(सुभाष चन्दर) मैं जब भी कभी युवा व्यंग्य लेखन परिदृश्य पर कुछ लिखने को बैठता हूँ तो मेरे सामने कई सारे किंतु – परंतु उठ खड़े होते हैं। पहला ...
(सुभाष चन्दर)
मैं जब भी कभी युवा व्यंग्य लेखन परिदृश्य पर कुछ लिखने को बैठता हूँ तो मेरे सामने कई सारे किंतु – परंतु उठ खड़े होते हैं। पहला तो यह ही है कि मैं युवा किसे मानूं ? वैसे हिंदी में 50 वर्ष तक की आयु के लोगों को युवा मानने की एक परंपरा है। इसे अगर मानता हूँ तो देखता हूँ कि जिन लोगों ने पिछले कुछेक बरसों से ही व्यंग्य लिखना शुरू किया है, पर उम्र के हिसाब से वे 50 वर्ष वाली आयु सीमा को कबके पार चुके हैं वे किस श्रेणी में आएंगे ? दूसरा कुछ युवा लेखक मित्र ऐसे भी हैं जो पिछले 15 – 20 वर्षों से लगातार लिख रहे हैं पर उम्र के हिसाब से पचासा वाली सीमा के अंदर ही हैं, उन्हें क्या माना जाए ? सच कहूँ तो बड़ी अज़ीब सा घालमेल है, इस युवा और वरिष्ठ वाले फंडे में। इससे भी बड़ी दिक्क़त यह है कि किसी उम्रदराज़ लेखक को, उसके कम वर्षों से व्यंग्य लिखने के कारण यदि युवा कह दिया तो उसके नाराज़ होने का भी पूरा ख़तरा रहता है। खैर... अपनी सुविधा के लिए बीच का रास्ता निकालते हुए उम्र के लिहाज़ से युवा (यानी 50 वर्ष के लगभग या कम) और कुछ ही वर्षों से व्यंग्य लेखन में उतरने वाले रचनाकारों को युवा व्यंग्यकार मानकर अपनी बात कहना चाहूंगा। अगर इससे किसी को कोई कष्ट पहुंचे तो इसके लिए अग्रिम क्षमाप्रार्थी हूँ।
अगर हम समकालीन युवा व्यंग्य परिदृश्य पर एक दृष्टि डालें तो हम देखते हैं कि इसके रचनाकारों की मुख्य रूप से चार श्रेणियां दिखाई देती हैं। पहली श्रेणी में वे व्यंग्यकार आते हैं जिनके लिए व्यंग्य, अपने अंदर की बेचैनी को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है। वे जनोन्मुखी, सरोकारपरक व्यंग्य के पक्षधर हैं और शोषित की आवाज़ बनना चाहते हैं। उनके हाथों में व्यंग्य एक हथियार की तरह होता है जिससे वे विसंगतियों पर प्रहार करने को व्याकुल दिखते हैं। ऐसे अधिकांश व्यंग्यकार गंभीर व्यंग्य के पक्षधर होते हैं और अधिकांशत :हास्य से या तो सुरक्षित दूरी बनाकर चलते हैं या फिर हास्य को एक सीमा से अधिक प्रयोग न करने के प्रति कटिबद्ध होते हैं ।यह बात दीगर है कि कई बार उनकी यह गंभीरता और हास्य से दूरी बनाए रखने की सायास कोशिश व्यंग्य के साधारणीकरण में बाधा भी बनती है और जिस आम आदमी के लिए वे लिखते हैं, उस तक ही उनका व्यंग्य नहीं पहुंच पाता। ऐसा भी होता है कि कई बार उनकी सरोकारपरकता अभिधा मे भी उतर आती है। इस कमी को छोड़कर वह नये विषयों को न सिर्फ़ उठाने की कोशिश करते हैं बल्कि विसंगतियों की गहराइयों में जाकर उसके मर्म को टटोलने की कोशिश भी करते हैं। इसी के साथ अपने शिल्प को भी लगातार मांजते रहते हैं। नया कुछ नया और ठोस देने की प्रवृति उनकी खासियतों में शुमार होती है। इस श्रेणी के व्यंग्यकार बहुत कम हैं पर जितने भी हैं, उनसे व्यंग्य के बेहतर भविष्य की आशा की जा सकती है।
दूसरी श्रेणी के व्यंग्यकारों में वे युवा रचनाकार हैं जो सरोकारों को लेकर उतने गंभीर तो नहीं है पर ऐसी प्रकृति की रचनाएं आने पर उनका निर्वाह कर लेते हैं। उनके पास विषयों की सामान्यतः कोई कमी नहीं होती। उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनका शिल्प होता है जिससे वह अक्सर प्रभावित करते हैं। विट और आयरनी के हथियारों से लैसं ये युवा निबंध हो या व्यंग्य कथा, अखबारी व्यंग्य की सीमा हो या पत्रिकाओं – पुस्तकों का खुला आकाश – हर जगह अपनी छाप छोड़ते दिखाई देते हैं। पत्र-पत्रिकाओं की पहली पसंद अक्सर वे ही होते हैं।
तीसरी श्रेणी में वे युवा हैं जो विषयों की नवीनता जैसे मामलों में ज्यादह माथा-पच्ची नहीं करते। उनकी अधिकांश रचनाएं राजनैतिक और समसामयिक सामाजिक घटनाओं पर केन्द्रित होती हैं। चटख भाषा में, विट और आयरनी के साथ खेलते हुए, वे पठनीयता के स्तर पर प्रभावित करने वाली ऐसी रचनाएं देते हैं जो चाहे कुछ ठोस दे भले न पाएं, पर व्यंग्य पढ़ने जैसा आनंद जरूर देती हैं। ऐसे रचनाकारों की तादाद व्यंग्य में बहुत बड़ी है।
