आलेख // डॉक्टर से डर लगता है // डॉ. रामवृक्ष सिंह

SHARE:

तब मैं बच्चा था। हम लोग दक्षिण दिल्ली के मस्जिद मोठ (अब ग्रेटर कैलाश-II) में किराए के घर में रहते थे। कुछ अपनी खिलंदड़ी आदतों और कुछ परिवेश ...

तब मैं बच्चा था। हम लोग दक्षिण दिल्ली के मस्जिद मोठ (अब ग्रेटर कैलाश-II) में किराए के घर में रहते थे। कुछ अपनी खिलंदड़ी आदतों और कुछ परिवेश की गंदगी के चलते मुझे अकसर फोड़े-फुंसियाँ निकल आती थीं। पढ़ने के लिए 43 नंबर बस से मैं मोतीबाग जाता था। दोपहर को वापसी में सफदरजंग अस्पताल उतर जाता। लाइन में लगकर पर्चा बनवाता। डॉक्टर को दिखाता। गेट के बाहर सड़क से पाँच-दस पैसे में एक छोटी बोतल खरीदता। उसमें अस्पताल के डिस्पेंसरी काउंटर से नीली दवा भरवाता। गोलियाँ लेता और टहलता-फुदकता घर पहुँच जाता। सब कुछ मुफ्त। बिना एक पैसा खर्च किए। महज सात वर्ष के बच्चे के लिए यह बड़ा सुखद अनुभव था। आज हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। सरकारी तो क्या, किसी अच्छे से अच्छे प्राइवेट अस्पताल में भी इतनी सुगमता से कोई बच्चा तो क्या, कोई चालीस-पचास वर्ष का अधेड़ भी हजारों रुपये खर्च करके भी इतनी सुगमता से, निर्भय होकर, बिना किसी रोक-छेंक के बढ़िया इलाज पा जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं।

डॉक्टर को देखकर हमारे मन में श्रद्धा का भाव उमड़ता था। डॉक्टर को लोग भगवान का अवतार मानते थे। क्या आज भी डॉक्टरों के लिए भारतीय नागरिकों के मन में वही भाव रह गया है? शायद हो। खोजना पड़ेगा। खोजने से तो भगवान भी मिल जाते हैं। अच्छे, भले, सरल और अपनी आय बढ़ाने के बजाय आपकी सेहत और खैरख्वाही की चिन्ता करने वाले डॉक्टर मिल जाएँगे। पर उसके लिए अनुसंधान करना पड़ेगा।

डॉक्टर और उनकी कार्यदायी संस्था- अस्पताल, दोनों आम भारतीय इन्सान के लिए डर का सबब हैं। वे हमें चंगा कर देंगे, हमारे रोग का इलाज उनके यहाँ हो जाएगा, इसकी संभावना है, किन्तु उनके हाथों हम मर जाएँगे, हमारी कोई किडनी आपरेशन थियेटर में चोरी हो जाएगी, ऑपरेशन में हमारे पेट में कोई कैंची, ब्लेड, पट्टी अथवा तौलिया छूट जाएगा, इसकी संभावना भी बराबर बनी रहती है। इसलिए हर ऑपरेशन से पहले डॉक्टर अथवा अस्पताल हमसे लिखवा लेता है- मरीज को कुछ हो गया तो डॉक्टर अथवा अस्पताल को कोई इल्जाम नहीं दिया जाएगा। यानी आप मरने के लिए अथवा शरीर का कोई अंग खोने, पक्षाघात आदि के लिए दिल-दिमाग से तैयार हों, तभी अस्पताल में भर्ती हों। कोई अस्पताल या डॉक्टर अपनी ओर से यह नहीं लिखकर देता कि हम मरीज को चंगा करके भेजेंगे। यह भी नहीं लिखकर देता कि हम मरीज़ को चंगा करने की कोशिश में अपनी जी-जीन और सर्वस्व लगा देंगे। अलबत्ता यह ज़रूर लिखवा लेता है कि मरीज़ को कुछ हो गया तो हम उस कुछ हो जाने के दायित्व से बरी रहेंगे।

