तब मैं बच्चा था। हम लोग दक्षिण दिल्ली के मस्जिद मोठ (अब ग्रेटर कैलाश-II) में किराए के घर में रहते थे। कुछ अपनी खिलंदड़ी आदतों और कुछ परिवेश ...
तब मैं बच्चा था। हम लोग दक्षिण दिल्ली के मस्जिद मोठ (अब ग्रेटर कैलाश-II) में किराए के घर में रहते थे। कुछ अपनी खिलंदड़ी आदतों और कुछ परिवेश की गंदगी के चलते मुझे अकसर फोड़े-फुंसियाँ निकल आती थीं। पढ़ने के लिए 43 नंबर बस से मैं मोतीबाग जाता था। दोपहर को वापसी में सफदरजंग अस्पताल उतर जाता। लाइन में लगकर पर्चा बनवाता। डॉक्टर को दिखाता। गेट के बाहर सड़क से पाँच-दस पैसे में एक छोटी बोतल खरीदता। उसमें अस्पताल के डिस्पेंसरी काउंटर से नीली दवा भरवाता। गोलियाँ लेता और टहलता-फुदकता घर पहुँच जाता। सब कुछ मुफ्त। बिना एक पैसा खर्च किए। महज सात वर्ष के बच्चे के लिए यह बड़ा सुखद अनुभव था। आज हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। सरकारी तो क्या, किसी अच्छे से अच्छे प्राइवेट अस्पताल में भी इतनी सुगमता से कोई बच्चा तो क्या, कोई चालीस-पचास वर्ष का अधेड़ भी हजारों रुपये खर्च करके भी इतनी सुगमता से, निर्भय होकर, बिना किसी रोक-छेंक के बढ़िया इलाज पा जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं।
डॉक्टर को देखकर हमारे मन में श्रद्धा का भाव उमड़ता था। डॉक्टर को लोग भगवान का अवतार मानते थे। क्या आज भी डॉक्टरों के लिए भारतीय नागरिकों के मन में वही भाव रह गया है? शायद हो। खोजना पड़ेगा। खोजने से तो भगवान भी मिल जाते हैं। अच्छे, भले, सरल और अपनी आय बढ़ाने के बजाय आपकी सेहत और खैरख्वाही की चिन्ता करने वाले डॉक्टर मिल जाएँगे। पर उसके लिए अनुसंधान करना पड़ेगा।
डॉक्टर और उनकी कार्यदायी संस्था- अस्पताल, दोनों आम भारतीय इन्सान के लिए डर का सबब हैं। वे हमें चंगा कर देंगे, हमारे रोग का इलाज उनके यहाँ हो जाएगा, इसकी संभावना है, किन्तु उनके हाथों हम मर जाएँगे, हमारी कोई किडनी आपरेशन थियेटर में चोरी हो जाएगी, ऑपरेशन में हमारे पेट में कोई कैंची, ब्लेड, पट्टी अथवा तौलिया छूट जाएगा, इसकी संभावना भी बराबर बनी रहती है। इसलिए हर ऑपरेशन से पहले डॉक्टर अथवा अस्पताल हमसे लिखवा लेता है- मरीज को कुछ हो गया तो डॉक्टर अथवा अस्पताल को कोई इल्जाम नहीं दिया जाएगा। यानी आप मरने के लिए अथवा शरीर का कोई अंग खोने, पक्षाघात आदि के लिए दिल-दिमाग से तैयार हों, तभी अस्पताल में भर्ती हों। कोई अस्पताल या डॉक्टर अपनी ओर से यह नहीं लिखकर देता कि हम मरीज को चंगा करके भेजेंगे। यह भी नहीं लिखकर देता कि हम मरीज़ को चंगा करने की कोशिश में अपनी जी-जीन और सर्वस्व लगा देंगे। अलबत्ता यह ज़रूर लिखवा लेता है कि मरीज़ को कुछ हो गया तो हम उस कुछ हो जाने के दायित्व से बरी रहेंगे।
