अपरास्त शक्ति है। गांधीवाद और साम्यवाद का कोई मानवतावाद से विरोध नहीं है, अतः प्रेमचन्द के विचारों में जगह-जगह इन दोनों वादों की झलक मिल जाती है, लेकिन उनका अपना विशिष्ट मानवतावाद सर्वत्र उभरा हुआ दीखता है। इसीलिए न उन्हें मात्र गांधीवादी ठहराया जा सकता है और न साम्यवादी। उन्होंने गांधीवादी और साम्यवादी दर्शन से प्रभावित होकर साहित्य-सर्जन नहीं किया, उनका व्यक्तित्व इन वादों की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। वस्तुतः मूल समस्या प्रेमचन्द के गांधीवाद से साम्यवाद की ओर मुड़ने की नहीं है, प्रत्युत उनके मानवतावाद के विकास की है। उनका मानवतावादी जीवन-दर्शन ही उनकी समस्त विचारणा के लिए उत्तरदायी है। इसमें संन्देह नहीं, उनके मानवतावाद पर भारतीय दर्शन की गहरी छाप है। गांधीवादी और साम्यवादी विचारों में यदि कहीं भारतीय ऋषियों के चिन्तन एवं सिद्धान्तों की झलक मिलती है तो उसे मौलिक नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार यदि प्रेमचन्द-साहित्य में उनकी अभिव्यक्ति मिलती है तो मात्र इस आधार पर प्रेमचन्द को भी कोई ‘वादी’ नहीं ठहराया जा सकता। वह तो भारतीय दर्शन के प्रभाव का परिणाम ही माना जाएगा। उदाहरणार्थ, अहिंसा का सिद्धान्त है। यदि प्रेमचन्द में अहिंसा-भाव मिलता है तो इसका अभिप्राय यह नहीं कि वे गांधीवादी हो गए। अहिंसा-भाव भारतीय दर्शन की उपज है।
प्रेमचन्द के मानवतावाद का विकास सुधारवाद से क्रांति की दिशा में हुआ है। जहाँ वे सुधारवादी हैं वहाँ वे गांधीवाद के अधिक निकट हैं और जहाँ क्रांतिकारी हैं वहाँ साम्यवाद के। पर, विशिष्ट तथ्य यह है कि इस भेद के होते हुए भी सुधारवादी और क्रांतिकारी प्रेमचन्द के मौलिक जीवन-दर्शन में अन्तर नहीं आया है। इस बात का प्रमाण सितम्बर, 1936 में ‘हंस’ में प्रकाशित प्रेमचन्द का ‘महाजनी सभ्यता’ शीर्षक लेख है। यद्यपि इस समय तक वे ‘सोज़ेवतन’ से ‘मंगलसूत्र’ तक ही एक लम्बी राह पार कर चुके हैं, फिर भी उनकी पूर्व मान्यताओं का आधार नहीं बदला है। यहाँ जागीरदारी सभ्यता के बारे में प्रेमचन्द लिखते हैं :
“जागीरदार अगर दुश्मन के खून से अपनी प्यास बुझाता था, तो अक़्सर अपने किसी मित्र या उपकारक के लिए जान की बाज़ी भी लगा देता था। बादशाह अगर अपने आदेश को क़ानून समझता था और उसकी अवज्ञा को कदापि सहन न कर सकता था तो प्रजापालन भी करता था। न्यायशील भी होता था। दूसरे के देश पर चढ़ाई वह या तो किसी अपमान-अपकार का बदला फेरने के लिए करता था या अपनी आन-बान, रोब-दाब क़ायम रखने के लिए या फिर देश-विजय और राज्य-विस्तार की वीरोचित महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होता था। उसकी विजय का उद्देश्य प्रजा का खून चूसना न होता था। कारण यह कि राजा और सम्राट जन-साधारण को अपने स्वार्थसाधन और धन-शोषण की भट्ठी का ईंधन न समझते थे, किन्तु उनके दुःख-सुख में शरीक़ होते थे और उनके गुण की क़द्र करते थे।”1
यही बात उन्होंने ‘जागरण’ 1932 के अंक में कही है :
“किसी वर्ग को दूसरे से इतना भय न था कि वह अपना संगठन करता। प्रत्येक वर्ग का कार्यक्षेत्र नियत था। उस क्षेत्रा के भीतर वह अपना जीवन व्यतीत करता था। ब्राह्मण समाज और राष्ट्र का नेता था। इसलिए नहीं कि उसमें धर्मबल था या बाहुबल था, बल्कि इसलिए कि उसमें ज्ञानबल था। वैश्य धन कमाता था, पर उस धन को जनहित में खर्च करता था। मनोवृत्तियाँ कुछ इस तरह हो गई थीं कि लोग अपने अधिकारों की अपेक्षा अपने कर्तव्यों का ज़्यादा विचार रखते थे। उस वक्त का राजा केवल सिंहासन की शोभा न बढ़ता था, बल्कि उसे रात-दिन प्रजा के हित की चिन्ता रहती थी। वह नित्य अपने समय का कुछ-न-कुछ भाग प्रजा का दुःख-दर्द सुनने में व्यतीत करता था, जिससे प्रजा में उसके प्रति भक्ति और श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता था। ज़मींदार केवल किसान से लगान वसूल करके चैन न करता था, बल्कि प्रजा के हित की रक्षा करता था। कुएँ और तालाब खुदवाना, अकाल और दुर्भिक्ष के समय प्रजा के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देना उसका धर्म था।”2
5 सितम्बर, 1932 के अंक में प्रेमचन्द भारतीय संस्कृति पर अपने विचार इस प्रकार प्रकट करते हैं :
“हमारे देश की संस्कृति कर्तव्य-प्रधान, धर्म-प्रधान, परमार्थ-प्रधान, अहिंसा-प्रधान, व्रत और नियम-प्रधान संस्कृति है। उसमें व्यक्ति और समष्टि के सामंजस्य का ऐसा विधान है कि एक-दूसरे का शत्रु न होकर सहायक बना रहे। व्यक्ति के लिए धन और शौर्य प्राप्त करने की पूरी स्वाधीनता है, पर उसका उपयोग समाज और राष्ट्र के हित के लिए होना चाहिए, भोग-विलास, निर्बलों पर प्रभुत्व जमाने के लिए नहीं। ‘अहिंसा परमो धर्मः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ यह दो सूत्र हमारी संस्कृति के मूल तत्त्व हैं और इस अधोवस्था में भी हम उन्हें अपनाए हुए हैं। यद्यपि अनेक कारणों से उस संस्कृति का रूप विकृत हो गया है, उसमें असंख्य बुराइयाँ घुस गई हैं, यहाँ तक कि उसका रूप पहचाना नहीं जा सकता, फिर भी ये तत्त्व प्रकाश-स्तम्भों की भाँति अब भी प्रतिकूल दशाओं का सामान करते हुए खड़े हैं। बहुत कुछ खो चुकने पर भी, अब तक इसमें जो कुछ रहा है, वह उन्हीं प्रकाश-स्तम्भों का प्रसाद है अन्यथा अब तक हमारी नौका न जाने कब की भँवर में पड़कर डूब चुकी होती।”3
प्रेमचन्द का मानवतावादी अहिंसावादी दृष्टिकोण 1932-36 तक यथावत् बना रहा। उनमें जहाँ एक ओर गांधीवादी संस्कार मिलते हैं, वहाँ दूसरी ओर विशेषकर अन्तिम दिनों में साम्यवादी संस्कार भी परिलक्षित होते हैं। इन दोनों विचारों का अपूर्व सम्मिश्रण ‘महाजनी सभ्यता’ शीर्षक लेख में देखा जा सकता है। इस लेख के विचार प्रेमचन्द की जीवन-साधना से प्रतिफलित हैं। उसमें न कोई असंगति है और न कोई परिवर्तन। यदि उन्हें अपने आदर्शों का मूर्त रूप सोवियत रूस में दिखाई दिया तो उन्होंने उसकी एक ईमानदार मानव के नाते प्रशंसा की तथा उस संस्कृति के विरोधियों पर तीव्र प्रहार भी किए।
प्रेमचन्द जी की गांधी जी से कभी भेंट नहीं हो सकी, यद्यपि वे उनसे मिलने के लिए तरसते रहे। गांधी और प्रेमचन्द का युग एक था। गांधी राजनीति में भारत का नेतृत्व कर रहे थे तो प्रेमचन्द साहित्य में। प्रेमचन्द के साहित्य का भी मुख्य उद्देश्य वही था जो गांधीजी का था - स्वतन्त्रता-प्राप्ति। ‘विशाल भारत’ (सन् 1930) में प्रेमचन्द लिखते हैं :
“मेरी अभिलाषाएँ बहुत सीमित हैं। इस समय सबसे बड़ी अभिलाषा यही है कि हम अपने स्वतंत्रता-संग्राम में सफल हों। मैं दौलत और शोहरत का उत्सुक नहीं हूँ। खाने को मिल जाता है। मोटर और बँगले की मुझे हविस नहीं है। हाँ, यह ज़रूर चाहता हूँ कि दो-चार उच्चकोटि की रचनाएँ छोड़ जाऊँ, लेकिन उनका उद्देश्य भी स्वतंत्रता-प्राप्ति ही हो।”4
गांधी के मनुष्य से किसी का विरोध नहीं। वे महान व्यक्ति थे। गांधी जी में पाये जानेवाले अनेक गुण प्रेमचन्द में भी विद्यमान थे, यथा - सादगी, धन के प्रति विरक्ति, अहिंसा-प्रेम, सत्यवादिता, श्रम-प्रेम आदि। प्रेमचन्द जी गांधी जी को महामानव मानते थे; पर, गांधी से प्रभावित होकर प्रेमचन्द जी ऐसे बने, यह बात नहीं है। गांधी जी यदि उत्पन्न न भी हुए होते तो भी प्रेमचन्द जो थे, वही रहते। अन्य सामान्य बातों में यदि कहीं साम्य पाया जाता है तो वह उद्देश्य की एकता के कारण ही। गांधी जी भी स्वाधीनता-प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील थे और प्रेमचन्द भी। समान उद्देश्य वालों में एक-दूसरे के प्रति प्रेम और साम्य पाया जाना स्वाभाविक है। लेकिन उद्देश्य एक होते हुए भी उस उद्देश्य की प्राप्ति के साधनों में, विधियों में अन्तर हो सकता है। और यहीं प्रेमचन्द जी और गांधी जी में अन्तर उपस्थित हो जाता है। सुधारवादी प्रेमचन्द क्रांतिकारी प्रेमचन्द तो बन गए, पर गांधी जी अन्त तक सुधारवादी ही बने रहे। इसी आधार पर यह कहा जाता है कि जहाँ प्रेमचन्द सुधारवादी हैं, वहाँ गांधीवाद के निकट हैं और जहाँ क्रांतिकारी हैं, वहीं साम्यवाद के। पर, प्रेमचन्द के दृष्टिकोण में यह परिवर्तन वास्तविक अनुभव से आया। प्रेमचन्द प्रारम्भ से ही व्यावहारिक आदर्शवाद के समर्थक थे, यह बताया जा चुका है। गांधी जी के प्रयोगों पर उन्हें आदर्शवादी होने के कारण आस्था थी, पर यह आस्था अंधी नहीं थी। प्रेमचन्द ने जब प्रत्यक्ष अनुभवों से यह देखा कि गांधी जी के तौर-तरीक़े अव्यावहारिक हैं तो उनका उनसे मतभेद हो गया। 7 अगस्त, 1933 के ‘जागरण’ की सम्पादकीय टिप्पणी में उन्होंने स्पष्ट लिखा :
“वैयक्तिक सत्याग्रह का कार्यक्रम राष्ट्र को स्वीकार नहीं है। सम्भव है, उसे पूर्ण रूप से व्यवहार में लाया जा सके, तो राष्ट्र को उसके द्वारा स्वराज्य प्राप्त हो सके, पर यह तो उसी तरह है कि रोगी की देह में रक्त बढ़ जाए तो वह अवश्य अच्छा हो जाएगा। किसी काम की सफलता के लिए असम्भव शर्त लगा देने से हम सिद्धि के निकट नहीं पहुँचते। किसी प्रोग्राम को उसकी व्यावहारिकता के आधार पर ही जाँचना उचित है। जिस दिन ऐसे आदमी बड़ी संख्या में निकल आयेंगे, जो अपना सर्वस्व राज्य के लिए त्यागने को तैयार हो जाएँ, उस दिन तो आप-ही-आप स्वराज्य हो जायगा। लेकिन ऐसा समय कभी आएगा, इसमें सन्देह है। ऐसी दशा में सत्याग्रही नीति से हमें अपने उद्देश्य की प्राप्ति की आशा नहीं।”5
आगे चलकर वे गांधीवाद की अव्यावहारिता के आलोचक बन गए। ‘जागरण’ 16 अप्रैल, 1934 के अंक की सम्पादकीय टिप्पणी में वे लिखते हैं -
“अब यह मान लेना पड़ेगा कि जिस चीज़ को भीतर की आवाज़ कहते हैं, जिसका मतलब यह होता है कि उसके ग़लत होने की सम्भावना नहीं, वह बहुत भरोसे की चीज़ नहीं है, क्योंकि उसने एक से ज़्यादा अवसरों पर ग़लती की है।”6
‘आत्मा की आवाज़’ पर से उनका विश्वास जाता रहा । ‘मंगलसूत्र’ में प्रेमचन्द लिखते हैं :
“ ‘सन्तकुमार ने निस्संकोच भाव से कहा, ‘‘ज़रूरत सब कुछ सिखा देती है। स्वरक्षा प्रकृति का पहला नियम है। वह जायदाद, जो आपने बीस हज़ार में दे दी, आज दो लाख से कम की नहीं है।’
‘वह दो लाख की नहीं, दस लाख की हो। मेरे लिए वह आत्मा का बेचने का प्रश्न है। मैं थोड़े से रुपयों के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता।’
दोनों मित्रों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कराये। कितनी पुरानी दलील है और कितनी लचर! आत्मा जैसी चीज़ है कहाँ? और जब सारा संसार धोखेधड़ी पर चल रहा है तो आत्मा कहाँ रही?....”7
इसी प्रकार तथकथित प्रजातंत्र पर से भी उनका विश्वास उठ गया था। प्रजातन्त्र के सिद्धान्तां से उनका कोई विरोध न था, वे तो उसकी व्यावहारिकता पर दृष्टि रखते थे। ‘गोदान’ में मिर्ज़ा के मुख से प्रेमचन्द तथाकथित प्रजातंत्र के बारे में कहते हैं :
“जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और ज़मीदारों का राज्य है, और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाज़ी ले जाता है, जिसके पास रुपये हैं। रुपये के ज़ोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं।”8
प्रेमचन्द कहते हैं, ”मिर्ज़ा साहब ने क़ुरान की आयतों से सिद्ध किया कि पुराने ज़माने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊँचे थे। आज तो हम उसकी तरफ़ ताक भी नहीं सकते। हमारी आँखों में चकाचौंध आ जाएगी। बादशाह को ख़जाने की एक कौड़ी भी निजी ख़र्च में लाने का अधिकार न था। वह किताबें नक़ल करके, कपड़े सीकर, लड़कां को पढा़कर अपना गुज़र करता था। मिर्ज़ा ने आदर्श महीपों की एक लम्बी सूची गिना दी। कहाँ तो वे प्रजा को पालनेवाले बादशाह, और कहाँ आजकल के मंत्रा और मिनिस्टर, जिन्हें पाँच, छः, सात, आठ हज़ार महावार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमोक्रेसी ?”9
इसी लूट का उल्लेख करते हुए ‘मंगलसूत्र’ में प्रेमचन्द पं॰ देवकुमार के मुख से कहलाते हैं :
“क्यों एक आदमी ज़िन्दगी-भर बड़ी-से-बड़ी मेहनत करके भी भूखों मरता है, और दूसरा आदमी हाथ-पाँव न हिलाने पर भी फूलों की सेज पर सोता है।.... बुद्धि जवाब देती, यहाँ सभी स्वाधीन हैं, सभी को अपनी शक्ति और साधनों के हिसाब से उन्नति करने का अवसर है। मगर शंका पूछती, सबको समान अवसर कहाँ हैं ? बाज़ार लगा हुआ है। जो चाहे वहाँ से अपनी इच्छा की चीज़ ख़रीद सकता है। मगर ख़रीदेगा तो वही जिसके पास पैसा है। और जब सबके पास पैसे नहीं हैं तो सबका बराबर का अधिकार कैसे माना जाए ?”10
प्रेमचन्द की मानवता तथाकथित प्रजातंत्र अथवा प्रचलित प्रजातंत्र की पोषक नहीं थी। वे समाज से शोषित और शोषक के झगड़े को मिटा देना चाहते थे। शोषितों के प्रति प्रेमचन्द के हृदय में अपार श्रद्धा और प्रेम है। वस्तुतः वे शोषित जनता के ही लेखक थे। शोषक-समाज के प्रति उनके हृदय में कोई सहानुभूति नहीं है और यह विरोधाभास निभ भी नहीं सकता। प्रारम्भ से ही उनमें शोषितों के प्रति मानवीय संवेदना दृष्टिगोचर होती है। शोषक-समुदाय के कुकर्मों से उन्हें घृणा थी। उन्होंने लिखा :
“निन्दा, क्रोध और घृणा यह सभी दुर्गुण हैं, लेकिन मानव-जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकाल दीजिए तो संसार नरक हो जाएगा...... पाखंड, धूर्तता, अन्याय, बलात्कार और ऐसी ही अन्य दुष्प्रवत्तियों के प्रति हमारे अन्दर जितनी ही प्रचंड घृणा हो, उतनी ही कल्याणकारी होगी। जीवन में जब घृणा का इतना महत्त्व है, तो साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है, जो जीवन का ही प्रतिबिम्ब है। मानव-हृदय आदि से ही ‘सु’ और ‘कु’ का रंगस्थल है और साहित्य की सृष्टि ही इसलिए हुई कि संसार में जो ‘सु’ या ‘सुन्दर’ है, और इसलिए कल्याणकर है, उसके प्रति मनुष्य में प्रेम उत्पन्न हो और ‘कु’ या असुन्दर और इसलिए असत्य वस्तुओं से घृणा । साहित्य और कला का यही मुख्य उद्देश्य है। ‘कु’ और ‘सु’ का संग्राम ही साहित्य का इतिहास है।”11
लेकिन वे भावनाओं के प्रति ही घृणा का उद्रेक करते हैं, व्यक्तियों के प्रति नहीं :
“इन पंक्तियों के लेखक ही के विषय में एक कृपालु आलोचक ने आक्षेप किया है कि उसने अपनी रचानाओं में ब्राह्मणों के प्रति घृणा का प्रचार किया। हरेक टकापंथी पुजारी को ब्राह्मण कहकर मैं इस पद का अपमान नहीं कर सकता। इस विकृत धर्मोपजीवी आचरण के हाथों हमारा सामाजिक अहित ही नहीं, कितना राष्ट्रीय अहित हो रहा है, यह वर्णाश्रम स्वराज्य संघ के हथकंडों से ज़ाहिर है। ऐसी असामाजिक, अराष्ट्रीय, अमानुषीय भावनाओं के प्रति, जितनी भी घृणा फैलाई जाए वह थोड़ी है, केवल भावनाओं के प्रति, व्यक्ति के प्रति नहीं, क्योंकि वर्णाश्रम-धर्म के संचालक हमारे वैसे ही भाई हैं जैसे आलोचक महोदय के।”12
घृणा के सम्बन्ध में भी उनके विचार न शत-प्रतिशत गांधीवादी हैं और न साम्यवादी। प्रेमचन्द पाखंडियों, धूर्तों, अन्यायियों का पर्दाफाश अवश्य करते हैं, पर उनके विरुद्ध घृणा उत्पन्न नहीं करते। साम्यवादी अन्यायी के प्रति भी घृणा रखने की बात करते हैं। प्रेमचन्द भावनाओं और व्यक्ति में भेद करते हैं। डा॰ रामविलास शर्मा ‘प्रेमचन्द और उनका युग’ नाम पुस्तक में लिखते हैं, ‘‘प्रेमचन्द का मानववाद मनुष्य की तरफ़दारी करनेवाला मानववाद है। वह अमानुषीय भावनाओं को देखकर चुप नहीं रहता। प्रेमचन्द खुल्लमखुल्ला अपना उद्देश्य घोषित करते हैं कि ऐसी भावनाओं के प्रति जितनी भी घृणा फैलाई जाए वह थोड़ी है। वह सोद्देश्य साहित्य के समर्थक हैं। ‘कला कला के लिए’ या निरुद्देश्य साहित्य से उन्हें बैर है। वह भावनाओं और व्यक्ति में भेद करते हैं, लेकिन स्वयं उनके उपन्यास अन्याय ही नहीं अन्यायी के प्रति घृणा करना सिखाते हैं। ज्ञानशंकर के चरित्रा से कौन-सा पाठक क्रोध से विचलित नहीं हो उठता? ज्ञानशंकर को अलग रखकर उसका क्रोध कब सूक्ष्म भावनाओं पर केन्द्रित होता है ? विचार-क्षेत्र में प्रेमचन्द अन्याय और अन्यायी में भेद करते हैं, इस तरह का भेद अस्वाभाविक है और साधारण प्रकृति के विरुद्ध है। असल में अपने उपन्यासों में वह अन्यायी और अत्याचारी से घृणा करना सिखाते हैं, जो उचित ही है।”13
उपर्युक्त तथ्य आंशिक सत्य ही हो सकता है। यह अवश्य है कि व्यक्ति को अलग रखकर सूक्ष्म भावनाओं पर पाठक का क्रोध केन्द्रित नहीं हो सकता, लेकिन यह तभी तक होता है जब तक वह व्यक्ति धृणित कर्म करता है। बाद में घृणा का भाव उस सूरत में कर्म तक ही सीमित रह जाता है; जब कि लेखक उस व्यक्ति में साधु-प्रवृत्तियों का संचार कर देता है। ज्ञानशंकर के मामले में भी यही बात दिखाई देती है। ज्ञानशंकर में जब साधुता जागती है तब वह अपने पूर्वकृत नीच कर्मों के कारण स्वयं से घृणा करने लगता है और आत्मग्लानि से भरकर आत्महत्या कर लेता है। प्रेमचन्द ज्ञानशंकर के हृदय में प्रायश्चित के भावों का समावेश कर देते हैं। यदि व्यक्ति के प्रति ही घृणा का प्रचार करना प्रेमचन्द का उद्देश्य रहा होता तो ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
जीवन के अन्तिम दिनों में वे साम्यवाद के प्रति आकर्षित हुए थे। इस आकर्षण का सूत्र क्या है ? 27 फरवरी 1933 के ‘जागरण’ की टिप्पणी में प्रेमचन्द लिखते हैं :
“संसार में जितना अन्याय और अनाचार है, जितना द्वेष और मालिन्य है, जितनी मूर्खता और अज्ञान है, उसका मूल रहस्य यही विष की गाँठ है। जब तक सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार रहेगा। तब तक मानव-समाज का उद्धार नहीं हो सकता।”14
यहाँ प्रेमचन्द का क्रांतिकारी रूप साम्यवाद के निकट है। साम्यवाद उनके समय में रूस में साकार हो उठा था। प्रेमचन्द का मानववादी मन यदि साम्यवाद की आदर्श समाज-व्यवस्था की ओर आकर्षित हुआ तो वह एक स्वाभाविक विकास-क्रम है। जिस तरह प्रारम्भ में प्रेमचन्द गांधीवाद की ओर आकर्षित हुए थे; कुछ उसी प्रकार का यह भी आकर्षण था। गांधीवाद में अव्यावहारिकता देखकर प्रेमचन्द साम्यवादी यथार्थता की ओर मुडे़ थे। यदि साम्यवादी व्यवस्था या सिद्धान्तों में भी उनकी विचारणा-भावना के प्रतिकूल कोई बात दिखाई देती तो वे उसकी आलोचना अवश्य करते और बहुत सम्भव है उनका मानवतावाद आगे चलकर किसी नई विचारधारा को जन्म देता। लेकिन प्रेमचन्द इस मोड़ के अवसर पर ही हमसे विदा हो गए। इस अवधि में व्यक्त उनके विचारों का विश्लेषण करने से यही स्पष्ट होता है कि वे भारतीय आदर्शों तथा अपने निजी जीवन-दर्शन से प्रभावित होकर ही साम्यवाद का समर्थन करते हैं। साम्यवाद का अर्थ उनके लिए क्या था? साम्यवाद का विरोधी कौन हो सकता है ? प्रेमचन्द लिखते हैं :
“साम्यवाद का विरोध वही तो करता है जो दूसरों से ज़्यादा सुख मोगना चाहता है, जो दूसरों को अपने अधीन रखना चाहता है। जो अपने को भी दूसरों के बराबर ही समझता है, जो अपने में कोई सुर्खाब का पर लगा हुआ नहीं देखता, जो समदर्शी है, उसे साम्यवाद से विरोध क्यों होने लगा ?”15
‘महाजनी सभ्यता’ शीर्षक लेख में प्रेमचन्द जी ने जहाँ एक ओर वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का यथार्थ चित्र खींचा है तथा सोवियत रूस की समाज-व्यवस्था की प्रशंसा की है वहाँ दूसरी ओर जागीरदारी सभ्यता की अच्छाइयों का उल्लेख भी किया है तथा इस बात पर खेद प्रकट किया है कि दया और स्नेह, सच्चाई और सौजन्य का पुतला मनुष्य एकदम ममता शून्य जड़-यंत्रा बनकर रह गया है। प्रेमचन्द मानव को उसके मौलिक रूप में देखना चाहते हैं। उसमें जो विकृति आ गई है उसका मूल कारण धन-लिप्सा अथवा धन-संग्रह है, जिसे महाजनी सभ्यता ने बढ़ाया है। अतः वे इस महाजनी सभ्यता को मिटा देना चाहते हैं। सोवियत रूस ने महाजनवाद को समाप्त किया, अतः उस सभ्यता में उन्हें मानव-कल्याण के दर्शन हुए।
वर्तमान समाज-व्यवस्था की यथार्थ स्थिति का वर्णन करते हुए प्रेमचन्द ‘महाजनी सभ्यता’ शीर्षक लेख में लिखते हैं :
“मनुष्य-समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने-खपनेवालों का है और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने वश में किए हुए हैं। उन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाए।”16
‘कर्मभूमि’ में भी एक स्थान पर प्रेमचन्द इस ओर लक्ष्य कर गये हैं। अमरकांत कहता है :
“एक अदमी दस रुपये में गुज़र करता है, दूसरे को दस-हज़ार क्यों चाहिए ? यह धाँधली उसी वक्त तक चलेगी जब-तक जनता की आँखें बन्द हैं। क्षमा कीजिएगा, एक आदमी पंखे की हवा खाए और ख़सख़ाने में बैठे ओैर दूसरा आदमी दोपहर की धूप में तपे, यह न न्याय है, न धर्म, यह धाँधली है।”17
‘मंगलसूत्रा’ में साधु कुमार कहता है :
“इतने ग़रीबों में धनी होना मुझे तो स्वार्थन्धता-सी लगती है। मुझे तो इस दशा में अपने ऊपर लज्जा आती है, जब देखता हूँ कि मेरे ही जैसे लोग ठोकरें खा रहे हैं। हम तो दोनों वक्त चुपड़ी रोटियाँ और दूध और सेब-सन्तरे उड़ाते हैं, मगर सौ में निन्यानबे आदमी तो ऐसे भी हैं जिन्हें इन पदार्थों के दर्शन भी नहीं होते। आख़िर हममें क्या सुर्ख़ाब के पर लग गए हैं ?”18
और आगे चलकर ‘महाजनी सभ्यता’ शीर्षक लेख में वे रूसी संस्कृति और समाज-व्यवस्था का स्वागत करते हैं :
“परन्तु अब एक नई सभ्यता का सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है जिसने इस नाटकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है। जिसका मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक व्यक्ति जो अपने शरीर या दिमाग़ से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है, और जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है, यह पतिततम प्राणी है, उसे राज्य-प्रबन्ध में राय देने का हक़ नहीं और वह नागरिकता के अधिकारों का भी पात्र नहीं।”19
इतना ही नहीं, सोवियत संघ के विरुद्ध झूठा प्रचार करनेवाले महाजनों और साम्राज्यवादियों की भी ख़बर लेना वे नहीं भूले हैं :
“महाजन इस नई लहर से अति उद्विग्न होकर बौखलाया हुआ फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शामिल आवाज इस नई सभ्यता को कोस रही है, उसे शाप दे रही है। व्यक्ति-स्वातंत्र्य, आज़ादी, यह इन सबकी घातक, गला घांट देने वाली बताई जा रही है। उस पर नए-नए लांछन लगाये जा रहे हैं, नई-नई हुरमतें, तराशी जा रही हैं। वह काले से काले रंग में रँगी जा रही है, कुत्सित से कुत्सित रूप में चित्रित की जा रही है। उन सभी साधनों से, जो पैसेवालों के लिए सुलभ हैं, काम लेकर उनके विरुद्ध प्रचार किया जा रहा है। पर सचाई है, जो उस सारे अन्धकार को चीरकर दुनिया में अपनी ज्योति का उजाला फैला रही है।”20
आगे चलकर विस्तार से लिखते हुए प्रेमचन्द सोवियत समाज-व्यवस्था की वास्तविकता बड़े निर्भीक ढंग से उपस्थित करते हैं :
“निःसन्देह, इस नयी सभ्यता ने व्यक्ति-स्वातंत्र्य के पंजे, नाख़ून और दाँत तोड़ दिए हैं। उसके राज्य में अब एक पूँजीपति लाखों मज़दूरों का खून पीकर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह आज़ादी नहीं कि अपने नफ़े के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके, दूसरे, अपने माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध-सामग्री बनाकर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराए। अगर इसकी स्वाधीनता ही स्वाधीनता है तो निस्सन्देह नई सभ्यता में स्वाधीनता नहीं, पर यदि स्वाधीनता का अर्थ यह है कि जन-साधारण को हवादार मकान, पुष्टिकर भोजन, साफ़-सुथरे गाँव, मनोरंजन की और व्यायाम की सुविधाएँ, बिजली के पंखे और रोशनी, सस्ता और सद्यःसुलभ न्याय की प्राप्ति हो तो इस समाज-व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आज़ादी है वह दुनिया को किसी सभ्यतम कहाने वाली जाति को भी सुलभ नहीं। धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ अगर पुरोहितों, पादरियों, मुल्लाओं की मुफ़्तखोर जमात के दंभयम उपदेशों और अन्धविश्वास-जनित रूढ़ियों का अनुसरण है तो निस्सन्देह वहाँ इस स्वतंत्रता का अभाव है, पर धर्म-स्वातंत्रय का अर्थ यदि लोकसेवा, सहिष्णुता, समाज के लिए व्यक्ति का बलिदान नेकनीयती, शरीर और मन की पवित्रता है तो इस सभ्यता में धर्माचरण की जो स्वाधीनता है और किसी देश को उसके दर्शन भी नहीं हो सकते।
यह नई सभ्यता धनाढ्यता को हेय और लज्जाजनक तथा घातक विष समझती है। वहाँ कोई आदमी अमीर ढंग से रहे तो लोगों की ईर्ष्या का पात्र नहीं होता, बल्कि तुच्छ और हेय समझा जाता है।....
हाँ, इस समाज-व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जन-साधारण को अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाए और तरह-तरह के बहानों से उनकी मेहनत का फ़ायदा उठाए या सरकारी पद प्राप्त करके मोटी रकमें उड़ाए और मूँछों पर ताव देता फिरे।”21
प्रेमचन्द जानते थे कि कुछ लोग इस नई सभ्यता का इस आधार पर विरोध करेंगे कि वह विदेशी है, भारत की मिट्टी के अनुकूल नहीं। इस कुतर्क का भी उत्तर वे अपने इसी लेख में दे गये हैं :
“यह सभ्यता अमुक देश की समाज-रचना अथवा धर्म-मज़हब से मेल नहीं खाती या उस वातावरण के अनुकूल नहीं है, यह तर्क नितान्त असंगत है। ईसाई मज़हब का पौधा यरूशलम में उगा और सारी दुनिया उसके सौरभ से बस गई। बौद्ध-धर्म ने उत्तर-भारत में जन्म ग्रहण किया और आधी दुनिया ने उसे गुरु-दक्षिणा दी। मानव-स्वभाव अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-छोटी बातों में अन्तर हो सकता है, पर मूल स्वरूप की दृष्टि से सम्पूर्ण मानव-जाति में कोई भेद नहीं। जो शासन-विधान और समाज-व्यवस्था एक देश के लिए कल्याणकारी है वह दूसरे देशों के लिए भी हितकर होगी। हाँ, महाजनी सभ्यता और उसके गुरगे अपनी शक्ति-भर उसका विरोध करेंगे, उसके बारे में भ्रमजनक बातों का प्रचार करेंगे, जन-साधारण को बहकावेंगे। उनकी आँखों में धूल झोंकेंगे। पर जो सत्य है, एक- न-एक दिन उसकी विजय होगी और अवश्य होगी।”22
‘मंगलसूत्र’ में पं॰ देवकुमार के मुख से प्रेमचन्द कहलाते हैं :
“नहीं, मुनष्यों में मनुष्य बनना पडे़गा। दरिन्दों के बीच में उनसे लड़ने के लिए हथियार बाँधना पडे़गा।”23
यहाँ ऐसा लगता है कि प्रेमचन्द अहिंसा-पथ से हट गए हैं। हिन्दी के कई अलोचकों ने इस आशय के विचार भी व्यक्त किए हैं। पर, यहाँ ‘हथियार बाँधने’ से अभिप्राय हिंसा से नहीं वरन् संघर्ष से ही लेना अधिक युक्तियुक्त होगा। लाक्षणिक अर्थ में यह संघर्ष अन्याय को चुपचाप सहन न करने के लिए है।
इस प्रकार प्रेमचन्द के विचारों में उत्तरोत्तर विकास होता रहा। प्रारम्भ का सुधारवादी दृष्टिकोण क्रांतिकारी विचारों के समाने ठहर न सका। उनका यह वैचारिक परिर्वतन उनके मानवतावाद के विकास का परिणाम है।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘महाजनी सभ्यता’, हंस, सितम्बर 1936
2 ‘जागरण’, 5 सितम्बर,सन् 1932
3 ‘जागरण’, 5 सितम्बर, सन् 1932
4 ‘विशाल भारत’, सन् 1930
5 ‘जागरण’, 7 अगस्त, सन् 1933
6 ‘जागरण’, 16 अप्रैल, सन् 1934
7 ‘मंगलसूत्र’, प्रेमचंद
8 ‘गोदान’, प्रेमचंद
9 ‘गोदान’, प्रेमचंद
10 ‘मंगलसूत्र’, प्रेमचंद
11 ‘महाजनी सभ्यता’, हंस, सितम्बर 1936
12 ‘महाजनी सभ्यता’, हंस, सितम्बर 1936
13 ‘प्रेमचंद और उनका युग’, डॉ. रामविलास शर्मा
14 ‘जागरण’, 27 फ़रवरी,सन् 1933
15 ‘महाजनी सभ्यता’, हंस, सितम्बर 1936
16 ‘महाजनी सभ्यता’, हंस, सितम्बर 1936
17 ‘कर्मभूमि’, प्रेमचंद
18 ‘मंगलसूत्र’, प्रेमचंद
19 ‘महाजनी सभ्यता’, हंस, सितम्बर 1936
20 ‘महाजनी सभ्यता’, हंस, सितम्बर 1936
21 ‘महाजनी सभ्यता’, हंस, सितम्बर 1936
22 ‘महाजनी सभ्यता’, हंस, सितम्बर 1936
23 ‘मंगलसूत्र’, प्रेमचंद
समस्यामूलक उपन्यास
उपन्यास का अत्याधुनिक स्वरूप समस्यामूलक है। ‘समस्यामूलक उपन्यास’ जैसाकि शब्दों से ध्वनित होता है, किसी समस्या-विशेष को लेकर चलते हैं। समस्या सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक, नैतिक, पारलौकिक आदि किसी भी प्रकार की हो सकती है। सामाजिक उपन्यास और सामाजिक समस्यामूलक उपन्यास में वस्तु-विन्यास सम्बन्धी भेद है। यही अन्तर राजनीतिक-उपन्यास, पारिवारिक उपन्यास आदि के संबंध में दृष्टव्य है। समस्यामूलक उपन्यास वस्तु को प्रधानता नहीं देते। वे कहीं-कहीं तो औपन्यासिक रचनातन्त्र तक की उपेक्षा कर जाते हैं। पर, समस्या के महत्व और उसके रखने के प्रभावशाली ढंग के कारण, इस उपेक्षा से सामाजिकों को कृति से अरुचि नहीं होती। समस्यामूलक उपन्यासकार औपन्यासिक-तत्वों में सबसे अधिक महत्व प्रतिपाद्य समस्या को ही देते हैं। शेष तत्व उनमें मिलेंगे, पर अन्य औपन्यासिक प्रकारों से भिन्न। उनके चरित्रांकन, कथा-विकासादि के पृथक मापदण्ड हैं।
समस्यामूलक उपन्यास के दो भेद पाये जाते हैं-
1. जिसमें केवल एक समस्या हो,
2 जिसमें एक प्रधान-समस्या के साथ अन्य समस्याएँ भी गुँथी हुई हों, पर उनका स्थान गौण हो।
वास्तव में देखा जाय तो केवल एक समस्या वाले उपन्यास ही समस्यामूलक नाम से पुकारे जाने के अधिकारी हैं। दूसरे प्रकार के उपन्यास समस्या-प्रधान होते हुए भी समस्यामूलक नहीं कहे जा सकते, क्योंकि उनका रचनातन्त्र अन्य औपन्यासिक-स्वरूपों से इतना भिन्न नहीं होता। समस्यामूलक उपन्यासों की श्रेणी में उन्हें इस कारण गिना जा सकता है कि उपन्यासकार का ध्यान उनमें भी समस्याओं पर ही केन्द्रित रहता है। स्वरूप में भिन्नता होते हुए भी उद्देश्य में एकता अवश्य मिलती है। इसके अतिरिक्त वे एक-दूसरे के अत्यधिक निकट भी हैं। विरोधी होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अतः समस्यामूलक उपन्यास की विस्तृत परिभाषा के अन्तर्गत उपर्युक्त दोनों प्रकार के उपन्यास सम्मिलित किये जा सकते हैं।
समस्यामूलक उपन्यासों का प्रचार दिन-पर-दिन बढ़ता जा रहा है। वे प्रत्येक देश में लोकप्रिय हो रहे हैं। जीवन की नाना समस्याओं का उद्घाटन तथा उनका हल; यद्यपि हल सदैव अपेक्षित नहीं होता, आज के उपन्यासकार का प्रधान कार्य है। उपन्यासकार एक सामाजिक प्राणी होता है, वह अपने समय की समस्याओं से विमुख नहीं रह सकता। वास्तविक लेखक तो इन समस्याओं से तटस्थ भी नहीं रह सकते। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपने हिन्दी-साहित्य के इतिहास में लिखते हैं-
‘‘लोक या किसी जन-समाज के बीच काल की गति के अनुसार जो गूढ़ और चिंत्य परिस्थितियाँ खड़ी होती हैं उनको गोचर रूप में सामने लाना और कभी-कभी निस्तार का मार्ग की प्रत्यक्ष करना उपन्यास का काम है।’’1
प्रेमचन्द साहित्य का उद्देश्य ही समस्याओं पर विचार एवं उनका हल उपस्थित करना घोषित करते हैं-
‘‘अब साहित्य केवल मन-बहलाव की चीज़ नहीं है, मनोरंजन के सिवा उसका और भी कुछ उद्देश्य है। अब वह केवल नायक-नायिका के संयोग-वियोग की कहानी नहीं सुनाता; किन्तु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है।’’2
अपने युग की समस्याओं से लेखक को कभी भी विमुख नहीं रहना चाहिए। रोल्फ फॉक्स के शब्दों में-
‘‘क्या उपन्यासकार दुनिया की समस्याओं की, जिनमें वह रहता है, उपेक्षा कर सकता है? क्या वह युद्ध के लिए होने वाले शोर के प्रति अपने कान बन्द कर सकता है; अपने देश की दशा के प्रति आँखें बन्द रख सकता है? क्या वह अपने चारों ओर का भयानक वातावरण देखकर अपना मुँह बन्द रख सकता है; जब कि राजकीय मान के नाम पर, व्यक्तिगत लोलुपता को ज्यों-का-त्यों क़ायम रखने के लिए जनता का जीना दूभर कर दिया गया है।
दिन-पर-दिन उपन्यासकार यह अनुभव करने लगे हैं कि आँख, कान और स्वर वास्तव में चेतना के अंग हैं और मानवीय दुनिया को शक्ति प्रदान करने के लिए उत्तरदायी हैं, वे किसी आध्यात्मिक-विश्व के निष्क्रिय दास-मात्र नहीं हैं जैसी की कला के क्षेत्र में परम्परागत मान्यता रही है।’’3
यही उपन्यासकार का युग-धर्म है। उसे अपने समय की समस्याओं में काफ़ी गहरे डूब जाना होता है। समस्यामूलक-उपन्यासकार को कला का उपयोगितावादी दृष्टिकोण ग्रहण करना पड़ता है। उसका उद्देश्य सामाजिक है। वैयक्तिक समस्याओं के उपन्यास मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की कोटि में आते हैं। वे व्यक्ति मात्र (Individual) के मन का विश्लेषण करते है, किसी सामूहिक जन-जीवन के प्रश्नों को समस्याओं को अथवा आवश्यकताओं को सामने नहीं रखते। समस्यामूलक उपन्यास हमारे जटिल और विभिन्न रूपात्मक संसार का दर्पण है।
औपन्यासिक तत्त्व समस्यामूलक उपन्यासों में सीमित और निर्दिष्ट दृष्टिकोण लेकर आते हैं। कथावस्तु, चरित्रा-चित्रण, कथोपकथन, देश-काल आदि सभी तत्त्व अपने स्वतन्त्र रूप में इनमें दृष्टिगोचर होंगे। जहाँ तक वस्तु का सम्बन्ध है समस्यामूलक उपन्यास में उसके विन्यास का विशेष महत्व है। समस्या को आधार मानकर उपन्यासकार वस्तु की रचना करता है। जीवन की घटनाओं का वह इस तरह संकलन करता है कि समस्या पाठकों के सामने धीरे-धीरे आती है और आगे चलकर पूरे उपन्यास पर छा जाती है। इस क्रिया में सामाजिक व राजनीतिक परिपार्श्व की बड़ी अपेक्षा रहती है। सामाजिक व राजनीतिक वातावरण समस्यामूलक उपन्यासों की रंगभूमि है। इसी वातावरण पर समस्या की गंभीरता निर्भर करती है। समस्या की जटिलता भी सामाजिक व राजनीतिक सीमाओं में ही आबद्ध रहती है तथा समस्या का हल भी इन्हीं सीमाओं के परिवर्तन या विकास पर निर्भर करता है। समस्यामूलक उपन्यासकार का कर्म ऐतिहासिक उपन्यासकार से भी अधिक बँधा हुआ है। जिस प्रकार ऐतिहासिक उपन्यासकार अपने उपन्यास की कथा को मनमाना रूप नहीं दे सकता; उसी प्रकार समस्यामूलक उपन्यासकार भी अपने प्रतिपाद्य समाज की स्थिति का वर्णन करते समय उसे अपनी इच्छानुकूल बदल नहीं सकता। जिस प्रकार की समस्या उपस्थित होती है, ज्यों-का-त्यों उसे ग्रहण करना पड़ता है, फिर समाजगत बाधाओं, मर्यादाओं तथा सीमाओं का परिचय कराता हुआ वह समयोचित और देशोचित हल निकालता है। प्रायः समस्याओं का उत्पन्न होना और उनका स्वरूप सामाजिक, पारिवारिक या राजनीतिक दशाओं पर निर्भर करता है। अतः समस्यामूलक उपन्यासकार को अपने समय के समस्त प्रकार के वातावरण की सम्पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। समाज-शास्त्र, राजनीति, नीतिशास्त्र और इतिहास का विस्तृत वैज्ञानिक ज्ञान उसको होना चाहिए। हडसन लिखते हैं:
‘‘उपन्यासकार जीवन के जो भी क्षेत्र अपने लिखने के लिए चुने, उन्हें वह पूर्ण समझ के पश्चात् ही लिखना प्रारम्भ करे। यह समझ वर्ण्य-विषय के नैकट्य से प्राप्त हो सकती है।’’4
यह तथ्य समस्यामूलक उपन्यास के अन्तर्गत विशेष महत्त्व रखता है। समस्यामूलक-उपन्यास में कथा का विकास विशिष्ट दृष्टिकोण को लेकर होता है। उपन्यासकार का यहाँ उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन करना नहीं होता। उसे तो यथार्थ की कठोर भूमि पर खड़े होकर अपनी कृति का निर्माण करना होता है। जिस समस्या को लेकर वह चलता है और उस समस्या को देखने का उसका जो दृष्टिकोण होता है उसी की पूर्ति-भावना को सामने रखकर वह कथा-सामग्री एकत्र करता है। इस कथा-सामग्री में कोई भी अनावश्यक घटना का समावेश नहीं होना चाहिए। अन्य घटनाओं के समावेश से प्रायः अन्य उपन्यासों की रोचकता बढ़ जाती है, पर समस्यामूलक-उपन्यासों में ऐसा करने से उसके प्रभाव की तीव्रता पर व्याघात होता है। समस्यामूलक उपन्यासकार अपने पाठक का ध्यान एक क्षण भी प्रतिपाद्य समस्या से हटाना नहीं चाहता। उसका मार्ग प्रशस्त राजपथ नहीं है; उसे सँकरी पगडंडी पकड़नी होती है और समस्याओं के बीहड़ जंगलों में काफ़ी गहरे पहुँचना होता है। उस पगडंडी के आस-पास या मध्य में जो कुछ है वह उसका है; उसके बाहर के क्षेत्र से उसे कोई सरोकार नहीं।
समस्यामूलक-उपन्यास कोई निबंध नहीं होता, वह कलात्मक रचना होती है। इसलिए उसके समस्या सम्बन्धी विचारों, प्रश्नों व जिज्ञासाओं के लिए अत्यधिक तीव्र व प्रभावशाली घटना की खोज ज़रूरी है। घटना साधारण होने पर समस्या उभर नहीं सकती। एक ही समस्या को लेकर नाना उपन्यासों की रचना की जा सकती है, पर उनकी सफलता-श्रेष्ठता बहुत-कुछ घटना पर निर्भर करती है। विषय वस्तु के चुनाव में समस्यामूलक-उपन्यासकार को बड़ा सजग रहना होता है, बिना इसके ऊँचे विचार और सूक्ष्म-दृष्टि का पूरा-पूरा उपयोग नहीं हो सकता।
कथा-वस्तु की स्वाभाविकता अनिवार्य है। उसके विकास-पथ का ग्राफ़ वक्र होता है। प्रारम्भ का अंश विस्तृत नहीं होता। मध्य-भाग में समस्या का उभार होता है और चरमोत्कर्ष जैसे उत्कर्ष कई आते हैं, द्वन्द्व की तीव्रता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। और फिर प्रायः सभी पहलुओं के प्रकाशन के बाद उसका अंत हो जाता है। समस्यामूलक उपन्यासों का अन्त प्रायः आकस्मिक होता है। उपन्यासकार समस्या को रखता है, उसका विश्लेषण करता है, उसके कारणों पर प्रकाश डालता है; पर हल नहीं व्यक्त करता; सुझा भले ही दे। वह पाठकों को सोचने के लिए बाध्य करता है और उनकी विचार-शक्ति का बढ़ता है। कुछ समस्यामूलक उपन्यासकार हल भी व्यक्त करते हैं और उपन्यास का अन्त धीरे-धीरे कर, एक आदर्श समाज के सामने उपस्थित करते हैं। समस्याओं के हल का निर्देश यदि उपन्यासकार करता है तो वह उपन्यासकार के साथ-साथ नेता व विचारक का काम भी करता है। प्रेमचन्द साहित्यकार के लक्ष्य के सम्बन्ध में लिखते हैं:
‘‘वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई ही नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है।’’5
वह समाज को बदलने के साथ-साथ उसके नव-निर्माण में भी योग देता है; पर, यहाँ उसके हल के व्यावहारिक और वैज्ञानिक होने का प्रश्न आता है; और यहीं पर उपन्यासकार के व्यक्तिगत मन्तव्यों, धारणाओं, विश्वासों आदि का परिचय मिलता है।
प्रत्येक उपन्यासकार का अपना उद्देश्य होता है। प्रायः यही देखा जाता है कि उपन्यासकार समस्याओं को अपने उद्देश्य की रोशनी में ही देखते हैं। उनका जीवन-दर्शन समस्याओं को देखने व उन्हें हल करने में सदैव आगे रहता है। लेखक का व्यक्तित्व ऐसे उपन्यासों में विशेष रूप से लक्षित होता है। वह सभी चीज़ों को अपने दृष्टिकोण से देखता है। पर, उसका दृष्टिकोण नितान्त वैयक्तिक रहता है। लेखक का व्यक्तित्व ऐसे उपन्यासों में विशेष रूप से लक्षित होता है। वह सभी चीज़ों को अपने दृष्टिकोण से देखता है। पर, उसका दृष्टिकोण नितान्त वैयक्तिक नहीं होना चाहिए। यदि उसने समस्याओं के प्रति अपना दृष्टिकोण सामाजिक चेतना व सामान्य आवश्यकताओं को सामने रखकर बनाया है तो उसकी कृति समाज के लिए स्वास्थ्यकर तथा उपयोगी सिद्ध होगी।
पात्रों के चरित्र-चित्रण का स्वरूप समस्यामूलक उपन्यासों में समस्याओं के साथ सम्पृक्त रहता है। पात्र इतने स्वतन्त्र नहीं हो सकते जितने चरित्र-प्रधान अथवा घटना-चरित्र-प्रधान उपन्यासों में। चरित्र-प्रधान उपन्यासों में लेखक का ध्यान पात्रों पर केन्द्रित रहता है, जब कि समस्यामूलक उपन्यासों में समस्याओं पर। कभी-कभी यह ध्यान इतना अधिक दे दिया जाता है कि पात्रों का स्वतन्त्र अस्तित्व तक ख़तरे में पड़ जाता है, वे उपन्यासकार की इच्छा पर नाचने लगते हैं- कठपुतली की तरह। यह एक दोष अवश्य है और प्रत्येक उपन्यासकार को इससे बचना चाहिए। समस्यामूलक उपन्यासकार को भी अतिरेक से बचना ज़रूरी है, क्योंकि उससे उसके उद्देश्य के कमज़ोर पड़ने की सम्भावना रहती है।
समस्यामूलक उपन्यास में कथोपकथन केवल कथा के विकास अथवा चरित्रांकन के दृष्टिकोण से ही नहीं रखे जाते वरन् समस्याओं का उद्घाटन करने, उनके कारणों आदि पर प्रकाश डालने के निमित भी होते हैं। लेखक उनके द्वारा अपने विचारों को भली-भाँति प्रकट करता है। संवाद प्रायः लम्बे हो जाते हैं। विचार-प्रधान तो वे होते ही हैं। पात्रों के मुख से लेखक अपने मन्तव्यों को सामने रखता चलता है। शेष उपन्यासों के समान उसका मूल उद्देश्य यह नहीं होता कि संवाद छोटे हों, कथा को आगे बढ़ाएँ, पात्रों की मनोवृत्तियों, स्वभाव आदि पर प्रकाश डालें आदि। अतः समस्यामूलक उपन्यासों में यह स्वाभाविक है कि संवाद कहीं लेख या भाषण का रूप धारण कर लेते हैं, क्योंकि उपन्यासकार का प्रयोजन ही वही होता है। कुछ आलोचक ऐसे संवाद वाले उपन्यासों पर प्रचार का आक्षेप लगाते हैं। प्रचार के अच्छे या बुरे होने के सम्बन्ध में दो मत हो सकते हैं। प्रचार के तत्त्व को अलग रख भी दें तो भी उनका आक्षेप संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि समस्यामूलक उपन्यासकार का उद्देश्य उपयोगिता से सम्बन्ध रखता है। वह जानबूझकर उपन्यासों को प्रचार का माध्यम बनाता है। यदि यह दोष माना भी जाय तो भी उपन्यासकार की चेतनावस्था का जनक है, अतः वह तो अन्ततोगत्वा समस्यामूलक उपन्यास की टेकनीक का एक तत्व ही बन जाता है।
अन्त में समस्यामूलक-उपनयास ओर कला का क्या सम्बन्ध है?- प्रश्न शेष रहता है। कोई भी रचना बिना कलात्मक हुए प्रभावशाली नहीं हो सकती। कला की ओर से समस्यामूलक उपन्यासकार भी उदासीन नहीं रह सकता। कला-शून्य रचनाओं की अवधि क्षणिक होती है। वे पाठक को प्रभावित भी नहीं कर सकतीं। लेकिन कलात्मक-उपन्यासों और समस्यामूलक-उपन्यासों में भेद है। कलात्मक-उपन्यासों को कला के दृष्टिकोण से ही परखना चाहिए, जबकि समस्यामूलक उपन्यासों के विश्लेषण का आधार सामाजिक पृष्ठभूमि है। समस्यामूलक -उपन्यासों में कला रहती है; लेकिन उनका मूल्यांकन कला की दृष्टि से करना अवैज्ञानिक है। समस्यामूलक-उपन्यासकार यदि कहीं-कहीं कला की सीमाओं का उल्लंघन भी कर जाए तो वह अखरता नहीं है; क्योंकि ऐसे उपन्यास अपने उद्देश्य में इतने सुदृढ़ होते हैं कि उनका सामूहिक प्रभाव कलाभाव की पूर्ति कर देता है। वे हमें सोचने के लिए विवश करते हैं। उनका प्रभाव उपन्यास पढ़ लेने के बाद मिटता नहीं है। वे हमारी चेतना और सृजनात्मक-शक्ति को क्रियाशील करते हैं।
समाज अपनी समस्याओं से परिचित तो रहता ही है, सामाजिक-राजनीतिक नेता अपने भाषाणों के द्वारा उसे उन समस्याओं से संघर्ष करने के लिए उत्तेजित भी करते हैं, पर इसका सामाजिक पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना साहित्य के द्वारा। उपन्यासकार कथा के सहारे समस्याओं के सम्बन्ध में जो भी विचार व्यक्त करते हैं उनका सीधा असर समाज पर पड़ता है। स्पष्ट है, इस क्रिया में यहाँ कला का योग है, जिसे हम समस्यामूलक-उपन्यास की कला कहते हैं। पर यहाँ कला, प्रधान-पद पर आरूढ़ नहीं की जाती। उसका तो सहारा मात्र लिया जाता है। इस सहारे से उपन्यासकार के गहरे-से-गहरे विचार टिके रहते हैं और पाठक को अरुचि नहीं होती। वह उसकी टिप्पणियों को ध्यान से पढ़ता है। ऐसे ही उपन्यास समाज को बदलने की क्षमता रखते हैं।
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संदर्भ-सूची
1. हिन्दी-साहित्य का इतिहास, पृ. 535
2. कुछ विचार, पृ. 8
3. "Can a novelist remain indifferent to the problems of the world in
which he lives ? Can he shut his ears to the clamour of preparing war,
his eyes to the state of his country? Can he keep his mouth closed when
he sees horror around him and life being denied daily in the name of a
state pledged to maintain the sanctity of private greed? More and more
novelist are beigining to feel that eyes, yers and voice, are in fact.
Organs of senses, responsible to the stimulus of the human world, and
not mere passive servants of a spiritual world supposed traditinally to
be the domain of art."
‘The Novel and the People’ - Ralph Fox, page 7.
4. "Whatever aspects of life the novelist may choose to write about, he
should write them with the grasp and thoroughness which can be
secured only by familiarity with his materials."
‘An introduction to the Study of Literature' - William Henry Hudson. page 175
5 कुछ विचार, पृ. 17
समस्यामूलक उपन्यास और प्रेमचंद
प्रेमचंद ‘समस्यामूलक उपन्यसकार’ हैं अथवा नहीं, यह एक विवादास्पद प्रश्न है। स्वयं प्रेमचंद अपने को व्यक्ति-चरित्र का उपन्यासकार बता गये हैं –
“मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।”1
कुछ आलोचक उन्हें सामाजिक उपन्यासकार घोषित करते हैं, मानों कि उनके उपन्यास मात्र सामाजिक विषयों तक ही सीमित हैं। प्रेमचंद को सामाजिक उपन्यासकार मान लेने पर भी समस्यामूलक उपन्यासकार की कोटि में रखा जा सकता है। पर, ‘सामाजिक’ शब्द प्रेमचंद की समस्त विशेषताओं का परिचायक नहीं है। उनके उपन्यासों में मात्र सामाजिक समस्याएँ ही नहीं उठायी गयी हैं। दूसरे ‘सामाजिक’ शब्द समस्या की एकान्तिकता का सूचक भी नहीं है।
प्रेमचंद के उपन्यास व्यक्ति-चरित्र के उपन्यास हैं, ऐसा मानकर स्वयं प्रेमचंद ही नहीं, प्रेमचंद-साहित्य के आलोचक भी चले हैं। यदि प्रेमचंद के उपन्यासों की यह कसौटी मान ली जाए तो वे साधारण कोटि के उपन्यासकार ठहरते हैं। और जैसा हुआ भी है, प्रेमचंद के आलोचकों ने इसी आधार पर उनके उपन्यासों का मूल्यांकन किया है एवं उनकी चरित्रांकन की दुर्बलताओं पर पर्याप्त प्रकाश डाला है।
प्रेमचंद के पात्र जगह-जगह कठपुतली के समान क्रिया-कलाप करते हैं – आलोचकों ने शास्त्रीय आलोचना-सिद्धान्तों के आधार पर प्रेमचंद में यह एक बड़ा दोष बताया है। कुछ अंशों में बात है भी ऐसी। यह दोष उस स्थिति में और भी उभर आता है जब स्वयं प्रेमचंद मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना उपन्यास का मुख्य तत्त्व बताते हैं।
फिर भी प्रेमचंद के उपन्यास बड़े लोकप्रिय हैं। विश्व-उपन्यासकारों की प्रथम पंक्ति में उनका स्थान है। ‘मुख्य तत्त्व’ म्रें दुर्बल होते हुए भी उनके उपन्यास इतने प्रभावाशाली कैसे बन गये? वह कौन-सा रहस्य है जो उनकी प्रसिद्धि के लिए उत्तरदायी है? चरित्रांकन की दृष्टि से तो उनमें पर्याप्त दुर्बलताएँ हैं। अत: प्रेमचंद के उपन्यास व्यक्ति-चरित्र के उपन्यास नहीं कहे जा सकते। उनमें व्यक्ति-चरित्र से भी प्रमुख व बड़ी कोई और ही चीज़ है। स्पष्ट है, वह चीज़ उनके उपन्यासों में पायी जाने वाली ‘समस्या’ है। पाठक ‘समस्या’ पर अपना ध्यान केन्द्रित रखता है। अत: अन्य अभावों की ओर उसका ध्यान नहीं जाता। चरित्रांकन की दृष्टि से दुर्बल होते हुए भी समस्या की उपस्थिति उपन्यास को रोचक बनाए रखती है।
प्रेमचन्द अपने उपन्यासों में केवल समस्याएँ ही प्रस्तुत नहीं करते वरन् उनका हल भी प्रस्तुत करते हैं। पर, यह आवश्यक नहीं कि उन्होंने सदैव हल सुझाया हो। डा॰ विनयमोहन शर्मा के शब्दों में :
“वे समाज-व्यवस्था पर एक हाथ से प्रहार करते और दूसरे हाथ से उसको सहलाते थे। समाज की बुराइयों को प्रस्तुत करना ही वे अपना धर्म न मानते थे, प्रत्युत उनका हल खोजना भी वे आवश्यक समझते थे।”2
प्रेमचन्द के उपन्यासों के मूल्यांकन की यह दूसरी कसौटी है। इस आधार पर उन्हें समस्यामूलक उपन्यासकार मानकर चला जाता है, जहाँ प्रमुख तत्व समस्याओं को रखना व उनका हल प्रस्तुत करना रहता है। उपन्यास के अन्य तत्व गौण रूप में आते हैं।
समस्यामूलक उपन्यासकार आदर्शवादी या यथार्थवादी होते हैं या जैसे कि प्रेमचन्द थे - आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी हो सकते हैं। वस्तुतः समस्यामूलक उपन्यासकार को यथार्थवादी अथवा आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी ही होना चाहिए। आदर्शवादी समस्याओं का कोई व्यावहारिक हल प्रस्तुत कर सकेगा, यह विश्वसनीय कम है। समस्यामूलक उपन्यासकार की सफलता उसके व्यावहारिक दृष्टिकोण पर ही निर्भर करती है।
प्रेमचन्द के प्रायः सभी उपन्यासों में कोई-न-कोई प्रमुख समस्या मिलती है। प्रमुख समस्या के साथ-साथ अन्य समस्याओं की झलक भी प्रायः प्रत्येक उपन्यास में विद्यमान है।
वरदान
‘वरदान’ प्रेमचन्द की प्रारम्भिक कृति है। इसका रचनाकाल 1902 है, यद्यपि प्रकाशन ‘सेवासदन’ (1916) के बाद हुआ। ‘वरदान’ के पूर्व प्रेमचन्द ने एक छोटा-सा उपन्यास ‘कृष्णा’ लिखा जो इण्डियन प्रेस, प्रयाग से छपा था। यह उनके विद्यार्थी-जीवन की रचना है।
‘वरदान’ यद्यपि 1902 में लिखा गया था, लेकिन ‘सेवासदन’ के बाद प्रकाशित होने के कारण उसकी प्रारम्भिकता अछूती नहीं ही रह सकी होगी। कृति में आधारभूत परिवर्तन तो, निश्चय ही, नहीं किये जाते, लेकिन इतने समय के अन्तराल के कारण उस पर एक अनुभवी लेखक का हाथ तो अवश्य चला होगा। यह सब होते हुए भी, यह भी मानना पड़ेगा कि इस कार्य में प्रेमचन्द ने कोई विशेष रुचि नहीं ली होगी ; क्योंकि इसमें अनेक साधारण भूलें रह गई हैं। यथा इलाहाबाद में ट्रामें चलवाना अथवा थानेदार का एक ही रस्सी से सारे गाँव को बँधवा देना आदि।
प्रश्न यह है कि क्या ‘वरदान’ समस्यामूलक उपन्यास है ? यदि हाँ, तो उसमें कौन-सी समस्या प्रमुख है एवं गौण रूप में कौन-कौन-सी समस्याओं का उसमें प्रवेश हुआ है ?
कहना न होगा कि ‘वरदान’ न तो समस्यामूलक उपन्यास है और न उसमें किसी प्रमुख समस्या का ही समावेश किया गया है। वास्तव में ‘वरदान’ कथानक-प्रधान उपन्यास है, लकिन कथानक की दृष्टि से भी वह सफल नहीं है। उसमें घटनाओं का घटाटोप मिलता है। कथा-वस्तु न सजीव है और न सुव्यवस्थित। इसका कारण प्रेमचन्द का समस्या-प्रेम है। ‘वरदान’ में बीज रूप में प्रेमचन्द का समस्याओं के प्रति रुझान स्पष्ट रूप से व्यक्त हुआ है। समस्याओं के प्रति यह रुझान ही ‘वरदान’ को न तो कथानक की दृष्टि से और न चरित्रांकन की दृष्टि से सफल उपन्यास बनने देता है। इसी कारण कुछ आलोचकों को “‘वरदान’ बिलकुल हवा में उड़ता हुआ दीखता है।”3
डा॰ रामरतन भटनागर ‘प्रेमचन्द : आलोचनात्मक अध्ययन’ में लिखते हैं, “कथा-संगठन और चरित्र-चित्रण दोनों दृष्टि से ‘वरदान’ असफल उपन्यास ही कहा जाएगा। जिस प्रकार की प्रेम-कहानियों की धूम उन्ननीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों और बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में थी, उनसे यह उपन्यास ज़रा भी भिन्न नहीं है। कथा-संगठन शिथिल है और उसमें कलात्मकता को विशेष स्थान नहीं मिल सका है। स्वयं कथा इतनी लम्बी है कि पाठक ऊब जाते हैं। न कथा-रस का विकास ही सम्भव है, न चरित्र-चित्रण का।“4
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों और बीसवीं शताब्दी के पहले दशक की प्रेम-कहानियों से डा॰ रामरतन भटनागर ‘वरदान’ की समता बताते हैं और आगे चलकर उसके कथा-शैथिल्य और पाठक के ऊब जाने की बात कहते हैं। यहाँ आलोचक स्वयं अपने मत का खण्डन कर देते हैं और उन प्रेम-कहानियों का ‘वरदान’ से अन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं। उपर्युक्त काल की प्रेम-कहानियाँ पाठक को उबाती नहीं हैं, जबकि ‘वरदान’ के कथानक में यह कमज़ोरी है। वास्तव में प्रेमचन्द उन्नीसवी-बीसवीं शताब्दी के उपरिलिखित काल जैसी प्रेम-कहानियाँ लिखना नहीं चाहते थे। ‘वरदान’ में तो वे उस परम्परा को तोड़कर एकदम नये क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं, जिसके कारण ‘वरदान’ का कोई रूप स्थिर न हो सका है।
‘कथाकार प्रेमचन्द’ में श्री मन्मथनाथ गुप्त और रमेन्द्र वर्मा लिखते हैं, “मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विरजन का चरित्र बिल्कुल हवा में उड़ता हुआ है। उसमें कोई सिर-पैर है ही नहीं। प्रताप का चरित्र बहुत कुछ निभा है पर अन्त में जाकर वह भी बिगड़ जाता है।”5 जब कथावस्तु की दृष्टि से ही ‘वरदान’ असफल कृति ठहरती है, तब चरित्र-चित्रण के क्षेत्र में उसमें कोई महत्त्वपूर्ण बात खोजना दुराशा मात्र है।
‘वरदान मध्यवर्गीय जीवन से सम्बन्ध रखता है। शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय के ‘देवदास’ की कथा ‘वरदान’ से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। मन्मथनाथ गुप्त उपर्युक्त दोनों उपन्यासों के विषय-साम्य पर लिखते हैं, “ एक युवक का एक युवती से प्रेम होता है। किसी कारण से, सामाजिक कारण से दोनों का विवाह नहीं हो पाता। लड़की का विवाह दूसरे व्यक्ति से हो जाता है। इसके बाद क्या जटिलताएँ उत्पन्न होती हैं, यही इन दोनों पुस्तकों में दिखलाया गया है।”6
सामाजिक बाधाओं के कारण प्रताप और विरजन का प्रेम वैवाहिक बन्धनों में नहीं बँध पाता। प्रताप संन्यासी हो जाता है और विरजन दुश्चरित्र युवक कमलाशंकर से ब्याह दी जाती है।
यहाँ अप्रत्यक्ष रूप से वैवाहिक समस्या सामने आ जाती है। डा॰ रामरतन भटनागर शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय के ‘देवदास’ से तुलना करते समय इस ओर स्पष्ट संकेत करते हैं, “शरत्चन्द्र के देवदास और अन्य उपन्यासों में असफल प्रेम नायक को आवारा और आत्मघाती बना देता है। प्रेमचन्द ने असफल प्रेम का समाज-सेवा और राजनीति निष्ठा में पर्यवसान किया है। मनोविज्ञान की दृष्टि से दोनों में कोई भेद नहीं है, परन्तु समाज-हित की दृष्टि से समस्या का प्रेमचन्द द्वारा उपस्थित किया हल अधिक स्वस्थ है।”7
इस कृति में वैवाहिक समस्या की ओर प्रेमचन्द पाठकों का ध्यान उपन्यास- कला की हत्या करके भी आकर्षित करना चाहते हैं :
“मुंशीजी के अगणित बांधव इसी भारतवर्ष में अब भी विद्यमान हैं जो अपनी प्यारी कन्याओं को इसी प्रकार नेत्र बन्द करके कुएँ में ढकेल दिया करते हैं।”8 और आगे चलकर जब विरजन विधवा हो जाती है तब प्रेमचन्द की आँखों के सामने वैधव्य की समस्या नाचने लगती है। कथानक और चरित्र-चित्रण की ओर तो वे ध्यान ही नहीं देते।
इसके अतिरिक्त उन्नीस पृष्ठों में ‘कमला के नाम विरजन के पत्र’ नामक परिच्छेद का उद्देश्य समझने पर यह बात और स्पष्ट हो जाती है। प्रेमचन्द ने इन पत्रों का विषय व्यक्तिगत जीवन नहीं रखा है। पति-पत्नी के पत्र-व्यवहार का कोई रूप उसमें नहीं मिलता। इसके विपरीत उन पत्रों में ग्रामीण जीवन की समस्याएँ बड़ी प्रमुखता से वर्णित की गई हैं। समस्याओं के प्रति प्रेमचन्द का रुझान प्रारम्भ से ही था, यह इन पत्रों की विषय-सामग्री से भली-भाँति समझा जा सका है। यही रुझान ‘वरदान’ में प्रेमचन्द को ‘तीसरे दर्ज़े का उपन्यासकार’ बनाता है।
शैक्षणिक पहलू पर भी ‘वरदान’ में यत्र-तत्र महत्त्वपूर्ण बातें बिखरी हुई हैं।
प्रतिज्ञा
प्रतिज्ञा का प्रकाशन 1905-6 में हुआ। ‘प्रतिज्ञा’, प्रेमा’ (1904-5) का परिवर्द्धित रूप है, जिसका उर्दू में ‘हम खुरमा व हमसबाब’ नाम से पहले प्रकाशन हो चुका था। ‘प्रेमा’ का नाम आगे चलकर ‘विभव’ रखा गया, जिसमे कुछ परिवर्तन भी किये गये। यही उपन्यास परिवर्तनों और परिवर्द्धनों के पश्चात् ‘प्रतिज्ञा’ के नाम से प्रकाशित हुआ; जिसका उर्दू-अनुवाद ‘बेवा’ के नाम से हुआ है।
‘प्रतिज्ञा’ में विधवाओं, पति-पत्नी के पारिवारिक सम्बन्धों और अछूतों की समस्या पर लिखा गया है।
प्रेमचन्द का दूसरा विवाह श्रीमती शिवरानी देवी से 1905 में हुआ। सामाजिक दृष्टिकोण से इसे विधवा-विवाह ही कहा जाएगा ; भले ही शारीरिक व मानसिक दृष्टि से उसे ‘विधवा-विवाह’ की संज्ञा न दी जाए। शिवरानी देवी अपनी पुस्तक ‘प्रेमचन्द : घर में’ लिखती हैं, “मेरी पहली शादी ग्यारहवें साल में हुई थी। वह शादी कब हुई, इसकी मुझे ख़बर नहीं। कब मैं विधवा हुई, इसकी भी मुझे ख़बर नहीं। विवाह के तीन-चार महीने बाद ही विधवा हुई। इसलिए मुझे विधवा कहना मेरे साथ अन्याय होगा ; क्योंकि जो बात मैं जानती ही नहीं, वह मेरे माथे मढ़ना ठीक नहीं।”9
प्रथम विवाह के बारे में प्रेमचन्द और शिवरानी देवी का संवाद इस प्रकार है : “फिर मेरी स्त्री की विदाई का समय आया। कई रोज का अरसा हो गया था। ऊँटगाड़ी से लाना पड़ा। जब हम ऊँटगाड़ी से उतरे, मेरी स्त्री ने मेरा हाथ पकड़कर चलना शुरू किया। मैं उसके लिए तैयार न था। मुझे झिझक मालूम हो रही थी। उमर में वह मुझसे ज़्यादा ही थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।”10
“वह बदसूरत तो थी ही। उसके साथ-साथ जबान की भी मीठी न थी। यह इन्सान को और भी दूर कर देता है।”11
“मैंने उनको उनके घर पहुँचा दिया और खुद अपने यहाँ रह गया।”12
“मेरी बारात आई। मेरे पिता को मालूम हुआ कि मेरी बीवी बहुत बदसूरत है। बेहयाई की हरक़त उन्होंने बाहर ही देख ली। यह शादी मेरी चाची के पिता ने ठीक की थी। पिताजी चाची से बोले - लालाजी ने मरे लड़के को कुएँ में ढकेल दिया। अफ़सोस ! मेरा गुलाब-सा लड़का और उसकी यह स्त्री ! मैं तो उसकी दूसरी शादी करूंगा। चाची ने कहा, देखा जायेगा।...