अंतिम श्रेणी में, वे व्यंग्यकार आते हैं जो व्यंग्य की लोकप्रियता की चमक से प्रभावित होकर इधर आ गये हैं जिन्हें न व्यंग्य की परंपरा का ज्ञान है, न वे व्यंग्य की शक्ति से वे परिचित हैं। व्यंग्य उनके लिए शीघ्रता से अखबारों में जगह पा लेने का साधन भर है। सपाटबयानी या कभी-कभी थोड़े से विट या आयरनी के तीरों से वे व्यंग्य के मृग का शिकार कर लेना चाहते हैं। वे न तो व्यंग्य निबंध में आकर्षित करते हैं और न ही व्यंग्य कथा में क्योंकि साधारण निबंध और व्यंग्य निबंध और कथा और व्यंग्य कथा के बीच का अंतर न तो उन्हें पता होता है और न ही वे जानने की कोशिश करते हैं। दुर्भाग्य से इनकी संख्या व्यंग्य में अच्छी खासी है। यही हैं जिनके कारण युवा व्यंग्यकारों पर बहुत से आरोप लगते हैं।
अब चूंकि आरोपों का जिक्र किया ही है और नोट्स के माध्यम से बात कर ही रहा हूँ तो लगे हाथ युवा व्यंग्यकारों पर लगने वाले कुछ आरोपों की भी बात कर ही लूँ। वैसे इन आरोपों के असली अधिकारी ये अंतिम श्रेणी वाले व्यंग्यकार ही अधिक हैं पर इनका खमियाजा पूरे युवा व्यंग्यकार समुदाय को उठाना पड़ता है। खैर... युवा व्यंग्यकारों पर लगने वाले आरोप कमोबेशी निम्नलिखित हैं :
1. नए व्यंग्यकार नये विषय ढूढने की कोशिश कम ही करते हैं। अधिकांशतः वह पुराने घिसे-पिटे विषयों पर ही केंद्रित हैं। उनकी अधिकांश रचनाएं अखबारों में छपी राजनैतिक/ सामाजिक लोक रुचि की घटनाओं पर आधारित होती हैं। अधिकांश रचनाकार चटखारेदार टिप्पणियों को ही व्यंग्य समझने का भ्रम पाले हुए हैं। उनके पास नया शिल्प और प्रस्तुतीकरण की तकनीक अच्छी है, इसमें वे लगातार प्रयोग भी कर रहे हैं पर विषय के आधार पर वे नया कम ही दे पा रहे हैं। वे 350-700 शब्दों के बीच सिमटकर रह गये हैं। कुछ बड़ा लिखने में उनकी सांसें फूल जाती हैं । इसीलिए व्यंग्य में बड़ी रचनाएं नहीं आ पा रही हैं। उनके अखबारों के स्तंभों तक सीमित रह जाने के कारण व्यंग्य कथाएं और व्यंग्य उपन्यास भी कम ही आ पा रहे हैं। ऐसे में, व्यंग्य के ‘भविष्य’ के प्रति खतरा पैदा हो रहा है। ऐसे आरोप अधिकांश वरिष्ठ रचनाकारों ने लगाये हैं। (मैं स्वीकार करता हूँ कि एकाध बार मैं भी इनमें था।) लेकिन वरिष्ठों के इन आरोपों की सत्यता की अगर ईमानदारी से जांच की जाए तो हम पाते हैं कि युवा जिन वरिष्ठों से प्रेरणा पाते हैं, उनके हाल के लिखे को पढ़कर वे उनसे कितनी प्रेरणा ले पाते हैं ? यह सोचने का विषय है ।वस्तुस्थाती यह है कि अधिकांश वरिष्ठ रचनाकार अभ्यास से लिख रहे हैं। कुछ चुक गये हैं,कुछ अपने आप को दोहरा रहे हैं तो कुछ के कस-बल उम्र ने निकाल दिये है। कुछ नया, कुछ ठोस देने को उनके पास मुश्किल से ही बचा है। अगर ऐसा नहीं है तो वे स्वयं बता दें कि पिछले बीसियों वर्षों से उन्होंने ऐसी कौन सी रचना लिखी है जिसका उल्लेख किया जा सके जिसे पढ़कर युवा प्रेरणा ले सकें । बरसों से वे अपने पुराने लिखे को भुना रहे हैं। अपने मुंह मिंया मिट्ठू बन रहे हैं। गुरू – चेला एपीसोड चला रहे हैं। कुछ को पुरस्कारों की राजनीति की आँधी ले उड़ी है तो कुछ को महान कहलाने की सनक ले गयी । कुछ पर विद्वता हावी होने लगी है । वे व्यंग्य में दर्शन को उतारने की ज़िद में, उसे दुरूह बनाने के काम में जुटे हुए हैं। युवाओं और अन्य समकालीनों पर सपाटबयानी के आरोप लगाने वाले खुद उसके शिकार हो रहे हैं। कुछ वरिष्ठों को अपने हालिया लेखन पर भरोसा नहीं रहा तो वह अपनी बीसियों वर्षों पुरानी किताबों को नये नामों से बाज़ार में उतार रहे हैं। ऐसी किताबें भी देखने को मिली हैं जिनमें एकाध रचना छोड़कर सारी रचनाएं पुराने संग्रहों की थी। क्या यह हास्यास्पद स्थिति नहीं है ? क्या ऐसे वरिष्ठों से ही युवा रचनाकार प्रेरणा ग्रहण करेंगे ?