यहाँ तक भी ठीक है। डॉक्टर को आप भगवान मान सकते हैं, किन्तु वह भगवान होता नहीं। अगर मरीज़ चंगा होकर बाहर आ जाए तो डॉक्टर भगवान। यदि मरीज़ का केवल शरीर बाहर आए तो सारा दोष भगवान का। भगवान सबसे बड़ा खलनायक है, उसने मरीज़ की जान ले ली। शुक्र है कि दुनिया में भगवान नाम की शै है, जिसे दोष देकर बड़े से बड़ा काण्ड किया जा सकता है। बुरी से बुरी बात हो जाए, आप भगवान को दोष दे दीजिए। अब जिसे निबटना है, जाए भगवान से निबट ले। जो भी मुकद्दमा-नालिश करनी है, भगवान पर करो। हमने तो कोशिश की, लेकिन भगवान ही नहीं चाहता था कि आप अथवा आपका मरीज़ चंगा हो जाए। उसी ने आपके मरीज़ को मार डाला। अब जो भी बातचीत, शिकवा-शिकायत, रोना-गाना करना है, सब भगवान के दरबार में होगा। यहाँ तो आप अस्पताल की फीस भरिए, कमरे का किराया चुकाइए, आईसीयू, दवाइयों, एनस्थीसिया, सर्जन, ऐंबुलेंस आदि का शुल्क चुकाइए और वह सौगात ले जाइए, जो अस्पताल ने आपके लिए वहाँ, उस कोने में सफेद चादर में लपेट कर रखवा दी है। आज का पूरा चिकित्सा-व्यवसाय ऐसा ही है। इसलिए डॉक्टर से डर लगता है।

किसी भी परिवार में बच्चे की आमद खुशी की बात होती है। फिल्मों में देखते आए। कहानियों में पढ़ते आए। अपने आस-पास के परिवेश, परिवार और रिश्तेदारियों में देखते-सुनते आए। स्वयं उसके सहभागी बनने का सौभाग्य भी पाया। जैसे ही कोई बहू-बेटी इस अवस्था में आती है, पूरा परिवार हर्षोल्लास में डूब जाता है। उसके बाद के कुछ महीने कितनी व्यस्तता और अजीब-सी उमंग से आप्लावित होते हैं, बयान करना कठिन है। गर्भिणी को महिला डॉक्टर को दिखाओ, जाँच कराओ, दवाइयाँ-टॉनिक-प्रोटीन और कैल्शियम सप्लीमेंट, उल्टी रोकने की गोलियाँ खिलाओ। कुछ दिन बीतने के बाद गर्भस्थ शिशु की हलचलें। कभी इधर लात मारी, कभी उधर हाथ फेंका। इधर पलटना, उधर घुमड़ना और घर की सयानी, बूढ़ी महिलाओं का बार-बार पूछना- बच्चा हिल-डुल रहा है न? कोई दिक्कत तो नहीं है न? भारी सामान न उठाने, ऊंची चप्पल-सैंडल न पहनने की ताकीद, पौष्टिक भोजन करने और चिन्ता-फिक्र न करने की हिदायत। बीच-बीच में लगभग हर महीने डॉक्टर के यहाँ बैठक, वज़न, हीमोग्लोबीन, अल्ट्रा-साउंड और तमाम दूसरे परीक्षण। आखिरी के महीनों में थ्री-डी अल्ट्रा साउंड और लैब से मिले चित्रों का उत्सुकता से अवलोकन। पता नहीं क्या होगा- लड़का या लड़की। ऐसे में डॉक्टर का आश्वासन- चिन्ता न कीजिए, माँ और उसका गर्भस्थ बच्चा, दोनों ठीक हैं। लगभग आठ-नौ महीनों के भाग-दौड़ वाले किन्तु उत्सव-पूर्ण दिनों के बाद अचानक एक चिन्ता आ घेरती है। डॉक्टर बताती हैं- बच्चे की नाल उसकी गर्दन में लिपट गयी है, इसलिए डिलीवरी ऑपरेशन से करनी पड़ेगी।