चाची मेरी पत्नी पर शासन करती थीं।... अगर बीच में चाची न होतीं तो शायद मेरी-उसकी ज़िन्दगी बीत भी जाती।”13
यह घटना 1904 की है। अभिप्राय यह है कि इन दिनों प्रेमचन्द का जीवन वैवाहिक गुत्थियों में उलझा हुआ था। पहली पत्नी से न पटने के कारण उसे अकाल ‘वैधव्य’ के भँवर में छोड़कर प्रेमचन्द अपने भावी जीवन को सुचारु ढंग से चलाने के लिए दूसरे विवाह का आयोजन करते हैं। इस मनःस्थिति में विधवा की समस्या सबसे प्रखर रूप में उनके सामने थी। वास्तव में, विधवा-विवाह विधवाओं की समस्या के हल की दिशा में एक प्रभावशाली क़दम है। प्रेमचन्द क्यांकि ‘विधुर’ दशा में थे, उन्होंने विधवा-विवाह का निश्चय किया और आगे चलकर बाल-विधवा सुश्री शिवरानी देवी से विवाह कर लिया; जो सामाजिक दृष्टिकोण से तत्कालीन समाज में एक क्रांतिकारी घटना थी। पहली पत्नी के मायके वे मासिक रुपया भेजते रहे।
व्यक्तिगत और समाजगत जीवन में विधवा-समस्या का सामना प्रेमचन्द को करना पड़ा। इसी समस्या को उन्होंने ‘प्रतिज्ञा’ में लिया। विधवा-समस्या ही ‘प्रतिज्ञा’ की प्रमुख समस्या है; यद्यपि इसमें दाम्पत्य जीवन के अनेक पहलुओं पर भी प्रकाश डाला गया है।
अछूतों की समस्या को भी प्रस्तुत उपन्यास में स्थान दिया गया है, यद्यपि कथा-विकास की दृष्टि से उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। ‘सनातन धर्म पर आघात’ विषय पर दाननाथ का भाषण अछूतों के सम्बन्ध में ही है।
प्रेमचन्द ने ‘प्रतिज्ञा’ में विधवा-समस्या को शरत्चन्द की तरह मात्र प्रस्तुत ही नहीं किया है वरन् उसके निराकरण के लिए उपाय भी प्रस्तुत किये हैं। सामाजिक सुधार की भावना प्रेमचन्द में सबसे अधिक थी। ‘प्रतिज्ञा’ की समीक्षा निश्चित औपन्यासिक रचना-तन्त्र के सिद्धान्तों पर नहीं की जा सकती। उसमें विधवाओं के उद्धार की समस्या इतनी प्रधान है कि चरित्रांकन, वस्तु-विन्यास इत्यादि सभी उसी के आश्रित होकर आते हैं।
सेवासदन
‘सेवासदन’ का रचनाकाल सन् 1916 है। यह उपन्यास प्रेमचन्द की प्रौढ़ रचनाओं में से है। ‘सेवासदन’ समस्यामूलक उपन्यास है, जिसमें नारी-जीवन से सम्बन्धित समस्याओं को उपस्थित किया गया है, यथा, भारतीय नारी की पराधीनता, दहेज़-प्रथा, वेश्या-समाज आदि। नारी-जीवन सम्बन्धी प्रधान समस्या के अतिरिक्त अन्य पहलुओं पर भी ‘सेवासदन’ में प्रेमचन्द ने विचार किया है, जैसे नागरिक-जीवन, किसान आदि।
सुमन ‘सेवासदन’ की नायिका है। सम्पूर्ण उपन्यास उसी के चरित्र की ओर घूमता है, मुड़ता है। लेकिन ‘सेवासदन’ में समस्या को प्रधानता दी गई है, चरित्रांकन को नहीं। इसी कारण प्रेमचन्द सुमन की मानसिक स्थिति का विश्लेषण नहीं करते। सुमन के चरित्र का अन्दर्द्वन्द्व प्रेमचन्द छोड़ जाते हैं, क्योंकि उनका अभीष्ट भारतीय नारी की पराधीनता-जनित विभिन्न समस्याओं का उद्घाटन करना था; न कि व्यक्ति-चरित्र का चित्रण। सुमन का व्यक्तित्व इसी लिए दबा रहता है। वह भारतीय नारी-वर्ग की प्रतीक बनकर उपन्यास में प्रवेश करती है।
‘सेवासदन’ की समीक्षा करते हुए श्री. मन्मथनाथ गुप्त लिखते हैं, “इस उपन्यास का सबसे कमज़ोर, शिथिल और असम्बद्ध हिस्सा वह है जिसमें म्युनिसिपैलिटी के सदस्यों की तथा अन्य सार्वजनिक वक्ताओं की तथा उनकी तर्कों की बात चित्रित है। यह हिस्सा बहुत कुछ उखड़ता हुआ तथा मुख्य कथानक से अपरिहार्य रूप से सम्बद्ध नहीं ज्ञात होता।”14
इस विषय पर पं॰ नन्ददुलारे वाजपेयी अपनी ‘प्रेमचन्द : साहित्यिक विवेचन’ नामक पुस्तक में लिखते हैं :
“म्युनिसिपैलिटी की कार्रवाइयाँ, उनकी बहसें और प्रस्ताव आदि सुमन की मुख्य कथा से अच्छी तरह ग्रथित नहीं हैं, यद्यपि वे उपन्यास में आई हुई वेश्या-सुधार की समस्या से सम्बन्धित अवश्य हैं। यदि म्युनिसिपैलिटी के ये सारे वृत्तान्त सुमन की कहानी से और अधिक संश्लिष्ट सम्बन्ध रख पाते, तो उपन्यास की कथा अधिक समन्वित और अर्थपूर्ण होती।”15
यह प्रसंग 43 वें परिच्छेद का है। निःसन्देह औपन्यासिक रचना-तन्त्र की दृष्टि से इसका समावेश कथानक के विकास में कोई योग नहीं देता। लेकिन प्रेमचन्द औपन्यासिकता के निश्चित शास्त्रीय सिद्धान्तों के इतने क़ायल न थे। उपन्यास-कला तो उनके लिए समस्याओं के प्रभावशाली ढंग से उपस्थित करने की साधन मात्र थी। यदि इस प्रंसग का समावेश नहीं किया जाता तो नगर-जीवन की समस्या पर प्रकाश नहीं पड़ पाता, दूसरे वेश्या-समाज की व्यवस्था का उत्तरदायित्व म्युनिसिपैलिटी का है। म्युनिसिपैलिटी के सदस्य यदि चरित्रवान और कर्मठ हों तो इस सामाजिक कुरीति को दूर करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भाग ले सकते हैं। वेश्या-समस्या पर गम्भीर बहस को रखने में प्रेमचन्द का यही उद्देश्य समझना चाहिये।
इस प्रकार 31 वें परिच्छेद में उस साधु के भाषण का उद्देश्य भी यही है जो सदन में विवाह के अवसर पर आकस्मिक रूप से प्रवेश करता है।
‘सेवासदन’ का महत्त्व इसलिए और बढ़ जाता है कि वह हिन्दी का सर्वप्रथम मौलिक समस्यामूलक उपन्यास है। हिन्दी उपन्यास-साहित्य में वह युगान्तर उपस्थित करता है।
प्रेमाश्रम
‘प्रेमाश्रम’ का प्रकाशन सन् 1922 में हुआ। प्रस्तुत उपन्यास में प्रमुख समस्या ‘भूमि-समस्या’ है। किसान और जमींदार के संघर्ष का चित्रण ही ‘प्रेमाश्रम’ का केन्द्र-बिन्दु है। वर्ग-संघर्ष को इतने यथार्थ रूप में उपस्थित करने वाला यह प्रथम उपन्यास है। ‘प्रेमाश्रम’ में जहाँ कहीं भी अन्य समस्याओं का उल्लेख है वह सब भूमि-व्यवस्था के उद्घाटन अथवा उसके जटिल रूप को सामने रखने के निमित्त है। ‘प्रेमाश्रम’ का राजनीतिक पहलू प्रधान नहीं है। डा॰ रामरतन भटनागर ने ‘प्रेमाश्रम’ को हिन्दी का ही नहीं वरन् भारत का पहला राजनीतिक उपन्यास कहा है।16 राजनीतिक स्वाधीनता भूमि-समस्या का आंशिक हल है। वस्तुतः भूमि-समस्या की नींव में समाज-व्यवस्था एवं आर्थिक पहलू ही प्रमुख है। प्रस्तुत उपन्यास की आत्मा (भूमि-समस्या) को न पहचानकर आलोचकों ने अन्य बातों को प्रधानता दे दी है। ‘प्रेमाश्रम’ में राजनीति का मात्र पृष्ठभूमि का स्थान है, क्योंकि बिना राजनीतिक चेतना के वर्ग-संघर्ष में तीव्रता नहीं आ सकती। तत्कालीन भारत की राजनीतिक चेतना की भूमिका में ‘प्रेमाश्रम’ का निर्माण किया गया है, किन्तु उसकी रीढ़ तो भूमि-समस्या ही है। अतः ‘प्रेमाश्रम’ भी समस्यामूलक उपन्यास है। समस्या या समस्याओं को प्रधानता देने के कारण ‘प्रेमाश्रम’ का ‘कला-पक्ष’ कमज़ोर हो गया है। शास्त्रीय पद्धति को आलोचना का मापदण्ड मानने वाले आलोचकों को उसमें अनेक दोष दिखाई देंगे। श्री. शिवनारायण श्रीवास्तव ‘प्रेमाश्रम’ के पात्रों के संबंध में लिखते हैं,‘‘ ‘प्रेमाश्रम’ के सभी पात्रों में हम देखते हैं कि उनके चरित्र पर नवीन घटनाओं की प्रतिक्रया बहुत होती है। वे मानो बने-बनाए पात्र हैं जो अपनी इच्छा-शक्ति से घटनाओं का निर्माण तो करते चलते हैं, परन्तु उसमें बँधते नहीं।”17 डा॰ रामविलास शर्मा ने भी इस ओर संकेत किया है, “ ‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास के साधारण नियमों को तोड़कर रचा गया है। कौन है इसका नायक, कौन है इसकी नायिका ? जिन आलोचकों ने ‘प्रेमाश्रम’ में नायक न होने पर खेद प्रकट किया है, उनके कथानक की शिथिलता दिखलाकर प्रेमचन्द को घटिया कलाकार माना है, उसमें मनोविज्ञान की गहराई या तलछट न पाकर प्रेमचन्द को विश्व साहित्यकार के पद से वंचित कर दिया है, उन्हें प्रेमचन्द ने एक वाक्य में उत्तर दिया था “आज़ाद रौ आदमी हूँ, मसलेहतों का गुलाम नहीं।”18
बड़े कलाकार अपने क़ायदे-क़ानून खुद बनाते हैं। प्रेमचन्द भी क़ायदे पढ़कर उपन्यास लिखने न बैठते थे। ‘प्रेमाश्रम’ में वे उन किसानों की ज़िन्दगी की तस्वीर खींचना चाहते थे। जिन्हें साहित्य के लक्षण-ग्रंथों में जगह न मिलती थी। वे उस अत्याचार और अन्याय की कहानी सुनाना चाहते थे जिसे उपक्रम, उपसंहार, प्रयोजन और उत्पत्ति की चर्चा करने वाले सज्जन अक़्सर भूल जाया करते थे।”19
निःसन्देह, प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में शास्त्रीयता को कोई महत्त्व नहीं दिया है। पर, दूसरी ओर यह भी सच है कि उन्होंने कोई नये क़ायदे-क़ानून भी नहीं गढ़े। वे तो कथा के माध्यम से अपने समय की विभिन्न समस्याओं का उद्घाटन करना चाहते थे। ‘उपन्यास’ उनका एक साधन था। लेकिन आकर्षक कथा के आवेश में आकर उन्होंने मूल समस्या को कहीं भी दृष्टिक्षेप नहीं किया। समस्या ही स्वयं में इतना आकर्षण उत्पन्न कर लेती है कि औपन्यासिक कला के अन्य तत्त्व आँखों से ओझल हो जाते हैं। समस्यामूलक उपन्यासकार होने के ही कारण प्रेमचन्द के उपन्यासों में तथाकथित ‘कला’ के दर्शन नहीं होते।
‘प्रेमाश्रम’ में भूमि-समस्या के अतिरिक्त अन्य समस्याओं को भी सामने रखा गया है, लेकिन उनमें उल्लेखनीय हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य की समस्या ही है। हिन्दू और मुसलमानों के संघर्ष का कोई आर्थिक, सांस्कृतिक अथवा धार्मिक कारण नहीं है। साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपना उल्लू सीधा करने के उद्देश्य से इस प्रश्न को जटिलतर बनाने के भरसक प्रयत्न किये। प्रेमचन्द ने ‘प्रेमाश्रम’ में हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के मूल कारणों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। इस प्रकार ‘प्रेमाश्रम’ हिन्दी- साहित्य में तत्कालीन ज्वलन्त समस्याओं के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण लेकर हमारे सामने आता है।
निर्मला
‘निर्मला’ का रचनाकाल’ सन् 1923 और प्रकाशन-तिथि सन् 1927 है। ‘निर्मला’ एक छोटा उपन्यास है, किन्तु समस्या के उद्घाटन और प्रभाव की दृष्टि से प्रेमचन्द के प्रथम श्रेणी के उपन्यसों में से है। प्रेमचन्द का यह पहला दुखांत उपन्यास है।
कुछ आलोचकों ने ‘निर्मला’ को मनोवैज्ञानिक उपन्यास की कोटि में रखा है, यद्यपि वे उसकी समस्यामूलकता को भी स्वीकार करते हैं। ‘निर्मला’ की समस्या प्रेमचन्द के अन्य उपन्यासों से अधिक स्पष्ट है। डा॰ रामविलास शर्मा ने ‘निर्मला’ में मनोविज्ञान को प्रधानता देने वाले समीक्षकों के विचारों का विश्लेषण करते हए लिखा है, “कल्याणी और सुधा जैसी नारियाँ हिन्दी उपन्यासों और नाटकों की उन तमाम महिलाओं से भिन्न हैं जो व्यभिचारी पति के चरणों कों आँसुओं से तर कर देती हैं और उसके अन्याय का प्रतिकार करने की बात भी नहीं सोचतीं। वे विशेष रूप से शरत् बाबू की देवियों से भिन्न हैं जो अधिकतर अपने दुःख में घुट-घुटकर मरना पसन्द करती हैं; लेकिन समाज का खुला विरोध नहीं करतीं। प्रेमचन्द अपने उपन्यासों में नए ढंग से नारी पात्रों को रच रहे थे जो अन्याय और दुःख सहती हैं ; लेकिन उनका विरोध भी करती हैं। यदि नारी घुट-घुटकर मरा करे और सामाजिक रुकावटों का विरोध न करे तो कुछ लोग इसे बहुत गम्भीर मनोविज्ञान समझते हैं। वास्तव में उससे उनके सामन्ती संस्कारों को सन्तोष होता है।”20
‘निर्मला’ की प्रमुख समस्या नारी-समस्या है; जिसके निम्नलिखत चार पहलू हैं - दहेज़-प्रथा, दोहाजू से विवाह अथवा वृद्ध-विवाह, विवाहित नारी की समस्या और विधवा-समस्या। इन सभी समस्याओं का केन्द्र दहेzज़-प्रथा अथवा आर्थिक व्यवस्था है, जिसका नारी की आर्थिक पराधीनता से भी गहरा सम्बन्ध है। सामाजिक और आर्थिक ढाँचे को बदले बिना वैवाहिक-समस्या सुलझ नहीं सकती। प्रेमचंद ने प्रस्तुत उपन्यास में ‘सेवासदन’ अथवा ‘प्रेमाश्रम’ की तरह समस्या का हल किसी आश्रम की व्यवस्था करके प्रस्तुत नहीं किया है। निर्मला मध्यवर्गीय हिन्दू समाज की प्रतिनिधि दलित नारी बनकर हमारे सामने आती है। अतः उसकी समस्या वैयक्तिक नहीं है और न पूर्व की भाँति उसका कोई वैयक्तिक हल ही प्रेमचन्द ने सुझाया है।
रंगभूमि
‘रंगभूमि’ का प्रकाशन सन् 1924-25 में हुआ। अन्य उपन्यासों की भाँति ‘रंगभूमि’ में भी अनेक समस्याएँ मिलेंगी। डा॰ रामरतन भटनागर ने जैसा लिखा है, “वास्तव में ‘रंगभूमि’ में स्वतन्त्रता-पूर्व भारत की सारी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समस्याएँ आ जाती हैं। ऐसी विशद चित्रपटी भारतवर्ष के किसी उपन्यासकार ने ग्रहण नहीं की।”21 ‘रंगभूमि’ का केनवस विशाल है, इसमें सन्देह नहीं, लेकिन उसमें स्वाधीनता-पूर्व भारत की समस्त आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं का समावेश है, इस बात में पर्याप्त अतिरंजना है। वास्तव में ‘रंगभूमि’ में दो समस्याएँ ही प्रधान हैं। एक तो औद्योगीकरण की समस्या और दूसरी भारतीय रियासतों की समस्या। ‘रंगभूमि’ में इन दो ही समस्याओं पर प्रेमचन्द की दृष्टि केन्द्रित है। ‘रंगभूमि’ का समस्त कथानक इन्हीं समस्याओं को आधार बनाकर खड़ा किया गया है।
शास्त्रीय पद्धति के आलोचकां को ‘रंगभूमि’ के कथानक तत्त्व में दुर्बलताएँ दिखाई देती हैं। पं॰ नन्ददुलारे वाजपेयी ‘रंगभूमि की वस्तु-विवेचना करते हुए लिखते हैं :
“छोटी-छोटी घटनाओं को लेकर लम्बे-लम्बे अध्याय लिखे गए हैं जिससे कथा-वस्तु आवश्यकता से अधिक लम्बी हो गई है। समस्त मुख्य घटनाओं को लेकर प्रस्तुत आकार से आधे में सारा उपन्यास लिखा जा सकता था।”22 “प्रेमचन्द जी ने कथा-चयन करते हुए इस संयमशीलता को अपने ध्यान में नहीं रक्खा। वे बहुत अनावश्यक रीति से ग्रामीण घटनाओं का वर्णन करते गए हैं।”22 लेकिन प्रेमचन्द के लिए ग्रामीण घटनाओं का वर्णन-विस्तार अनावश्यक नहीं था; वरन् वे तो उसे प्रमुख मानकर चले हैं। यदि इन स्थलों को उपन्यास में से निकाल दिया जाय तो उसकी समस्त गरिमा ही जाती रहेगी। प्रेमचन्द का मूल उद्देश्य तो यहीं अन्तर्निहित है।
‘रंगभूमि’ सन्’ 28 के आन्दोलन के पूर्व लिखा गया है; अतः उस पर गांधीवादी दर्शन की स्पष्ट छाप है। असहयोग के आदर्शों की छाया सर्वत्र मिलती है। श्री मन्मथनाथ गुप्त ने ‘रंगभूमि पर एक नई दृष्टि’ नामक परिच्छेद में एक नई खोज की है। ऐसी वस्तु की खोज जिससे स्वयं लेखक-प्रेमचन्द अनभिज्ञ थे। तर्क के आधार पर, श्री. मन्मथनाथ गुप्त के विचार स्पष्ट और मानने योग्य हैं, लेकिन उनसे ‘रंगभूमि’ का सही मूल्यांकन नहीं हो सकता ; क्योंकि प्रेमचन्द की गांधीवाद पर आस्था भंग नही हुई थी। वे तो सच्चे हृदय से गांधीवादी आदर्शों की प्रतिष्ठा कर रहे थे। प्रेमचन्द के वैचारिक मोड़ का आभास तो काफ़ी आगे चलकर दिखाई देता है। हाँ, यह कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द गांधीवादी दर्शन को ‘रंगभूमि’ में सफल ढंग से प्रस्तुत नहीं कर सके और इस कारण श्रद्धा होते हुए भी, अनजाने में, अनेक असंगतियों को चित्रित कर गए हैं। सूरदास गांधी के समान अति मानवीय स्तर तक नहीं पहुँच सका है, पद्यपि वह उनके अत्यधिक निकट अवश्य है। उसे गांधी का लघु संस्करण मानने में तो कोई आपत्ति नहीं ही सकती। तो, कुछ अनजाने में हुई असंगतियों के आधार पर यदि कोई आलोचक ‘रंगभूमि’ में गांधीवादी दर्शन की पराजय बताता है तो उसकी बुद्धि की दाद तो दी जा सकती है, उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इतनी अधिक स्पष्टता के सामने एक-दो सूक्ष्म बातें कोई अधिक महत्त्व नहीं रखतीं, कम-से-कम इतना तो नहीं ही रखतीं कि उपन्यास के आधार को ही उलटकर रख दें। श्री मन्मथनाथ गुप्त ‘कथाकार प्रेमचन्द’ में लिखते हैं, “जिस ज़मीन के लिए सारा झगड़ा था वह तो बची नहीं, यदि बचती तो हम कहते कि हाँ, आत्मबल ने कुछ प्राप्त किया।”23 पर, प्रेमचन्दजी उपन्यास के अन्तिम अध्यायों में यह दिखलाते हैं कि सबके सब गाँव वाले बिखर गये हैं। कोई कहीं गया, कोई कहीं। नायकराम शहर का रास्ता लेता है, बजरंगी किसी अन्य गाँव में जाकर बसता है। भैरो कहीं और । मैं यह नहीं कहता कि हार हर क्षेत्र में बुरी चीज़ है। नहीं, जैसे कि फिड्रक एंगेल्स ने कहा है, “ज़ोर के साथ लड़ाई के बाद हार होती है, वह उतने ही महत्त्व का तथ्य है जितना कि आसानी से प्राप्त जीत।” पर, पराजय के बाद यदि लड़ने वाले लोग थककर बैठ जायें तो अवश्य ही वह पराजय किसी प्रकार अच्छी चीज़ नहीं कही जा सकती। यहाँ पराजय का अर्थ यह है कि नए ढंग से कार्य करने के लिए स्फूर्ति तथा प्रोत्साहन की प्राप्ति, वहाँ पराजय का अर्थ संग्राम के जीवन में एक नया पन्ना उलटना होता है, ऐसी पराजय पर हमें ग्लानि की आवश्यकता नहीं। ऐसी पराजय तो विजय की सूचक तथा उसकी कृष्णवर्ण अग्रदूती मात्र है। ऐसी पराजय होते हुए भी हम कह सकते हैं, नैतिक जीत हुई, नैतिक जीत माने कल्पना में जीत नहीं बल्कि नैतिक जीत माने ऐसी हार जो जीत की आशा देती है।”24 उपर्युक्त तर्क का कोई खंडन नहीं है। ‘रंगभूमि’ की पराजय पाठक को, जनता को क्या संदेश देती है ? क्या वह उसको पस्तहिम्मत करती है ? क्या सूरदास का बलिदान आत्म-बल प्रदान नहीं करता ? इन प्रश्नों के उत्तर उपर्युक्त आलोचक की स्थापनाओं के विरुद्ध जाएंगे। अतः ‘रंगभूमि’ को प्रेमचन्द ने गांधीवाद का मखौल उड़ाने के लिए अथवा गांधीवाद की निरर्थकता प्रदर्शित करने के लिए नहीं लिखा है वरन् उस पर पूरी आस्था-श्रद्धा के साथ घटनाओं और चरित्रों को रंग-रूप दिया है। यह अवश्य है कि प्रेमचन्द का व्यक्तित्व गांधीवाद के नीचे दब नहीं गया है। गांधीवादी आदर्शवाद और प्रेमचन्दवादी वस्तुवाद दोनों समानान्तर दिखाई देते हैं। अतः ‘रंगभूमि को इसी दृष्टिकोण से परखना वैज्ञानिक होगा और हम लेखक के साथ भी इस प्रकार ठीक-ठीक न्याय कर सकेंगे।
कायाकल्प
प्रेमचन्द ने अगला उपन्यास ‘कायाकल्प’ सन् 1928 में लिखा। प्रस्तुत उपन्यास साधारण कोटि की कृति है। उसे एक सीमा तक प्रगति-विरोधी उपन्यास भी कहा जा सकता है, क्यांकि उसमें आलौकिक बातों का समावेश बहुत है। लेकिन ‘कायाकल्प’ में केवल आलौकिकता अथवा चमत्कार ही नहीं है, उसमें कथा है एवं और भी पहलू हैं, जो अनेक समस्याओं से सम्बन्ध रखते हैं। माना कि घटना-बहुलता के कारण प्रेमचन्द इस उपन्यास में समस्याओं की विस्तार से व्याख्या नहीं कर सके हैं; फिर भी उनका समावेश अपना पूरा महत्त्व रखता है। ‘कायाकल्प’ में मोटे रूप में दो प्रकार की समस्याएँ पाई जाती हैं - सामयिक और चिरंतन। चिरंतन समस्या का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है अतः उसका अस्तित्व उपन्यास को तिलस्मी बना देता है। पूर्वजन्म पर प्रेमचन्द का विश्वास था, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। पर स्वीकार किया जाए अथवा नहीं, जैसा ‘कायाकल्प’ की कथा से विदित होता है, वह प्रेमचंद की पूर्वजन्म सम्बन्धी धारणाओं को व्यक्त करता ही है। इसे एक विराधाभास कहा जा सकता है।
‘कायाकल्प’ का सबसे सबल भाग सामयिक समस्याओं से सम्बन्ध रखता है। ये समस्याएँ सामाजिक, राजनीतिक और सम्प्रदायिक क्षेत्रों की हैं। सामाजिक क्षेत्र में विवाह और प्रेम की समस्या प्रमुख है। राजनीतिक क्षेत्र में राजाओं और जागीरदारों की संस्कृति की वास्तविकता का उद्घाटन मुख्य लक्ष्य है तथा साम्प्रदायिक क्षेत्र में हिन्दू-मुस्लिम समस्या है। इन समस्याओं पर प्रेमचन्द के विचार प्रस्तुत उपन्यास में जगह-जगह बिखर हुए हैं। यदि प्रेमचन्द इसमें अलौकिक कथा का समावेश नहीं करते तो यह उपन्यास भी उत्कृष्ट कोटि का समस्या-प्रधान उपन्यास बन गया होता।
ग़बन
‘गबन’ सन् 1931 के आसपास लिखा गया और मार्च 1932 में छपा। पंडित नन्ददुलारे वाजपेयी अपनी पुस्तक ‘प्रेमचन्द ‘साहित्यिक विवेचन’ में ‘गबन’ की समीक्षा करते हुए लिखते हैं – “इसमें प्रेमचन्दजी ने सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को साथ-साथ प्रदर्शित किया है। रमानाथ और जालपा नवविवाहित दम्पत्ति हैं। रमानाथ जालपा से अत्यधिक प्रेम करता है, पर वह उससे अपनी वास्तविक स्थिति को सदैव छिपाता रहता है। वह उपन्यास का मनोवैज्ञानिक सूत्र है। उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि यह है कि रमानाथ अपनी पत्नी की मनःतुष्टि के लिए अपने सामर्थ्य के बाहर जाकर गहने लाता और ऐसे उपायों का आश्रय लेता है, जो उसे अधिकाधिक कठिन परिस्थितियों मे डाल देते हैं।”25 ‘गबन’ में सामाजिक समस्या का स्वरूप तो निःसन्देह स्पष्ट है, पर उसमें कोई मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं है। जिस मनोवैज्ञानिक समस्या की ओर पंडित नन्ददुलारे वाजपेयी जी ने संकेत किया है वह सामाजिक समस्या का ही एक अंग है। डॉक्टर रामरतन भटनागर ने इसी बात को कुछ अधिक सुलझे रूप में व्यक्त किया है। ‘गबन’ प्रेमचन्द का अन्तिम सामाजिक उपन्यास है और कला एवं दृष्टिकोण की परिपक्वता की दृष्टि से वह उनके सारे सामाजिक उपन्यासों में श्रेष्ठतम है। हमने इस उपन्यास को ‘गहने की ट्रेजिडी’ कहा है, परन्तु कहानी का मूल विषय यही होने पर भी समस्या का यह रूप अत्यन्त व्यापक समस्या का ही अंग है। यह समस्या है वर्गगत असन्तुलन। गहने वर्ग-श्रेष्ठता के ही प्रतीक हैं। हमारे इस पूँजीवादी समाज की सारी व्यवस्था वर्ग की विभिन्नता पर ही आश्रित है।”26 वास्तव में, ‘ग़बन’ मध्यवर्गीय समाज की समस्याओं का उपन्यास है। मध्यवर्गीय परिवारों में दिखावा अथवा ढकोसला पाया जाता है। वह ‘गबन’ में बड़े सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है। उपन्यास के प्रारम्भ में गहने की समस्या को केन्द्र बनाकर मध्यवर्गीय भारतीय नारी की समस्या का उद्घाटन किया गया है तथा अन्त में कलकत्ते के वर्णन के प्रंसग में भारतीय स्वाधीनता की समस्या को पूरे मनोयोग से चित्रित किया गया है। अंग्रेज़ी शासन में पुलिस के हथकंडों, न्याय की विडम्बनाओं आदि का चित्रण जिसके अन्तर्गत आता है। इस प्रकार ‘गबन’ की समस्याएँ स्पष्ट हैं। ‘गबन’ की विशेषता इस बात में भी है कि प्रेमचन्द इसमें अपने दृष्टिकोण के अधिक निकट दिखाई देते हैं।
कर्मभूमि
‘कर्मभूमि’ प्रेमचन्द की प्रौढ़ कृति है, इसका रचनाकाल सर् 30-32 का है। प्रेमचन्द जिस आदर्शवाद के घेरे में अभी तक आबद्ध थे; उसे तोड़कर अब यथार्थ भूमि में प्रवेश करते हैं। उनके भावी मोड़ का आभास ‘कर्मभूमि’ में मिलता है।
‘कर्मभूमि’ का कथानक वैविध्यपूर्ण है; क्योंकि उसके कई समस्याओं का प्रतिपादन किया गया है। कथावस्तु के शैथिल्य के सम्बन्ध में श्री मन्मनाथ गुप्त एक स्थल पर लिखते हैं : “स्वयं प्रेमचन्द भी शायद ‘कर्मभूमि’ के कथानक की शिथिलता के सम्बन्ध में परिचित थे। उन्होंने जो अपने चार-सौ पन्ने के उपन्यास को पाँच भागों में बाँटा है, इससे इस सम्बन्ध में उनकी सज्ञानता ज़ाहिर होती है।”27 स्पष्ट है, प्रेमचन्द के इस उपन्यास में पाई जाने वाली रचना-तंत्र सम्बन्धी दुर्बलताएँ सज्ञान हैं। प्रेमचन्द उपन्यास के माध्यम से कोई सुन्दर कहानी कहना नहीं चाहते थ; प्रत्युत तत्कालीन अनेक समस्याओं की ओर भारतीय जनता को जागरूक करना चाहते थे। ‘कर्मभूमि’ में यदि कथानक शिथिल है तो इससे उसकी महानता पर कोई विशेष विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। ‘कर्मभूमि की श्रेष्ठता यथावत् ही बनी रहती है।
‘कर्मभूमि’ की मुख्य समस्या भी स्वाधीनता की समस्या है। अछूतों और किसानों की समस्याएँ उसी का ही अंग बनकर आती हैं। शैक्षणिक समस्या का भी उद्घाटन प्रस्तुत उपन्यास में किया गया है। इस प्रकार ‘कर्मभूमि’ एक राजनीतिक उपन्यास कहा जा सकता है।
पंडित नन्ददुलारे वाजपेयी ‘कर्मभूमि’ के विचार पक्ष की विवेचना करते हुए लिखते हैं, “विचारों के द्वारा प्रेमचन्द जी ने समय का चित्रण तो सफलता से कर दिया, किन्तु पाठक के सम्मुख अधिक योजनाएँ नहीं आतीं, जिन्हें वह भावी आदर्श समाज की पृष्ठिभूमि मान सके।’’28 स्पष्ट है, उपन्यासकार विचारों के द्वारा समय का चित्रण यदि सफलतापूर्वक कर देता है तो यही उसकी सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण है। योजनाएँ प्रस्तुत करना कोई उसका अनिवार्य तत्त्व नहीं है। समय-चित्रण भी अनेक शास्त्रीय सीमाओं को तोड़कर करना पड़ता है। और यदि योजनाओं का भी उसमें विधिवत् समावेश कर दिया जाये तो वह उपन्यास न रहकर समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र का पोथा ही बन जाए। इस प्रकार के आलोचक जहाँ उपन्यास-कला की दुहाई देते हैं, वहाँ योजनाओं की माँग भी करते हैं। यह दृष्टिकोण स्वयं में विरोध लिए हुए है। ‘कर्मभूमि’ पाठक को सम्बन्धित समस्याओं पर सोचने के लिए विवश करता है। यह विवशता योजना-चित्रण से कहीं अधिक उपयोगी है। पूर्व-परम्परा को तोड़कर प्रेमचन्द ने ‘कर्मभूमि’ को अधिक-से-अधिक यथार्थ से जोड़ने का प्रयत्न किया है।
गोदान
‘गोदान’ प्रेमचन्द का अन्तिम पूर्ण उपन्यास है। इसका रचनाकाल सन् 1936 है। ‘गोदान’ में प्रेमचन्द का दृष्टिकोण यर्थाथवादी हो गया है। औपन्यासिक कौशल प्रस्तुत उपन्यास में सबसे अधिक है, किन्तु शास्त्रीय पद्धति पर इसे भी नहीं परखा जा सकता।
‘गोदान’ ग्रामीण जनता का महाकाव्य कहा जाता है। निःसन्देह उसमें ग्रामीण जनता की विभिन्न समस्याओं पर ही लेखक की दृष्टि केन्द्रित है। वैसे देखा जाए तो ‘गोदान’ की पृष्ठिभूमि बड़ी व्यापक है। उसमें शहरी और ग्रामीण दोनों जीवन का चित्रण है तथा दोनों की समस्याएँ उसमें समाहित हैं। लेकिन यदि बारीकी से देखा जाए तो शहरी जीवन का चित्रण ग्रामीण जीवन से गुँथा हुआ ही नहीं मालूम पड़ता; प्रत्युत उसी के हेतु औपन्यासिक कथा में स्थान रखता है - यह भली-भाँति लक्षित हो जाता है।
‘गोदान’ की मुख्य समस्या किसान के सुखी जीवन की समस्या है। यद्यपि किसान के जीवन के प्रत्येक पहलू पर इस उपन्यास में प्रकाश डाला गया है, फिर भी उसकी ऋण-समस्या ही प्रमुख है। ऋण के बोझ के कारण भारतीय किसान किस तरह पिस जाता है, यही ‘गोदान’ का केन्द्र बिन्दु है। होरी ऐसे ही किसान का प्रतीक है।
‘गोदान’ में प्रोफ़ेसर मेहता प्रेमचन्द के विचारों के वाहक हैं। प्रेमचन्द कथा- विकास के साथ-साथ अनेक समस्याओं पर प्रो॰ मेहता के मुख से लम्बी-लम्बी वक्तृताएँ भी दिलवाते चलते हैं। यदि प्रेमचन्द का उद्देश्य केवल एक किसान की कहानी लिखना ही रहा होता तो कथा-विन्यास में उन स्थलों की कोई आवश्यकता न होती। वास्तव में, वे स्थल ‘गोदान’ को महाकाव्यत्व तक पहुँचाने में बड़े सहायक होते हैं। प्रेमचन्द का व्यक्तित्व ‘गोदान’ में भी अन्य उपन्यासों की तरह छाया हुआ है। मात्र ‘कला’ को, किसी रचना की श्रेष्ठता या सफलता की कसौटी मानने वाला लेखक, इस प्रकार के स्थलों को भूलकर भी न रखता। लेकिन प्रेमचन्द का तो मुख्य उद्देश्य समस्याओं को सामने रखना था, इसीलिए ऐसे स्थलों पर उनकी प्रतिभा विशेष रूप से निखरकर हमारे सामने आती है।
मंगलसूत्र
‘मंगलसूत्र’ प्रेमचन्द का अपूर्ण उपन्यास है जो उनकी मृत्यु के 10-11 वर्ष बाद पश्चात् प्रकाशित हुआ। ‘गोदान’ में प्रेमचन्द यथार्थवादी बन गए हैं। ‘मंगलसूत्र’ में हम उनके यथार्थवादी रूप का स्पष्ट दर्शन कर सकते थे, किन्तु वह अपूर्ण ही रह गया। जैसा भी प्रस्तुत उपन्यास सामने आया है उसको देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी प्रमुख समस्या वैवाहिक होती । पुष्पा ओैर संतकुमार के दाम्पत्य जीवन का असंतोष प्रारम्भिक पृष्ठों में मिलता है। पुष्पा नारी-जाति की स्वतंत्रता और अधिकारों की समर्थक है। वैवाहिक जीवन से सम्बन्धित विच्छेद का प्रश्न संभवतः इसमें महत्त्वपूर्ण स्थान रखता, किन्तु अपूर्ण कृति पर अटकल या संभावनाओं के आधार पर कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता।
(2)
इस प्रकार प्रेमचन्द के सभी उपन्यासों मे किसी-न-किसी समस्या को प्रमुख स्थान मिला है, अतः उनके प्रायः सभी उपन्यास समस्याप्रधान अथवा समस्यामूलक ठहरते हैं। कथानक के अन्दर समस्याओं का समावेश वे नहीं करते वरन् समस्याओं को उपस्थित करने के लिए कथानक को गढ़ते हें। चरित्र-चित्रण के लिए उनके उपन्यास नहीं लिखे गए वरन् समस्याओं के उद्घाटन, विकास और हल के हेतु पात्रों का सर्जन तथा चरित्र-चित्रण हुआ है। कथा विकसित करने के लिए वे संवादां को नहीं रखते वरन् समस्याओं का स्वरूप प्रकट करने के लिए पात्रों के मुख से अनेक बातें कहलाते हैं। अतः प्रेमचंद के उपन्यासों को समझने के लिए यही वास्तविक आधार है। आधार की ओर ध्यान न देकर यदि कोई आलोचक अन्य मापदंडों से उनके उपन्यासों की परख करता है तो वह ग़लत दृष्टिकोण अपनाता है। उसकी आलोचना का निष्कर्ष यही होगा कि प्रेमचन्द प्रथम श्रेणी के उपन्यासकार नहीं हैं, जबकि वे मानव-समुदाय में दिन-पर-दिन लोकप्रिय होते जा रहे हैं। यदि वे सफल उपन्यासकार नहीं होते तो यह लोकप्रियता मिलनी दुर्लभ होती। सच पूछा जाए तो प्रेमचन्द के उपन्यास केवल उपन्यास ही नहीं, वे उपन्यास से कुछ अधिक हैं।
प्रेमचन्द के उपन्यासों में उठाई गई प्रमुख समस्याओं के इस पर्यालोचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनके प्रायः सभी उपन्यास समस्यामूलक हैं। यह तथ्य उनके उपन्यासों की समीक्षा करते समय ध्यान में रखना नितान्त आवश्यक है; अन्यथा प्रेमचंद को समझने में ही हम भूल नहीं करेंगे; प्रत्युत उनके उपन्यासों के प्रति भी उचित न्याय नहीं कर पाएंगे।
प्रेमचंद और अन्य विश्वविख्यात उपन्यासकारों में यही सबसे बड़ा अन्तर है कि जहाँ अन्य प्रथम श्रेणी के उपन्यासकार चरित्रांकन की कला में अद्वितीय हैं वहाँ प्रेमचन्द समस्या के उपस्थित करने, उसका पूर्णरूपेण उद्घाटन करने और उसका हल सुझाने में अन्यतम हैं। यदि प्रेमचन्द के उपन्यासों की परख चरित्रांकन के दृष्टिकोण से की जाएगी तो वे विश्वविख्यात उपन्यासकारां की प्रथम श्रेणी में स्थान नहीं पा सकेंगे। इस बात को स्वीकार करने में कोई हीन-भावना का अनुभव हमें नहीं करना चाहिए। चरित्र-चित्रण में, प्रेमचन्द, कहानियों मे जितने सफल हुए हैं उतने उपन्यासों में नहीं। अपवाद रूप में, दो-चार औपन्यासिक पात्रों के सफल चरित्रांकन का उल्लेख कर देने मात्र से उनकी समस्यामूलकता पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता।
प्रेमचन्द की औपन्यासिक कला का सबसे सशक्त पहलू समस्यामूलक तत्त्व है, जिसके आधार पर हम प्रेमचन्द की कृतियों पर गर्व कर सकते हैं और विश्व-साहित्य के सम्मुख उनकी उपादेयता सिद्ध कर सकते हैं।
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संदर्भ-संकेत
1 वही, पृ. 38
2 ‘साहित्यावलोकन’, पृ. 155
3 मन्मथनाथ गुप्त : ‘कथाकार प्रेमचंद’, पृ. 177
4 ‘प्रेमचंद : आलोचनात्मक अध्ययन. पृ. 50-51
5 मन्मथनाथ गुप्त : ‘कथाकार प्रेमचंद’, पृ. 168
6 मन्मथनाथ गुप्त : ‘कथाकार प्रेमचंद’, पृ. 163-164
7 ‘प्रेमचंद : आलोचनात्मक अध्ययन. पृ. 52
8 ‘वरदान’, पृ. 44
9 ‘प्रेमचंद : घर में’, पृ. 13
10 ‘प्रेमचंद : घर में’, पृ. 9
11 ‘प्रेमचंद : घर में’, पृ. 10
12 ‘प्रेमचंद : घर में’, पृ. 10
13 ‘प्रेमचंद : घर में’, पृ. 11
14 मन्मथनाथ गुप्त : ‘कथाकार प्रेमचंद’, पृ. 202
15 ‘प्रेमचंद : साहित्यिक विवेचन, पृ. 25-26
16 ‘प्रेमचंद : आलोचनात्मक अध्ययन. पृ. 84
17 ‘हिन्दी उपन्यास’, पृ. 10
18 ‘हंस’, मई 1937, पृ. 44
19 ‘प्रेमचंद और उनका युग’, पृ. 42-43
20 ‘प्रेमचंद और उनका युग’, पृ. 60-61
21 ‘प्रेमचंद : आलोचनात्मक अध्ययन. पृ. 112
22 ‘प्रेमचंद : साहित्यिक विवेचन, पृ. 70-71
23 ‘प्रेमचंद : साहित्यिक विवेचन, पृ. 71
24 मन्मथनाथ गुप्त : ‘कथाकार प्रेमचंद’, पृ. 293
25 ‘प्रेमचंद : साहित्यिक विवेचन, पृ. 114
26 ‘प्रेमचंद : आलोचनात्मक अध्ययन. पृ. 141-142
27 मन्मथनाथ गुप्त : ‘कथाकार प्रेमचंद’, पृ. 470
28 ‘प्रेमचंद : साहित्यिक विवेचन, पृ. 112
भारतीय स्वाधीनता की समस्या
प्रेमचन्द भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के निर्भीक व अविचल योद्धा थे। विदेशी सत्ता के साम्राज्यवादी चक्र में दबा-पिसा भारत उनकी रचनाओं में बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रतिबिम्बत हुआ है। प्रेमचन्द भारतीय राजनीतिक जागरण के एक स्तम्भ हैं। देश में स्वाधीनता के विचारों का प्रचार उन्होंने साहित्य के माध्यम से उतने ही ज़ोरों से किया जितना कि सक्रिय राजनीति में सत्य व अहिंसा के द्वारा गांधी जी ने। साहित्य का जनता के संस्कारी मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता हैं; क्योंकि उसमें कला अन्तर्निहित रहती है। प्रेमचन्द इस तथ्य को अच्छी तरह समझते थे। पराधीनता की शृंखलाएँ तोड़ने के लिए भारतीयों में नवीन चेतना, साहस और शक्ति का संचार प्रेमचन्द ने साहित्य के द्वारा किया। उन्होंने सोये भारत को झकझोरकर जगाया ही नहीं, उसे उसकी दयनीय दशा से ही परिचित नहीं कराया, वरन् उसे क्रांति के लिए - स्वाधीनता के हेतु संगठित अभियान के लिए तैयार भी किया। उनके साहित्य में भारत की आत्मा बोलती है।
प्रेमचन्द के समय भारत की राजनीतिक अवस्था बड़ी अनिश्चित थी। राष्ट्रीय महासभा (इण्डियन नेशनल कांग्रेस) के नेतृत्व में स्वाधीनता-आन्दोलन ज़ोर पकड़ रहा था, यद्यपि कुछ असफलताएँ उसके इतिहास में विद्यमान हैं। पर, इन असफलताओं से स्वाधीनता की आग दबी नहीं, प्रत्युत और व्यापक व तीव्र ही होती गई। प्रेमचन्द ने अपनी आँखों जनता के वे जुलूस देखे थे; जो स्वाधीनता की मशाल लिए सड़कों-सड़कों तथा गलियों-गलियों निकलते थे। इसके साथ-ही-साथ प्रेमचन्द ने अपनी आँखों अंग्रेज़ी हुकूमत के अत्याचार, अन्याय व दमन के भी दृश्य देखे। लेखक होने के नाते प्रेमचन्द स्वाधीनता-आन्दोलन से तटस्थ नहीं रह सकते थे। सन् 1920 के ज़माने में जब कि देशव्यापी असहयोग चल रहा था, प्रेमचन्द ने उससे प्रभावित होकर सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था और ‘कलम के मज़दूर’ बनकर स्वाधीनता-संग्राम में कूद पड़े थे। आगे चलकर वे बराबर कांग्रेस की बैठकों में भाग लेते रहे। श्रीमती शिवरानी प्रेमचन्द ने जैसा लिखा है -
“कांग्रेस की मीटिंग रोज़ाना चल रही थी, उसमें भी वे शरीक़ होते। मीटिंग से कभी-कभी लौटने में रात के दस बज जाते।”1
प्रेमचन्द के साहित्य का तत्कालीन राजनीति से घनिष्ठ सम्बन्ध है। शिवरानी-प्रेमचन्द का अधोलिखित वार्तालाप प्रेमचन्द के साहित्य और उनके राजनीति सम्बन्धी विचारों को प्रकट करता है -
“प्रेमचन्द - जब तक यहाँ के साहित्य में तरक्की न होगी, तब तक साहित्य, समाज और राजनीति सब-के-सब ज्यों-के-त्यां पडे़ रहेंगे।
शिवरानी - तो क्या आप इन तीनों की एक माला-सी पिरोना चाहते हैं ?
प्रेमचन्द - और क्या! ये चीज़ें माला जैसी ही हैं। जिस भाषा का साहित्य अच्छा होगा, उसका समाज भी अच्छा होगा। समाज के अच्छा होने पर मजबूरन राजनीति भी अच्छी होगी। ये तीनों साथ-साथ चलनेवाली चीजें हैं।”2
प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में अंग्रज़ी साम्राज्यवाद की व्यापारिक नीति, भारतीय शिक्षित वर्ग में अंग्रेज़ी शिक्षा के प्रति लगाव, भारतीय ईसाइयों में अंग्रज़ों की नक़ल की प्रवृत्ति, ब्रिटिश नौकरशाही का आतंकपूर्ण शासन तथा उसके सम्राज्यवादी स्वार्थ, अन्याय आदि पर जगह-जगह लिखा है। वे पूर्ण स्वाधीनता के पक्षपाती थे। ‘डोमीनियन स्टेटस’ में उनको तनिक भी विश्वास न था। ‘हंस’ की पहली सम्पादकीय टिप्पणी में उन्होंने ‘डोमीनियन स्टेटस’ का कड़ा विरोध किया है :
“इंगलैंड का डोमीनियन स्टेटस के नाम से न घबड़ाना समझ में आता है। स्वराज्य में किस्तों की गुंजाइश नहीं, न गोलमेज़ की उलझन है, इसलिए वह स्वराज्य के नाम से कानों पर हाथ रखता है। लेकिन हमारे ही भाइयों में इस प्रश्न पर क्यों मतभेद है, इसका रहस्य आसानी से समझ में नहीं आता। वे इतने बेसमझ तो हैं नहीं कि इंगलैंड की इस चाल को न समझते हों। अनुमान यह होता है कि इस चाल को समझकर भी वे डोमीनियन के पक्ष में हैं। इसका कुछ और आशय है। डोमीनियन पक्ष को ग़ौर से देखिए तो उसमें हमारे राजे-महाराजे, हमारे ज़मींदार, हमारे धनी-मानी भाई ही ज़्यादा नज़र आते हैं। क्या इसका यह कारण है कि वे समझते हैं कि स्वराज्य की दशा में उन्हें बहुत-कुछ दबकर रहना पड़ेगा ? स्वराज्य में मज़दूरों और किसानों की आवाज़ इतनी निर्बल न रहेगी। क्या वे लोग उस आवाज़ के भय से थरथरा रहे हैं कि उनके हितों की रक्षा अंग्रेज़ी शासन से ही हो सकती है ? स्वराज्य कभी उन्हें ग़रीबों को कुचलने और उनका रक्त चूसने न देगा। डोमीनियन का अर्थ उनके लिए यही है कि दो-चार गवर्नरियाँ, दो चार बड़े-बड़े पद उन्हें और मिल जावेंगे। उनका डोमीनियन स्टेटस इसके सिवा और कुछ नहीं है। ताल्लुकेदार और राजे इसी तरह ग़रीबों को चूसते चले जायेंगे। स्वराज्य गरीबों की आवाज़ है, डोमीनियन ग़रीबों की कमाई पर मोटे होनेवालों की।”3
वे पूर्ण स्वाधीनता के पक्षपाती तो थे ही, पर उनका स्वतंत्रता का दृष्टिकोण नितान्त जनवादी था। ‘कर्मभूमि’ में डा॰ शान्तिकुमार के मुख से भी उन्होंने जनता की सरकार तथा क्रांति का समर्थन किया है :
“जब तक रिआया के हाथ में अख़्तियार न होगा, अफ़सरों का यही हाल रहेगा...ग़रीबों की लाश पर सब-के-सब गिद्धों की तरह जमा होकर उनकी बोटियाँ नोच रहे हैं... इस हाहाकार को बुझाने के लिए दो-चार घड़े पानी डालने से तो आग और भी बढ़ेगी। इन्कलाब की ज़रूरत है, पूरे इन्कलाब की।”4
वे वर्गहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें अमीर-ग़रीब का भेद न हो :
“गवर्नमेण्ट तो काई ज़रूरी चीज़ नहीं। पढ़े-लिखे आदमियों ने ग़रीबों को दबाये रखने के लिए एक संगठन बना लिया है। उसी का नाम गवर्नमेण्ट है ; ग़रीब और अमीर का फ़र्क मिटा दो और गवर्नमेण्ट का ख़ात्मा हो जाता है।”5
सर्वहारा वर्ग के प्रति उन्हें स्वाभाविक सहानुभूति थी। वे उसे धनिक वर्ग के सामने अपमानित होते देखना पसन्द नहीं करते थे। वे ऐसी आज़ादी के समर्थक न थे जो मानवीय अधिकारों को दबाकर रखे। जागती हुई जनता के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है :
“उसे अपने स्वत्व का ज्ञान हो चुका था। उन्हें मालूम हो गया था कि उन्हें भी आराम से रहने का इतना ही अधिकार है, जितना धनियों को।”6
मार्क्सवादी समीक्षक अमृतराय के शब्दों में यह कहा जा सकता है -
“प्रेमचन्द की देशभक्ति कोई शून्य, हवाई देशभक्ति नहीं, सच्ची जनवादी देशभक्ति है और उन्होंने जो कुछ लिखा है, देश में जनता का शासन, जनवाद क़ायम करने के लिए लिखा है।”7
प्रेमचन्द के विचारों में परिर्वतन होते गए हैं। ‘प्रेमा’ से ‘’मंगलसूत्र’ तक उन्होंने एक बड़ी वैचारिक यात्रा पूर्ण की है। प्रारम्भ में वे सुधारवादी तथा नरम दक्षिण-मार्गी हैं, पर बाद में बड़े उग्र क्रांतिकारी तथा वाममार्गी। यह परिर्वतन उनके अनुभव पर आश्रित है। उन्होंने दिन-दिन बढ़ते शोषण और अत्याचार को देखकर अपनी राय स्थापित की।
प्रारम्भ में उन पर गांधीवादी दर्शन का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव था। प्रायः महान साहित्यकारों में यह बात देखी गई है कि वे अपने युग के राजनीतिक नेताओं से विचारों में आगे होते हैं। जिस प्रकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने गांधी जी के आविर्भाव के पूर्व स्वदेशी और भारतीय संस्कृति के प्रति देश का ध्यान आकर्षित किया था, उसी प्रकार प्रेमचन्द भी गांधी जी के विचारों से आगे निकल जाया करते थे। ‘प्रेमाश्रम’ के रचनाकाल से यह बात स्पष्ट होती है। मज़दूर और काश्तकारों के सम्बन्ध पर लिखा ‘प्रेमाश्रम’ गांधी जी के आन्दोलन का मानो पूर्वाभास है। प्रेमचन्द-शिवरानी संवाद से यह बात स्पष्ट प्रकट होती है -
“शिवरानी - तो आप भी क्या महात्मा गांधी के तरफ़दार हो गए। ?
प्रेमचन्द - अरे, तरफ़दार होने को तुम कहती हो, मैं उनका चेला हो गया। चेला तो उसी समय हुआ, जब वह गोरखपुर में आये थे।
शिवरानी - चेले तब हुए थे, दर्शन अब कर पाये ?
प्रेमचन्द - चेले होने की मानी, किसी की पूजा करना नहीं होता, बल्कि उन गुणों को अपनाना है।
शिवरानी - तो आपने अपना लिए ?
प्रेमचन्द - मैंने अपना लिए। अपनाने को कहती हो, उसी के बाद तो मैंने ‘प्रेमाश्रम’ लिखा है। सन् ’22 में छपा है।
शिवरानी - वह तो पहले से ही लिखा जा रहा है ?
प्रेमचन्द - इसके मानी यह है कि मैं महात्मा गांधी को बिना देखे ही उनका चेला हो चुका था।
शिवरानी - तो इसमें महात्मा गांधी की कौन ख़ास बात हुई ?
प्रेमचन्द - बात यह हुई कि जो बात वह करना चाहते हैं, उसे मैं पहले ही कर देता हूँ। इसके मानी यह हैं कि मैं उनका बना-बनाया कुदरती चेला हूँ।
शिवरानी - यह कोई बात नहीं है, न कोई दलील है।
प्रेमचन्द - दलील की यह कोई बात नहीं। इसके माने हैं कि दुनिया में मैं महात्मा गांधी को सबसे बड़ा मानता हूँ। उनका उद्देश्य भी यही है कि मज़दूर और काश्तकार सुखी हों, वह इन लोगों को आगे बढ़ाने के लिए आन्दोलन मचा रहे हैं। मैं लिखकर के उनको उत्साह दे रहा हूँ। महात्मा गांधी हिन्दू-मुसलमान की एकता चाहते हैं, तो मैं भी हिन्दी और उर्दू को मिलाकर के हिन्दुस्तानी बनाना चाहता हूँ।”8
प्रेमचन्द के भाषा-सम्बन्धी विचारों को आगे चलकर गांधी जी ने भी अपनाया। इस प्रकार अनेक बातों में वे पूर्व ही क़दम उठा चुके थे। गांधी जी के सिद्धान्तों का प्रभाव भी उन पर पड़ा है, अतः उनका प्रतिबिम्ब उनके साहित्य में मिलता है। ‘रंगभूमि’ में ज़ाहिर अली के शब्द विपक्षी के सम्बन्ध में गांधीवादी दर्शन के प्रतीक हैं :
“जिन्होंने मुझ पर ज़ुलुम किया है, उनके दिल में दया-धरम जागे, बस मैं आप लोगों से और कुछ नहीं चाहता।”9
इसी उपन्यास में वे कहते हैं :
“रोग का अन्त करने के लिए रोगी का अन्त कर देना न बुद्धिसंगत है, न न्यायसंगत। आग, आग से शान्त नहीं होती, पानी से शान्त होती है।”10
उन्होंने शान्त उपायों का सदैव समर्थन किया है। सोफी विनयकुमार से कहती है :
“तुम अपने आदर्श से उसी समय पतित हुए, जब तुमने उस विद्रोह को शान्त करने के लिए शान्त उपयां की अपेक्षा क्रूरता और दमन से काम लेना उपयुक्त समझा। शैतान ने पहली बार तुम पर वार किया और तुम फिर न सँभले, गिरते ही चले गये।”11
पर, आगे चलकर सुधारवादी दृष्टिकोण पर से उनका विश्वास हिल गया था। जीवन के अन्तिम दिनों में वे बड़े उग्र हो उठे थे। उनके उपन्यासों में भारतीय स्वाधीनता की गूँज सर्वप्रथम ‘सेवासदन’ में सुनाई देती है जहाँ कि उन्होंने एक भविष्य - द्रष्टा की तरह यूरोप के व्यावहारिक साम्राज्यवाद के प्रति लिखा है :
“शिल्प और कला-कौशल का यह महल उसी समय तक है जब तक संसार में निर्बल, असमर्थ जातियाँ वर्तमान हैं। उनके गले सस्ता माल मढ़कर यूरोपवाले चैन करते हैं; पर ज्योंही वे जातियाँ चौकेंगी, यूरोप की प्रभुता नष्ट हो जायेगी।”12
उन्होंने भारतीय युवकों को पाश्चात्य संस्कृति तथा विदेशी भाषा के पीछे मतवाले होने से रोका व सचेत किया। देश में जब स्वाभिमान तथा निज की संस्कृति के प्रति उपेक्षा-भाव बढ़ते जाते हैं तब वह देश तथा जाति मृतवत् हो जाती है। भारतीय युवकों के द्वारा भारतीय संस्कृति की उपेक्षा ही नहीं हुई, वरन् एक समय था जब कि पाश्चात्य सभ्यता के ये भक्त-युवक उसका उपहास करते थे। अपनी भाषा में बोलना उनके लिए अपने को अशिक्षित तथा असभ्य बताना था। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में जाति में पाये जानेवाले आत्महीनता के भावों को व्यक्त किया है; क्योंकि उनके उपन्यास केवल हमारा मनोरंजन ही नहीं करते, प्रत्युत वे समस्याओं को भी सम्मुख रखते हैं, उन समस्याओं के कारणों पर प्रकाश डालते हैं तथा उनके हल का उपाय भी सुझाते हैं। इन समस्याओं में भारतीय स्वाधीनता की समस्या भी एक है। अंग्रेज़ी भाषा के गुलामों को प्रेमचन्द ‘सेवासदन’ के एक समाज-सुधारक पात्रा बिट्ठलदास के द्वारा जाग्रत करना चाहते हैं :
“आपकी अंग्रेज़ी शिक्षा ने आपको ऐसा पद-दलित किया है कि जब तक यूरोप का कोई विद्वान् किसी विषय के गुण-दोष प्रकट न करे, तब तक आप उस विषय की ओर से उदासीन रहते हैं। आप उपनिषदों का आदर इसलिए नहीं करते कि वह स्वयं आदरणीय हैं, बल्कि इसलिए करते हैं कि ब्लावेदस्की और मैक्समूलर ने उनका आदर किया है। आप में अपनी बुद्धि से काम लेने की शक्ति का लोप हो गया है..... यह मानसिक गुलामी उस भौतिक गुलामी से कहीं गयी-गुज़री है। आप उपनिषदों को अंग्रेज़ी में पढ़ते हैं, गीता को जर्मन में, अर्जुन को अर्जुना, कृष्ण को कृष्णा कहकर अपने स्वभाषा ज्ञान का परिचय देते हैं।”13
‘सेवासदन’ में आगे चलकर प्रेमचन्द सुमन के मुख से अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे स्वार्थान्धों को खरे शब्दों में ललकारते हैं :
”यह सब-के-सब स्वार्थसेवी हैं, इन्होंने केवल दीनों का गला दबाने के लिए, केवल अपना पेट पालने के लिए अंग्रेज़ी पढ़ी है, यह सब-के-सब फैशन के गुलाम हैं, जिनकी शिक्षा ने उन्हें अंग्रेज़ों का मुँह चिढ़ाना सिखा दिया है, जिनमें दया नहीं, धर्म नहीं, निज भाषा से प्रेम नहीं, चरित्र नहीं, आत्मबल नहीं, वे भी कुछ आदमी हैं ?”14
यह देश की पतित तथा पराजित दशा का कितना मार्मिक तथा उत्तेजक वर्णन है। भाषा की पराधीनता देश की स्वाधीनता में बाधक होती है। अंग्रेज़ी राजनीतिज्ञों तथा शिक्षा-विशारदों ने यह बात खूब सोच-समझकर भारत की राजभाषा अंग्रेज़ी बनायी थी, पर मेकाले का स्वप्न उस देश में कहाँ साकार हो सकता था जहाँ प्रेमचन्द व गांधी जैसे स्वाधीनता के अटल व निर्भीक प्रहरी थे। शिक्षित वर्ग को उन्होंने स्पष्ट शब्दों में सचेत किया -
“शिक्षित वर्ग जब-तक शासकों का आश्रित रहेगा, हम अपने लक्ष्य के जौ भर भी निकट न पहुँच सकेगा।”15
कुछ लोग अंग्रेज़ी भाषा और अंग्रेज़ी राज्य की प्रशंसा करते देखे जाते हैं। किसी जाति के प्रति घृणा के भाव उत्पन्न करना कोई मानवतावादी लेखक पसन्द नहीं करेगा, पर एक ऐसे दल के विरुद्ध जो विजित देश को लूटता है और आतंक फैलाता है, उसके वास्तविक स्वरूप को नहीं छिपाया जा सकता। ब्रिटेन से भारत आनेवाले अनेक ‘गोरों’ की ऐसी कथाएँ हैं जो भारत को ‘सोने की चिड़िया’ समझकर महज़ ऐयाशी के लिए आते थे। ‘कर्मभूमि’ में सोना बेचती हुई मेमों के बारे में बताया गया है :
“यह गोरे उस श्रेणी के थे, जो अपनी आत्मा को शराब और जुए के हाथों बेच देते हैं, बे-टिकट फर्स्ट क्लास में सफ़र करते हें, होटलवालों को धोखा देकर उड़ जाते हैं और जब कुछ बस नहीं चलता, तो बिगड़े शरीफ़ बनकर भीख माँगते हैं।”16
‘रंगभूमि’ में मिसेज सेवक और कुँवर साहब के वार्तालाप से प्रेमचन्द अंग्रेज़ी राज्य की नियामतों की निस्सारता पर बड़े तार्किक ढंग से लिखते हैं :
“कुँवर - जिस राष्ट्र ने एक बार अपनी स्वाधीनता खो दी, वह फिर उस पद को नहीं पा सकता। दासता ही उसकी तक़दीर हो जाती है। मैं अंग्रेज़ों की तरफ़ से निराश हो गया हूँ...
मि॰ सेवक - (रुखाई से) तो क्या आप यह नहीं जानते कि अंग्रेज़ों ने भारत के लिए जो कुछ किया है, वह शायद ही किसी जाति या देश के साथ किया हो ?
कुँ. - नहीं, मैं यह नहीं मानता।
मि. से. - (आश्चर्य से) शिक्षा का इतना प्रचार और भी किसी काल में हुआ था ?
कुँ. - मैं इसे शिक्षा ही नहीं कहता जो मनुष्य को स्वार्थ का पुतला बना दे।
मि. से - रेल, तार, जहाज़, डाक ये सब विभूतियाँ अंग्रेज़ों के ही साथ आयीं।
कुँ. - अंग्रज़ों के बग़ैर भी आ सकती थीं और आयी भी हैं, तो अधिकतर अंग्रेज़ों ही के लिये।
मि. से. - ऐसा न्याय-विधान पहले कभी न था?
कुँ. - ठीक है, ऐसा न्याय-विधान कहाँ था, जो अन्याय को न्याय और असत्य को सत्य सिद्ध कर दे। यह न्याय नहीं गोरखधंधा है।”17
अंग्रेज़ी राज्य में भारतीय जेलख़ानों की दशा तथा क़ैदियों के जीवन पर ‘कायाकल्प’ में विस्तार से लिखा गया है। जिस राज्य में राजनीतिक क़ैदियों को ऐेसे स्थानों पर रखा जाता हो तो उसे क्या सभ्य कहा जा सकेगा?
“उन्हें ईश्वर के दिये हुए वायु और प्रकाश के मुश्किल से दर्शन होते थे। मनुष्य के रचे हुए संसार में मनुष्यत्व की कितनी हत्या हो सकती है, इसका उज्ज्वल प्रमाण सामने था। भोजन ऐसा मिलता था, जिसे शायद कुत्ते भी सूँघकर छोड़ देते। वस्त्र ऐसे जिन्हें कोई भिखारी पैरों से ठुकरा देता, और परिश्रम इतना करना पड़ता था जितना बैल भी न कर सके। जेल शासन का विभाग नहीं, पाशविक व्यवसाय है, आदमियों से जबरदस्ती काम लेने का बहाना, अत्याचार का निष्कंटक साधन। दो रुपये रोज़ काम लेकर, दो आने का खाना खिलाना, ऐसा अन्याय है, जिसकी कहीं नज़ीर नहीं मिल सकती। आदि से अन्त तक सारा व्यापार घृणित, जघन्य, पैशाचिक और नन्दनीय है। अनीति की भी अक़्ल दंग है, दुष्टता भी यहाँ दाँतों तले उँगली दबाती है।”18
भारत में अंग्रेज़ी राज्य की नींव आंतक की शिला पर डाली गई। शासन और शासकीय अधिकारियों का प्रथम और अन्तिम उद्देश्य देश में आंतक का साया डालकर शोषण करना रहा। प्रबल आंतक के कारण जनता को नाना अन्यायों तथा विपत्तियों का सामना करना पड़ा। प्रेमचन्द ने इस आंतकवाद के विरुद्ध लेखनी चलाई, क्योंकि जब तक जनता के हृदय से भय दूर नहीं होता, वह दब्बू बनकर अन्याय को सहन करती जायगी। स्वाधीनता-प्राप्ति का प्रथम आवश्यक चरण हृदयों से अंग्रेज़ी शासन के भय को जड़ से मिटाना था। ‘कर्मभूमि’ में मुन्नी के गोरों द्वारा सतीत्व-हरण की घटना पर सलीम सोचता है :
“इन टके के सैनिकों को इतनी हिम्मत क्यों हुई ? यह गोरे सिपाही इंगलैंड की निम्मतम श्रेणी के मनुष्य होते हैं। इनका साहस कैसे हुआ ? इसलिए कि भारत पराधीन है। यह लोग जानते हैं कि यहाँ के लोगों पर उनका आंतक छाया हुआ है। वह जो अनर्थ चाहे, करें, कोई चूँ नहीं कर सकता। यह आंतक दूर करना होगा। इस पराधीनता की ज़ंजीर को तोड़ना होगा।”19
‘रंगभूमि’ में मि. क्लार्क आतंक की स्थापना के लिए सब कुछ करने को तैयार है। साम्रज्यवादी भावनाओं से मनुष्य का कितना पतन हो सकता है, उसका उदाहरण क्लार्क के अधोलिखित शब्दों से मिलता है जहाँ न्याय जैसी कोई चीज़ नहीं होती :
“हमारा साम्राज्य तभी तक अजेय रह सकता है, जब तक प्रजा पर हमारा आंतक छाया रहे।.... अगर साम्राज्य को रखना ही हमारे जीवन का उद्देश्य है तो व्यक्तिगत भावों और विचारों का यहाँ कोई अस्तित्व नहीं। साम्राज्य के लिए हम बडे़-से-बड़े नुक़सान को उठा सकते हैं, बड़ी-से-बड़ी तपस्याएँ कर सकते हैं। हमें अपना राज्य प्राणों से भी प्रिय है, और जिस व्यक्ति से हमें क्षति की लेशमात्र भी शंका हो, उसे हम कुचल डालना चाहते हैं, उसका नाश कर देना चाहते हैं, उसके साथ किसी भाँति की रियायत, सहानुभूति, यहाँ तक कि न्याय का व्यवहार भी नहीं कर सकते।”20
अपने स्वार्थ के लिए अंग्रेज़ों ने सब कुछ किया। ‘कायाकल्प’ में गुरुसेवक मनोरमा से कहते हैं :
“इनमें उदारता और सज्जनता नाम को भी नहीं होती, बस अपने मतलब के यार हैं ये। इनका धर्म, इनकी राजनीति, इसका न्याय, इनकी सभ्यता केवल एक शब्द में आ जाती है, और वह शब्द है - ‘स्वार्थ’।”21
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के इरादों को बड़े स्पष्ट और बेलाग ढंग से क्लार्क के मुख से प्रेमचन्द कहलाते हैं। इंगलैण्ड में चाहे जिस पार्टी का शासन रहा हो, सभी का प्रयत्न भारत में अपना साम्राज्य-स्थापन और उसकी रक्षा ही रहा। सत्तारूढ़ पार्टी ने जब-जब अत्याचार किये तब-तब अन्य पार्टी ने मात्र दिखावे को उसका विरोध किया। इस प्रकार भारतीयों को भुलावा दिया गया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की निर्लज्जता का तथा उसकी नीति का पर्दाफ़ाश करने से प्रेमचन्द नहीं चूके हैं :
“अंग्रेज़ जाति भारत को अनन्त काल तक अपने साम्राज्य का अंग बनाये रखना चाहती है। कंजरवेटिव हो या लिबरल, रेडिकल हो या लेबर, नेशनलिस्ट हो या सोशलिस्ट, इस विषय में सभी एक ही आदर्श का पालन करते हैं..... आधिपत्य त्याग करने की वस्तु नहीं।....अंग्रेज़ जाति कभी त्याग के लिए, उच्च सिद्धान्तों पर प्राण देने के लिये प्रसिद्ध नहीं रही। सबके-सब साम्राज्यवादी हैं। अन्तर केवल उस नीति में है, जो भिन्न-भिन्न दल इस जाति पर आधिपत्य जमाये रखने के लए ग्रहण करते हैं। कोई कठोर शासन का उपासक है, कोई सहानुभूति का, कोई चिकनी-चुपड़ी बातों से काम निकालने का। बस, वास्तव में नीति कोई नहीं, केवल उद्देश्य है, वह यह कि क्योंकर भारतवासियों पर हमारा आधिपत्य उत्तरोत्तर सुदृढ़ हो।”22
“हमारा प्रथम और अन्तिम उद्देश्य शासन करना है।”23
मि॰ क्लार्क के उपर्युक्त शब्द अंग्रेज़ी राज्य के नग्न स्वरूप को सामने रखते हैं। प्रेमचन्द इस राज्य को मिटाना चाहते थे। क्योंकि उसका अस्तित्व अन्याय पर था। न्याय का उपहास करता हुआ प्रभुसेवक सूरदास से कहता है -
“सरकार यहाँ न्याय करने नहीं आयी है भाई, राज्य करने आयी है। न्याय करने से उसे कुछ मिलता है ? कोई समय वह था जब न्याय को राज्य की बुनियाद समझा जाता था। अब वह ज़माना नहीं है। अब व्यापार का राज्य है और जो इस राज्य को स्वीकार न करे, उसके लिये तारों का निशाना मारनेवाली तोपें हैं। तुम क्या कर सकते हो ? दीवानी में मुक़दमा दायर करोगे ? वहाँ भी सरकार ही के नौकर-चाकर न्याय-पद पर बैठे हुए हैं।”24
अन्यायी शासक दमन का सहारा लेता है। वह राष्ट्रीय भावनाओं, जन-आन्दोलनों, राष्ट्रीय साहित्य आदि को कुचलने के षड्यंत्र रचता है। अंग्रेजी शासन ने जितने दमन-चक्र चलाये उनके उदाहरण अन्यत्र देखने को नहीं मिलेंगे। प्रेमचन्द भारतीय जनता को दमन का वीरता से सामना करने योग्य बनाते हैं। उनमें आत्मसम्मान, साहस तथा देशप्रेम के भावों का प्रसार करते हैं। प्रभुसेवक के मुख से रक्तपात से डरने वालों की कापुरुषता पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने लिखा है :
“जब तक हम खून से डरते रहेंगे, हमारे स्वप्न भी हमारे पास आने से डरते रहेंगे। उनकी रक्षा तो खून ही से होगी। राजनीति का क्षेत्र समर-क्षेत्र से कम भयावह नहीं है। उसमें उतरकर रक्तपात से डरना कापुरुषता है।”25
इस प्रकार प्रेमचन्द ने साहित्य के द्वारा देश और जाति में नयी चेतना उत्पन्न की, स्वाधीनता-संग्राम को वाणी दी और जनता के एक बहुत बड़े तथा महत्त्वपूर्ण भाग को स्वतन्त्रता के रहस्य से परिचित काराया। उनका साहित्य स्वतन्त्रता का सहग प्रहरी है। भारत के स्वाभिमान व गौरव का धरोहर है। जिस देश ने प्रेमचन्द जैसे लेखक उत्पन्न किए हैं वह कभी भी पथभ्रष्ट नहीं हो सकता। वह सदैव एक गत्यात्मक वातावरण में फलेगा-फूलेगा।
प्रेमचन्द का साहित्य केवल भारत की स्वाधीनता का ही साहित्य नहीं है; वरन् संसार की समस्त पीड़ित, दुखी और शोषित जनता का साहित्य है। अन्य पराधीन या अर्द्ध-पराधीन देश उनके साहित्य से प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं; क्योंकि प्रेमचन्द ने स्वातन्त्र्य-भावना को कभी और कहीं भी संकीर्ण रूप में नहीं देखा। जनवादी होने के कारण वे मानव-मात्र के हैं और संत्रस्त मानवता को, निश्चय ही, उनके साहित्य से सदैव आत्मबल मिलेगा।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘प्रेमचंद : घर में’, पृ. 84
2 ‘प्रेमचंद : घर में’, पृ. 94.95
3 ‘हंस’, मार्च, 1930
4 ‘कर्मभूमि’, पृ. 232
5 ‘कर्मभूमि’, पृ. 234
6 ‘कर्मभूमि’, पृ. 266
7 ‘शांति के योद्धा प्रेमचंद’, पृ. 6
8 ‘प्रेमचंद : घर में’, पृ. 128-129
9 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 319
10 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 281
11 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 84
12 ‘सेवासदन’, पृ. 155
13 ‘सेवासदन’, पृ. 244-245
14 ‘सेवासदन’, पृ. 283
15 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 390
16 ‘कर्मभूमि’, पृ. 56
17 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 269
18 ‘कायाकल्प’, पृ.184
19 ‘कर्मभूमि’, पृ. 184
20 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 27
21 ‘कायाकल्प’, पृ.212-213
22 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 186
23 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 342
24 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 150-151
25 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 422
रियासतों और देशी नरेशों की समस्या
प्रेमचन्द ने रियासतों और देशी नरेशों की तत्कालीन स्थिति का ‘रंगभूमि’ और ‘कायाकल्प’ में विस्तार से उल्लेख किया है तथा उनके भविष्य पर भी प्रकाश डाला है।
भारतीय रियासतें स्वतंत्रता-प्राप्ति में एक बड़ी रुकावट थीं। इन प्रदेशों की जनता की स्थिति ब्रिटिश भारत से भी गई-गुज़री रही। राजाओं में नैतिक बल बिलकुल न था। वे ब्रिटिश शासकों के संकेतों पर नाचने वाले मात्र कठपुतली थे। इन राजाओं ने ब्रिटिश शासन की चाकरी करके साम्राज्यवाद की जड़ां को मज़बूत किया और सामंत-प्रथा को पुनर्जीवित किया। एक समय था जबकि राजा ईश्वर का अवतार माना जाता था। जनता उसका सम्मान करती थी। किन्तु, ‘राजावाद’ में जो मूल दोष थे, वे आगे सामने आए और राजसत्ता दूषित हो उठी। राजाओं के नैतिक आदर्श गिर गए, जनता के हृदय में उनके प्रति श्रद्धा की भावना मिट गई। राजा-महाराजाओं और उनके दीवानों-सामंतों के अत्याचार और दमन के विरुद्ध जनता उठ खड़ी हुई। लेकिन इन रियासतों की जनता की मुक्ति का प्रश्न भारतीय स्वाधीनता-प्राप्ति का ही एक अंग था। जब तक भारत से ब्रिटिश साम्राज्य का अन्त नहीं होता, तब-तक इन रियासतों में भी कोई सीमित क्रांति न तो सफल ही हो सकती थी और न स्थायी ही। पर, इन प्रदेशों की जनता में स्वाधीनता के भावों का प्रसार करना आवश्यक था। लेखकों का भी यह कर्तव्य था कि वे इन रियासतों के मनमानी शासन के विरुद्ध आवाज़ उठाएँ और इन प्रदेशों की जनता का साथ दें, उनके आन्दोलनों को बल पहुँचाएँ तथा राजसत्ता की निरर्थकता प्रमाणित करें, जिससे एक स्वाधीन जनवादी भारत का निर्माण हो सके।
प्रेमचन्द ने आजन्म साम्राज्यवाद और उनको बल पहुँचाने वाली शक्तियों से लोहा लिया। सामंती तत्त्वों से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। व्यक्तियों के प्रति घृणा उत्पन्न न करना एक अलग बात है और किसी प्रणाली से समझोता करना नितांत अलग। प्रेमचन्द ने राजसत्ता की प्रणाली के कभी समझौता नहीं किया। ‘कायाकल्प’ और ‘रंगभूमि’ के पढ़ने पर राजसत्ता पर किसी की श्रद्धा नहीं जमेगी। प्रेमचन्द ने उस व्यवस्था के प्रति असंतोष व्यक्त किया है तथा उसमें पाये जाने वाले दोषों को बड़े ही यथार्थ ढंग से प्रस्तुत किया है। यही नहीं, उन्होंने राजा-महाराजाओं के चित्रण में भी किसी तरह का पक्षपात नहीं किया। उनकी दुर्बलताओं का इतना नग्न और व्यंग्यात्मक चित्रण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।
राजसत्ता से संबंधित एक घटना स्वयं प्रेमचन्द के जीवन में भी आती है। श्रीमती शिवरानी देवी ने ‘प्रेमचन्द घर में’ इसका उल्लेख इस प्रकार किया है : “सन् ’24 का जमाना था। आप लखनऊ में थे। ‘रंगभूमि’ छप रही थी। अलवर रियासत से राजा साहब की चिट्ठी लेकर पाँच-छः सज्जन आये। राजा साहब ने अपने पास रहने के लिए बुलाया था। राजा साहब उपन्यास-कहानियों के शौकीन थे। राजा साहब ने 400/- प्रतिमास नक़द, मोटर, बँगला देने को लिखा था। सपरिवार बुलाया था। उन माहशयों को यह कहकर कि मैं बहुत बाग़ी आदमी हूँ, इसी वज़ह से मैंने सरकारी नौकरी छोड़ी है, राजा साहब को एक ख़त लिखा, ‘मैं आपको धन्यवाद देता हूँ कि आपने मुझे याद किया। मैंने अपना जीवन साहित्य-सेवा के लिए लगा दिया है। मैं जो कुछ लिखता हूँ, उसे आप पढ़ते हैं, इसके लिए आपको धन्यवाद देता हूँ। आप जो पद मुझे दे रहे हैं, मैं उसके योग्य नहीं हूँ। मैं इतने में ही अपना सौभाग्य समझता हूँ कि आप मेरे लिखे को ध्यान से पढ़ते हैं। अगर हो सका तो आपके दर्शन के लिए कभी आऊंगा। - एक साहित्य-सेवी, धनपत राय।”1
प्रेमचन्द जानते थे कि रियासतों का वातावरण कितना दूषित है, जहाँ जाकर भले लोग भी बिगड़ जाते हैं; क्योंकि मूलभूत दोष तो उस व्यवस्था का है। अतः उन्होंने न तो उस व्यवस्था को सुधारने या उसे आदर्श बनाने का प्रयत्न किया और न उससे समझौता ही किया। यदि राजाओं के प्रति प्रेमचन्द कटुता उत्पन्न न कर सके तो यह उनके मानवतावादी जीवन-दर्शन के कारण है। व्यक्ति-विशेष के प्रति कटुता उत्पन्न न कर उन्होंने उस व्यवस्था के प्रति ही विरोध प्रकट किया है।
देशी नरेशों और रियासतों पर प्रेमचन्द के विचारों को जानने के लिए ‘रंगभूमि’ (1924) और ‘कायाकल्प’ (1928) में चित्रित रियासतों और देशी नरेशों के जीवन पर दृष्टि डालना आवश्यक है। ‘रंगभूमि’ में कुँवर भरतसिंह, रानी जाद्दवी और विनयसिंह बनारस से संबंधित हैं, म्युनिसिपैलिटी के प्रधान, कुँवर भरतसिंह के दामाद महेन्द्रकुमार सिंह चतारी के राजा हैं, इंदु उनकी पत्नी हैं। बनारस के अतिरिक्त राजपूताने की रियासत उदयपुर-जसवंतनगर का भी विस्तार से चित्रण किया गया है; यहाँ उदयपुर के माहराजा और दीवान सरदार नीलकंठ सिहं प्रमुख हैं। इन दोनों प्रदेशों का संबंध ज़िला हाकिम और ज़िलाधीश मिस्टिर जोसफ़ विलियम क्लार्क से आता है। उपर्युक्त पात्र रियासतों और देशी नरेशों की यथार्थ स्थिति का चित्र उपस्थित कर देते हैं। इसी प्रकार ‘कायाकल्प’ में जगदीशपुर की महारानी देवप्रिया और वहाँ के दीवान ठाकुर हरिसेवक सिंह तथा रानी साहिबा के चचेरे देवर और नए राजा साहब ठाकुर विशालसिंह हैं जिनके वसुमति, रामप्रिया और राहिणी नाम की तीन रानियाँ हैं और जो संतान-कामना के कारण पुत्रवत् चौथी शादी करते हैं। जिस प्रकार ‘रंगभूमि’ में अंग्रेज़ हुक्काम मिस्टर क्लार्क हैं उसी प्रकार ‘कायाकल्प’ में ज़िले के मजिस्ट्रेट मि. जिम और फौज के कप्तान मि. सिम हैं। रियासती वातावरण में भले आदमी भी किस प्रकार बिगड़ जाते हैं यह बताने के लिए ‘रंगभूमि’ में विनय और ‘कायाकल्प’ में चक्रधर की संयोजना हुई है।
इन सब राजाओं के नैतिक बल का बड़ा ही यथार्थ और व्यंग्यात्मक चित्रण प्रेमचन्द ने किया है। उनका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। प्रेमचन्द ने बताया है कि कायरता का दूसरा नाम ‘राजा’ है। राजा से अभिप्राय देशी नरेशों से है जो भय के साक्षात् अवतार बने हुए हैं।
चतारी के राजा महेन्द्रकुमार सिंह अपनी पत्नी इंदु से जो अनेक पक्षों पर वार्तालाप करते हैं, वह उनके वास्तविक रूप को सामने ला देता है। सेवा-समितियों से सहानुभूति रखना भी उनके लिए आपत्तिजनक है। आत्म-स्वाधीनता जैसी कोई चीज़ उनमें नहीं पाई जाती। “तुम्हारी समझ में और मेरी समझ में बड़ा अंतर है। यदि मैं बोर्ड का प्रधान न होता, यदि मैं शासन का एक अंग न होता, अगर मैं रियासत का स्वामी न होता, तो स्वच्छंदता से प्रत्येक सार्वजनिक कार्य में भाग लेता। वर्तमान स्थिति में मेरा किसी संस्था में भाग लेना इस बात का प्रमाण समझा जाएगा कि राज्याधिकारियों को उससे सहानुभूति है। मैं यह भ्रांति नहीं फैलाना चाहता।”2
समिति के सेवक गढ़वाल जाने के लिए स्टेशन पर एकत्रा हो रहे थे। इंदु अपने पिता महेन्द्रकुमार सिंह की कायरता की पर्याप्त भर्त्सना करके विनय से मिलने और समिति के सेवकों को विदा देने स्टेशन जाती है। उसके जाने पर राजा साहब सोचने लगे, ”इसको ज़रा भी चिंता नहीं कि हुक्काम के कानों तक यह बात पहुँचेगी, तो वह मुझे क्या कहेंगे ! समाचार-पत्रों के संवाददाता यह वृत्तांत अवश्य ही लिखेंगे, और उपस्थित महिलाओं में चतारी की रानी का नाम मोटे अक्षरों में लिखा हुआ नज़र आएगा।”3
आगे जब उनका स्वाभिमान (?) जाग्रत होता है तो वे स्वयं स्टेशन पहुँचते है और इंदु से अपनी पूर्व दुर्बलता भी निःसंकोच स्वीकार करते हैं, ”‘इंदु इतना अविश्वास मत करो...तुम्हारी यह बात मेरे मन में बैठ गई कि हुक्काम का विश्वासपात्र बने रहने के लिए अपनी स्वाधीनता का बलिदान क्यों करते हो। नेकनाम रहना अच्छी बात है, किंतु नेकनामी के लिए सच्ची बातों में दबना अपनी आत्मा की हत्या करना है।”4 पर, जब उनके स्टेशन जाने का समाचार दैनिक पत्र में आलोचना सहित प्रकाशित हुआ तब वह सारा स्वाभिमान छू-मंतर हो गया। कमिश्नर साहब की संदेहात्मक दृष्टि से विचलित हो उठे। सारी रात इसी चिंता में डूबे रहे और और प्रातःकाल जब दे-चार मित्र उनसे मिलने आए तब उसी समाचार की चर्चा हो उठी। एक साहब बोले, “मैं कमिश्नर से मिलने गया था, तो वह इसी लेख को पढ़ रहा था और रह-रहकर ज़मीन पर पैर पटकता था।” इस पर राजा महेन्द्रकुमार सिंह के होश और उड़ गए। वे सीधे घबराये हुए कमिश्नर के बँगले पर पहुँचे। वहाँ अरदली के कहने पर एक घंटे प्रतीक्षा करते रहे और ऐसा कहकर कि मिस्टर जान सेवक को पांडेपुर की जमीन दिलाने के लिए जनता का विश्वासपात्र बनने का ढोंग रचा था, कमिश्नर को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया। यही नहीं, मिस्टर सेवक तक से उन्हें डर है; क्योंकि मिस्टर सेवक और मिस्टर क्लार्क के सम्बन्ध अच्छे हैं। इस कारण वे अनुचित ढंग से भी मिस्टर सेवक की सहायता करने को उद्यत हैं। “तुम जानती हो, मिस्टर सेवक की यहाँ के अधिकारियों से कितनी राह-रस्म है। मिस्टर क्लार्क तो उनके द्वार के दरबान बने हुए हैं। अगर मैं उनकी इतनी सेवा न कर सका, तो हुक्काम का विश्वास मुझ से उठ जाएगा।”5
इस पर इंदुमती की टिप्पणी उनके सारे अधिकारों से खोखलेपन को उघाड़कर रख देती है, “मैं नहीं जानती थी कि प्रधान की दशा इतनी शोचनीय होती है।“6
प्रेमचन्द आगे चलकर प्रधान की यथार्थ स्थिति का चित्रण और विस्तार से करते हुए लिखते हैं, ”प्रधान केवल राज्याधिकरियों के हाथ का खिलोना है। उनकी इच्छा से जो चाहे करे, उनकी इच्छा के प्रतिकूल कुछ नहीं कर सकता। वह संख्या-बिन्दु है, जिसका मूल्य केवल दूसरी संख्याओं के सहयोग पर निर्भर है।”7
स्वयं महेन्द्रकुमार सिंह के मुख से राजवर्ग की कापुरुषता और विवशता का वर्णन करवाते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं, ”तुम्हें मालूम नहीं, इन अंग्रेज़ी हुक्काम के कितने अधिकार होते हैं। यो चाहूँ तो इसे नौकर रख लूँ, मगर इसकी एक शिकायत से मेरी आबरू ख़ाक में मिल जाएगी। ऊपर वाले हाकिम इसके खिलाफ़ मेरी एक भी न सुनेंगे। रईसों को इतनी स्वतन्त्रता भी नहीं, जो एक साधारण किसान को है। हम सब इनके हाथों के खिलौने हैं, जब चाहे, ज़मीन पर पटक कर चूर-चूर कर दें।”8 और इस दयनीय दीनता पर इंदु अपने मन में सोचती है, “बच्चे हौआ से भी इतना न डरते होंगे।”9 राजाओं की भयग्रस्त स्थिति पर इससे सुन्दर व्यंग्य और क्या हो सकता है !