यहाँ तक भी ठीक है। डॉक्टर को आप भगवान मान सकते हैं, किन्तु वह भगवान होता नहीं। अगर मरीज़ चंगा होकर बाहर आ जाए तो डॉक्टर भगवान। यदि मरीज़ का केवल शरीर बाहर आए तो सारा दोष भगवान का। भगवान सबसे बड़ा खलनायक है, उसने मरीज़ की जान ले ली। शुक्र है कि दुनिया में भगवान नाम की शै है, जिसे दोष देकर बड़े से बड़ा काण्ड किया जा सकता है। बुरी से बुरी बात हो जाए, आप भगवान को दोष दे दीजिए। अब जिसे निबटना है, जाए भगवान से निबट ले। जो भी मुकद्दमा-नालिश करनी है, भगवान पर करो। हमने तो कोशिश की, लेकिन भगवान ही नहीं चाहता था कि आप अथवा आपका मरीज़ चंगा हो जाए। उसी ने आपके मरीज़ को मार डाला। अब जो भी बातचीत, शिकवा-शिकायत, रोना-गाना करना है, सब भगवान के दरबार में होगा। यहाँ तो आप अस्पताल की फीस भरिए, कमरे का किराया चुकाइए, आईसीयू, दवाइयों, एनस्थीसिया, सर्जन, ऐंबुलेंस आदि का शुल्क चुकाइए और वह सौगात ले जाइए, जो अस्पताल ने आपके लिए वहाँ, उस कोने में सफेद चादर में लपेट कर रखवा दी है। आज का पूरा चिकित्सा-व्यवसाय ऐसा ही है। इसलिए डॉक्टर से डर लगता है।
किसी भी परिवार में बच्चे की आमद खुशी की बात होती है। फिल्मों में देखते आए। कहानियों में पढ़ते आए। अपने आस-पास के परिवेश, परिवार और रिश्तेदारियों में देखते-सुनते आए। स्वयं उसके सहभागी बनने का सौभाग्य भी पाया। जैसे ही कोई बहू-बेटी इस अवस्था में आती है, पूरा परिवार हर्षोल्लास में डूब जाता है। उसके बाद के कुछ महीने कितनी व्यस्तता और अजीब-सी उमंग से आप्लावित होते हैं, बयान करना कठिन है। गर्भिणी को महिला डॉक्टर को दिखाओ, जाँच कराओ, दवाइयाँ-टॉनिक-प्रोटीन और कैल्शियम सप्लीमेंट, उल्टी रोकने की गोलियाँ खिलाओ। कुछ दिन बीतने के बाद गर्भस्थ शिशु की हलचलें। कभी इधर लात मारी, कभी उधर हाथ फेंका। इधर पलटना, उधर घुमड़ना और घर की सयानी, बूढ़ी महिलाओं का बार-बार पूछना- बच्चा हिल-डुल रहा है न? कोई दिक्कत तो नहीं है न? भारी सामान न उठाने, ऊंची चप्पल-सैंडल न पहनने की ताकीद, पौष्टिक भोजन करने और चिन्ता-फिक्र न करने की हिदायत। बीच-बीच में लगभग हर महीने डॉक्टर के यहाँ बैठक, वज़न, हीमोग्लोबीन, अल्ट्रा-साउंड और तमाम दूसरे परीक्षण। आखिरी के महीनों में थ्री-डी अल्ट्रा साउंड और लैब से मिले चित्रों का उत्सुकता से अवलोकन। पता नहीं क्या होगा- लड़का या लड़की। ऐसे में डॉक्टर का आश्वासन- चिन्ता न कीजिए, माँ और उसका गर्भस्थ बच्चा, दोनों ठीक हैं। लगभग आठ-नौ महीनों के भाग-दौड़ वाले किन्तु उत्सव-पूर्ण दिनों के बाद अचानक एक चिन्ता आ घेरती है। डॉक्टर बताती हैं- बच्चे की नाल उसकी गर्दन में लिपट गयी है, इसलिए डिलीवरी ऑपरेशन से करनी पड़ेगी।