मुझे याद है वरिष्ठ व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने एक बार कहा था कि हमारी पीढ़ी का सौभाग्य था कि हमने परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्रनाथ त्यागी आदि की पीढ़ी को पढ़कर लिखने के संस्कार ग्रहण किये थे। हमारी बाद वाली पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि वह हमें पढ़कर सीखने की कोशिश कर रही हैं। पहले तो हमें खुद अपना लिखना सुधारना होगा, तभी तो हम युवाओं को उपदेश दे पायेंगे। व्यंग्य कैसा होना चाहिए, इस पर उपदेश देने से पहले, हमें बेहतर व्यंग्य लिखकर उनके सामने लाना होगा। देखो, यह है बढ़िया व्यंग्य, ऐसा लिखो।
यहाँ में ज्ञान चतुर्वेदी से सहमत हूँ। हमारी पीढ़ी के पास प्रेरणा देने के लिए परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्रनाथ त्यागी आदि अग्रज रचनाकारों की पीढ़ी मौजूद थी जिन्हें पढ़कर हम सोचते थे कि काश ! हम ऐसे लिख पाते। परसाई की दृष्टि, उनकी सहजता, शरद जोशी- श्रीलाल शुक्ल का शैली चातुर्य, रवीन्द्रनाथ त्यागी की विट संपन्नता, शंकर पुणतांबेकर की जनोन्मुखता, सुदर्शन मजीठिया का फक्कड़पन, केशव चन्द्र वर्मा की बौद्धिक व्यंग्य की बानगी,कृष्ण चराटे की विविधता,जी.पी. श्रीवास्तव – अन्नपूर्णानंद वर्मा का जबरदस्त हास्य बोध, राधाकृष्ण की सजग से सामान्य पाठक बीच की दूरी करने की सार्थक कोशिशें, अज्ञात शत्रु की सरोकारपरकता, नरेन्द्र कोहली की प्रहारात्मकता , गोपाल चतुर्वेदी का विसंगति बोध... इनके अलावा भी और न जाने कितने व्यंग्यकारों से हमें सीखने को मिला। उनमें से आज भी कुछ हमारे बीच हैं जिनसे हम सीखने की कोशिश कर रहे हैं। पर बात यहां फिर आती है कि अपवादों को छोड़ दिया जाए तो वरिष्ठों की पीढ़ी में कितने रचनाकार हैं जो नये लोगों को, कुछ नया दे पाने का दमखम रखते हैं जो ताल ठोंककर कह सकते हों – यह देखो, यह है व्यंग्य।
बेहतर तो यह होगा कि ऐसे वरिष्ठ रचनाकार जिनके पास कहने को कुछ नया, कुछ सार्थक नहीं बचा है। वे लिखना बंद करके, अपने लेखन के अनुभव साझां करें। उनके पास एक समय एक विज़न, एक उद्देश्य रहा है। उनके पास अच्छे और बुरे व्यंग्य में फर्क जानने की समझ बाकी रही होगी, उससे नई पीढ़ी का मार्ग दर्शन करें। क्या करना है, क्या नहीं करना है के बारे में दिशा निर्देश दें। यही उनके और व्यंग्य के लिए बेहतर भी होगा।हाँ ..और इसके साथ ही, वह नई पीढी को गलियाने के मौके खोजना भी छोड़ ही दें तो बेहतर होगा ।
खैर ... मैं फिर से युवा व्यंग्यकारों पर लौटता हूँ। हमने उन पर आरोप लगाये कि वे बड़ा नहीं लिख पा रहे हैं,अखबारों में फिट होने के लोभ में बड़ी रचनाओं पर ध्यान नहीं दे रहे हैं , व्यंग्य कथा, व्यंग्य उपन्यास, व्यंग्य नाटकों आदि का कम होना उनकी चिंता का विषय नहीं है। याद रहे कि जब भी श्रेष्ठ व्यंग्य की बात आती है तो हमें व्यंग्य कथाएं या व्यंग्य उपन्यास ही अधिक याद आते हैं। अब अगर हम स्थिति का विशेलषण करें तो देखते हैं कि व्यंग्य कथाओं के प्रकाशन की जगह बची कितनी है ? धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका जैसी पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं जो अकार में बड़ी व्यंग्य कथाओं , बड़े व्यंग्य निबंधों आदि के प्रकाशन का एक माध्यम भी थीं और उनमें छपने से लेखक को स्वीकृति मिलती थी। क्या आज कोई भी पत्रिका ऐसी है जिसमें लेखक छपे और उसे प्रतिष्ठित व्यंग्यकार मान लिया जाए। अखबारों के रविवासरीय पृष्ठों /होली विशेषांको आदि में भी शब्द सीमा का अघोषित अजेंडा लगभग लागू हो ही गया है , कुछेक अखबारों के रविवारीय / होली परिशिष्टो