इसी प्रकार राजपूताने की रियासत उदयपुर-जसवंतनगर का भी वर्णन ‘रंगभूमि’ में मिलता है। रेज़ीडेंट का दबदबा कितना रहता है इस पर दीवान सरकार नीलकंठ सिह विनय से कहते हैं, “रेजीडेंट साहब की इच्छा के विरुद्ध हम तिनका तक नहीं हिला सकते।”10 महाराजा अपने को ईश्वर का अवतार समझते हैं, पर वास्तव में देखा जाए तो वे भय के अवतार हैं। विनय से हुआ उनका वार्तलाप उनकी कायरता और नैतिक पतन पर भलि-भाँति प्रकाश डाल देता है – “शिव-शिव ! बेटा, तुम राजनीति की चालें नहीं जानते। यहाँ एक कैदी भी छोड़ा गया, और रियासत पर वज्र गिरा। सरकार कहेगी, मेम को न जाने किस नीयत से छिपाए हुए है, कदाचित् उस पर मोहित है, तभी तो पहले दण्ड का स्वाँग भरकर विद्रोहियों को छोड़ देता है। शिव-शिव! रियासत धूल में मिल जाएगी, रसातल को चली जाएगी। कोई न पूछेगा कि यह बात सच है या झूठ। कहीं इस पर विचार न होगा। हरि-हरि ! हमारी दशा साधारण अपराधियों से भी गई-बीती है। उन्हें तो सफ़ाई देने का अवसर दिया जाता है, न्यायालय में उन पर कोई धारा लगाई जाती है और उसी धारा के अनुसार उन्हें दण्ड दिया जाता है। हमसे कौन सफ़ाई लेता है। हमारे लिए कौन-सा न्यायालय है ! हरि-हरि ! हमारे लिए न कोई कानून है, जो अपराध चाहा, लगा दिया। जो दण्ड चाहा दे दिया। न कहीं अपील है, न फ़रियाद। राजे विषय-प्रेमी कहलाते हैं ही, उन पर यह दोषारोपण होते कितनी देर लगती है ! कहा जाएगा, तुमने क्लार्क की अति रूपवती मेम को अपने रनिवास में छिपा लिया और झूठ-मूठ उड़ा दिया कि वह गुम हो गई। हरि-हरि ! शिव-शिव ! सुनता हूँ, बड़ी रूपवती स्त्री है, चाँद का टुकड़ा है, अप्सरा है। बेटा, इस अवस्था में यह कलंक न लगाओ। वृद्धावस्था भी हमें ऐसे कुत्सित दोषों से नहीं बचा सकती। मशहूर है, राजा लोग रसादि का सेवन करते हैं, इसलिए जीवन-पर्यन्त हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। शिव-शिव ! यह राज्य नहीं है, अपने कर्मों का दण्ड है। नकटा जिये बुरे हवाल ! शिव-शिव! जब कुछ नहीं हो सकता। सौ-पचास निर्दोष मनुष्यों का जेल में पड़ा रहना कोई असाधारण बात नहीं। वहाँ भी तो भोजन-वस्त्र मिलता है ही.....
विनय को राज से घृणा हो हो गई। सोचा, इतना नैतिक पतन, इतनी कायरता ! यों राज्य करने से डूब मरना अच्छा है।”11
और उधर कुँवर भरतसिंह भी भयभीत होकर अपनी रियासत कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स के सुपुर्द कर देते हैं। इस प्रकार प्रेमचन्द ने इन राजा-महाराजाओं के व्यक्तित्व को बड़े ही यथार्थ ढंग से चित्रित किया है, उस पर कोई आवरण नहीं डाला।
रियासत पर वास्तविक शासन पोलीटिकल एजेण्ट का रहता है; राजा उसी के संकेत पर नाचता है। उसको प्रसन्न करने के लिए वह अपने व्यक्तित्व का सर्वनाश तो करता ही है, प्रजा पर अत्याचार करने से कभी नहीं चूकता। मिस्टर क्लार्क पोलीटिकल एजेंट के पद का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए सोफिया से कहते हैं, “‘हाँ, मैं एक रियासत का पोलीटिकल एजेण्ट बना दिया जाऊंगा। यह पद बड़े मज़े का है। राजा तो केवल नाम के लिए होता है, सारा अख़्तियार तो एजेण्ट ही के हाथों में रहता है।”12 उसका अधिकार सर्वत्र, यहाँ तक कि राजा के महल के अंदर भी होता है।... वह राजा के खाने, सोने, आराम करने का समय तक नियत कर सकता है। राजा किससे मिले, किससे दूर रहे, किसका आदर करे, किसकी अवहेलना करे, ये सब बातें एजेण्ट के अधीन हैं। वह यहाँ तक निश्चत करता है कि राजा की मेज़ पर कौन-कौन से प्याले आएंगे, राजा के लिए कैसे और कितने कपड़ों की ज़रूरत है, यहाँ तक कि कि राजा के विवाह का भी निश्चय करता है। बस, यों समझो कि वह रियासत का ख़ुदा होता है।”13
इंदु के दुर्व्यवहार पर सोफ़िया के मुख से प्रेमचन्द कहलवाते हैं, “इसे अपनी रियासत का घमंड है ; मैं दिखा दूंगी कि वह सूर्य का स्वयं प्रकाश नहीं, चाँद की पराधीन ज्योति है। इसे मालूम हो जाएगा कि राजा और रईस, सबके-सब शासनाधिकारियों के हाथ के खिलौने हैं।”14
सूरदास पर अत्याचार किए जाने के निर्णय पर सोफ़िया मिस्टर क्लार्क को इस बात का परिचय देती है कि राजा साहब इसका घोर विरोध करेंगे, इस पर मिस्टर क्लार्क किस ढंग से उत्तर देते हैं, “थुह ! उनमें इतना नैतिक साहस नहीं है। वह जो कुछ करते हैं, हमारा रुख़ देखकर करते हैं। इसी वज़ह से उन्हें कभी असफलता नहीं होती। हाँ, उनमें यह विशेष गुण है कि वह हमारे प्रस्तावों का रूपान्तर करके अपना काम बना लेते हैं और उन्हें जनता के सामने ऐसी चतुरता से उपस्थित करते हैं कि लोगों की दृष्टि में उनका सम्मान बढ़ जाता है।”15
‘कायाकल्प’ में भी प्रेमचन्द राजा विशालसिंह का व्यक्तित्व इसी रंग में रँगकर चित्रित करते हैं। विशालसिंह ज़िले के मजिस्ट्रेट मिस्टर जिम से जब मिलने जाते हैं तब उनके साथ किस प्रकार का व्यवहार होता है, “थोड़ी देर तक तो राजा साहब बाग में टहलते रहे। फिर मोटर पर जा बैठे और घंटे भर इधर-उधर घूमते रहे। 8 बजे वह लौटकर आए, तो मालूम हुआ, अभी साहब नहीं आए। फिर लौटे, इसी तरह घंटे-घंटे-भर के बाद वह तीन बार आए, मगर साहब बहादुर अभी तक न लौटे थे।
सोचन लगे, इतनी रात गये अगर मुलाक़ात हो भी गई, तो बातचीत करने का मौका कहाँ ! शराब के नशे में चूर होगा। आते ही सोने चला जाएगा। मगर कम-से-कम मुझे देखकर इतना तो समझ जाएगा कि वह बेचारे अभी तक खड़े हैं। शायद दया आ जाए।”16
और जिम के आने पर :
“जिम - ओ ! डैम राजा अभी निकला जाओ। तुम भी बाग़ी हो तुम बाग़ी की सिफ़ारिश करता है, बागी को पनाह देता है। सरकार का दोस्त बनता है। अभी निकल जाओ। राजा और रैयत सब एक है। हम किसी का भरोसा नहीं करता। हमको अपने ज़ोर का भरोसा है। राजा का काम बाग़ियों को पकड़वाना उनका पता लगाना है। उनका सिफ़ारिश करना नहीं। अभी निकल जाओ।
यह कहकर राजा साहब की ओर झपटा... राजा दीन भाव से बोले - साहब, इतना ज़ुल्म न कीजिए । इसका जरा भी खयाल न कीजिएगा कि मैं शाम से अब तक आपके रदवाज़े पर खड़ा हूँ! कहिए तो आपके पैरों पडूँ। जो कहिए, करने को हाज़िर हूँ। मेरी अर्ज़ कबूल कीजिए।
जिम - ओ डैमिट ! बक-बक मत करो, सूअर, अभी निकल जाओ, नहीं तो हम ठोकर मारेगा।”17
आगे प्रेमचन्द ने विशालसिंह का जो क्रोध और मिस्टर जिम से उनका मल्ल-युद्ध बताया है उसका कोई महत्त्व नहीं, क्यांकि जिम उस समय शराब में धुत् था।
विशाल सिंह के राजगढ़ी के उत्सव में शमिल होने के लिए दूर-दूर से राजा-महाराजा आए। प्रेमचन्द उनके कैम्प का वर्णन करते हुए लिखते हैं, “बड़े-बड़े नरेश आए थे। कोई चुने हुए दरबारियों के साथ, कोई लाव-लश्कर लिए हुए। कहीं ऊदी वर्दियों की बहार थी, तो कही केसरिये बाने की। कोई रत्नजटित आभूषण पहने, कोई अंग्रेज़ी सूट से लैस, कोई इतना विद्वान कि विद्वानों में शिरोमणि, कोई इतना मूर्ख कि मूर्ख-मंडली की शोभा। कोई 5 घंटे स्नान करता था तो काई सात घंटे पूजा। कोई दो बजे रात को सोकर उठता था, कोई दो बजे दिन को। रात-दिन तबले ठनकते रहते थे। कितने ही महाशय ऐसे भी थे, जिनका दिल अंग्रेज़ी कैम्प का चक्कर लगाने में ही कटता था। दो-चार सज्जन प्रजावदी भी थे।...विद्वान या मूर्ख, राजसत्ता के स्तम्भ या लोकसत्ता के भक्त, सभी अपने को ईश्वर का अवतार समझते थे, सभी ग़रूर के नशे में मतवाले, सभी विलासिता में डूबे हुए, एक भी ऐसा नहीं जिसमें चरित्र-बल हो, सिद्धांत-प्रेम हो, मर्यादा-शक्ति हो।”18
उसी कैम्प के राजाओं का चित्रण करते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं :
“राजा-रईस अपनी वासनाओं के सिवा और किसी के गुलाम नहीं होते।”19
इस प्रकार राजाओं की कापुरुषता तथा उनके विलासी जीवन का चित्रण ‘रंगभूमि’ और ‘कायाकल्प’ में स्पष्ट रूप से किया गया है। इन राजाओं और रियासतों के अस्तित्व के पीछे जो कारण हैं उनका स्पष्टीकरण इंदु के मुख से प्रेमचन्द करवाते हैं, “हमारे पूर्वजों ने अंग्रेज़ों की उस समय प्राण-रक्षा की थी जब उनकी जानों के लाले पड़े हुए थे। सरकार उन अहसानों को मिटा नहीं सकती।”20 राजाओं ने जो देशद्रोही कार्य तथा देश के प्रति जो विश्वासघात किया उसके फलस्वरूप ‘बख़्शीश’ के रूप में उन्हें रियासतें दी गयीं।
राजाओं के चित्रण तक ही प्रेमचन्द इस समस्या को स्पर्श नहीं करते वरन् और भीतर रियासतों के शासन-प्रबंध पर भी प्रकाश डालते हैं। वास्तव में रियासतों के शासन-प्रबन्ध की दूषित प्रणाली बताना ही प्रेमचन्द का मुख्य उद्देश्य है। राजाओं का तो वे चित्रण करके ही छोड़ देते हैं, उनके प्रति घृणा का कोई भाव पैदा नहीं होने देते। रियासती प्रबन्ध पर उन्होंने जगह-जगह जिस अतिरंजना या कटुता का परिचय दिया है, वह उक्त व्यवस्था की असारता व निरर्थकता का परिचायक है। जसवन्तनगर के शासन-प्रबन्ध पर डाकू वीरपाल विनय के प्रश्न पर टिप्पणी करता है -
“वीरपाल-... ये लोग प्रजा को दोनों हाथों से लूट रहे हैं। इनमें न दया है, न धर्म। हैं हमारे ही भाई-बन्द, पर हमारी गर्दन पर छुरी चलाते हैं। किसी ने ज़रा साफ़ कपड़े पहने, ओर लोग उनके सिर हुए। जिसे घूस न दीजिए, वही आपका दुश्मन है। चोरी कीजिए, डाके डालिए, घरों में आग लगाइए, गरीबों का गला काटिए, कोई आपसे न बोलेगा। बस, कर्मचारियों की मुट्ठियाँ गर्म करते रहिए। दिन-दहाड़े खून कीजिए, पर पुलिस की पूजा कर दीजिए, आप बेदाग़ छूट जाएंगे, आपके बदले कोई बेक़सूर फाँसी पर लटका दिया जाएगा। कोई फ़रियाद नहीं सुनता। कौन सुने, सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। यही समझ लीजिए कि हिंसक जंतुओं का एक गोल है, सबके-सब मिलकर शिकार करते हैं मिल-जुलकर खाते हैं।”21
रियासत का डाकिया विनय से कहता है- “तलब है, वह साल-भर तक नहीं मिलती, लेकिन यहाँ जो ऊँचे ओहदे पर है, उसका पेट भी उतना ही बड़ा है।”22
न्यायालयों पर व्यंग्य करता हुआ वीरपाल विनय से कहता है, “यहाँ के न्यायालयों से न्याय की आशा रखना चिड़ियों से दूध निकलाना है। हम सबके-सब इन्हीं अदालतों के मारे हुए हैं। मैंने कोई अपराध नहीं किया था, मैं अपने गाँव का मुखिया था; किन्तु मेरी सारी जायदाद केवल इसलिए जब्त कर ली गयी कि मैंने एक असहाय युवती को इलाक़ेदार के हाथ से बचाया था।.... बस, इलाकेदार उसी दिन से मेरा जानी दुश्मन हो गया। मुझ पर चोरी का अभियोग लगाकर क़ैद करा दिया। अदालत अंधी थी, जैसा इलाक़ेदार ने कहा, वैसा न्यायाधीश ने किया। ऐसी अदालतों से आप व्यर्थ की आशा रखते हैं।”23
बड़े-बड़े अफ़सरों पर व्यंग्य करते हुए वीरपाल विनय से कहता है, “रियासत आप जैसे धर्मपरायण, निर्भीक और स्वाधीन पुरुष के रहने योग्य जगह नहीं है, यहाँ उसी का निबाह है, जो परले दर्ज़े का घाघ, कपटी, पाखंडी और दुरात्मा हो, अपना काम निकालने के लिए बुरे-से-बुरा काम करने से भी न हिचके।”24
वीरपाल ने जहाँ रियासत की स्थिति का वर्णन सीधे ढंग से अथवा व्यंग्य के साथ किया है; वहाँ दीवान बडे़ आलंकारिक ढंग से शासन का वर्णन करते हैं, “रियासतों को आप सरकार की महलसरा समझिए, जहाँ सूर्य का भी गुज़र नहीं हो सकता। हम सब इस हरमसरा के बख्शी ख्वाजासरा हैं। हम किसी की प्रेमरसपूर्ण दृष्टि को इधर उठने न देंगे, कोइ मनचला जवान इधर क़दम रखने का साहस नहीं कर सकता। अगर ऐसा हो, तो हम अपने पद के अयोग्य समझे जाएँ। हमारा रसीला बादशाह, इच्छानुसार मनोविनोद के लिए, कभी-कभी पदार्पण करता है। हरमसरा के सोये भाग्य उस दिन जाग जाते हैं। ... आपने इस हरमसरा में घुस आने का दुस्साहस किया है, यह हमारे रसीले बादशाह की एक आँख नहीं भाता, और आप अकेले नहीं हैं, आपके साथ समाज-सेवकों का एक जत्था है। इस जत्थे के सम्बन्ध में भाँति-भाँति की शंकाएँ हो रही हैं। नादिरशाही हुक़्म है कि जितनी जल्द हो सके, यह जत्था हरमसरा से दूर हटा दिया जाए।.....हम आपको अपने प्रेम-कुंज में आग न लगाने देंगे।”25
रियासतों का सम्बन्ध अफ़सरों की मनमानी पर निर्भर है। दीवान साहब कहते हैं, “सरकार की रक्षा में हम मनमानी कर वसूल करते हैं, मनमाने कानून हैं, मनमाने दंड लेते हैं, कोई चूँ नहीं कर सकता।”26
विनयसिंह के कारावास-दंड पर डाक्टर गांगुली अधिकारियों की निरंकुशता पर कहते हैं, “वहाँ का हाकिम लोग खु़द पतित है। डरता है, रियासत में स्वाधीन विचारों का प्रसार हो जाएगा, तो हम प्रजा को कैसे लूटेगा। राजा मसनद लगाकर बैठा रहता है, उसका नौकर-चाकर मनमाना राज करता है।”27
अफ़सरों की मनमानी का एक और उदाहरण वह घोषणा है जिसमें कहा गया है कि जसवंतनगर एक सप्ताह के लिए खाली कर दिया जाए। इस घोषणा पर सोफ़िया का मत रियासतों के प्रबन्ध की खुली आलोचना करता है, “ऐसी ज़्यादती रियासतों के सिवा और कहीं नहीं हो सकती।”28
प्रेमचन्द बताते हैं कि इन रियासतों का शासन-प्रबन्ध न्याय पर नहीं, आंतक पर निर्भर है। सरदार नीलकंठ सिंह विनय से कहता है, “......उनके दिल से रियासत का भय जाता रहेगा, और जब भय न रहा, तो राज्य भी नहीं रह सकता। राज्य-व्यवस्था का आधार न्याय नहीं, भय है।”29
रियासती अफ़सरों के मनमाने अत्याचारों का वर्णन ‘कायाकल्प’ में भी विस्तार से किया गया है। मनोरमा चक्रधर से कहती है, “अभी एक गोरा आ जाए, तो घर में दुम दबाकर भागेंगे। उस वक्त जबान भी न खुलेगी। उससे ज़रा आँखें मिलाइए तो देखिए, ठोकर जमाता है या नहीं। उससे तो बोलने की हिम्मत नहीं, बेचारे दीनों को सताते फिरते हैं। यह तो मारे को मारना हुआ। इसे हुकूमत नहीं कहते। यह चोरी भी नहीं है। यह केवल मुरदे और गिद्ध का तमाशा है।”30
आदर्श राजाओं की बात अब कल्पना में ही सत्य हो सकती है। प्रेमचन्द इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थे, इसलिए उन्होंने उस आदर्श व्यवस्था को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न नहीं किया। समय बदल जाने पर आदर्श भी बदल जाते थे। प्रेमचन्द लिखते हैं, “अब ज़माना नहीं रहा, जब राजे-रईसों के नाम आदर से लिए जाते थे, जनता को स्वयं ही उनमें भक्ति हाती थी। वे दिन विदा हो गए। ऐश्वर्य-भक्ति प्राचीन काल की राज्य-भक्ति का एक अंश थी। प्रजा अपने राजा, जागीरदार, यहाँ तक कि अपने ज़मींदार पर सिर कटा देती थी। वह सर्वमान्य नीति-सिद्धान्त था कि राजा भोक्ता है, प्रजा भोग्य है। यही सृष्टि का नियम था, लेकिन आज राजा और प्रजा में भोक्ता और भोग्य का सम्बन्ध नहीं है, जन-सेवक और सेव्य का सम्बन्ध है। अब अगर किसी राजा की इज्ज़त है, तो उसकी सेवा-प्रवृत्ति के कारण,अन्यथा उसकी दशा दाँतों तले दबी हुई जिह्ना की-सी है।”31
फिर रियासतों की समस्या क्या है? प्रेमचन्द विनय के एक वाक्य में रियासतों के भविष्य पर लिखते हैं, “इससे तो यह कहीं अच्छा था कि रियासतों का निशान ही न रहता।”32 रियासतों और राजाओं की निरर्थकता प्रेमचन्द ने ‘रंगभूमि’ और ‘कायाकल्प’ में भली-भाँति प्रकट कर दी है। रियासतों और देशी नरेशों का सारा दबदबा अंग्रेज़ी सत्ता के कारण था, यह बात आज सिद्ध हो चुकी है।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘प्रेमचंद : घर में’, पृ. 97
2 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 272
3 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 275
4 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 280
5 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 282
6 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 287
7 वही
8 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 288
9 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 294
10 वही
11 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 231
12 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 207-209
13 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 410
14 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 414
15 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 343
16 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 347-348
17 ‘कायाकल्प’, पृ. 205-206
18 ‘कायाकल्प’, पृ. 134
19 ‘कायाकल्प’, पृ. 146
20 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 371
21 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 302-303
22 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 304-305
23 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 313-314
24 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 314
25 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 319-320
26 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 321
27 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 429
28 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 36
29 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 200
30 ‘कायाकल्प’, पृ. 133
31 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 266
32 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 329
साम्प्रदायिक समस्या
यहाँ साम्प्रदायिकता से अभिप्राय हिन्दू और मुसलमान सम्प्रदायों से है। भारत में हिन्दुत्व और इस्लाम के झगड़े बहुत पुराने समय से चले आ रहे हैं। अतः हिन्दू-मुस्लिम एकता की समस्या नई नहीं है; उसका अपना इतिहास है। इस्लाम धर्म जेता बनकर इस देश में आया। हिन्दुत्व का विनाश करके उसने अपना प्रसार करना चाहा। इस्लाम की मज़हबी कट्टरता ने उसे और उग्र बना दिया। अतः प्रारम्भ में इस्लाम एक आक्रमक शक्ति थी। मुग़ल शासनकाल में उसे फैलाने के सभी अच्छे-बुरे साधन काम में लाये गए। दुर्भाग्य से, हिन्दू-मुसलमानों के सम्बन्धों में कटुता की भावना प्रारम्भ से ही उत्पन्न हो गई थी। मध्ययुगीन सन्तों और सूफ़ियों ने हिन्दू-मुस्लिम भेद-भाव दूर करने में काफ़ी सहायता पहुँचाई। यदि सन्तों की परम्परा आगे और विकसित हुई होती तो सम्भव था, उक्त समस्या का महत्त्व नगण्य रह जाता, लेकिन ब्रिटिश शासन का सबसे बड़ा दुष्परिणाम हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य के रूप में सामने आया। हिन्दुओं-मुसलमानों को आपस में लड़ाकर अंग्रेज़ों ने भारत में अपने शासन की नींव मज़बूत की और कूटनीतिक तौर-तरीक़ों से ऐसी भयावह स्थिति पैदा कर दी कि उक्त समस्या दिन-पर-दिन उलझती ही गई। उसे सुलझाने के सारे नेक उपाय व्यर्थ प्रमाणित हुए। इतिहास से यह बात भली-भाँति स्पष्ट हो जाती है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या का आधार धार्मिक नहीं है, वरन् उसका विशिष्ट राजनीतिक पहलू है; जिसने एकता के किसी भी प्रयत्न को कारगर सिद्ध नहीं होने दिया। ऊपरी तौर पर उसका रूप धार्मिक दिखाई देता है, लेकिन वास्तव में धर्म को तो, राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा पूरी करने के लिए, मात्रा ‘हथियार’ के रूप में इस्तेमाल किया गया। यदि राजनीतिक पहलू मूल में नहीं होता तो केवल धर्म के कारण इन दो जातियों में इतना वैमनस्य कभी नहीं बढ़ता। भारत में अनेक धर्मावलम्बी रहते हैं और उनमें इतनी कटुता ढूँढे़ भी नहीं मिलती; जितनी कि हिन्दू और इस्लाम धर्म के मानने वालों में पाई जाती है।
इस राजनीतिक पहलू से हिन्दू और मुसलमान कभी अपरिचित नहीं रहे, लेकिन व्यक्तिगत स्वार्थों ने उन्हें उचित मार्ग पर नहीं आने दिया। हिन्दुओं ओर मुसलमानों की एक मिली-जुली संस्कृति का निर्माण करने के प्रयत्न जब निजी स्वार्थों से टकराये, तब मज़हब के नाम पर सीधी और धर्मपरायण जनता को बरगलाया गया ओैर दंगे-फ़सादों को प्रोत्साहित किया गया। अन्त मे अंग्रेजों की चाल सफल हुई। देश को कमज़ोर बनाने की नीयत से उसका विभाजन कर दिया गया। लेकिन देश का विभाजन हिन्दू-मुस्लिम समस्या का कोई हल नहीं है। केवल कुछ लोगों की स्वार्थ-भावना की सिद्धि व तृप्ति ही इससे हुई।
प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में जिस तरह अनेक समस्याओं को स्थान दिया है; उसी तरह उनमें हिन्दू-मुस्लिम समस्या का भी प्रवेश किया गया है। ‘कायाकल्प’ में तो इस विषय पर बहुत विस्तार से लिखा गया है। प्रेमचन्द हिन्दू-मुस्लिम एकता के जबरदस्त समर्थक थे। उनकी रचनाएँ हिन्दू और मुसलमान दोनों समान चाव से पढ़ते हैं। उपन्यासों के अतिरिक्त अनेक कहानियों में भी वे इस प्रश्न को लेकर चले हैं और उनमें वहाँ मानवीय आदर्शों की प्रतिष्ठा की है।
हिन्दू-मुस्लिम झगड़ां के क्या कारण हैं, कौन-से तत्त्व इन झगड़ों को उत्तेजना देते हैं, इस समस्या के सुलझाने का यथार्थ और स्थायी हल क्या हो जाता है आदि विषyYयों पर प्रेमचन्द ने अपने विचार अपने उपन्यासों में जगह-जगह व्यक्त किये हैं।
‘कायाकल्प’ में यह समस्या गाय की क़ुरबानी को मुख्य विषय बनाकर उपस्थित की गई है। आगरा शहर में गाय की क़ुरबानी पर फ़साद हो जाता है। इस तरह के फसाद कौन लोग करवाते हैं ? आगरा हिन्दू सभा एवं सेवा-समिति के सदस्य यशोदानन्दन जब बनारस से लौटकर आगरा आते हैं तो एक थानेदार उनका भी असबाब देखना शुरू करता है। इस पर यशोदानन्दन आश्चर्य से पूछते हैं, “क्यों साहब, आज यह सख़्ती क्यों है ?
थानेदार - आप लोगों ने जो काँटे बोये हैं, उन्हीं का फल है। शहर में फ़साद हो गया है।
यशोदा - अभी तीन दिन पहले तो अमन का राज्य था, यह भूत कहाँ से उठ खड़ा हुआ ?
इतने में समिति का एक सेवक दौड़ता हुआ आ पहुँचा। यशोदानन्दन ने आगे बढ़कर पूछा :
क्यों राधामोहन, यह क्या मामला हो गया ? अभी जिस दिन मैं गया हूँ, उस दिन तक तो दंगे का कोई लक्षण न था।
राधा - जिस दिन आप गये, उसी दिन पंजाब से मौलवी दीन मुहम्मद साहब का आगमन हुआ। खुले मैदान में मुसलमानों का एक बड़ा जलसा हुआ। उसमें मौलाना साहब ने जाने क्या ज़हर उगला कि तभी से मुसलमानों को कुरबानी की धुन सवार है। इधर हिन्दुओं को यह ज़िद है कि चाहे खून की नदी बह जाए, पर क़ुरबानी न होने पायेगी। दोनों तरफ़ से तैयारियाँ हो रही हैं, हम लोग तो समझाकर हार गये।”1
इसमें संदेह नहीं कि इन फ़सादों को चाहे किसी भी उद्देश्य से पैदा किया जाता हो, पर इनको उत्तेजना मज़हब से ही मिलती है। मज़हब भी वह, जिसे दक़ियानूस मौलवी या पंडे बताते हैं। धर्म के नाम पर ही यह सारे कुकृत्य होते हैं, अच्छे-अच्छे लोग धार्मिक भावावेश में आकर हिंसक बन जाते हैं, पथभ्रष्ट हो जाते हैं, मानवताहीन हो जाते हैं। ख्वाजा महमूद जिन्हें हिन्दू फरिश्ता समझते थे, जो हिन्दू-मुसलमानों की मिली-जुली सेवा-समिति के सदस्य थे, मौलवी दीन मुहम्मद साहब की तक़रीर से इतने उत्तेजित हो जाते हैं कि क़ुरबानी को लेकर होनेवाले फ़साद का नेतृत्व करने लगते हैं। यशेदानन्दन इस कायापलट पर अपना मत प्रकट करता है, “अगर महमूद में सचमुच यह कायापलट हो गई है, तो यही कहूंगा कि धर्म से ज्यादा द्वेष पैदा करनेवाली वस्तु संसार में नहीं।”2
इधर हिन्दू भी उत्तेजित हो जाते हैं। स्वयं यशोदानन्दन, जिसने अभी तक मानसिक सन्तुलन नहीं खोया था, चुनौती के स्वर में कहता है, “ख़्वाजा महमूद के द्वार पर कुरबानी होगी। उनके द्वार पर इसके पहले या तो मेरी क़ुरबानी हो जायगी या ख़्वाजा मुहम्मद की।” और ताँगे में बैठकर वे तुरन्त रंगभूमि पर पहुँच जाते हैं; जहाँ ख्वाजा महमूद से उनकी भेंट होती है।
यशोदानन्दन ने त्योरियाँ बदलकर कहा – “क्यों ख़्वाजा साहब, आपको याद है, इस मुहल्ले में कभी कुरबानी हुई है ?
महमूद - जी नहीं, जहाँ तक मेरा ख़याल है, यहाँ कभी क़ुरबानी नहीं हुई।
यशोदा - तो फिर आज आप यहाँ कुरबानी करने की नयी रस्म क्यों निकाल रहे हैं ?
महमूद - इसलिये कि क़ुरबानी करना हमारा हक़ है। अब तक हम आपके ज़ज्बात का लिहाज़ करते थे, अपने माने हुए हक़ को भूल गये थे; लेकिन जब आप लोग अपने हक़ों के सामने हमारे ज़ज्बात की परवाह नहीं करते, तो कोई वज़ह नहीं कि हम अपने हक़ों के सामने आपके ज़ज्बात की परवा करें। मुसलमानों की शुद्धि करने का आपको पूरा हक़ हासिल है, लेकिन कम-से-कम पाँच-सौ बरसों में आपके यहाँ शुद्धि की कोई मिसाल नहीं मिलती। आप लोगों ने एक मुर्दा हक़ को ज़िन्दा किया है। इसलिए न कि मुसलमानों की ताक़त और असर कम हो जाए। जब आप हमें जे़र करने के लिए नये-नये हथियार निकाल रहे हैं, तो हमारे लिए इसके सिवा और क्या चारा है कि हम अपने हथियार को दूनी ताक़त से चलायें।
यशोदा - इसके यह मानी है कि कल आप हमारे द्वारों पर, हमारे मन्दिरों के सामने, क़ुरबानी करें और हम चुपचाप देखा करें। आप यहाँ हरगिज़ क़ुरबानी नहीं कर सकते और करेंगे तो इसकी ज़िम्मेदारी आपके सिर होगी।”3
प्रेमचन्द ने यहाँ, और आगे भी यह बताया है कि यदि दोनों कौमें एक-दूसरे की भावनाओं का ख़याल रखने लगें तो बहुत-से ऐसे मामूली झगड़े जो आगे चलकर भीषण दंगे का रूप ले लेते हैं, अपने-आप सामप्त हो जाएँ। एक गाय के पीछे, एक पशु के पीछे इन्सानों का खून बहाना कभी भी मानवीय नहीं कहा जा सकता। गौ-हत्या यदि पाप है तो मानव-हत्या महापाप। यशोदानन्दन से चक्रधर कहता है, “अहिंसा का नियम गौओं के लिए ही नहीं, मनुष्यों के लिए भी तो है।”4 निःसन्देह गौ-हत्या भी जिस दृष्टिकोण से की जाती है वह भी नितांत अनुचित है। मूल कारण मनुष्य की, विचार से काम न लेने की प्रवृत्ति है। यशोदानन्दन और चक्रधर वाद-विवाद करते हैं -
“यशोदा - कैसी बातें करते हो जी ! क्या यहाँ खड़े होकर अपनी आँखों से गौ की हत्या होते देखें ?
चक्रधर - अगर आप एक बार दिल थामकर देख लेंगे, तो यक़ीन है कि फिर आपको कभी यह दृश्य न देखना पडे़गा।
यशोदा - हम इतने उदार नहीं हैं।....
चक्रधर - तो फिर आइये, लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आपको एक भाई
का खून करना पड़ेगा।”5
यहाँ प्रेमचन्द बड़े यथार्थ ढंग से समस्या प्रस्तुत कर रहे थे कि अंत में चक्रधर को गांधीवादी बनाकर समस्या को वैयक्तिक रूप दे देते हैं। चक्रधर हिन्दुओं को, इस प्रकार शांत करके, फिर मुसलमानों के बीच में जाता है। प्रेमचन्द, इस्लाम की उदारता की ओर संकेत करवाते हुए, चक्रधर से, एक-दूसरे की भावनाओं की क़द्र करने वाली बात को यहाँ पुनः दोहराते हैं, “इस्लाम की इज्ज़त मेरे दिल में है, वह मुझे बोलने के लिए मजबूर कर रही है। इस्लाम ने कभी दूसरे मज़हब वालों की दिलजारी नहीं की। उसने हमेशा ज़ज्बात का एहतराम किया है, बगदाद और रूस, स्पेन और मिस्र की तारीखें उस मज़हबी आज़ादी की शाहिद हैं, जो इस्लाम ने उन्हें अता की थीं। अगर आप हिन्दू जज़्बात का लिहाज़ करके किसी दूसरी जगह क़ुरबानी करें, तो यकीनन इस्लाम के वकार में फ़र्क न आयेगा।”6
मनुष्यता सद्विचारों के सम्मुख सोयी नहीं रह सकती। ख्वाजा महमूद जो मौलवी दीन मुहम्मद के भाषणों से मानवता-विरोधी कार्य करने को उद्यत हो गए थे, चक्रधर की विवेकसंगत दलील सुनकर सचेत हो जाते हैं। प्रेमचन्द यहाँ पर भी झगड़ों के उकसानेवालों का भली-भाँति पर्दाफाश करते हैं, “ख्वाजा महमूद बड़े ग़ौर से चक्रधर की बातें सुन रहे थे। मौलवी साहब की उद्दडण्ता पर चिहुँककर बोले - क्या शरीयत का हुक़्म है कि क़ुरबानी यहीं हो ? किसी दूसरी जगह नहीं की जा सकती ?......
आपको तो अपने हलवे भाड़े से काम है, ज़िम्मेदारी तो हमारे ऊपर आयेगी, दुकानें तो हमारी लुटेंगी, आपके पास फटे बोरिया और बधने के सिवा और क्या रहा है ?...
चक्रधर - हर एक क़ुरबानी हिन्दुस्तान से 21 करोड़ हिन्दुओं के दिलों को जख़्मी कर देती है, और इतनी बड़ी तादात के दिलों को दुखाना बड़ी-से-बड़ी क़ौम के लिए भी एक दिन पछतावे का वाइस हो सकता है। हिन्दुओं से ज़्यादा बेतअस्सुब क़ौम दुनिया में नही है; लेकिन जब आप उनकी दिलजारी और महज दिलजारी के लिए क़ुरबानी चाहते हैं, तो उनको सदमा ज़रूर होता है और उनके दिलों में जो शोला उठता है, उसका आप खयाल नहीं कर सकते। अगर आपको यक़ीन न आये, तो देख लीजिये कि इस गाय के साथ एक हिन्दू कितनी खुशी से अपनी जान दे सकता है।”7
जिस तरह हिन्दुओं के धार्मिक जोश को शान्त करने के लिए चक्रधर गांधीवादी ढंग अपनाता है, उसी तरह मुसलमानों को शान्त करने के लिए भी : “यह कहते हुए चक्रधर ने तेज़ी से लपककर गाय की गरदन पकड़ ली और बोला, आपको इस गौ के साथ एक इन्सान की क़ुरबानी करनी पड़ेगी।
चक्रधर - मैं एक ख़ुदा का क़ायल हूँ। वही सारे जहान का ख़ालिक औैर मालिक है। फिर और किस पर ईमान लाऊँ !
ख़्वाजा - वल्लाह, तब तो तुम सच्चे मुसलमान हो। हमारे हज़रत को अल्लाहताला का रसूल मानते हो ?
चक्रधर - बेशक मानता हूँ, उनकी इज्ज़त करता हूँ और उनकी तौहीद का क़ायल हूँ।
ख्वाजा - हमारे साथ खाने-पीने से परहेज़ नहीं करते ?
चक्रधर - ज़रूर करता हूँ, उसी तरह, जैसे किसी ब्राह्मण के साथ खाने से परहेज़ करता हूँ, अगर वह पाक-साफ़ न हो।
ख्वाजा - काश, तुम जैसे समझदार तुम्हारे और भाई भी होते ; मगर यहाँ तो लोग हमें मलेच्छ कहते हैं। यहाँ तक कि हमें कुत्ते से भी नजिस समझते हैं। उनकी थालियों में कुत्ते खाते हैं, पर मुसलमान उनके गिलास में पानी नहीं पी सकता... अब कुछ-कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कौमों में इत्तफाक हो जाय।”8
प्रेमचन्द ने उक्त प्रकरण को समाप्त करने में जो भी ढंग अपनाया हो, पर यह बात निर्विवाद है कि हिन्दू-मुस्लिम फ़सादों के पीछे गाय की क़ुरबानी, जो प्रायः मूल कारण के रूप में सामने आती है, उस पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। उपन्यासकार इससे अधिक विस्तार उक्त प्रकरण को दे भी नहीं सकता। यह प्रेमचन्द जी की ही कला है जो इन अनेक बातों का समावेश करके भी उपन्यास की रोचकता को कम नहीं होने देते।
वास्तव में इस तरह के दंगे न हिन्दू चाहते हैं और न मुसलमान। छोटे या बड़े सभी झगडों की बुनियाद में भय का भाव निहित है। जब हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे से भयभीत होना छोड़ देंगे तब यह साम्प्रदायिक वातावरण स्वतः सुधर जाएगा। चक्रधर मनोरमा से कहता है, “मुसलमानों को लोग नाहक बदनाम करते हैं। फ़साद से वे भी उतना ही डरते हैं, जितना हिन्दू। शान्ति की इच्छा भी उनमें हिन्दुओं से कम नहीं है। लोगों का यह ख़्याल कि मुसलमान लोग हिन्दुओं पर राज्य करने का स्वप्न देख रहे हैं, बिल्कुल ग़लत है। मुसलमानों को केवल यह शंका हो गयी है कि हिन्दू उनसे पुराना वैर चुकाना चाहते हैं और उनकी हस्ती को मिटा देने की फ़िक्र कर रहे हैं। इसी भय से वे ज़रा-ज़रा-सी बात पर तिनक उठते हैं और मरने-मारने पर, आमादा हो जाते हैं।”9 दूसरे, कुछ लोग अपने निजी लाभ के लिए भी इन झगड़ों को बनाए रखना चाहते हैं। अहल्या से ख्वाजा महमूद कहते हैं, ”दोनों क़ौमों में कुछ ऐसे लोग हैं, जिनकी इज्ज़त और सरवत दोनों को लड़ाते रहने पर ही क़ायम है। बस, वह एक-न-एक शिगूफ़ा छोड़ा करते हैं। मेरा तो कौल है कि हिन्दू रहो, चाहे मुसलमान रहो, खुदा के सच्चे बन्दे रहो। सारी खूबियाँ किसी एक ही कौम के हिस्से में नहीं आतीं; न सभी हिन्दू राक्षस हैं, न सब मुसलमान देवता हैं; इसी तरह न सभी हिन्दू काफ़िर हैं, न सभी मुसलमान मोमिन। जो आदमी दूसरी कौम से जितनी नफ़रत करता है, समझ लीजिए कि वह खुदा से उतनी ही दूर है।’’10 ऐसे लोग अपने स्वार्थ-साधन के लिए सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू को दूषित करते हैं।
‘सेवासदन’ में एक इमामबाड़े का वली तेगअली कहता है, “इस वक़्त, उर्दू-हिन्दी का झगड़ा, गौकशी का मसला, जुदागाना इन्तखाब, सूद का मुआविजा कानून, इन सबों से मज़हबी तास्सुब के भड़काने में मदद ली जा रही है।”11
‘कायाकल्प’ का पच्चीसवाँ परिच्छेद प्रेमचन्द ने साम्प्रदायिक समस्या के निमित्त ही लिखा है। इस परिच्छेद में साम्पद्रदायिक दंगों के कारणों, उसके स्वरूप और परिणाम पर बड़ी विस्तृत चर्चा है। प्रेमचन्द लिखते हैं, “.....हिन्दुओं और मुसलमानों में आए दिन जूतियाँ चलती रहती थीं।.......निज के रगडे़-झगड़े साम्प्रदायिक संग्राम के क्षेत्र में खींच लाए जाते थे। ... मुसलमानों ने बजाजे खोले, हिन्दू नैचे बाँधने लगे। सुबह को ख्वाजा साहब हाकिम ज़िला को सलाम करने जाते, शाम को बाबू यशोदानन्दन। दोनों अपनी-अपनी राजभक्ति का राग अलापते। दोनों देवताओं के भाग्य जागे; जहाँ कुत्ते निद्रोपासना किया करते थे, वहाँ पुजारी जी की भंग घुटने लगी। मस्जिदों के दिन फिरे, मुल्लाओं ने अबाबीलों को बदख़ल किया। जहाँ सांड जुगाली करता था, वहाँ पीर साहब की हँडिया चढ़ी। हिन्दुओं ने ‘महावीर दल’ बनाया, मुसलमानों ‘अलीगोल’ सजाया। ठाकुर द्वारे में ईश्वर-कीर्तन की जगह नबियों की निन्दा होती थी, मस्जिदों में नमाज की जगह देवताओं की दुर्गति। ख्वाजा साहब ने फ़तवा दिया, जो मुसलमान किसी हिन्दू औरत को निकला ले जाये, उसे एक हज़ार हजों का सवाब होगा। यशोदानन्दन ने काशी के पंडितों की व्यवस्था मँगवाई कि एक मुसलमान का वध एक लाख गोदानों से श्रेष्ठ है।”12 आगे चलकर, होली के अवसर पर, भयंकर दंगा हो जाता है। प्रेमचन्द ने दंगे का जो विस्तृत वर्णन दिया है, उसे पढ़कर पाठक का हृदय विक्षोभ से भर उठता है और उसे साम्प्रदायिकता से घृणा हो जाती है।
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, साम्प्रदायिक समस्या को अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों ने राजनीतिक रूप दे रखा था। फूट डालकर शासन करने की नीयत अपना कर अंग्रेज़ अपना प्रभुत्व बनाये रखना चाहते थे। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम भेद-भाव पनपने दिया। दोनों कौमों के सम्बन्ध किस सीमा तक पहुँच चुके थे, उनका स्पष्ट वर्णन प्रेमचन्द तेगअली के मुँह से करवाते हैं, “आजकल पोलीटिकल मफ़ाद का ज़ोर है, हक़ और इन्साफ़ का नाम न लीजिये। अगर आप मुदर्रिस हैं तो हिन्दू लड़कों को फेल कीजिए ; तहसीलदार हैं तो हिन्दुओं पर टैक्स लगाइए ; मजिस्ट्रेट हैं तो हिन्दुओं को सजाएँ दीजिए ; सब इन्स्पेक्टर पुलिस हैं तो हिन्दुओं पर झूठे मुकदमें दायर कीजिए; तहक़ीकात करने जाइए तो हिन्दुओं के बयान ग़लत लिखिए; अगर आप चोर हैं तो किसी हिन्दू के घर डाका डालिए ; अगर आपको हुस्न और इश्क का ख़ब्त है तो किसी हिन्दू नाजनीन को उड़ाइए, तब आप कौम के ख़ादिम, कौन के मुहसिन, कौमी क़िस्ती के नाखुदा सब कुछ हैं।”13 ऐसी स्थिति में यह समस्या दिन-पर-दिन जटिल होती गई।
प्रेमचन्द ने साम्प्रदायिक समस्या के हल के निमित्त कई सुझाव अपने उपन्यासों में दिये हैं। सर्वप्रथम धर्म की सच्ची शिक्षा देना आवश्यक है। धर्मान्धता का विरोध करते हुए चक्रधर कहता है, “जब तक हम सच्चे धर्म का अर्थ न समझेंगे, हमारी यही दशा होगी। मुश्किल यह है कि जिन महान् पुरुषों से अच्छी धर्मनिष्ठा की आशा की जाती है, वे अपने अशिक्षित भाइयों से भी बढ़कर उद्दण्ड हो जाते हैं। मैं तो नीति को धर्म समझता हूँ और सभी सम्प्रदायों की नीति एक-सी है। अगर अन्तर है तो बहुत थोड़ा। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध सभी सत्कर्म और सद्विचार की शिक्षा देते हैं। हमें कृष्ण, राम, ईसा, मुहम्मद, बुद्ध सभी महात्माओं का समान आदर करना चाहिए। ये मानव जाति के निर्माता हैं। जो इनमें से किसी का अनादर करता है या उनकी तुलना करने बैठता है, वह अपनी मूर्खता का परिचय देता है। बुरे हिन्दू से अच्छा मुसलमान उतना ही अच्छा है, जितना बुरे मुसलमान से अच्छा हिन्दू। देखना यह चाहिए कि यह कैसा आदमी है, न कि यह कि वह किस धर्म का आदमी है। संसार का भावी धर्म सत्य, न्याय और प्रेम के आधार पर बनेगा। हमें अगर संसार में जीवित रहना है, तो अपने हृदय में इन्हीं बातों का संचार करना पड़ेगा।”14
दूसरी आवश्यकता मध्ययुगीन इतिहास को स्वस्थ और प्रगतिशील दृष्टि से लिखने की है। साम्राज्यवादियों ने भारत के इतिहास को अपने दृष्टिकोण से लिखा है। उन्होंने वहाँ हिन्दू और मुग़ल बादशाहों के वर्णन में इस वैमनस्य को गाढ़ा करके बताया है और आगामी पीढ़ियों के हृदयों में द्वेष की विषैली भावनाएँ भरने के प्रयत्न किये हैं। ‘कर्मभूमि’ से ज़िला हाकिम गजनवी ग़लत तवारीख़ के सम्बन्ध में सलीम से कहता है, “ग़लत तवारीखें पढ़-पढ़कर दोनों फ़िरके एक-दूसरे के दुश्मन हो गये हैं और मुमकिन नहीं कि हिन्दू मौका पाकर मुसलमानों से फौजी अदावतों का बदला न लें, लेकिन इस ख्याल से तसल्ली होती है कि इस बीसवीं सदी से हिन्दुओं जैसी पढ़ी-लिखी जमाअत मज़हबी गिरोहबन्दी की पनाह नहीं ले सकती। मज़हब का दौरा तो खत्म हो रहा है, बल्कि यों कहों कि ख़त्म हो गया। सिर्फ़ हिन्दुस्तान में उसमें कुछ-कुछ जान बाक़ी है। यह तो दौलत का ज़माना है। अब कौम में अमीर और ग़रीब, जायदाद वाले और मर-भूखे, अपनी-अपनी जमाअतें बनायेंगे। उनमें कही ज़्यादा खूरेजी होगी, कहीं ज़्यादा तंगदिली होगी। आखि़र एक-दो सदी के बाद दुनिया में एक सल्तनत हो जायगी। सबका एक क़ानून, एक निजाम होगा, कौम के खादिम कौम पर हुकूमत करेंगे, मज़हब शख्सी चीज़ होगी।”15
तीसरे, प्रेमचन्द ने आपसी झगड़ों को निपटाने के लिए पंचायत का सुझाव भी रखा है। ‘कायाकल्प’ में ख्वाजा महमूद और चक्रधर तय करते हैं, “एक पंचायत बनायी जाए और आपस के झगड़े उसी के द्वारा तय हुआ करें।”16
हिन्दू-मुसलमान एकता के बड़े मार्मिक चित्रा प्रेमचन्द-साहित्य में विद्यमान हैं। ‘कर्मभूमि’ में लाला समरकान्त और सलीम के भोजन करने का दृश्य हमारे घायल हृदय पर मरहम का काम करता है। प्रेमचन्द छुआछूत की असारता कितने सुन्दर ढंग से व्यक्त करते हैं, “भोजन का समय आ गया था। सलीम ने पूछा,‘आपके लिए क्या खाना बनावाऊँ ?... मैं तो आज आपको अपने साथ बैठाकर खिलाऊंगा।’’
‘‘तुम प्याज, मांस, अण्डे खाते हो। मुझसे उन बर्तनों में खाया ही न जायगा।’’
‘‘मगर मेरे साथ बैठना पड़ेगा। मैं रोज़ साबुन लगाकर नहाता हूँ।...आपका खाना हिन्दू बनाएगा।’’
....सेठजी सन्ध्या करके लौटे, तो देखा, दो कम्बल बिछे हुए हैं और दो थालियाँ रखी हुई हैं।
सेठजी ने खुश होकर कहा, ‘यह तुमने बहुत अच्छा इन्तज़ाम किया।’
सलीम ने हँसकर कहा, ‘मैंने सोचा, आपका धर्म क्यों लूँ, नहीं एक ही कम्बल रखता।’
‘अगर यह ख़याल है तो तुम मेरे कम्बल पर आ जाओ। नहीं, मैं ही आता हूँ।’
वह थाली उठाकर सलीम के कम्बल पर आ बैठे। अपने विचार में आज उन्होंने अपने जीवन का सबसे महान त्याग किया। सारी सम्पत्ति दान देकर भी उनका हृदय गौरवान्वित न होगा।
सलीम ने चुटकी ली, ‘अब तो आप मुसलमान हो गए।’
सेठजी बोले, मैं मुसलमान नहीं हुआ। तुम हिन्दू हो गए।”17
स्पष्ट है, प्रेमचन्द समस्यामूलक उपन्यासकार हैं। चरित्र-प्रधान उपन्यास लिखने वाला लेखक उपर्युक्त बातों को अपने उपन्यास में कोई स्थान नहीं देगा; जबकि प्रेमचन्द उनको स्थान ही नहीं, बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान देते हैं। यदि उनके उपन्यासों में से ये स्थल या ऐसे स्थान निकाल दिया जाए तो उनके उपन्यास निश्चय ही अपना प्रभाव खो देंगे। जिस हिन्दू-मुस्लिम एकता की भावना को प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों का विषय बनाया था और मानवता को उच्च विचारों की जो अमूल्य सम्पत्ति सौंपी थी वह काम में नहीं लाई गई। हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य किस सीमा तक गया। कैसी-कैसी अमानुषिक नृशंस हत्याएँ की गइंर्। यदि प्रेमचन्द आज जीवित होते तो यह कल्पना सहज ही की जा सकती है कि उनके उपन्यासों में कितनी आग होती। मनुष्य को सभ्य बनाने के लिए साहित्य सबसे प्रभावशाली माध्यम है। साहित्यकारों की कृतियों का जनता में समुचित प्रचार होना चाहिए। राजनीतिज्ञों के मात्र भाषणों से जनता के हृदय पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ सकता। प्रेमचन्द ने जिस हिन्दू-मुस्लिम एकता का स्वप्न देखा था वह उनके जीवन-काल में तो साकार न हो सका। आगे तो उस एकता की नींव ही ढहती ज्ञात हुई। पर, जब तक प्रेमचन्द-साहित्य जीवित है, साम्प्रदायिकता की घृणित दानवी कभी भी अपने खूनी पंजे मानवता पर नहीं गड़ा सकती। प्रेमचन्द-साहित्य उसको एक चुनौती है।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘कायाकल्प’, पृ. 30
2 वही, पृ. 31
3 वही, पृ. 33
4 वही, पृ. 34
5 वही, पृ. 35
6 वही, पृ. 37
7 वही, पृ. 37 से 39
8 वही, पृ. 39-40
9 वही, पृ. 57
10 वही, पृ. 427
11 ‘सेवासदन’, पृ. 249
12 ‘कायाकल्प’, पृ. 256
13 ‘सेवासदन’, पृ. 174
14 ‘कायाकल्प’, पृ. 227
15 ‘कर्मभूमि’, पृ. 222-223
16 ‘कायाकल्प’, पृ. 44
17 ‘कर्मभूमि’, पृ. 354-355
शैक्षणिक समस्या
प्रेमचन्द केवल उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार व पत्रकार ही नहीं थे, वरन् समाज के विभिन्न अंगों पर दृष्टिपात करने वाले एक जागरूक चिन्तक थे। उनके विचार ही उनके समग्र साहित्य के प्राण हैं। उपन्यास में भी वे अपने विचारों को ही प्रधानता देते हैं। ये विचार भारतीय जीवन की विभिन्न समस्याओं से सम्बंध रखते हैं। विभिन्न समस्याओं पर उनके विचार उनकी कृतियों में जगह-जगह बिखरे हुए हैं। स्पष्ट है, उपन्यास में ये विचार अधिकतर पात्रों के द्वारा ही प्रकट किए जा सकते हैं, लेखक अपनी ओर से तो संक्षेप में टिप्पणी-मात्र दे सकता है। मानव-जीवन को सुसंस्कृत करने और उसे पूर्ण विकास की आरे ले जाने में शिक्षा का स्थान सर्वोपरि है। प्रेमचन्द जैसे सचेत लेखक शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को कैसे छोड़ सकते थे ! अतः उनके उपन्यासों में तत्कालीन शिक्षा-पद्धति, उसके दोषों और उसे सुधारने अथवा बदलने की जटिल समस्या का भी समावेश किया गया है।
प्रेमचन्द ने शिक्षा के उद्देश्य, पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली, अध्यापकों और युवकों की मनोवृत्ति, शैक्षणिक संस्थाओं की दशा, पाठ्यक्रम आदि पर अपने कुछ उपन्यासों में चर्चा की है। ये उपन्यास ‘वरदान’, ‘कायाकल्प’ ‘प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’ और ‘रंगभूमि’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आलोचकों ने प्रेमचंद के शिक्षा-सम्बन्धी विचारों की ओर ध्यान नहीं दिया है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर को अर्थिक सुविधाएँ प्राप्त थीं, अतः वे अपने शिक्षा-सम्बन्धी विचारों को मूर्त रूप दे सके। प्रेमचन्द के पास ऐसा कोई साधन नहीं था। फिर भी वे अपने विचारों की शैक्षणिक संस्था ‘कर्मभूमि’ में छोड़ गए हैं, जो उनके महान शिक्षा-शास्त्री होने का प्रमाण देती है। प्रेमचन्द ने एक निर्धन विद्यार्थी का जीवन व्यतीत किया था। वे उन सभी कष्टों और आपदाओं से परिचित थे; जो एक निर्धन छात्रा को उठानी पड़ती हें। प्रेमचन्द के शब्दों में, “एक कुप्पी के सामने रात को बैठकर टाट बिछाकर पढ़ता।1 पाँच रुपये का ट्यूशन करके आठ रुपये में अपना गुज़र करता था। सुबह उठकर हाथ-मुँह धोकर रोटी पकाता, रोटियाँ सेंककर स्कूल जाता।”2 एक बार रोटी के लिए उन्हें अपनी पुस्तकें बेचनी पड़ी थीं :
“जाड़ों के दिन थे, पास में एक कौड़ी न थी। दो दिन एक-एक पैसे का खाकर काटे। मेरे महाजन ने उधार देने से इन्कार कर दिया था। संकोचवश मैं उनसे माँग न सकता था। चिराग जल चुके थे। मैं एक बुकसेलर की दुकान पर किताब बेचने गया। एक चक्रवर्ती गणित कुंजी दो साल हुए ख़रीदी थी, अब तक उसे बड़े जतन से रखे हुए था, पर आज चारों ओर से निराश होकर मैंने उसे बेचने का निश्चय किया। किताब दो रुपये की थी, लेकिन सौदा एक रुपये में तय हुआ।”3 इस प्रकार विद्यार्थी जीवन में ही प्रेमचन्द अपने समय के शिक्षा-सम्बन्धी अनेक दोषों से अत्यधिक सूक्ष्मता से परिचित हो गए थे। उन्होंने तत्कालीन शिक्षा-पद्धति की आलोचना, पुस्तकालयों से शिक्षा-सम्बन्धी पुस्तकें पढ़कर नहीं की; उसमें जीवन के अनुभव निहित हैं। इसलिए उनके विचार विशेष महत्त्व रखते हैं।
आगे चलकर प्रेमचन्द एक विद्यालय के प्रधानाध्यापक की कृपा से अठारह रुपये मासिक पर अध्यापक हो गए। कानपुर बस्ती गोरखपुर आदि स्थानों में उन्होंने अध्यापन का कार्य किया। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सब-डिप्टी-इन्स्पेक्टर की हैसियत से छह साल उन्होंने महोबे में बिताए। इस बीच अध्यापक-वर्ग की मनोवृत्ति से ही उनका परिचय नहीं हुआ, वरन् अधिकारी-वर्ग की नौकरशाही वृत्ति का भी उन्हें सामना करना पड़ा। गोरखपुर में इन्स्पेक्टर के निरीक्षण की घटना यहाँ उद्धधृत करना संगत होगा, “जाड़े के दिन थे। स्कूल का इन्स्पेक्टर मुआयना करने आया था। एक रोज़ तो इन्स्पेक्टर के साथ रहरकर आपने स्कूल दिखा दिया। दूसरे रोज़ लड़कों को गेंद खेलना था। उस दिन आप नहीं गए। छुट्टी होने पर आप घर चले आए। आरामकुर्सी पर लेटे दरवाज़े पर आप अखबार पढ़ रहे थे कि सामने ही इन्स्पेक्टर अपनी मोटर पर जा रहा था। वह आशा करता था कि उठकर सलाम करेंगे, लेकिन आप उठे भी नहीं। इस पर कुछ दूर जाने के बाद इन्स्पेक्टर ने गाड़ी रोककर अपने अर्दली को भेजा। अर्दली जब आया तो आ गए।
‘कहिए, क्या है ?’
इन्स्पेक्टर, ‘तुम बड़े मगरूर हो। तुम्हारा अफ़सर दरवाज़े से निकल जाता है। उठकर सलाम भी नहीं करते !’
‘मैं जब स्कूल में रहता हूँ, तब नौकर हूँ। बाद में मैं भी अपने घर का बादशाह हूँ। यह आपने अच्छा नहीं किया। इस पर मुझे अधिकार है कि आप पर केस चलाऊँ।’
इन्स्पेक्टर चला गया। आपने अपने मित्रों से राय ली कि इस पर केस चलाना चाहिए। मित्रों ने सलाह दी, जाने दीजिए। आप भी उसे मगरूर कह सकते थे। हटाइए इस बात को। मगर इस बात की कुरेदन उन्हें बहुत दिनों तक रही।”4
प्रेमचन्द जैसे स्वाभिमानी मनुष्य के जीवन में ऐसी घटना का होना स्वाभाविक बात है। आगे चलकर देश पर होने वाले अंग्रेजी शासन के अत्याचारों से खिन्न होकर उन्होंने अपनी पच्चीस साल की नौकरी पर लात मार दी। अभिप्राय यह है कि प्रेमचन्द ने जिस प्रकार एक निर्धन छात्र का जीवन व्यतीत किया था उसी प्रकार एक अभावग्रस्त अध्यापक का जीवन भी बिताया था। अतः शिक्षा के क्षेत्र में उनकी धारणाएँ कितनी महत्त्वपूर्ण होंगी, उसका अनुमान भली-भाँति लगाया जा सकता है।
‘कर्मभूमि’ में प्रेमचन्द शिक्षा का उद्देश्य बताते हुए आज के अध्यापकों के रहन-सहन तथा विचारों की आलोचना करते हुए लिखते हैं, “जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की ज़रूरत है, डिग्री की नहीं। हमारी डिग्री है हमारा सेवा-भाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता। अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा जागरित नहीं हुई, तो कागज़ की डिग्री व्यर्थ है। उसे (अमरकान्त) इस शिक्षा ही से घृणा हो गई है। जब वह अपने अध्यापकों को फ़ैशन की गुलामी करते, स्वार्थ के लिए नाक रगड़ते, कम-से-कम काम करके अधिक-से-अधिक लाभ के लिए हाथ पसारते देखता, तो उसे घोर मानसिक वेदना होती थी। और इन्हीं महानुभावों के हाथ में राष्ट्र की बागडोर है। यही क़ौम के विधाता हैं।”5 प्रेमचन्द भारत के प्रचीन आदर्शों के क़ायल थे, अतः अतीत के अध्यापकों की प्रशंसा करत हुए वे लिखते हैं, “तब अमर को उस अतीत की याद आती, जब गुरुजन झोपड़ी में रहते थे, स्वार्थ से अलग, लोभ से दूर, सात्त्विक जीवन के आदर्श, निष्काम सेवा के उपासक। वह राष्ट्र से कम-से-कम लेकर अधिक देते थे। वह वास्तव में देवता थे। और एक यह अध्यापक हैं, जो किसी अंश में एक मामूली व्यापारी या राज्य कर्मचारी से पीछे नहीं। इनमें भी वही दम्भ है, वही धन-मद है, वही अधिकार-मद है। हमारे विद्यालय क्या हैं, राज्य के विभाग हैं और हमारे अध्यापक उसी राज्य के अंग हैं। ये खुद अंधकार में पड़े हुए हैं, प्रकाश क्या फैलाएंगे ? वे आप अपने मानेविकार के क़ैदी हैं, आप अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं, और अपने शिष्यों को भी उसी क़ैद और गुलामी में डालते हैं।”6 इसका अभिप्राय यह नहीं कि प्रेमचन्द गुरुकुल-पद्धति को पुनर्जीवित करना चाहते थे। विगत युग की अच्छाइयों को आज भी अपनाया जाना चाहिए। केवल यह ध्वनि उक्त उद्धरण से निकलती है।
जिस प्रकार अध्यापक-वर्ग की स्पष्ट आलोचना है उसी प्रकार देश के नवयुवकों की मनोवृत्ति पर भी प्रेमचन्द ने खुलकर लिखा है, जिससे उनमें कुछ सुधार हो सके, वे शिक्षा के वास्तविक महत्त्व को समझ सकें। अधिकांश नवयुवक कोई ऊँचा सरकारी पद पा जाने की नीयत से ही शिक्षा ग्रहण करते हें। ‘कर्मभूमि’ में सलीम का यही आदर्श है, “वह एम॰ए॰ की तैयारी कर रहा था। उसकी अभिलाषा थी कि कोई अच्छा सरकारी पद पा जाए और चैन से रहे। सुधार और संगठन और राष्ट्रीय आन्दोलन से उसे विशेष प्रेम न था।”7 एक और स्थल पर डा॰ शान्तिकुमार से कहता है, “यह तो आप जानते ही हैं, मैं एक सीधा जुमला ठीक नहीं लिख सकता, मगर लियाक़त कौन देखता है ? यहाँ तो सनद देखी जाती है।”8 प्रेमचन्द ने शिक्षा का उद्देश्य रोटी-प्राप्ति कभी नहीं समझा। ‘रोटी-रोज़ी’ (Bread and Butter) को शिक्षा का सिद्धान्त माननेवालों के वे कड़े विरोधी थे। ‘कायाकल्प’ में प्रेमचन्द का आदर्श पात्र चक्रधर शिक्षा और नौकरी पर अपना स्पष्ट मत अपने पिता वज्रधर के सामने रखता है -
“चक्रधर - मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है।
वज्रधर - यह ख़ब्त तुम्हें कब से सवार हुआ ? नौकरी के सिवा और करोगे ही क्या ?
चक्रधर - मैं आज़ाद रहना चाहता हूँ।
वज्रधर - आज़ाद रहना था तो एम॰ ए॰ क्यों पास किया?