जब से बच्चे नर्सिंग होमों में पैदा होने लगे हैं, यह समस्या आम हो गयी है। अब अधिकतर बच्चे सिजेरियन होते हैं। पहले अधिकतर शिशु सामान्य प्रक्रिया में पैदा होते थे। अब सिजेरियन की असामान्यता ही सामान्य है। सरकारी अस्पतालों में शायद यह प्रवृत्ति कम होगी। किन्तु देश का कोई भी खाता-पीता परिवार सरकारी अस्पताल नहीं जाता। वहाँ या तो बिलकुल भुखमर्रे जाते हैं या बड़े अधिकारी और नेता। कोई-कोई हाई प्रोफाइल अपराधी भी सरकारी अस्पतालों को स्टार-होटल की तरह इस्तेमाल करने के लिए साठ-गाँठ करके वहाँ भरती हो जाते हैं। खैर.. हम तो शिशु-जन्म की बात कर रहे हैं। तो जैसे ही प्रसूति का समय नजदीक आता है, गर्भिणी महिला का पेट चीरने की तैयारी होने लगती है। कबीर ने ‘मनुवादियों’ को डाँटते हुए पूछा था- तू बाम्हन जो बाम्हनी जाया, आन बाट ह्वै क्यों नहीं आया? लो जी, ये तो आन बाट ह्वै आ गये। अब सामान्य मार्ग से आने वाले शिशु कम हो रहे हैं, आन बाट ह्वै आनेवाले अधिक। आज के शहरों-गाँवों में माँ का पेट चीरकर दुनिया में अवतरित होने वाले शिशुओं की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है। उसके बाद माँ बेचारी फटे पेट के स्वस्थ होने तक बच्चे को कंगारू मुद्रा में धारण करने की स्थिति में नहीं रह जाती। पहले-पहल निकलने वाला माँ का पीला गाढ़ा दूध भी शिशु को पिलाने का सुख उसे नहीं मिलता। यानी नवजात शिशु से माँ का जो शारीरिक, भावनात्मक संबंध बनना चाहिए था, उसकी सारी संभावना समाप्त।
आम धारणा यह है कि सामान्य प्रसव न कराने और सिजेरियन के लिए दबाव बनाने का एक मात्र कारण डॉक्टरों की धन-लिप्सा है। वे चाहते हैं कि बच्चा सिजेरियन ही हो, ताकि नर्सिंग होम का कमरा कुछ दिनों के लिए बुक हो, उसका किराया मिल जाए, ऑपरेशन करके और तदुपरान्त कुछ दिन तक प्रसूता व शिशु की परिचर्या करके मोटी रकम वसूली जा सके। इसका परिणाम यह हुआ कि जो शिशु-जन्म पहले आनन्द और सुख का स्रोत हुआ करता था, वही अब तमाम झंझटों, आर्थिक चिन्ताओं और भाग-दौड़ का सबब बन गया है। कौन है जिम्मेदार? निस्संदेह-डॉक्टर और अस्पताल।