जब से बच्चे नर्सिंग होमों में पैदा होने लगे हैं, यह समस्या आम हो गयी है। अब अधिकतर बच्चे सिजेरियन होते हैं। पहले अधिकतर शिशु सामान्य प्रक्रिया में पैदा होते थे। अब सिजेरियन की असामान्यता ही सामान्य है। सरकारी अस्पतालों में शायद यह प्रवृत्ति कम होगी। किन्तु देश का कोई भी खाता-पीता परिवार सरकारी अस्पताल नहीं जाता। वहाँ या तो बिलकुल भुखमर्रे जाते हैं या बड़े अधिकारी और नेता। कोई-कोई हाई प्रोफाइल अपराधी भी सरकारी अस्पतालों को स्टार-होटल की तरह इस्तेमाल करने के लिए साठ-गाँठ करके वहाँ भरती हो जाते हैं। खैर.. हम तो शिशु-जन्म की बात कर रहे हैं। तो जैसे ही प्रसूति का समय नजदीक आता है, गर्भिणी महिला का पेट चीरने की तैयारी होने लगती है। कबीर ने ‘मनुवादियों’ को डाँटते हुए पूछा था- तू बाम्हन जो बाम्हनी जाया, आन बाट ह्वै क्यों नहीं आया? लो जी, ये तो आन बाट ह्वै आ गये। अब सामान्य मार्ग से आने वाले शिशु कम हो रहे हैं, आन बाट ह्वै आनेवाले अधिक। आज के शहरों-गाँवों में माँ का पेट चीरकर दुनिया में अवतरित होने वाले शिशुओं की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है। उसके बाद माँ बेचारी फटे पेट के स्वस्थ होने तक बच्चे को कंगारू मुद्रा में धारण करने की स्थिति में नहीं रह जाती। पहले-पहल निकलने वाला माँ का पीला गाढ़ा दूध भी शिशु को पिलाने का सुख उसे नहीं मिलता। यानी नवजात शिशु से माँ का जो शारीरिक, भावनात्मक संबंध बनना चाहिए था, उसकी सारी संभावना समाप्त।

आम धारणा यह है कि सामान्य प्रसव न कराने और सिजेरियन के लिए दबाव बनाने का एक मात्र कारण डॉक्टरों की धन-लिप्सा है। वे चाहते हैं कि बच्चा सिजेरियन ही हो, ताकि नर्सिंग होम का कमरा कुछ दिनों के लिए बुक हो, उसका किराया मिल जाए, ऑपरेशन करके और तदुपरान्त कुछ दिन तक प्रसूता व शिशु की परिचर्या करके मोटी रकम वसूली जा सके। इसका परिणाम यह हुआ कि जो शिशु-जन्म पहले आनन्द और सुख का स्रोत हुआ करता था, वही अब तमाम झंझटों, आर्थिक चिन्ताओं और भाग-दौड़ का सबब बन गया है। कौन है जिम्मेदार? निस्संदेह-डॉक्टर और अस्पताल।

अभी लखनऊ में एक युवक के मुँह में अल्सर हो गया। वह डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने मान लिया कि यह तो कैंसर है। उसने रस्मी तौर पर सैंपल लेकर बायोप्सी कराने के लिए भेज दिया। किन्तु अपने दिव्य ज्ञान से डॉक्टर ने जान लिया था कि यह मुँह का कैंसर है, इसलिए रिपोर्ट आने के पहले ही युवक को कीमो-थेरेपी दे दी। परिवार का अकेला चिराग कीमो-थेरेपी के विषैले प्रभाव-वश मर गया। उसके बाद बायोप्सी की रिपोर्ट आयी, जिससे पता चला कि युवक को कैंसर था ही नहीं। वह तो साधारण अल्सर था। कोई-कोई डॉक्टर ऐसे दिव्य ज्ञानी भी होते हैं। इसलिए भी डॉक्टरों से डर लगता है।