चक्रधर - इसलिए कि आज़ादी का महत्त्व समझूँ।”9
प्रेमचन्द को यह बात हस्यास्पद मालूम होती थी, “आदमी केवल पेट पालने के लिए आधी उम्र पढ़ने में लगा दे। अगर पेट पालना ही जीवन का आदर्श हो, तो पढ़ने की ज़रूरत ही क्या ? मzzज़दूर एक अक्षर भी नहीं जानता, फिर भी वह अपने और अपने बाल-बच्चों का पेट बड़े मज़े से पाल लेता है। विद्या के साथ जीवन का आदर्श कुछ ऊँचा न हुआ, तो पढ़ना व्यर्थ है।”10 अतः प्रेमचन्द अपने समय की शिक्षा-पद्धति से बड़े असंतुष्ट थे। बड़े-बड़े डिग्रीधारियों की आलोचना करते हुए ‘कर्मभूमि’ में वे लिखते हैं, “जिसके पास जितनी भी बड़़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना ही बढ़ा हुआ है, मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वत्ता का लक्षण है। ग़रीबों को रोटियाँ मयस्सर न हों, कपड़ों को तरसते हों, पर हमारे शिक्षित भाइयों को मोटर चाहिए, बँगला चाहिए, नौकरों की पलटन चाहिए।”11
आज के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों पर वज्रधर से टिप्पणी करवाते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं, “जैसे और भी चीज़ें बनाने के कारख़ाने खुल गए हैं, उसी तरह विद्वानों के कारख़ाने हैं और उनकी संख्या हर साल बढ़ती जाती है।”12 पश्चिमी सभ्यता की बुराइयों में शिक्षा-पद्धति का स्थान प्रमुख है। पश्चिमी आदर्शों से प्रभावित शिक्षा-पद्धति पर छात्र अमरकान्त के मुख से प्रेमचन्द बड़ा तीख व्यंग्य करवाते हैं, “बताना क्या है, पश्चिमी सभ्यता की बुराइयाँ हम सब जानते ही हैं। वही बयान कर देना।”
“तुम जानते होगे, मुझे तो एक भी नहीं मालूम्। ”
“एक तो यह तालीम ही है, जहाँ देखो, वही दुकानदारी। अदालत की दुकान, इल्म की दुकान, सेहत की दुकान। इस एक पाइंट पर बहुत कुछ कहा जा सकता है ?”13
इसी प्रकार, डा॰ शान्तिकुमार के शब्दों में, “यह किराये की तालीम हमारे कैरेक्टरों के तबाह किए डालती है। हमने तालीम को भी एक व्यापार बना लिया है। व्यापार में ज्यादा नफ़ा होगा। तालीम में ज़्यादा खर्च करो, ज़्यादा ऊँचा ओहदा पाओगे। मैं चाहता हूँ, ऊँची-से-ऊँची तालीम सबके लिए मुआफ़ हो, ताकि ग़रीब-से-ग़रीब आदमी भी ऊँची-से-ऊँची लियाक़त हासिल कर सके और ऊँचे-से-ऊँचे ओहदे को पा सके। युनिवर्सिटी के दरवाज़े मैं सबके लिए खुले रखना चाहता हूँ। सारा खर्च गवर्नमेंट पर पड़ना चाहिए। मुल्क को तालीम की उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरत है, जितनी फौज की।”14 फौज और शिक्षा के इस अनुपात को प्रेमचन्द ने समझा था। किसी भी देश की रक्षा मात्र सामरिक शक्ति बढ़ा देने से नहीं हो सकती, जब-तक कि उस देश के नवयुवक उच्च आदर्शों की वाहक शिक्षा ग्रहण नहीं करते। खेद है, प्रेमचन्द के इन विचारों पर नवोदित राष्ट्र के कर्णधार ध्यान नहीं देते और वही किराए की शिक्षा ज्यों-की-त्यों क़ायम है जो भावी पीढ़ी के चरित्र को नष्ट कर रही है।
‘कर्मभूमि उपन्यास का प्रारम्भ ही आधिनक शिक्षा पर व्यंग्य के साथ होता है। शैक्षणिक संस्थाओं का यथार्थ चित्रण करते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं, “हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जिस तत्परता से फ़ीस वसूल की जाती है, शायद मालगुज़ारी भी उतनी सख़्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है। उस दिन फ़ीस दाख़िल न हो, रोज़ कुछ जुर्माना दीजिए। कहीं-कहीं ऐसा भी नियम है कि उसी दिन फ़ीस दुगुनी कर दी जाती है, और किसी दूसरी तारीख़ को फ़ीस दुगुनी न दो, तो नाम कट जाता है, काशी के क्वींस कालेज में यही नियम था।... ऐसे कठोर नियमों का उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता था कि ग़रीबों के लड़के स्कूल छोड़कर भाग जाएँ। वही हृदयहीन दफ़्तरी शासन, जो अन्य विभागों में है, हमारे विद्यालयों में भी है। वह किसी के साथ रियायत नहीं करता, चाहे जहाँ से लाओ, कर्ज़ लो, गहने गिरो रखो, लोटा-थाली बेचो, चोरी करो, मगर फ़ीस ज़रूर दो, नहीं दूनी फ़ीस देनी पड़ेगी, या नाम कट जायगा। ज़मीन और जायदाद के कर वसूल करने में भी कुछ रियायत की जाती है। हमारे शिक्षालयों में नर्मी को घुसने ही नहीं दिया जाता। वहाँ स्थायी रूप से मार्शल ला का व्यवहार होता है। देर में आइए तो जुर्माना, सबक़ याद न हो तो जुर्माना, किताबें न ख़रीद सकिए तो जुर्माना, कोई अपराध हो जाय तो जुर्माना। शिक्षालय क्या हैं, जुर्मानालय हैं। यही हमारी पश्चिमी शिक्षा का आदर्श है, जिसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे जाते हैं। यदि ऐसे शिक्षालयों में पैसे पर जान देने वाले, पैसे के लिए ग़रीबों का गला काटने वाले, पैसे के लिए अपनी आत्मा तक बेच देने वाले छात्रा निकलते हैं, तो आश्चर्य क्या ?”15 प्रेमचन्द छात्रों पर होने वाले जुर्माने के पक्ष में नहीं थे। जुर्माना करने की पद्धति भी पश्चिम से ही आई जिसने इस निर्धन देश की पहले से ही महँगी शिक्षा को और महँगी बना दिया। इन बातों का विद्यार्थी के मन पर क्या असर पड़ता है, इस बात को प्रेमचन्द अच्छी तरह जानते थे, क्योंकि उन्होंने स्वयं एक निर्धन विद्यार्थी का जीवन बिताया था। और जब ‘कायाकल्प’ में मनोरमा से चक्रधर कहता है, “हमारी शिक्षा ने हमें पशु बना दिया है।”16 तो पाश्चात्य शिक्षा और उस पद्धति की निस्सारता व्यक्त करने की हद हो जाती है।
‘प्रेमाश्रम’ के प्रारम्भ में ग्रामीणों के मुख से प्रेमचन्द आधुनिक विद्या पर व्यंग्य करवाते हुए लिखते हैं, दुखरन कहता है, “कहते हैं कि ‘विद्या’ से आदमी की बुद्धि ठीक हो जाती है, पर यहाँ उलटा ही देखने में आता है। यह हाकिम और अमले पढ़े-लिखे विद्वान् होते हैं, लेकिन किसी को दया-धर्म का विचार नहीं होता।”17 मनोहर का यह व्यंग्य कि “विद्या से और कुछ नहीं होता तो दूसरों का धन ऐंठना तो आ जाता है। मूरख रहने से तो अपना धन गँवाना पड़ता है।”18 आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा की वास्तविकता को भली-भाँति प्रकट कर देता है।
अब यह देखना है कि प्रेमचन्द किस प्रकार की शिक्षा और शैक्षणिक संस्था पसन्द करते थे। उनके शिक्षा-सम्बन्धी उद्देश्य को देखते हुए यह बात भली-भाँति स्पष्ट हो जाती है कि वे शिक्षा द्वारा चरित्र-निर्माण को प्रमुखता देते हैं। शिक्षा-पद्धति के सम्बन्ध में प्रेमचन्द के सामने चाहे कोई लिखित रूप-प्रारूप न रहा हो, किन्तु उसकी झलक उनके उपन्यासों में मिलती ही है। उपन्यास के अन्तर्गत इससे अधिक चिन्तन सम्भव भी नहीं हो सकता। उपन्यास के वस्तु-विन्यास के चौखटे में प्रेमचन्द ने इस सम्बन्ध में जो कुछ भी जगह-जगह लिखा है वह औपन्यासिक कला की उपेक्षा करके ही लिखा है। वे कलावादी उपन्यासकार नहीं थे, समस्याओं को प्रधानता देकर ही उन्होंने उपन्यासों का सर्जन किया।
‘कर्मभूमि’ में डा॰ शान्तिकुमार के बँगले में प्रेमचन्द एक पाठशाला लगवाते हैं, जहाँ “फ़ीस बिलकुल नहीं ली जाती थी।... छोटे-छोटे भोले-भोले निष्कपट बालकों का कैसे स्वाभाविक विकास हो, कैसे वे साहसी, संतोषी, सेवाशील बन सकें, यही मुख्य उद्देश्य था। सौन्दर्य-बोध जो मानव प्रकृति का प्रधान अंग है, कैसे दूषित वातावरण से अलग रहकर अपनी पूर्णता पाये, संघर्ष की जगह सहानुभूति का विकास कैसे हो, दोनों मित्र यही सोचते थे। उनकी शिक्षा की कोई बनी-बनाई प्रणाली न थी। उद्देश्य को सामने रखकर ही वह साधनों की व्यवस्था करते थे। आदर्श महापुरुषों के चरित्रों, सेवा और त्याग की कथाएँ, भक्ति और प्रेम के पद, यही शिक्षा के आधार थे।”19 इस पाठशाला को अमरकान्त, डा॰ शान्तिकुमार, संन्यासी आत्मानन्द, संगीताचार्य ब्रजनाथ आदि जी-जान से एक आदर्श संस्था बनाने में जुट जाते हैं। तरह-तरह के लोग इस नवजात संस्था और उसके कार्यकर्ताओं की तरह-तरह से आलोचना करते हैं। कोई इसे ‘मदारी का तमाशा’20 कहता है तो कोई कुछ। आर्थिक कठिनाइयाँ अलग हैं। पर, फिर भी अपने आदर्शों पर अविचल विश्वास के साथ पाठशाला के संस्थापक तथा कार्यकर्ता पाठशाला का विकास करते चले जाते हैं ओैर प्रेमचन्द इस संस्था को आगे चलकर अपने सिद्धान्तों और आदर्शों के अनुरूप विकसित करके दिखाते हैं, “अमर की शाखा अब नई इमारत में आ गई थी। शिक्षा का लोगों को कुछ ऐसा चस्का पड़ गया था कि जवान तो जवान, बूढे़ भी आ बैठते और कुछ-न-कुछ सीख जाते। अमर की शिक्षा-शैली आलोचनात्मक थी। अन्य देशों की सामाजिक और राजनीतिक प्रगति, नये-नये आविष्कार, नये-नये विचार इसके मुख्य विषय थे। देश-देशान्तरों के रस्मों-रिवाज़, आचार-विचार की कथा सभी चाव से सुनते। उसे यह देखकर कभी-कभी विस्मय होता था कि वे निरक्षर लोग जटिल सामाजिक सिद्धान्तों को कितनी आसानी से समझ जाते हैं। सारे गाँव में एक नया जीवन प्रवाहित होता हुआ जान पड़ता था। छूतछात का जैसे लोप हो गया था। दूसरे गाँव के ऊँची जातियों के लाग भी अक्सर आ जाते थे।”21
उपर्युक्त विवेचन में पाठ्यक्रम-सम्बन्धी अनेक बातें स्वतः आ जाती हैं। यहाँ प्रेमचन्द का शिक्षा-सम्बधी स्वप्न साकार हो उठा है। उनके विचार कितने प्रगतिशील हैं तथा उनका दृष्टिकोण कितना व्यापक है यह उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है। उक्त संस्था में छुआछूत का नाम भी नहीं है, जब कि अन्य शालाओं में ‘हरिजनों’ के साथ अमानवीय व्यवहार होता था। प्रेमचन्द ने समाज-विरोधी तत्त्वों के विरुद्ध अपने उपन्यासों में जगह-जगह लिखा, तभी उनकी वे कृतियाँ आज युग-दर्पण का काम देती हैं।
प्रेमचन्द धर्मविहीन शिक्षा के विरोधी थे। पाश्चात्य शिक्षा भौतिक विकास के उद्देश्य को अपना लक्ष्य मानकर चलती है, आत्मिक विकास के लिए उसमें कोई व्यवस्था नहीं है। प्रेमचंद भौतिक और आत्मिक दोनों तत्त्वों से युक्त शिक्षा के समर्थक थे। एकांगी शिक्षा ग्रहण से एकांगी विकास ही सम्भव है। भौतिक दिशा में यह एकांगी विकास मनुष्य को स्वार्थी बना देता है। ‘प्रेमाश्रम’ में रायसाहब ज्ञानशंकर से कहते हैं, “यह तुम्हारा दोष नहीं, तुम्हारी धर्मविहीन शिक्षा का दोष है। तुम्हें आदि से ही भौतिक शिक्षा मिली है। हृदय के भाव दब गये। तुम्हारे गुरुजन स्वयं स्वार्थ के पुतले थे। उन्होंने कभी सरल-सन्तोषमय जीवन का आदर्श तुम्हारे सामने नहीं रखा। तुम अपने घर में, स्कूल में, जगत् में, नित्य देखते थे कि बुद्धिबल का कितना मान है। तुमने सदैव इनाम और पदक पाये, कक्षा में तुम्हारी प्रशंसा होती रही, प्रत्येक अवसर पर तुम्हें आदर्श बनाकर दूसरों को दिखाया जाता था। तुम्हारे आत्मिक विकास की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया, तुम्हारे मनोगत भावों को, तुम्हारे उद्गारों को सन्मार्ग पर ले जाने की चेष्टा नहीं की गई, तुमने धर्म और भक्ति का प्रकाश कभी नहीं देखा, जो मन पर छाये हुए तिमिर को नष्ट करने का एक साधन है। तुम जो कुछ हो, अपनी शिक्षा-प्रणाली के बनाये हुए हो।”22
प्रेमचन्द ने शिक्षा का महत्त्व प्रारम्भ से भली-भाँति समझ लिया था। शिक्षा किसी भी समाज की मनोवृत्तियों की आधार होती है, उसकी उपेक्षा आगे चलकर बड़ा कड़वा फल देती है। उपेक्षा के अतिरिक्त गलत ढंग की शिक्षा नई पीढ़ी को पथभ्रष्ट करके समाज को अधोगति की ओर ले जाती है। प्रेमचन्द के शिक्षा-शास्त्री होने में तनिक भी सन्देह नहीं किया जा सकता। ‘वरदान’ जैसे प्रारम्भिक उपन्यास में ही हम उनको बाल-मानेविज्ञान के ज्ञाता के रूप में पाते हैं। बच्चों को शिक्षा किस ढंग से दी जाय, उसका उल्लेख ‘वरदान’ में मिलता है। पुराने ढंग की शिक्षा-प्रणाली का अच्छा-ख़ासा मज़ाक प्रताप, बिरजन और मुंशी जी के संवादों में निहित है, “प्रताप धीरे-धीरे कुछ हिचकिचाता, सकुचाता समीप आया। मुंशीजी ने पितृवत् प्रेम से उसे गोद में बैठा लिया और पूछा, ‘तुम कौन सी किताब पढ़ रहे थे ?’
प्रताप बोलने को ही था कि बिरजन बोल उठी, ‘बाबा, अच्छी-अच्छी कहानियाँ थीं। क्यों बाबा, क्या पहले चिड़ियाँ भी हमारी भाँति बातें करती थीं ?
मुंशी जी मुस्कराकर बोले, ‘हाँ ! वे खूब बोलती थीं।’ अभी उनके मुँह से पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि प्रताप, जिसका संकोच अब गायब हो चला था, बोला, ‘नहीं बिरजन, तुम्हें भुलाते हैं। ये कहानियाँ बनाई हुई हैं।’ मुंशी जी इस निर्भीकतापूर्ण खण्डन पर खूब हँसे।
अब तो प्रताप तोते की भाँति चहकने लगा, ‘...गांगा जी का पानी नीला है। ऐसे ज़ोर से बहता है कि बीच में पहाड़ भी हो, तो बह जाय। वहाँ साधु बाबा हैं। रेल दौड़ती है सन-सन। उसका इंजन बोलता है - भक-भक। इंजन में भाप होती है, उसी के जोर से गाड़ी चलती है। गाड़ी के साथ पेड़ भी दौड़ते दिखाई देते हैं।
...बिरजन चित्र की भाँति चुपचाप बैठी हुई सुन रही थी। रेल पर वह भी दो तीन बार सवार हुई थी, परन्तु उसे आज तक यह न ज्ञात था कि उसे किसने बनाया और वह क्योंकर चलती है। दो बार उसने गुरु जी से यह प्रश्न किया था, परंतु उन्होंने यह कहकर टाल दिया था कि ‘बच्चा, ईश्वर की महिमा अपरम्पार है।’ बिरजन ने समझ रखा कि महिमा कोई बड़ा भारी भरकम बलवान घोड़ा है, जो इतनी गाड़ियों को सन-सन खींचे लिये जाता है। जब प्रताप चुप हुआ तो बिरजन ने पिता के गले में हाथ डालकर कहा, ‘बाबा, हम भी प्रताप की किताब पढ़ेंगे।’
मुंशी - ‘बेटी, तुम तो संस्कृत पढ़ती हो, यह भाषा है।’
बिरजन - ‘तो मैं भाषा ही पढूंगी। इसमें कैसी अच्छी-अच्छी कहानियाँ हैं। मेरी किताब में तो एक भी कहानी नहीं। क्यों बाबा, पढ़ना किसे कहते हैं ?
मुंशी जी बगलें झाँकने लगे। उन्होंने आज तक आप ही कभी ध्यान नहीं दिया था कि पढ़ना क्या वस्तु है। अभी वे माथा ही खुजला रहे थे कि प्रताप बोल उठा, ‘मुझे तुमने पढ़ते देखा, उसी को पढ़ना कहते हैं।’
बिरजन - ‘क्या मैं नहीं पढ़ती ? मेरे पढ़ने को पढ़ना नहीं कहते ?’
बिरजन ‘सिद्धान्त-कौमुदी’ पढ़ रही थी। प्रताप ने कहा, ‘तुम तोते के भाँति रटती हो।”23
ये सभी बातें प्रेमचंद के व्यावहारिक ज्ञान की परिचायक है। असाधारण बालकों के मनोविज्ञान पर भी प्रेमचंद लिखते हैं, “साक्षियों के बयान और वकीलों की सूक्ष्म आलोचनाओं के तत्त्व को समझाना इतना कठिन नहीं है, जितना किसी निरुत्साही लड़के के मन में शिक्षा की रुचि उत्पन्न करना।”24
प्रेमचन्द विद्यार्थियों को मात्र पाठ्य-पुस्तकों का कीड़ा बना देना नहीं चाहते। वे उनको समाज के विस्तृत क्षेत्र में भी ले जाते हैं। ‘वरदान’ में वे लिखते हैं, “प्रतापचंद उन विद्यार्थियों में से न था, जिनका सारा उद्योग वक्तृता और पुस्तकों तक ही सीमित रहता है। उसके समय और योग्यता का एक छोटा भाग जनता के लाभार्थ भी व्यक्त होता था। बहुधा संध्या समय वह कीडगंज और कटरा की दुर्गन्धिपूर्ण गलियों में घूमता दिखाई देता जहाँ विशेषकर नीच जाति के लोग बसते हैं। जिन लोगों की परछाई से उच्च वर्ण का हिन्दू भागता है, उनके साथ प्रताप टूटी खाट पर बैठकर घंटों बातें करता।”25
‘रंगभूमि’ में भी विनय की मृत्यु पर जाह्नवी यह घोषण करती है, “बाल-बच्चों वालों से मेरा निवेदन है, अपने प्यारे बच्चों को चक्की का बैल न बनाओ, गृहस्थी का गुलाम न बनाना। ऐसी शिक्षा दो कि जिएँ, किन्तु जीवन के दास बनकर नहीं, स्वामी बनकर।”26 प्रेमशंकर के शब्दों में, “शिक्षा का फल यह होना चाहिए कि तुम बिरादरी के सूत्रधार बनो, उसको सुधारने का प्रयास करो न यह कि उसके दबाव से अपने सिद्धांतों का भी बलिदान कर दो।”27
‘दान’ की चर्चा आजकल बहुत है। आचार्य बिनावा भावे ने सम्पूर्ण देश में जिस मनोवृत्ति का प्रसार किया है उसका संकेत प्रेमचन्द के उपन्यास ‘कर्मभूमि’ में भी विद्यमान है। रेणुका अपनी पुत्र सुखदा से कहती है, “मन्दिर तो यों ही हो रहे हैं कि पूजा करने वाले नहीं मिलते। शिक्षादान महादान है।”28 ‘शिक्षा-दान- महादान’ का नारा लगाने वाले प्रेमचंद यदि आज जीवित होते तो ‘भूदान’ की तरह शिक्षा-दान भी देश की नींव सुदृढ़ करने में कितनी बड़ी भूमिका अदा करता, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘प्रेमचंद घर में’, पृ. 8
2 ‘प्रेमचंद घर में’, पृ. 12
3 जीवन-सार
4 ‘प्रेमचंद घर में’, पृ. 54-55
5 ‘कर्मभूमि’, पृ. 108
6 वही, पृ.108
7 वही, पृ.111
8 वही, पृ.231
9 ‘कायाकल्प’, पृ. 7
10 वही, पृ. 7-8
11 ‘कर्मभूमि’, पृ. 109
12 ‘कायाकल्प’, पृ. 7
13 ‘कर्मभूमि’, पृ. 9
14 वही, पृ. 77
15 वही, , पृ. 5
16 ‘कायाकल्प’, पृ. 123
17 ‘प्रेमाश्रम’, पृ. 2
18 ‘कर्मभूमि’, पृ. 3
19 वही, , पृ. 9
20 वही, , पृ. 111
21 ‘प्रेमाश्रम’, पृ. 179-180
22 वही, , पृ. 434-435
23 ‘वरदान’, पृ. 12-13
24 वही, , पृ. 27
25 वही, , पृ. 109
26 ‘रंगभूमि’ (भाग - 2), पृ.385
27 ‘प्रेमाश्रम’, पृ. 169
28 ‘कर्मभूमि’, पृ. 238
औद्योगिक समस्या
औद्योगिक समस्या को प्रेमचन्द ने ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ में उठाया है। ‘रंगभूमि’ के प्रमुख उद्योगपति जॉन सेवक हैं तथा ‘गोदान’ के मिस्टर चन्द्रप्रकाश खन्ना। एक तम्बाकू का कारखाना खोलते हैं तो दूसरे की शक्कर-मिल है। प्रेमचन्द ने अपने इन दो उपन्यासों में उद्योगपतियों की योजनाओं, उनके पीछे औद्योगिक नैतिकता तथा औद्योगीकरण के दुष्परिणामां पर प्रकाश डाला है।
इस स्थल पर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या प्रेमचन्द औद्योगीकरण के विरोधी थे ? ज़मीन पर से एकाधिकर उठता देखकर अधिकांश पूँजीपतियों ने जगह-जगह बड़े-बड़े कारख़ाने खोलने प्रारंभ किए, जिससे उनकी पूँजी सुरक्षित रह सके और समस्त आधुनिक साधनों के माध्यम से वे मज़दूरों का शोषण करके अधिक-से-अधिक मुनाफ़ा बना सकें। औद्योगीकरण के पीछे मुनाफ़े का दृष्टिकोण प्रमुख है। प्रेमचंद इसी पूँजीवादी औद्योगीकरण के विरोधी थे, जिसमें मानवीय मूल्यों को कोई स्थान नहीं दिया जाता। ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ में तम्बाकू और शक्कर के कारखानों को प्रतीक मानकर पूँजीपति मनोवृत्ति को प्रेमचन्द ने हमारे सामने रखा है और यह बताया है कि ऐसे औद्योगीकरण से जनता का कोई लाभ नहीं हो सकता। उसे तो प्रेमचन्द ने शोषण का एक नया हथियार ही बताया है, जिसके परिणाम कोई कम भयावह नहीं हैं। किसानों और मज़दूरों का शोषण ज्यों-का-त्यों बना रहता है। अतः प्रेमचन्द उद्योगों और औद्योगीकरण के विरोधी नहीं थे, पूँजीपति औद्योगिक प्रकृति के कट्टर विरोधी थे। तम्बाकू और शक्कर के उपर्युक्त कारख़ानों के माध्यम से उन्होंने पूँजीशाही वर्ग का नग्न चित्रण करके उसकी मनोवृत्तियों के प्रति घृणा को जन्म दिया है। जॉन सेवक के कारनामों के प्रति पाठक क्रोध से भर उठता है। मिस्टर खन्ना भी पाठक की सहानुभूति उस समय तक प्राप्त नहीं करते जब-तक उनकी शक्कर मिल तबाह नहीं हो जाती। अभिप्राय यह कि प्रेमचन्द ने औद्योगीकरण के अथवा पूँजीपति व्यक्तियों के विरुद्ध न लिखकर वर्तमान औद्योगिक-व्यवस्था के विरोध में लिखा है।
आधुनिक सभ्यता का आधार धन है। धनिक अपनी इच्छापूर्ति आज सहज ही कर सकता है। समस्त शासकीय मशीनरी को उसने पैसे के बल पर अपने वश में कर रखा है। ‘रंगभूमि’ में जॉन सेवक कहता है, “यह व्यापार राज्य का युग है। योरोप के बड़े-बड़े शक्तिशाली साम्राज्य पूँजीपतियों के इशारों पर बनते-बिगड़ते हैं। किसी गवर्नमेंट का साहस नहीं कि उनकी इच्छा का विरोध करे। तुमने मुझे समझा क्या है, मैं वह नरम चारा नहीं हूँ, जिसे क्लार्क और महेन्द्र खा जायेंगे।”1 अतः पूँजीपति वर्ग मानवीय मूल्यों को धता बताकर मनमानी योजनाएँ तैयार करता है और जनता को अपार कष्ट पहुँचाकर उन योजनाओं को फलीभूत होते देखने के प्रयत्न करता है। ‘रंगभूमि’ में जॅान सेवक तम्बाकू का कारखाना खोलने के लिए भूमिका तैयार करता हुआ कहता है, “मेरा इरादा है म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन साहब से मिलकर यहाँ एक शराब और ताड़ी की दुकान खुलवा दूँ। तब आसपास के चमार यहाँ रोज़ आएंगे और आपको उनसे मेलजोल पैदा करने का अवसर मिलेगा।”2 नगर के हितों की रक्षा करने वाली संस्थाओं को ये पूँजीपति मानों अपनी जेबी संस्था समझते हैं। धन के बल पर खेतों में गेहूँ-जो के स्थान पर तम्बाकू की खेती करवा लेना भी उनके लिए साधारण बात है। तम्बाकू की खेती के प्रश्न पर जॉन सेवक पूर्ण विश्वास के साथ कहता है, “कच्चा माल पैदा करना हमारा काम होगा। किसान को ऊख या जौं-गेहूँ से कोई प्रेम नहीं होता। वह जिसके करने में अपना लाभ देखेगा, वही पैदा करेगा।”3 इस स्थल पर प्रेमचन्द ने उद्योगपतियों की नैतिकता पर तीव्र प्रहार किए हैं। कुँवर साहब और जॉन सेवक का निम्नलिखित वार्तालाप प्रेमचन्द के दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देता है। स्वार्थी और लाभ-लोभी जॉन सेवक बड़ा भला बनकर कहता है, “हमारी जाति का उद्धार कला-कौशल और उद्योग की उन्नति में है। इस सिगरेट के कारखाने से कम-से-कम एक हज़ार आदमियों के जीवन की समस्या हल हो जाएगी और खेती के सिर से उनका बोझ टल जाएगा। जितनी एक आदमी अच्छी तरह जोत-बो सकता है, उसमें घर-भर का लगा रहना व्यर्थ है। मेरा कारखाना ऐसे बेकारों को अपनी रोटी कमाने का अवसर देगा।...”
कुँवर साहब - लेकिन तम्बाकू कोई अच्छी चीज़ तो नहीं। इसकी गणना मादक वस्तुओं में है, और स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर पड़ता है।”
जॉन सेवक – (हँसकर) ये सब डाक्टरों की कोरी कल्पनाएँ हैं, जिन पर गम्भीर विचार करना हास्यास्पद है। डाक्टरों के आदेशानुसार हम जीवन व्यतीत करना चाहें, तो जीवन का अन्त ही हो जाए।...व्यवसायी लोग इन गोरखधंधों में नहीं पड़ते; उनका लक्ष्य केवल वर्तमान परिस्थितियों पर रहता है। हम देखते हैं कि इस देश में विदेश से करोड़ों रुपये के सिगरेट और सिगार आते हैं। हमारा कर्तव्य है कि इस धन-प्रवाह को विदेश जाने से रोकें। इसके बगैर हमारा आर्थिक जीवन कभी पनप नहीं सकता।”4
व्यवसायी लोग इन गोरखधंधों में नहीं पड़ते, यह लिखकर प्रेमचन्द ने आधुनिक औद्योगिक समाज की मनोवृत्ति का परिचय दे दिया है। तम्बाकू का कारखाना खोलने के पक्ष में जॉन सेवक ने जो दलीलें दी थीं, उनका कुँवर साहब पर असर पड़ता है और वे पाँच-सौ हिस्से लेने का वचन देते हैं। यहाँ प्रेमचन्द ने ऐसे बनावटी देशभक्तों पर भी व्यंग्यात्मक छींटे मारे हैं, “तुमने देश की व्यावसायिक उन्नति के लिए नहीं अपने स्वार्थ के लिए यह प्रयत्न किया है। देश के सेवक बनकर तुम अपनी पाँचों उँगलियाँ घी में रखना चाहते हो। तुम्हारा मनोवांछित उद्देश्य यही है कि नफ़े का बड़ा भाग किसी हीले से आप हज़म करो। तुमने इस लोकोक्ति को प्रमाणित कर दिया कि बनिया मारे जान, चोर मारे अनजान।”5 ढोंगी ईश्वर-भक्त ईश्वर सेवक जॉन का समर्थन करता हुआ कहता हे, “खुदा मुझ पर दया-दृष्टि करे। बेटा, रंग मिलाए बगैर भी दुनिया का कोई काम चलता है? सफलता का यही मूलमंत्र है, और व्यवसाय की सफलता के लिए तो यह सर्वथा अनिवार्य है।”6 प्रभु सेवक के मुख से प्रेमचन्द आधुनिक व्यावसायिक मनोवृत्ति की तीव्र भर्त्सना करते हुए लिखते हैं, “व्यवसाय कुछ नहीं है, अगर नर-हत्या नहीं है। आदि से अंन्त तक मनुष्यों को पशु समझना और उनसे पशुवत् व्यवहार करना इसका मूल सिद्धान्त है। जो यह नहीं कर सकता, वह सफल व्यवसायी नहीं हो सकता।”7
उधर ‘गोदान’ में मिस्टर चन्द्रप्रकाश खन्ना जो एक बैंक के मैनेजर और शक्कर मिल के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं इसी मनोवृत्ति का परिचय देते हैं। शक्कर मिल जल जाने पर मि॰ खन्ना स्वयं अपनी नैतिकता को उघारकर हमारे सामने रख देते हैं, “आप नहीं जानते मिस्टर मेहता, मैंने अपने सिद्धान्तों की कितनी हत्या की है। कितनी रिश्वतें दी हैं, कितनी रिश्वतें ली हैं। किसानों की ऊख तोलने के लिए कैसे आदमी रखे, कैसे नकली बाट रखे।”8 मिल के पीछे कौन-सा अर्थशास्त्र कार्य कर रहा था, उसका परिचय देते हुए मिस्टर खन्ना कहते हैं, “हमारी नियमावली देखिए, हम पूर्ण सहकारिता के सिद्धान्त पर काम करते हैं। दफ़्तर और कर्मचारियों के खर्च के सिवा नफ़े की एक पाई भी किसी की जेब में नही जाती। आपको आश्चर्य होगा कि इस नीति से कम्पनी कैसे चल रही है। और मेरी सलाह से थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कर दीजिए। यह जो आज सैकड़ों करोड़पति बने हुए हैं, सब इसी स्पेकुलेशन से बने हैं। रूई, शक्कर, गेहूँ, रबर किसी जिन्स का सट्टा कीजिए। मिनटों में लाखों का वारा-न्यारा होता है।”9 अधिक-से-अधिक मुनाफ़े की मनोवृत्ति की निन्दा करते हुए मेहता मिस्टर खन्ना से कहते हैं, “क्या आपका विचार है कि मज़दूरों को कष्ट न होगा ? आपके मज़दूर बिलों में रहते हैं - गंदे, बदबूदार बिलों में, जहाँ आप एक मिनट भी रह जाएँ, तो आपको कै आ जाए। कपड़े जो वह पहनते हैं, उनसे आप अपने जूते भी न पोंछेंगे। खाना जो वह खाते हैं, वह आपका कुत्ता भी न खाएगा। मैंने उनके जीवन में भाग लिया है। आप उनकी रोटियाँ छीनकर अपने हिस्सेदारों का पेट भरना चाहते हैं।”10 और प्रेमचन्द ने बतलाया कि अनीति पर खड़ा औद्योगिक संस्कृति का प्रतीक यह मिल भस्मीभूत हो जाता है, “उस अग्नि-समुद्र के नीचे ऐसा धुआँ छाया था, मानों सावन की घटा कालिख़ में नहाकर नीचे उतर आई हो। उसके ऊपर जैसे आग का थरथराता हुआ, उबलता हुआ हिमाचल खड़ा था। हाते में लाखों आदमियों की भीड़ थी, पुलिस भी थी, फायर ब्रिगेड भी, सेवा-समितियों के सेवक भी; पर सबके-सब आग की भीषणता से मानों शिथिल हो गए हों। फायर ब्रिगेड के छींटे उस अग्नि-सागर में जाकर जैसे बुझ जाते थे। ईटें जल रही थीं, लोहे के गडर्र जल रहे थे और पिघली हुई शक्कर के परनाले चारों तरफ़ बह रहे थे। और तो और जमीन से भी ज्वाला निकल रही थी।”11 ‘रंगभूमि’ में जहाँ किसानों की ज़मीन छिनती है और उनके मकान ढहा दिए जाते हैं, वहाँ ‘गोदान’ में प्रेमचन्द मिल को धू-धू जलती हुई चित्रित करते हैं। यह पूँजीवादी संस्कृति के अवश्यंभावी विनाश का विश्वास है। मज़दूरों का संघर्ष जैसे-जैसे तीव्र होता जाएगा वैसे-वैसे आधुनिक सम्यता के अंग पूँजीपति या तो आत्म-समर्पण कर देगें अथवा समाप्त हो जाएंगे।
औद्योगीकरण का विरोध प्रेमचन्द ने एक और दृष्टिकोण से भी किया है। प्रेमचन्द चारित्रिक आदर्श पर विश्वास रखते थे। वे मज़दूरों का नैतिक स्तर ऊँचा देखना चाहते थे। औद्योगीकरण से मज़दूरों के नैतिक स्तर को उठाने में कोई सहायता नहीं मिलती। पूँजीपति उसे दिन-पर-दिन गिराने का षड्यंत्र रचते हैं। वे चाहते हैं, मज़दूर वर्ग शराब, व्यभिचारादि दुर्गुणों में फँसा रहे। उसमें नैतिक ज्वाला का प्रवेश न हो; अन्यथा वह अपने शोषण के विरुद्ध विद्रोह कर बैठेगा और पूँजीपतियों के मुनाफ़े को भारी चोट पहुँचेगी। ये विचार प्रेमचन्द ने ‘रंगभूमि’ में सूरदास के माध्यम से व्यक्त किए हैं। सूरदास नायकराम से कहता है, “मुहल्ले की रौनक ज़रूर बढ़ जाएगी, रोज़गारी लोगों को फायदा भी खूब होगा ; लेकिन जहाँ यह रौनक बढ़ेगी वहाँ ताड़ी-शराब का प्रचार भी तो बढ़ जाएगा, कसबियाँ तो आकर बस जाएंगी, परदेसी आदमी हमारी बहू-बेटियों को घूरेगा, कितना अधरम होगा। दिहात के किसान अपना काम छोड़कर मजूरी के लालच से दौड़ेंगे, यहाँ बुरी-बुरी बातें सीखेंगे और अपने बुरे आचरण अपने गाँव में फैलाएंगे। देहातों की लड़कियाँ, बहुएँ मजदूरी करने आंएगी और यहाँ पैसे के लोभ में अपना धरम बिगाड़ेंगी। यही रौनक शहरों में है। वही रोनक यहाँ हो जाएगी। भगवान न करें, यहाँ वह रौनक हो, सरकार, मुझे इस कुकरम और अधरम से बचाएँ।”12 और जब फैक्टरी लगभग तैयार हो जाती है तब जो आशंका सूरदास ने व्यक्त की थी वह सत्य प्रमाणित होती है। इन्द्रदत्त से सूरदास कहता है, “साहब, आप पुतलीघर के मज़दूरों के लिए घर क्यां नहीं बनवा देते ? वे सारी बस्ती मे फैले हुए हैं और रोज़ ऊधम मचाते हैं। हमारे मुहल्ले में किसी ने औरतों को नहीं छेड़ा था, न कभी इतनी चोरियाँ हुई थीं, न कभी इतने धड़ल्ले से जुआ हुआ, न शराबियों का ऐसा हुल्लड़ रहा। जबेतक मजूर लोग यहाँ काम पर नहीं आते, औरतें घरों से पानी भरने नहीं निकलतीं। रात को इतना हुल्लड़ होता है कि नींद नहीं आती। किसी को समझाओ, तो लड़ने पर उतारू हो जाता है।”13 ये सामाजिक दुर्गुण भी औद्योगीकरण के साथ-साथ स्वतः आते हैं जिनके पीछे आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था ही उत्तरदायी है।
औद्योगीकरण के सम्बन्ध में अप्रासंगिक रूप से ‘प्रेमाश्रम’ में भी चर्चा मिलती है। किसी कम्पनी का प्रतिनिधि रायसाहब से हिस्से लेने का अनुरोध करता है। यहाँ प्रेमचन्द रायसाहब और एजेण्ट के वार्तालाप को सप्रयोजन प्रस्तुत करते हैं और औद्योगीकरण पर अपने विचार तार्किक ढंग से उपस्थित करते हैं :
“ऐजेण्ट - जब आप जैसे विचारशील सज्जन व्यापारिक उद्योग से पृथक् रहेंगे तो इस अभागे देश की उन्नति सदैव स्वप्न ही रहेगी।
रायसाहब - मैं ऐसी व्यापारिक संस्थाओं को देशोद्धार की कुंजी नहीं समझता।...आपकी यह कम्पनी धनवानों को और धनवान बनाएगी, जनता को इससे बहुत लाभ पहुँचने की सम्भावना नहीं । निस्सन्देह आप कई हज़ार कुलियों को काम में लगा देंगे, पर यह मज़दूर अधिकांश किसान ही होंगे और किसानों को कुली बनाने का मैं कट्टर विरोधी हूँ। मैं नहीं चाहता कि वह लोभ के वश अपने बाल-बच्चों को छोड़कर कम्पनी की छावनियों में जाकर रहें और अपना आचरण भ्रष्ट करें। अपने गाँव में उनकी एक विशेष स्थिति होती है। उनमें आत्मप्रतिष्ठा का भाव जाग्रत रहता है। बिरादरी का भय उन्हें कुमार्ग से बचाता है। कम्पनी की शरण में जाकर वह अपने घर के स्वामी नहीं, दूसरे के गुलाम हो जाते हैं, और बिरादरी के बन्धनों से मुक्त होकर नाना प्रकार की बुराइयाँ करने लगते हैं। कम से कम मैं अपने किसानों को इस परीक्षा में डालना नहीं चाहता।
ऐजेण्ट - क्षमा कीजिए, आपने एक ही पक्ष का चित्र खींचा है। कृपा करके हमारे पक्ष का भी अवलोकन कीजिए। हम कुलियों को जैसे वस्त्र, जैसा भोजन, जैसे घर देते हैं, वैसे गाँव मे रहकर उन्हें कभी नसीब नहीं हो सकते। हम उनकी दवा-दारू का, उनकी सन्तानों की शिक्षा का, उन्हें बुढ़ापे में सहारा देने का उचित प्रबन्ध करते हैं।
यहाँ तक कि हम उनके मनोरंजन और व्यायाम की व्यवस्था कर देते हैं। वह चाहें तो टेनिस-फुटबाल खेल सकते हैं। चाहे तो पार्कों की सैर कर सकते हैं। सप्ताह में एक दिन गाने-बजाने के लिए समय से कुछ पहले ही छुट्टी दे दी जाती हैं। जहाँ तक मैं समझता हूँ कि पार्कों में रहने के बाद कोई कुली फिर खेती करने की परवा न करेगा।
रायसाहब - नहीं, मैं इसे कदपि स्वीकार नहीं कर सकता। किसान कुली बनकर कभी अपने भाग्य-विधाता को धन्यवाद नहीं दे सकता, उसी प्रकार जैसे कोई आदमी व्यापार कर स्वतन्त्र सुख भोगने के बाद नौकरी की पराधीनता को पसन्द नहीं कर सकता। सम्भव है कि अपनी दीनता उसे कुली बने रहने पर मजबूर करे, पर मुझे विश्वास है कि वह इस दासता से मुक्त होने का अवसर पाते ही तुरन्त अपने घर की राह लेगा। और फिर उसी टूटे-फूटे झोंपडे़ में अपने बाल-बच्चों के साथ रहकर सन्तोष के साथ कालक्षेप करेगा। आपको इसमें सन्देह हो तो आप कृषक कुलियों से एकान्त में पूछकर अपना समाधान कर सकते हैं। मैं अपने अनुभव के आधार पर यह बात कहता हूँ कि आप लोग इस विषय में योरोपवालों का अनुकरण करके हमारे जातीय जीवन के गुणों का सर्वनाश कर रहे हैं। योरोप में Industrialism की जो उन्नति हुई उसके विशेष कारण हैं। वहाँ के किसानों की दशा उस समय गुलामां से भी गयी-गुज़री थी। वह ज़मींदार के बन्दी होते थे। इस कठिन कारावास के देखते हुए धनपतियों की क़ैद ग़नीमत थी। हमारे किसानों की आर्थिक दशा चाहे कितनी बुरी क्यों न हो, पर वह किसी के गुलाम नहीं हैं। अगर कोई उन पर अत्याचार करे तो वह आदालतों में उससे मुक्त हो सकते है। नीति की दृष्टि में किसान और जमींदार दोनों बराबर हैं।”14
प्रेमचन्द घरेलू धन्धों के पक्षपती थे। नवीन औद्योगीकरण से घरेलू उद्योग- धंधे पनप नहीं सकते, अतः उन्हें सुरक्षा दी जानी चाहिये। ऐसा करने से देश और जनता को लाभ हो सकता है, जो आधुनिक औद्योगीकरण से असम्भव है -
“उन्हें घर से निर्वासित करके दुर्व्यसन के जाल में न फँसाएँ, उनके आत्माभिमान का सर्वनाश न करें और यह उसी दशा में हो सकता है जब घरेलू शिल्प का प्रचार किया जाए और वह अपने गाँव में कुछ और बिरादरी की तीव्र दृष्टि के सम्मुख अपना अपना काम करते रहें।
ऐजेण्ट - आपका अभिप्राय Cottage Industry से है। समाचार-पत्रों में कहीं-कहीं इसकी चर्चा भी हो रही है। किन्तु इसका सबसे बड़ा पक्षपाती भी यह दावा नहीं कर सकता कि इसके द्वारा आप विदेशों का सफलता के साथ अवरोध कर सकते हैं।
रायसाहब - इसके लिए हमें विदेशी वस्तुओं पर कर लगाना पड़ेगा। योरोपवाले दूसरे देशों से कच्चा माल ले जाते हैं, जहाज का किराया देते हैं, उन्हें मजूरों को कड़ी मजदूरी देनी पड़ती है, उस पर हिस्सेदारों को नफ़ा भी खूब चाहिए। हमारा घरेलू शिल्प इन समस्त बाधाओं से मुक्त रहेगा और कोई कारण नहीं कि उचित संगठन के साथ वह विदेशी व्यापार पर विजय न पा सके। वास्तव में हमने कभी इस प्रश्न पर ध्यान नहीं दिया । पूँजी वाले लोग इस समस्या पर विचार करते हुए डरते हैं। वे जानते हैं कि घरेलू शिल्प हमारे प्रभुत्व का अन्त कर देगा। इसीलिए वह इसका विरोध करते हैं।”15
इस प्रकार, प्रेमचन्द अपने उपन्यासों की विशाल पृष्ठभूमि तैयार करते हैं, जिससे देश की अनेक समस्याओं का उसमें समावेश हो सके। उपन्यासों के माध्यम से बड़े सरल ढंग से उन्हांने गम्भीर प्रश्नों की विवेचना की है तथा उनका व्यावहारिक रूप दिखाकर समाज को उचित मार्ग खोजने के लिए सचेत किया है।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 352
2 वही, पृ. 14
3 वही, पृ. 16
4 वही, पृ. 79-80
5 वही, पृ. 84
6 वही, पृ. 181
7 ‘रंगभूमि’ (भाग-2), पृ. 180
8 ‘गोदान’, पृ. 95
9 ‘गोदान’, पृ. 120
10 ‘गोदान’, पृ. 390
11 ‘गोदान’, पृ. 393
12 ‘रंगभूमि’ (भाग-1), पृ. 131-132
13 वही, पृ. 167-168
14 ‘प्रेमाश्रम’, पृ. 124.126
15 वही, पृ. 127-128
ग्रामीण जीवन (किसान-वर्ग की समस्याएँ)
प्रेमचन्द का जन्म ‘लमही’ गाँव में हुआ था। उनका सरकारी नौकरी का क्षेत्र भी ग्रामीण प्रदेश रहा। चूँकि आप शिक्षा-विभाग में सब-डिप्टी-इन्स्पेक्टर थे, अतः गाँव-गाँव दौरा करना पड़ता था। स्वभावतः ग्रामीण जीवन के प्रति प्रेमचन्द के हृदय में अपार प्रेम था। ग्रामीण जनता और उसकी विविध समस्याओं से प्रेमचन्द का अत्यधिक निकट का सम्पर्क था। वे किसान-वर्ग के मनोविज्ञान से भली-भाँति परिचित थे। कहना न होगा कि यह सब ग्रामीण जनता के गहन सम्पर्क में आने का परिणाम है। यही कारण है कि प्रेमचन्द अपने उपन्यासों में ग्रमीण जीवन का बड़ा ही सजीव चित्रण कर सके हैं। उन्होंने जो कुछ लिखा है उसके पीछे उनका अनुभव निहित है; इसलिए उसकी सच्चाई बरबस पाठक को आकर्षित कर लेती है। आज के छोटे-बड़े अनेक नेता किसानों के पक्षपाती होने का ढोंग रचते हैं, पर किसानों के जीवन से उनका तनिक भी सम्बन्ध नहीं होता। प्रेमचन्द ने ऐसे नेताओं की ओर ‘कायाकल्प’ में संकेत किया है। चक्रधर कहता है, “हमारे नेताओं में यही तो बड़ा ऐब है कि वे स्वयं देहातों में न जाकर शहरों में पड़े रहते हैं, जिससे देहातों की सच्ची दशा नहीं मालूम होती।”1 किसानों के प्रति प्रेमचन्द ने कोरी बौद्धिक सहानुभूति प्रदर्शित नहीं की है; वरन् बड़े ही यथार्थ ढंग से उनकी दुर्बलताओं, विशेषताओं और समस्याओं पर प्रकाश डाला है। उनके अनेक उपन्यासों में प्रस्तुत समस्याओं का वर्णन मिलता है। प्रारम्भ से ही वे गाँव को दृष्टि में रखकर उपन्यास लिखते हैं और ‘गोदान’ तक आते-आते उनकी दृष्टि ग्रामीण जीवन के प्रत्येक पहलू पर अच्छी तरह से प्रकाश डाल देती है। किसानों के जीवन से सम्बन्धित उनके निम्नलिखित उपन्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं - ‘वरदान’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’।
ग्रामीण जीवन की व्याख्या के लिए उसके अग्रलिखित विभाग किए जा सकते हैं :
1. व्यक्ति किसान,
2. उसकी आर्थिक स्थिति,
3. उसके शोषक,
4. भारत का नया किसान और
5. किसान की समस्याओं के निराकरण का मार्ग।
जहाँ तक व्यक्ति किसान का सम्बन्ध है, प्रेमचन्द ने उसकी चारित्रिक विशेषताओं, उसके अन्धविश्वासों तथा उसकी दुर्बलताओं पर स्पष्ट रूप से लिखा है। किसान गाँव के अन्य देहातियों से कोई पृथक् संस्कृति नहीं रखता। वास्तव में, यह ग्रामीण जनता का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरे, यह भी स्पष्ट है कि ग्रामों में अधिकांश किसान ही रहते हैं। अतः जहाँ प्रेमचन्द ने ग्रामीणों के जीवन का चित्रण किया है, उसे किसान-वर्ग से भी सम्बद्ध समझना चाहिए। मनुष्य के स्वभाव को आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ बनाती हैं। प्रेमन्दकालीन किसानों जैसी मनोवृत्तियाँ आज के किसानों में भी पायी जाएँ, यह कोई अनिवार्य नहीं।
भारतीय ग्रामीण जनता अन्धविश्वासी होती है। प्राचीन संस्कारों में वह बुरी तरह ग्रस्त है। प्रेमचन्द ने ग्रामीण जनता के अन्धविश्वासों का जगह-जगह वर्णन किया है। यथा - ‘वरदान’ में ‘कमला के नाम बिरजन के पत्र’ शीर्षक से सत्राहवें परिच्छेद में – “हमारे घर के पीछे एक गड्ढा है... यहाँ किम्वदन्ती है कि गड्ढे में चुडैलें नहाने आया करती हैं। और वे अकारण राह चलनेवालों से छेड़छाड़ किया करती हैं। इसी प्रकार द्वार पर एक भारी पीपल का पेड़ है। वह भूतों का आवास है। ...पीपल का त्रास सारे गाँव के हृदय पर ऐसा छाया हुआ है कि सूर्यास्त ही से मार्ग बन्द हो जाता है।”2 आदि विस्तृत वर्णन किया गया है।
‘वरदान’ प्रेमचन्द जी के प्रारम्भिक उपन्यासों में से है। वह कोई समस्यामूलक भी नहीं है, फिर भी प्रेमचन्द ग्रामीण जीवन का समावेश किसी-न-किसी बहाने उसमें भी कर देते हैं। बिरजन के पत्रों में जहाँ प्रेम-चर्चा होनी चाहिए थी; वहाँ यह रूखा वर्णन है। इस सबका अन्ततः उद्देश्य क्या है ? कहना न होगा कि प्रेमचन्द प्रारम्भ से ही ग्रामीण जनता की ओर आकर्षित थे। उसमें सुधार देखना चाहते थे। गाँवों के अपने अनुभवों को उन्होंने अपनी कलाकृतियों में बड़ी स्वतन्त्रता से व्यक्त किया है।
आगे चलकर ‘रंगभूमि’ में भी ग्रामीणों के अन्धविश्वासों का उल्लेख मिलता है। जैनब ग्रामीण स्त्रियों की इस दुर्बलता का लाभ उठाती हुई जमुना को डराती है। प्रेमचन्द लिखते हैं, “अन्य स्त्रियों की भाँति वह भी थाना, पुलिस, कचहरी और दरबार की अपेक्षा भूतों-पिशाचों से ज़्यादा डरी रहती थी। पास पड़ोस में पिशाच-लीला देखने के अवसर आये दिन मिलते ही रहते थे। मुल्लाओं के यन्त्र-मन्त्र कहीं ज़्यादा लागू होते हैं, यह भी मानती थी। जैनब बेगम ने उसकी पिशाच-भीरुता को लक्षित करके अपनी विषय चातुरी का परिचय दिया। जमुना भयभीत होकर बोली, “नहीं बेगम साहब, आपको भी भगवान् ने बाल-बच्चे दिये हैं, ऐसे जुलुम न कीजिएगा, नहीं तो मर जाऊंगी।”3
पूर्वजन्मवाद पर विश्वास भी एक अन्धविश्वास ही है। आधुनिक शिक्षा-प्राप्त लोगों में पूर्वजन्म पर विश्वास बहुत कम पाया जाता है, पर, ग्रामीण अनपढ़ जनता तो शत-प्रतिशत पूर्वजन्मवाद की विश्वासी होती है। नगरों का आधुनिक शोषक- वर्ग, पूर्वजन्म के सिद्धान्त की आड़ में, ग्रामीणों का शोषण और अपना स्वार्थ सिद्ध करते हुए देखा जाता है। ‘रंगभूमि’ का सूरदास पूर्वजन्म पर अटल आस्था रखता है। सुभागी उसके चोरी गए रुपयों का भेद उसे बता देती है, जिस पर सूरदास कहता है, “मेरे रुपये थे ही नहीं, शायद उन जन्मों में मैंने गैरों के रुपये चुराये होंगे।”4 इसी प्रकार ‘गोदान’ का होरी पुनर्जन्म में विश्वास रखता है। अपने पुत्र गोबर से वह कहता है, ‘‘यह बात नहीं है बेटा, छोटे-बड़े भगवान् के घर से बनकर आते हैं। सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किये थे, उसका आनन्द भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें क्या ?”5
जीवन के अनेक थपेड़ों ने वास्तव में ग्रामीण जनता को भाग्यवादी और पूर्वजन्म का विश्वासी बना दिया है। शताब्दियों से उनका शोषण हुआ है। जब-जब किसान ने सिर उठाया तब-तब उसे बुरी तरह कुचल दिया गया। किसान-वर्ग का असंगठित होना इसके पीछे प्रमुख कारण कहा जा सका है। युगों से दमन-चक्र में पीसे गये किसान डरपोक हो गए हैं। ज़मींदार के पाँव तले गर्दन दबी होने के कारण वे अपने मानवोचित अधिकारों तक की माँग करने में डरते हैं। प्रेमचन्द ने किसानों की इस डरपोक मनोवृत्ति का उल्लेख किया है। चारणों की तरह वे अपने ‘उपास्य’ की झूठी प्रशंसा नही करते। किसानों के प्रति उनके हृदय में जो अपार प्रेम और सहानुभूति है, वह वास्तविकता को नहीं दबाती। ‘गोदान’ का होरी अनेक स्थलों पर अपनी डरपोक प्रवृत्ति का परिचय देता है। यथा, ‘‘यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब-तक जान बची हुई है। नहीं तो कहीं पता न लगता कि किधर गये। गाँव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदख़ली नहीं आयी ? किस पर कुड़की नहीं आयी ? जब दूसरों के पाँवों तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुशलता है।”6
“पानी में रहकर मगर से बैर नहीं किया जाता।”7
अनेक अभावों और कष्टों के होते हुए भी भारतीय किसान का चरित्र उज्ज्वल होता है; वह दगाबाज़ नहीं होता। प्रेमचन्द उसकी खूबियों और स्वार्थी मनोवृत्ति का मनोवैज्ञानिक चित्रण करते हुए लिखते हैं, “किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमें सन्देह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है। जब तक पक्का विश्वास न हो जाय, वह किसी के फुसलाने में नहीं आता।”8
किसान की स्वार्थी मनोवृत्ति के पीछे उसका शोषण और उस पर होने वाले अत्याचार हैं। ज़मीदारों के अमानवीय व्यवहार से वह त्रस्त है। जब कभी उसका सद्-मनुष्यां से सम्बन्ध आता है; वह अपने स्वार्थ को भूल जाता है। ‘कर्मभूमि’ में समरकान्त सलीम के अफ़सरी अभिमान पर हँसकर कहते हैं, “यह बेचारे किसान ऐसे गरीब हैं कि थोडी़-सी हमदर्दी करके उन्हें गुलाम बना सकते हो। हुकूमत वह बहुत झेल चुके हैं। अब भलमनसी का बर्ताव चाहते हैं।”9 प्रेमचन्द को ग्रामीण जीवन नागरिक जीवन से अधिक प्रिय है। स्वार्थ-भावना के होते हुए भी जिस आत्मीयता के दर्शन ग्रामीण जनता में होते हैं, वह नागरिक जनता में दुर्लभ हैं। ‘सेवासदन’ में प्रेमचन्द लिखते हैं, “ग्रामीण जीवन में एक प्रकार की ममता होती है जो नागरिक जीवन में नहीं पाई जाती। एक प्रकार का स्नेह-बन्धन होता है जो सब प्राणियों को, चाहे छोटे हों या बड़े, बाँधे रहता है।”10
गाँव के लोग शान्तिप्रिय होते हैं। जहाँ तक होता है वे झगड़ों से दूर रहते हैं। ‘गोदान’ का ‘होरी’ झगड़े से बचने के लिए ग़म खा लेना श्रेयस्कर समझता है। प्रेमचन्द लिखते हैं, “होरी की कृषक प्रवृत्ति झगड़े से भागती थी। चार बातें सुनकर ग़म खा जाना इससे कहीं अच्छा है कि आपस में तनाजा हो। कहीं मारपीट हो जाय, तो थाना-पुलिस हो, बँधे-बँधे फिरो, सबकी चिरौरी करो। अदालत की धूल फाँको, खेती-बारी जहन्नुम में मिल जाय।”11 इसी प्रकार ‘रंगभूमि’ में प्रभु सेवक कहता है, “सूर्य को सिद्ध करने के लिए दीपक की ज़रूरत नहीं होती। देहाती लोग प्रायः शान्तिप्रिय होते हैं। जब तक उन्हें भड़काया न जाए, लड़ाई-दंगा नहीं करते। आपकी तरह उन्हें ईश्वर-भजन से रोटियाँ नहीं मिलतीं। सारे दिन सिर खपाते हैं तब रोटियाँ नसीब होती हैं।”12 कृषक की अभिलाषाएँ छोटी-छोटी होती हैं, पर वे भी पूरी नहीं हो पातीं। होरी की अभिलाषा को प्रेमचन्द ने कितने मार्मिक शब्दों में लिखा है, “होरी क़दम बढ़ाये चला जाता है। पगडण्डी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देखकर उसने मन में कहा, भगवान्, कहीं गौं से बरखा कर दे और डांडी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय ज़रूर लेगा। देसी गाय न तो दूध दें, न उनके बछवे ही किसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहीं, वह पछाँई गाय लेगा। उसकी खूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पाँच सेर दूध होगा। गोबर दूध के लिए तरस-तरसकर रह जाता है। इस उमिर में न खाया-पिया, तो फिर कब खायेगा ? साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने लायक हो जाय। बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम में गोई न होगी। फिर, गऊ से ही तो द्वार की शोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्शन हो जाएँ, तो कहना क्या। न जाने कब यह साध पूरी होगी, कब वह शुभ दिन आयेगा।”13 और जब होरी की जीवन-लीला समाप्त होती है तब – “हीरा ने रोते हुए कहा, ‘भाभी, दिल कड़ा करो, गो-दान करा दो, दादा चले।”
धनिया ने उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देखा। अब वह दिल को और कितना कठोर करे ? अपने पति के प्रति उसका जो धर्म है, क्या उसको बताना पड़ेगा ? जो जीवन का संगी था, उसके नाम को रोना ही क्या उसका धर्म है ?
और कई आवाजें आयीं ‘हाँ, गो-दान करा दो, अब यही समय है।’
धनिया यन्त्र की भाँति उठी, आज जो सुतली बेची थी उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े मातादीन से बोली,‘महराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है।’
और पछाड़ खाकर गिर पड़ी।”14
इस प्रकार प्रेमचन्द ने कृषक के स्वभाव और जीवन पर जगह-जगह बड़े मनोयोग से लिखा है।
किसान की आर्थिक स्थिति भी उनकी आँखों से ओझल नहीं रही। ‘वरदान’ के उसी ‘कमला के नाम विरजन के पत्र’ शीर्षक के अन्तर्गत प्रेमचन्द लिखते हैं, “टूटे-फूटे फूस के झोंपडे़, मिट्टी की दीवारें, घरों के सामन कूडे़-करकट के ढेर, कीचड़ में लिपटी हुई भैसें, दुर्बल गायें...मनुष्यों को देखो तो उनकी शोचनीय दशा है।...वे विपत्ति की मूर्तियाँ और दरिद्रता के जीवित चित्र हैं। किसी के शरीर पर एक फटा हुआ वस्त्र नहीं है। और कैसे भाग्यहीन कि रात-दिन पसीना बहाने पर भी कभी भरपेट रोटियाँ नहीं मिलतीं।”15
इसी प्रकार ‘कर्मभूमि’ में भी जगह-जगह किसान-वर्ग की दयनीय दशा का चित्रण किया गया है :
(क) “सलीम बोला - मैं समझता था कि देहातियों के पास अनाज के बखारें भरी होंगी, लेकिन यहाँ तो किसी घर में अनाज के मटके तक न थे।... और महाजन और अमले इन्हीं गरीबों को चूसते हैं ? मैं कहता हूँ, उन लोगों को इन बेचारों पर दया नहीं आती ?”16
(ख) “अमरकान्त ने करुण स्वर में कहा - मुझे तो उस आदमी की सूरत नहीं भूलती, जो छः महीने से बीमार पड़ा था और एक पैसे की दवा न ली थी। इस दशा में ज़मीदार ने लगान की डिग्री करा ली और जो कुछ घर में था, नीलाम करा लिया। बैल तक बिकवा लिये। ऐसे अन्यायी संसार की नियन्ता कोई चेतना शक्ति है, मुझे तो इसमें सन्देह हो रहा है।”17
(ग) “सलीम ने हर एक गाँव का दौरा करके असामियों की अर्थिक दशा की जाँच करना शुरू की। अब उसे मालूम हुआ कि उनकी दशा उससे कहीं हीन है, जितनी वह समझे बैठा था। पैदावार का मूल्य लागत और लगान से कहीं कम था। खाने-कपड़े की भी गुंजाइश न थी, दूसरे खर्चों का क्या ज़िक्र ! ऐसा कोई बिरला किसान ही था, जिसका सिर ऋण के नीचे न दबा हो।...उनसे पूरी लगान वसूल करना, मानो उनके मुँह से रोटी का टुकड़ा छीन लेना है, उनकी रक्तहीन देह से खून चूसना है।”18
‘गोदान’ तो कृषक जीवन का महाकाव्य ही है। ‘होरी’ का जीवन तत्कालीन भारत के लाख-लाख किसानों का जीवन है। प्रेमचन्द होरी की शोचनीय आर्थिक दशा का चित्रण करते हुए लिखते हैं : “एक तो जाड़े की रात, दूसरे, माघ की वर्षा। मौत का सा सन्नाटा छाया हुआ। होरी भोजन करके पुनिया के मटर के खेत की मेड़ पर अपनी मड़ैया में लेटा हुआ था। चाहता था, शीत को भूल जाए और सो रहे, लेकिन तार-तार कम्बल, फटी हुई मिर्जई और शीत के झोंकों से गीली पुआल, इतने शत्रुओं के सम्मुख आने की नींद में साहस न था। आज तमाखू भी न मिला कि उसी से मन बहलाता। उपला सुलगा था, पर शीत में वह भी बुझ गया। बेवाय फटे पैरों को पेट में डालकर, हाथों को जाँघां के बीच में दबाकर और कम्बल में मुँह छिपाकर अपनी ही गर्म साँसों से अपने को गर्म करने की चेष्टा कर रहा था। ...कम्बल तो उसके जन्म से भी पहले का है। बचपन में अपने बाप के साथ वह इसी में सोता था, जवानी में गोबर को लेकर इसी कम्बल में उसके जाड़े कटे थे और बुढ़ापे में आज वही बूढ़ा कम्बल उसका साथी है; पर अब वह भोजन को चबाने वाला दाँत नहीं, दुखने वाला दाँत है। जीवन में ऐसा तो कोई दिन ही नहीं आया कि लगान और महाजन को देकर कभी कुछ बचा हो।”19
भारतीय किसानों की सबसे ज्वलंत समस्या ऋण के बोझ से मुक्त होने की है। प्रेमचन्दकालीन ही नहीं बल्कि आज भी अधिकांश किसान महाजनी समस्या के पाट के नीचे बुरी तरह पिस रहे हैं। प्रेमचन्द ने बताया कि इन किसानों के लिए “कर्ज़ वह मेहमान है, जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता।”20 ‘गोदान’ का ‘होरी’ बहुत कुछ ऋण-भार के कारण ही आजन्म कष्ट उठाता है और अपने जीवन को नष्ट कर लेता है। ‘होरी’ और अन्य किसानों के ऋण की चर्चा करते हुए प्रेमचन्द मार्मिक व्यंग्य के साथ लिखते हैं, “फ़सल में सब कुछ खलिहान पर तौल देने पर भी अभी उस पर कोई तीन सौ का कर्ज़ था, जिस पर कोई सौ रुपये सूद के बढ़ते जाते थे। मंगरू शाह से आज पाँच साल हुए बैल के लिए साठ रुपये लिये थे। उसमें साठ दे चुका था, पर यह साठ रुपये ज्यों-के-त्यों बने हुए थे। दातादीन पंडित से तीस रुपये लेकर आलू बोए। आलू तो चोर खोद ले गए और उन तीस के इन तीन बरसों में सौ हो गए थे। दुलारी विधवा सहुवाइन थी, जो गाँव में नोन, तेल, तम्बाकू की दुकान रखे हुए थी। बँटवारे के समय उससे चालीस रुपये लेकर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपये हो गए थे; क्योंकि आने रुपये का ब्याज था। लगान के भी और पचीस रुपये बाकी पड़े हुए थे और दशहरे के दिन शकुन के रुपयों का भी कोई प्रबन्ध करना था। ज़िन्दगी के दो बड़े-बड़े काम सिर पर सवार थे, गोबर और सोना का विवाह...यह विपत्ति अकेले उसी के सिर पर न थी। प्रायः सभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी।”21
एक ओर ऋण का बोझ और दूसरी ओर जमींदारों के अत्याचार। किसानों के शोषण का भयंकर रूप प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में बताया है। जब तक किसान-वर्ग ज़मींदारों के चुंगल से मुक्त नहीं हो जाता तब तक उसकी समस्याएँ सुलझ नहीं सकतीं। ज़मीदारों और सरकारी अफ़सरों व कर्मचारियों के द्वारा शोषित किसानों के अनेक चित्र प्रेमचन्द ने चित्रित किए हैं :
“इसमें सन्देह नहीं कि अधिकारियों के यह दौरे सदिच्छाओं से प्रेरित होकर होते हैं।...किन्तु जिस भाँति प्रकाश की रश्मियाँ पानी में वक्रगामी हो जाती हैं, उसी भाँति सदिच्छाएँ भी बहुधा मानवी दुर्बलताओं के सम्पर्क से विषम हो जाया करती हैं। अधिकारी वर्ग और उनके कर्मचारी विरहिणी की भाँति इस सुखकाल के दिन गिना करते हैं। शहरों में तो दाल नही गलती, या गलती है तो बहुत कम। वहाँ प्रत्येक वस्तु के लिए उन्हें जेब में हाथ डालना पड़ता है, किन्तु देहातों में जेब की जगह उनका हाथ अपने सोटे पर होता है या किसी दीन किसान की गर्दन पर।...जितना खा सकते हैं, खाते हैं, बार-बार खाते हैं, और जो नहीं खा सकते, वह घर भेजते हैं। घी से भरे हुए कनस्टर, दूध से भरे हुए मटके, उपले और लकड़ी, घास और चारे से लदी हुई गाड़ियाँ शहरों में आने लगती हैं। घर वाले हर्ष के फूले नहीं समाते, अपने भाग्य को सराहते हैं। ... देहात वालों के लिए यह बड़े संकट के दिन होते हैं, उनकी शामत आ जाती है, मार खाते हैं, बेगार में पकड़े जाते हैं, दासत्व के दारुण निर्दय आघातों से आत्मा का भी ह्रास हो जाता है।“”22
“ज़मीदारों के बावन हाथ हाते हैं।”23 उनका वर्ग किसानों को किसी न किसी बहाने फँसाने का सामर्थ्य रखता है। पुलिस, न्यायालय, सरकारी अधिकारी, कर्मचारी सभी की उनकी पर बड़ी कृपा होती है; क्योंकि किसान की लूट में इन सभी का हाथ रहता है। ‘प्रेमाश्रम’ में दारोगा नूर आलम सुक्खू चौधरी को किस जालसाज़ी से फँसाता है -
“सुक्खू चौधरी ने कभी कोकीन का सेवन नहीं किया था, उसकी सूरत नहीं देखी थी, उसका नाम नहीं सुना था, उसके घर में एक तोला कोकीन बरामद हुई। फिर क्या था मुक़दमा तैयार हो गया। माल निकलने की देर थी, हिरासत में आ गए।”24
नकली न्याय का पर्दाफ़ाश करता हुआ कादिर कहता है -
“खुदा ताला ने आँखें बन्द कर ली हैं। जो कोई भला मानुष दरद बूझकर हमारे पीछे खड़ा हो जाता है, तो उस बेचारे की जान भी आफ़त में फँस जाती है। उसे तंग करने के लिए, फँसाने के लिए तरह-तरह के कानून गढ़ लिए जाते हैं।”25
अहलकार लोग ग़रीबों को किस तरह सताते हैं इसका नग्न चित्र ‘कायाकल्प’ में विद्यमान है। राजा विशालसिंह के गद्दी-उत्सव के लिए असामियों पर हल पीछे दस रुपये चन्दा लगा दिया जाता है। निर्धन असामी देने से आनाकानी करते हैं तब कर्मचारियों को आदेश मिलता है कि धड़ल्ले से रुपयों की वसूली कीजिए। प्रेमचन्द लिखते हैं -
“हुक़्म मिलने की देर थी। कर्मचारियों के हाथ तो खुजा रहे थे। वसूली का हुक़्म पाते ही बाग-बाग हो गए। फिर तो वह अँधेर मचा कि सारे इलाके में कुहराम पड़ गया।...चारों तरफ लूट-खसोट हो रही थी। गालियाँ और ठोक-पीट तो साधारण बात थी। किसी के बैल खोल लिए जाते थे, किसी की गाय छीन ली जाती, कितनों ही के खेत कटवा लिए गए। बेदख़ली के इजाफ़े की धमकियाँ दी जाती थीं। जिसने खुशी से दिए, उसका तो 10) ही में गला छूट गया। जिसने हीले-हवाले किए, कानून बघारा, उसे 10) के बदले 20), 30), 40) देने पड़े।”26
इस प्रकार अहलकार, थानेदार, पटवारी, कानूनगो, कारिन्दे, माल के हुक्काम सभी को किसानों की जान का गाहक प्रेमचन्द ने बताया है। न्यायालय के कारकुन, मुहर्रिर, चपरासी सभी किसान को चूसने में लगे हुए हैं। धर्मभीरुता के कारण भी किसानों का पर्याप्त शोषण होता है। ‘कर्मभूमि’ में प्रेमचन्द ने महन्तजी और किसानों का तुलनात्मक चित्रण करके धर्म की आड़ में होने वाले किसानों के शोषण पर प्रकाश डाला है, “बेचारे एक तो गरीब, ऋण के बोझ से लदे हुए, दूसरे मूर्ख, न क़ायदा जानें, न क़ानून। महन्तजी जितना चाहें इजाफ़ा करें, जब चाहें बेदख़ल करें, किसी में बोलने का साहस न था। अक़्सर खेतों का लगान इतना बढ़ गया था कि सारी उपज लगान के बराबर न पहुँचती थी; किन्तु लोग भाग्य को रोकर, भूखे-नंगे रहकर कुत्तों की मौत मरकर खेत जोतते थे।...
किसानों ने एक-एक दाना बेच डाला, भूसे का एक तिनका भी न रखा; लकिन यह सब कुछ करने पर भी चौथाई लगान से ज़्यादा न अदा कर सके। और ठाकुरद्वारे में वही उत्सव थे, वही जल-विहार थे।”27
धर्मभीरु होरी दातादीन के छल-कपट और बेईमानी का विरोध नहीं करता, प्रत्युत, ‘‘ होरी के पेट में धर्म की क्रांति मची हुई थी। अगर ठाकुर या बनिये के रुपये होते तो उसे ज़्यादा चिन्ता न होती; लेकिन ब्राह्मण के रुपये उसकी एक पाई भी दब गई तो हड्डी तोड़कर निकलेगी। भगवान् न करें कि ब्राह्मण का कोप किसी पर गिरे। बंस में कोई चिल्लू-भर पानी देने वाला, घर में दिया जलाने वाला भी नहीं रहता। उसका धर्मभीरु मन त्रस्त हो उठा। उसने दौड़कर पंडित जी के चरण पकड़ लिए और आर्त स्वर में बोला - महाराज, जब तक मैं जीता हूँ, मैं तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊंगा।”28 शोषक वर्ग ने अपने स्वार्थ-साधन के लिए ऐसे ही धर्म की व्यवस्था कर रखी है। सीधे व धर्मपरायण किसानों का शोषण उसकी आड़ में आज भी ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। महाजनी सभ्यता पैसे के लिए सब कुछ करने के लिए कटिबद्ध है। किसानों की महाजनों ने क्या दशा कर रखी है, उका स्वरूप शोभा और होरी के वार्तलाप में भली-भाँति देखा जा सकता है :
“शोभा निराश होकर बोला - न जाने इन महाजनों से कभी गला छूटेगा कि नहीं।
होरी बोला - इस जनम में तो कोई आशा नहीं है भाई। हम राज नहीं चाहते, भोग-विलास नहीं चाहते, खाली मोटा-झोंटा पहनना और मोटा-झोंटा खाना और मरजाद के साथ रहना चाहते हैं। वह भी नहीं सधता।”29
इस प्रकार प्रेमचन्द ने किसान-वर्ग के जीवन की विस्तृत झाँकी अपने उपन्यासों में चित्रित की है। किसान की अनेक समस्याओं का सम्यक् उद्घाटन करने के बाद वे उसके हल का उपाय भी सुझाते हैं। वास्तव में किसान की प्रमुख समस्या आर्थिक है। जब तक किसान का शोषण बन्द नहीं होता तब तक उसकी दशा में कोई सुधार नहीं हो सकता। इसके लिए किसान का शोषण करने वाले वर्ग का नाश होना आवश्यक है। प्रेमचन्द ने इस दिशा में स्पष्ट संकेत दिए हैं। उन्होंने किसान-वर्ग में उभरती एक नई विद्रोही पीढ़ी का चित्रण करके किसानों के मुक्ति-संग्राम को दिशा दी है। ‘प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’, और ‘गोदान’ में प्रेमचन्द का क्रांतिकारी व्यक्तित्व देखने योग्य है। ‘प्रेमाश्रम’ का मनोहर प्रारम्भ में भी अपने स्वभिमान के प्रति कितना सजग है : “गिरधर - जब ज़मींदार की जमीन जोतते हो तो उसके हुक्म के बाहर नहीं जा सकते।
मनोहर - ज़मीन कोई खैरात जोतते हैं ? उसका लगान देते हैं। एक किस्त भी बाकी पड़ जाय तो नालिश होती है।”30 मनोहर से कहीं विद्रोही व्यक्तित्व बलराज नामक नौजवान किसान का है। बलराज स्पष्ट चुनौती के शब्दों में कहता है : “ज़मींदार कोई बादशाह नहीं है कि चाहे जितनी जबरदस्ती करे और हम मुँह न खोलें। इस ज़माने में तो बादशाह को भी इतना अख़्त्यार नहीं, ज़मींदार किस गिनती में हैं। कचहरी-दरबार में कहीं सुनायी नहीं है। तो (लाठी दिखाकर) यह तो कहीं नहीं गयी है।“”31
किसान के हृदय और मस्तिष्क से सर्वप्रथम भय दूर करना आवश्यक है। तभी वह शोषक का बुलंदी से सामना कर सकता है। दूसरे, उसका शिक्षित होना भी अनिवार्य है। दुनिया के अन्य देशों के किसान-आन्दोलनों की जानकारी मिलते रहने पर भारतीय किसान भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर सकता है। प्रेमचन्द ने बलराज को ऐसे ही जागरूक किसान के रूप में ‘प्रेमाश्रम’ में चित्रित किया है। बलराज कहता है- “मेरे पास जो पत्र आता है, उसमें लिखा है कि रूस देश में काश्तकारों का ही राज्य है। वह जो चाहते हैं, करते हैं। उसी के पास कोई और देश बलगारी है। वहाँ अभी हाल की बात है, काश्तकारों ने राजा को गद्दी से उतार दिया और अब किसानों और मजदूरों की पंचायत राज करती है।”32 सरकारी अफ़सरों की मनमानी लूट के विरुद्ध भी प्रेमचन्द अपने किसानों को खड़ा करते हैं। “कादिर - इसमें हाकिमों का क़सूर नहीं यह सब उनके लश्कर वालों की धाँधली है।
मनोहर - कैसी बातें कहते हो दादा ? यह सब मिलीभगत है। हाकिम का इशारा न हो तो मजाल है कि काई लश्करी पराई चीज़ पर हाथ डाल सके। सब कुछ हाकिमों की मर्ज़ी से होता है। सेंत का माल किसको बुरा लगता है ?”33 प्रेमचन्द के ये किसान गूँगे, बेबस और कमज़ोर नहीं है। उनमें क्रांतिकारी भावनाएँ कूट-कूटकर भरी हुई हैं। जो हर अन्याय का सक्रिय विरोध करते हैं। ‘गोदान’ में ‘धनिया’ और ‘गोबर’ का व्यक्तित्व भी ऐसा ही है। धनिया की स्पष्ट मान्यता है, “हमने ज़मींदार के खेत जोते हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी खुशामद क्यों करें ? उसके तलवे क्यां सहलावें ?”34 गोबर अपने पिता के दब्बूपन का विरोध करता हुआ कहता है, “रोज़-रोज़े मालिकों की खुशामद करने क्यों जाते हो ? बाकी न चुके, तो प्यादा आकर गालियाँ सुनाता है, बेगार देनी ही पड़ती है, नजर-नजराना सब तो हमसे भराया जाता है फिर किसी की क्यों सलामी करो ?”35 दातादीन के हथकंडों का पर्दाफाश करता हुआ गोबर एक और स्थल पर कहता है, “ मुझे खूब याद है, तुमने बैल के लिए तीस रुपये दिये थे। उसके सौ हुए। अब सौ के दो-सौ हो गए। इसी तरह इन लोगों को लूट-लूटकर मजूर बना डाला और आप उनकी जमीन के मालिक बन बैठे। तीस के दो-सौ। कुछ हद है।”36 और दातादीन के चले जाने पर, “गोबर ने तिरस्कार की आँखों से देखकर कहा - ‘‘गये थे देवता को मनाने ? तुम्हीं लोगों ने तो इन सबों का मिजाज बिगाड़ दिया है। तीस रुपये दिए, अब दो-सौ रुपये लेगा और डाँट ऊपर से बतायेगा और तुमसे मजूरी करायेगा और काम कराते-कराते मार डालेगा।”37 होली के पर्व पर व्यंग्य करने का गाँव वालों को अवसर मिलता है। प्रेमचन्द ने महाजनी सभ्यता पर एक स्थल पर बड़ा करारा व्यंग्य किया है। किसान महाराज ठाकुर की नक़ल बना रहे हैं :
“किसान आकर ठाकुर के चरण पकड़कर रोने लगता है। बड़ी मुश्किल से ठाकुर रुपये देने पर राज़ी होते हैं। अब कागज़ लिखा जाता है और असामी से हाथ में पाँच रुपये दिए जाते हैं, तो वह चकराकर पूछता है :
‘यह तो पाँच ही हैं मालिक।’
‘पाँच नहीं, दस हैं घर जाकर गिनना।’
‘नहीं सरकार पाँच हैं।’
‘एक रुपया नजराने का हुआ कि नहीं ?