अभी लखनऊ में एक युवक के मुँह में अल्सर हो गया। वह डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने मान लिया कि यह तो कैंसर है। उसने रस्मी तौर पर सैंपल लेकर बायोप्सी कराने के लिए भेज दिया। किन्तु अपने दिव्य ज्ञान से डॉक्टर ने जान लिया था कि यह मुँह का कैंसर है, इसलिए रिपोर्ट आने के पहले ही युवक को कीमो-थेरेपी दे दी। परिवार का अकेला चिराग कीमो-थेरेपी के विषैले प्रभाव-वश मर गया। उसके बाद बायोप्सी की रिपोर्ट आयी, जिससे पता चला कि युवक को कैंसर था ही नहीं। वह तो साधारण अल्सर था। कोई-कोई डॉक्टर ऐसे दिव्य ज्ञानी भी होते हैं। इसलिए भी डॉक्टरों से डर लगता है।
सब जानते हैं कि देश में डॉक्टरों की बहुत कमी है। यह कमी इसलिए नहीं है कि देश के बच्चे पढ़-लिखकर डॉक्टरी के पेशे में नहीं आना चाहते। वे तो डॉक्टर बनना चाहते हैं। यह कमी इसलिए है कि देश में डॉक्टरी पढ़ाने वाले कॉलेज कम हैं। हर वर्ष बीस-तीस लाख बच्चे डॉक्टरी में प्रवेश के लिए परीक्षा देते हैं, किन्तु प्रवेश केवल तीस-चालीस हजार को ही मिलता है। डॉक्टरी के कॉलेज क्यों कम हैं? इसका उत्तर तो सरकार और चिकित्सा शिक्षा के जिम्मेदार लोग ही दे सकते हैं। और डॉक्टरी पढ़ने के लिए सौ में से सौ नंबर लाना ही ज़रूरी क्यों है? यह भी वही लोग बता पाएँगे। कई-कई बच्चों को तो कई वर्ष तक कोचिंग करने के बाद प्रवेश मिल पाता है। कोचिंग में ही लाखों रुपये और चार-छह वर्ष स्वाहा हो जाते हैं।
निजी चिकित्सा महाविद्यालयों की डॉक्टरी पढ़ाई की सालाना फीस बारह-पन्द्रह लाख रुपये होती है। यानी डॉक्टर बनते-बनते बच्चे के साठ-सत्तर लाख रुपये खर्च हो जाएँगे। उसके बाद विशेषज्ञता की पढ़ाई करने के लिए भी एकाध करोड़ रुपये व्यय कीजिए। यानी पढ़ाई-पढ़ाई में एक से डेढ़ करोड़ रुपये का खर्चा। आधी उम्र निकल गयी, सो अलग। कुछ तजुर्बा हासिल करने के बाद बैंकों से कर्जा लेकर अपना क्लीनिक या नर्सिंग होम खोला, महँगे उपकरण, एसी आदि लगवाए। काउंटर-फर्नीचर, बेड-स्ट्रेचर खरीदे। दाई और नर्सें रखीं। अलग-अलग तरह की बीमारियों के लिए डॉक्टरों के साथ अनुबंध किया। इस सब में मोटा खर्चा आता है। पूरे ताम-झाम को बनाए रखने और सुचारु रूप से संचालित करने के लिए धन तो चाहिए। कहाँ से आएगा इतना धन? एकमात्र आशा का केन्द्र हैं मरीज़। हे भगवान, कोई मोटी आसामी भेज दो, ताकि मेरी पढ़ाई, मेरे क्लीनिक, मेरे नर्सिंग होम, मेरे स्टाफ, मेरी मशीनों वगैरह-वगैरह का खर्चा निकल आए और उस सबके बाद मेरे लिए भी कुछ बच जाए, ताकि मेरे पारिवारिक खर्च पूरे हो जाएँ और यदि पुलिस-थाने, नेता-हुक्काम आदि का कोई हफ़्ता-नज़राना देना हो तो उसका भी जुगाड़ हो जाए।