में अधिकतम सीमा 1500 शब्द तक है, फिर पत्रिकाएं/पत्रिकाओं में भी व्यंग्य कथाओं के लिए बहुत ज़गह नहीं है। हास्य-व्यंग्य/रम्य रचना जैसे शीर्षको से किसी एक रचना का बमुश्किल स्कोप बन पाता है। ले-देकर व्यंग्य प्रधान पत्रिकाएं व्यंग्य यात्रा, अट्टहास आदि बचती हैं जिनमें आकार में बड़े व्यंग्य खप सकते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि बड़े आकार की रचनाएं सिर्फ व्यंग्य संग्रहों में ही जगह पा पाती हैं। फिर बड़ी रचनाएं कहाँ जायेंगी ,जिनमें लेखक खुल के अपनी बात कहने ,अपना कौशल दिखाने का दावा कर सकता है । ऐसे तो बड़े व्यंग्यकारों के उदय का एक रास्ता ही बंद हो गया ना। सच कहें तो आज बड़ी रचनाओं (शब्द संख्या की दृष्टि से) के प्रकाशन के लिए स्थान बहुत कम है। उन्हें अन्यत्र प्रकाशन कहीं उपलब्ध ही नहीं होता । प्रश्न यह उठता है कि जब प्रकाशन की सुविधा बहुत कम हैं तो ये व्यंग्य कथाएं वगैरहा छपेंगी कहाँ ? अगर आरोप लगाने हैं तो आगे के रास्ते भी सुझाए जाने चाहिए। हां... व्यंग्य उपन्यास को लेकर युवाओं की बेरुखी जरूर प्रश्नों के दायरे में आती है। वह भी तब, जबकि पाठक व्यंग्य के उपन्यासों को हाथो हाथ लेता है और प्रकाशक भी उन्हें खुशी-खुशी छापने को तैयार हो जाता है। इसके बाद भी युवा रचनाकारों के व्यंग्य उपन्यास गिनती के ही आए हैं। यह सच है कि हर व्यंग्यकार का टेम्परामेंट उपन्यास का नहीं होता, पर जिन रचनाकारों का टेम्परामेंट और शिल्प इस बात की इजाज़त देता है, उन्हें इस ओर कदम बढ़ाने चाहिए क्योंकि व्यंग्य उपन्यास में अपनी बात कहने की जो स्वतंत्रता है, शिल्प कौशल को बड़े स्तर पर दर्शाने की जो क्षमता है, प्रयोग धर्मिता के नये आयाम दिखाने की जो गुंजाइश है, वह अन्यत्र कम ही है। शशिकांत सिंह 'शशि', मलय जैन आदि कुछ युवा व्यंग्यकारों ने इस सम्बंध में सार्थक कोशिशें की हैं, पर इन कोशिशों के आकाश को और विस्तार मिलना अपेक्षित है।
ये तो बात हुई उन आरोपों की, जिनको आसानी से काटा जा सकता था पर सच यह भी है कि कुछ जगहें वाकई ऐसी हैं जहां युवा रचनाकारों से शिकायत की जा सकती है। मसलन विषयों की विविधता पर – इस क्षेत्र में अभी और काम किए जाने की आवश्यकता है। ग्रामीण जीवन की विसंगतियों पर बहुत कम लिखा जा रहा है। धार्मिक विद्रूपों पर बहुत कम युवा प्रहार कर रहे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंध, प्रदूषण, जल की कमी, वृक्षारोपण, शिक्षा जगत के विद्रूप आदि बहुत से विषय हैं जो अपने साथ न्याय किए जाने की मांग करते हैं। कम ही व्यंग्यकार ऐसे हैं जिन्होंने इन्हें छूने की कोशिश की है। राजनीति,प्रशासन और साहित्य से आगे भी जहां हैं हुज़ूर ।
खैर... आरोप – प्रत्यारोपण का सिलसिला खत्म हुआ। अब बातें ... युवा व्यंग्यकारों की, उनके काम की। उनकी, जिन्होंने अपनी रचनाधर्मिता से प्रभावित किया है। पहले उन रचनाकारों की जो अन्य विधाओं से व्यंग्य में आये, पर व्यंग्य में आमद की दृष्टि से युवा हैं । इनमें सुशील सिद्धार्थ (हाल ही में स्वर्गीय) ,निर्मल गुप्त, अरविंद कुमार, ,संजीव जायसवाल संजय,गुरमीत बेदी आदि का नाम लिया जा सकता है। इनमें सर्वाधिक चमकदार व्यंग्य लेखन सुशील सिद्धार्थ ने किया है। बेहतरीन व्यंग्य शिल्प के धनी सुशील ने अपनी विशिष्ट शैली से सभी को चौंकाया था। 2011 में प्रकाशित उनके व्यंग्य संग्रह 'नारद की चिंता' ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। उसके बाद 'मालिश महापुराण', 'हाशिये का राग' और 'राग लंतरानी' जैसे एक – के बाद एक आये तीन और संग्रहों ने उन्हें व्यंग्य का एक जरूरी लेखक बना दिया। उनके व्यंग्य कर्म की सबसे बड़ी खूबी उनके शिल्प कौशल रहा तो कमी यह रही कि उनके यहां विषयों की विविधता कम हैं। उनके अधिकांश व्यंग्य साहित्यिक विसंगतियों पर हैं जो बहुत दूर तक नहीं जा पाते और विषय के स्तर पर पुनरावृत्ति का ख़तरा भी पैदा करते हैं। ललित व्यंग्य निबंध लेखन के अलावा सुशील ने व्यंग्यालोचन और संपादन में भी श्रेष्ठ काम किया है।