‘हाँ सरकार।’
‘एक तहरीर का ?’
‘हाँ सरकार।’
‘एक कागद का ?’
‘हाँ सरकार।’
‘एक दस्तूरी का ?’
‘हाँ सरकार’
‘एक सूद का ?’
‘हाँ सरकार।’
‘पाँच नगद, दस हुए कि नहीं ?’
‘हाँ सरकार। अब यह पाँचों भी मेरी ओर से रख लीजए।’
‘कैसा पागल है !’
‘नहीं सरकार। एक रुपया छोटी ठकुराइन का नजराना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का, एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने का, एक रुपया बड़ी ठकुराइन के पान खाने का। बाकी बचा एक वह आपके क्रिया-करम के लिए।’ ”38
गोबर के माध्यम से प्रेमचन्द भारतीय किसानों को जो संदेश देते हैं, वह किसान-वर्ग के भविष्य का मूलाधार है – “उसने सुना है और समझा है कि अपना भाग्य खुद बनाना होगा, अपनी बुद्धि और साहस से इन आफ़तों पर विजय पाना होगा। कोई देवता, कोई गुप्त शक्ति उनकी मदद करने न आएगी।”39 प्रेमचन्द ने इस प्रकार किसानों की मात्र दयनीय दशा का ही चित्रण नहीं किया , प्रत्युत उनमें उभरते हुए क्रांतिकारी विचारों को भी व्यक्त किया है। प्रेमचन्द का साहित्य किसान को पस्त-हिम्मत नहीं करता, वह उन्हें सजग करता है, उन्हें अपने अधिकारों के पाने के लिए संगठित होने की प्रेरणा देता है। उनके आन्दोलनों को बल पहुँचता है।
किसान-वर्ग की समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रेमचन्द ने ‘प्रेमाश्रम’ में स्पष्ट घोषण की है, जिसके अनुसार ज़मींदारी-प्रथा का कोई अस्तित्व नहीं रहता।
प्रेमशंकर और ज्चालासिंह के संवादों में प्रेमचन्द अपने विचार प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं : “ प्रेम - मेरा सिद्धान्त है कि मनुष्य को अपनी मेहनत की कमाई खानी चाहिए। यही प्राकृतिक नियम है। किसी को यह अधिकार नहीं कि दूसरों की कमाई को अपनी जीवन-वृत्ति का आधार बनाये।
ज्वाला - तो यह कहिए कि आप जमींदार के पेशे को ही बुरा समझते हैं !
प्रेम - हाँ, मैं इसका भक्त नहीं हूँ। भूमि उसकी है जो उसको जोते। शासक को उसकी उपज में भाग लेने का अधिकार इसलिए है कि वह देश में शान्ति और रक्षा की व्यवस्था करता है, जिनके बिना खेती नहीं हो सकती। किसी तीसरे वर्ग का समाज में कोई स्थान नहीं है।”40
अतः स्पष्ट है, प्रेमचन्द अपने उपन्यासों में मात्रा ग्रामीण जीवन की कथा ही नहीं कहते वरन् उस कथा के माध्यम से वे ग्रामीण जीवन की नाना समस्याओं और प्रश्नों पर प्रकाश डालते हुए उनके हल का रास्ता भी बताते हैं। भारतीय किसानों की आज प्रमुख समस्या ज़मींदारी-प्रथा से मुक्ति की समस्या है; क्योंकि इसी पहलू पर उनकी आर्थिक स्थिति निर्भर करती है।
प्रेमचन्द ने अपने किसानों को इसी प्रथा के विरोध में खड़ा किया है तथा उन्हें सही दिशा दी है। यह मार्ग समस्यामूलक उपन्यासकार ही अपना सकता है।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘कायाकल्प’, पृ. 253
2 ‘वरदान’, पृ. 80
3 ‘रंगभूमि’ (भाग -1), पृ. 175
4 वही, पृ. 204
5 ‘गोदान’, पृ. 22
6 वही, पृ. 3
7 वही, पृ. 302
8 वही, पृ. 11
9 ‘कर्मभूमि’, पृ. 252
10 ‘सेवासदन’, पृ. 68
11 ‘गोदान’, पृ. 56
12 ‘रंगभूमि’ (भाग -1), पृ. 209-210
13 ‘गोदान’, पृ. 5
14 वही, पृ. 490-491
15 ‘वरदान’, पृ. 89
16 ‘कर्मभूमि’, पृ. 27
17 वही, पृ. 28
18 वही, पृ. 370
19 ‘गोदान’, पृ. 158
20 वही, पृ. 338
21 वही, पृ. 45-46
22 ‘प्रेमाश्रम’, पृ. 71.72
23 वही, पृ. 251
24 वही, पृ. 272
25 वही, पृ. 279
26 ‘कायाकल्प’, पृ. 129-130
27 ‘कर्मभूमि’, पृ. 297-298
28 ‘गोदान’, पृ. 297-298
29 वही, पृ. 246
30 ‘प्रेमाश्रम’, पृ. 5
31 वही, पृ. 67
32 वही, पृ. 69
33 वही, पृ. 73
34 ‘गोदान’, पृ. 3
35 वही, पृ. 19
36 वही, पृ. 298
37 वही, पृ. 298
38 वही, पृ. 294-295
39 वही, पृ. 481
40 ‘प्रेमाश्रम’, पृ. 230
अछूत-वर्ग
अछूत-वर्ग के अन्तर्गत प्रेमचन्द ने केवल चमारों के जीवन पर प्रकाश डाला है। किसी विशिष्ट जाति को लेकर प्रेमचन्द ने जो विचार व्यक्त किये हैं वे वास्तव में उस जाति-विशेष तक ही सीमित न रहकर उस वर्ग के ही बन गए हैं। अतः चमारों के रहन-सहन, उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति आदि का जहाँ कहीं चित्रण किया गया हे, वहाँ समस्त अछूत-वर्ग का ही चित्रण समझना चाहिए।
छुआछूत हिन्दू समाज की एक भयंकर सामाजिक बीमारी है। धार्मिक अन्धविश्वासों द्वारा पोषित छुआछूत की भावनाएँ हिन्दू समाज के अधिकांश जनों में व्याप्त हैं। ये लोग चाहे अपढ़ ग्रामीण-स्त्री-पुरुष हों या पढे़-लिखे नागरिक, दोनों अपने को इस सामाजिक कुरीति से मुक्त नहीं कर सके हैं। प्र्रेमचन्द छुआछूत के विरुद्ध थे। मनुष्य-मनुष्य के बीच यह अन्तर अमानवीय है। प्रेमचन्द ने हिन्दू समाज में पाये जाने वाले इस अमानवीय भाव को दूर करने और अछूत-वर्ग के स्वाभिमान को जाग्रत करने का भरसक प्रयत्न किया है।
अछूत-वर्ग पर ‘कर्मभूमि’ में विस्तार से लिखा गया है। वास्तव में यही एक उपन्यास है जिसमें अछूतों की समस्या पाई जाती है। वैसे ‘प्रतिज्ञा’, ‘गोदान’ आदि उपन्यासों में भी यत्र-तत्र अछूतों की समस्या पर प्रकाश डाला गया है।
अछूत-समस्या के अनेक पहलू हैं। कुछ लोग इसे मात्र धार्मिक दृष्टिकोण से देखते हैं। हिन्दुओं ने अपने मन्दिरों में अछूतों का प्रवेश निषिद्ध कर रखा है। अनेक समाज-सुधारक अछूतों को मन्दिर-प्रवेश करा देने में ही अछूतों की समस्या का समाधान समझ बैठे हैं। वास्तव में, मंदिर-प्रवेश से अछूतों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आता। उनकी मूल समस्या तो सामाजिक ओर आर्थिक है। जब तक समाज में तथाकथित अछूत-वर्ग और उसके कर्म के प्रति सम्मान-भाव उत्पन्न नहीं होता तब-तक उसके जीवन में क्रांति नहीं आ सकती। प्रेमचन्द ने जहाँ प्रस्तुत समस्या के धार्मिक पहलू को छुआ है, वहाँ दूसरी ओर सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को भी दृष्टि से ओझल नहीं किया है।
प्रेमचन्द किसी वर्ग-विशेष के प्रति मात्र बौद्धिक संवेदना ही प्रकट नहीं करते। अछूत-वर्ग एक दलित, तिरस्कृत और उपेक्षित वर्ग है, मात्र इसीलिए आँखें बन्द करके उसके गुण-गान करना प्रेमचन्द की नीति नहीं है। उन्होंने प्रत्येक वर्ग का पूरी-पूरी ईमानदारी के साथ बड़ा ही यथार्थ चित्रण किया है। जहाँ उन्होंने अच्छाइयों को छुआ है वहाँ उस वर्ग-विशेष में पाई जाने वाली दुर्बलताओं को भी छोड़ा नहीं है। यह अवश्य है कि उनकी सहानुभूति समाज द्वारा पीड़ित और बहिष्कृत वर्गों की ओर है; पर यह सहानुभूति सचाई को तोड़ती-मरोड़ती नहीं है।
‘कर्मभूमि’ में दूसरे भाग से चमारां के जीवन की कहानी प्रारम्भ होती है; जब अमर एक परदेशी के रूप में एक पहाड़ी गाँव में पहुँचता है, जहाँ रैदास रहते हैं। सर्वप्रथम उसका एक बुढ़िया से साक्षात्कार होता है। अमर जात-पाँत के सम्बन्ध में प्रारम्भ मे ही स्पष्ट घोषणा करता है, “मैं जात-पाँत नहीं मानता, माताजी। जो सच्चा है, वह चमार भी हो, तो आदर के योग्य है; जो दगाबाज़, झूठा, लम्पट हो, वह ब्राह्मण भी हो, तो आदर के योग्य नहीं।”1 प्रेमचन्द की यह स्पष्ट मान्यता थी।
अछूतों की आर्थिक स्थिति कितनी भयावह है उसका चित्र उस बुढ़िया रैदास की झौपड़ी है – “अमर झोपड़ी में गया, तो उसका हृदय काँप उठा, मानों दरिद्रता छाती पीट-पीटकर रो रही है। और हमारा उन्नत समाज विलास में मग्न है। उसे रहने को बँगला चाहिए, सवारी को मोटर। इस संसार का विध्वंस क्यों नहीं हो जाता ?”2
चमारों की सामाजिक स्थिति का चित्रण बालकों के मुख से प्रेमचन्द करवाते हैं। अमर चमार बालकों से पूछता है, “कहाँ पढ़ने जाते हो ? बालक ने नीचे ओठ सिकोड़कर कहा - कहाँ जायँ, हमें कोन पढ़ाये ? मदरसे में कोई जाने तो देता नहीं। एक दिन दादा हम लोगों को लेकर गए थे। पंडित जी ने नाम लिख लिया, पर हमें सबसे अलग बैठाए थे। सब लड़के हमें ‘चमार-चमार’ कहकर चिढ़ाते थे। दादा ने नाम कटा दिया।”3 इस समाज में जब तक शिक्षा का प्रसार नहीं होता तब-तक उसके सामाजिक स्तर को ऊँचा नहीं उठाया जा सकता। अशिक्षित दशा में, उनमें पाए जाने वाले दोष भी नहीं मिट सकते एवं उनकी आर्थिक स्थिति भी नहीं सुधर सकती।
प्रेमचन्द ने चमार-वर्ग के चित्रण में कम रुचि नहीं ली है। उन्होंने चमार-वर्ग को क्षयी या दमित रूप में चित्रित नहीं किया वरन् उसमें वर्ग-चेतना की आग भड़कती बताई है। वे प्रत्येक अनीति और अत्याचार का कड़ा विरोध करते हैं। इस पहाड़ी गाँव का चौधरी गूदड़ अमर से कहता है, “भगवान् ने छोटे-बडे़ का भेद क्यों लगा दिया, इसका मरम समझ में नहीं आता। उसके तो सभी लड़के हैं। फिर सबको एक आँख से क्यों नहीं देखता ?
प्रयाग ने शंका समाधान की - पूरब-जनम का संस्कार है। जिसने जैसे कर्म किये, वैसे फल पा रहा है।
चौधरी ने खण्डन किया - यह सब मन को समझाने की बातें हैं बेटा, जिससे गरीबों को अपनी दशा पर सन्तोष रहे और अमीर के राग-रंग में किसी तरह की बाधा न पड़े। लोग समझते रहें कि भगवान् ने हमको ग़रीब बना दिया, आदमी का क्या दोष; पर यह कोई न्याय नहीं है कि हमारे बाल-बच्चे तक काम में लगे रहें और पेट भर भोजन न मिले और एक-एक अफ़सर को दस-दस हज़ार की तलब मिले।”4
जहाँ प्रेमचन्द अछूतों के स्वाभिमान की पूरी रक्षा करते हैं वहाँ उनमें पाये जाने वाले दोषों पर भी प्रकाश डालते हैं। मृत गो का मांस खाने का प्रश्न सामने आता है। पक्ष-विपक्ष में अनेक बाते कहीं जाती हैं। चमारों में पूर्व- संस्कारों के कारण मृत गाय का मांस खाना साधारण बात थी। और भी निम्न प्रवृत्तियाँ चमार-वर्ग में पाई जाती हैं। दारू-शराब और मुरदा-मांस का प्रचलन होने से अन्य जातियाँ चमारों से दूर रहती हैं। उनके सामाजिक बहिष्कार के पीछे कुछ उनमें भी पाये जाने वाले दोष हैं। प्रेमचन्द ने इस पहलू पर भी स्पष्ट रूप से लिखा है। चमड़े का काम करने अथवा जूते बनाने से कोई जाति निकृष्ट नहीं हो जाती, लेकिन इस बात को स्वीकार करने पर भी चमारों में पाये जानेवाले दोषों पर परदा नहीं डाला जा सकता। मुर्दा गाय के मांस खाने के सम्बन्ध में प्रेमचन्द एक युवक को मध्यस्थ बनाकर कहलाते हैं, “मरी गाय के मांस में ऐसा कौन-सा मज़ा रखा है, जिसके लिए सब मरे जा रहे हो। गड्ढा़ खोदकर मांस गाड़ दो, खाल निकाल लो...सारी दुनिया हमें इसीलिए अछूत समझती है कि हम दारू-शराब पीते हैं, मुरदा-मांस खाते हैं और चमड़े का काम करते हैं और हममें क्या बुराई है? दारू शराब हमने छोड़ ही दी; हमने क्या छोड़ दी, समय ने छुड़वा दी। फिर मुरदा-मांस में क्या रखा है ? रहा चमड़े का काम उसे कोई बुरा नहीं कह सकता और अगर कहे भी तो हमें उसकी परवाह नहीं। चमड़ा बनाना-बेचना बुरा काम नहीं।”5
मरी गाय का मांस यदि दो-चार चमार खाना छोड़ देंगे तो इससे उनकी बिरादरी के सभी चमार तो सुधर नहीं जाते। दो-चार का हृदय-परिर्वतन कर देने से कोई सामूहिक हल सामने नहीं आता। लेकिन प्रेमचन्द इसके लिए रुकने वाली नहीं थे। इसी बीच एक बूढे़ ने कहा, “तुम्हारे या हमारे छोड़ देने से क्या होता है? सारी बिरादरी तो खाती है !
भूरे ने जवाब दिया - बिरादरी खाती है, बिरादरी नीच बनी रहे। अपना- अपना धरम अपने-अपने साथ है।
गूदड़ ने भूरे को सम्बोधित किया - तुम ठीक कहते हो। लड़कों का पढ़ाना ही ले लो। पहले कोई भेजता था अपने लड़के को ? मगर जब हमारे लड़के पढ़ने लगे, तो दूसरे गाँव के लड़के भी आ गये।”6 इस प्रकार प्रेमचन्द कर्म में अधिक विश्वास रखते थे। वे मात्र वैचारिक दुनिया में अपने पात्रों को नहीं छोड़ देते, वरन् उन्हें कर्मठ और जीवटपूर्ण बनाकर सामाजिक सुधार की दिशा में लगा देते हैं।
‘कर्मभूमि’ में अछूत-समस्या का दूसरा पहलू मंदिर-प्रवेश का है जो एक सीमा तक उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा से सम्बद्ध है। एक महीने से ठाकुरद्वारे में पं॰ मधुसूदन जी की कथा हो रही है। एक दिन सहसा पिछली सफों में हंगामा हो जाता है। कथा बन्द हो जाती है। यह हंगामा मंन्दिर में बैठे अछूतों को लेकर होता है। प्रेमचन्द ने धर्मध्वजियों की वास्तविकता इस प्रसंग को लेकर विस्तार से चित्रित की है :
“ब्रह्मचारी - लोग भगवान् की कथा सुनने आते हैं कि अपना धर्म भ्रष्ट करने आते हैं ? भंगी, चमार जिसे देखो, घुसा चला आया है। ठाकुर जी का मन्दिर न हुआ, सराय हुई।
...ये दुष्ट रोज़ यहाँ आते थे। रोज़ सबको छूते थे। इनका छुआ हुआ प्रसाद लोग रोज़ खाते थे। इससे बढ़कर अनर्थ क्या हो सकता है ? धर्म पर इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है ? धर्मात्माओं के क्रोध का पारावार न रहा। कई आदमी जूते ले लेकर उन गरीबों पर पिल पडे़। भगवान् के मन्दिर में, भगवान् के भक्तों के हाथों, भगवान् के भक्तों पर पादुका-प्रहार होने लगा।”7
प्रेमचन्द इन धर्म के तथाकथित ठेकेदारों से कहीं समझौता नहीं करते। डा॰ शान्तिकुमार के मुख से चुनौती के स्वर में कहलाते हैं, “अन्धे भक्तों की आँखों में धूल झोंककर यह हलवे बहुत दिन खाने को न मिलेंगे महाराज, समझ गये ? अब वह समय आ रहा है, जब भगवान भी पानी से स्नान करेगे, दूध से नहीं।”8
प्रेमचन्द समस्यामूलक उपन्यासकार थे। ‘कर्मभूमि’ में जब उन्होंने अछूतों की समस्या को स्पर्श किया तो उस पर ऊपरी तौर पर ही लिखकर वे सन्तोष नहीं कर लेते। वे समाज को सचेत करते हैं, उसे और आगे बढ़ाते हैं तथा उसे अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए तैयार भी करते हैं। दूसरे दिन नियत समय पर कथा फिर प्रारम्भ होती हैं, पर अछूत-वर्ग और उससे सहानुभूति रखने वाले लोग उसमें भाग नहीं लेते। वे ‘नौजवान सभा’ के नाम से खुले मैदान में अपनी अलग कथा का आयोजन करते हैं। प्रेमचन्द ने इन दोनों समाजों की कथा का चित्रण करके बताया है कि धर्म के उपासक वास्तव में कौन हैं। मन्दिर में हो रही कथा का चित्रण करते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं, “श्रोताओं की संख्या बहुत कम हो गयी थी। मधुसूदन जी ने बहुत चाहा कि रंग जमा दें, पर लोग जम्हाइयाँ ले रहे थे। और पिछली सफ़ों में लोग धड़ल्ले से सो रहे थे। मालूम होता था, मन्दिर का आँगन कुछ छोटा हो गया है, दरवाज़े कुछ नीचे हो गये हैं।”9 यह दशा उन ‘धर्मवीरों’ की हैं जो मन्दिर में अछूतों को देखकर हिंसक हो उठे थे, जो धर्म पर अपना एकाधिकार समझते हैं। दूसरी और प्रगतिशील जमात द्वारा आयोजित कथा का दृश्य देखिये, “उधर नौजवान सभा के सामने खुले मैदान में शान्तिकुमार की कथा हो रही थी। ब्रजनाथ, सलीम, आत्मानन्द आदि आने वालों का स्वागत करते थे। थोड़ी देर में दरियाँ छोटी पड़ गयीं और थोड़ी देर और गुज़रने पर मैदान भी छोटा पड़ गया। अधिकांश लोग नंगे बदन थे, कुछ लोग चीथड़े पहने हुए थे। उनकी देह से तम्बाकू और मैलपन की दुर्गन्ध आ रही थी। स्त्रियाँ आभूषणहीन, मैली कुचैली धोतियाँ या लहँगे पहने हुए थीं।... पर हृदयों में दया थी, धर्म था, सेवा-भाव था, त्याग था।”10
यह वास्तविक धर्म का रूप था; मनुष्य-मनुष्य के बीच किसी छुआछात व घृणा का नाम न था। मुसलमान, हिन्दू अछूत सभी दया, धर्म, सेवा और त्याग के साक्षात् अवतार बने हुए थे। प्रेमचन्द ने इस तुलनात्मक चित्रण द्वारा धर्म के ठेकेदारों की धज्जियाँ उड़ाई हैं। समस्त धार्मिक पाखण्डों को खोलकर रख दिया है। कथा के वर्ण्य-विषय पर प्रेमचन्द लिखते हैं, “यह देवी-देवताओं और अवतारों की कथा न थी, ब्रह्म-ऋषियों के तप और तेज का वृत्तन्त न था, क्षत्रियों के शौर्य और दान की गाथा न थी। यह उस पुरुष का पावन चरित्र था, जिसके यहाँ मन और कर्म की शुद्धता ही धर्म का मूल तत्त्व है। वही ऊँचा है, जिसका मन शुद्ध है, जिसका मन अशुद्ध है, जिसने वर्ण का स्वाँग रचकर समाज के एक अंग को मान्य और दूसरे को म्लेच्छ नहीं बनाया। किसी के लिए उन्नति या उद्धार का द्वार नहीं बन्द किया, एक के माथे पर बड़प्पन का तिलक और दूसरे के के माथे पर नीचता का कलंक नहीं लगाया। इस चरित्र में आत्मोन्नति का एक सजीव सन्देश था, जिसे सुनकर दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता था, मानों उनकी आत्मा के बन्धन खुल गये हैं, संसार पवित्र और सुन्दर हो गया है।”11 धर्म की इससे सुन्दर व्याख्या और क्या हो सकती है! अछूतों के सामाजिक सम्मान को बढ़ाने के लिए प्रेमचन्द ने वर्णवादियों की दूषित मनोवृत्तियों पर प्रहार करने में कोई क़सर नहीं की। अगले रोज़ फिर कथा होती है। डा॰ शान्तिकुमार का प्रवचन चल रहा है, “क्या तुम ईश्वर के घर से गुलामी करने का बीड़ा लेकर आये हो ? तुम तन-मन से दूसरों की सेवा करते हो, पर तुम गुलाम हो। तुम्हारा समाज में कोई स्थान नहीं। तुम समाज की बुनियाद हो। तुम्हारे ही ऊपर समाज खड़ा है, पर तुम अछूत हो। तुम मन्दिरों में नहीं जा सकते। ऐसी अनीति इस अभागे देश के सिवा और कहाँ हो सकती है ? क्या तुम सदैव इसी भाँति पतित और दलित बने रहना चाहते हो ?
...मन्दिर किसी एक आदमी या समुदाय की चीज़ नहीं है। वह हिन्दू मात्र की चीज़ है। यदि तुम्हें कोई रोकता है तो उसकी ज़बरदस्ती है। मत टलो उस मन्दिर के द्वार से, चाहे तुम्हारे ऊपर गोलियों की वर्षा ही क्यों न हो।”12
इस प्रकार ‘कर्मभूमि’ में समाज के ये दलित अछूत संगठित होकर अपने सामाजिक अधिकारों की लड़ाई छेड़ देते हैं। पहले शान्तिपूर्ण प्रतिशोध में उन्हें सफलता नहीं मिलती। पंडे-पुजारियों की लाठियों के कुंदों के प्रहारों से आहत होकर भीड़ में भगदड़ मच जाती है। डा॰ शान्तिकुमार भीड़ को रोकते रह जाते हैं और अन्त में घायल होकर बेहोश होकर गिर जाते हैं। प्रेमचन्द यहाँ यथार्थ चित्रण करके समस्या को स्वाभाविक विकास की दिशा में ले जाते हैं। युग-युग से दलित वर्ग में चेतना और संघर्ष का क्रमिक विकास प्रेमचन्द ने बताया है। कोई जादू की छड़ी से वे अछूत-वर्ग का कायाकल्प नहीं कर देते। जहाँ वे यथार्थ का आँचल नहीं छोड़ते वहीं दूसरी ओर अछूत-वर्ग के साहस को भी कम करके नहीं बताते। इस प्रकार प्रेमचन्द-साहित्य दलित-वर्ग को शक्ति प्रदान करता है। उसे निराश नहीं होने देता। अगले रोज़ अछूतों का आन्दोलन ज़ोर पकड़ता है। हिन्दू धर्म के तथाकथित रक्षक अछूतों के बढ़ते आन्दोलन पर, आपे से बाहर हो जाते हैं। पुलिस भी उन्हीं की रक्षा के लिए आ जाती है। समरकान्त क्रोधित हाकर कहता है, “वहाँ का तो रास्ता ही बन्द है। जाने कहाँ के चमार-सियार आकर द्वार पर बैठे हैं। किसी को जाने ही नहीं देते। पुलिस खड़ी उन्हें हटाने का प्रयत्न कर रही है, पर अभागे कुछ सुनते ही नहीं।”13 अन्त में लाला समरकान्त निहत्थे अछूतों और उनके उद्धारकों पर गोली चला देते हैं। प्रेमचन्द नैना के मुख से ऐसे धर्म पर टिप्पणी करवाते हैं, “जिस धर्म की रक्षा गोलियों से हो, उस धर्म में सत्य का लोप समझो।”14 अछूतोद्धार के इस आन्दोलन में प्रेमचन्द नारी-वर्ग को सबसे अधिक सामने लाते हैं। उनकी नारियाँ अछूत विरोधी तत्त्वों का खुला विरोध करती हैं। सुखदा और नैना के द्वारा प्रेमचन्द ने भारत की प्रगतिशील नारियों के विचारों-भावों को व्यक्त किया है। सम्भवतः इसलिए भी कि भारतीय स्त्रियाँ अधिकतर धर्मपरायण होती हैं। उनमें चेतना का समावेश नितान्त अनिवार्य है। जब ऐसी स्त्रियाँ ‘कर्मभूमि’ को पढ़ेंगी तो उनका प्रतिनिधित्व करने वाली स्त्रियों के साहस और मानवीय गुणां से निश्चय ही वे प्रभावित होंगी। सुखदा के भाषण से भागने वाले आदमियों की एक दीवार-सी खड़ी हो जाती है। प्रेमचन्द ने इस आन्दोलन की दृढ़ता का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। वे लिखते हैं- “बन्दूकों से धाँय-धाँय की आवाजें निकलीं। एक गोली सुखदा के कानों के पास से भन से निकल गयी। तीन-चार आदमी गिर पड़े, पर दीवार ज्यों-की-त्यों अचल खड़ी थी।”15
अछूत मन्दिर में प्रवेश कर ही जाते हें। प्रेमचन्द ने यह मन्दिर-प्रवेश कोई गांधीवादी ढंग पर चित्रित नहीं किया है। समरकांत और ब्रह्मचारी का हृदय-परिवर्तन कराके सद्भावना के वातारण में यह घटना नहीं घटती। प्रेमचन्द उस विराट् जन-समूह के बलिदानों की गाथा लिखने के बाद उसकी विजय का चित्र खींचते हैं, “संध्या समय इन धर्म-विजेताओं की अर्थियाँ निकलीं। सारा शहर फट पड़ा। जनाजे पहले मंदिर-द्वार पर गये। मंदिर के दोनों द्वारा खुले हुए थे। पुजारी और ब्रह्मचारी किसी का पता न था। सुखदा ने मंदिर से तुलसी-दल लाकर अर्थियों पर रखा और मरने वालों के मुख में चरणमृत डाला। इन्हीं द्वारों को खुलवाने के लिए यह भीषण संग्राम हुआ। अब वह द्वार खुला हुआ है, वीरों का स्वागत करने के लिए हाथ फैलाये हुए है; पर ये रूठने वाले अब द्वार की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। कैसे विचित्र विजेता हैं ! जिस वस्तु के लिए प्राण दिये, उसी से इतना विराग !
... इधर गंगा के तट पर चिताएँ जल रही थीं, उधर मंदिर इस उत्सव के आनन्द में दीपकों के प्रकाश से जगमगा रहा था। मानों वीरों की आत्माएँ चमक रही हों।”16
अछूत-समस्या का यह धार्मिक पहलू है, जिसे प्रेमचन्द ने काफ़ी विस्तार के साथ ‘कर्मभूमि’ में चित्रित किया है और अछूत-वर्ग की विजय बताई है। लेकिन अछूत-समस्या कोई मंदिर-प्रवेश की समस्या नहीं है। वास्तव में, इससे उनकी आर्थिक स्थिति में कोई अन्तर नहीं आता। प्रेमचन्द ने उक्त समस्या के अन्य पहलू पर भी दृष्टि डाली है। यदि वे समस्यामूलक उपन्यासकार न होते तो इन बातों की गहराई में कदापि न जाते। ‘कर्मभूमि’ में अगला संघर्ष सामाजिक और आर्थिक दशा को लेकर होता है।
अछूत और निम्न-वर्ग के रहन-सहन का स्तर जितना भयावह गाँवां में है उतना ही नगरों में। उनके रहने के स्थान साक्षात् नरक हैं। ‘कर्मभूमि’ में दलित वर्ग के मकानों की समस्या को भी उठाया गया है। म्युनिसिपल बोर्ड और उसके कर्णधार केवल धनियों की ही सेवा करने में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं। गरीबां की झोपड़ियों की ओर कोई ध्यान नहीं देता। नगर की सभी दलित जातियाँ इस उपेक्षा और अत्याचार के विरुद्ध संगठित होकर अपने जीवनयापन का स्तर ऊँचा उठाने के लिये आन्दोलन करती हैं। इन जातियो में चमार हैं, धोबी है, मेहतर हैं, नाई हैं, कहार हैं। सब अपनी-अपनी पंचायत करते हैं और हड़ताल की तैयारी करते हैं। हड़ताल के पूर्व ये लोग हाकिम से कहने-सुनने के सभी असफल प्रयास कर चुके थे। प्रेमचन्द ने दलितों में एक नई चेतना फूटती हुई बताई है। वे चुपचाप अन्याय को सहन नहीं कर लेते। उन्हें भी अपने स्वत्व का ज्ञान हो गया है। वे अब अधिकारियों की निरंकुशता और स्वार्थपरता को सहन नहीं करते। सुखदा के द्वारा प्रेमचन्द उन्हें उनके अधिकार के लिए लड़ने को तैयार करते हैं, “हाकिमों से जो कुछ कहना-सुनना था, कह-सुन चुके, किसी ने भी कान न दिया।... हम जितने दबेंगे, यह बड़े आदमी हमें उतना ही दबायेंगे। आज तुम्हें तय करना है कि तुम अपने हक़ के लिए लड़ने को तैयार हो या नहीं।”17 मुरली खटिक विद्राही स्वर में कहता है, “किसी को तो महल और बँगला चाहिए, हमें कच्चा घर भी न मिले। मेरे घर में पाँच जनें हैं। उनमें से चार आदमी महीने-भर से बीमार हैं। उस काल कोठरी में बीमार न हों, तो क्या हों ! समाने से गंदा नाला बहता है। साँस लेते नाक फटती है।”18 आगे चलकर म्युनिसिपल बोर्ड इन टूटी-फूटी झोंपड़ियों को ही समूल नष्ट करने पर तुल जाता है। ‘नगर-निर्माण संघ’ बनाकर किसानों की ज़मीन अमीरों के बँगले बनवाने के लिए कौड़ियों में ख़रीद ली जाती है। जनता इसके विरुद्ध आवाज़ लगाती है। रेणुका देवी समस्त दलितों से आह्नान-स्वर में कहती हैं, “हमारी लड़ाई इस बात पर है कि जिस नगर में आधे से ज़्यादा आबादी गन्दे बिलों में मर रही हो, उसे कोई अधिकार नहीं है कि महलों और बँगले के लिए ज़मीन बेचे। आपने देखा था, यहाँ कई हरे-भरे गाँव थे। म्युनिसिपैलिटी ने ‘नगर-निर्माण संघ’ बनाया। गाँव के किसानों की ज़मीन कौड़ियों के दाम छीन ली गई, और आज वही ज़मीन अशर्फ़ियों के दाम बिक रही है, इसलिए कि बड़े आदमियों के बँगले बनें। हम अपने नगर के विधाताओं से पूछते हैं, क्या अमीरों ही के जान होती है ? अमीरों ही को ही तन्दुरुस्त रखना चाहिए ? गरीबों को तन्दुरुस्ती की ज़रूरत नहीं ? अब जनता इस तरह मरने को तैयार नहीं है। अगर मरना ही है तो इस मैदान में, खुले आकाश के नीचे, चन्द्रमा के शीतल प्रकाश में मरना बिलों में मरने से कहीं अच्छा है !...हमें बोर्ड के मेम्बरों को यही चेतावनी देनी है।”19 अछूतों और दलितों का विशाल समूह म्युनिसिपल बोर्ड के कार्यालय की ओर बढ़ता है। नैना के बलिदान से उसे दुर्दम बल मिलता है और अन्त में उसकी विजय होती है। म्युनिसिपल बोर्ड अपने निर्णय को निरस्त कर देता है।
इस प्रकार ‘कर्मभूमि’ में अछूत-वर्ग के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर भी प्रेमचंद ने पूरे मनोयोग से लिखा है। अछूत-समस्या का समाधान यही है कि शासकों को और कुलीन कहलाने वालों को चाहिए कि वे दलितों को सीधे-सीधे मानवीय अधिकार प्रदान करें अन्यथा अब समय आ गया है कि वे मौन बैठने वाले नहीं हैं और कभी भी विद्रोह की आग भड़का सकते हैं। प्रेमचन्द ने समाज के ठेकेदारों को चेतावनी देकर उक्त समस्या पर भली-भाँति प्रकाश डाला है। अपने उपन्यासों में कथा-विकास को रोककर, चरित्र-चित्रण की कला को भूलकर प्रेमचन्द पात्रों के मुख से लम्बे-लम्बे भाषण दिलवाने लगते हैं। इसका मूल कारण यही है कि वे उपन्यास के माध्यम से विभिन्न समस्याओं का उद्धाटन करना चाहते थे। यदि वे इन लम्बे-लम्बे संवादों और भाषणों को न रखते तो उनका उद्देश्य ही पूरा न होता !
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संदर्भ-संकेत
1 ‘कर्मभूमि’, पृ. 148
2 ‘कर्मभूमि’, पृ. 148
3 ‘कर्मभूमि’, पृ. 152
4 ‘कर्मभूमि’, पृ. 157
5 ‘कर्मभूमि’, पृ. 177
6 ‘कर्मभूमि’, पृ. 178
7 ‘कर्मभूमि’, पृ. 206
8 ‘कर्मभूमि’, पृ. 208
9 ‘कर्मभूमि’, पृ. 209
10 ‘कर्मभूमि’, पृ. 209
11 ‘कर्मभूमि’, पृ. 209-210
12 ‘कर्मभूमि’, पृ. 211
13 ‘कर्मभूमि’, पृ. 215
14 ‘कर्मभूमि’, पृ. 217
15 ‘कर्मभूमि’, पृ. 218
16 ‘कर्मभूमि’, पृ. 219-220
17 ‘कर्मभूमि’, पृ. 266-267
18 ‘कर्मभूमि’, पृ. 267
19 ‘कर्मभूमि’, पृ. 394-395
भारतीय नारी (क) वैवाहिक-समस्या
वैवाहिक समस्या भारतीय समाज की ही समस्या नहीं; वरन् समग्र मानव समाज से सम्बद्ध है। प्रत्येक देश और जाति के लोग अपने-अपने आचार-विचार से विवाह के सम्बन्घ में सोचते हैं। प्रेमचन्द ने अपने प्रायः सभी उपन्यासों में हिन्दू समाज की वैवाहिक समस्या को स्पर्श किया है। सामाजिक संगठन में विवाह का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वैवाहिक असंगतियाँ समाज में अनेक कुरीतियों को पनपने अवसर देती हैं। सामाजिक स्वास्थ्य की दृष्टि से स्त्रा-पुरुष के वैवाहिक सम्बन्धों में असंगतियाँ नहीं होनी चाहिए। प्रेमचन्द भारतीय जन-समाज को स्वस्थ और आदर्श रूप में देखना चाहते थे। ऐसी स्थिति में वैवाहिक समस्या की ओर उनका ध्यान जाना स्वाभाविक था। दूसरे आज घर-घर में वैवाहिक समस्या एक ज्वलंत समस्या के रूप मे देखी जाती है। प्रेमचन्द ने वैवाहिक समस्या को मध्य-वर्ग तक ही सीमित रखा है। उच्च व निम्नवर्गीय समाज का चित्रण इस क्षेत्र में नाममात्र का है। वास्तव में देखा जाय तो वैवाहिक समस्या अपने सबसे अधिक जटिल रूप में मध्यवर्गीय परिवारों में ही पायी जाती है। अतः उक्त समस्या के लिए मध्यमवर्ग को केन्द्र मानकर चलना आवश्यक था।
सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि प्रेमचन्द की विवाह-सम्बन्धी क्या मान्यताएँ थीं। ‘वरदान’, ‘प्रतिज्ञा’ से लेकर ‘गोदान’ तक क्या वे मान्यताएँ अपरिवर्तित रहीं ? यदि नहीं, तो विवाह-सम्बन्धी उनकी अन्तिम और अधिकृत मान्यताएँ कौन-कौन सी हैं ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए उनके उपन्यासों में व्यक्त विचारों का उल्लेख आवश्यक है।
‘वरदान’ में प्रेमचन्द लिखते हैं, “यह कच्चे धागे का कंगन पवित्रा धर्म की हथकड़ी है, जो कभी हाथ से न निकलेगी, और मण्डप उस प्रेम और कृपा की छाया का स्मारक है, जो जीवनपर्यन्त सिर से न उठेगी।”1
“हृदय का मिलाप सच्चा विवाह है। सिन्दूर का टीका, ग्रन्थि-बन्धन और भाँवर ये सब संसार के ढकोसले हैं।”2
“मैं आर्य बाला हूँ। मैंने गांधारों और साविtriitriत्री के कुल में जन्म लिया है। जिसे एक बार मन से अपना पति मान चुकी, उसे नहीं त्याग सकती। यदि मेरी आयु इसी प्रकार रोते-रोते कट जाय, तो भी अपने पति की ओर से मुझे कुछ भी खेद न होगा।”3
‘वरदान’ में विवाह के सम्बन्ध में प्रेमचन्द के विचार प्राचीन आदर्शों के पोषक हैं। यह अवश्य है कि वे वैवाहिक रीति-रिवाज़ों को महत्त्व नहीं देते। ‘सेवासदन’ में भी प्रेमचन्द यही बात लिखते हैं, “विवाह, भाँवर या सिन्दूर बन्धन नहीं, बन्धन केवल मन का भाव है।”4 प्रेमचन्द धर्म और प्रेम के आधार पर होने वाले विवाह के समर्थक थे। ‘सेवासदन’ में शान्ता कहती है, “हम विवाह को धर्म का बन्धन समझती हैं। हमारा प्रेम धर्म के पीछे चलता है।”5 ‘प्रेमाश्रम’ में गायत्री भी प्राचीन वैवाहिक आदर्शों को सब-कुछ समझती है, “विवाह स्त्री-पुरुष के अस्तित्व को संयुक्त कर देता है। उनकी आत्माएँ एक दूसरे में समाविष्ट हो जाती हैं।”6 पश्चिमी देशों के वैवाहिक आदर्शों की आलोचना करती हुई गायत्री कहती है, “उन देशों की बात न चलाइये, वहाँ के लोग विवाह को केवल सामाजिक सम्बन्ध समझते हैं।...उनके विचार में स्त्री-पुरुष की अनुमति ही विवाह है, लेकिन भारतवर्ष में कभी इन विचारों का आदर नहीं हुआ।”7 ‘कायाकल्प’ में लोगों के मुख से पुनः ऊपरी रीति-रिवाज़ों को महत्त्वहीन ठहराया गया है, “चार भाँवरें फिर जाने से ही ब्याह नहीं हो जाता।”8 ‘कर्मभूमि’ में नैना कहती है, ”जो विवाह को धर्म का बन्धन नहीं समझता है, उसे केवल वासना की तृप्ति का साधन समझता है, वह पशु है।”9 गोदान’ में मेहता कहते हैं, “प्रेम जब आत्मसमर्पण का रूप लेता है, तभी ब्याह है, उसके पहले ऐयाशी है।”10 इसके पूर्व ‘वरदान’ में प्रेम और विवाह पर प्रेमचन्द लिख चुके थे, “प्रेम चित्त की प्रवृत्ति है और ब्याह एक पवित्र धर्म है।”11 इस प्रकार प्रेमचन्द विवाह की गम्भीरता के क़ायल थे। उन्होंने धर्म और प्रेम को विवाह का आधार माना है, जिसमें धर्म का स्थान सर्वोपरि है। सामाजिक संगठन में विवाह आवश्यक वस्तु है। दाम्पत्य जीवन की महत्ता प्रतिपादित करता हुआ प्रभुसेवक कहता है, “दाम्पत्य मनुष्य के सामाजिक जीवन का मूल है। उसका त्याग कर दीजिए, बस हमारे सामजिक संगठन का शीराजा बिखर जाएगा और हमारी दशा पशुओं के समान हो जाएगी। गार्हस्थ्य को ऋषियों ने सर्वोच्च धर्म कहा है, और अगर शान्त हृदय से विचार कीजिए, तो विदित हो जाएगा कि ऋषियों का यह कथन अत्युक्ति नहीं है। दया, सहानुभूति, सहिष्णुता, उपकार, त्याग आदि देवोचित गुणों के विकास के जैसे सुयोग, गार्हस्थ्य जीवन में प्राप्त होते हैं, और किसी अवस्था में नहीं मिल सकते।”12
विवाह का महान आदर्श आज समाज में लुप्त हो गया है। दाम्पत्य जीवन का सुख आज दुर्लभ वस्तु बन गया है। वैवाहिक असंगतियाँ आज घर-घर में विद्यमान हैं, जिन्होंने स्त्री-पुरुषों के सम्बन्धों को विकृत तो किया ही है, समाज की शान्ति भी भंग कर रखी है। प्रेमचन्द ने वैवाहिक असंगतियों की ओर अपने उपन्यासों में जगह-जगह हमारा ध्यान आकर्षित किया है। विवाह के सम्बन्ध में प्रेमचन्द प्रारम्भ से ही प्रगतिशील थे। समाज के प्रचलित रवैये से उन्हें घोर असंतोष था, क्यांकि इन्हीं कारणों से विवाह की पवित्रता दिन-पर-दिन कम होती जा रही थी। प्रेमचन्द द्वारा वर्णित वैवाहिक असंगतियों के दो उद्धरण नीचे दिए जाते हैं :
‘वरदान’ में प्रेमचन्द अपरिचित लड़के-लड़कियां के वैवाहिक सम्बन्धों पर टीका करते हुए लिखते हैं, “वह ( प्रताप) जो अपने विचारों में बिरजन को अपना समझता था, कहीं का न रहा। और वह (कमला) जिसने बिरजन को एक पल के लिए भी अपने ध्यान में स्थान न दिया था, उसका सर्वस्व हो गया।”13
‘निर्मला’ में निर्मला का विवाह दोहाजू से होता है। प्रेमचन्द ने कितने तीखे व्यंग्य से लिखा है, “अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका पिता था, जिसके सामने वह सिर झुकाकर देह चुराकर निकलती थी, अब उसकी अवस्था का एक आदमी उसका पति था। वह उसे प्रेम की वस्तु नहीं, सम्मान की वस्तु समझती थी। उनसे भागती फिरती, उनको देखते ही उसकी प्रफुल्लता पलायन कर जाती थी।”14
दोहाजू विवाह, अनमेल विवाह आदि कुरीतियों ने समाज के ढाँचे को जर्जर कर दिया है। अब प्रश्न यह उठता है कि इन कुरीतियों को किन कारणों ने जन्म दिया है ? अनमेल विवाह क्यों होते हैं ? प्रेमचन्द ने दो प्रमुख कारण इस सम्बन्ध में बताए हैं - प्रथम, दहेज़-प्रथा और दूसरा, माता-पिता की ओर से पर्याप्त सावधानी का अभाव।
हिन्दू समाज में वैवाहिक समस्या को सबसे अधिक जटिल दहेज़-प्रथा ने बनाया है। अनेक सुन्दर, सुशिक्षित और सुसंस्कृत लड़कियाँ समुचित दहेज़ के अभाव में असुन्दर, मूर्ख और असंस्कृत लड़कों से ब्याह दी जाती हैं। प्रेमचन्द ने एक ऐसे ही अनमेल विवाह की करुण कहानी ‘निर्मला’ में कही है। निर्मला का दहेज़ की कुप्रथा के कारण ही दोहाजू से विवाह होता है और उसका सारा जीवन करुण प्रसंगों से परिपूर्ण हो जाता है। निर्मला देश के करोड़ों निर्धन परिवारों की लड़कियों का प्रतिनिधित्व करती है।
निर्मला के पिता बाबू उदयभानु लाल जब जीवित थे, तब उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह भालचन्द्र सिन्हा के ज्येष्ठ पुत्र भुवनमोहन सिन्हा से तय कर लिया था। बाबू उदयभानु लाल एक अच्छे वकील थे। लक्ष्मी उन पर प्रसन्न थी, फिर भी दहेज़ का भय उन्हें खा रहा था। बाबू भालचन्द्र सिन्हा ने अपने पुत्र के वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते समय दहेज़ सम्बन्धी कोई बात तय नहीं की, प्रत्युत यह कह दिया, “आपकी खुशी हो आप दहेज़ दें या न दें, मुझे परवाह नहीं। बारात में जो लोग जाएँ उनका आदर-सत्कार अच्छी तरह होना चाहिये जिससे मेरी जग-हँसाई न हो।”15 लेकिन बाबू भालचन्द्र सिन्हा का असली चेहरा निर्मला के पिता उदयभानु की मृत्यु के पश्चात दिखाई देता है। उन्हें इस बात की आशा थी कि उदयभानु काफ़ी अच्छा दहेज़ देंगे, क्यांकि उनकी वकालत अच्छी चलती थी। उदयभानु की मृत्यु से उनकी आशाओं पर तुषारपात हो गया, पर वे सज्जनता का स्वाँग छोड़ना नहीं चाहते। निर्मला की माँ कल्याणी पुरोहित मोटेराम के द्वारा जब भालचन्द्र सिन्हा के पास सन्देश भेजती है तब वे जिस अभिनय-कला से अपने मनोभाव को छिपाते हैं उसका वर्णन पढ़ने योग्य है। मोटेराम कहते हैं, “आप जैसे सज्जनों के दर्शन दुर्लभ हैं। नहीं तो आज कौन बिना दहेज के पुत्र का विवाह करता है।
भालचन्द्र - महाराज दहेज़ की बातचीत ऐसे सत्यवादी पुरुषों से नहीं की जाती उनसे तो सम्बन्ध हो जाना ही लाख रुपये के बराबर है। मैं इसको अपना अहोभाग्य समझता हूँ। हा, कितनी उदार आत्मा थी। रुपयों को तो उन्होंने कुछ समझा ही नहीं, तिनके के बराबर भी परवाह नहीं की। बुरा रिवाज़ है, बेहद बुरा। मेरा बस चले, तो दहेज़ लेनेवालों और दहेज़वालों दोनों को गोली मार दूँ। फिर चाहे फाँसी ही क्यां न हो जाए। पूछो, आप लड़के का विवाह करते हैं कि उसे बेचते हैं ? अगर आपको लड़के की शादी में दिल खोलकर खर्च करने का अरमान है तो शौक़ से कीजिए, लेकिन जो कुछ कीजिए, अपने बल पर। यह क्या कि कन्या के पिता का गला रेतिये। नीचता है, घोर नीचता। मेरे बस चले, तो इन पाजियों को गोली मार दूँ?”16 दहेज़-प्रथा के विरोध में इतना भाषण करने के बाद भालचन्द्र सिन्हा निर्मला से अपने पुत्र का विवाह करने में असमर्थता प्रकट करते हैं और वास्तविकता को छिपाकर अंधविश्वासी औरतों जैसी दलील प्रस्तुत करते हैं, “पण्डितजी हल्फ़ से कहता हूँ, मुझे उस लड़की से जितना प्रेम है, उतना अपनी लड़की से भी नहीं, लकिन जब ईश्वर को मंजूर नहीं है , तो मेरा क्या बस है ? यह मृत्यु एक प्रकार की अमंगल सूचना है, जो विधाता की ओर से हमें मिली है। यह किसी आनेवाली मुसीबत की आकाशवाणी है। विधाता स्पष्ट रीति से कह रहा है, यह विवाह मंगलमय न होगा। ऐसी दशा में आप ही सोचिए, जिस काम का आरम्भ ही अमंगल से हो, उसका अन्त मंगलमय हो सकता है ? नहीं, जानबूझकर मक्खी नहीं निगली जाती। समधिन साहब को समझाकर कह दीजिएगा, मैं उनकी आज्ञापालन करने को तैयार हूँ, लेकिन इसका परिणाम अच्छा न होगा। स्वार्थ के वश में होकर मैं अपने परम मित्र की सन्तान के साथ यह अन्याय नहीं कर सकता।”17
पर, उनका सारा पाजीपन उनकी पत्नी रँगीलीबाई खोल देती है, “साफ़ बात कहने में संकोच क्या ? हमारी इच्छा है, नहीं करते। किसी का कुछ लिया तो नहीं है। जब दूसरी जगह दस हज़ार नकद मिल रहे हैं, तो वहाँ क्यों न करूँ ? उनकी लड़की कोई सोने की थोडे़ ही है ? वकील साहब जीते होते तो शरमाते-शरमाते भी पन्द्रह-बीर हज़ार दे मरते। अब वहाँ क्या रहा है।“”18 और जब कल्याणी का पत्र पढ़कर रँगीलीबाई दया से द्रवीभूत हो उठती है तथा निर्मला से विवाह करने को राज़ी हो जाती है तब बाबू भालचन्द्र सिन्हा तरह-तरह से पैंतरे बदलने लग जाते हैं। उनकी इस कलाबाज़ी पर रँगीलीबाई की फटकार भालचन्द्र सिन्हा जैसे लाखों बाबुओं की नीचता का पर्दाफाश करती है, “क्यों जी, तुम मुझसे भी उड़ते हो, दाई से पेट छिपाते हो ! मैं तुम्हारी बातें मान जाती हूँ, तो तुम समझते हो, इसे चकमा दिया, मगर मैं तुम्हारी एक-एक नस पहचानती हूँ। तुम अपना ऐब मेरे सिर पटककर खुद बेदाग़ बचना चाहते हो। बोलो, कुछ झूठ कहती हूँ ? जब वकील साहब जीते थे, तो तुमने सोचा था कि ठहराव की ज़रूरत ही क्या है, वह ख़ुद ही जितना उचित समझेंगे देंगे, बल्कि बिना ठहराव के और ही ज़्यादा मिलने की आशा होगी। अब जो वकील साहब का देहान्त हो गया, तो तरह-तरह के हीले हवाले करने लगे। यह भलमनसी नहीं, छोटापन है। इसका इल्जाम भी तुम्हारे ही सिर है। मैं शादी-ब्याह के नज़दीक न जाऊंगी। तुम्हारी जैसे इच्छा हो, करो। ढोंगी आदमियों से मुझे चिढ़ है। जो बात करो, सफ़ाई से करो, बुरा हो या अच्छा। ‘हाथी के दाँत दिखाने के और खाने के और’ वाली नीति पर चलना तुम्हें शोभा नहीं देता।”19
इसी प्रकार धन के लोभी, अकर्मण्य, अनैतिक व चरित्रहीन युवकों को भी प्रेमचन्द समाज के सामने लाते हैं। बाबू भालचन्द्र सिन्हा का पुत्र भुवन अपनी माँ से कहता है, “कहीं ऐसी जगह शादी करवाइये कि खूब रुपये मिलें। और न सही, एक लाख का तो डौल हो। वहाँ क्या रक्खा है ? वकील साहब रहे नहीं, बुढ़िया के पास अब क्या होगा ?
रँगीलीबाई - तुम्हें एसी बातें मुँह से निकालते शर्म नहीं आती ?
भुवन - इसमें शर्म की कौन-सी बात है ? रुपये किसे काटते हैं ? लाख रुपये तो लाख जन्म मे भी जमा न कर पाऊंगा। दुनिया का कुछ मज़ा न उठा संकूगा। किसी धनी लड़की से शादी हो जाती तो चैन से कटती। मैं ज़्यादा नहीं चाहता, बस एक लाख नकद हो, या फिर कोई ऐसी जायदादवाली बेवा मिले जिसके एक ही लड़़की हो।
रँगीलीबाई - चाहे औरत कैसी ही मिले ?
भुवन - धन सारे ऐबों को छिपा देगा। मुझे गालियाँ भी सुनाये तो चूँ न करूँ। दुधारू गाय की लात किसे बुरी मालूम होती है ?”20
निदान, निर्मला के विवाह की बात टूट जाती है। प्रेमचन्द दहेज-प्रथा पर टीका करते हुए लिखते हैं, “वह (निर्मला) रूपवती है, गुणशीला है, चतुर है, कुलीन है तो हुआ करे, दहेज़ हो तो सारे दोष गुण हैं, प्राण का कोई मूल्य नहीं, केवल दहेज़ का मूल्य है। कितनी विषम भाग्यलीला है !”21 आगे चलकर भुवन का विवाह सुधा नामक युवती से हो जाता है। प्रेमचन्द ने सुधा के माध्यम से भुवन जैसे युवकों पर कितना मर्मभेदी व्यंग्य किया है, “मेरे दादाजी ने पाँच हज़ार दिये न। अभी छोटे भाई के विवाह में पाँच-छः और मिल जायेंगे। फिर तो तुम्हारे बराबर धनी संसार में कोई दूसरा न होगा। ग्यारह हज़ार बहुत होते हैं, बाप रे बाप ! ग्यारह हज़ार... उठा-उठाकर रखने लगें, तो महीनों लग जायँ। अगर लड़के उड़ाने भी लगें, तो तीन पीढ़ियों तक खर्च चले। कहीं से बात हो रही है या नहीं ?”22
‘निर्मला’ उपन्यास के पूर्व ‘प्रतिज्ञा’ में भी प्रेमचन्द ने दहेज़-प्रथा के विरोध में पर्याप्त लिखा है। यहाँ उन्होंने दहेज़ के मूल कारण पर प्रकाश डाला है। सुमित्रा और पूर्णा का निम्नलिखत वार्तालाप उपर्युक्त तथ्य को हमारे सामने रखता है, “सुमित्रा - मज़ा तो तभी आये, जब लड़की वाले भी लड़कियों का दहेज़ लेने लगें। बिना भरपूर दहेज़ लिए विवाह ही न करें। तब पुरुषों के होश ठिकाने हो जायँ। मेरा तो अगर बाबूजी विवाह न करते, तो मुझे कभी इसका खयाल भी न आता। मेरी समझ में यही बात नहीं आती कि लड़कीवालों को ही लड़की ब्याहने की इतनी गरज़ क्यों होती है?
पूर्णा - तुम बहन, बच्चों की-सी बातें करती हो। लड़कियों के विवाह में साल दो-साल का विलम्ब हो जाता है, तो चारों ओर हँसी होने लगती है। लड़कों का विवाह कभी न हो, तो भी कोई नहीं हँसता। लोक-रीति भी कोई चीज़ है।”23यहाँ प्रेमचन्द ने लोक-रीति का उल्लेख करके वर्तमान सामाजिक संगठन की निन्दा की है। दहेज़-प्रथा कानून से बिलकुल नहीं मिटायी जा सकती। कानून बना देने पर वह कोई और शक्ल में सामने आ जाएगी। आवश्यकता लोक-रीति को बदलने की है।
‘सेवासदन’ का आधार भी दहेज़-प्रथा है। दारोगा कृष्णचन्द्र के दो लड़कियाँ हैं - सुमन और शान्ता। सुमन को सोलहवाँ वर्ष लगने पर वे वर की खोज करते हैं। प्रेमचन्द बताते हैं कि दारोगाजी के सामने दहेज़ की दुर्भेद दीवार आकर उनका किस प्रकार रास्ता रोक लेती है, “वर की खोज में दौड़ने लगे, कई जगहों से टिप्पणियाँ मँगवाई। वह शिक्षित परिवार चाहते थे। वह समझते थे कि ऐसे घरों में लेन-देन की चर्चा न होगी, पर उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वरों का मोल उनकी शिक्षा के अनुसार है। राशि ठीक हो जाने पर जब लेन-देन की बातें होने लगतीं तब कृष्णाचन्द्र की आँखों के सामने अँधेरा छा जाता था। कोई चार हज़ार सुनाता, कोई पाँच हज़ार और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता। बेचारे निराश होकर लौट आते।”24 आगे दहेज़ के लिए कृष्णचन्द्र रिश्वत लेते हैं और पकड़े जाते हैं। उनके पकड़े जाने के बाद सुमन का जीवन किस दिशा में जाता है, वह ‘सेवासदन’ का कथानक है।
अतः आज हिन्दू समाज में विवाह के लिए सर्वप्रथम धन देखा जाता है। हिन्दू समाज की वैवाहिक समस्या के पीछे आर्थिक अभाव नहीं वरन् गिरी हुई नैतिकता है। जिस समाज में विवाह का आधार ही धन है; वहाँ आर्थिक प्रश्न कोई महत्त्व नहीं रखता। अमीर-ग़रीब सभी परिवारों में इस गिरी हुई नैतिकता के दर्शन होते हैं; जो वैवाहिक असंगतियों को जन्म देती है। यदि ग़रीबी मिटा दी जाय तो भी दहेज़-प्रथा उस समय तक नहीं मिट सकती जब तक समाज का स्तर ऊँचा नहीं उठता। अतः दहेज़-प्रथा का आर्थिक पहलू नगण्य है। वह तो एक सामाजिक कुरीति है; जिसे कानून अथवा नैतिक बल से दूर करना आवश्यक है। क़ानून से दहेज़-प्रथा को मिटाने में सहायता मिल सकती है, पर उसे बिल्कुल हटाया नहीं जा सकता। इसलिए प्रेमचन्द युवकों के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास करते हैं जिससे यह कुप्रथा मिट सके। ‘निर्मला’ में सुधा के मुख से प्रेमचन्द युवकों की पीढ़ी को आत्मबल का परिचय देने का आह्नान करते हैं, “बूढ़ा आदमी सोचता है, मुझे सारा खर्च सँभालना पडे़गा, कन्यापक्ष से जितना ऐंठ सकूँ, उतना ही अच्छा, मगर यह वर का धर्म है कि यदि स्वार्थ के हाथों बिल्कुल बिक नहीं गया है, तो अपने आत्मबल का परिचय दे।”25
और ‘कायाकल्प’ में वे एक ऐसा आदर्श युवक (चक्रधर के रूप में) हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं; जहाँ वह अपनी माँ निर्मला से उग्र होकर कहता है, “ अगर तुम मेरे सामने देने-दिलाने का नाम लोगी, तो ज़हर खा लूंगा।
निर्मला - वाह रे, तो क्या पच्चीस बरस तक यों ही पाल-पोसा है ? मुँह धो रख।
चक्रधर - तो बाज़ार में खड़ा करके बेच क्यों नहीं देतीं ? देखो कै टके मिलते हैं ?”26
यही नहीं, चक्रधर अपने पिता वज्रधर से भी स्पष्ट शब्दों में कहता है, “मेरा खयाल है कि स्त्री हो या पुरुष, गुण और स्वभाव ही उसमें मुख्य वस्तु है। इसके सिवा और सभी बातें गौण हैं।”27
वैवाहिक समस्या से सम्बन्धित दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू माता-पिता की ओर से पर्याप्त सावधानी का अभाव है। हिन्दू परिवारों में विवाह युवक-युवती स्वतन्त्र रूप से नहीं करते, उसके पीछे उनके माता-पिता का हाथ रहता है। पुत्र तो शत-प्रतिशत माता-पिता की इच्छा-अनिच्छा पर निर्भर रहती है। ऐसी सूरत में वैवाहिक असंगतियों के प्रति वर-वधू के माता-पिता भी उत्तरदायी ठहरते हैं। प्रेमचन्द ने प्रस्तुत समस्या के इस पहलू पर भी अपने उपन्यासों में विस्तार से लिखा है।
माता-पिता अपनी लड़की का मात्र विवाह कर देना अपना कर्तव्य समझते हैं। लड़की का विवाह करके वे मानों अपने सिर से बहुत बड़ा बोझ उतारकर
निश्चिन्त हो जाते हैं। यदि विवाह असफल रहा तो उसके लिए अपने दोष न देखकर भाग्य को कोसते हैं। इसका मुख्य कारण सामाजिक व्यवस्था है जहाँ लड़की का विवाह अधिक दिन रोके रखना कलंक की बात समझी जाती है। ‘प्रतिज्ञा’ में प्रेमचन्द लिखते हैं, “जवान लड़की बैठी रहे, यह कुल के लिए घोर अपमान की बात थी।”28 अतः ‘कुल-मर्यादा’ की रक्षा के लिए कुपात्र के साथ भी लड़कियों का विवाह करवा दिया जाता है और बाद में भाग्य की आड़ में माता-पिता अपने दब्बूपन और आलस्य को छिपाने का प्रयत्न करते हैं। ठाकुर हरिसेवक सिंह को फटकारती हुई लौंगी कहती है, “भाग्य पर वह भारोसा करता है, जिसमें पौरुष नहीं होता। लड़की को डुबा दिया, ऊपर से शरमाते नहीं, कहते हो भाग्य भी कोई चीज़ है।”29 ‘निर्मला’ में कल्याणी भी अपनी पुत्र का विवाह भाग्य के आसरे कर देने में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझती है, “आप ईश्वर का नाम लेकर वकील साहब का टीका कर आइये। आयु कुछ अधिक है। लेकिन मरना-जीना विधि के हाथ है। पैंतीस साल का आदमी बूढ़ा नहीं कहलाता। अगर लड़की के भाग्य में सुख भोगना बदा है, तो जहाँ जायगी, सुखी रहेगी। दुःख भोगना है, तो जहाँ जाएगी, दुःख झेलेगी।”30 ‘वरदान’ में मुंशी संजीवनलाल अपनी पत्नी सुशीला पर बिरजन के विवाह का दोषारोपण करता है, पर प्रेमचन्द उपन्यास कला की हत्या करके भी उनके विचारों का खंड़न करते हैं और समाज के ऐसे लापरवाह पिताओं को चेतावनी देते हैं – “कभी कमला हाट में बुलबुल लड़़ाते मिल जाता, कभी गुण्डों के संग सिगरेट पीते, पान चबाते, बेढंगेपन से घूमता हुआ दिखाई देता। मुंशीजी जब जामाता की यह दशा देखते तो घर आते ही स्त्री पर क्रोध निकालते, यह सब तुम्हारी ही करतूत है। तुम्हीं ने कहा था, घर-वर दोनों अच्छे हैं, तुम्हीं रीझी थीं। उन्हें उस क्षण यह विचार न होता कि जो दोषारोपण सुशीला पर है, कम-स-कम मुझ पर उतना ही है। वह बेचारी तो घर में बन्द रहती थी, उसे क्या ज्ञान था कि लड़का कैसा है, वह सामुद्रिक विद्या थोड़े ही पढ़ी थी ? उसके माता-पिता को सभ्य देखा, उनकी कुलीनता और वैभव पर सहमत हो गयी। पर मुंशीजी ने तो केवल अकर्मण्यता और आलस्य के कारण छानबीन न की, यद्यपि उन्हें इसके अनेक अवसर प्राप्त थे, और मुंशीजी के अगणित बान्धव इसी भारतवर्ष में अब भी विद्यमान हैं जो अपनी प्यारी कन्याओं को इसी प्रकार नेत्र बन्द करके कुएँ में ढकेल दिया करते हैं।”31
इसके विपरीत प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में आदर्श माता-पिता का भी समावेश किया है जो विवाह को मात्र गुड्डे़-गुड़ियों का खेल नहीं समझते। ‘प्रतिज्ञा’ में प्रेमा का महा दकियानूस पिता बदरी प्रसाद भी इस मामले में काफ़ी उदार है। प्रेमचन्द लिखते हैं, “बदरी प्रसाद विवाह के विषय में उसकी (प्रेमा) अनुमति आवश्यक समझते थे।”32
‘कायाकल्प’ में यशोदानन्द कहता है, “स्त्री में कितने ही गुण हों, लेकिन यदि उसकी सूरत पुरुष को पसन्द न आयी, तो वह उसकी नज़रों में गिर जाती है, और उनका दाम्पत्य जीवन दुःखमय हो जाता है। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि वर और कन्या में दो-चार बार मुलाक़ात भी हो जानी चाहिये। कन्या के लिए तो वह अनिवार्य है। पुरुष को स्त्री पसन्द न आयी तो वह और शादियाँ कर सकता है। स्त्री को पुरुष पसन्द न आया तो उसकी सारी उम्र रोते ही गुज़रेगी।”33 इसी उपन्यास में एक स्थल पर मनोरमा कहती है, “जो विवाह लड़की की इच्छा के विरुद्ध किया जाता है, वह विवाह ही नहीं है।”34 ‘गोदान’ में मेहता रायसाहब से कहते हैं, “आप अपनी शादी के ज़िम्मेदार हो सकते हैं, लड़के की शादी का दायित्व आप क्यां अपने ऊपर लेते हैं, ख़ासकर जब आपका लड़का बालिग है और अपना नफ़ा-नुकसान समझता है। कम से कम मैं तो शादी जैसे महत्त्व के मुआमले में प्रतिष्ठा का कोई स्थान नहीं समझता।”35 ‘कायाकल्प’ में लोंगी एक तरह से सभी माता-पिताओं को सचेत करती हुई कहती है, “लड़की कंगाल को दे दें, पर बूढ़े को न दें। ग़रीब रहेगी तो क्या, जन्म-भर रोना-झींकना तो न रहेगा।”36 कुछ यही सन्देश मृत्यु-शय्या पर पड़ी निर्मला का है, “बच्ची को आपकी गोद में छोड़ जाती हूँ। अगर जीती-जागती बचे तो किसी अच्छे कुल में विवाह कर दीजिएगा।...चाहे क्वाँरी रखियेगा, चाहे विष देकर मार डालिएगा, पर कुपात्र के गले न मढ़िएगा। इनती ही आपसे मेरी विनय है।”37
प्रेमचन्द प्रारम्भ में विवाह को धर्म-बन्धन मानते थे। आगे ‘गोदान’ में उन्होंने विवाह को ‘सामाजिक समझौते’ के नाम से पुकारा है। लेकिन उनके ‘सामाजिक समझौते’ की भावना में और धर्म में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। ‘गोदान’ में मेहता मालती वार्तालाप प्रेमचन्द के सामाजिक समझौते की भावना को स्पष्ट कर देता है। मेहता कहते हैं, “विवाह को मैं ‘सामाजिक समझौता’ समझता हूँ और उसे तोड़ने का अधिकार न पुरुष को है, न स्त्री को। समझोता करने से पहले आप स्वाधीन है, समझौता हो जाने के बाद आपके हाथ कट जाते हैं।
‘‘तो आप तलाक़ के विरोधी हैं, क्यों?
”पक्का।”38
फिर भी विवाह-विच्छेद के सम्बन्ध में प्रेमचन्द की मान्यताएँ स्पष्ट नहीं हो सकी हैं। ‘कर्मभूमि’ में वे विच्छेद का समर्थन करते प्रतीत होते हैं। नैना और सुखदा का विवाद इस बात का प्रमाण है। “अब कोई इस भ्रम में नहीं रहे कि पति चाहे जो करे, उसकी स्त्री उसके पाँव धो-धोकर पियेगी, उसे अपना देवता समझेगी, उसके पाँव दबायेगी और वह उससे हँसकर बोलेगा, तो अपने भाग्य को धन्य मानेगी। वह दिन लद गए।
नैना बहस कर बैठी - तुम कहती हो, पुरुष के आचार-विचार की परीक्षा लेनी चाहिए। क्या परीक्षा कर लेने पर धोखा नहीं होता ? आये दिन तलाक़ क्यों होते रहते हैं ?