पूरे चिकित्सा तंत्र की धुरी है मरीज़। डॉक्टरों के क्लीनिक में एक हिप्पोक्रिटिक ओथ लिखी रहती है, जिसका आशय यह होता है कि हे भगवान, यह एक विडंबना ही है कि मेरी आजीविका इन्सानों की अस्वस्थता पर निर्भर है। मुझे तू इतनी शिफा दे कि मैं उनका अच्छे से इलाज कर पाऊँ, उन्हें चंगा कर सकूँ। हेल्दी सीजन में खाली बैठे डॉक्टरों की स्थिति देखते ही बनती है। कोई मरीज़ न आए तो डॉक्टर क्या करेंगे? दुनिया का शायद ही कोई भला आदमी यह चाहता है कि लोग दुःखी हों, बीमार हों। अपने यहाँ तो प्रार्थना की जाती है- सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:। पर यह स्थिति डॉक्टर के पेट पर लात मारने वाली है। डॉक्टरी के पेशे के लिए यह नेमत ही है कि तमाम प्रार्थनाओं के बावजूद न सब सुखी हैं, न नीरोग। नानक दुखिया सब संसार। इसलिए इन्सानों और जानवरों, यानी सभी जीव-धारियों के संसार में डॉक्टरों की अनिवार्यता बनी हुई है।
अर्थशास्त्र का सर्वज्ञात सिद्धान्त है- आपूर्ति कम होगी, माँग अधिक होगी तो दाम बढ़ेंगे। क्यों नहीं हम अधिक संख्या में छात्रों को चिकित्सा-विज्ञान के पाठ्यक्रमों में प्रवेश देते? चिकित्सा-छात्र का कुशाग्र होना ज़रूरी है। किन्तु उसका सेवा-परायण और पर-दुःख-कातर होना और भी ज़रूरी है। कम कुशाग्र हो, किन्तु मरीज़ के दुःख से द्रवित हो जाए, ऐसा चिकित्सक हमें चाहिए। कुशाग्र हो, खूब ज्ञानी हो, किन्तु कठोर हृदय हो, लुटेरी-आपराधिक मानसिकता वाला हो। ऐसा चिकित्सक किस काम का? मेडिकल कॉलेजों में दो शिफ्ट क्यों नहीं कराते पढ़ाई? सच कहें तो तीन शिफ्ट पढ़ाई भी हो सकती है। पाँच-छह घंटे से अधिक तो कोई कॉलेज-स्कूल नहीं चलता। एक शिफ्ट सुबह सात से बारह, दूसरी साढ़े बारह से साढ़े पाँच, तीसरी शाम छह से रात ग्यारह। पढ़ाइए, कितने छात्र आपको पढ़ाने हैं। अपने देश में मेडिकल शिक्षा पाने के उत्सुक छात्रों की संख्या लाखों में है। अभिभावक भी पढ़ाना चाहते हैं। काबिल भी हैं। बस उन्हें पढ़ाने के लिए सरकारी कॉलेज नहीं हैं। क्यों नहीं हैं, यह तो सरकार ही बता सकती है।
विधिवत प्रशिक्षित डॉक्टरों के न होने के कारण, देश की चिकित्सा-व्यवस्था संभालने के लिए बहुत-से अकुशल, अर्ध-शिक्षित, स्वयंभू नीम-हकीम न केवल सुदूर ग्रामीण इलाकों, बल्कि अच्छे-अच्छे शहरों की मलिन और अल्प साधन-युक्त बस्तियों में प्रैक्टिस करते मिल जाएंगे। वे साधारण खांसी-जुकाम, बुखार, दस्त, उल्टी, पेटिश की दवा दे लेते हैं, ग्लूकोज की बोतल चढ़ा लेते हैं, पट्टी बाँध लेते हैं, फोड़े चीरकर मवाद निकाल देते हैं और जख्मों पर टाँके सिल लेते हैं, पैरासिटामोल का इन्जेक्शन लगाना जानते है। यह सब उन्होंने अपने ही जैसे किसी नीम हकीम के यहाँ अथवा किसी एमबीबीएस के यहाँ दो-चार साल काम करने के बाद सीखा होता है। हिन्दी प्रान्तों में इन्हें झोला-छाप कहते हैं। क्योंकि ये अपने-अपने इलाकों में गरीब-गुरबा को चंगाई बाँटते हैं, कम पैसा लेकर केवल नुस्खे नहीं लिखते, बल्कि बाकायदा दवा देते हैं, उनकी दवा की दो-एक खुराक में ही मरीज़ को फौरी आराम हो जाता है, इसलिए वहाँ इनकी अच्छा-खासी प्रतिष्ठा होती है। ये बिना डिग्री के ‘डॉक्टर’ न हों तो आधा भारत बिना इलाज के मर जाए।