इसी कड़ी में निर्मल गुप्त आते हैं जो कविता के सार्मथ्यवान रचनाकार हैं। एक संवेदनशील और प्रयोगधर्मी कवि के रूप में विख्यात निर्मल ने व्यंग्य लेखन में कुछेक वर्षों से ही कदम रखा है। वह एक बड़े दैनिक में व्यंग्य का कॉलम भी लिख रहे हैं। उनका भाषाई कौशल जिसमें काव्योचित सौंदर्य भी है, उनकी शक्ति भी है और सीमा भी। उनकी बौद्धिकता और भाषाई खिलवाड़ कई बार तो प्रभावित करता है, पर कई बार ऐसा भी होता है कि वह व्यंग्य के उद्देश्य की पूर्ति में, उसके साधारणीकरण में बाधा डालने का काम भी करता है। अरविंद कुमार सिद्धहस्त कहानीकार है। वह व्यंग्य कथा के फॉर्मेट में तो प्रभावित करते हैं, पर व्यंग्य निबंध में, जहाँ शिल्प कौशल की बड़ी जरूरत होती है, वहां उनसे अधिक मेहनत अपेक्षित की अपेक्षा होती है। संजीव जायसवाल संजय दोनों ही फॉर्मेट में प्रभावित करते हैं पर वह व्यंग्य में नियमित नहीं है। अरुण अर्णब खरे ने बहुत बाद में व्यंग्य लेखन शुरू किया है। उन्होंने तुलनात्मक रूप से नये विषयों को उठाया है और उन्हें साधने की कोशिश की है। ऐसे ही पंकज सुबीर ,हरेप्रकाश उपाध्याय,अशोक मिश्र आदि बहुत सारे व्यंग्यकार हैं जिन्होंने अपनी मूल विधा के साथ व्यंग्य के सशक्तीकरण में भी अपनी सेवाएं प्रदान की हैं ।
इनके अलावा व्यंग्यकर्म को समर्पित युवा व्यंग्यकारों में शशिकांत सिंह 'शशि' ने बहुत प्रभावित किया है । गंभीर सरोकारपरक व्यंग्यधर्मिता के पक्षधर शशिकांत ने व्यंग्य निबंध, कथा और उपन्यास तीनों ही फॉर्मेटों में अपनी प्रतिभा दर्शाई है। उनके बदन दबाओ पार्थ, सांगर मंथन चालू है, जोकर जिंदाबाद जैसे कई संग्रह और 'दीमक', प्रजातंत्र के प्रेत जैसे दो व्यंग्य उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। वैसे उनके व्यंग्यकार का उत्कृष्ट रूप व्यंग्य कथाओं में देखने को मिलता है। वह प्रसंग वक्रता का बेहतरीन प्रयोग करते हैं। वक्रोक्ति और सांकेतिकता का संतुलन उनकी शक्ति है ।उनसे व्यंग्य जगत को बहुत आशाएं हैं। इसी क्रम में अनूपमणि त्रिपाठी का नाम लिया जा सकता है। अनूप उन व्यंग्यकारों में से हैं जो व्यंग्य को बैठे-ठाले का लेखन न मानकर उसे अव्यवस्था के खिलाफ़ हथियार मानते हैं। व्यंग्य निबंध और कथा दोनों पर उनका जबर्दस्त नियंत्रण है। उनके इकलौते संग्रह 'शो रूम में जननायक' में उनकी अनेक बढ़िया रचनाएं संकलित हैं जो उनके श्रेष्ठ व्यंग्यकार होने के दावे को पुष्ट करती है। इसी कड़ी में अनुज खरे का नाम भी लिया जा सकता है। अनुज अपने विषयों की विविधता, विशिष्ट शैली और सोद्देश्यता के कारण विशेष रूप से आकर्षित करते हैं। उन्होंने अपने व्यंग्य संकलनों 'परम श्रद्धेय मैं खुद', 'चिल्लर चिंतन' से खुद को एक प्रभावी व्यंग्कार के रूप में स्थापित किया है। इसी क्रम में अनुराग बाजपेयी एक जरूरी नाम है।