सुखदा बोली - तो इसमें क्या बुराई है ? यह तो नहीं होता कि पुरुष तो गुलछर्रे उड़ाए ओैर स्त्री उसके नाम को रोती रहे।...तलाक़ की प्रथा यहाँ हो जाने दो, फिर मालूम होगा कि हमारा जीवन कितना सुखी है।”39 ‘गोदान’ कर्मभूमि’ के बाद लिखा गया है। अतः ‘गोदान’ के विचारों को ही अन्तिम मान्यता दी जानी चाहिए।
वैवाहिक समस्या का आख़िर क्या हल है ? प्रेमचन्द ने जहाँ एक ओर युवकों को नैतिक दृढ़ता का सन्देश दिया है और उनके सामने आदर्श पात्र उपस्थित किए हैं, वहाँ दूसरी ओर उन्होंने युवतियों को भी वर्तमान समाज-व्यवस्था के प्रति विद्रोह करने के लिए ललकारा है। ‘कर्मभूमि’ की सकीना का आदर्श क्या हमारी अनेक वैवाहिक असंगतियों और कुरीतियों को दूर करने में उपयोगी प्रमाणित नहीं हो सकता ? सकीना कहती है- ”मैं शादी नहीं करना चाहती, बस। जब तक काई ऐसा आदमी न हो, जिसके साथ मुझे आराम से ज़िन्दगी बसर होने का इतमीनान हो, मैं यह सरदर्द नहीं लेना चाहती। तुम मुझे ऐसे घर में डालने जा रही हो, जहाँ ज़िन्दगी तल्ख़ हो जायगी। शादी की मंशा यह नहीं है कि आदमी रो-रोकर दिन काटे।”40 इस प्रकार प्रेमचन्द ने वैवाहिक समस्या के समस्त पहलुओं पर विचार करने के बाद समाज के सामने जो रास्ता रखा है वह कोई कानून का रास्ता नहीं है, और न वह अव्यावहारिक ही है। समाज के नैतिक मूल्यों में परिवर्तन हुए बिना प्रस्तुत समस्या का काई ठोस और स्थायी हल मिलना असम्भव नहीं तो, दुर्लभ अवश्य है।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘वरदान’, पृ. 33
2 ‘वरदान’, पृ. 153-154
3 ‘वरदान’, पृ. 158 (माधवी का कथन)
4 ‘सेवासदन’, पृ. 242
5 ‘सेवासदन’, पृ. 264
6 ‘प्रेमाश्रम’, पृ. 264
7 ‘प्रेमाश्रम’, पृ. 265
8 ‘कायाकल्प’, पृ. 61
9 ‘कर्मभूमि’, पृ. 263
10 ‘गोदान’, पृ. 199
11 ‘वरदान’, पृ. 156
12 ‘रंगभूमि’ (भाग - 1), पृ. 154
13 ‘वरदान’, पृ. 42
14 ‘निर्मला’, पृ. 37
15 ‘निर्मला’, पृ. 3
16 ‘निर्मला’, पृ. 19
17 ‘निर्मला’, पृ. 21
18 ‘निर्मला’, पृ. 22
19 ‘निर्मला’, पृ. 24
20 ‘निर्मला’, पृ. 26
21 ‘निर्मला’, पृ. 33
22 ‘निर्मला’, पृ. 108
23 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 92
24 ‘सेवासदन’, पृ. 5-6
25 ‘निर्मला’, पृ. 106
26 ‘कायाकल्प’, पृ. 16-17
27 ‘कायाकल्प’, पृ. 117
28 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 33
29 ‘कायाकल्प’, पृ. 195
30 ‘निर्मला’, पृ. 36
31 ‘वरदान’, पृ. 43-44
32 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 34
33 ‘कायाकल्प’, पृ. 117
34 ‘कायाकल्प’, पृ. 117
35 ‘गोदान’, पृ. 199
36 ‘कायाकल्प’, पृ. 174
37 ‘निर्मला’, पृ. 184
38 ‘गोदान’, पृ. 80.81
39 ‘कर्मभूमि’, पृ. 263
40 ‘कर्मभूमि’, पृ. 263
भारतीय नारी (ख) दाम्पत्य जीवन
प्रेमचन्द समस्यामूलक उपन्यासकार थे। उन्होंने अपने प्रायः सभी उपन्यासों को समस्या-केन्द्रित रखा है। इसके अतिरिक्त प्रेमचन्द के उपन्यासों की सबसे बड़ी विशेषता उनमें पाये जाने वाले ऐसे विचार हैं जो विभिन्न समस्याओं की ओर सहज ही पाठक का ध्यान आकर्षित कर लेते हैं। इस प्रकार उनके एक उपन्यास में यदि एक या दो समस्याएँ प्रमुख होती हैं तो दूसरी ओर अन्य समस्याओं का प्रासंगिक स्पर्श भी होता है जो पर्याप्त महत्त्वपूर्ण है। प्रेमचन्द में यह प्रवृत्ति ‘वरदान’, ‘प्रतिज्ञा’ से लेकर ‘मंगलसूत्र’ तक पायी जाती है।
प्रेमचन्द के उपन्यासों में राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं के अतिरिक्त पारिवारिक समस्याओं का भी उद्घाटन हुआ है। इन पारिवारिक समस्याओं का क्षेत्रा भी मध्मवर्गीय समाज है। आज संयुक्त पारिवारिक जीवन का विघटन हो रहा है। घर-घर में कलह और उसके दुष्परिणामों के समाचार प्रायः सुनने को मिलते हैं। प्रेमचन्द ने पारिवारिक झगड़ों के कारणों पर यत्र-तत्र प्रकाश डाला है और आपसी कलह से त्रस्त भारतीय परिवारों को सुख और शांति का मार्ग भी बताया है। इस पारिवारिक जीवन के अनेक पहलू हैं, जिनमें प्रमुख पति-पत्नी सम्बन्ध है। यद्यपि इस पहलू का आधार वैवाहिक समस्या है, पर सफल दाम्पत्य-जीवन के लिए कुछ और भी चाहिए। प्रेमचन्द ने पति-पत्नी सम्बन्धों की मानोवैज्ञानिक व्याख्या करके इस पहलू पर पर्याप्त प्रकाश डाला है।
संयुक्त परिवार की समस्या, ‘प्रेमाश्रम’ में विशेष रूप से मिलती है। वैसे ‘रंगभूमि’, ‘निर्मला’,‘गोदान’, ‘ग़बन’, ‘कर्मभूमि’ आदि में भी उसका अपना स्थान है। भारतीय परिवारों का संयुक्त जीवन क्यों विशृंखल हो रहा है ? वे कौन से प्रमुख कारण हैं जिनकी वज़ह से पारिवारिक सुख और शान्ति दुर्लभ हो गयी है आदि विषयों पर प्रेमचन्द के उपर्युक्त उपन्यास पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। प्रेमचन्द ने बताया है कि चाहे वे संयुक्त परिवार निम्नवर्ग के हों, चाहे मध्यवर्ग के - दोनों की विशृंखलता का मूल कारण आर्थिक है। अर्थ ने आज भाई-भाई को, पिता-पुत्र को एक-दूसरे का शत्रु बना दिया है। पारिवारिक अन्य झगड़ों की जड़ भी आर्थिक प्रश्न है। ‘प्रेमाश्रम’ में ज्ञानशंकर बरसों के चले आए संयुक्त परिवार को आर्थिक कारणों से ही भंग कर देना चाहता है। प्रेमचन्द लिखते हैं, “अब उन्हें रात-दिन यही दुश्चिन्ता रहती थी कि किसी तरह चचा साहब से अलग हो जाऊँ। यह विचार सर्वथा उनके स्वार्थनुकूल था। उनके ऊपर केवल तीन प्राणियों के भरण-पोषण का भार था - आप, स्त्री और भावज। लड़का अभी दूध पीता था। इलाके की आमदनी का बड़ा भाग प्रभाशंकर के काम आता था, जिनके तीन पुत्र थे, दो पुत्रियाँ, एक बहू, एक पोता और स्त्री-पुरुष आप। ज्ञानशंकर अपने पिता के परिवार-पालन पर झुँझलाया करते। आज से तीस साल पहले वह अलग हो गए होते तो आज हमारी दशा खराब न होती।”1 रंगभूमि’ में ताहिरअली के परिवार के साथ भी आर्थिक प्रश्न प्रमुख है। ताहिरअली की स्त्री अपने देवर पर आक्षेप करती है, ” ये भाईबन्द एक भी काम न आएंगे। ज्यों ही अवसर मिला, पर झाड़कर निकल जाएंगे, तुम ताकते रह जाओगे।“”2 प्रेमचन्द ने मध्यमवर्ग में पायी जाने वाली आर्थिक स्वार्थ की भावना का कारण पाश्चात्य सभ्यता माना है। ‘प्रेमाश्रम’ में वे इसी ओर संकेत करते हैं। प्रभाशंकर के मुख से कहलाते हैं, “यह (ज्ञानशंकर) पश्चिमी सभ्यता का मारा हुआ है, जो लड़के को बालिग होते ही माता-पिता से अलग कर देती है। उसने वह शिक्षा पायी है जिसका मूलतत्त्व स्वार्थ है। उसमें अब दया, विनय, सौजन्य कुछ भी न रहा। वह अब केवल अपनी इच्छाओं का, इन्द्रियों का दास है।“”3 पश्चिमी सभ्यता एक अंश तक इसके लिए उत्तरदायी हो सकती है, पर वास्तव में मनुष्य का स्वभाव ही इसके लिए उत्तरदायी है, और स्वभाव को आर्थिक विषमताएँ बनाती हैं। ‘निर्मला’ में अधिकार-भावना के कारण पारिवारिक कलह जन्म लेती है, पर इस अधिकार-भावना के पीछे भी आर्थिक कारण ही है। रुक्मिणी और निर्मला के पारिवारिक सम्बन्धों के बिगड़ने पर प्रेमचन्द व्याख्या करते हुए लिखते हैं, “जब से वकील साहब ने निर्मला के हाथ में रुपये-पैसे देने शुरू किए हैं, रुक्मिणी उसकी आलोचना करने पर आरूढ़ हो गई थी। उन्हें मालूम होता था कि प्रलय होने में बहुत थोड़ी क़सर रह गई है। लड़कों को बार-बार पैसों की ज़रूरत पड़ती। जब-तक खुद स्वामिनी थी, उन्हें बहला दिया करती थी। अब सीधे निर्मला के पास भेज देती। निर्मला को लड़कों का चटोरापन अच्छा न लगता था। कभी-कभी पैसे देने से इन्कार कर देती। रुक्मिणी को अपने वाग्बाण सर करने का अवसर मिल जाता - अब तो मालकिन हुई है, लड़के काहे को जिएंगे। बिना माँ के बच्चे को कौन पूछे ? रुपयों की मिठाइयाँ खा जाते थे। अब धेले-धेले को तरसते हैं। निर्मला अगर चिढ़कर किसी दिन बिना कुछ पूछे-ताछे पैस दे देती, तो देवीजी उसकी दूसरी ही आलोचना करतीं - इन्हें क्या, लड़के मरें या जिएँ, इनकी बला से, माँ के बिना कौन समझाए कि बेटा, बहुत मिठाइयाँ मत खाओ। आई-गई तो मेरे सिर जाएगी, उन्हें क्या।”4 यहाँ पाश्चात्य संस्कारों का प्रश्न ही नहीं आता है। निःसन्देह जब-तक आर्थिक मामलों में संयुक्त परिवार के सदस्य पारस्परिक सहमति से कोई निश्चित योजना अपने सामने नहीं रखते, तब-तक पारिवारिक एकता स्थापित नहीं हो सकती। जिस परिवार में ऐसी योजना नहीं है वहाँ आपसी प्रेम का नितांत अभाव है। वहाँ प्रायः झगड़े होते रहते हैं, जो बँटवारे के बाद ही समाप्त होते हैं।
पारिवारिक जीवन का प्रमुख स्तम्भ दाम्पत्य जीवन है। पति-पत्नी के सम्बन्धों पर प्रेमचन्द ने प्रायः अपने प्रत्येक उपन्यास में चर्चा की है। इन सम्बन्धों का आरम्भ विवाह के बाद होता है, जो सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इन सम्बन्धों के मनोवैज्ञानिक ओैर व्यावहारिक दोनों पक्षों पर प्रेमचन्द की दृष्टि गई है। वैसे देखा जाए तो प्रत्येक उपन्यास में दाम्पत्य जीवन का चित्रण रहता है, पर वह चित्रण कथा-विकास को अथवा चरित्रांकन को सामने रखकर किया जाता है ; लेकिन प्रेमचन्द की यह सीमा नहीं है। वे पारिवारिक समस्या के इस पहलू पर प्रमुखता से विचार करते हैं, कथा-विकास और चरित्रांकरन पर नहीं। सुखी दाम्पत्य जीवन किस प्रकार अपनाया जा सकता है, उसकी झलक भी वे अपने उपन्यासों में देते हैं।
दाम्पत्य-जीवन में सुख और आनन्द का अभाव क्यों पाया जाता है ? पति-पत्नी के आपसी मधुर सम्बन्ध क्यों लुप्त हो रहे हैं ? प्रेमचन्द ने इस सम्बन्ध में अनेक कारण उपस्थित किए हैं। जैसे, पति-उपेक्षा, अधिकार-भावना, अविश्वास, कलह, व्यवहार, पुराने और नये विचारों का संघर्ष, स्त्री को समझने की कमी, पातिव्रत का एकांगी आदर्श आदि। ‘प्रतिज्ञा’ में सुमित्रा और कमलाप्रसाद का दाम्पत्य जीवन पति-उपेक्षा के फलस्वरूप ही धीरे-धीरे विषाक्त हो उठता है। स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व न समझने वाले तथा उसे एक निर्जीव मूक यन्त्र समझने वाले घरों में दाम्पत्य-सुख का भाव असम्भव है। पूर्णा सुमित्रा से उसके पति कमलाप्रसाद के आने के बारे में पूछती है।
सुमित्रा द्वार की ओर भयभीत नेत्रों से देखती हुई कहती है, “अभी नहीं, बारह ही तो बजे हैं। इतनी जल्दी क्यों आएंगे ? न एक, न दो, न तीन। मेरा विवाह तो इस महल से हुआ है। लाला बदरीप्रसाद की बहू हूँ, इससे बड़े सुख की कल्पना कौन कर सकता है।“”5 सुमित्रा के हृदय की वेदना उपर्युक्त व्यंग्य में साकार हो उठी है। ‘प्रतिज्ञा’ में कमलाप्रसाद को एक लम्पट और व्यभिचारी पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है, अतः सुमित्रा के प्रति उपेक्षा का भाव उसमें पाया जाना स्वाभाविक है, पर यह बात नहीं कि यह उपेक्षा-भाव ऐसे ही पुरुषों में पाया जाता है। ‘रंगभूमि’ में इन्दु और महेन्द्र के दाम्पत्य जीवन की भी बहुत कुछ यही ग्रन्थि है। इन्दु सोफ़िया से कहती है, “किसी देशसेवक से विवाह न करना, नहीं तो पछताओगी। तुम उसके अवकाश के समय की मनोरजंन-सामग्री मात्र रहोगी।”6 पुरुष-पिट्ठू समाज में नारी के स्वाभिमान का कोई मूल्य नहीं समझा जाता। अतः स्त्री का जीवन बड़ा दयनीय हो जाता है। उसके दाम्पत्य-जीवन की कल्पना चूर-चूर हो जाती है। पुरुष-पिट्ठू समाज का आधार आर्थिक है। स्त्री की वह ऐसी सारी शक्तियाँ नष्ट कर देता है, जिससे वह आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने में समर्थ हो सके। निदान उसे पुरुष की चाकरी करनी पड़ती है। पातिव्रत के उच्च आदर्शों के नाम पर इस प्रकार दाम्पत्य जीवन की सारी सरसता कटुता में बदल जाती है। प्रायः कलह हुआ करती है। ऐसे घरों में शान्ति विरले ही देखने में आए। ‘प्रतिज्ञा’ की सुमित्रा व ‘निर्मला’ की कल्याणी के जीवन के ऐसे चित्र प्रेमचन्द ने स्पष्ट रेखाओं में चित्रित किए हैं। सुमित्रा विद्रोह के स्वर में कहती है, “ स्त्री पुरुष के पैरों की जूती के सिवा और है ही क्या ? पुरुष चाहे जैसा हो, चोर हो, ठग हो, व्यभिचारी हो, शराबी हो, स्त्री का धर्म है कि उसकी चरण-रज धो-धोकर पिए। मैंने कौन-सा अपराध किया था, जो उन्हें मनाने जाती ?”7 एक और स्थल पर सुमित्रा का कुचला हुआ अभिमान पति को चुनौती देता है, ”कमला ने कमरे में कदम रखते ही कठोर स्वर में कहा, “बैठी गप्पें लड़ा रही हो। ज़रा-सी अचकन माँग भेजी, तो उठते न बना। बाप से कहा होता, किसी करोड़पति सेठ के घर ब्याहते। यहाँ का हाल तो जानते थे।
सुमित्रा ने तड़पकर कहा - बाप दादे का नाम न लेना, कहे देती हूँ। यह चारपाई पर कुंजी पड़ी है और वह सामने सन्दूक है। अचकन लो और बाहर जाओ। यहाँ कोई तुम्हारी लौंडी नहीं है, जब अपनी कमाई खिलाना, तब डाँट लेना। बाप यह नहीं जानते थे कि यह ठाट बाहर-ही-बाहर है।...
- मेरी अचकन निकालती हो या नहीं ?
- अगर भलमनसी से कहते हो तो हाँ, रोब से कहते हो तो नहीं।
- मैं तो रोब से ही कहता हूँ।
- तो निकाल लो।
- तुम्हें निकालना पड़ेगा ?
- मैं नहीं निकालूंगी...
- तुम अपने घर चली जाओ।
- मेरा घर यही है। यहाँ से और कहीं नहीं जा सकती।
- लखपती बाप का घर तो है।
- बाप का घर था जब था, अब यही घर है। मैं अदालत से लड़कर 500 रुपये महीने ले लूंगी लाला, इस फेर में न रहना। पैर की जूती नहीं हूँ कि नई थी तो पहना, पुरानी हो गई तो निकाल फेंका।”8
इसी प्रकार ‘निर्मला’ में उदयभानु-कल्याणी दम्पति के जीवन में यही बात पायी जाती है।
”कल्याणी - इसलिए न कि जानते हो, इसे कहीं ठिकाना नहीं है, मेरी ही रोटियों पर पड़ी हुई है, या और कुछ ? यहाँ कोई बात कहो, बस सिर हो गये, मानों मैं घर की लौंडी हूँ, मेरा केवल रोटी ओर कपड़े का नाता है। जितना ही मैं दबती हूँ, तुम और भी दबाते हो।
उदयभानु - मैं कमाकर लाता हूँ, जैसा चाहूँ खर्च कर सकता हूँ। किसी को बोलने का अधिकार नहीं है।”9
अतः जब तक स्त्री आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं करती, उसके स्वाभिमान को इसी प्रकार पद-पद पर ठेस पहुँचाई जाएगी। पुरुष-पिट्ठू समाज में स्त्री को नौकरी नहीं करने दी जाती, उसे पति अपना दासी बनाकर रखना चाहता है। स्पष्ट है, जहाँ पति-पत्नी के सम्बन्धों का यह आधार हो वहाँ सफल और सुखी दाम्पत्य जीवन दुर्लभ है।
स्त्री और पुरुष के इस आर्थिक पहलू पर ‘प्रतिज्ञा’ से लेकर ‘मंगलसूत्र’ तक प्रेमचन्द बराबर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। ‘प्रतिज्ञा’ में सुमित्रा प्रश्न करती है, “आखि़र पुरुष अपनी स्त्री पर क्यों इतना रोब जमाता है? बहन, कुछ तुम्हारी समझ में आता है?”10 इस प्रश्न का उत्तर पूर्णा ने बड़े ही यथार्थ ढंग से दिया है, “मर्द स्त्री से बल में, बुद्धि में, पौरुष में अक़्सर बढ़कर होता है, इसलिए उसकी हुकूमत है। जहाँ पुरुष के बदले स्त्री में यही गुण हैं, वहाँ स्त्रियों की ही चलती है। मर्द कमाकर खिलाता हे, रोब जमाने से भी जाए ?”11 और सुमित्रा इसी बात को और ज़ोर देकर कहती है, “बस, बस, तुमने लाख रुपये की बात कह दी । यही मैं भी समझती हूँ। बेचारी औरत कमा नहीं सकती, इसलिए उसकी यह दुर्गति है।”12
‘मंगलसूत्र’ मे सन्तकुमार और पुष्पा दम्पति का जीवन भी यही कहानी कह रहा है। सन्तकुमार ने पुष्पा से, इस यथार्थ तथ्य को पुष्ट करने के लिए कहा था, “जो स्त्री पुरुष पर अवलम्बित है, उसे पुरुष की हुकूमत माननी पडे़गी।”13 और जब मौखिक झगड़े के बाद पुष्पा सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर-स्वरूप पान का एक बीड़ा लगाकर सन्तकुमार को देती हुई कहती है, “अब से कभी यह बात मुँह से न निकालना। अगर मैं तुम्हारी आश्रिता हूँ, तो तुम भी मेरे आश्रित हो, मैं तुम्हारे घर में जितना काम करती हूँ, इतना ही काम दूसरों के घर में करूँ, तो अपना निर्वाह कर सकती हूँ या नहीं, बोलो ? तब मैं जो कूछ कमाऊंगी वह मेरा होगा। यहाँ मैं चाहे प्राण भी दे दूँ पर मेरा किसी चीज़ पर अधिकार नहीं। तुम जब चाहे मुझे घर से निकाल सकते हो।”14 यहाँ प्रेमचन्द भारतीय नारी के स्वाभिमान की ही रक्षा नहीं करते वरन् उसको समाज में उचित स्थान का अधिकारी भी घोषित करते हैं। प्रेमचन्द के अधिकांश नारी पात्र विद्राही व्यक्तित्व से परिपूर्ण हैं। पुरुष-पिट्ठू समाज स्त्री के आत्मबल को समाप्त करने के लिए तरह-तरह के षड्यन्त्र रचता है। पुष्पा के इस कथन में कितनी सत्यता है, “हम भी तो वही आत्मबल और शक्ति और कला प्राप्त करना चाहती हैं, लेकिन तुम लोगों के मारे जब कुछ चलने पावे। मर्यादा और आदर्श और जाने किन-किन बहानों से हमें दबाने की और हमारे ऊपर अपनी हुकूमत जमाए रखने की कोशिश करते रहते हो।”15 परिवारों में देखा जाता है, जहाँ स्त्री में सहनशीलता अधिक होती है वहाँ ऊपरी शान्ति तो अवश्य पाई जाती है, पर वहाँ भी दाम्पत्य-जीवन का रस अनुभूत नहीं हो सकता। दूसरी ओर जिस परिवार के नारी-वर्ग में चेतना है, वहाँ स्त्री -पुरुष में इस अधिकार-भावना को लेकर प्रायः संघर्ष होते रहते हैं; जो कभी-कभी तो अप्रिय परिणामों के जनक होते हैं। ‘कायाकल्प’ में रोहिणी की सूखी हँसी और निम्नलिखित विवशताजन्य बोल भारतीय स्त्री की दयनीय स्थिति को और स्पष्ट करते हैं, ” “आपने मेरे साथ कोई अन्याय नहीं किया। आपने वही किया, जो सभी पुरुष करते हैं, और लोग छिपे-छिपे करते हैं, राजा लोग वही काम खुले-खुले करते हैं। स्त्री कभी पुरुषों का खिलौना है, कभी उनके पाँव की जूती। इन्हीं दो अवस्थाओं में उसकी उम्र बीत जाती है। यह अपका दोष नहीं , हम स्त्रियों को ईश्वर ने इसीलिए बनाया है। हमें यह सब चुपचाप सहना चाहिए, गिला या मान करने का दंड बहुत कठोर होता है, और विरोध करना तो जीवन का सर्वनाश करना है।”16
‘सेवासदन’ में सुमन-गजानन्द का दाम्पत्य जीवन असफल रहता है और भयानक परिणाम के रूप में समाने आता है। चूँकि सुमन को अपना स्वाभिमान प्यारा था, अतः वह घर छोड़कर भाग जाती है औैर वेश्या-जीवन अपनाने के लिए बाध्य होती है। सुमन के इस प्रसंग पर प्रेमचन्द आपसी व्यवहार को प्रधानता देते
हैं। पति-पत्नी के झगड़ों का कारण कभी-कभी एक-दूसरे के प्रति अशिष्ट व्यवहार भी होता है। सुमन के चले जाने पर स्वयं गजानन्द उसके कारणों का विश्लेषण करता हुआ कहता है, ” “मेरी असज्जनता और निर्दयता, सुमन की चंचलता और विलास, दोनों ने मिलकर हम दोनों का सर्वनाश कर दिया । मैं अब उस समय की बातों को सोचता हूँ तो ऐसे मालूम होता है कि एक बड़े घर की बेटी से ब्याह हो जाने पर उसका उचित आदर-सम्मान नहीं किया। निर्धन था, इसलिए आवश्यक था कि मैं धन के अभाव को अपने प्रेम और भक्ति से पूरा करता। मैंने इसके विपरीत उससे निर्दयता का व्यवहार किया। उसे वस्त्र और भोजन का कष्ट दिया। वह चौका-बरतन, चक्की-चूल्हे में निपुण नहीं थी और न हो सकती थी, पर उससे सब काम लेता था और जरा-भर देर हो जाती तो बिगड़ता था। अब मुझे मालूम होता है कि मैं ही उसके घर से निकलने का कारण हुआ, मैं उसकी सुन्दरता का मान न कर सका, इसलिए सुमन का भी सुझसे प्रेम नहीं हो सका।”17 अनेक परिवारों में दाम्पत्य जीवन की समस्या नये और पुराने आदर्शों के संघर्ष से जन्म लेती है। धर्म और पातिव्रत के नाम पर हिन्दू नारी का शताब्दियों से शोषण हो रहा है। आधुनिक नारी अपने इस शोषण के विरुद्ध विद्रोह कर रही है। अब वह पतिदेव की आज्ञानुसार सिर के बल चलना अपना धर्म नहीं समझती। ‘रंगभूमि’ में इन्दु एक ऐसी ही नारी है। उसकी माँ जाद्दवी पुराने आदर्शों के अनुरूप बेटी को भी ढालना चाहती है, पर इन्दु इसका खुला विरोध करती है। जाह्नवी कहती है, “मैं तुम्हें पति-परायण सती देखना चाहती हूँ, जिसे अपने पुरुष की आज्ञा या इच्छा के सामने अपने मानापमान का ज़रा भी विचार नहीं होता। अगर वह तुम्हें सिर के बल चलने के कहे तो भी तुम्हारा धर्म है कि सिर के बल चलो।” इन्दु उत्तर देती है, “आप मुझसे वह करने को कहती हैं, जो मेरे लिए असम्भव है।”18 इन्दु का यह विद्रोह उच्छृंखलता की कोटि का नहीं, वरन् अपना सुदृढ़ वैचारिक पहलू रखता है, “स्त्री का कर्तव्य है कि अपने पुरुष की सहगामिनी बने। पर प्रश्न यह है, क्या स्त्रा का अपने पुरुष से पृथक कोई अस्तित्व नहीं है ? इसे तो बुद्धि स्वीकार नहीं करती।”19 नारी का यह पृथक अस्तित्व क्यों लुप्त हो रहा है ? ‘मंगलसू़त्र’ में तिब्बी कहती है, “ मरदों ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं। पातिव्रत उनके अन्दर इतना कूट-कूटकर भरा गया है कि उनका अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं। वह केवल पुरुष के आधार पर जी सकती है। उसका स्वतन्त्र कोई अस्तित्व रहा ही नहीं।”20 स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को सुधारने के लिए थोथे आदर्शों को तिलांजलि देना अनिवार्य है। प्रेमचन्द ने समाज के सामने जहाँ एक सन्तुलित दृष्टिकोण रखा है, वहाँ प्रतिक्रियावादियों से कहीं समझौता भी नहीं किया है। पुरुष की एक और दुर्बलता की ओर प्रेमचन्द ने संकेत किया है। वह दुर्बलता है उसकी स्त्री को समझने की कमी । मनोरमा कहती है, “पुरुष कितना ही विद्वान और अनुभवी हो, पर स्त्री को समझने में असमर्थ ही रहता है।”21 निःसन्देह यह नासमझी भी अनेक दुर्घटनाओं की जनक होती है।
इस प्रकार प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में दाम्पत्य जीवन के संघर्षों के मूल कारणों पर जगह-जगह प्रकाश डाला है। पर, वे उन मूल कारणों पर समाज का ध्यान आकृष्ट करके ही संतोष नहीं कर लेते, प्रत्युत सुखी दाम्पत्य जीवन का मार्ग भी बताते हैं। स्त्री-पुरुष के मधुर सम्बन्धों के लिए प्रेमचन्द उनमें चरित्रगत और स्वभावगत कुछ बाते चाहते हैं, जो एकपक्षीय नहीं हैं। ‘कायकल्प’ में रोहिणी कहती है, “सीता बनाने के लिए राम जैसा पुरुष चाहिए।”22 अतः प्रेमचन्द ने केवल एक पक्ष की ही वकालत नहीं की है। वे स्त्री में सेवाभाव, प्रेम, श्रद्धा आदि सद्-गुणों का होना सफल दाम्पत्य जीवन के लिए आवश्यक समझते थे। ‘वरदान’ में चन्द्रा और राधाचरण के सुखी दाम्पत्य जीवन के सम्बन्ध में प्रेमचन्द लिखते हैं, “चन्द्रा में चाहे और गुण न हां परन्तु पति की सेवा वह तन-मन से करती थी।...इन्हीं कारणों से राधाचरण को स्त्री का वशीभूत बना दिया था। प्रेम रूप, गुण आदि सब त्रुटियों का पूरक है।”23 ‘गोदान’ में मेहता का यह कथन भी उपर्युक्त तथ्य का समर्थन करता है, “सच्चा आनन्द, सच्ची शान्ति केवल सेवाव्रत में है। वही अधिकार का स्रोत है, वही शक्ति का उद्भव है। सेवा ही वह सीमेंट है, जो दम्पति को जीवनपर्यन्त स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिस पर बड़े-बड़े आघातों का भी कोई असर नहीं होता। जहाँ सेवा का अभाव है, वहीं विवाह-विच्छेद है, परित्याग है, अविश्वास है।”24 ‘कर्मभूमि’ में सुखदा में वास्तविक प्रेम और समर्पण का अभाव है। प्रेमचन्द सुखदा के इस अभाव को स्पष्ट करने के लिए सक़ीना को सामने लाते हैं; जो दाम्पत्य जीवन के आदर्शों की वाहिका है। सक़ीना को देखकर सुखदा आत्मालोचन करती है, “ऐसी ही स्त्रियाँ पुरुषों के हृदय पर राज्य करती हैं। मेरे हृदय में कभी इतनी श्रद्धा नहीं हुई । मैंने उनसे हँसकर बोलने, हास-परिहास करने ओैर अपने रूप और यौवन के प्रदर्शन में ही अपने कर्तव्य का अन्त समझ लिया, न कभी प्रेम किया, न प्रेम पाया।”25 सुखदा और सक़ीना का अन्तर बताते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं, “सुखदा अपनी प्रतिभा और गरिमा से उस पर शासन करती थी। वह शासन उसे प्रिय था। सुखदा में अधिकार का गर्व था। सकीना में समर्पण की दीनता थी। सुखदा अपने को पति से बुद्धिमान और कुशल समझती थी। सक़ीना समझती थी, मैं इनके आगे क्या हूँ?”26
प्रेमचन्द के दाम्पत्य जीवन के विचारों में पवित्रता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। पुराने दकियानूसी विचारों का जहाँ वे विरोध करते हैं वहाँ उच्छृंखलता का समर्थन भी नहीं करते। उनके विचारों में भारत की प्राचीन गरिमा के अनुरूप सांस्कृतिक गहराई है। ‘प्रतिज्ञा’ में दाम्पत्य जीवन का सुख-मूल बताते हुए वे कमलाप्रसाद और सुमित्रा के जीवन पर टिप्पणी करते हैं, “धर्म का ज्ञान, जो दाम्पत्य जीवन का सुख-मूल है, दोनों में किसी को न था।”27 प्रेमचन्द पत्नी को सच्चे मन्त्र, सच्चे सहायक और सच्चे मित्र के रूप में देखना चाहते हैं। यदि दोनों में विचार और आदर्शों की एकता हो तो दाम्पत्य जीवन दोनों के विकास में उपयोगी सिद्ध होगा। ‘कायाकल्प’ में यशोदानन्द कहता हैं, “यदि स्त्री और पुरुष के विचार और आदर्श एक से हों, तो स्त्री पुरुष के कामों में बाधक होने के बदले सहायक हो सकती है।”28
एक ओर प्रेमचन्द स्त्री को सुधारने का संकेत देते हैं तो दूसरी ओर विपरीत दशा में समझौता न करने के लिए भी उसे तैयार करते हैं। वे उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का समर्थन करते हैं। तथा उसके स्वाभिमान की प्रतिष्ठा करते हैं। पुरुष वर्ग के अत्याचार के विरोध में प्रेमचन्द ‘मंगलसूत्र’ में पुष्पा जैसी स्त्रियों का सर्जन करते हैं; जो अपनी दुर्बलताओं का त्याग कर पुरुष को चुनौती देती है, “जानते हैं (पुष्पा के पति) कि इसे चाहे जितना सताओ, कही जा नहीं सकती...एक बार वह (पुष्पा) विलास का मोह त्याग दे और त्याग करना सीखे ले, फिर कौन रोब जमा सकेगा, फिर वह क्यों किसी से दबेगी।”29
प्रेमचन्द की दृष्टि सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं से लेकर पारिवारिक समस्याओं तक समान रूप से गयी है। पारिवारिक क्षेत्र की महत्ता को उन्होंने कम करके नहीं देखा है। इस प्रकार प्रेमचन्द के उपन्यास भारतीय जन-जीवन के विभिन्न पहलुओं पर भली-भाँति प्रकाश डालते हैं और सामयिक समस्याओं की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करते हैं।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘प्रेमाश्रम’, पृ. 28
2 ‘रंगभूमि’ (भाग - 1), पृ. 123
3 ‘प्रेमाश्रम’, पृ. 327
4 ‘निर्मला’, पृ. 39
5 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 31
6 ‘रंगभूमि’ (भाग - 1), पृ. 67
7 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 55
8 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 69
9 ‘निर्मला’, पृ. 10
10 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 91
11 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 93
12 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 93
13 ‘मंगलसूत्र’, पृ. 10
14 ‘मंगलसूत्र’, पृ. 12
15 ‘मंगलसूत्र’, पृ. 14
16 ‘कायाकल्प’, पृ. 375-376
17 ‘सेवासदन’, पृ. 262
18 ‘रंगभूमि’ (भाग - 1), पृ. 139
19 ‘रंगभूमि’ (भाग - 1), पृ. 291-293
20 ‘मंगलसूत्र’, पृ. 98
21 ‘कायाकल्प’, पृ. 338
22 ‘कायाकल्प’, पृ. 377
23 ‘वरदान’, पृ. 29
24 ‘गोदान’, पृ. 221
25 ‘कर्मभूमि’, पृ. 204
26 ‘कर्मभूमि’, पृ. 112
27 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 48
28 ‘कायाकल्प’, पृ. 15
29 ‘मंगलसूत्र’, पृ. 27
भारतीय नारी (ग) विधवा-समस्या
आज भी हिन्दू समाज में विधवा-समस्या अपने भयंकर रूप में उपस्थित है। यों तो वर्तमान हिन्दू समाज में समग्र नारी-जीवन पुरुष वर्ग के तिरस्कार, दमन तथा उपेक्षा-भावना का शिकार है, लेकिन सबसे अधिक अत्याचार और शोषण की प्रतिमूर्ति एकमात्र विधवा ही है। विधवा का यह दयनीय जीवन विशेषकर मध्यवर्गीय परिवारों में बड़ा ही करुण है। किसी भी देश की उन्नति के लिये यह बात बड़े महत्त्व की है कि उसमें बसने वाली समस्त व्यस्क जनसंख्या को - प्रत्येक स्त्री और पुरुष को - एक से सामाजिक अधिकार प्राप्त हों तथा स्त्री और पुरुष के शारीरिक तथा मानसिक विकास की आवश्यकताएँ सहज में पूर्ण हो सकें। इसका अभिप्राय नैतिक आचारों की अवहेलना नहीं है। समाज-व्यवस्था जब दूषित होती है तब समाज-विरोधी शक्तियाँ तथाकथित नैतिकता की आवाज़ लगाकर समाज के गतिशील, चेतन एवं विकासशील तत्त्वों में रुकावट का काम करती अवश्य हैं, पर वे उन्हें पराभूत नहीं कर सकतीं। प्रत्येक प्रगतिशील लेखक का यह विश्वास समाज की इसी दुर्दमनीय शक्ति से पुष्ट होता है और वह विकासोन्मुख तत्त्वों को समझने में तथा उन्हें सहायता देने में कोई कमी नहीं उठा सकता। प्रेमचन्द को समाज के ऐसे तत्त्वों की बड़ी सूक्ष्म पहचान थी।
विधवा को समाज का उपेक्षित, पद-दलित तथा तिरस्कृत अंग समझने वाले पांगा-पंथियों को एवं विधवा को अपनी कामुकता तथा वासना का सहज-सुलभ पात्र समझने वाले दरिन्दों को प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में नंगा करके बताया है। उनकी घृणित से घृणित कार्रवाइयों तथा टीका-टिप्पणियों को यथार्थ रूप में उपस्थित किया है। उन पर किसी आदर्श का आवरण नहीं है। विधवा-जीवन की विवशताएँ, उन पर होने वाले अत्याचार तथा उनके लिए सम्मानपूर्ण वातावरण बनाने के उपाय सभी बातों का वर्णन प्रेमचन्द के उपन्यासों में मिलता है। विधवा के प्रति उनके हृदय में बड़ा दर्द था, जो जगह-जगह ज्वालामय शब्दों के रूप में अंकित हो गया है।
विधवा-जीवन के सम्बन्ध में प्रेमचन्द ने अपने ‘प्रतिज्ञा’ नामक उपन्यास में विस्तार से लिखा है। वस्तुतः ‘प्रतिज्ञा’ की मुख्य समस्या विधवा-समस्या ही है। इसके अतिरिक्त ‘वरदान’, निर्मला’, ‘कर्मभूमि में भी जगह-जगह वैधव्य के सम्बन्ध में चर्चा है। ‘प्रतिज्ञा’ की पूर्णा, ‘वरदान’ की बृजरानी, ‘कर्मभूमि’ की रेणुका, ‘निर्मला’ की कल्याणी व रुक्मिणी सभी अभिशापित जीवन का बोझा ढो रही हैं। इन विधवाओं के माध्यम से प्रेमचन्द विधवा-समस्या का उद्घाटन करते हैं और जैसा कि उनका स्वभाव था, वे समस्या के उद्घाटन से सन्तुष्ट नहीं होते थे; वरन् उसका कोई-न-कोई हल भी प्रस्तुत करते थे। ‘प्रतिज्ञा’ में विधवा-समस्या प्रमुख है, ‘वरदान’ व ‘निर्मला’ (1927) में गौण और ‘कर्मभूमि’ (1932) में आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न विधवा होने के कारण नगण्य ही है। आगे चलकर प्रेमचन्द बड़े प्रश्नों की ओर उन्मुख हो जाते हैं। जिनको हल कर लेने पर छोटी-छोटी समस्याएँ सुगमता से निबटाई जा सकती हैं; वे वर्तमान पूँजीवादी समाज-व्यवस्था पर ही सीधा प्रहार करते हैं। जब तक पुरुष की नारी पर प्रभुता बनी रहेगी वह उसे अपने गर्हित स्वार्थ के लिए कभी भी मुक्त नहीं होने देगा। आवश्यकता सामाजिक व्यवस्था के समूल परिवर्तन की है। शताब्दियों से चले आए हुए कुसंस्कारों को जब तक जड़ से उखाड़कर फेंक नहीं दिया जाता तब तक सुधारवादी ढंग से समस्याएँ सुलझ नहीं सकतीं। जैसे-जैसे प्रेमचन्द के विचारों में तीव्रता आती गयी, साधारण समस्याएँ चाहे वे कितनी ही भयावह क्यां न हों, प्रमुख न रहकर उनको जन्म देने वाली मूल सामाजिक तथा आर्थिक समस्याएँ ही आगे आती गयीं। यही कारण है कि ‘प्रतिज्ञा’ में प्रेमचन्द ने विधवा-समस्या जिस कटुता तथा प्रमुखता के साथ सामने रखी थी, वह आगे चलकर गौण हो जाती है। इसमें सन्देह नहीं कि विधवा-समस्या का प्रमुख कारण आर्थिक विषमता है और यह आर्थिक विषमता वर्तमान समाज-व्यवस्था पर आश्रित है। जब तक भारतीय जीवन के सामाजिक संगठन में आधारभूत परिवर्तन नहीं होते, ये समस्याएँ उचित ढंग से सुलझ नहीं सकतीं।
‘वरदान’ में जब बिरजन का सुहाग लुट जाता है, तब एक तरह से उसका जीवन ही मिट्टी में मिल जाता है। जैसे कि हिन्दू स्त्री का कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। पति ही उसके अस्तित्व का सूचक है। विधवा का जीवन हिन्दू समाज में पशुओं से भी गया-बीता है। हिन्दू स्त्री के जीवन की प्रत्येक गतिविधि पति के चारों ओर ही केन्द्रित रहती है। उसकी मृत्यु के बाद वह अपमानित और पराजित जीवन के धुँधलके में या तो रामभजन करे या आत्महत्या।
कमलाचरण की अकाल मुत्यु पर बृजरानी की दुःख-दशा का वर्णन करते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं- “सौभाग्वती स्त्री के लिए उसका पति संसार की सबसे प्यारी वस्तु होती है। वह उसी के लिए जीती है और उसी के लिए मरती है। उसका हँसना बोलना उसी को प्रसन्न करने के लिए और उसका बनाव-शृंगार उसी को लुभाने के लिए होता है। उसका सोहाग उसका जीवन है, और सोहाग का उठ जाना उसके जीवन का अन्त है।”1
‘प्रतिज्ञा’ में पूर्णा की कहानी विधवा-जीवन का हृदय विदारक चित्र उपस्थित करती है। ठीक पति की मृत्यु के पश्चात् पूर्णा किस तरह से हिन्दू समाज के धर्म-ध्वजियों, पोंगा-पंथियों तथा विधवाओं की अस्मत से खेलने वालों की शिकार बनती है, यह सब इतने यथार्थवादी ढंग से चित्रित किया गया है कि विधवा-जीवन की सारी दयनीयता, सारी विवशता एवं सारी दुर्बलता को सामने ला देता है। पूर्णा का जीवन एक दर्पण है जिसमें हिन्दू विधवा का यथार्थ स्वरूप देखा जा सकता है।
कमलाप्रसाद, पूर्णा के पति पं॰ बसन्तकुमार का मित्र है। बसन्तकुमार की मृत्यु के बाद वह अपने दकियानूस पिता बदरीप्रसाद से राय लेकर पूर्णा की सहायता करने जाता है। पूर्णा के माँ-बाप पहले ही मर चुके थे। मामा ने किस प्रकार विवाह किया था। ससुराल में भी कोई सगा न था। ऐसी स्थिति में पड़ोस धर्म के नाते बदरीप्रसाद उसके पालन-पोषण का कुछ प्रबन्ध करना चाहते हैं ओर उसे अपने घर में ही रखने का प्रस्ताव रखते हैं। यह प्रस्ताव कमलाप्रसाद को अच्छा नहीं लगता, क्यांकि उसमें आर्थिक हानि थी। फिर भी पिता के भय के कारण वह पूर्णा के घर पहुँचता है ; लेकिन यही सोचकर कि किसी भाँति पूर्णा को यहाँ से टाल दूँ, मैके चले जाने लिए प्रेरित करूँ। प्रेमचन्द लिखते हैं- “उसे इसकी ज़रा भी चिन्ता न थी कि इस अबला का भविष्य क्या होगा, उसका निर्वाह कैसे होगा, उसकी रक्षा कोन करेगा। उसका उसे लेशमात्र भी ध्यान न था।”2 और जब वह पूर्णा को देखता है, उसकी कृतज्ञता और विनय से भरी हुई सजल आँखों को देखता है, उसकी सरल निष्कलंक, दीनमूर्ति को देखता है, तो अपनी कुटिलता पर क्षणिक लज्जित होता है। लेकिन उसकी यह लज्जा पूर्णा के सौन्दर्य और यौवन को देखकर छूमन्तर हो जाती है और अपनी काम-वासना की पूर्ति के लिए वह बड़ी-बड़ी बातें करके सीधी और मूक पूर्णा को अपने घर ले जाने के लिए राज़ी कर लेता है। समाज में दूसरों की दुर्बलताओं ओर विवशताओं से लाभ उठाने वाले विधवाओं को पहले अपना लक्ष्य बनाते हैं। सीधी स्त्रियाँ उनकी प्रशंसात्मक छलभरी बातों से आसानी से फँस जाती है। पूर्णा भी कमलाप्रसाद के जाल में धीरे-धीरे में फँसने लगती है। प्रेमचन्द लिखते हैं, “आश्रयविहीन अबला के लिए इस समय तिनके का सहारा ही बहुत था, तो वह नौका की कैसे अवहेलना करती; पर वह क्या जानती थी कि यह उसे उबारने वाली नौका नहीं वरन् विचित्र जलजन्तु है, जो उसकी आत्मा को निगल जायगा।”3 और आगे चलकर यही होता है। पूर्णा और कमलाप्रसाद की पत्नी सुमित्रा के बीच साड़ी के प्रश्न पर सन्देह का वातावरण बन जाता है। कुवासनाओं में लिपटा कमलाप्रसाद सुमित्रा का अपमान करता है। और दिन-रात पूर्णा को फँसाने के कुचक्र रचता रहता है। सुमित्रा पूर्णा को एक स्थान पर सचेत भी करती है, जब पूर्णा कमलाप्रसाद के बारे में कहती है :
“बहन, तुम कैसी बातें करती हो ? एक तो ब्राह्मणी, दूसरी विधवा, फिर नाते से बहन, मुझे यह क्या कुदिष्ट से देखेंगे ? फिर उनका कभी ऐसा स्वभाव नहीं रहा।”
सुमित्रा पान लगाती हुई बोली, “स्वभाव की न कहो पूर्णा, स्वभाव किसी के माथे पर नहीं लिखा होता। जिन्हें तुम बड़ा संयमी समझती हो, वह छिपे रुस्तम होते हैं। उनका तीर मैदान में नहीं, घर में चलता है।”4
पूर्णा सोचती है, वैधव्य क्या कलंक का दूसरा नाम है ? प्रेमचन्द विधवा की दयनीयता के सम्बन्ध में लिखते हैं, “विधवा पर दोषारोपण करना कितना आसान है। जनता को उसके विषय में नीची-से-नीची धारणा करते देर नहीं लगती। मानों कुवासना ही वैधव्य की स्वभाविक वृत्ति है। मानों विधवा हो जाना, मन की सारी दुर्वासनाओं, सारी दुर्बलताओं का उमड़ आना है।”5
पराधीन पूर्णा धीरे-धीरे कमलाप्रसाद के चंगुल में आने लगती है और एक रात उसकी कामुकता का शिकार होते-होते बचती है। पूर्णा के ये शब्द विधवा के अभिशप्त जीवन की विभीषिका को कितना स्पष्ट कर देते हैं, “अब जाने दो बाबू जी, क्यों मेरा जीवन भ्रष्ट करना चाहते हो, तुम मर्द हो, तुम्हारे लिए सब कुछ माफ़ है, मैं औरत हूँ, मैं कहाँ जाऊंगी ? डूबे मरने के सिवा मेरे लिए कोई उपाय न रह जायगा। मैं तो आज मर भी जाऊँ तो किसी की कोई हानि न होगी, वरन् पृथ्वी का कुछ बोझ ही हलका होगा।”6 पूर्णा का जीवन एक समस्या बन जाता है। वह उस घर से निकल जाने का निश्चय करती है, “संसार में लाखों विधवाएँ पड़ी हैं, क्या सभी के रक्षक बैठे हैं ? किसी भाँति उनके दिन भी कटते ही हैं। मेरे भी उसी भाँति कट जायेंगे। और फिर कहीं आश्रय नहीं है, तो गंगा तो कहीं नहीं गई है।”7 वह विधवा-आश्रम जाने का निश्चय करती है; लेकिन झमेला बढ़ने के भय से रुक जाती है। वह सोचती है, ‘‘तरह-तरह के सन्देह लोगों के मन में पैदा होंगे। अभी कम-से-कम लोगों को मुझ पर दया आती है, फिर तो कोई बात भी न पूछेगा। विधवा को कुलटा बनते कितनी देर लगती है?”8 निदान वह वहीं, उसी वातावरण में ही रहती है। कमलाप्रसाद जब छल-बल से पूर्णा का सतीत्व हरण नहीं कर पाता तब उसे धोखे से एकान्त बँगले में ले आता है और वहाँ बलात्कार करने को उद्यत होता है। पूर्णा कमलाप्रसाद को घायल कर देती है। और बँगले से बाहर सड़क पर निकल आती है। प्रेमचन्द विधवा के करुण जीवन का यहाँ चरमोत्कर्ष ला देते हैं। वे कहते हैं, “अब उसके लिए कहाँ आश्रय था ? एक ओर जेल की दुस्सह यंत्रणाएँ थीं, दूसरी ओर रोटियों के लाले, आँसुओं की धार और घोर प्राण पीड़ा । ऐसे प्राणी के लिए मृत्यु के सिवा और कहाँ ठिकाना है।”9 पूर्णा के जीवन की निराशा अपने अन्तिम छोर पर पहुँच जाती है। वह सोचती है, अपने पति के बाद ही उसने क्यों न प्राणों का त्याग किया ? क्यों न उसी शव के साथ सती हो गई ? इस जीवन से तो सती हो जाना कहीं अच्छा था।’’10
यह सब ‘प्रतिज्ञा’ की कथा और ‘पूर्णा’ की कहानी है। यह केवल ‘पूर्णा’ की ही जीवन-कहानी नहीं है, वरन् हज़ार-हज़ार हिन्दू नारियों की कहानी है। युवा विधवा हिन्दू समाज में एक बड़ी समस्या है। प्रेमचन्द समस्यामूलक उपन्यासकार थे, अतः उन्होंने इस सामाजिक समस्या को भी पूरी उग्रता और भीषणता से उपस्थित किया है। कमलाप्रसाद से भी अधिक घृणित मनोवृत्ति वाले मनुष्यों का समाज में अभाव नहीं है। विधवाओं को ऐसा समाज व्यभिचार तथा वेश्यावृत्ति का पात्र समझता है। सम्भ्रान्त परिवारों में आर्थिक विवशता में विधवाएँ अपमानित जीवन का बोझ ढोती हैं। ‘निर्मला’ में रुक्मिणी का जीवन क्या है ? रुक्मिणी मुंशी तोताराम की बहन है। वह उन्हीं के यहाँ रहती है। पारिवारिक जीवन में कभी-कभी कलह पैदा हो ही जाती है। ऐसे अवसरों पर व्यक्ति के मनोभाव अपने यथार्थ नग्न स्वरूप में देखने को मिलते हैं। मुंशी तोताराम अपनी बहन के सम्बन्ध में जो भाव रखते हैं वे उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार हैं- “मैंने तो सोचा था कि विधवा है, अनाथ है, पाव भर आटा खायगी, पड़ी रहेगी। जब और नौकर-चाकर खा रहे हैं तो यह अपनी बहन ही है। लड़कों की देखभाल के लिए एक औरत की ज़रूरत भी थी, रख लिया, लेकिन इसके यह माने नहीं है कि वह तुम्हारे ऊपर शासन करे।”11सहोदर विधवा बहन को दासी के रूप में देखना विधवा का कितना बड़ा मज़ाक है। जब घर के घर में भाई के द्वारा विधवा बहन तिरस्कृत हो सकती है तो फिर नाना कुसंस्कारों से ग्रस्त समाज में उसके लिए क्या स्थान हो सकता है ?
विधवा-समस्या ने समाज ने में अन्य समस्याओं को भी जन्म दिया है। अनेक सामाजिक कुरीतियाँ जो हिन्दू समाज में फैली हुई हैं, एक सीमा तक, विधवा-समस्या हल हो जाने पर दूर हो सकती हैं। विधवा-समस्या वेश्या-समस्या को परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से बल पहुँचाती है। आर्थिक दृष्टि से तंग विधवा के यदि दो-तीन युवा लड़कियाँ हों तब तो यह समस्या और भी भयावह हो जाती है। ऐसी स्थिति में अनमेल विवाह का प्रचलन बढ़ जाता है। अथवा अनेक लड़कियाँ आजन्म अविवाहित रह जाती हैं। अथवा कुछ दुर्बल लड़कियाँ समाज की कुवासना की शिकार हो जाती हैं। प्रायः ऐसे समाचार दैनिक पत्रों में पढ़ने को मिलते हैं। ‘निर्मला’ में कल्याणी ऐसी ही विधवा है, जिसकी दो लड़कियाँ हैं - निर्मला और कृष्णा। पति की मृत्यु के समय निर्मला पन्द्रह वर्ष की और कृष्णा दस वर्ष की थी। कल्याणी, जो विधवा हो जाती है, उसकी समस्या यहाँ पर गौण है, लेकिन उससे उत्पन्न जटिल समस्या उसकी पुत्रियों के विवाह की है। प्रेमचन्द लिखते हैं, “दरिद्र विधवा के लिए इससे बड़ी क्या विपत्ति हो सकती है कि जवान बेटी सिर पर सवार हो ? लड़के नंगे पाँव पढ़ने जा सकते हैं, चौका-बर्तन भी अपने हाथ से किया जा सकता है, रूखा-सूखा खाकर निर्वाह किया सकता है, झोंपड़े में दिन काटे जा सकते हैं, लेकिन युवती कन्या घर में नहीं बिठाई जा सकती।”12 और अन्त में निर्मला का विवाह एक दोहाजू से होता है। यह विवाह निर्मला की आशाओं- अभिलाषाओं को, जीवन की सारी हँसी-खुशी को मिट्टी में मिला देता है। इस तरह प्रेमचन्द ने विधवा-समस्या के विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात किया है।
अब प्रश्न यह आता है कि इस समस्या का हल क्या है ? प्रेमचन्द ने समस्या की गम्भीरता को ही हमारे समाने नहीं रखा है वरन् उसके हल के सम्बन्ध में भी अपने विचार व्यक्त किए हैं। वस्तुतः देखा जाए तो विधवा-समस्या के हल न होने का मुख्य कारण आर्थिक है। विधवा की सबसे बड़ी समस्या यौन-सम्बन्धी नहीं है - जैसा कि कुछ लोग सोचते हैं। विधवा-विवाह यौन-वासनाओं की पूर्ति के निमित्त नहीं, वरन आर्थिक निर्भरता के निमित्त है, क्योंकि हमारे समाज की बनावट ही कुछ ऐसी है कि यहाँ स्त्रियाँ नौकरी नहीं करतीं। यह प्रवृत्ति पढ़ी-लिखी लड़कियों तक में है। फिर बिना पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ किस प्रकार असाधारण कार्य करने को प्रस्तुत हो सकती हैं। ऐसी परिस्थिति में विधवा-विवाह विधवा का उद्धार कर देता है। यदि स्त्रियों में शिक्षा का यथेष्ट प्रचार हो जाए और वे नौकरी कर सकें तो विधवा-जीवन की सारी दयनीयता स्वतः मिट सकती है। स्त्रियों में आज यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे पैदा हो रही है, किन्तु प्रेमचन्द के समय यह स्थिति न थी। आजकल विधवा-विवाह भी एक साधारण-सी बात समझी जाती है, लेकिन प्रेमचन्द के समय विधवा से विवाह करना बड़ा भारी क्रांतिकारी कार्य समझा जाता था। विधवा-समस्या को हल करने के लिए प्रेमचन्द ने दो उपाय बताए हैं :
(1) विधवा-विवाह, और (2) वनिता-आश्रम की स्थापना।
विधवा-विवाह हिन्दू विधवा नारी की समस्या का एक कारगर हल है । आज के हिन्दू समाज को देखते हुए इसे सामयिक क़दम कहा जा सकता है। आज की हिन्दू स्त्रियों बहुत कम साक्षर हैं ; दूसरे, सामाजिक और नैतिक बन्धनों में वे इतनी अधिक जकड़ दी गई हैं कि अधिकांश पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ भी अपनी कोई स्वतन्त्र आर्थिक व्यवस्था नहीं कर सकतीं। जैसा कि लिखा जा चुका है, विधवा की समस्या यौन-तृप्ति की समस्या नहीं हैं, उसका आधार आर्थिक है और यही आधार हिन्दू विधवा के पास नहीं के बराबर है। ऐसी स्थिति में यदि देश के युवक विधवा-विवाह की पद्धति को अपनाते हैं तो सामाजिक स्थिति को देखते हुए समस्या के हल की दिशा में उनका यह एक महत्त्वपूर्ण क़दम होगा। माना कि विधवा-विवाह हिन्दू नारी की पराधीनता का उपचार नहीं है, पर प्रेमचन्द के समय के हिन्दू समाज के लिये यही क्रांतिकारी कार्य था।
प्रेमचन्द ने विधवा-विवाह के सम्बन्ध में ‘प्रतिज्ञा’ में विस्तार से अपने विचार व्यक्त किए हैं। ‘प्रतिज्ञा’ का प्रारम्भ ही इस प्रश्न को लेकर होता है। काशी के आर्य-मन्दिर में पंडित अमरनाथ का व्याख्यान हो रहा है। पंडित अमरनाथ उपस्थित जनता के उस भाग से जिसे पत्नी-वियोग हो चुका है, पूछते हैं, “आप लोगों में कितने महाशय हैं, जो वैधव्य के भँवर में पड़ी हुई अबलाओं के साथ अपने कर्तव्य का पालने करने का साहस रखते हैं ? कृपया वे हाथ उठाये रहें। अरे, यह क्या ? एक भी हाथ नज़र नहीं आता! हमारा युवक समाज इतना कर्तव्यशून्य, इतना साहसहीन है।’’12 यह समाज की स्थिति है। विधवा-विवाह करने की न समाज में इच्छा है और न साहस। प्रेमचन्द इस कर्तव्य पालन के लिए अमृतराय को समाने लाते हैं और विधवा-समस्या का वैयक्तिक हल प्रस्तुत करते हैं कि यदि जिसकी पहली स्त्री मर गयी हो, तो वह विधवा से विवाह करे। यह हल वैयक्तिक ही नहीं, नैतिकता से भी सम्बन्ध रखता है। समाज का यदि नैतिक स्तर उठाना है तब तो यह या इसके समान अनेक समस्याएँ अपने-आप हल हो जाती हैं। प्रस्तुत विषय पर अमृतराय और प्रो॰ दाननाथ में जो बहस होती है; वह इस प्रकार हैं – “यह अच्छा सिद्धान्त है कि जिसकी पहली स्त्री मर गई, वह विधवा से विवाह करे।
अमृतराय - न्याय तो यही कहता है।
दाननाथ - बस, तुम्हारे न्याय-पथ पर चलने ही से तो सारे संसार का उद्धार हो जायगा। तुम अकेले कुछ नहीं कर सकते। हाँ, नक्कू बन सकते हो।
अमृतराय ने दाननाथ को सगर्व नेत्रों से देखकर कहा - आदमी अकेला भी बहुत कुछ कर सकता है। अकेले आदमियों ने ही आदि से विचारों की क्रांति पैदा की है। अकेले आदमियों के कृत्यों से सारा इतिहास भरा पड़ा है। कुछ नहीं कर सकता - यह मैं न मानूंगा।”13
निःसन्देह व्यक्तिगत रूप से विधवा-विवाह विधवा-समस्या को सुलझाने में सामयिक और आंशिक सहायता कर सकता है। पर, वह भी एक दुर्लभ कार्य है, कम-से-कम प्रेमचन्द के समय में तो था ही। विधवा-विवाह के विरोधियों का अच्छा खासा दल विद्यमान था जो इसे पाप ठहराता था और धर्म की दुहाई देकर इसका बुरे शब्दों में खुला विरोध करता था। ‘प्रतिज्ञा’ में ऐसे समाज का प्रतीक प्रेमा का पति बदरीप्रसाद है। लाला बदरीप्रसाद विधवा-विवाह का विरोध करते हुए कहते हैं, “मैं समझता हूँ, इससे हमारा समाज नष्ट हो जाएगा।”14 आगे चलकर जब उन्हें मालूम पड़ता है कि अमृतराय ने विधवा-विवाह करने की प्रतिज्ञा की है तब तो वे समझते हैं, “अमृतराय ने तो आज डोंगा ही डुबो दिया।”15 बदरीप्रसाद का पुत्र कमलाप्रसाद भी अमृतराय की इस प्रतिज्ञा पर व्यंग्य करता है, “मैं तो समझता था, इसमें कुछ समझ होगी, मगर निरा पोंगा निकला...तो कोई विधवा भी ठीक हो गई कि नहीं, कहाँ है मिसराइन, कह दो, अब तुम्हारी चाँदी है, कल ही सन्देशा भेज दे। कोई और न जाय तो मैं जाने को तैयार हूँ। बड़ा मज़ा रहेगा। कहाँ है मिसरानी, अब उनके भाग्य चमके। रहेगी बिरादरी ही की विधवा न ? कि बिरादरी की भी क़ैद नहीं रही ?”16 ये वे सारी रुकावटें हैं जो विधवा-समस्या के हल के सामने आती हैं। प्रेमचन्द ने उन सबका अच्छा चित्रण किया है; लेकिन हज़ार रुकावटों के होते हुए भी प्रेमचन्द समाज को आगे बढ़ाते हैं। प्रेमा और अमृतराय जैसे सत्पात्रों को गढ़ते हैं। प्रेमा अपनी माँ देवकी से कहती है, “ऐसे (अमृतराय) सुशिक्षित पुरुष अगर यह काम न करेंगे तो कौन करेगा ? जब तक ऐसे लोग साहस से काम न लेंगे, हमारी अभागिनी बहनों की रक्षा कौन करेगा ?”17 स्वयं प्रेमचन्द ने जो विधवा-विवाह (?) किया वह इस हल पर उनकी आस्था का प्रमाण है।
‘प्रतिज्ञा’ में पूर्णा हिन्दू विधवा की प्रतीक है। लाला बदरीप्रसाद उसे अपने घर में रखने को सच्चे हृदय से प्रस्ताव रखते हैं, “मैं सोच रहा हूँ, पूर्णा को अपने ही घर में रखूँ तो क्या हरज़ है ? अकेली औरत कैसे रहेगी ?”18 और आगे चलकर पूर्णा उनके घर में आ भी जाती है। पर स्वयं प्रेमचन्द यह अच्छी तरह बता देते हैं कि विधवा की रक्षा का यही कोई हल नहीं है। पूर्णा का आगामी जीवन जो रूप लेता है वह लाला बदरीप्रसाद की इस दया को बेकार कर देता है।
विधवा-समस्या के हल का दूसरा उपाय प्रेमचन्द ‘वनिता-आश्रम’ की स्थापना द्वारा बताते हैं। यह उपाय वैयक्तिक तो नहीं है, पर आदर्शवादी रूप अवश्य लिए हुए है। प्रेमचन्द के आलोचकों ने उनके इस आदर्शवाद की खूब खिल्ली उड़ाई है। पर वे यह भूल जाते हैं कि प्रेमचंद के समय के समाज में इससे बड़ा यथार्थवादी, व्यावहारिक क़दम और क्या हो सकता था? पराधीन जाति अपनी सामाजिक समस्याओं को इसी प्रकार सुलझा सकती थी। यही उसमें चेतना उत्पन्न करने तथा क्रांतिकारी भावनाओं को भरने का माध्यम था। आज के युग में प्रेमचन्द के ये हल अव्यावहारिक अथवा साधारण भले ही लगें, पर इसमें संदेह नहीं कि उस समय का लेखक इसके आगे कुछ सोच भी न सकता था। ‘वनिता-आश्रम’ की स्थापना भी कोई सहज वस्तु न थी। ‘प्रतिज्ञा’ में प्रेमचन्द ने इस पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। अमृतराय एक ‘वनिता-आश्रम’ खोलने जा रहे हैं। कमलाप्रसाद उस पर टिप्पणी करता है, “कमाने का नया ढंग निकाला है।” बदरीप्रसाद ने ज़रा माथा सिकोड़कर पूछा, “कमाने का ढंग कैसा, मैं नहीं समझा ?” कमलाप्रसाद – “वही जो और लीडर करते हैं। ‘वनिता-आश्रम’ में विधवाओं का पालन-पोषण किया जायगा। उन्हें शिक्षा भी दी जायगी। चन्दे की रकमें आयेंगी और यार लोग मौज करेंगे। कौन जानता है, कहाँ से कितने रुपये आए ! महीने भर में एक झूठा-सच्चा हिसाब छपवा दिया।”19 दकियानूसी समाज का प्रतीक लाला बदरीप्रसाद ‘वनिता-आश्रम’ जैसी संस्थाओं पर ओैर भी घृणित विचार रखता है, “आपको (अमृतराय) कन्हैया बनने की धुन है। दस-बीस जवान विधवाओं को इधर-उधर से एकत्र करके रासलीला रचायेंगे। चारदीवारी के अन्दर कौन देखता है, क्या हो रहा है।”20
प्रेमचन्द यह भली-भाँति बता देते हैं कि कौन-सा समाज इस समस्या पर अपने क्या विचार रखता है, पर वे उस समाज का समर्थन नहीं करते। समाज की प्रगतिशील शक्तियों का साथ देते हैं। अमृतराय द्वारा ‘वनिता-आश्रम’ की स्थापना करके समाज को गति देते हैं, उसे सोचने-समझने के लिए संकेत करते हैं। बौद्धिक सहानुभूति मात्र प्रकट करके नहीं रह जाते। ‘वनिता-आश्रम’ की आवश्यकता वे प्रेमा के भाषण से व्यक्त करते हैं, “यह सभा आज इसलिए की गई है कि आपसे इस नगर में ऐसा स्थान बनाने के लिए सहायता माँगी जाय, जहाँ हमारी अनाथ, आश्रयहीन बहनें, अपनी मानमर्यादा की रक्षा करते हुए शान्ति से रह सकें। कौन ऐसा मुहल्ला है, जहाँ ऐसी दस-पाँच बहनें नहीं हैं। उनके ऊपर जो बीतती है, वह क्या आप अपनी आँखों से नहीं देखते? कम-से-कम अनुमान तो कर ही सकते हैं। वे जिधर आँखें उठाती हैं, उधर ही उन्हें पिशाच खड़े दिखाई देते हैं, जो उनकी दीनावस्था को अपनी कुवासनाओं को पूरा करने का साधन बना लेते हैं। हमारी लाखों बहनें इस भाँति केवल जीवन-निर्वाह करने के लिए पतित हो जाती हैं। क्या आपको उन पर दया नहीं आती ? मैं विश्वास से कहती हूँ कि अगर उन बहनों को रूखी रोटियाँ और मोटे कपड़ों का भी सहारा हो, तो वे अन्त समय तक अपने सतीत्व की रक्षा करती रहें। स्त्री हद दर्ज़े दुराचारिणी होती है। अपने सतीत्व से अधिक उसे संसार की और किसी वस्तु पर गर्व नहीं होता, न वह किसी चीज़ को इतना मूल्यवान समझती है।”21
इस प्रकार विधवा-समस्या पर प्रेमचन्द जैसे जागरूक लेखक ने जो कुछ लिखा है, वह हिन्दू समाज को एक चुनौती है। उनका सुधारवादी दृष्टिकोण उस समय का बड़े-से-बड़ा क्रांतिकारी क़दम था, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘वरदान’, पृ. 115
2 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 25
3 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 27
4 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 56
5 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 54
6 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 25
7 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 27
8 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 56
9 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 54
10 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 63-64
11 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 99
12 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 4
13 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 5-6
14 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 10
15 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 14
16 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 14-15
17 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 12
18 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 22
19 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 43
20 ‘प्रतिज्ञा’, पृ. 70
21‘प्रतिज्ञा’, पृ. 87-88
भारतीय नारी (घ) वेश्या-समस्या
प्रेमचन्द समस्यामूलक उपन्यासकार थे, यह तथ्य उनके प्रारम्भिक उपन्यास से लेकर अन्तिम उपन्यास तक में भली-भाँति दृष्टिगोचर होता है। प्रेमचन्द इस तत्व को लेकर ही औपन्यासिक क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। उन्होंने अपने पूर्व का उर्दू-हिन्दी का प्रायः सभी कथा-साहित्य पढ़ डाला था। पर, न तो अपनी पूर्व-परम्परा के अनुसरण करने और न कोई सुन्दर कथा लिखने की दृष्टि से उन्होंने लेखनी उठाई थी। उनकी प्रखर सामाजिक चेतना सोद्देश्य कृतियों के निर्माण की दिशा में उन्मुख थी। ‘वरदान’ में यत्र-तत्र वे उसका परिचय दे चुके थे और ‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास तो एक सुनिश्चित समस्या - विधवा-समस्या - को लेकर ही हमारे सामने आया। प्रेमचन्द इस दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते गये और अपने प्रसिद्ध एवं अत्यधिक लोकप्रिय उपन्यास ‘सेवासदन’ में वे वेश्या-समस्या को लेकर आते हैं। जिस तरह ‘प्रतिज्ञा’ पर विधवा-समस्या छाई हुई है, उसी प्रकार ‘सेवासदन’ पर वेश्या-समस्या। प्रेमचन्द अपने इस उपन्यास में वेश्यावृत्ति पर इतने विस्तार से लिख गये हैं कि आगे फिर अन्य उपन्यासों में इस विषय को पुनः स्पर्श करने की उन्हें आवश्यकता अनुभव नहीं हुई। वेश्या-समस्या के प्रत्येक पहलू पर अनेक दृष्टिकोणों से ‘सेवासदन’ में विचार किया गया है। वेश्या बनने के मूल कारणों से लेकर इस सामाजिक कुप्रथा को दूर करने के उपायों तक का वर्णन ‘सेवासदन’ में मिलता है। वैसे ‘सेवासदन’ में यह समस्या प्रेमचन्द के दृष्टिकोण से अपने में पूर्ण है; फिर भी, ‘गोदान’ में एक-आध जगह इस प्रश्न पर चर्चा की गई है। ‘सेवासदन में प्रेमचन्द का दृष्टिकोण आदर्शवादी है। वहाँ वे सुधारवाद के चश्मे से सामाजिक विकृतियों का मूल्यांकन करते हैं, पर आगे चलकर उनके विचार पर्याप्त क्रांतिकारी हो जाते हैं और वे समाज का मूल ढाँचा ही बदलने का आह्वान करते हैं। इस दृष्टि से ‘सेवासदन’ में व्यक्त विचारों के अतिरिक्त ‘गोदान’ में उक्त समस्या पर पाये जाने वाले विचार भी अपना महत्व रखते हैं। वरन् यों कहा जाय कि प्रेमचन्द वहाँ अपनी पूर्व मान्यताओं की एक प्रकार से स्वयं आलोचना करते हैं। लेकिन इस आलोचना अथवा इन क्रांतिकारी विचारों से उनके पूर्व दृष्टिकोण का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। यदि आगामी कृतियों में प्रेमचन्द उतने ही विस्तार और यथार्थवादी ढंग से उक्त समस्या को चित्रित करते तब निश्चय ही उनकी पूर्व मान्यताएँ महत्वहीन हो जातीं; पर, प्रेमचन्द के आगामी उपन्यासों में यह बात नहीं पाई जाती। अतः सर्वप्रथम ‘सेवासदन’ में व्यक्त वेश्या-समस्या पर उनके दृष्टिकोण की व्याख्या आवश्यक है। आज भी अनेक सुधारवादी संस्थाएँ उनकी व्यावहारिकता में विश्वास रखती हैं। यद्यपि ‘सेवासदन’ उक्त समस्या पर प्रेमचन्द के विचारों की सीमा नहीं है।
प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास ‘सेवासदन’ में वेश्या-समस्या को इसलिए नहीं उठाया कि उससे उपन्यास सरस हो जायेगा और उसकी बिक्री अधिक होगी। यौन-पीड़ित पाठकों को ‘सेवासदन’ पढ़ने के बाद बड़ी निराशा होगी। प्रेमचन्द वेश्या-समस्या की जड़ में निहित नारी-मनोविज्ञान की बारीकियों में भी नहीं उलझे हैं। उनका दृष्टिकोण विशुद्ध सामाजिक है। वे बताते हैं कि आर्थिक-सामाजिक कारण मिलकर मनुष्य के मन को बनाते हैं। अतः उन्होंने किसी व्यक्ति विशेष को न लेकर विशिष्ट वर्ग को ही अपने सामने रखा है। प्रेमचन्द के पात्रों का निजी व्यक्तित्व नितान्त स्वतन्त्र नहीं होता। वे किसी वर्ग की समस्त दुर्बलताओं-सबलताओं को लेकर हमारे सामने आते हैं। ‘सेवासदन’ की ‘सुमन’ एक ऐसा ही पात्र है। प्रेमचन्द ने कहीं भी वेश्या-जीवन के घिनौने रूप के चित्रण में रुचि लेना तो दूर, उसका वर्णन तक नहीं किया है। उनका आदर्शवादी हृदय इन बातों को जान-बूझकर छोड़ देता है। यदि वेश्या-जीवन के इस पहलू पर पृष्ठ-के-पृष्ठ लिख गये होते तो निश्चय ही ‘सेवासदन’ एक हल्का उपन्यास प्रमाणित होता। सामाजिक स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रेमचन्द के उपन्यास आदर्श उपन्यास हैं। हो सकता है कि उनका आदर्शवाद कहीं-कहीं अस्वाभाविकता की सीमा को छूने लगा हो; जैसे ‘सेवासदन’ में सुमन का कथन, “यद्यपि इस काजल की कोठरी में आकर पवित्र रहना कठिन है, पर मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि अपने सतीत्व की रक्षा करूंगी। गाऊंगी, नाचूंगी, पर अपने को भ्रष्ट न होने दूंगी।”1 और प्रेमचन्द ने ‘सुमन’ को निश्चय ही भ्रष्ट होने से बचा लिया है। औपन्यासिक कथा के आधार पर ‘सुमन’ के चरित्र पर कोई भी कलंक नहीं लगाया जा सकता। यह अस्वाभाविक होते हुए भी समस्यामूलक उपन्यासकार के लिये क्षम्य है; क्योंकि समस्यामूलक उपन्यासकार का मुख्य उद्देश्य समस्या के मूल कारणों और उसको सुलझाने के प्रयत्नों की ओर रहता है। यदि उसकी कृति उस समस्या को निबटाने के स्थान पर; उसे समाज में और फैलने का अवकाश दे, प्रोत्साहित करे, तो वह समस्यामूलक उपन्यासकार के पद का अधिकारी नहीं। ‘सेवासदन’ वेश्या-समस्या के मूल कारणों पर ही विस्तार से प्रकाश नहीं डालता वरन् उस समस्या के हल के भी अनेक व्यावहारिक सुझाव उपस्थित करता है, जो एक सीमा तक समाजोपयोगी कहे जा सकते हैं, यद्यपि उनसे प्रस्तुत समस्या का अन्तिम निदान सम्भव नहीं। स्वयं प्रेमचन्द ने इस मत को ‘गोदान’ में प्रकट किया है।
स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति क्यों अपनाती हैं ? प्रेमचन्द ने इस विषय पर निम्नलिखित तथ्यों का उल्लेख किया है -
वकील पद्मसिंह शर्मा, सुमन के वेश्यावृत्ति अंगीकार करने पर, अपने मन में सोचते हैं :
“यदि मैंने उसे घर से निकाल न दिया न होता इस भाँति उसका पतन न होता। मेरे यहाँ से निकलकर उसे और काई ठिकाना न रहा और क्रोध और कुछ नैराश्य की अवस्था में वह यह भीषण अभिनय करने पर बाध्य हुई।”2
बैंक घर के बाबू और समाज-सुधारक विट्ठलदास से स्वयं सुमन वेश्यावृत्ति अपनाने के मूल कारण पर चर्चा करती है, “आप सोचते होंगे कि भोग-विलास की लालसा से कुमार्ग में आई हूँ, पर वास्तव में ऐसा नहीं है।...मैं जानती हूँ कि मैंने अत्यन्त निकृष्ट कर्म किया है, लेकिन मैं विवश थी। इसके सिवाय मेरे लिए और कोई रास्ता न था।...इतना तो आप जानते ही हैं कि संसार में सबकी प्रकृति एक-सी नहीं होती। कोई अपना अपमान सह सकता है ? मैं एक ऊँचे कुल की लड़की हूँ, पिता की नादानी से मेरा विवाह एक दरिद्र मूर्ख मनुष्य से हुआ, लेकिन दरिद्र होने पर भी मुझसे अपना अपमान न सहा जाता था। जिसका निरादर होना चाहिए उसका आदर होते देखकर मेरे हृदय में कुवासनाएँ उठने लगती थीं।...सम्भव था कि कालान्तर में यह अग्नि आप ही शान्त हो जाती, पर पद्मसिंह के जलसे ने इस अग्नि को भड़का दिया। .... पद्मसिंह के घर से निकलकर मैं मोती बाई की शरण में गई। मगर उस दशा में भी मैं इस कुमार्ग से भागती रही। मैंने चाहा कि कपड़े सीकर अपना निर्वाह करूँ, पर दुष्टों ने मुझे ऐसा तंग किया कि अन्त में मुझे कुएँ में कूदना पड़ा।...सुख न सही, पर यहाँ मेरा आदर तो है। मैं किसी की गुलाम तो नहीं हूँ।”3
यही बात आगे चलकर वह पद्मसिंह शर्मा से भी कहती हैः “आप चाहे समझते हों कि आदर और सम्मान की भूख बड़े आदमियों ही को होती है, किन्तु दीन दशा वाले प्राणियों को इसकी भूख अधिक होती है, क्योंकि उनके पास इसके प्राप्त करने का कोई साधन नहीं होता। वे इसके लिए चोरी, छल-कपट सब कुछ कर बैठते हैं। आदर में वह संतोष है जो धन और भोग-विलास में भी नहीं है। मेरे मन में नित्य यही चिन्ता रहती थी कि आदर कैसे मिले। इसका उत्तर मुझे कितनी ही बार मिला, लेकिन आपके होली वाले जलसे ने दिन जो उत्तर मिला, उसने भ्रम दूर कर दिया, मुझे आदर और सम्मान का मार्ग दिखा दिया। यदि मैं उस जलसे में न जाती तो आज मैं अपने झोंपड़े में सन्तुष्ट होती। आपको मैं बहुत सच्चरित्र पुरुष समझती थी, इसलिए आपकी रसिकता का मुझ पर भी प्रभाव पड़ा। मोती बाई आपके सामने गर्व से बैठी हुई थी, आप उसके समाने आदर और भक्ति की मूर्ति बने हुए थे। आपके मित्रा-वृन्द उसके इशारों पर कठपुतली की भाँति नाचते
थे। एक सरलहृदया आदर की अभिलाषिणी स्त्रा पर इस दृश्य का जो फल हो सकता था वही मुझ पर हुआ।”4
अपनी बहन शांता के विवाह से सम्बद्ध दुर्घटना पर सुमन अपने को दोषी ठहराती हुई पुनः अपनी इस अवस्था मे मूल कारण पर प्रकाश डालती है -
“अगर विलास की इच्छा और निर्दय अपमान ने उसकी लज्जा-शक्ति को शिथिल न कर दिया होता तो वह कदापि घर से बाहर पाँव न निकालती। वह अपने पति के हाथों कड़ी-से-कड़ी यातना सहती और घर में पड़ी रहती। घर से निकलते समय उसे यह खयाल भी न था कि मुझे कभी दालमंडी में बैठना पड़ेगा। वह बिना कुछ सोचे-समझे घर से निकल खड़ी हुई। उस शोक और नैराश्य की अवस्था में वह भूल गई कि मेरे पिता हैं, बहन है।”5
इस प्रकार प्रेमचन्द ने वेश्यावृत्ति के दो कारण प्रधान रूप से बताये हैं। एक तो नारी के स्वाभिमान का कुचला जाना, जिसकी जड़ में वैवाहिक असंगतियाँ व दूषित दाम्पत्य हे; और दूसरा विलासी-जीवन के प्रति आकर्षण, जिसकी नींव में मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलता निहित है। ऊपरी तौर पर देखने से यह मालूम पड़ता है कि प्रेमचन्द ने वेश्यावृत्ति के आर्थिक पहलू को स्पर्श नहीं किया। कुछ विचारकों के मत से वेश्यावृत्ति का मूल कारण आर्थिक है। सही है; पर प्रेमचन्द के उपर्युक्त स्वाभिमान-रक्षा वाले कारण और आर्थिक आधार में कोई मौलिक भेद नहीं है। बिना अपने पैरों पर खड़े हुए नारी स्वाभिमान से जीवित रहीं रह सकती। आदर और स्वाभिमान के पीछे आर्थिक आधार अवश्यंभावी है। जो स्त्रियाँ समाज में अपनी आर्थिक समस्या हल नही कर सकतीं, उन्हें अन्त में यही मार्ग अपनाना पड़ जाता है; क्योंकि दूसरी स्थिति में उन्हें अपमानित जीवन व्यतीत करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त समाज के पिछड़े होने के कारण आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र स्त्री भी जीवन को निश्चिन्त व अपने को सुदृढ़ नहीं बना सकती। इसे हम प्रेमचन्द-युग की सीमा भी कह सकते हैं ; क्योंकि आज समाज की ऐसी स्थिति नहीं है। आज नारी स्वतन्त्र रूप से अपनी जीविका के अनेक साधन खोज सकती है और स्वतन्त्र रूप से पूर्ण स्वाभिमान के साथ जीवनयापन कर सकती है। ‘सेवासदन’ में सुमन वेश्यावृत्ति अपनाने के पूर्व ऐसा ही करती है, पर समाज उसे इस प्रकार जीवन व्यतीत करते नहीं देख पाता। अतः वेश्यावृत्ति का आर्थिक कारण प्रेमचन्द की दृष्टि से ओझल नहीं रहा है।
इस स्थल पर वेश्यावृत्ति के उन सभी कारणों की चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है जो समय-समय पर अनेक विचारकों ने उपस्थित किये हैं। प्रेमचन्द के विभिन्न उपन्यासों में आई अन्य समस्याओं की तरह इस सन्दर्भ में भी हमें केवल यह देखना है कि वेश्या-समस्या के प्रति उनके क्या विचार थे तथा उन्होंने उसके हल की दिशा में कौन-कौन से सुझाव अपने उपन्यासों में हमें दिये हैं।
व्यक्तिगत रूप से वेश्याओं के प्रति प्रेमचन्द बड़े उदार हैं। उन्होंने कभी भी इस वर्ग की निन्दा नहीं की है; कहीं भी उनके प्रति घृणा के भाव व्यक्त नहीं किये हैं। समाज के उपेक्षित, बहिष्कृत और शोषित वर्ग के प्रति प्रेमचन्द के हृदय में अपार सहानुभूति है। वे किसी व्यक्ति विशेष के प्रति घृणा के भाव उत्पन्न नहीं करते; वरन् दूषित प्रथा के विरुद्ध सशक्त ढंग से लिखते हैं। पाठक उस प्रथा विशेष से घृणा करने लगे, न कि किसी पात्र विशेष से। वेश्यावृत्ति के विरुद्ध प्रेमचन्द ने बड़ी कठोरता से लिखा है, लेकिन वेश्याओं को बुरा-भला नहीं कहा है। यही नहीं; उन्होंने औरों को भी स्पष्ट कहा है कि वे वेश्याओं को दोषी ठहराने के अधिकारी नहीं; क्योंकि वेश्यावृत्ति समाज के पापों का ही फल है। पद्मसिंह शर्मा उक्त विषय पर भाषण करते हुए कहते हैं, “हमने वेश्याओं को शहर के बाहर रखने का प्रस्ताव इसलिए नहीं किया है कि हमें उनसे घृणा है। हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएँ, हमारे सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएँ हैं जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया। यह दालमण्डी हमारे ही जीवन का कलुषित प्रतिबिम्ब, हमारे ही पैशाचिक अधर्म का साक्षात् स्वरूप है। हम किस मुँह से उनसे घृणा करें! उनकी अवस्था बहुत शोचनीय है। हमारा कर्तव्य है कि हम उन्हें सुमार्ग पर लायें, उनके जीवन को सुधारें और यह तभी हो सकता है, जब वे शहर से बाहर दुर्व्यसनों से दूर रहें। हमारे सामाजिक दुराचार अग्नि के समान हैं और ये अभागिन रमणियाँ तृण के समान। अगर अग्नि को शांत करना चाहते हो तो तृण को उससे दूर कर दीजिये, तब अग्नि आप ही शान्त हो जायगी।”6
सदन वेश्याओं की स्थिति पर विचार करता है, ”हाँ ये स्त्रियाँ बहुत ही सुन्दर हैं, बहुत ही कोमल हैं, पर उन्होंने अपने इन स्वर्गीय गुणों का कैसा दुरुपयोग किया है। उन्होंने अपनी आत्मा को कितना गिरा दिया है। हाँ! केवल इन रेशमी वस्त्रों के लिए, इन जगमगाते हुए आभूषणों के लिए उन्होंने अपनी आत्माओं का विक्रय कर डाला है। वे आँखें जिनसे प्रेम की ज्योति निकलनी चाहिए थी, कपट-कटाक्ष और कुचेष्टाओं से भरी हुई हैं। ...कितनी अधोगति है।”7 पद्मसिंह एक और स्थल पर कहते हैं, “आप अगर एक घण्टे दालमण्डी में चले जाएँ तो आपको मालूम हो जायगा कि जिसे आप ज्वालामुखी पर्वत समझ बैठे हैं वह केवल बुझी हुई आग का ढेर है। अच्छे और बुरे आदमी सब जगह होते हैं। वेश्याएँ भी इस नियम से बाहर नहीं हैं। आपको यह देखकर आश्चर्य होगा कि उनमें कितनी धार्मिक श्रद्धा, पाप-जीवन से कितनी घृणा, अपने जीवनोद्धार की कितनी अभिलाषा है।...उन्हें केवल एक सहारे की आवश्यकता है, जिसे पकड़कर वह बाहर निकल आवें।”8 और आगे चलकर प्रेमचन्द सुमन को विदुषी बनाकर दिखाते हैं, सुभद्रा सोचती है, “सुमन इतने नीचे गिरकर कैसी ऐसी विदुषी हो गई कि पत्रों में उसकी प्रशंसा छपती है।”9 इस प्रकार प्रेमचन्द वेश्याओं के प्रति घृणा उत्पन्न नहीं करते वरन् उन्हें सुधार की दिशा में ले जाकर समाज में, वेश्या बनने से पूर्व से कहीं अधिक, प्रतिष्ठित रूप में दिखाते हैं। वे समाज से वेश्यावृत्ति को समाप्त कर देना चाहते हैं; जिस समाज में वेश्यावृत्ति को स्थान दिया जाता है वह सभ्य नहीं कहा जा सकता। वेश्यावृत्ति को मिटाने की प्रक्रिया में वेश्याओं को कष्ट पहुँच सकता है, पर उसके पीछे पुनीत उद्देश्य छिपा हुआ है। पद्मसिंह वेश्यावृत्ति को समाप्त करने के निमित्त प्रस्तुत प्रस्ताव पर कहते हैं, “इस प्रस्ताव से हमारा उद्देश्य वेश्याओं को कष्ट देना नहीं वरन् उन्हें सुमार्ग पर लाना है।”10
वेश्या-समस्या के हल और वेश्यावृत्ति समाप्त करने के उद्देश्य से ‘सेवासदन’ में प्रेमचन्द ने पर्याप्त सशक्त तर्कों के साथ अनेक उपाय सुझाये हैं। पन्द्रहवें परिच्छेद में वेश्याओं की बस्ती को नगर से बाहर बसाने पर ज़ोर देते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं, “जीवन में भिन्न-भिन्न वासनाओं का प्राबल्य रहता है। बचपन मिठाइयों का समय है, बुढापा लोभ का, यौवन प्रेम और लालसाओं का समय है। इस अवस्था में मीना बाजार की सैर मन में विप्लव मचा देती है। जो सुदृढ़ हैं, लज्जाशील या भावशून्य हैं वह सँभल जाते हैं। शेष फिसलते हैं और गिर पड़ते हैं।
शराब की दुकानों को हम बस्ती से दूर रखने का प्रयत्न करते हैं, जुएखाने से भी हम घृणा करते हैं, लेकिन वेश्याओं की दुकानों को हम सुसज्जित कोठों पर चौक बाज़ार में ठाठ से सजाते हैं। यह पापोत्तेजना नहीं तो और क्या है ?