सब जानते हैं कि देश में डॉक्टरों की बहुत कमी है। यह कमी इसलिए नहीं है कि देश के बच्चे पढ़-लिखकर डॉक्टरी के पेशे में नहीं आना चाहते। वे तो डॉक्टर बनना चाहते हैं। यह कमी इसलिए है कि देश में डॉक्टरी पढ़ाने वाले कॉलेज कम हैं। हर वर्ष बीस-तीस लाख बच्चे डॉक्टरी में प्रवेश के लिए परीक्षा देते हैं, किन्तु प्रवेश केवल तीस-चालीस हजार को ही मिलता है। डॉक्टरी के कॉलेज क्यों कम हैं? इसका उत्तर तो सरकार और चिकित्सा शिक्षा के जिम्मेदार लोग ही दे सकते हैं। और डॉक्टरी पढ़ने के लिए सौ में से सौ नंबर लाना ही ज़रूरी क्यों है? यह भी वही लोग बता पाएँगे। कई-कई बच्चों को तो कई वर्ष तक कोचिंग करने के बाद प्रवेश मिल पाता है। कोचिंग में ही लाखों रुपये और चार-छह वर्ष स्वाहा हो जाते हैं।

निजी चिकित्सा महाविद्यालयों की डॉक्टरी पढ़ाई की सालाना फीस बारह-पन्द्रह लाख रुपये होती है। यानी डॉक्टर बनते-बनते बच्चे के साठ-सत्तर लाख रुपये खर्च हो जाएँगे। उसके बाद विशेषज्ञता की पढ़ाई करने के लिए भी एकाध करोड़ रुपये व्यय कीजिए। यानी पढ़ाई-पढ़ाई में एक से डेढ़ करोड़ रुपये का खर्चा। आधी उम्र निकल गयी, सो अलग। कुछ तजुर्बा हासिल करने के बाद बैंकों से कर्जा लेकर अपना क्लीनिक या नर्सिंग होम खोला, महँगे उपकरण, एसी आदि लगवाए। काउंटर-फर्नीचर, बेड-स्ट्रेचर खरीदे। दाई और नर्सें रखीं। अलग-अलग तरह की बीमारियों के लिए डॉक्टरों के साथ अनुबंध किया। इस सब में मोटा खर्चा आता है। पूरे ताम-झाम को बनाए रखने और सुचारु रूप से संचालित करने के लिए धन तो चाहिए। कहाँ से आएगा इतना धन? एकमात्र आशा का केन्द्र हैं मरीज़। हे भगवान, कोई मोटी आसामी भेज दो, ताकि मेरी पढ़ाई, मेरे क्लीनिक, मेरे नर्सिंग होम, मेरे स्टाफ, मेरी मशीनों वगैरह-वगैरह का खर्चा निकल आए और उस सबके बाद मेरे लिए भी कुछ बच जाए, ताकि मेरे पारिवारिक खर्च पूरे हो जाएँ और यदि पुलिस-थाने, नेता-हुक्काम आदि का कोई हफ़्ता-नज़राना देना हो तो उसका भी जुगाड़ हो जाए।

पूरे चिकित्सा तंत्र की धुरी है मरीज़। डॉक्टरों के क्लीनिक में एक हिप्पोक्रिटिक ओथ लिखी रहती है, जिसका आशय यह होता है कि हे भगवान, यह एक विडंबना ही है कि मेरी आजीविका इन्सानों की अस्वस्थता पर निर्भर है। मुझे तू इतनी शिफा दे कि मैं उनका अच्छे से इलाज कर पाऊँ, उन्हें चंगा कर सकूँ। हेल्दी सीजन में खाली बैठे डॉक्टरों की स्थिति देखते ही बनती है। कोई मरीज़ न आए तो डॉक्टर क्या करेंगे? दुनिया का शायद ही कोई भला आदमी यह चाहता है कि लोग दुःखी हों, बीमार हों। अपने यहाँ तो प्रार्थना की जाती है- सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:। पर यह स्थिति डॉक्टर के पेट पर लात मारने वाली है। डॉक्टरी के पेशे के लिए यह नेमत ही है कि तमाम प्रार्थनाओं के बावजूद न सब सुखी हैं, न नीरोग। नानक दुखिया सब संसार। इसलिए इन्सानों और जानवरों, यानी सभी जीव-धारियों के संसार में डॉक्टरों की अनिवार्यता बनी हुई है।