यथास्थितिवादी जड़ता को तोड़ने के पक्षधर अनुराग ने अपने व्यंग्यों में सोद्देश्य जनोन्मुखी व्यंग्य की प्रभावी बानगी प्रस्तुत की है। उनके 'खादी का रुमाल' रेगिस्तान में बाढ़ उत्सव जैसे संग्रह उनके व्यंग्यकार की श्रेष्ठता पर मुहर लगाते दीखते हैं। अजय अनुरागी के आधा दर्जन से अधिक व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और पाठकों के मध्य चर्चित रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी शक्ति उनकी भाषा है। वक्रोक्ति, सांकेतिकता और कटुक्ति के द्वारा वह अपने व्यंग्य को सशक्त बनाते हैं। लालित्य ललित व्यंग्य में उभर रहे हैं पर उनसे कथ्य को और गंभीरता से लेना अपेक्षित है । जगदीश ज्वलंत के लिए व्यंग्य अव्यवस्थाओं पर, अपने आक्रोश को अभिव्यक्ति देने का माध्यम हौ। तुलनात्मक रूप से वह व्यंग्य कथा में अधिक आकर्षित करते हैं। उनकी खासियत यह है कि वह काफ़ी कम शब्दों में व्यंग्य कथा की बुनावट को साध लेते हैं। इसी क्रम में वीरेन्द्र सरल का उल्लेख भी जरूरी है। वह अपनी व्यंग्य कथाओं में प्रसंग वक्रता का बेहतरीन प्रयोग करते हैं। अलंकार रस्तोगी स्तंभ लेखन में कई बार प्रभावित करते हैं। विशेष रूप से इन दिनों उनके लेखन में और धार आई है। संतोष त्रिवेदी व्यंग्य में गभीर सरोकारों के पक्षधर हैं। राजनैतिक व्यंग्यों पर उनकी पकड़ अच्छी हैं, वहां वह अक्सर प्रभावित करते हैं। पर उन्हें जानना होगा कि सिर्फ़ राजनैतिक व्यंग्य ही व्यंग्य नहीं हैं, उन्हें अपने विषयों में विविधता लानी होगी। नीरज वधवार हास्य मिश्रित व्यंग्य लेखन में विश्वास करते हैं। उनके पास जबर्दस्त विट है जिसका वह बेहतर उपयोग करते हैं। अनूप शुक्ल भी शैलीय प्रतिमानों के साथ खिलवाड़ करके व्यंग्य उपजाने में माहिर हैं ,उनका नए विषयों के साथ ट्रीटमेंट और सुरुचिपूर्ण हास्यबोध उन्हें अलग खडा करता है। शशांक दुबे वक्रोक्ति और सांकेतिककता के बेहतर प्रयोग से अपने व्यंग्यों में धार लाते हैं । अंशुमाली रस्तोगी भी अपनी विट संपन्नता के कारण जाने जाते हैं। उनकी रचनाओं में एक अलग खिलंदड़ापन है जो उनकी रचनाओं की पठनीयता को बढ़ाता है। अभिषेक अवस्थी के पास भी बात कहने की अपनी चुटीली शैली है, वह हंसते – हंसाते चुटकी लेने के पक्षधर हैं। अनुज त्यागी भी इसी शैली के रचनाकार है पर उन्हें छोटे फॉर्मेट के अलावा भी अपनी प्रतिभा दर्शानी होगी। कृष्ण कुमार आशु अपनी रचनाओं में गंभीर व्यंग्य कर्म की बानगी प्रस्तुत करते हैं। उनके व्यंग्य संग्रह 'स्कैंडल मार्च' की व्यंग्य कथाएं अपनी सरोकारपरकता के कारण प्रभावित करती हैं ।
सुमित प्रताप सिंह भी इसी तरह अपनी व्यंग्य कथाओं से आकर्षित करते हैं।विट और आयरनी का सही संतुलन उनकी शक्ति है । उनके कई व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ऐसे ही व्यंग्यकारों में एक पंकज प्रसून हैं जिनके पास प्रतिभा है वह हास्य कथा और व्यंग्य कथा दोनों पर समान रूप से अधिकार रखते हैं और प्रभावित भी करते हैं। पर उनकी प्राथमिकता व्यंग्य कविता और मंच होने के कारण, उनसे अब ज्यादा आशा नहीं की जा सकती। सुरजीत ने छोटे फ़ॉर्मेट के व्यंग्य निबंधों में अपना प्रभाव छोड़ा है। मलय जैन ने अपने व्यंग्यों की अपेक्षा अपने व्यंग्य उपन्यास ‘ढ़ाक के तीन पात’ में अधिक प्रभावित किया है । डॉ. हरीश कुमार सिंह के पास भी व्यंग्य की अच्छी समझ है ,वह निबंध और कथा दोनों माध्यमों का व्यंग्य के लिए सफलतापूर्वक प्रयोग करते हैं । अतुल चतुर्वेदी ने भी व्यंग्य को साधने मंव खासी मेहनत की है ,कई बार वह प्रभावित भी करते हैं ।