...इसलिए आवश्यकता है कि इन विषभरी नागिनों को आबादी से दूर, किसी पृथक् स्थान में रखा जाय। तब उन निन्द्य स्थानों की ओर सैर करने जाते हुए हमें संकोच होगा। यदि यह आबादी से दूर हों और वहाँ घूमने के लिए किसी बहाने की गुंजाइश न हो तो ऐसे बहुत कम बेहया आदमी होंगे जो इस मीना बाज़ार में क़दम रखने का साहस करें।”11 तीसरे परिच्छेद में यही बात विट्ठलदास कहता है। प्रेमचन्द विट्ठलदास के मुख से भी अपना उद्देश्य स्पष्ट घोषित करते हैं, “मेरा पहला उद्देश्य है, वेश्याओं को सार्वजनिक स्थानों से हटाना और दूसरा, वेश्याओं की नाचने-गाने की रस्म को मिटाना।”12 यहाँ वेश्याओं की बस्ती को नगर से हटाने के अतिरिक्त प्रेमचन्द वेश्याओं के नाच-गाने की रस्म को भी मिटाना चाहते हैं, जिससे वेश्या-समस्या के सुधार व हल में सहायता मिल सके। मात्र सूत्र-रूप में न लिखकर प्रेमचन्द अपने विचारों की व्याख्या भी करते हैं। पद्मसिंह शर्मा नाच-गाने की प्रथा को मिटाने के सम्बन्ध में अपनी शंका व्यक्त करते हैं, “लेकिन यहाँ मुझे एक शंका होती है। आख़िर हम लोगों ने भी तो शहरों ही में इतना जीवन व्यतीत किया है, हम लोग इन दुर्वासनाओं में क्यों नहीं पड़े ? नाच भी शहर में आये दिन हुआ ही करते हैं, लेकिन उनका ऐसा भीषण परिणाम होते बहुत कम देखा गया। इससे यही सिद्ध होता है कि इस विषय में मनुष्य का स्वभाव ही प्रधान है। आप इस आन्दोलन से स्वभाव तो नहीं बदल सकते।”13 प्रेमचन्द ने यहाँ अपनी स्वयं आलोचना करके यह बताया है कि उपर्युक्त सुझाव प्रस्तुत समस्या का आंशिक हल है; लेकिन ऐसा करने से कुछ तो हाथ लगेगा ही, अतः वे पूर्ण हल के अभाव में आंशिक हल की उपेक्षा स्वीकार नहीं करते। विट्ठलदास कहते हैं, “हम तो केवल उन दिशाओं का संशोधन करना चाहते हैं जो दुर्बल स्वभाव के अनुकूल हैं।”14
‘सेवासदन’ का अट्ठाईसवाँ परिच्छेद तो पूरा प्रस्तुत समस्या से सम्बन्धित वाद-विवाद से भरा हुआ है। प्रेमचन्द ने यहाँ स्पष्ट बताया है कि वास्तव में वे लोग कौन हैं जो वेश्याओं को नगर में बनाए रखना चाहते हैं। जब-जब समाज-सुधार का कोई आन्दोलन सामने आता है तब-तब वे ही लोग, हर सम्भव उपायों से, उसका विरोध करते हैं। यहाँ तक कि उसे साम्प्रदायिक रूप देने में संकोच नहीं करते। प्रेमचन्द लिखते हैं, ‘‘शहर की म्युनिसिपैलिटी में 18 सभासद् थे। उसमें 8 मुसलमान थे और 10 हिन्दू। सुशिक्षित मेम्बरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्मा जी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्यओं को नगर से बाहर निकाल देने का प्रस्ताव स्वीकृत हो जायगा। सब सभासदों से मिल चुके थे और इस विषय में उनकी ओर से घोर विरोध होने का भय था। वे लोग बड़े व्यापारी, धनवान और प्रभावशाली मनुष्य थे। तेल के कारखाने का मालिक मुंशी अबुल वफ़ा मुसलमानों के प्रतिनिधि हाजी हाशिम का समर्थन करता हुआ कहता भी है, “ यह हमारी तादाद को घटाने की सरीह कोशिश है। तवायफें 90 फ़ीसदी मुसलमान हैं ; जो रोज़े रखती हैं, इजाजदारी करती हैं, मौलूद और उर्स करती हैं। हमको उनकी जाती फैलों से कोई बहस नहीं है। नेक व बद की सज़ा व जजा देना खुदा का काम हे। हमकों तो सिर्फ़ उन की तादाद से गरज़ है।”15 लकिन समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो इन समाज-विरोधी तत्त्वों का स्पष्ट विरोध करता है। पेंशनर डिप्टी कलेक्टर सैयद शफकत अली कहते हैं, “अगर इन तवायफों की दीनदारी के तुफैल में सारे इस्लाम को खुदा जन्नत अता करे तो मैं दोजख में जाना पसन्द करूंगा। अगर उनकी तादाद की बिना पर हमको इस मुल्क़ की बादशाही भी मिलती हो तो मैं कबूल न करूँ। मेरी राय तो यह है कि इन्हें मरकजी शहरों से नहीं, दुदूद शहर से खारिज कर देना चाहिए।”16 हकीम शोहरत खाँ कहते हैं, “जनाब, मेरा बस चले तो मैं इन्हें हिन्दुस्तान से निकाल दूँ, इनसे एक जजीरा अलग आबाद करूँ। मुझे इस बाज़ार के खरीदारों से अक़्सर साबिका रहता है। अगर मेरे मजहबी अकायद में फ़र्क न आये तो मैं यह कहूंगा कि तवायफें हैजे़ और ताउन का अवतार हैं। हैज़ा दो घण्टे में काम कर देता है, प्लेग दो दिन में, लेकिन यह जहन्नुमी हस्तियाँ रुला-रुलाकर और घुला-घुलाकर मारती हैं। मुंशी अबुल वफ़ा साहब उन्हें जन्नती हूर समझते हों, लेकिन ये वे काली नागिनें हैं जिनकी आँखों में ज़हर है। ये वे चश्में हैं जहाँ से जरायम के सोते निकलते हैं। कितनी ही नेक बीवियाँ उनकी बदौलत खून के आँसू रो रही हैं। कितने ही शरीफ़ज़ादे इनकी बदौलत खस्ता व ख्वार हो रहे हैं। यह हमारी बदकिस्मती है कि बेशतर तवायफें अपने को मुसलमान कहती हैं। ”17 वकील शरीफ़ हसन के मत से, “इसमें तो कोई बुराई नहीं कि वह अपने को मुसलमान कहती हैं, बुराई यह है कि इस्लाम भी उन्हें राहे-रास्ते पर लाने की कोई कोशिश नहीं करता। हिन्दुओं की देखा-देखी इस्लाम ने भी उन्हें अपने दायरे से खारिज कर दिया है। जो औरत एक बार किसी वजह से गुमराह हो गई, उसकी तरफ़ से इस्लाम हमेशा के लिए आँखें बन्द कर लेता है।”18 और आगे चलकर प्रेमचन्द समस्या का 75 फीसदी हल प्रस्तुत करते हैं। शरीफ़ हसन कहते हैं, “और अगर उन लड़कियों की नाजायज तौर पर शादी हो सके तो, और इसके साथ ही उनकी परवरिश की सूरत भी निकल आये तो मेरे ख्याल में ज़्यादा नहीं तो 75 फीसदी तवायफें इसे खुशी से कबूल कर लें।”19 और इसी को लेकर म्युनिसिपल बोर्ड में पद्मसिंह अपना प्रस्ताव उपस्थित करते हैं जो तीन भागों में विभक्त है :
“(1) वेश्याओं को शहर के मुख्य स्थान से हटाकर बस्ती से दूर रखा जाय,
(2) उन्हें शहर के मुख्य सैर करने के स्थानों और पार्कों में जाने का निषेध किया जाय,
(3) वेश्याओं का नाच कराने के लिए एक भारी टैक्स लगाया जाय और ऐसे जलसे किसी हालत में खुले स्थानों में न हों।”20
इन प्रस्ताव में वेश्याओं के आर्थिक पक्ष पर कोई विचार नहीं किया गया है और इस प्रकार यह प्रस्ताव, 75 फीसदी से भी कम, प्रस्तुत समस्या के हल की दिशा में कारगर सिद्ध हो सकेगा। प्रेमचन्द ने आर्थिक पहलू पर दृष्टि तो रखी है पर उसका कोई व्यावहारिक रूप सामने नहीं ला सके हैं। जीवन-निर्वाह की दृष्टि से प्रेमचन्द वेश्या-समस्या का वैयक्तिक हल प्रस्तुत करते हैं जो महत्त्वहीन है। सुमन कहती है, “मैं सुख और आदर दोनों का ही छोड़ती हूँ, पर जीवन-निर्वाह का तो कुछ उपाय करना पड़ेगा ? ...कोई ऐसा हिन्दू जाति का प्रेमी है जो मेरे गुज़ारे के लिए 50) रुपये मासिक देने पर राज़ी हो ?”21 और आगे चलकर प्रेमचन्द इस आर्थिक सहायता की व्यवस्था करवा देते हैं। विट्ठलदास सुमन से कहते हैं, “मुझसे तो कुछ नहीं हो सका लेकिन पद्मसिंह ने लाज रख ली। उन्होंने तुम्हारा प्रण पूरा कर दिया। वह अभी मेरे पास आये थे। और वचन दे गये हैं कि तुम्हें 50) रुपये मासिक आजन्म देते रहेंगे”22
समाज में एसे पद्मसिंह कितने मिल सकते हैं ? स्पष्ट है, वेश्या-जीवन की आर्थिक समस्या के हल की दिशा में यह प्रस्ताव कोई व्यावहारिक मार्ग नहीं सुझाता। इस प्रकार ‘सेवासदन’ 75 फ़ीसदी से भी काफ़ी कम प्रस्तुत समस्या के हल को हमारे सामने लाता है। वास्तव में, आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र जीवन यापन की व्यवस्था प्रेमचन्द अपने समय के समाज में नहीं देख सके। यह एक ऐतिहासिक सीमा है, इससे प्रेमचन्द को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह तो उनकी यथार्थता को बल ही पहुँचाता है।
‘सेवासदन’ के बाद ‘गोदान’ में यह 75 फ़ीसदी से कम का हल समाप्त हो जाता है और प्रेमचन्द समाज का ढाँचा समूल बदलने की घोषण करते हैं। बत्तीसवें परिच्छेद में मिर्ज़ा साहब और मेहता साहब की बातचीत ध्यान देने योग्य है। मिर्ज़ा साहब की धारणा थी, “रूप के बाज़ार में वही स्त्रियाँ आती हैं, जिन्हें या तो अपने घर में किसी कारण से सम्मानपूर्ण आश्रय नहीं मिलता, या जो आर्थिक कष्टों से मजबूर हो जाती है, और अगर यह दोनों प्रश्न हल कर दिये जाएँ, तो बहुत कम औरतें इस भाँति पतित हों।”23
मेहता का मत था, “मुख्यतः मन के संस्कार और भोग-लालसा ही औरतों को इस ओर खींचती है।”24 इसी बात पर दोनों बहस करते हैं, जिसका अन्त इन शब्दों से होता है -
“जड़ पर जब तक कुल्हाड़े न चलेंगे, पत्तियाँ तोड़ने से कोई नतीज़ा नहीं।”25 कहाँ ‘गोदान’ का विषय और कहाँ वेश्या-समस्या। प्रेमचन्द को जहाँ भी अवसर मिला है उन्होंने विभिन्न समस्याओं पर अपने विचार स्वतन्त्रता से व्यक्त किए हैं। ऐसे अवसरों पर वे औपन्यासिक रचना-तन्त्र के शास्त्रीय नियमों के पालन की चिन्ता नहीं करते। ये सभी बातें उनकों समस्यामूलक उपन्यासकार सिद्ध करती हैं।
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संदर्भ-संकेत
1 ‘वरदान’, पृ. 92
2 ‘सेवासदन’, पृ. 87
3 ‘सेवासदन’, पृ. 91-92
4 ‘सेवासदन’, पृ. 117
5 ‘सेवासदन’, पृ. 255
6 ‘सेवासदन’, पृ. 215-216
7 ‘सेवासदन’, पृ. 219-220
8 ‘सेवासदन’, पृ. 311
9 ‘सेवासदन’, पृ. 351
10 ‘सेवासदन’, पृ. 269
11 ‘सेवासदन’, पृ. 81 से 83
12 ‘सेवासदन’, पृ. 127
13 ‘सेवासदन’, पृ. 127
14 ‘सेवासदन’, पृ. 128
15 ‘सेवासदन’, पृ. 170-171
16 ‘सेवासदन’, पृ. 172
17 ‘सेवासदन’, पृ. 173
18 ‘सेवासदन’, पृ. 173
19 ‘सेवासदन’, पृ. 173
20 ‘सेवासदन’, पृ. 174
21 ‘सेवासदन’, पृ. 267-268
22 ‘सेवासदन’, पृ. 93
23 ‘गोदान’, पृ. 444-
‘गोदान’ : [समस्यामूलक कोण से परिच्छेदानुसार रेखांकन]
‘गोदान’ का प्रारंभ होरीराम नामक पाँच बीघा ज़मीनवाले एक निर्धन किसान और उसकी पत्नी धनिया के गार्हस्थिक वार्तालाप से होता है। वार्तालाप में होरी की व्यावहारिक कृषक-बुद्धि का परिचय तो है ही, किसान के कमज़ोर आर्थिक पक्ष को भी बड़ी गहराई से प्रस्तुत करता है। मूल समस्या लगान के बेबाक किए जाने तथा कर्ज़ (आने रुपये का सूद) की है। ‘गोदान’ का किसान-वर्ग महाजnonनों की शोषण-वृत्ति का शिकार है। होरी के परिवार में सोलह वर्षीय एक पुत्र गोबर और दो लड़कियाँ, क्रमशः बारह और आठ वर्ष की - सोना और रूपा हैं। धनिया की उम्र छत्तीस के लगभग है - पर चेहरे पर झुर्रियाँ, बाल पके हुए और देह ढली हुई। होरी चालीस से कम है - पर, पिचका हुआ चेहरा व झुर्रियों-भरा माथा। होरी के जीवन की सबसे बड़ी साध मात्र एक पछाई गाय लेने की है (कामधेनु !)। इस परिच्छेद में होरी की भोला नामक पचास वर्षीय ग्वाले से भेंट होती है। ‘मेहरिया’ पाने की आशा से वह अपनी गाय होरी को अस्सी रुपये में देने को राज़ी हो जाता है। प्रथम परिच्छेद ही ‘गोदान’ का केन्द्र है।
दूसरे परिच्छेद में सेमरी गाँव (अवध प्रांत) के ज़मींदार रायसाहब अमरपाल सिंह से हम परिचित होते हैं। होरी का गाँव बेलारी भी इन्हीं के इलाके में है। जमींदर और मुख़्तार किस प्रकार अपने असामियों को लूटते हैं इसका बोध इस परिच्छेद से पाठकों को होता है। ज़मीदारी प्रथा पर प्रेमचंद का ध्यान यहाँ भी केन्द्रित है। व्यवस्था-विरोध प्रमुख है, व्यक्ति ज़मीदार का नहीं। फिर भी, ज़मीदार रायसाहब की धूर्तता, सब असामियों से ‘शगुन’ करने आने की ताक़ीद वाली बात से तथा बेगारों के प्रति उनके दृष्टिकोण से प्रकाशित की गई है। इससे उनकी ‘राष्ट्रीयता’ और ‘राम-भक्ति’ व्यंग्य सिद्ध हाती है। उपन्यास की मूल समस्या - किसान का आर्थिक शोषण - को क्रमशः अनावृत किया गया है।
तीसरा परिच्छेद होरी-परिवार के अन्य सदस्यों से पाठकों को मिलवाता है, जिनमें है गोबर (पुत्र), सोना और रूपा (पुत्रियाँ)। भोला की विधवा पुत्री झुनिया से भी प्रथम साक्षात्कार इसी परिच्छेद में होता है। यह परिच्छेद मनोवैज्ञानिक चित्रण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है; यद्यपि बेगार, नजर-नजराना, डांडे, ग्रामीणों की दरिद्रता, महाजनों के सूद आदि गोबर, होरी और भोला के संवादों का प्रमुख विषय यहाँ भी है। इस परिच्छेद में परिवारिक जीवन के विविध पहलुओं पर भी प्रकाश डाला गया है। होरी की अपने भाइयों से हुई अलगोझे की घटना तथा विधवा युवती झुनिया के पुनर्विवाह का संकेत। टूटती हुई संयुक्त परिवार व्यवस्था का होरी स्वागत ही करता है। भोला-परिवार में ‘महाभारत’ मचे रहने का करण विधवा ननद झुनिया और उसकी दो भावजों के बीच समायोजन न होने का है।
चौथे परिच्छेद का परिवेश पारिवारिक है। अलगोझे से भी होरी और उसके भाइयों (हीरा और सोभा) के परिवारों में पारस्परिक सौमनस्य नहीं आया। होरी के यहाँ गाय आने पर हीरा और उसकी पत्नी पुन्नी में ईर्ष्या-भाव सक्रिय हो उठता है। धनिया और हीरा में वाक्-युद्ध होता हे। परिच्छेद के प्रारंभ में दमड़ी बंसार का प्रसंग किसान की मनोवृत्ति को प्रकाशित करता है। ‘गोदान’ का यह सपूर्ण परिच्छेद होरी के जीवन पर मार्मिक व्यंग्य है, जो पाठक तो समझते हैं, उपन्यास के पात्र नहीं। यहाँ भी होरी पर लगभग तीन सौ के कर्ज़ की और सूद की काली छाया है। वही मगरू साह, दातादीन पंडित, दुलारी विधवा सहुआइन आदि सूदखोर महाजन मौजूद हैं। पुन्नी और दमड़ी बंसार का संघर्ष, सजीव सम्पत्ति गाय का होरी के घर में शुभागमन, सोना-रूपा का बालोचित व्यवहार, धनिया और हीरा का वाक्युद्ध आदि सभी प्रंसग होरी की विवशता दयनीयता, उसकी अतीत और वर्तमान की आर्थिक विपन्नता तथा आशंकाग्रस्त भविष्य के सामने फीके नज़र आते हैं। बंसार और हीरा से संबंधित घटानाएँ ‘गोदान’ के मूल उद्देश्य को सघनता प्रदान करती हैं। होरी के माध्यम से प्रेमचन्द तत्कालीन कृषक जीवन ओर उसकी समस्याओं का सटीक और वास्तविक चित्र अंकित करते चलते हैं।
पाँचवाँ परिच्छेद गोबर-झुनिया की कथा की नींव डालता है। विधवा और अनुभवी झुनिया युवक गोबर की विवाहिता बनकर रहना चाहती है। गोबर तैयार हो जाता है। झुनिया के माध्यम से, एक धर्मध्वजी ‘विप्र’-ग्राहक की वासनाक्त तसवीर अंकित करने का उद्देश्य तथाकथित धर्म और वर्ण-महत्त्व के गलित स्वरूप का उद्घाटन भी है। पारिवारिक जीवन के प्रमुख पक्ष पति-पत्नी सम्बन्धों पर मनोवैज्ञानिक और समाज-शास्त्रीय दृष्टि भी, गोबर-झुनिया वार्तालाप में लक्षित होती है।
छठे परिच्छेद में सर्वप्रथम पंडित ओंकारनाथ (दैनिक पत्र ‘बिजली’ के सम्पादक), श्यामबिहारी तंखा (वकील और बीमा कम्पनी के दलाल) और मिस्टर बी॰ मेहता (दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक ) सामने आते हैं - रायसाहब के ‘धनुष-यज्ञ’ के कार्यक्रम में। मिस्टर मेहता के माध्यम से कृषकों से सम्बद्ध बेगार, नजराना, इजाफ़ा, लगान आदि का प्रसंग चलाया गया है। कुछ समय बाद मिस्टर खन्ना (बैंक मैनेजर और शक्कर मिल में मैनेजिंग डायरेक्टर), उनकी पत्नी कामिनी खन्ना और मिस मालती (लखनऊ की डॅाक्टर ) का आगमन होता है। इस परिच्छेद के वार्तालाप तत्कालीन वातावरण के विभिन्न प्रश्नों को बौद्धिक भूमि पर प्रस्तुत करते हैं। इससे तत्कालीन युग की मनःस्थिति का बोध होता है। जीवन के अनेक पक्ष यहाँ मौजूद हैं - ज़मींदार और व्यावसायिक के साथ-साथ बुद्धिजीवी वर्ग के सम्पादक, प्रोफ़ेसर, वकील आदि तथा अत्याधुनिक विचारधारा की पोषिका एक विशिष्ट रमणी। धन पर आश्रित समाज और राज-व्यवस्था, विवाह-प्रथा और मुक्त भोग, तलाक आदि विषयों को यहाँ स्पर्श किया गया है। मिर्ज़ा खुर्शेद (जूते के व्यापारी और कौंसिल के मेम्बर) भी आते हैं। शराब और ‘अफ़गान’ की घटनाओं द्वारा प्रेमचन्द जी ने तथाकथित् शरीफ इज़्ज़तदार बुद्धिजीवियों का अच्छा-खासा मज़ाक बनाया है। होरी की निडरता के साथ पुलिस के हथकण्डों का उल्लेख न्याय-व्यवस्था की भ्रष्टता का बोध कराता है। यह परिच्छेद बहुविध सामाजिक जीवन का चित्र अंकित करता है।
परिच्छेद सात में प्रहसन भी सोद्देश्य है। इस प्रहसन में एक मुकदमेबाज़ देहाती ज़मींदार का ख़ाका उड़ाया गया है। यह प्रहसन बड़ा ही सजीव और सत्य है। इस प्रकार प्रेमचन्द हमारा ध्यान प्रचलित न्याय-व्यवस्था की विडंबनाओं के प्रति आकर्षित करते हैं। फिर, देहाती जीवन का आनन्द उठाने के लिए एक शिकार-पार्टी का आयोजन होता है। खन्ना, मालती, तंखा रायसहाब, मिर्जा खुर्शेद और मिस्टर मेहता इसमें शामिल होते हैं। पर, शिकार खेलने का सच्चा उत्साह मात्र मिस्टर मेहता और मिर्ज़ा खुर्शेद में है। अन्यों की प्रेरणाएँ भिन्न-भिन्न हैं। जंगल में मेहता-मालती का जो परिचय एक जंगली युवती से होता है, उसके माध्यम से भी प्रेमचन्दजी ने अपने जीवन-दर्शन (निःस्वार्थ सेवा) को अभिव्यक्ति दी है। मिर्जा खुर्शेद और मिस्टर तंखा की टोली द्वारा तथाकथित डेमोक्रेसी को बड़े-बड़े व्यापारियों और ज़मीदारों का राज्य बताया गया है। पुराने ज़माने के बादशाहों के आदर्श चरित्र का तथा आजकल (‘गोदान’ - रचनाकाल 1936) के मंत्रियों द्वारा की जा रही ‘लूट’ का उल्लेख किया गया है। अतः इस परिच्छेद में भी सामयिक जीवन के विभिन्न पक्षों को स्पर्श किया गया है। शिकार-यात्रा मात्र मनोरजंन-यात्रा न होकर सामाजिक और राजनीतिक जीवन से सम्बद्ध है। यह पद्धति सामान्य उपन्यास-लेखकों से भिन्न है।
आठवाँ परिच्छेद फिर किसान-वर्ग के परिवेश में है। महाजनों के नीचे गला दबे और सूद भरते किसान। महाजनों के किसानों की लूट के भीषण हथकण्डे। ‘कर्ज़’ वह मेहमान है, जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता।’ रायसाहब का कारकुन पण्डित नोखेराम किसानों से बाक़ी वसूलने आता है। निदान, किसान महाजनों और उनके एजेण्टों की शरण जाते हैं। बिना लिखी-पढ़ी के दो आने रुपये ब्याज पर कर्ज़ देने वाले अथवा एक साल का ब्याज पेशगी काटकर, पक्के कागज़ पर, रुपया कर्ज़ देने वाले (झींगुरीसिंह)। प्रेम और बिरादरी का पक्ष लिए गोबर-धनिया का विवाह-प्रसंग भी इस परिच्छेद में आकार ग्रहण करता है। पर, परिच्छेद की महत्त्वपूर्ण घटना है - हीरा द्वारा गाय (सुन्दरिया) को विष दिया जाना तथा गाय का मर जाना।
नवाँ परिच्छेद होरी के चरित्र की मार्मिकता को उजागर करता है। उसके झूठ बोलने में भी सौन्दर्य है। पर, मुख्य प्रसंग धर्मध्वजियों (पण्डित दातादीन) से सम्बद्ध है। गौ-हत्या को लेकर ‘धरम’ दण्ड देने आता है। दूसरी ओर हलके के ‘कर्तव्यशील’ थानेदार भी सक्रिय हो उठते हैं। दारोगाजी की होरी द्वारा ‘ताबेदारी’ होती है। पटवारी अपना और अपने साथियों का हिस्सा तय करता है (बाँट-बखरा)। यहाँ यह तथ्य भली-भाँति प्रकट कर दिया गया है कि ‘हत्यारे गाँव के मुखिया हैं।’ अंत में, दारोगा द्वारा इन हत्यारों से जिस प्रकार पचास रुपये वसूले जाते हैं, वह प्रसंग हास्यपूर्ण होते हुए भी तत्कालीन पुलिस-शासन एवं व्यवस्था पर प्रकाश डालता है। इस प्रकार घटनाएँ एवं पात्रों के कार्यकलाप विभिन्न समस्याओं की परिधि में ही घटित होते हैं।
दसवें परिच्छेद का मुख्य विषय है, गोबर का पाँच माह का गर्भ लिए विधवा झुनिया का होरी के घर में प्रवेश। वस्तुतः यह संपूर्ण परिच्छेद होरी के पारिवारिक जीवन से सम्बद्ध है। छोटे भाई हीरा की पत्नी पुनिया के प्रति होरी की चिन्ता, होरी-धनिया का पुनः मेल-मिलाप, गोबर-झुनिया के शारीरिक सम्बन्धों का रहस्योद्घाटन आदि पारिवारिक प्रसंग इस परिच्छेद में समाविष्ट हैं। पर, इन सबके मूल में किसान की - होरी की - दरिद्रता का अंकन बड़े मर्मस्पर्शी और कलात्मक ढंग पर हुआ है। होरी का तारतार कम्बल और फटी हुई मिर्जई उसके दारिद्रय को मूर्त कर देती है। दूसरे, झुनिया के आ जाने के कारण पारिवारिक जीवन के एक विशिष्ट पक्ष को भी स्पर्श किया गया है। समाज के काँव-काँव करने का भय, भोज-भात के खर्च की चिन्ता आदि होरी के सामाजिक जीवन से सम्पृक्त हैं।
ग्यारहवाँ परिच्छेद पूर्व परिच्छेद के ‘असाधारण काण्ड’ का परिणाम है। गाँव वालों ने होरी को जाति-बाहर कर दिया। तथाकथित ‘मरजाद’ पर तीखा व्यंग्य धनिया के माध्यम से किया गया है। न्याय के नाम पर ‘पंचायत’ के भ्रष्ट आचरण का पर्दाफाश प्रेमचन्द यहाँ करते हैं। ‘पंच-परमेश्वर’ की भावना होरी में ज़रूर है, पर प्रेमचन्द में नहीं। पंचों के पतित वैयक्तिक जीवन को प्रेमचन्द निरावरण करना नहीं चूकते। पण्डित दातादीन, जो बिरादरी को भात और बाम्हनों को भोज चाहते हैं, धनिया-होरी की बदनामी और जग-हँसाई की चिन्ता जिन्हें सवार है - उन्हीं का तिलक लगाने वाला, पोथी-पत्रा बाँचनेवाला, कथा-भागवत करने वला, धर्म-संस्कार करनेवाल, नित्य स्नान-पूजा करनेवाला लड़का मातादीन एक चमारिन से फँसा हुआ है। ऐसे व्यक्ति का ‘लोक-रीति’ का ढिंढोरा पीटना स्वयं में कितना हास्यास्पद है। दूसरे पंच पटवारी लाला पटेश्वरी हैं - पूर्णमासी को सत्यानारायण की कथा सुनने वाले, पर असामियों से बेगार करानेवाले और उन्हें लडा़कार रकमें मारनेवाले। तीसरे पंच हैं दो जवान पत्नियोंवाले पचास वर्षीय झिगुरीसिंह। उनकी पत्नियाँ कितनी भ्रष्ट हैं, यह उन्हें भले ही पता न हो, पर झुनिया को कुलटा कहनेवाले। चौथे पंच कारकुन पण्डित नोखेराम हैं, जो भगवान के सामने से उठते ही मानवता खो बैठते हैं। छल-फरेब का सहारा लेनेवाले। ऐसे पंचों ने होरी पर सौ रुपये नकद और तीस मन अनाज का डांड लगा दिया। प्रेमचन्द ने पंच-पिशाचों के निर्णय का ज़बरदस्त विरोध धनिया के माध्यम से करवाया है। बिरादरी के आतंक को तोड़ा है। बिरादरी - जो होरी के जीवन में वृक्ष की भाँति जड़ जमाए हुए थी और उनकी नसें उसके रोम-रोम में बिंधी हुई थीं। धनिया पोते के जन्मोत्सव पर अपनी दोनों लड़कियों के साथ गला फाड़-फाड़कर सोहरे गाती है। समाज को, धर्मध्वजियों को खुली चुनौती देती है। यद्यपि होरी बाप-दादों की निशानी एकमात्र घर तक को गिरां रखकर डाँड चुकाता है, किन्तु धनिया बिरादरी के और पंचायत के परखचे उड़ाती हुई कहती है – “मेहरिया रख लेना पापा नहीं है। हाँ, रखकर छोड़ देना पाप है।” निःसन्देह, ‘गोदान’ का यह परिच्छेद बड़ा सशक्त और क्रांतिकारी है। यह एक प्रकार से ग्रामीण निर्धन जनता की सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। भ्रष्ट सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ता है। समाजिक अन्याय के शिकार ग्रामीणों को सही दिशा देता है तथा उनके जीवन को सुखी और बेहतर बनाने का मार्ग सुझाता है।
बारहवाँ परिच्छेद गोबर को मज़दूरी करने लखनऊ की ओर प्रस्थित कर देता है। वह समझ लेता है – खेती में जान खपाने के सिवा और क्या रखा है ?..मज़दूरी करना कोई पाप तो नहीं है।” कोदई से उसकी मुलाकात मात्र एक रोचक प्रसंग है।
तेरहवें परिच्छेद में सास-बहू और पति-पत्नी के सम्बन्धों पर महत्त्वपूर्ण विचार उपलब्ध होते हैं, जिनके पुरस्कर्ता क्रमशः गोबर और प्रोफ़ेसर मेहता हैं। मिर्ज़ा खुर्शेद द्वारा आयोजित कबड्डी का खेल वस्तुतः प्रेमचन्द की ज़िंदादिली का प्रतीक है। चुनाव और धन की चर्चा भी मिस्टर तंखा-मालती वार्तालाप में उल्लेखनीय है। प्रेमचन्दजी को जब और जहाँ अवसर मिलता है, व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र की विभिन्न समस्याओं पर विचार-विमर्श शुरू कर देते हैं। समस्या के प्रत्येक कोण पर उनकी दृष्टि रहती है।
चौदहवाँ परिच्छेद होरी की ग़रीबी को पुनः चित्रित करता है। वह कर्ज़ से लदा हुआ है। घर में अनाज का एक दाना नहीं। महाजन और उधार देते नहीं। हीरा-पत्नी पुनिया होरी का एहसान चुकाने की भावना से आदरपूर्वक अनाज दे जाती है। तदुपरांत भोला अपनी गाय के रुपये माँगने चला आता है और रुपया न मिलने पर बदले में दोनों बैल खोलकर ले जाता है। होरी धरम का पल्ला पकड़ता है, पर सदा की तरह मूर्ख बनता है।
पन्द्रहवें परिच्छेद मे ‘वीमेन्स लीग’ के मंच से प्रोफ़ेसर मेहता की लम्बी तक़रीर प्रेमचन्द के समस्यामूलक उपन्यासकार को और स्पष्ट करती है। स्त्री और पुरुष के व्यक्तिगत और समाजगत पारस्परिक सम्बन्धों पर, प्रोफ़ेसर मेहता के भाषण के बहाने, सविस्तर विचार-विमर्श प्रस्तुत करते हुए उपन्यास लिखना प्रेमचन्द की कला का ही कौशल है। प्रेम, त्याग और कर्तव्य पर अभिव्यक्त प्रोफ़ेसर मेहता के विचार एक प्रकार से प्रेमचन्द के जीवन-दर्शन से ही उद्भूत हैं। प्रेमचन्द की प्रगतिशीलता को समझने के लिए उनके जीवन-दर्शन को पहले समझना अनिवार्य है, अन्यथा असंगतियाँ ही दिखाई देंगी। इस परिच्छेद में मिसेज़ खन्ना (गोविन्दी) का प्रवेश उपन्यास की वैचारिक भूमिका को और प्रशस्त करता है। मालती-गोविन्दी धुरी प्रस्तुत करके प्रेमचन्द अपने पाठकों को वैचारिक स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। उन्हें मानसिक ऊहापोह का अवसर देते हैं। मनुष्य की आदिम मनोवृत्ति को वे झुठलाते नहीं हैं और यथार्थ से हटते नहीं। इस प्रकार यह पूरा परिच्छेद विचार-प्रधान बनकर रह गया है। यद्यपि कथा-विकास में ऐसे प्रसंग कोई योग नहीं देते, फिर भी उनका अस्तित्व उपन्यास की रोचकता को किंचित् भी कम नहीं करता, वरन् उसकी शक्ति ही बनता है। यह परिच्छेद मालती के पिता (मिस्टर कौल) और उसकी बहनों (सरोज और वरदा) से भी हमें परिचित कराता है।
सोलहवाँ परिच्छेद जहाँ एक ओर जमीदारों-ताल्लुकेदारों के अर्थ-तंत्र को उद्घाटित करता है, वहाँ दूसरी ओर पत्रकारिता की वास्तविक कठिनाइयों और ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ पीत-पत्रकारिता और सम्पादकीय हथकण्डों को भी प्रकाशित करता है। ‘बिजली’-सम्पादक ओंकारनाथ का व्यंग्य-चित्र यद्यपि पूर्व-परिच्छेदों में अंकित हुआ है, पर यह पूरा परिच्छेद ही उनके पारिवारिक जीवन, उनकी आर्थिक स्थिति तथा उनकी दुर्बलताओं को प्रस्तुत करता है। ओंकारनाथ की पत्नी गोमती को पाठक प्रथम वार यहाँ देखते हैं। गोमती अपने पति ओंकारनाथ से अधिक बुद्धिवान और व्यावहारिक दिखाई देती है। उसका असन्तोष स्वाभाविक है। ओंकारनाथ के सनकीपन से वह भी परिचित है। इस परिच्छेद में प्रेमचन्द ने तत्कालीन प्रशासकीय व्यवस्था का जो चित्र अंकित किया है, वह आज भी अर्थयुक्त है। समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता का अपहरण, अफ़सरों की दावतें, रिश्वत, सरकारी चन्दे आदि का विवरण आज भी उतना ही यथार्थ है।
सत्रहवाँ परिच्छेद फिर होरी की दयनीय ग़रीबी से शुरू होता है। इस बार भी वहाँ खाने को कुछ नहीं। उसकी बच्ची रूपा भूखी है और रो रही है। बुरे दिनों का लाभ उठानेवाले नर-पिशाच पण्डित दातादीन छद्म-हितैषी बन कर आते हैं और आधे-साझे में होरी के खेत की बोआई करा देने की व्यवस्था करते हैं। चमारिन सिलिया उसकी रखैल है ही। झुनिया अपनी मीठी बातों को महँगे दामों में बेचना जानती है। मातादीन के प्रति उसका व्यवहार भी छद्म है - यह सोना से हुए उसके वार्तालाप से स्पष्ट है। इसी परिच्छेद में मिस्टर खन्ना की शक्कर-मिल खुलने की सूचना मिलती है। कारिन्दे और दलाल किसानों की खड़ी ऊख मोल लेते हैं। होरी, शोभा, गिरधर सब अपनी-अपनी ऊख तुलवा देते हैं। पर, उनका सारा पैसा महाजन हड़प लेते हैं। सहुआइन दुलारी, मगरू साह, दातादीन, झिंगुरीसिंह, पटेश्वरी, नोखेराम आदि महाजन सब अपना-अपना पैसा वसूलने निकल पड़ते हैं। किसान-वर्ग की कर्ज़-समस्या का बड़ा भयानक रूप इस परिच्छेद में चित्रित है। किसान मज़दूरी करने को मजबूर होते हैं।
अठारहवाँ परिच्छेद मिस्टर खन्ना और गोविन्दी के पारिवारिक जीवन से संबद्ध है। धनवान होते हुए भी खन्ना-परिवार में सुख और शान्ति नहीं। खन्ना और गोविन्दी की विचारधाराएँ और जीवन-पद्धतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। गोविन्दी ‘अपमानित’ होकर भी खन्ना की ‘लौंडी’ थी। खन्ना-गोविन्दी-कलह के मूल में मालती है। गोविन्दी को मालती-खन्ना के सम्बन्ध अरुचिकर हैं। खन्ना की दृष्टि में गोविन्दी मालती के पाँव की धूल भी नहीं। जबकि गोविन्दी की दृष्टि में मालती वेश्याओं से भी गयी-बीती है। खन्ना मालती का अपमान नहीं कर सकते - गोविन्दी के दोनों कान पकड़कर जोर से ऐंठते और तीन तमाचे लगाते हैं। गोविन्दी मालती के इस परोक्ष शासन को सहन न कर सकी। दूसरे दिन, अपने बच्चे के साथ घर से निकल पड़ती है और चिड़ियाघर के लॉन पर जा पहुँचती है। रास्ते-भर वह विवाहित जीवन की दुर्दशा पर विचार करती है। स्वयं कमाकर खाने का निर्णय लेती है, जिससे पति के अधीन न रह सके। तभी प्रोफ़ेसर मेहता भी अचानक वहीं आ जाते हैं। मेहता, जो प्रेमचन्द के विचारों के वाहक हैं, नारी, प्रेम, विवाह, दाम्पत्य, आदि पर जो विचार व्यक्त करते हैं, वे प्रगतिशील भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं। इनसे प्रेमचन्द का स्वतन्त्र वैचारिक व्यक्तित्व भी आलोकित होता है। प्रेमचन्द किसी ‘वाद’ विशेष के अंध-भक्त नहीं थे। उनका अपना मैलिक चिन्तन था, जिसमें प्रगतिशील प्राणवान भारतीय संस्कृति और आधुनिक समाजवादी विचारधारा का अद्भुत मेल है। वे गोविन्दी को संतुलित करते हैं और उसे वापस घर पहुँचते हैं। प्रोफ़ेसर मेहता कहते हैं – “क्षमा कीजिए, मैं तो एक पूरी स्पीच ही दे गया।” पर, यह कला समस्यामूलक उपन्यास-रचना की विशिष्ट कला है, जो सामान्य उपन्यास-कला के निकष से भिन्न है।
उन्नीसवें परिच्छेद में गोबर का नया रूप सामने आता है। उसे अब सामाजिक रूढ़ियों के निर्वाह की चिन्ता नहीं। लोक-निन्दा का भय नहीं। एक साल शहर में रहकर वह सीधा-सादा ग्रामीण युवक नहीं रहा। उसने कुछ धन भी कमा लिया है और अब एक छोटा-मोटा महाजन है। गया करने और गहने बनावाने में उसकी रुचि नहीं। झुनिया को लेने अब वह गाँव जा रहा है। शराब की लत से मिर्ज़ा खुर्शेद की दुर्गति का दृश्य भी यहाँ देखने को मिलता है। वे शराब के लिए गोबर से दो रुपये उधार माँगने आते हैं।
बीसवें परिच्छेद में सर्वप्रथत होरी-परिवार मजूर के रूप में दिखाई देता है। मालिक दातादीन है। दातादीन मजूरों से रगड़कर काम लेते थे। आहत-अभिमान होरी उन्मत्त की भाँति काम करता है और थककर बेहोश हो जाता है। होश अपने के बाद जब वह घर चारपाई पर लिटा दिया जाता है, तभी गोबर गाँव में प्रवेश करता है। गोबर परिवार के सभी सदस्यों से मिलता है। ताज़ी स्थिति से परिचित होता है। दोनों चचाओं के घर राम-राम कर आने के बाद, मित्रों से मिलता है। झिगुरीसिंह और दातादीन को अपने बदले हुए तेवर दिखाकर भोला के घर पहुँचता है। भोला उसके सद्व्यहार और समृद्ध रूप से प्रभावित होता है और होरी की गोई उसे लौटा देता है। यह परिच्छेद परोक्ष रूप से धन के महत्त्व को उद्घोषित करता है। “जिसके पास पैसे हैं, वही बड़ा आदमी है, वही भला आदमी हैं” (झुनिया) “रुपये हो तो न हुक्का-पानी का काम है, न जात-बिरादरी का। दुनिया पैसे की है।” (गोबर) पैसे की ही बदौलत गोबर जंगी (भोला-पुत्र) के लिए ‘गोबरधन’ (गोवर्द्धन) बन जाता है।
इक्कीसवें परिच्छेद में होली के अवसर पर गोबर और उसके साथी नवयुवकों द्वारा गाँव के महाजनों की नक़ल का जो चित्रण है, वह मात्र हास्य के लिए नहीं है। इसमें महाजनों की खून चूसने की प्रक्रिया को मूर्त कर दिया गया है। बाद में दातादीन और नोखेराम के व्यवहार से महाजनी सभ्यता का नग्न रूप और प्रकट हुआ है। नये युग का प्रतीक गोबर उन्हें ललकारता है। अदालत की धमकी देता है। प्रेमचन्द ने इन परिच्छेद में किसानों द्वारा भारी ब्याज-दर पर लिए गए कर्ज़ चुकाने की समस्या को प्रमुखता दी है। धर्मभीरुता होरी को ऋण से मुक्त नहीं होने देती। मिथ्या धर्म धर्मभीरु किसानों का शोषण करता है। अज्ञानवश वे महाजनों की अनेक धाँधलियों के शिकार हो रहे हैं। परिच्छेद का शेष भाग संयुक्त परिवार की सूक्ष्मतम भावनाओं को छूता है। माँ-बेटे, सास-बहू, पिता-पुत्र, भाई-बहन आदि परिवार के समस्त रिश्तां को किस प्रकार परस्पर ठेस पहुँचाती है, दुर्भावना न होते हुए भी किस प्रकार परस्पर आरोप-आक्षेप, आलोचना-प्रत्यालोचना पारस्परिक सुख-शांति को, पारस्परिक माधुर्य को नष्ट कर देती है - इस सबको यह परिच्छेद साकार करता है। परिवर्तित स्थितियों में पुत्र का अचरण किस प्रकार माता-पिता में गलतफ़हमियों को जन्म देता है। (गोबर द्वारा सहज ही, बहन सोना के मात्र दो घूँसे जड़ देने के फलस्वरूप, होरी-धनिया पर हुई प्रतिक्रिया तथा पत्नी झुनिया को शहर साथ ले जाने के आग्रह पर धनिया की सास-भावना का जाग उठना) - यह दर्शाना भी उपन्यासकार को यहाँ अभीष्ट है। व्यक्तिगत स्वार्थ जब असंतुलित और कटु वार्तालाप में प्रकट होता है तो वह परिवार से अभिन्न संबंधों को भी तोड़ देता है। ताने-मेहने, गाली-गलौज और धुक्का-फ़ज़ीहत के बाद गोबर-झुनिया अपने पुत्र के साथ लखनऊ प्रस्थान करते हैं। गोबर धनिया को अपनी माता नहीं समझता। झुनिया द्वारा धनिया के चरण-स्पर्श करने के क्षण पर धनिया के मुँह से असीस का एक शब्द भी नहीं निकलता।
बाईसवाँ परिच्छेद आभिजात्य वर्ग की तथाकथित मित्रता पर प्रकाश डालता है - रायसाहब के प्रति तंखा और खन्ना के व्यवहार से। अभिजातवर्गीय समाज का खोखलापन भी इस परिच्छेद में द्रष्टव्य है। मेहता-मालती की महिला व्यायामशाला योजना भी इस वर्ग की छद्म प्रतिष्ठा को प्रकाशित करने में सहायक होती है। खन्ना जो प्रस्तावित ‘महिला-व्यायामशाला’ को व्यभिचारशाला’ कहता है मालती के सामने परास्त हो जाता है। रायसाहब यदि धन को प्रतिष्ठा का मूल समझते हैं तो खन्ना भोग-विलास को जीवन की सार्थकता। अभिजातवर्ग की दुर्बलताएँ, उसके रंग-ढंग, उसकी आशा-आकांक्षाएँ, उसके तौर-तरीक़े आदि इस परिच्छेद में देखने को मिलते हैं।
तेईसवाँ परिच्छेद प्रमुख रूप से सिलिया-मातादीन (मतई) से सम्बन्धित है। ऋण और ब्याज से सम्बन्धित महाजनोंस के हौसले भी हैं, जो ग्रामीणों को कभी पनपने देना नहीं चाहते। वे अनुभव से जानते हैं, ‘कानून और न्याय उसका है; जिसके पास पैसा है।’ प्रेमचन्द जजमानी-प्रथा के सख़्त विरोधी थे। धर्म को इसी प्रथा ने भ्रष्ट कर रखा है। धर्माडम्बर धारण और कर्मकाण्ड का पलन करने वाले ब्राह्मणों के प्रतीक दातादीन-मातादीन (पिता-पुत्र) हैं। जन्म से वे ब्राह्मण हैं; कर्म से नीच। मातादीन का चरित्र और आचरण तो चमारों से भी गये गुज़रा है। सिलिया चमारिन उसके समक्ष बहुत ऊँची है। जब तक धर्म के नाम पर पुरोहितों को भीख (दान-दक्षिणा) मिलती रहेगी, तब तक देश का उद्धार नहीं हो सकता। प्रेमचन्द ने चमारों द्वारा भतईं की दुर्गति करवाके यह बात दिया है कि ऐसे धर्मध्वजियों-पाखण्डियों के साथ जनता को कैसा सलूक करना चाहिए। भतई का जनेऊ तोड़ डालना, उसके मुँह में हड्डी का टुकड़ा डाल देना, या तो चमारों को ब्राह्मण बनाओ नहीं तो भतई को चमार बना के छोड़ने की धमकी आदि घटनाएँ छुआछूत के चिह्न को मिटाने के उपक्रम हैं। अछूत-समस्या हमारे देश की आज भी एक ज्वलंत समस्या है। पुरोहितों का वर्ग आर्थिक कारणों से आज भी जीवित है। जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार उन्हीं के सहयोग से सम्पन्न होते हैं। इस आर्थिक लाभ को यह वर्ग छोड़ना नहीं चाहता। इस वर्ग ने अपनी सुरक्षा के सभी प्रबन्ध कर रखे हैं, जिनमें ‘परासचित’ का विधान बेजोड़ है। प्रेमचन्द ने इस परिच्छेद में यह बहुत स्पष्ट कर दिया है कि जब तक पुरोहित वर्ग के धार्मिक ढोंग का पर्दाफाश नहीं होता, जब तक इस ‘भिखमंगे वर्ग’ को मिटा नही दिया जाता, तब तक धर्म के नाम पर धर्मभीरु जनता का शोषण होता रहेगा।
चौबीसवें परिच्छेद में होरी-पुत्र सोना-विवाह का प्रसंग है। सोना सत्रहवें साल में है, पर होरी का हाथ खाली है। अधिक वर्षा और दीमक के कारण सन और ज्वार की फसल नष्ट हो गयी है। कर्ज़ लेने अथवा खेत गिरवी रखने की नौबत है। झुनिया के कारण कुलीन वर मिलने में कठिनाई है। कन्या-ऋण से मुक्त होने के लिए होरी कुश-कन्या देना अपनी कुल-मर्यादा के विरुद्ध समझता है। निदान, वह बड़ी चतुराई से सहुआइन से दो-सौ रुपये कर्ज़ का बन्दोबस्त करता है। सोना का विवाह सोनारी के एक धनी किसान गौरी महतो के लड़के (मथुरा) से तय हुआ। सोना नहीं चाहती कि उसके विवाह के लिए कर्ज़ लिया जाए। वह सोनारी वालों से कह देना चाहती है – “अगर तुमने एक पैसा भी दहेज़ लिया, तो मैं तुमसे ब्याह नहीं करूंगी।’’ अथवा ‘‘क्या गोमती यहाँ से बहुत दूर है ? डूब मरूंगी।” इस काम के लिए वह सिलिया को सोनारी भेजती है। मथुरा सोना का समर्थन करता है। बड़ी हुज्जत के बाद उसका पिता गौरी महतो दहेज़ की अपेक्षा नहीं करता और इस सम्बन्ध में होरी को, नाई के हाथ, पत्र भी भेज देता है। पर, धनिया ‘कुल-मरजाद’ का निबाह करना चाहती है। उससे जो कुछ हो सकेगा, देगी। इस प्रकार, यह परिच्छेद दहेज़-प्रथा समाप्त करने के लिए सोना जैसी नवयुवती और मथुरा जैसे नवयुवक का निर्माण करता है। ‘कुल-मरजाद’ की निस्सारता पर परोक्ष रूप से प्रकाश डालता है। सन् ’36 के आसपास सोना और मथुरा का अस्तित्व प्रेमचन्द की दूरदर्शिता का परिणाम है। ऐसे पात्रों का सर्जन करके वे दहेज़-प्रथा के उन्मूलन का सही और कारगर मार्ग सुझाते हैं। समाज को बदलने के लिए ऐसी नवयुवतियों और ऐसे नवयुवकों को सामने आना होगा।
पच्चीसवें परिच्छेद में भोला की दूसरी शादी एक जवान विधवा नोहरी से होती है। इसे अनमेल विवाह कहा जाएगा। भोला-परिवार में अलगौझा होता है - पिता-पुत्र में मारपीट होती है। भोला-नोहरी नोखेराम के यहाँ नौकरी करते और वहीं रहने लगते हैं। नोहरी-नोखेराम के अनुचित सम्बन्धों की आशंका सर्वत्र है। भोला भी अपने मुँह में कालिख़ लगी अनुभव करता है। उसे कोई सुख नहीं मिलता। पर, वह नोहरी को छोड़कर भी नहीं जा सकता। उसका पुत्र (कामता) क्षमा-याचना कर चुका है। पचास वर्ष से अधिक के एक खंखड विधुर की जवान विधवा से शादी करवाके प्रेमचन्द इस परिच्छेद में अनमेल विवाह की असफला सिद्ध करना चाहते हैं।
छब्बीसवें परिच्छेद में लाला पटेश्वरी और महाजन मँगरू साह की धूर्तता का दृश्य है। वे होरी की ऊख नीलाम करवा देते हैं। होरी का यह हाल देखकर अब सहुआइन सोना के विवाह-खर्च के लिए दो-सौ रुपये कर्ज़ देने को राज़ी नहीं। सहसा नोहरी होरी को उधार देती है। बिना सूद के और बिना लिखा-पढ़ी के वह दो-सौ रुपये कर्ज़ देने का वचन देती है।
सत्तईसवाँ परिच्छेद गोबर-झुनिया के जीवन के अनेक चरण समेटे हुए है। झुनिया के दूसरा बच्चा पैदा होने वाला है। उसका पहला बच्चा (लल्लू) मर जाता है। गोबर ने खोंचे से निराश हाकर शक्कर-मिल में नौकरी कर ली है। उसे शराब का चस्का भी पड़ गया है। झुनिया को गालियाँ देता और पीटता है। लकड़ी की दूकान चलानेवाली पड़ोस की एक औरत (चुहिया) प्रसव-काल में झुनिया की सहायक होती है। झुनिया के पुत्र होता है। उधर शक्कर-मिल में हंगामा होता है। बजट में शक्कर पर डयूटी लगने के कारण मिल-मालिकों को मजूरी घटाने का बहाना मिलता है। मिर्जा खुर्शेद, ‘बिजली’-सम्पादक पण्डित ओंकारनाथ आदि मज़दूरों से हड़ताल करवाते हैं। मिल-मालिक नई भर्ती करते हैं। इस पर दंगा हो जाता है। अनेक मज़दूर मारे जाते हैं। गोबर गम्भीर रूप से घायल हो जाता है। चुहिया, फिर गोबर-परिवार को सहायक होती है। झुनिया घास छीलकर कमाती है। गोबर धीरे-धीरे ठीक होने लगता है। वह झुनिया के प्रति अब उदार है। प्रायश्चित करना चाहता है। वस्तुतः यह परिच्छेद मज़दूर के अंतरंग जीवन का साक्षी है। मज़दूरों से कितना कड़ा काम लिया जाता है। थकान मिटाने के उद्देश्य से वे फिर, शराब पीना शुरू कर देते हैं। नेतागण हड़तालें करवाके अपनी नेतागिरी बरक़रार रखना चाहते हैं। उन्हें मज़दूरों के सुख-दुख से कोई सरोकार नहीं। मज़दूर-आन्दोलन के कारण ‘बिजली’ की प्रतियाँ खूब बिकती हैं। पर, फौजदारी के मौके पर बिजली-सम्पादक भाग खड़े होते हैं। यह परिच्छेद एक प्राकर से गाँव के किसान और नगर के मज़दूर के जीवन का अन्तर भी दर्शाता है। झुनिया इस अन्तर को अनुभव करती है। नगरों में न रहने को जगह है, न कोई पारस्परिक आत्मीयता। चुहिया का होना तो आकस्मिक है। यदि वह न होती तो गोबर-परिवार का नामो-निशां न रहता। गोबर के माध्यम से मजदूर-जीवन में प्रेमचन्द बड़ी गहराई से प्रवेश करते हैं। मज़दूर की दशा सुधारने के लिए यह परिच्छेद अनेक विचार-बिन्दु प्रदान करता है।
अट्ठाईसवाँ परिच्छेद शक्कर-मिल के मालिक मिस्टर चन्द्रप्रकाश खन्ना के जीवन-परिर्वतन का परिच्छेद है। उनकी धर्मपत्नी गोविंदी और प्रोफ़ेसर मेहता उन्हें नव-जीवन का आलोक प्रदान करते हैं। वे तबाह हो जाते हैं। प्रोफ़ेसर मेहता उन्हें समझाते हैं – “दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका सम्मान नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है।” गोविंदी के शब्दों में – “जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं।” आज भी अनेक ग़रीब मज़दूरों की दशा प्रोफ़ेसर मेहता द्वारा चित्रित स्थिति के अनुरूप है – “आपके मजूर बिलों में रहते हैं - गंदे बदबूदार बिलों में - जहाँ आप एक मिनट भी रह जाएँ तो अपको कै हो जाए। कपड़े जो पहनते हैं, उनसे आप अपने जूते भी न पोछेंगे। खाना जो वह खाते हैं, वह आपका कुत्ता भी न खाएगा। ऐसे मजूरों का वेतन घटाना क्या न्यायोचित है ? मज़दूरों की ओर यदि पूँजीपतियों ने ओैर सरकार ने ध्यान नहीं दिया तो मिलों के लोहे के गार्डर इसी प्रकार जलेंगे।” प्रेमचन्द की सारी सहानुभूति मज़दूरों के प्रति है।
उन्तीसवाँ परिच्छेद भोला-नोहरी प्रसंग से शुरू होता है – “एक दिन गाँव में यह ख़बर फैली कि नोहरी ने मार जूतों के भोला की चाँद गंजी कर दी।” इधर मातादीन में परिवर्तन आता है (“समाज के नाते आदमी का अगर कुछ धरम है, तो मनुष्य के नाते भी तो उसका कुछ धरम है।” - मातादीन)। वह सिलिया को दो रुपये देने होरी के पास आता है। सिलिया अब पुत्रवती है। मातादीन के व्यवहार से सिलिया बेहद प्रसन्न और तुष्ट है। प्रसन्नता के आवेश में वह रात में ही शुभ समाचार देने सोना के घर जाती है। वहाँ एकांत में मथुरा सिलिया को छेड़ना चाहता है, पर बाद में लज्जित होता है। सोना को कुछ सन्देह हो जाता है। वह सिलिया से तनिक भी प्रेम से नहीं मिलती। अन्त में सारी सच्चाई उगलवा लेती है। सिलिया विक्षिप्त-सी वापस लौटती है। मातादीन के परिवर्तित रूप से सिवा यह परिच्छेद कोई महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत नहीं करता। मथुरा-सिलिया प्रसंग जीवन की वास्तविकता का मात्र एक अंग है।
तीसवाँ परिच्छेद यद्यपि शक्कर-मिल के मज़दूरों की समस्या से शुरू होता है, पर प्रमुख रूप से वह मालती-मेहता के सम्बन्धों पर लिखा गया है। मालती-मेहता देहात-प्रेमवश बेलारी गाँव पहुँचते हैं। वहाँ होरी को पहचान लेते हैं। डा॰ मालती बच्चों को देखती है, दवा देती है और गाँव की स्त्रियों को सफ़ाई का महत्त्व समझाती है। ग्रामीणों को सूदखोर महाजनों के पंजों से बचाने के लिए प्रस्ताव रखती है कि सरकार उन्हें नाममात्र के ब्याज पर रुपये दे। रात में मेहता-मालती नौका-विहार करते हैं। यहाँ प्रेम और स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों पर उनकी विस्तार से और गहन चर्चा होती है। दोनों के दृष्टिकोण में अन्तर है। मेहता दार्शनिक होते हुए भी मानवोचित और स्थूल दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, जबकि मालती का दृष्टिकोण भावुकतापूर्ण और आदर्शवादी है। यद्यपि मालती की विलास-भावना प्रोफ़ेसर मेहता के प्रभाव में आने से ही दूर हुई है। मेहता के लिए प्रेम में बेवफ़ाई असहनीय है, जबकि मालती प्रेम को सन्देह से ऊपर समझती है। वह देह की वस्तु नहीं, आत्मा की वस्तु है। मेहता श्रद्धा और सेवा को प्रेम का पर्याय नही मानते। प्रेम का यह सारा सैद्धान्तिक विवेचन पर्याप्त जटिल और उलझा हुआ है।
इकतीसवाँ परिच्छेद रायसाहब की पारिवारिक समस्याओं से सम्बद्ध है। वस्तुतः उनकी समस्या जितनी निजी है, उतनी ही सार्वजनिक। आधुनिक युग में शिक्षित पुत्र अथवा पुत्र के विवाह का प्रश्न कभी-कभी नई और परम्परागत विचारधाराओं का संघर्ष बन जाता है। रायसाहब की कन्या की शादी धूमधाम से हो जाती है। मुक़दमा वे जीत जाते हैं। निर्वाचन में सफल हो जाते हैं। ‘राजा’ की पदवी उन्हें मिलती है। पर, इतनी सफलताओं के बाद अब उनके मानसिक क्लेश का समय शुरू होता है। पुत्र इन्द्रपाल सिंह उनकी इच्छानुसार सूर्यप्रताप सिंह की सुपुत्र से विवाह करने से इंकार कर देता है और मालती की बहन सरोज से विवाह कर इंग्लैंड चला जाता है। प्रोफ़ेसर मेहता रुद्रपाल-सरोज विवाह का समर्थन करते हैं। तदुपरांत उनकी लड़की (मीनाक्षी) और दामाद (दिग्विजयसिंह) का सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। दामाद ऐयाश और शराबी है। मीनाक्षी जो पहले हिन्दू बालिकाओं की तरह बेजबान थी, पति से गुज़ारे की डिग्री पाने के बाद हंटर लेकर उसके बँगले पर पहुँचती है, जहाँ शोहदे जमा थे और वेश्या का नाच हो रहा था। वहाँ पहुँचकर कुँवर साहब समेत सब शोहदों के हंटर लगाती है। वेश्या उसके पैरों पर गिर पड़ती है। दिग्विजयसिंह और मीनाक्षी दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे बन गए। रायसाहब सब तरफ़ से निराश होकर उपासना और भक्ति की ओर झुके। पर उन्हें शांति नहीं मिली। मोह-मुक्त वे न हो सके। अस्वस्थ भी रहने लगे। इस परिच्छेद में मिस्टर तंखा जैसे स्वार्थी, धूर्त और चाटुकार की खूब कलई खोली जाती है। दुष्ट तंखा रुद्रपाल का सलाहकार और पैरोकार बनकर रायसाहब पर हिसाबफहमी का दावा करता है। इस प्रकार रायसाहब के जीवन को विस्तार से चित्रित करके यह बताया गया है कि मात्र धन और यश से मनुष्य की आत्मा को शांति नहीं मिल सकती। मीनाक्षी और रुद्रपाल के विवाह-प्रसंग वैवाहिक समस्या के अनेक पहलुओं को सामने रखते हैं।
बत्तीसवें परिच्छेद में मिर्ज़ा खुर्शेद वेश्याओं की नाटक-मण्डली बनाते नजर आते हैं। ‘गोदान’ में वेश्या-समस्या के लिए कोई स्थान न हाने पर भी प्रेमचन्द इस प्रकार उसे समाविष्ट कर बैठे हैं। इस परिच्छेद में वर्णित सामग्री यदि इस उपन्यास में न होती तो भी उपन्यास की कथा अथवा रचना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पर, प्रेमचन्द का विभिन्न समस्याओं प्रति जो रुझान है, वह किसी-न-किसी रूप में उभर ही आता है। इस परिच्छेद में मिर्ज़ा खुर्शेद और प्रोफ़ेसर मेहता वेश्या-जीवन और उसकी मूल समस्या पर बहस करते दिखाई देते हैं। प्रसंग चाहे मूल कृति से कितना ही असम्बद्ध हो, प्रेमचन्द को इसकी चिन्ता नहीं। मिर्ज़ा साहब के द्वारा वे कहलाते हैं - ‘‘रूप के बाज़ार में वे ही स्त्रियाँ आती हैं, जिन्हें या तो अपने घर में किसी कारण से सम्मानपूर्ण आश्रय नहीं मिलता, या जो आर्थिक कष्टों से मजबूर हो जाती हैं और अगर यह दोनों प्रश्न हल कर दिए जाएँ, तो बहुत कम औरतें इस भाँति पतित हों।’’ मानों वेश्या समस्या का हल उन्होंने खोज लिया है। वेश्याओं की नाटक-मण्डली की निरर्थकता सिद्ध करते हुए प्रोफ़ेसर मेहता कहते हैं – “जड़ पर जब तक कुल्हाड़े न चलेंगे, पत्तियाँ तोड़ने से कोई नतीज़ा नहीं।”
तैतीसवाँ परिच्छेद डा. मेहता और मालती के सम्बन्धों को निश्चित करता है। मेहता अब मालती के बँगले में रहने लगे हैं। अनके खर्च पर मालती का नियंत्रण है। गोबर माली बनकर मालती के यहाँ सपरिवार रहने लगा है। उसके पुत्र मंगल के चेचक निकलती है। दो सप्ताह में मंगल अच्छा हो जाता है। मालती की सेवा-सुश्रूषा देखकर मेहता उसके और निकट आते हैं और उससे अभिन्न हो जाना चाहते हैं। पर, मालती का निश्चय है, “मित्र बन कर रहना स्त्री-पुरुष बनकर रहने से कहीं सुखकर है।” अन्त में मेहता मालती के चरण दोनों हाथों से पकड़कर उसका आदेश स्वीकारते हैं। दोनों एक मन होकर प्रगाढ़ अलिंगन में बँध जाते हैं। मेहता-मालती के यह मित्र-सम्बन्ध न तो वैयक्तिक समस्या का निदान हैं, और न ही स्त्री-पुरुष के सह-जीवन का कोई व्यावहारिक आदर्श। यहाँ बँगले (मालती) और झोंपड़ी (गोबर) में भी कोई संघर्ष नहीं, वरन् मानवता का सर्वोत्तम उपलब्ध है।
चौतीसवाँ परिच्छेद सिलिया-मातादीन को एक कर देता है। सिलिया का दो वर्ष का बालक (रामू) निमोनिया से मर जाता है। कई सौ रुपये खर्च करने के बाद मातादीन काशी के पण्डित की कृपा से पुनः ब्रह्मण बन चुका है। उसे शुद्ध गोबर और गोमूत्र पीना पड़ा। पर, इस प्रायश्चित-विधान से उसने धर्म-स्तम्भों को अच्छी तरह परख लिया। उसकी मानवता निखर गई। उसने जनेऊँ उतार फेंका और पुरोहिती को गंगा में डुबो दिया। सिलिया को सदा के लिए अपनाकर और उसके साथ अपना घर बसाकर कहता है – “मैं ब्राह्मण नहीं, चमार ही रहना चाहता हूँ। जो अपना धरम पाले, वही ब्राह्मण है ; जो धर्म से मुँह मोड़े वही चमार है।” यहाँ भी मानवता का सर्वोत्तम उपलब्ध है। जाति-वर्ग की दीवारें गिर जाती हैं। अनेक धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक बन्धन टूट जाते हैं। नये समाज की मज़बूत नींव पर सिलिया-मातादीन का जीवन-सदन खड़ा होता है। दूषित परम्पराएँ, गलित रूढ़ियाँ और शोषण की प्रतीक सभी व्यवस्थाएँ भंग हो जाती हैं।
पैंतीसवाँ परिच्छेद होरी के जीवन की सबसे गहरी चोट है। तीन साल से लगान बाकी पड़ा हुआ था। पण्डित नोखेराम ने उस पर बेदखली का दावा कर दिया है। उसकी तीन बीघे जमीन हाथ से निकलने वाली है। तभी दातादीन चालीस वर्षीय रामसेवक महतो (होरी से दो ही चार साल छोटा) से रूपा के विवाह का प्रस्ताव लेकर आता है। होरी प्रस्ताव स्वीकार करने को विवश है। रामसेवक द्वारा प्रेषित दातादीन से दो सौ रुपये काँपते हाथों से ग्रहण करता है और तीस साल तक जीवन से लड़ते रहने के बाद आज अपने को बिलकुल परास्त अनुभव करता है। गोबर भी सपरिवार विवाह में सम्मिलित होने आता है। वह अपने पिछले दुर्व्यवहार का प्रायश्चित्त करना चाहता है। रामसेवक के मुख से किसानों और गाँवों की दयनीय स्थिति का विस्तार से वर्णन भी प्रेमचन्द इस परिच्छेद में करवाते हैं। रामसेवक का उद्देश्य भले ही धनिया-होरी को प्रभावित करना रहा हो, प्रेमचन्द का उद्देश्य तो निश्चय ही दोहरा है। सारे गाँव में “ऐसा एक आदमी भी नहीं, जिसकी रोनी सूरत न हो।”...चलते-फिरते थे, काम करते थे, पिसते थे, घुटते थे, इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तक़दीर में लिखा था। जीवन में न कोई आशा है, न कोई उमंग।
छत्तीसवें परिच्छेद में, ‘गोदान’ ही समाप्त नहीं होता, होरी की जीवन-लीला भी समाप्त होती है। सर्वप्रथम रूपा के विवाह में मालती के आने और रूपा के ससुराल में सुखी और संतुष्ट रहने की सूचना मिलती है। गोबर अकेला लखनऊ चला जाता है। होरी आठ आने रोज़ पर कंकड की खुदाई पर लग जाता है। उसकी अभिलाषा है – “अगर यह काम दो महीने भी टिक गया तो गाय-भर के रुपये मिल जाएंगे।” रात में वह और धनिया सुतली कातते हैं। उधर अचानक सुबह हीरा आ जाता है। पाँच साल पागलखाने में रहने के बाद। हीरा होरी के क़दमों में गिर पड़ता है। होरी अपार प्रसन्नता का अनुभव करता है। पर, उस रोज़ मज़दूरी करते होरी को लू लग जाती है। कै होती है और हाथ-पैर ठंडे होने लगते हैं। धनिया, हीरा और सोभा खटोले की डोली में होरी को घर लाते हैं। होरी की मृत्यु का बड़ा करुण चित्र प्रेमचन्द अंकित करते हैं। गाय की लालसा उसके मन में ही रह जाती है। अन्तिम समय में गोदान की आवाजें आती हैं। “धनिया यंत्र की भाँति उठी, आज जो सुतली बेची थी, उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर दातादीन से बोली - ‘‘महाराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है। और पछाड़ खाकर गिर पड़ी।” ‘गोदान’ का अन्त ग्रामीण परिवेश में ही होता है। होरी के माध्यम से ‘गोदान’ भारतीय कृषक की जीवनगाथा है विस्तृत फलक होते हुए भी ‘गोदान’ ग्रामीण जीवन और ग्रामीण जनता के अभावों, संघर्षां, दुःख-दर्दों, चिन्ताओं और अभिलाषाओं का ‘महाकाव्य’ है।
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औपन्यासिक रचना-तन्त्र और प्रेमचंद
उपन्यास का उद्गम-स्थान अति प्राचीन काल से चली आयी हुई कथा-कहानियाँ हैं। मनुष्य में यह एक आदिम प्रवृत्ति रही है कि वह सत्य अथवा काल्पनिक कथाओं को सुनने अथवा सुनाने में मनोरंजन अनुभव करता है। ये कथा-कहानियाँ उसकी कुतूहल वृत्ति को शान्त करती हैं। कहना न होगा कि कथा-कहानियों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि स्वयं मनुष्य-समुदाय। जैसे-जैसे मनुष्य की सामाजिक अवस्था में विकास होता गया, वैसे-वैसे इन कथा-कहानियों के प्रस्तुतीकरण के ढंग में भी परिवर्तन होते गये। कुतूहल-वृत्ति की मात्रा आदिम मनुष्य में अधिक थी और फिर धीरे-धीरे वह कम होती गयी। आज का मनुष्य उन ‘दैविक’अथवा प्रकृति सम्बन्धी बातों से स्तम्भित नहीं होता जो किसी दिन आदिम मनुष्य को कौतूहल में डाल देती थी। कहने का अभिप्राय यह है कि वर्तमान युग में, बौद्धिकता ने, मनुष्य की कुतूहल-वृत्ति को कम कर दिया है; अतः आज वे ही कथा-कहानियाँ समाज में प्रचलित हो सकती हैं; जिनके पीछे बौद्धिक धरातल है। उपन्यास, वर्तमान में मनुष्य की इसी बौद्धिक क्षुधा को तृप्त करता है। वह मनुष्य के विकास के साथ-साथ विकसित होने वाली कथा-कहानी की परम्परा का एक सुगठित रूप है। उपन्यास के शरीर-विज्ञान पर विचार व्यक्त करते हुए डा॰ गुलाबराय लिखते हैं:
‘‘उपन्यास में कौतूहल के साथ-साथ बुद्धि-तत्व और भाव-तत्व भी रहता है। उसमें जीवन की ही प्रतिच्छाया नहीं रहती, वरन् उसकी व्याख्या भी रहती है।”1
अति प्राचीन-काल से चली आयी हुई कथा-कहानियों का उपन्यास से सम्बन्ध केवल कथानक के मौलिक रूप (Raw state) से है; उपन्यास के रचनातंत्र (Technique) अथवा उपन्यास के वस्तु-विन्यास से नहीं। रचनातन्त्र के दृष्टिकोण से उपन्यास का प्राचीन-कथा और आख्यायिकाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। उपन्यास साहित्य के अन्य रूपों की तरह नवीन युग की देन है। उपन्यास शब्द संस्कृत का है। (उप = निकट, न्यास = रखना) लेकिन संस्कृत वाङ्मय में उपन्यास शब्द वर्तमान अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ, और न आज के युग में उपन्यास कहलाने वाली रचना का ही कोई रूप संस्कृत में मिलता है।
प्रेमचन्द आधुनिक कहानी की उत्पत्ति के सम्बन्धों में लिखते समय यही बात
कहते हैं:
“हमें यह स्वीकार कर लेने में संकोच न होना चाहिए कि उपन्यासों की ही तरह आख्यायिका की कला भी हमने पश्चिम से ली है, कम-से-कम इसका आज का विकसित रूप तो पश्चिम का है ही।”2
उपन्यास मानव-जीवन के कथात्मक-चित्रण का नाम है। मनुष्य में मानव रागों अथवा मनोवेगों के प्रति एक स्वाभाविक रुचि होती है। जब तक उसमें मानवी जीवन के प्रति यह रुचि बनी रहेगी तब तक उपन्यास की सत्ता अमिट है। विलियम हेनरी हडसन कहते हैं:
‘मनुष्य और मानवी भावों और क्रियाओं की विशाल चित्रावली में स्त्रियों और पुरुषों की सार्वकालिक और सार्वदेशिक रुचि ही उपन्यास के अस्तित्व का कारण है।”3
उपन्यास सम्पूर्ण जीवन का चित्र है। इसका विस्तार जीवन की तरह ही बड़ा व्यापक है। उपन्यासकार जीवन को एक विशाल पृष्ठभूमि में दिखलाने की चेष्टा करता है। जे. बी. प्रीस्टले के मत सेः
‘‘यह (उपन्यास) जीवन का विशाल दर्पण है और इसका विस्तार साहित्य के किसी भी रूप से बहुत बड़ा है।”4
प्रेमचन्द उपन्यास के इसी विषय-विस्तार के सम्बन्ध में ‘उपन्यास का विषय’ शीर्षक लेख में एक स्थल पर लिखते है:
‘‘अगर आपको इतिहास से प्रेम है तो आप अपने उपन्यास में गहरे से गहरे ऐतिहासिक तत्वों का निरूपण कर सकते है। अगर आपको दर्शन से रुचि है, तो आप उपन्यास में महान् दार्शनिक तत्वों का विवेचन कर सकते हैं। अगर आप में कवित्व-शक्ति है तो उपन्यास में उसके लिए भी काफ़ी गुंजाइश है। समाज, नीति, विज्ञान, पुरातत्व आदि सभी विषयों के लिए उपन्यास में स्थान है।”5
यही कारण है कि उपन्यासों का महत्व दिन-पर-दिन बढ़ता जाता है। आधुनिक जटिल संसार की अभिव्यक्ति उपन्यास में ही अधिक सुगमता से सम्भव है।
औपन्यासिक रचनातंत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित तत्वों का समावेश किया जाता है:
1. वस्तु और वस्तु-विन्यास।
2. पात्र और चरित्र-चित्रण।
3. संवाद
4. देशकाल
5. भाषा-शैली
6. दृष्टिकोण।
उपर्युक्त तत्व लगभग प्रत्येक उपन्यास में मिलेगें। यह अवश्य है कि किसी-किसी उपन्यास में कोई तत्व प्रधान होता है तो किसी-किसी में अन्य। इन तत्वों की पृथक-पृथक प्रधानता या अप्रधानता के अनुसार ही उपन्यास के प्रकारों का विभाजन किया जाता है। लेकिन उपन्यास के शरीर की गठन के लिए उपरिलिखित तत्वों का समावेश आवश्यक होता है जो जाने-अनजाने उपन्यास में स्थान पा ही लेते हैं। संक्षेप में इन तत्वों की व्याख्या इस प्रकार है।
वस्तु और वस्तु-विन्यास
उपन्यास में कथावस्तु एक आवश्यक तत्व है। वस्तु से अभिप्राय उन उपादानों (raw materials) से है, जिन पर उपन्यास का ढाँचा खड़ा किया जाता है। कुछ विचारक वस्तु को वस्तु-विन्यास से अधिक महत्व देते हैं। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का मत हैः
‘‘कोई भी वस्तु सबसे पहले अपने उपादानों से ही जाँची जानी चाहिए। यदि वह जिन उपादानों से बनी है वे उपादान अच्छी जाति के hहैं तो वस्तु अपनी रचना-सौन्दर्य के बिना भी काम की है।”6
लेकिन उपादानों का ही सुन्दर होना सब कुछ नहीं है; उपादानों के प्रस्तुत करने की कला भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं। कभी-कभी असुन्दर उपादानों को इतने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया जाता है कि उनकी कुरूपता दब जाती है। अतः वस्तु-विन्यास एक कला है जो कुशल कलाकार की अपेक्षा रखती है। उपर्युक्त उल्लेख का उद्देश्य अच्छे उपादानों के महत्व को कम करना नहीं है। निःसन्देह प्राथमिकता उपादानों को ही देनी चाहिए। कला और उपादान के सम्बन्ध में आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी अपने ‘उपन्यास’ शीर्षक लेख में आगे लिखते हैं।
‘‘कला हो यो न हो, उपादान अगर अच्छा है तो हम कुछ-न-कुछ पा जाते हैं। अच्छे उपादान के साथ अच्छी कला हो तब तो कुछ पूछना ही नहीं चाहते हैं।”7
औपन्यासिक वस्तु का संघटन विभिन्न घटनाओं के क्रमिक विकास पर आधारित है। मुख्य बात सामग्री चुनने की आती है। उपन्यासकार समग्र जीवन की घटनाओं का वर्णन नहीं कर सकता। उसे सम्पूर्ण जीवन में से केवल कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का ही संग्रह करना होगा, अन्यथा उसकी रचना बड़ी विस्तृत व बोझिल हो जाएगी। जीवन में सभी आकर्षक नहीं है। इसके अतिरिक्त मनुष्य का जीवन बड़ा अल्पायु है। उपन्यासकार पूरे जीवन-चरित्र को समेट कर न तो लिखने का अवकाश ही पा सकता है और न उसको पढ़ने की पाठक से अपेक्षा ही की जा सकती है। विषय-सामग्री के चुनाव के सम्बन्ध में डा॰ गुलाबराय लिखते हैं:
‘‘नहीं तो बारह वर्ष की व्यापक कथावस्तु के पढ़ने में बाहर ही वर्ष लगे। उसमें अनावश्यक-आवश्यक की छाँट-फटक करनी पड़ती है। उपन्यास के कथानक में तो फल की ओर अग्रसर होने वाली या पाठकों के हृदय में विशेष रुचि उतपन्न करने वाली विशेष-विशेष घटनाएँ ही आती हैं। वे चाहे परस्पर सम्बद्ध न भी हो, किन्तु उनके लिए परस्पर संगत होना अत्यन्त आवश्यक है।”8
अतः उपन्यासकार के लिए यह आवश्यक है कि वह जीवन की केवल उन्हीं अनुभूतियों का संचय करे जो उसके मन्तव्य के लिए सहायक हों और अन्य बातों को छोड़ दे, तभी वह पाठकों के मन को अपनी कृति की ओर आकर्षित कर सकेगा।
समय का बन्धन और आकर्षक घटनाओं के चुनाव के अतिरिक्त प्रेमचन्द ने इस सम्बन्ध में पाठक की कल्पना को भी बड़ा महत्व दिया है। अपने ‘उपन्यास’शीर्षक लेख में उनके विचार इस प्रकार हैः
‘‘उपन्यास-कला में यह बात भी बड़े महत्व की है कि लेखक क्या लिखे और क्या छोड़ दे। पाठक कल्पनाशील होता है, इसलिए वह ऐसी बाते पढ़ना पसन्द नहीं करता जिनकी वह आसानी से कल्पना कर सकता है। वह यह नहीं चाहता कि लेखक सब कुछ ख़ुद कह डाले और पाठक की कल्पना के लिए कुछ भी बाक़ी न छोड़े। वह कहानी का खाका मात्र चाहता है, रंग वह अपनी अभिरुचि के अनुसार भर लेता है। कुशल लेखक वही है जो यह अनुमान कर ले कि कौन-सी बात पाठक स्वयं सोच लेगा और कौन-सी बात उसे लिखकर स्पष्ट कर देनी चाहिए। कहानी या उपन्यास में पाठक की कल्पना के लिए जितनी अधिक सामग्री हो उतनी ही वह कहानी रोचक होगी।”9
उपन्यासकार अपने उपन्यास की कथा एक निश्चित योजनानुसार लिखता है। उसकी कथा जीवन से सम्बन्धित रहती है। जीवन से सम्बन्ध रखने के कारण कुछ आलोचक कथा की इस पूर्व योजना को उचित नहीं समझते, क्योंकि जीवन किसी बँधी हुई योजना के अनुसार आगे नहीं बढ़ता। इसी कारण अत्याधुनिक अतियथार्थ वादी उपन्यासों में कथावस्तु का महत्व काफ़ी कम हो गया है। कार्ल एच, ग्रेबो कथावस्तु के महत्व के घट जाने के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए लिखते हैं:
‘‘अनेक कारणों से आधुनिक उपन्यास ने कथावस्तु के महत्व को कम कर दिया है। एक ओर तो वह यथार्थ की ओर अग्रसर होता है और कथानक के विस्तार को अनुभव के प्रतिकूल समझता है तो दूसरी ओर चरित्र अथवा स्वभाव पर बल देकर और व्यक्तित्व एवं वैयक्तिक विशेषताओं पर विश्वास रखकर उसने वस्तु रचना के कष्टदायी व्यापार को दूर कर दिया है।”10
जो हो, इसमें सन्देह नहीं कि वस्तु उपन्यास के शरीर-निर्माण में महत्वपूर्ण कार्य करती है। जीवन की विच्छृंखलता बढ़ जाने के कारण वस्तु की एक निश्चित योजना में अन्तर आ सकता है, पर उसकी सत्ता को हटाया नहीं जा सकता।
कथावस्तु का वास्तविक जीवन से सम्बन्ध होना अनिवार्य है। उसमें कृत्रिमता नहीं होनी चाहिए। कथा की घटनाएँ एवं उसका विकास इस प्रकार हो कि पढ़ने वाले को अयथार्थ प्रतीत न हो, अन्यथा उपन्यास का लक्ष्य भ्रष्ट हो जाएगा। हडसन के शब्दों में:
‘‘उसे (कथावस्तु को) स्वाभाविक रीति से विकसित होना चाहिए, और वह प्रत्येक कृत्रिमता से मुक्त हो। उसे विकसित करने के साधन इतने विश्वसनीय हों कि हम उन्हें उन परिस्थितियों में मन से स्वीकार कर सकें।”11
लेकिन यह सब होते हुए भी उपन्यास की कथा नितान्त वास्तविक भी नहीं हो सकती। उपन्यासकार बहुत-सी बातें अपनी ओर से भी जोड़ता है, और उसे जोड़नी चाहिए, पर वे इस प्रकार हो कि समझदार पाठक को अस्वाभाविक न लगें। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो उपन्यास जीवन-चरित्र (BiographBiography) बन जायेगा। उपन्यास में कल्पना और सत्य का एक संतुलित सामंजस्य होना चाहिए। यह निर्विवाद है कि उपन्यास सत्य के अधिक निकट हो और कल्पना भी ऐसी हो कि पाठक उसकी वास्तविकता में ज़रा भी संदेह न कर सके। प्रेमचन्द औपन्यासिक वस्तु में कल्पना और सत्य के समावेश के सम्बन्ध में लिखते हैं:
‘‘इसका आशय है कि भविष्य में उपन्यास में कल्पना कम, सत्य अधिक होगा। हमारे चरित्र कल्पित न होंगे, बल्कि व्यक्तियों के जीवन पर आधारित होंगे। किसी हद तक तो अब भी ऐसा होता है पर बहुधा हम परिस्थितियों का ऐसा क्रम बाँधते हैं कि अन्त स्वाभाविक होने पर भी वह होता है जो हम चाहते हैं। हम स्वाभाविकता का स्वाँग जितनी खूबसूरती से भर सकें, उतने ही सफल होते हैं।”12
प्रेमचन्द इसके आगे औपन्यासिक वस्तु के भविष्य के सम्बन्ध में लिखते हैं:
‘‘लेकिन भविष्य में पाठक इस स्वाँग से सन्तुष्ट न होगा। यो कहना चाहिए कि भावी उपन्यास जीवन-चरित्र होगा, चाहे किसी बड़े आदमी का या छोटे आदमी का। उसकी छोटाई-बड़ाई का फ़ैसला उन कठिनाइयों से किया जाएगा जिन पर उसने विजय पायी है। हाँ, वह चरित्र इस ढंग से लिखा जाएगा कि उपन्यास मालूम हो।”13
जीवन-चरित्रात्मक उपन्यास लिखे जा सकते हैं, पर उस दशा में उनका क्षेत्र सीमित हो जाएगा, जैसा प्रेमचन्द स्वयं कहते हैं:
‘‘तब यह काम उससे कठिन होगा जितना अब है, क्योंकि ऐसे बहुत कम लोग हैं जिन्हें बहुत से मनुष्यों को भीतर से जानने का गौरव प्राप्त है।”14
ग्रेबो औपन्यासिक वस्तु में जीवन का चित्रण स्वाभाविक अथवा वास्तविक और प्रतीकात्मक रूप के समानान्तर करते हैं:
‘‘उपन्यासों में जो जीवन चित्रित होता है वह चाहे कितने भी महत्व का हो, कभी भी ज्यों-का-त्यों घटना, चरित्र एवं भाषण का लिपिबद्ध प्रतिरूप नहीं हो सकता। उसमें वास्तविकता से बहुत कुछ निकट की समानता मिलती है, यद्यपि विभेद की मात्रा भी स्पष्टतया अधिक होती है। प्रत्येक उपन्यास जीवन का शाब्दिक चित्र न होकर उसका प्रतीक होता है और उपन्यास का क्षेत्र एक ओर परियों की कथा, रोमांचकारी कहानियों अथवा दृष्टांत रूपकों से लेकर दूसरी ओर अत्यधिक नीरस यथार्थ चित्रण तक फैला हुआ है।”15
वस्तु की शरीर-रचना में इस बात पर भी पर्याप्त ध्यान रखा जाय कि उसमें दैनिक एवं असाधारण व्यापारों का अनावश्यक अथवा अनुपयुक्त स्थलों पर समावेश न हो। यह माना कि जीवन में अनेक घटनाएँ आकस्मिक रूप से घटित होती हैं, किन्तु मुख्य प्रश्न यह नहीं है कि आकस्मिक घटनाएँ उपन्यास में आये ही नहीं, वरन् यह कि अमुक आकस्मिक घटना का समावेश जिस स्थल पर किया गया है; वहाँ कथा को इच्छानुसार मोड़ने का इरादा तो नहीं है। आकस्मिक मृत्यु, स्वप्न, भविष्यवाणी आदि का उपन्यास की वस्तु में समावेश एक दक्ष लेखक की अपेक्षा रखता है। उपन्यास में इस तरह के व्यापारों को कम-से-कम आना चाहिए। श्रेष्ठतम उपन्यासों में भी कहीं-कहीं आकस्मिक घटनाएँ मिलती हैं, पर उनको इस सुन्दर ढंग से रखा जाता है कि कट्टर-से-कट्टर बुद्धिवादी तक उन्हें अस्वाभाविक नहीं समझता, क्योंकि वे जीवन के अधिक निकट होती हैं। हम उन्हें चारों ओर और कभी-कभी तो स्वयं अपने जीवन में भी अनुभव करते हैं। हाँ, असाधारण व्यापारों को उपन्यास में कोई स्थान नहीं दिया जा सकता। इस सम्बन्ध में अलफ्रेड ने बड़ी अच्छी बात कहीं हैः
‘‘एक बार कुछ प्रारम्भिक बातें मान लेने पर आगे जो कुछ घटित हो वह इस प्रकार हो कि समझदार पाठक की बुद्धि की सम्भावना के प्रतिकूल न पड़े। स्पष्ट रूप से ऐसे मामलों में सत्य; कथा से विचित्र होता है। जीवन दुर्घटनाओं और आश्चर्यजनक व्यापारों से भरा हुआ है; जिसका उपन्यासों में समावेश करने पर सत्य के आकांक्षी हठी पाठकों की ओर से विरोध का तूफ़ान खड़ा हो जाता है। अच्छे उपन्यास काव्योचित सत्य या उच्चतर सम्भावनाओं की दुनिया में विचरते हैं, जो एक सुव्यवस्थित प्रदेश है जहाँ घटनाओं का आभास उनके होने से पहले ही हो जाता है, जहाँ स्त्री और पुरुष -जैसी उनसे अपेक्षा की जाती है- उसी प्रकार क्रिया-कलाप करते हैं और फिर भी उनमें भाग्य सम्बन्धी, असाधारण और अतिशय का स्वागत किया जाता है, जहाँ तक वह पूर्ण स्वीकृत कार्यक्रम के अनुसार होते है।”16
उपन्यास की कथा का रोचक होना भी ज़रूरी हैं। यदि कथा रोचक नहीं हुई तो पाठक का मन उसमें रम नहीं सकता। सामाजिक के मन पर उपन्यास के उद्देश्य का प्रभाव कथा के द्वारा ही सबसे अधिक पड़ता है। यदि उसमें रोचकता नहीं होगी तो लेखक का प्रयत्न असफल सिद्ध होगा। प्रेमचन्द इसी रोचकता के सम्बन्ध में एक स्थल पर लिखते हैं:
‘‘उपन्यासकार को इसका अधिकार है कि वह अपनी कथा को घटना-वैचित्र्य से रोचक बनाये, लेकिन शर्त यह है कि प्रत्येक घटना असली ढाँचे से निकट सम्बन्ध रखती हो। इतना ही नहीं, बल्कि उसमें इस तरह घुल-मिल गयी हो कि कथा का आवश्यक अंग बन जाए, अन्यथा उपन्यास की दशा उस घर की-सी हो जाएगी जिसके हर एक हिस्से अलग-अलग हो। जब लेखक अपने मुख्य विषय से हटकर किसी दूसरे प्रश्न पर बहस करने लगता है, तो वह पाठक के उस आनन्द में बाधक हो जाता है जो उसे कथा में आ रहा था। उपन्यास में वही घटनाएँ, वही विचार लाने चाहिए जिनसे कथा का माधुर्य बढ़ जाय, जो प्लाट के विकास में सहायक हो अथवा चरित्रों के गुप्त मनोभावों का प्रदर्शन करते हों।”17
मराठी के उपन्यासकार श्री ना. सी. फड़के ने कथावस्तु की रोचकता के लिए एक सूत्रता (अर्थात् ऐक्यता का भाव) को महत्व दिया है:
‘‘कथावस्तु में एक सूत्रता होनी चाहिए, अर्थात् तदन्तर्गत (कथावस्तु के अन्तर्गत) विभिन्न घटनाएँ एक साथ मिलकर पाठक के मन पर एक ही प्रभाव डालें।”18
श्री ना. सी. फड़के ने कथावस्तु के लिए जिज्ञासा, उत्कण्ठा और विस्मय आवश्यक तत्व बताये हैं:
‘‘प्रत्येक ललित-कथा (कथावस्तु) जिज्ञासा, उत्कण्ठा और विस्मय इन तीन भावों के उत्कर्ष पर निर्भर रहती है।”19
कथावस्तु के आधार पर उपन्यासों के दो भेद किये गये है:
1. निरवयव कथावस्तु के उपन्यास। (Novel of Loose Plot)
2. सावयव कथावस्तु के उपनयास। (Novel of Organic Plot)
निरवयव कथावस्तु के उपन्यासों में वस्तु का संघटन शिथिल रहता है। घटनाओं का घटाटोप-सा रहता है। आपस में घटनाओं का सम्बन्ध टूटा-सा रहता है। कोई तर्क-संगत घटनाएँ एक दूसरे को आगे नहीं ढकेलती। सावयव उपन्यासों में कथावस्तु सुगठित एवं व्यवस्थित रहती है। उसकी प्रत्येक घटना अन्तिम परिणाम की ओर अग्रसर होती है। उसमें किसी घटना का निरर्थक समावेश नहीं किया जाता।
विस्तार के अनुसार भी कथा के दो भेद किये गये हैं:
1. एकार्थ या शुद्ध (Simple)
2. संकुल (Compound)
जिस उपन्यास में केवल एक ही कथा हो उसे एकार्थ या शुद्ध कथावस्तु का उपन्यास कहेंगे और जिस उपन्यास में दो या दो से अधिक कथाएँ साथ-साथ चलें उसे संकुल कथावस्तु का उपन्यास कहा जाएगा।
पात्र और चरित्र-चित्रण
कथावस्तु के पश्चात् उपन्यास का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व चरित्र-चित्रण है। उपन्यास में चरित्र का अर्थ आचरण-शास्त्र में समझा जाने वाला धर्म नहीं है। साहित्य के अन्तर्गत चरित्र का अर्थ मानव पात्रों का चित्रण है; जिसका आधार मनुष्यों के राग व मनोवेग हैं। अतः पात्रों के जीवन पर उपन्यास का चरित्र-चित्रण निर्भर करता है।
उपन्यासकार को प्रत्येक पात्र के चरित्र से पहले से ही अवगत होना आवश्यक है, तभी वह उन पात्रों के जीवन-संघर्षों, मनोवगों, विचारों और क्रिया-कलापों का उचित लेख-जोखा दे सकेगा। प्रत्येक पात्र के व्यक्तिगत और बहिर्गत जीवन का सूक्ष्म अध्ययन उसके लिए अनिवार्य है। दूसरे उपन्यासकार को जीवन की उन स्थितियों से भी परिचित होना आवश्यक है; जिन्होंने उसके पात्रों के मानसिक जगत का निर्माण किया है। राल्फ फोक्स के शब्दों में:
‘‘उपन्यासकार किसी भी वैयक्तिक जीवन की गाथा नहीं लिख सकता जब तक उसमें समग्र-जीवन की सतर्क दृष्टि न हो। उसे यह जानना आवश्यक है कि पात्रों के वैयक्तिक संघर्षों से किस प्रकार उसके अन्तिम परिणाम निकलते हें। इसके लिए उसे यह भी जानना चाहिए कि जीवन की वे कौन-सी विभिन्न स्थितियाँ हैं जिन्होंने उन व्यक्तियों को, जैसे वे हैं बनाया है।”20
उपन्यास में पात्रों की संख्या-सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। श्रेष्ठ उपन्यास में भी पात्रों की संख्या पचास-साठ तक पहुँच जाती है। लेकिन पात्र बहुत अधिक नहीं होने चाहिए। उपन्यास के क्षेत्र की विशालता को देखते हुए पात्रों की संख्या अधिक भी हो तो अखरती नहीं है। उपन्यास में अधिकांश पात्र पथिकों के समान आते हैं। वे केवल कथानक को गति देकर अथवा वातावरण के रंग भरकर चले जाते हैं। पात्रों की संख्या उपन्यास के विषय और विस्तार पर भी निर्भर है। मुख्य प्रश्न उपन्यास में नायक का है, क्योंकि नायक ही अधिकांशतः उपन्यास का केन्द्र होता है। नायक और नायक के निकट सम्पर्क रखने वाले पात्रों के सम्बन्ध में ही उपन्यासकार की विशेष रुचि होती है। ऐसे उपन्यासकारों को, जो चरित्र-चित्रण को प्रधानता देते है, नायक के चित्रण में विशेष जागरूक रहना पड़ता है। प्रेमचन्द ने औपन्यासिक चरित्र-चित्रण के अन्तर्गत पाठक और पात्रों के बीच में आत्मीयता के भाव उत्पन्न करना प्रधान औपन्यासिक धर्म बताया हैः
“यह ज़रूरी नही कि हमारे चरित्र-नायक ऊँची श्रेणी के ही मनुष्य हो। हर्ष और शोक, प्रेम और अनुराग, ईर्ष्या और द्वेष मनुष्य मात्र में व्यापक हैं। हमें केवल हृदय के उन तारों पर चोट लगानी चाहिए जिनकी झंकार से पाठकों के हृदय पर भी वैसा ही प्रभाव हो। सफल उपन्यासकार का सबसे बड़ा लक्षण है कि वह अपने पाठकों के हृदय में उन्हीं भावों को जागरित कर दे जो उसके पात्रों में हों। पाठक भूल जाए कि वह कोई उपन्यास पढ़ रहा है। उसके और पात्रों के बीच में आत्मीयता का भाव उत्पन्न हो जाय।”21
अतः पात्रों की मुख्य विशेषता उनकी सजीवता है तभी पाठक और पात्रों के बीच भावात्मक सम्बन्ध स्थापित हो सकते हैं। पात्र इसी दुनिया के होने चाहिए। उपन्यासकार को अपनी काल्पनिक सृष्टि में ऐसे ही पात्र खड़े करने चाहिए जो वास्तविक मनुष्यों के समान अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में कार्य करें। उनमें असाधारणता अथवा अलौकिकता नहीं आनी चाहिए, अन्यथा या तो वे अत्यधिक व्यक्तिवादी हो जाएंगे या किसी दूसरी दुनिया के और पाठकों के मनोजगत से उनका तादात्म्य नहीं हो सकेगा।
माना कि पात्रों की सृष्टि उपन्यासकार स्वयं करता है, वह अपने उपन्यास के पात्रों का जनक है, पर पात्र निर्जीव नहीं होते। उनका अपना व्यक्तित्व होता है। उपन्यासकार उन्हें अपनी इच्छानुसार हिला-डुला नहीं सकता। पात्र उपन्यास में एक सजीव शक्ति होते हैं। वे कठपुतली की तरह नचाये नहीं जा सकते। उनकी स्वतन्त्रता छीन लेने पर उपन्यास का महत्व घट जाता है। पात्र वही काम करे जैसा कि उन परिस्थितियों में कोई भी उसी श्रेणी और संस्कार का व्यक्ति कर सकता है। पात्रों के इसी स्वाभाविक चित्रण के सम्बन्ध में प्रेमचंद लिखते हैं:
‘‘विकास परिस्थिति के अनुसार स्वाभाविक हो, अर्थात् पाठक और लेखक दोनों इस विषय से सहमत हों। अगर पाठक का यह भाव हो कि इस दशा में ऐसा नहीं होना चाहिए था तो इसका यह आशय हो सकता है कि लेखक अपने चरित्र के अंकित करने में असफल रहा।”22
प्रेमचन्द ने चरित्र-परिवर्तन के सम्बन्ध में काफ़ी जोरदार शब्दों में लिखा है। वे प्रत्येक चरित्र के परिवर्तन में विश्वास रखते थे। स्थिर पात्रों के उपन्यास उनकी दृष्टि में उच्चकोटि के नहीं माने जाने चाहिए। लेकिन यह स्मरण रखना है कि प्रेमचंद ने स्वाभाविकता के साथ चरित्र-परिवर्तन पर बल दिया है। चरित्रों के विकास के सम्बन्ध में वे लिखते हैं:
‘‘उपन्यास के चरित्रों का चित्रण जितना ही स्पष्ट गहरा और विकासपूर्ण होगा, उतना ही पढ़ने वालों पर उसका असर पड़ेगा।.....जिस तरह किसी मनुष्य को देखते ही हम उसके मनोभावों से परिचित नहीं हो जाते, ज्यों-ज्यों हमारी घनिष्ठता उससे बढ़ती है, त्यों-त्यों उसके मनोरहस्य खुलते हैं, उसी तरह उपन्यास के चरित्र भी लेखक की कल्पना में पूर्ण रूप से नहीं आ जाते, बल्कि उनमें क्रमशः विकास होता जाता है। यह विकास इतने गुप्त और अस्पष्ट रूप से होता है कि पढ़ने वाले को किसी तबदीली का ज्ञान भी नहीं होता। अगर चरित्रों में किसी का विकास रुक जाए तो उसे उपन्यास से निकाल देना चाहिए, क्योंकि उपन्यास चरित्रों के विकास का ही विषय है। अगर उसमें विकास दोष है, तो वह उपन्यास कमज़ोर हो जाएगा। कोई चरित्र अंत में भी वैसा ही रहे जैसा वह पहले था; उसके बल-बुद्धि और भावों का विकास न हो तो वह असफल चरित्र है।”23
उपन्यासों में चरित्र-चित्रण के दो प्रकार अथवा शैलियाँ प्रचलित हैः
1. विश्लेषणात्मक
2. रूपकात्मक
विश्लेषणात्मक चरित्र-चित्रण में लेखक पात्रों के विचारों, भावों, प्रवृत्तियों, आदतों आदि का विश्लेषण करता है और स्वयं ही उनके सम्बन्ध में निर्णायक रूप से स्थल-स्थल पर अपने विचार व्यक्त करता है।
लेकिन रूपकात्मक प्रणाली में ऐसा नहीं होता। उसमें लेखक अपनी ओर से कुछ नहीं बोलता। वह परिपार्श्व में रहता है। पात्र स्वयं अपने चरित्र की झलक देते हैं। यह उनके कार्यों ओर संवादों द्वारा सम्पन्न होता है। पात्र अपनी सबलताओं और दुर्बलताओं को स्वयं अनावृत्त करते हैं। आधुनिक उपन्यासों में रूपकात्मक प्रणाली विशेष रूप से प्रचलित है और यह है भी अधिक मनोवैज्ञानिक।
मराठी उपन्यासकार श्री ना. सी. फड़के ने चरित्रांकन की दो पद्धतियों का उल्लेख किया है-
1 साक्षात् पद्धति (प्रत्यक्ष)
2 प्रतिबिम्ब पद्धति (परोक्ष)
साक्षात् पद्धति में लेखक स्वयं देखता और सुनता है और जो कुछ वह प्रत्यक्ष देखता व सुनता है, उसे अक्षरशः पाठकों के सम्मुख रख देता है।
प्रतिबिम्ब पद्धति में लेख साक्षात् वस्तु की ओर संकेत नहीं करता, वरन् वह पाठकों से कहता है, यह देखिए, इस वस्तु का प्रतिबिम्ब अमुक व्यक्ति के (पात्र के) स्वभाव में उभरा हुआ है।”24
संवाद
संवादों द्वारा उपन्यासकार कथा का विकास और पात्रों के चरित्र का उद्घाटन करता है। पात्रों के माध्यम से संवादों के द्वारा कभी-कभी वह अपने जीवन-दर्शन की व्याख्या भी करता है। सुन्दर संवादों द्वारा उपन्यासकार पाठकों को अपने लक्ष्य की ओर आकृष्ट कर सकता है। अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने के लिए संवाद बड़े चुस्त सीधे और धारा-प्रवाह होने चाहिए।
संवाद प्रसंगानुकूल और स्वाभाविक हो। दैनिक-जीवन में मनुष्य जिस प्रकार वार्तालाप करते हैं उपन्यासों में भी वैसे ही संवाद रखे जाएँ। संवादों की स्वाभाविकता का सम्बन्ध उनके पात्रों के मानसिक अथवा सांस्कृतिक धरातल के अनुकूल होना है। जिस कोटि का पात्र हो, उसके मुख से वैसी भी भाषा और वैसे ही विचार व्यक्त करवाने चाहिए, अन्यथा स्वाभाविकता को धक्का लगेगा। पात्र जब स्वयं बोलते हैं तब उपन्यासकार के निजी विचारों का और उसकी निजी भाषा का स्थान गौण हो जाता है। उसे अपने विचारों की प्रेषणीयता के लिए उन विचारों के अनुरूप-वाहक पात्रों का सृजन करना पड़ेगा, तभी वह अपने विचारों को संवादों का रूप दे सकेगा। प्रेमचन्द के विचार, इस सम्बन्ध में, बड़े महत्व के हैं। संवाद और भाषा के सम्बन्धों पर वे कहते हैं:
‘‘हमारे उपन्यासों में अक्सर बातचीत भी उसी शैली में करायी जाती है मानों लेखक खुद लिख रहा है। शिक्षित समाज की भाषा तो सर्वत्र एक है, हाँ भिन्न-भिन्न जातियों की ज़बान पर उसका रूप कुछ-न-कुछ बदल जाता है। बंगाली, मारवाड़ी और ऐंग्लो-इन्डियन भी कभी-कभी बहुत शुद्ध हिन्दी बोलते पाये जाते हैं, लेकिन यह अपवाद है, नियम नहीं, पर ग्रामीण बातचीत हमें दुविधा में डाल देती है। बिहार की ग्रामीण भाषा दिल्ली के आसपास का आदमी समझ ही न सकेगा।”25
संवाद अनावश्यक एवं अनर्गल भी नहीं होने चाहिए। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी चीज़ उनकी सरलता है। उपन्यास कोई शास्त्रा नहीं होता। उसमें किसी गम्भीर विषय का विवेचन अपेक्षित नहीं है। अतः रमणीयता सम्वादों की पहली शर्त है। बड़े-बड़े व दार्शनिक विचारों से बोझिल संवाद उपन्यास को अरुचिकर बना देते हैं। संक्षेप में, हडसन के शब्दों में कहा जा सकता हैः
‘‘कार्य-कलापों से आंगिक सम्बन्ध होने के अतिरिक्त संवाद स्वाभाविक, उपयुक्त एवं नाटकीय होने चाहिए, जिसका अर्थ यह है कि ये बोलने वाले के व्यक्तित्व के अनुरूप, जिस परिस्थिति में वे कहे जाते हैं उसके अनुकूल और सरल, ताजे़, स्पष्ट और रुचिकर हों।”26
उपन्यास में संवाद ही संवाद न हों। नाटक और उपन्यास में यही मुख्य भेद है। उपन्यास जीवन की व्याख्या भी करता है। प्रत्येक महत्वपूर्ण घटना पर उपन्यासकार को अपनी टिप्पणी देनी चाहिए। ऐसा करने पर घटना बड़ी मर्मस्पर्शी हो जाती है लेकिन अधिक संवाद वाले उपन्यास ही श्रेष्ठ समझे जाते हैं। लेखक को अपना वक्तव्य एक संकुचित सीमा तक रखना चाहिए।
प्रेमचंद के मतानुसार उपन्यास में आने वाले प्रत्येक संवाद का कोई न कोई प्रयोजन होना चाहिएः
‘‘वार्तालाप केवल रस्मी नहीं होना चाहिए। प्रत्येक वाक्य को, जो किसी चरित्र के मुँह से निकले, उसके मनोभावों और चरित्र पर कुछ-न-कुछ प्रकाश डालना चाहिए।”27
देश-काल
देश-काल से अभिप्राय उपन्यास के अन्तर्गत वर्णित स्थान और समय से है। देश-काल में आचार-विचार, रीति-नीति, चाल-ढाल, रहन-सहन, प्राकृतिक पृष्ठभूमि (Natural Background) आदि सम्मिलित हैं। देश-काल के दो भेद किए गये हैं:
1. समाजगत
2. भौतिक
समाजगत से तात्पर्य उच्च, मध्य अथवा निम्न वर्ग के जीवन से है। उपन्यास में जीवन की दो विभिन्न धाराएँ प्रायः पायी जाती हैं। चाहे वे मज़दूर और पूँजीपति, प्राचीन रूढ़िग्रस्त जर्जर समाज और नवीन सामाजिक मूल्य, नारी और पुरुष आदि किसी भी रूप में हों। उपन्यास में जिस समाज का चित्रण किया जाता है उसके आचार-विचार, रीति-नीति आदि का उपन्यासकार को बड़ा ध्यान रखना पड़ता है। ऐतिहासिक उपन्यासों में यह तत्व बड़े महत्व का होता है।
देश-काल सम्बन्धी न्यून जानकारी के कारण कभी-कभी रचनाएँ बड़ी हास्यास्पद हो जाती हैं। लेखक को इस दिशा में विशेष जागरूक रहने की आवश्यकता है। उसे ऐसे किसी भी देश अथवा काल का चित्रण नहीं करना चाहिए जिसका उसे अनुभव न हो। यह अनुभव कोई आवश्यक नहीं कि व्यक्तिगत अनुभव हो। हाँ, व्यक्तिगत अनुभव से रचना में निखार आ जाता है; वह अधिक प्राणवान् हो जाती है। देश-काल सम्बन्धी बातें सामाजिक विषयों पर लिखी पुस्तकों से प्राप्त हो सकती हैं। आधार पाते ही लेखक अपनी कल्पना-शक्ति द्वारा देश-काल-चित्रण कर सकता है। प्रेमचंद, हेनरी जेम्स का उदाहरण देते हुए लिखते हैं:
‘‘कल्पना के लिए आधार अवश्य चाहिए। जिस तरुणी लेखिका ने कभी सैनिक छावनियाँ नहीं देखीं, उससे यह कहने में कुछ भी औचित्य नहीं है कि आप सैनिक जीवन में हाथ न डालें। मैं एक अंग्रेज़ उपन्यासकार को जानता हूँ जिसने अपनी एक कहानी में फ्रांस के प्रोटेस्टेंट युवकों के जीवन का अच्छा चित्र खींचा था। उस पर साहित्यिक-संसार में बड़ी चर्चा रही। उससे लोगों ने पूछा- ‘आपको इस समाज के निरीक्षण करने का ऐसा अवसर कहाँ मिला? (फ्रांस रोमन कैथोलिक देश है और प्रोटेस्टेंट वहाँ साधारणतः नहीं दिखायी पड़ते) मालूम हुआ कि उसने एक बार, केवल एक ही बार, कई प्रोटेस्टेंट युवकों को बैठे और बातें करते देखा था। बस, एक बार का देखना उसके लिए पारस हो गया। उसे वह आधार मिल गया जिस पर का अपना विशाल भवन निर्माण करती है।”28
भौतिक वर्णनों के अन्तर्गत व्यक्तियों और प्रकृति का वर्णन आता है। प्राकृतिक-संविधान कृति को अधिक मार्मिक एवं जीवन की विशालता को अधिक स्पष्ट करने के लिए किया जाता है। यह बाह्य दृश्य-विधान उपयुक्त स्थलों पर ही होना चाहिए। इसके अनुपयुक्त स्थल-प्रवेश से कथा के प्रवाह में रुकावट आती है। दूसरे ये दृश्य-विधान अधिक लम्बे न होने चाहिए। निरर्थक विस्तार से भी पाठक का सम्बन्ध मूल कथा से छूट जाता है। इनका मुख्य प्रयोजन उपन्यास में शक्ति, गाम्भीर्य और सौन्दर्य की सृष्टि करना है। प्राकृतिक दृश्य-विधान कभी भी उपन्यास के मूल उद्देश्य को दबाकर उभरना नहीं चाहिए। उनका स्थान गौण रहता है।
भाषा-शैली
उपन्यासकार का कर्तव्य-कर्म केवल रोचक कहानी लिख देना ही नहीं है, वरन् उसे अपने पात्रों के आंतरिक जीवन की झाँकी को भी चित्रित करना होता है। ऐसी स्थिति में उसे नाना शैलियों का सहारा लेना पड़ता है। लेकिन उपन्यासकार को अति आलंकारिक एवं काव्यात्मक शैली से बचना चाहिए, क्योंकि शैली के लिए उपन्यास नहीं लिखा जाता।
जहाँ तक भाषा का प्रश्न है उसके सम्बन्ध में दो बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं। पहले तो भाषा में कृत्रिमता नहीं होनी चाहिए। उपन्यास में भाषा के प्रयोग करना उपन्यास-कला के विरुद्ध है। दूसरे प्रत्येक पात्र के शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक स्तर के अनुसार विभिन्न भाषा-रूपों का समावेश करना चाहिए। इस प्रकार की भाषा से कथा की रोचकता में चार चाँद लग जाते हैं।
उपन्यास की भाषा क्लिष्ट न हो। शब्दाडम्बर से कोई रचना प्रभावोत्पादक नहीं बन सकती। प्रभावोत्पादकता और सजीव रचना के लिए सरल भाषा का प्रयोग अपेक्षित है। प्रेमचंद इस सम्बन्ध में लिखते हैं -
‘‘इसमें सन्देह नहीं कि उपन्यास की रचना-शैली सजीव और प्रभावोत्पादक होनी चाहिए, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि शब्दों का गोरखधन्धा रचकर लेखक पाठक को इस भ्रम में डाल दे कि इसमें ज़रूर कोई-न-कोई गूढ़ आशय है। जिस तरह किसी आदमी का ठाट-बाट देखकर हम उसकी वास्तविक स्थिति के विषय में ग़लत राय क़ायम कर लेते हैं, उसी तरह उपन्यासों के शाब्दिक आडंबर देखकर भी ग़लत राय क़ायम कर लेते हैं कि कोई महत्व की बात छिपी हुई है। सम्भव है, ऐसे लेखक को थोड़ी देर के लिए यश मिल जाय, किन्तु जनता उन्हीं उपन्यासों को आदर का स्थान देती है; जिनकी विशेषता उनकी गूढ़ता नहीं, उनकी सरलता होती है।”29
शैली का सम्बन्ध बहुत कुछ लेखक के व्यक्तित्व पर निर्भर है। जर्मन आलोचक बफन के अनुसार शैली स्वयं लेखक का व्यक्त-स्वरूप है - Style is the man himself. औपन्यासिक शैली के सम्बन्ध में पूर्णतः सत्य न भी हो, पर उपन्यासकार का व्यक्तित्व जगह-जगह उभर ही आता है। अतः आधुनिक उपन्यासों में लेखक के व्यक्तित्व एवं उसके दृष्टिकोण को बड़ा महत्व दिया जाता है।
दृष्टिकोण
कोई भी रचना निष्प्रयोजन नहीं की जाती।
‘प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोपि न प्रवर्तते।’लेखक का अपना एक निश्चित उद्देश्य अथवा दृष्टिकोण उपन्यास-कला का एक अविभाज्य अंग है। ग्रेबो के मत से-
‘‘स्पष्टतः औपन्यासिक रचनातन्त्र में दृष्टिकोण मूल तत्व है। कोई दृष्टिकोण अपनाने पर ही कथानक, चरित्र-चित्रण, ध्वनि, वर्णन आदि का रूप एक सीमा तक निश्चित होता है।”30
उपन्यासकार कभी भी तटस्थ नहीं रह सकता। उसका व्यक्तित्व उसकी कृति में स्पष्ट झलकता है, चाहे उसका समावेश जान-बूझकर किया गया हो अथवा अनजान भाव से ही। उसके अपने विश्वास, मन्तव्य, दृष्टिकोण आदि स्वतः प्रतिबिम्बत हो उठते हैं। प्रेमचन्द के शब्दों में-
‘‘वास्तव में कोई रचना रचयिता के मनोभावों का उसके चरित्र का उसके जीवनादर्श का, उसके दर्शन का आईना होती है। जिसके हृदय में देश की लगन है, उसके चरित्र, घटनावली और परिस्थितियाँ सभी उसी रंग में रँगी हुई नज़र आएंगी। लहरी-आनन्दी लेखकों के चरित्रों में भी अधिकांश चरित्र ऐसे होते हैं जिन्हें जगत-गति नहीं व्यापती। वे जासूसी-तिलस्मी चीजें लिखा करते हैं। अगर लेखक आशावादी है तो उसकी रचना में आशावादिता झलकती रहेगी, अगर वह शोकवादी है तो बहुत प्रयत्न करने पर भी, वह अपने चरित्रों को ज़िन्दादिल न बना सकेगा।”31
आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी उपन्यासकार के वैयक्तिक दृष्टिकोण को ही प्राथमिकता देते हैं। उपन्यासकार यदि ऊँचे वर्ग का व्यक्ति है तो उसे अपने दृष्टिकोण से जीवन की व्याख्या करनी चाहिए। ऐसा करने से वे कृतियाँ मानव-समुदाय के लिए रत्न सदृश होंगी। द्विवेदी जी अपने ‘आख्यायिक और उपन्यास’ शीर्षक लेख में लिखते हैं।
‘‘उपन्यास इसीलिए स्थायी साहित्य नहीं है कि वह उपन्यास है। बल्कि इसलिए कि उसके लेखक का एक अपना ज़बरदस्त मत है जिसकी सचाई के विषय में उसे पूरा विश्वास है। वैयक्तिक स्वाधीनता का यह सर्वोत्तम रूप है। उपन्यासकार उपन्यासकार है ही नहीं, यदि उसमें वैयक्तिक दृष्टिकोण न हो, अपनी विशेष दृष्टि पर उसे पूरा विश्वास न हो। और सभी चीज़े उसके लिए गौण हैं।”32
इस सम्बन्ध में एच. डब्ल्यू. लेगेट का भी मत उद्घृत किया जा सकता हैः
‘‘अपनी कहानी के प्रत्येक अनुच्छेद में लेखक केवल अपने व्यक्तित्व को ही व्यक्त नहीं करता, वरन् वह अपने पाठकों के सम्मुख अपना दृष्टिकोण भी प्रस्तुत करता है। इसके भी आगे यह कहा जा सकता है कि वह अपने प्रति भी अपना दृष्टिकोण व्यक्त करता है। कुछ लेखक उदाहरणार्थ अपने आपको बड़ी गंभीरता से ग्रहण करते हैं।”33
उपन्यासकार अपने जीवन-दर्शन को दो प्रकार से व्यक्त करता है-
1. पात्रों तथा घटनाओं द्वारा और
2. स्वयं परिचय या आलोचना द्वारा।
इस आलोचना अथवा व्याख्या-कर्म में उपन्यासकार को बड़ा सचेत रहना पड़ता है। उपन्यासकार कोई आलोचक या व्याख्याकार नहीं है। वह उपदेशक और उपन्यासकार दोनों साथ-साथ नहीं बन सकता। उसे तो प्रच्छन्न रूप से ही अपने विचारों, धारणाओं और विश्वासों को व्यक्त करना होगा।
इस स्थल पर उपन्यास और नीति- तत्त्व (morality) के सम्बन्धों की बात भी उठती है। उपन्यासों में नीति-तत्त्वों का उपयोग अवश्य है; किन्तु वह प्रकट रूप में नहीं आना चाहिए। उपन्यास कोई धर्मशास्त्र या नीतिशास्त्र का ग्रन्थ नहीं होता। इसके साथ ही उपन्यासकार को नीति-तत्त्व की अवहेलना भी नहीं करनी चाहिए। प्रेमचन्द ने साहित्य और नीति-शास्त्र के लक्ष्य की एकता प्रदर्शित करते हुए उनके स्वरूप की भिन्नता पर प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं-
‘‘नीति-शास्त्र और साहित्य-शास्त्र का लक्ष्य एक ही है। केवल उपदेश की विधि में अन्तर है। नीति-शास्त्र तर्कों और उपदेशों द्वारा बुद्धि और मन पर प्रभाव डालने का यत्न करता है, साहित्य ने अपने लिए मानसिक अवस्थाओं और भावों का क्षेत्र चुन लिया है।”34
नीति का सम्बन्ध जीवन से है और उपन्यास जीवन का चित्र होता है। प्रत्येक कला-कृति नैतिक मूल्यों से गुँथी रहनी चाहिए यदि वह किसी महती सामाजिक उपयोगिता के लिए अथवा मनुष्य की मानसिक या आत्मिक उन्नति के लिए रचा गया सत्साहित्य है। हडसन उपन्यास में नीति-तत्व की प्रधानता घोषित करते हुए लिखते हैं-
‘‘कला आवश्यक रूप से नीति से सम्बद्ध है। कला जीवन से जन्मती है, उसका जीवन से ही पोषण होता है, जीवन पर ही उसकी प्रतिक्रिया होती है। अतः वह जीवन के उत्तरदायित्वों की अवहेलना नहीं कर सकती। इसलिए कलाकार के बारे में, चाहे उसका कोई भी क्षेत्र हो, यह कहना मूर्खतापूर्ण है कि वह नीति के दायरे से अलग है। निःसन्देह उपन्यासकार के बारे में भी हम ऐसा नहीं कह सकते। जब कि वह जीवन को लेकर चलता है, तो उसे जीवन में जहाँ भी उत्पन्न हो, नैतिक सत्यों और मूल्यों पर भी विचार करना पड़ेगा। उसकी कृति की वास्तविक महत्ता बहुत कुछ उसकी नैतिक शक्ति, सूक्ष्म अन्तर-दृष्टि, समग्र आत्मिक चेतना और जीवन-दर्शन की प्रवृत्ति पर ही निर्भर करती है।”35
उपर्युक्त तत्त्वों का समावेश उपन्यास-रचना के अन्तर्गत होता है; किन्तु किसी उपन्यास में किसी तत्व की प्रधानता रहती है तो किसी में अन्य की। कोई उपन्यासकार कथानक व घटनाओं को ही मुख्य मानकर उपन्यास की रचना करता है तो कोई चरित्र को, तो कोई जीवन की किसी समस्या-विशेष को। उसकी प्रधानता का कोई भी तत्व हो सकता है। तत्वों की प्रधानता के आधार पर उपन्यास के प्रकारों का वर्गीकरण किया जाता है। यदि किसी उपन्यास में उपर्युक्त किसी तथ्य का अभाव अथवा न्यूनता है तो उसे केवल इसी कारण हम हेय या साधारण कोटि का नहीं ठहरा सकते। हमें सर्वप्रथम उसके उद्देश्य की मूल तह में पैठना पड़ेगा और उसी आधार पर उसकी कृति का यथार्थ मूल्यांकन करना होगा। आज के प्रयोग-युग में आलोचना का प्राचीन शास्त्रीय ढंग एक प्रकार से उठ-सा गया है, फिर भी कुछ बातें ज्यों-की-त्यों विद्यमान हैं, भले ही शास्त्रीयता का आग्रह अब न रहा हो।
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संदर्भ:
1. साहित्य-संदेश (उपन्यास-अंक) अक्टूबर-नवम्बर 1940, पृ. 47
2. कुछ विचार, पृ. 28
3. "The Novel owes its existence to the interest which men and women every where and at all times have taken in men and women and in he great panorama of human passion and action."
An Introduction to the study of Literature
(Chap. IV, page 168).
4. "It (Novel) is a large mirror of life, and has a far greater range than any form of literature."
J. B. prestley - The English Novel- page 5.
5. कुछ विचार, पृ. 50
6. साहित्य-संदेश (उपन्यास-अंक, अक्टूबर-नवम्बर 1940, पृ. 43)
7. साहित्य-संदेश (उपन्यास-अंक, अक्टूबर-नवम्बर 1940, पृ. 43)
8. साहित्य-संदेश (उपन्यास-अंक, अक्टूबर-नवम्बर 1940, पृ. 49)
9. कुछ विचार, पृ. 48
10. The Modern novel for varous reasons, minimizes the importance of plot, On the one hand it follows the naturalistic lead and considers the elabortion of plot false to experience. On the other, with emphasis upon character or whimsey, and its reliance upon charm and mannerism, it avoids the painful business of plot construction." The Technique of the Novel" by Carl H. Grabo, page 29 & 30.
11. "It should seem to move naturally, and be free from any appearance of artifice, and the means used in working it out should be such as we are willing to accept, in the circumstances, as at least credible."
'An Introduction to the Study of Literature'
by Willian Henry Hudson, page 186.
12. कुछ विचार, पृ. 56
13. कुछ विचार, पृ. 56
14. वही, पृ. 66
15. Life as depicted in the novel can never, however great the effort, be wholly acutal, wholly a literal transcript of incident, character and speech. It is a more or less close analogy to the actual, though the range of diveragence therefrom is obviously great. Every novel is symbolic of life rather than litearary descriptive of it, and the scale of fiction is as wide as from the fairy tale, the romance or the allegory at one extreme to the most prosaic naturalism at the other.
'The Technique of the Novel' by Carl H. Grabo, page 163.
16. Initial assumptions once being granted, everything must follow in such fashion as not offend the intelligent reader's senses of probability. In such matters, obviously, truth is stranger than fiction. Life is full of accidents and surprises which, introduced into novels, would arouse a storm of protest from the very readers.... Who are striklers for truth higher probability, a well ordered region where events are anticipated sometime before they happen, where men and women act as people of their sort might be expected to, and yet where the weird, the supernatural, and the extravagent are welcomed cordially so long as they proceed according to accepted programme." - Typical forms of English Literature' by Alfred H. Upham, Ph. D. page 187
17. कुछ विचार, पृ. 51
18. ‘‘कथाकार एक सूत्रता असली पाहिज याचा अर्थ असा. की त्यांतील सर्व प्रसंगाना मिळून वाचकाच्या मनाकर एक आघात झाला पाहिजे।” प्रतिभा-साधन, पृ. 121
19. ‘जिज्ञासा, उत्कण्ठा आणि विस्मय या तीन भावनांवर प्रत्येक सरस ललित कथा आधार-लेली असते।” ‘प्रतिभा-साधन’, पृ. 128
20. The Novelist cannot write his story of the individual fate unless he also has this steady vision of the whole. He must understand how his final result arises from the individual conflicts of his characters, he must in turn understand what are the mainfold conditions of lives which have made each of those individuals what she or he is.
- 'The Novel and the people' by Ralph Fox, Page 15 & 16.
21. कुछ विचार, पृ. 52
22. कुछ विचार, पृ. 54
23. कुछ विचार, पृ. 54
24. ‘‘साक्षात् पद्धति या पद्धतीत लेखक साक्षात् पाहात ऐकत असतो, व जें दिसेल व ऐकूं येईल ते सरल वाचका पुढे मांडीत असतो।” पृ. 135
“प्रतिबिम्ब पद्धति या पद्धतीत लेखक सरल वस्तुकडे बोट दाखवीत नाहीं तर वाचकांस तो म्हण तो, ते पहात्या वस्तू चे अमक्या व्यक्ति स्वभावांत उठ ले लें प्रतिबिम्ब।” पृ. 130, प्रतिभा-साधन।
25. कुछ विचार, पृ. 55
26. "Beyond having this organic connection with the action, dialogue should be natural, appropriate and dramatic which means that it should be in keeping with the personality of the speakers; suitable to the situation it occurs, and easy, fresh, vivid and interesting." An Introduction to the study of Literature' - Hudson, Page 204.
27. कुछ विचार, पृ. 55
28. कुछ विचार, पृ. 47 (हेनरी जेम्स)
29. कुछ विचार, पृ. 51
30. "The point of view, it is apparent, is the fundamental principle of technique in the novel structure. By the adoption of one or another point of view, plot, characterisation, tone, description are all to some degree determined."
Carl H. Grabo - 'The Technique of the Novel', Page 81.
31. कुछ विचार, पृ. 55
32. आधुनिक हिंदी साहित्य, पृ. 69-70
33. "Not only does an author express his personality in every paragraph of his story, but he also expresses his attitude to his readers. It is possible to go farther and say that an author also expresses his attitude to himself. Some authors, for example, take themselves very seriously indeed."
- The Idea in Fiction' by H. W. Legett, page 120
34. कुछ विचार, पृ. 2
35. "Art is vitaily connected with morality. Art grows out of life, it is fed by life; it reacts upon life. This being so, it cannot disregard its responsibilities of life. It is, therefore, to the last degree absurd to talk of the artist, whatever, his line of work, as if he stood without the field of Ethics. Certainly we cannot thus speak of the novelist. As he deals with life, he must deal with moral facts and issue everywhere involved in life; and it is upon the whole spirit and tendency of his philosophy, that he greatness of his work very largely depends."
- 'An Introduction to the study of Literature by William Henry Hudson, Page 226
समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद : अभिमत
डा. विनयमोहन शर्मा (शोध-निर्देशक)
डा. महेन्द्र ने प्रथम बार प्रेमचंद के उपन्यासों में समस्या विशेष की ओर इंगित किया है और इस प्रकार शोध की नयी दिशा पर प्रकाश डाला है। विषय का प्रतिपादन सर्वथा वैज्ञानिक और स्पष्ट है। कहीं भी खींचतान नहीं की गयी है। हिन्दी में यह कदाचित सबसे कम पृष्ठों की; पर बड़े महत्त्व की थीसिस है। आशा है, प्रेमचंद के आलोचना-साहित्य में इसका विशिष्ट स्थान होगा।
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प्रोफ़ेसर रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’
‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ उच्चकोटि की आलोचनात्मक कृति है। प्रेमचंद के साहित्य की सोद्देश्यता और सामाजिकता पर गहरा विवेचन इस पुस्तक में है। विद्वान लेखक ने अपने कुशल अनुशीलन में विषय के समस्त अंगों और पक्षों पर विधिवत् विचार किया है। प्रेमचंद के साहित्य के अध्येताओं के लिए यह कृति उपयोगी ही नहीं; अनिवार्य है। इसे पढ़ कर प्रेमचंद के साहित्य के प्रेरणा स्रोतों को भली-भाँति समझा जा सकता है।
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डा. कन्हैयालाल सहल
अध्यक्ष : हिन्दी-विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, राज.
‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ द्वारा हम प्रेमचंद को नये आलोक में देखने लगते हो। आजकल साहित्य के नये मूल्यों की बहुत चर्चा है। पुराने मूल्यों के स्थान में नवीन मूल्यों की प्रतिष्ठा मानवतावाद के आधार पर ही की जा सकती है। मानवतावाद के प्रति हमारी आस्था के दृढ़ीकरण के लिए प्रेमचंद का नाम चिर-स्मरणीय रहेगा। डा. महेंद्रभटनागर ने उनके सर्वत्र उभरते हुए मानवतावाद का जो जय-जयकार किया है; वह उचित ही है। प्रेमचंद के समस्यामूलक उपन्यासकार होने के संबंध में भले ही विवाद हो; किन्तु इसमें संदेह नहीं, एक अत्यधिक जागरूक कलाकार की भाँति; जिसकी चेतना सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक सक्रिय रहती है, प्रेमचंद अपने युग की समस्याओं से उलझे हो और इसी में सच्चे कलाकार की सफलता है।
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डा. सु. शंकर राजू नायुडू
अध्यक्ष : हिन्दी-विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय
वस्तुतः प्रेमचंद के प्रमुख पात्र विभिन्न समस्याओं को सुलझाने के लिए ही लाये गये हो। अतः उपन्यास-सम्राट प्रेमचंद को ‘व्यक्ति-चरित्र के उपन्यासकार’ के रूप में देखना भी एक प्रकार से आपके ही मत को पुष्ट करता है; कि वे ‘समस्यामूलक उपन्यासकार’ थे। अतः दोनों मतों में तात्त्विक एकता ही मुझे प्रतीत होती है। आपने प्रेमचंद के द्वारा चित्रित सभी समस्याओं को स्पष्ट करके उनके व्यक्तित्व को पाठकों के सम्मुख यथावत् प्रस्तुत कर दिया है। प्रेमचंद पर लिखित आलोचना-जगत में आपके ग्रंथ का अपना एक विशेष स्थान बना रहेगा।
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डा. संतोषकुमार तिवारी
डा. महेंद्रभटनागर की समीक्षात्मक कृति ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ अपनी समग्रता में प्रेमचंद की मानवीय दृष्टि को उजागर करने वाली एक महत्त्वपूर्ण सार्थक रचना है। रचनाकार की कृतियाँ पूरे युगीन इतिहास को लेकर चलती हैं ; और जहाँ तक प्रेमचंद का संबंध है, उनका सम्पूर्ण कथा-साहित्य इतिहास के विविध पहलुओं को बारीक़ी से उकेर सका है। जीवन की ज्वलंत समस्याओं से जुड़ कर मनोवैज्ञानिक पकड़ के साथ उन्होंने युगीन स्पंदनों को जाना-समझा है। डा. महेंद्रभटनागर ने अपने सूक्ष्म विवेचन में यह रेखांकित किया है कि प्रेमचंद इतिहास के साथ-साथ मज़दूर-किसान की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को अच्छी तरह समझ सके हैं। उन्होंने अपने समय से जुड़ कर स्वाधीनता की समस्या के साथ पारिवारिक जीवन के विविध पक्षों को देखा, नरेशों से लेकर वेश्याओं तक की आंतरिक उथल-पुथल को समझा और यथार्थ के धरातल पर मानवीय सदाशयता और सामाजिक आदर्श की प्रतिष्ठा की।
यह कृति प्रेमचंद के उपन्यासों के सूक्ष्म अध्ययन से निःसृत जीवन-दर्शन पर आधारित है; स्वतंत्र चिन्तन की परिचायक है; क्योंकि यह विभिन्न विद्वानों की विचार-धाराओं से आक्रांत नहीं है। भाषा की सम्प्रेषणीयता और विश्लेषण-क्षमता सराहनीय है। उपन्यासकार प्रेमचंद के अध्येताओं को यह कृति असंदिग्ध रूप से उपयोगी है और अपनी एक नयी पहचान क़ायम करती है।
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डा. हरबंशलाल शर्मा
प्रोफ़ेसर : संस्कृत-हिन्दी विभाग, मुस्लिम यूनीवर्सिटी, अलीगढ़
मैंने डा. महेंद्रभटनागर की कृति ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ आद्यन्त पढ़ी। लेखक ने इसमें प्रेमचंद के उपन्यासों की विवेचना करने में बड़ी सफलता दिखाई है। प्रेमचंद जी का सारा जीवन देश के जन-साधारण की समस्याओं के अध्ययन करने तथा समाधान जुटाने में ही व्यतीत हुआ। महेंद्र जी ने बड़ी कुशलतापूर्वक प्रेमचंद की इन समस्याओं का विश्लेषण किया है। उन्होंने स्वयं कहा है - ‘वास्तव में उनके मानस-पट पर भारतीय जनता की समस्याओं का जाल ऐसा बिछा हुआ था कि वे उससे किसी भी दशा में मुक्ति न पा सके और न पाना ही चाहते थे।’ प्रेमचंद जी जनता को पूर्ण सुखी देखने के इच्छुक थे। वे समाज को आदर्श रूप में परिणत कर देना चाहते थे। डा. महेंद्रभटनागर के शब्दों में - ‘प्रेमचंद जी वास्तव में तुलसीदास की तरह लोक-हितवादी थे।’ डा. महेंद्रभटनागर ने प्रेमचंद के उपन्यासों से उद्धरण दे कर तथ्यों को समझाने का प्रयत्न किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये उद्धरण बोझिल होते हुए भी उपयुक्त हैं। कृति प्रेमचंद के उपन्यासों का सुन्दर विश्लेषण उपस्थित करती है। हिन्दी-साहित्य के अध्येता इससे बहुत अधिक लाभान्वित होंगे। मो डा. महेंद्रभटनागर के इस प्रयत्न का हृदय से स्वागत करता हूँ। शुभं भूपात्।
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महेन्द्रभटनागर रांगेय राघव, अमृतराय और धर्मवीर भारती की पीढ़ी के लेखक हैं। उन्होंने प्रायः सभी प्रमुख विधाओं में अपनी अभिरुचि एवं रचनात्मक सक्रियता का परिचय दिया है। लेकिन उनका मुख्य क्षेत्र काव्य और आलोचना ही रहा है। मुझे याद है, पचास के दशक में जब मैंने साहित्य और संस्कृति की दुनिया में आँखें खोलीं, महेन्द्रभटनागर की रचनाएँ उस दौर की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं - ‘हंस’, ‘जनवाणी’, ‘कल्पना’, ‘कहानी’ आदि में अपने समय के मूर्धन्यों के साथ प्रकाशित होती थीं। अक्टूबर सन् 1957 में, प्रेमचंद की पुण्यतिथि के अवसर पर बालकृष्ण राव और अमृतराय के संयुक्त संपादन में अर्द्धवार्षिक ‘हंस’ में उनकी कविताएँ मुक्तिबोध सहित अनेक प्रमुख कवियों के साथ छपी थीं। बड़ी-सी छतनार दाढ़ी वाला उनका चित्र आज भी स्मृति में बसा है। और आकर्षण का एक सहज कारण यह भी था कि वे तब युवा मार्क्स की तरह लगते थे।
थोड़ा आगे चलकर, उनकी पुस्तक ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ मेरे हाथ लगी। तब भी मेरी यह कोशिश रहती थी कि प्रेमचंद पर कुछ भी लिखा जाए मुझे पढ़ने को मिले। यह जानकर और भी सुखद आश्चर्य हुआ कि वह वस्तुतः उनके शोध-कार्य का ही प्रकाशित रूप था। उस दौर में जिन कुछेक शोध-प्रबंधों ने अपनी मौलिकता और उत्कृष्टता की छाप छोड़ी थी; वह भी उनमें से एक था।
प्रेमचंद के अपने मूल्यांकन में, महेन्द्रभटनागर उन आलोचकों से सहमत नहीं थे जो अपनी सौष्ठववादी एवं रीतिवादी कला-दृष्टि के कारण ही प्रेमचंद को दूसरी श्रेणी का लेखक मानकर उनका अवमूल्यन करते थे। बाद में तो प्रेमचंद के अवमूल्यन की इस मुहिम को बाक़ायदा एक आंदोलन की तरह चलाया गया। संपादक शिवदान सिंह चैहान के संपादन में सिर्फ़ छह अंक निकलने के बाद जब ‘आलोचना’ धर्मवीर भारती-मंडल के संपादन में आयी; प्रेमचंद-विरोधी इस अभियान के साक्ष्य आज भी इतिहास में दर्ज़ देखे जा सकते हैं। तब इस व्यापक अभियान के विरुद्ध लगभग अकेले खड्ग-हस्त होकर रामविलास शर्मा प्रेमचंद के पक्ष में खड़े होकर लड़ रहे थे।
प्रेमचंद पर उनकी दूसरी पुस्तक ‘प्रेमचंद और उनका युग’ वस्तुतः इसी युग का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। प्रेमचंद पर महेन्द्रभटनागर के काम को वस्तुतः इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। अभी पिछले दिनों उनका ग्रंथ ‘सामयिक परिदृश्य और कथा-स्रष्टा प्रेमचंद’ (‘प्रेमचंद-समग्र’) आया है। इसमें उनकी पहली पुस्तक भी समाहित है। स्पष्ट है कि इन पचास से भी अधिक बरसों में प्रेमचंद के प्रति महेन्द्रभटनागर की दिलचस्पी बनी रही है।
प्रेमचंद के प्रसंग में महेन्द्रभटनागर इस बहस से मुँह छिपाने की कोशिश नहीं करते कि प्रेमचंद गाँधीवादी थे, मार्क्सवादी थे या फिर हिंदूवादी थे। उनका मानना है कि प्रेमचंद वस्तुतः तुलसीदास की तरह ही लोकहितवादी लेखक थे। अपने इस गुण के कारण ही उन्होंने उत्तर-प्रदेश की जनता के बीच तुलसी की तरह ही अपनी गहरी पैठ बनायी। अपनी कुछ स्थापनाओं और ख़ास तौर से वर्णाश्रमवादी व्यवस्था के उत्कट समर्थन के कारण जहाँ तुलसीदास जब-तब विरोध और आक्रोश के शिकार हुए, प्रेमचंद अपने आलोचकों और विरोधियों को वैसी छूट नहीं देते। महेन्द्रभटनागर प्रेमचंद को एक मानवतावादी लेखक के रूप में प्रतिष्ठित और स्थापित करते हैं। प्रेमचंद के प्रसंग में वे किसी चयनवादी दृष्टि का विरोध करके उनकी व्यापक स्वीकार्यता के लिए संघर्ष करते हैं। न गाँधीवाद मानव-विरोधी दर्शन है, न ही मार्क्सवाद। अपने समय और सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों एवं गतिविधियों के दौर में प्रेमचंद जैसा सजग लेखक उन हलचलों की अनदेखी नहीं कर सकता था। जाति, सम्प्रदाय और वर्ण से ऊपर उठकर प्रेमचंद सब कहीं शोषण और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। वे सब कहीं मनुष्य के आधारभूत सद्भाव के पक्ष में खड़े लेखक हैं।
प्रेमचंद को हिंदूवादी लेखक सिद्ध करने के उत्साही आलोचक कमल किशोर गोयनका जब महेन्द्रभटनागर से प्रश्न करते हैं कि क्या वे प्रेमचंद की ‘कफ़न’ को सर्वश्रेष्ठ कहानी मानकर उनकी 299 कहानियों को छोड़कर सिर्फ़ ‘कफ़न’ को ही आधार बनाकर प्रेमचंद का मूल्यांकन करना चाहेंगे, महेन्द्रभटनागर प्रेमचंद के प्रति किसी चयनवादी दृष्टि का स्पष्ट विरोध करते हैं।
वे प्रेमचंद के समग्र मूल्यांकन को ही उनका वास्तविक मूल्यांकन मानते हैं। वे मानते हैं कि किसी चयनवादी दृष्टि से किसी लेखक का सम्यक् मूल्यांकन असंभव है। अन्य बड़े लेखकों की तरह ही प्रेमचंद का भी वास्तविक मूल्यांकन उन्हें समग्रता में देखकर ही संभव है, जिसमें लेखक के सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य की एक विशिष्ट भूमिका होती है। प्रेमचंद को जब एक मानवतावादी लेखक के रूप में स्थापित किया जाता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रेमचंद अव्यावहारिक आदर्शवादी, जड़ नैतिकतावादी या थोथी जीवन-दृष्टि से सरोकार रखने वाले लेखक थे। ‘कफ़न’ के प्रसंग में गोयनका को उत्तर देते हुए महेन्द्रभटनागर ठीक ही कहते हैं कि मार्क्सवादी चेतना से ‘कफ़न’ को जोड़कर देखे जाने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। और दूसरे बड़े लेखकों की तरह प्रेमचंद ने विधिवत् मार्क्सवाद पढ़कर अपना लेखन नहीं किया। उनका मार्क्सवाद वस्तुतः मानवतावाद की ही फलश्रुति है। जितना वह सहजरूप से उस परिधि में आ जाता है, वे उसे स्वीकार करते हैं। रचना का सामूहिक एवं समग्र प्रभाव ही उसके विश्लेषण और मूल्यांकन का आधार हो सकता है और होना चाहिए। इतना सुनिश्चित है कि प्रेमचंद गोयनका की तरह मार्क्सवाद के विरोधी लेखक नहीं थे।
-मधुरेश
Dr. Indra Nath Madan
Head of the Hindi Deptt. Punjab University.
Dr. Mahendra Bhatnagar possesses a capacity for critical examination and judgement. His interpretation of Premchand’s art and mind is full of potentiality. His point of view will lead to a new interpretation of Premchand’s art and mind.
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Dr. Rajpati Dixit, Varanasi
Presentation is clear and to the point. He has gone through the subject deeply and carefully and expressed his thought in an unostentaious, dignified and attractive style. The Thesis is satisfactory piece of research work, characterised by a fresh approach towards an interpretation of the novels of Premchand.
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