अर्थशास्त्र का सर्वज्ञात सिद्धान्त है- आपूर्ति कम होगी, माँग अधिक होगी तो दाम बढ़ेंगे। क्यों नहीं हम अधिक संख्या में छात्रों को चिकित्सा-विज्ञान के पाठ्यक्रमों में प्रवेश देते? चिकित्सा-छात्र का कुशाग्र होना ज़रूरी है। किन्तु उसका सेवा-परायण और पर-दुःख-कातर होना और भी ज़रूरी है। कम कुशाग्र हो, किन्तु मरीज़ के दुःख से द्रवित हो जाए, ऐसा चिकित्सक हमें चाहिए। कुशाग्र हो, खूब ज्ञानी हो, किन्तु कठोर हृदय हो, लुटेरी-आपराधिक मानसिकता वाला हो। ऐसा चिकित्सक किस काम का? मेडिकल कॉलेजों में दो शिफ्ट क्यों नहीं कराते पढ़ाई? सच कहें तो तीन शिफ्ट पढ़ाई भी हो सकती है। पाँच-छह घंटे से अधिक तो कोई कॉलेज-स्कूल नहीं चलता। एक शिफ्ट सुबह सात से बारह, दूसरी साढ़े बारह से साढ़े पाँच, तीसरी शाम छह से रात ग्यारह। पढ़ाइए, कितने छात्र आपको पढ़ाने हैं। अपने देश में मेडिकल शिक्षा पाने के उत्सुक छात्रों की संख्या लाखों में है। अभिभावक भी पढ़ाना चाहते हैं। काबिल भी हैं। बस उन्हें पढ़ाने के लिए सरकारी कॉलेज नहीं हैं। क्यों नहीं हैं, यह तो सरकार ही बता सकती है।

विधिवत प्रशिक्षित डॉक्टरों के न होने के कारण, देश की चिकित्सा-व्यवस्था संभालने के लिए बहुत-से अकुशल, अर्ध-शिक्षित, स्वयंभू नीम-हकीम न केवल सुदूर ग्रामीण इलाकों, बल्कि अच्छे-अच्छे शहरों की मलिन और अल्प साधन-युक्त बस्तियों में प्रैक्टिस करते मिल जाएंगे। वे साधारण खांसी-जुकाम, बुखार, दस्त, उल्टी, पेटिश की दवा दे लेते हैं, ग्लूकोज की बोतल चढ़ा लेते हैं, पट्टी बाँध लेते हैं, फोड़े चीरकर मवाद निकाल देते हैं और जख्मों पर टाँके सिल लेते हैं, पैरासिटामोल का इन्जेक्शन लगाना जानते है। यह सब उन्होंने अपने ही जैसे किसी नीम हकीम के यहाँ अथवा किसी एमबीबीएस के यहाँ दो-चार साल काम करने के बाद सीखा होता है। हिन्दी प्रान्तों में इन्हें झोला-छाप कहते हैं। क्योंकि ये अपने-अपने इलाकों में गरीब-गुरबा को चंगाई बाँटते हैं, कम पैसा लेकर केवल नुस्खे नहीं लिखते, बल्कि बाकायदा दवा देते हैं, उनकी दवा की दो-एक खुराक में ही मरीज़ को फौरी आराम हो जाता है, इसलिए वहाँ इनकी अच्छा-खासी प्रतिष्ठा होती है। ये बिना डिग्री के ‘डॉक्टर’ न हों तो आधा भारत बिना इलाज के मर जाए।