गौरव त्रिपाठी व्यंग्य उपन्यास भी लिख चुके हैं पर वह शिल्प को साधने में थोड़ा और श्रम करें तो कहीं बेहतर व्यंग्य सृजन कर सकते हैं। ऐसे ही अनेक व्यंग्यकार हैं जिन्होंने अपनी शैलीय नवीनता और प्रस्तुतीकरण के अंदाज़ से आकर्षित किया है, इनमें ,शरद उपाध्याय ,वागीश सारस्वत, अरविंद कुमार साहू,राजेश सेन ,अरविन्द पथिक , रमेश तिवारी, अरविंद कुमार खेड़े, विनोद कुमार विक्की, मोहन मौर्य, शंखधर दुबे,अकबर महफूज़ आलम रिज़वी ,ललित शर्मा ,आशीष दशोत्तर ,अतुल कनक ,कुंवर देवेन्द्र सिंह शिशोदिया ,शशि कुमार सिंह ,राम नारायण मीना हलधर ,ओम नागर ,पीयूष पांडे ,संदीप सक्सेना ,आलोक सक्सेना ,अनिल उपाध्याय , अजीत श्रीवास्तव ,संजीव कुमार ,अनुज त्यागी , ,मनोज लिमये ,जीतेंद्र जीतू,विजी श्रीवास्तव ,किशोर श्रीवास्तव , आलोक खरे,राजेश मान्झवेकर , आसिम अनमोल आदि का नाम लिया जा सकता है। और भी बहुत सारे नाम हैं जिनका अपनी अल्पज्ञता या एकदम से याद न आने के कारण उल्लेख नहीं कर पा रहा हूँ ,उसके लिए अग्रिम क्षमाप्रार्थी हूँ । इधर व्यंग्य में कुछ आलोचक भी युवाओं के बीच से आये हैं जिनमे डा. रमेश तिवारी अपने गहन अध्ययन ,विचारों की प्रखरता और मूल्यांकन की ईमानदार कोशिशों के कारण विशेष रूप से आकृष्ट करते हैं ।एम.एम. चंद्रा ने भी अपने आलोचनात्मक कार्यो से ध्यान आकर्षित किया है । निकट भविष्य में उनसे बड़े काम की आशा की जा सकती है ।राहुल देव ने सम्पादन के क्षत्र में अच्छा काम किया है,उनसे आलोचना में भी गम्भीर कार्य की अपेक्षा रहेगी ।भुवनेश्वर उपाध्याय ने भी कुछ अच्छे आलोचनात्मक लेखों से ध्यान आकृष्ट किया है । इस क्षेत्र में युवाओं के लिए काभी संभावनाएं हैं यहाँ उनका हमेशा स्वागत है ।
युवा व्यंग्य लेखन में महिला व्यंग्यकारों के योगदान की बात करें तो इस समय काफी रचनाकार दिखाई दे रही हैं ,ऐसा व्यंग्य के इतिहास में कदाचित पहली बार हुआ है । महिला युवा व्यंग्यकारों में शेफाली पांडे ने अपने कथ्य और शिल्प दोनों से प्रभावित किया है। उनका संकलन 'मज़े का अर्थशास्त्र' सरोकारों की गंभीरता और अर्थवत्ता के कारण विशेष रूप से आकर्षित करता है। इंद्रजीत कौर अपने लेखन में गंभीर व्यंग्यकर्म की बानगी प्रस्तुत करती हैं । व्यंग्यकथाओ में वह विशेष रूप से प्रभावित करती है। यही स्थिति अर्चना चतुर्वेदी की भी है, वह व्यंग्य कथाओं में तो बेहतर हैं पर व्यंग्य निबंध में उन्हें शिल्प को और साधने की आवश्यकता है। सुनीता शानू ने अपने पहले व्यंग्य संग्रह से आकर्षित किया था, बाद में उनका व्यंग्य लेखन शिथिल रहा है। युवा रचनाकारों में आरिफ़ा एविस में अच्छी संभावनाएं हैं, वह विद्रूपों के प्रति अपनी प्रहारात्मकता के तेवर से प्रभावित करती हैं। पल्लवी त्रिवेदी के व्यंग्य अपनी विशिष्ट शैली और विसंगतिबोध के कारण प्रभावित करते हैं ।वीणा सिंह के लेखन में शनै: शनै: सुधार आ रहा है ,वह कई बार आपको चकित भी कर देती हैं ।अनीता यादव का व्यंग्यकार तीखी चुटकियाँ लेने में विश्वास करता है। मीना सदाना अरोरा ने लक्कडबग्घे जैसी व्यंग्य कथाओं से चौंकाया है l अन्य रचनाकारों में शशि पांडे, अंशु प्रधान,शुचिता श्रीवास्तव ,मोनिका अग्रवाल ,प्रियंका सिंह ,नूतन यादव,शोभना श्याम ,रचना त्यागी , शशि पुरवार, किरण आर्य, सोमी पांडे, रंजना रावत, वंदना गुप्ता आदि का उल्लेख किया जा सकता है।
अन्त में, अपने युवा व्यंग्यकार साथियों से बस इतनी सी गुज़ारिश करना चाहूंगा कि पहले तो वे अपने वरिष्ठों और समकालीनों को खूब पढ़े, गुने, फिर लिखें। दूसरा वे अखबारों – पत्रिकाओं की मांग पर आधारित और स्थान सीमा में बंधा लेखन जितना चाहे करें पर कभी-कभार स्वंतत्र होकर अपने मन से भी व्यंग्य लेखन करें। जहां शब्दों और विषय की सीमाएं न हों। कभी-कभार ही सही पर वह सब भी लिखें जो उन्हें लिखना चाहिए, कथ्य और शैली के स्तर पर प्रयोगधर्मिता भी दिखायें।संभव है इन रचनाओं के लिए बड़े अखबार-पत्रिकाएँ न मिलें ,पर उनके पास सोशल मीडिया ,संग्रहों के विकल्प भी तो हैं ! विश्वास मानिए ,उनका यह बंधनमुक्त लेखन कहीं अधिक प्रभावित करेगा और श्रेष्ठ व्यंग्य की उनसे जो मांग रहती है, वह भी कदाचित इसी रास्ते से पूरी होगी।