विधिवत शिक्षित डॉक्टर इन झोला-छाप डॉक्टर-सेवित इलाकों में क्यों नहीं जाते? क्यों जाएँ? बरसों की महँगी कोचिंग, महँगी चिकित्सा शिक्षा और दशकों की तपस्या के बाद उन्होंने जो ज्ञान व अनुभव हासिल किया है, क्या उसका उपयोग करके यथेष्ट धनोपार्जन करने, शहर की सुविधाओं में रहने और सुख-चैन से जीने का उन्हें कोई हक नहीं? अभाव-ग्रस्त गाँवों में सड़ने के लिए कोई डॉक्टर क्यों जाए? न वहाँ बिजली है, न सड़क, न अच्छे आवास, न मरोरंजन, न मॉल, न रिवर-फ्रंट, न पिकनिक स्पॉट, न हवाई अड्डा, न बच्चों की पढ़ाई का कोई ठिकाना। कानून-व्यवस्था का कोई नाम नहीं। जिस डॉक्टर को काला पानी की सज़ा काटनी हो वह जाए गाँव। हम तो न जाते गाँव।
इसका इलाज क्या है? डॉक्टरों की सप्लाई बढ़ाइए। माँग तो है ही। अधिक संख्या में डॉक्टर पैदा कीजिए। डॉक्टरी की पढ़ाई सस्ती कीजिए। न हो तो पाँच साल के बजाय तीन साल का डॉक्टरी-डिप्लोमा कोर्स शुरू कीजिए। जब कम दाम में डॉक्टरी सेवा की आपूर्ति बढ़ जाएगी, तब न कोई डॉक्टर जबर्दस्ती किसी गर्भिणी का पेट चीरेगा, न बैंक की किस्त अदा करने की गरज़ से पैसा बनाने के लिए किसी गरीब बेबस मरीज़ को जबरिया नर्सिंग होमों में रोककर रखा जाएगा। तब शायद हम डॉक्टर को पुनः श्रद्धा, विश्वास और अपने दुःख के त्राण-दाता के रूप में पुनर्स्थापित कर पाएँगे। अन्यथा, हम जैसे सामान्य मनुष्य तो डॉक्टर और अस्पताल, दोनों से डरते ही रहेंगे।
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वाह भाई रामवृक्षसिंह,कितने धैर्य,मनोयोग से आपने समूची भारतीय चिकित्सा और डॉक्टरों के पेशे के मौज़ूदा सच के उन सभी पहलुओं का सिलसिलेवार ऑपरेशन कर डाला, जो मरीज,रोगों,अस्पताल,चिकित्सा शिक्षा पर भारी व्यय, धन लिप्सादि के मूल कारण और कारक हैं.सुबोध और सन्तुलित कटाक्ष, हास्यमय भाषा में आपने बहुसंख्यक भारतीयों की आर्थिक,सामाजिक दशा का कारुणिक सत्य उजागर करते हुए अपनी लेखकीय सम्वेदनात्मक्ता का भरपूर निर्वाह ही नहीं किया अपितु अनकहे ही व्यवस्था को भी कटघरे में ला खड़ा किया है.ऐसी रचना अखबार पत्रिका में छपना कारगर होता पर उन्हें सनसनीखेज ख़बरों या स्तुति गान से ही फुरसत कहाँ. लिखते रहिये. आपकी विराट सृजनात्मक सम्वेदना और साहस को नमन्!
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