विधिवत शिक्षित डॉक्टर इन झोला-छाप डॉक्टर-सेवित इलाकों में क्यों नहीं जाते? क्यों जाएँ? बरसों की महँगी कोचिंग, महँगी चिकित्सा शिक्षा और दशकों की तपस्या के बाद उन्होंने जो ज्ञान व अनुभव हासिल किया है, क्या उसका उपयोग करके यथेष्ट धनोपार्जन करने, शहर की सुविधाओं में रहने और सुख-चैन से जीने का उन्हें कोई हक नहीं? अभाव-ग्रस्त गाँवों में सड़ने के लिए कोई डॉक्टर क्यों जाए? न वहाँ बिजली है, न सड़क, न अच्छे आवास, न मरोरंजन, न मॉल, न रिवर-फ्रंट, न पिकनिक स्पॉट, न हवाई अड्डा, न बच्चों की पढ़ाई का कोई ठिकाना। कानून-व्यवस्था का कोई नाम नहीं। जिस डॉक्टर को काला पानी की सज़ा काटनी हो वह जाए गाँव। हम तो न जाते गाँव।

इसका इलाज क्या है? डॉक्टरों की सप्लाई बढ़ाइए। माँग तो है ही। अधिक संख्या में डॉक्टर पैदा कीजिए। डॉक्टरी की पढ़ाई सस्ती कीजिए। न हो तो पाँच साल के बजाय तीन साल का डॉक्टरी-डिप्लोमा कोर्स शुरू कीजिए। जब कम दाम में डॉक्टरी सेवा की आपूर्ति बढ़ जाएगी, तब न कोई डॉक्टर जबर्दस्ती किसी गर्भिणी का पेट चीरेगा, न बैंक की किस्त अदा करने की गरज़ से पैसा बनाने के लिए किसी गरीब बेबस मरीज़ को जबरिया नर्सिंग होमों में रोककर रखा जाएगा। तब शायद हम डॉक्टर को पुनः श्रद्धा, विश्वास और अपने दुःख के त्राण-दाता के रूप में पुनर्स्थापित कर पाएँगे। अन्यथा, हम जैसे सामान्य मनुष्य तो डॉक्टर और अस्पताल, दोनों से डरते ही रहेंगे।

---0---

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. वाह भाई रामवृक्षसिंह,कितने धैर्य,मनोयोग से आपने समूची भारतीय चिकित्सा और डॉक्टरों के पेशे के मौज़ूदा सच के उन सभी पहलुओं का सिलसिलेवार ऑपरेशन कर डाला, जो मरीज,रोगों,अस्पताल,चिकित्सा शिक्षा पर भारी व्यय, धन लिप्सादि के मूल कारण और कारक हैं.सुबोध और सन्तुलित कटाक्ष, हास्यमय भाषा में आपने बहुसंख्यक भारतीयों की आर्थिक,सामाजिक दशा का कारुणिक सत्य उजागर करते हुए अपनी लेखकीय सम्वेदनात्मक्ता का भरपूर निर्वाह ही नहीं किया अपितु अनकहे ही व्यवस्था को भी कटघरे में ला खड़ा किया है.ऐसी रचना अखबार पत्रिका में छपना कारगर होता पर उन्हें सनसनीखेज ख़बरों या स्तुति गान से ही फुरसत कहाँ. लिखते रहिये. आपकी विराट सृजनात्मक सम्वेदना और साहस को नमन्!

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: आलेख // डॉक्टर से डर लगता है // डॉ. रामवृक्ष सिंह
आलेख // डॉक्टर से डर लगता है // डॉ. रामवृक्ष सिंह
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8IjWa5w_f7mRDSQacy2BDmqnrxW7MRdzIy1I5ZQlzwwPzQbvW5_1yjsZoSuEisIFo0SuKUO_mQ_trTIK57GRBU1-1u1ZvsYQGfWZaVcv0aXNQCjSDe1nD40znCp6WrCmzSxtz/?imgmax=200
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8IjWa5w_f7mRDSQacy2BDmqnrxW7MRdzIy1I5ZQlzwwPzQbvW5_1yjsZoSuEisIFo0SuKUO_mQ_trTIK57GRBU1-1u1ZvsYQGfWZaVcv0aXNQCjSDe1nD40znCp6WrCmzSxtz/s72-c/?imgmax=200
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/05/blog-post_95.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/05/blog-post_95.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content