--
अनूप शुक्ल की टीप -
Subhash Chander जी के युवा व्यंग्यकारों पर लिखे विस्तृत लेख " युवा व्यंग्य लेखन परिदृश्य पर कुछ नोट्स " पर मेरी टिप्पणी जो भौत लंबी होने के चलते पर जाने से इंकार करती रही :)
1. आपके बहुत मेहनत से लिखे इस लेख पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिये बैठा हूं तो कई सारे किंतु-परन्तु मेरे सामने आ उठ खड़े हुये। लेकिन हमने सब किंतु-परन्तुओं को हड़का के बैठा दिया और कहा - ’नाशुकरों पहले धन्यवाद अदा करो कि इसमें अनूप शुक्ल को "व्यंग्य उपजाने में माहिर " बताते हुये " हास्य बोध के साथ अलग" खड़ा कर दिया गया (मतलब बेट अलग खड़े रहो, खबरदार जो सबके साथ शामिल होने की कोशिश की)। हम आपके आभारी हैं कि हमारा नाम आपको याद रहा और अपन ’अल्पज्ञता या एकदम से याद न आने’ वाले लोगों में शामिल होने से बाल-बाल गये। जो लोग छूट गये जैसे कि Kamlesh Pandey या और अजीज मित्र उनको यह सुविधा है कि वे अपने को वरिष्ठ मान लें।
2. ये जो आप ने “आरोपों के असली अधिकारी ये अंतिम श्रेणी वाले व्यंग्यकारों” की बात की जिसका खामियाजा आपने “पूरे युवा व्यंग्यकार समुदाय को” भुगतने वाली कही इस बारे में मेरा आपसे भी और दूसरे आरोप लगाने वाले बुजुर्गों से भी सवाल है आप लोग अंतिम श्रेणी वाले व्यंग्यकार ही क्यों बहुतायत में देखते हैं। आप लोग भी जब पुरानी पीढी की बात करते हैं तो परसाई, जोशीजी, त्यागी जी, श्रीलाल शुक्ल और कुछ नाम का जिक्र करके इसके बाद आज के तमाम खराब लिखने वालों का जिक्र करके आज के व्यंग्य लेखन का पोस्ट मार्टम कर देते हैं। यह पुरानी पीढी के कंचन से आज के कूड़े की तुलना करके आज के सामान को खराब बताने जैसा है? इस असमान तुलना की बजाय आज के समय के अच्छे लेखकों की चर्चा करते रहें तो खराब लेखन अपने आप दायें-बायें हो जायेगा।
3. ये जो आपने लिखा “व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने एक बार कहा था कि हमारी पीढ़ी का सौभाग्य था कि हमने परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्रनाथ त्यागी आदि की पीढ़ी को पढ़कर लिखने के संस्कार ग्रहण किये थे। हमारी बाद वाली पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि वह हमें पढ़कर सीखने की कोशिश कर रही हैं। “ पता नहीं कब कहा था उन्होंने लेकिन जब भी कहा होगा तो मजाक वाले अंदाज में बात को रोचक बनाने के लिये कहा होगा। अब तोGyan Chaturvedi जी माशाअल्लाह बेहतरीन लेखक हैं। कम से कम व्यंग्य के क्षेत्र के आज के सबसे बेहतरीन लेखक। उन्होंने कई बार व्यंग्य लेखन के गुर बतायें हैं। उनके बाद वाली पीढी का दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य है कि वह उनको पढ रही है, सीख भले न कुछ रही हो( भौत मेहनत का काम है सीखना)
4. “अपवादों को छोड़ दिया जाए तो वरिष्ठों की पीढ़ी में कितने रचनाकार हैं जो नये लोगों को, कुछ नया दे पाने का दमखम रखते हैं जो ताल ठोंककर कह सकते हों – यह देखो, यह है व्यंग्य।“ हर पीढी में बेहतरीन लिखने वाले अपवाद स्वरूप ही होते हैं। ताल ठोंककर अपने लेखक को अच्छा बताने वाले और कुछ होते हों -बेहतरीन लेखक तो नहीं ही होते हैं। दस् किताबें छपा चुके Alok Puranik आज भी पूछो तो कहते हैं-“मैं तो अभी लिखना सीख रहा हूं।“
5. आपने लिखा -“ बेहतर तो यह होगा कि ऐसे वरिष्ठ रचनाकार जिनके पास कहने को कुछ नया, कुछ सार्थक नहीं बचा है। वे लिखना बंद करके, अपने लेखन के अनुभव साझां करें। उनके पास एक समय एक विज़न, एक उद्देश्य रहा है। उनके पास अच्छे और बुरे व्यंग्य में फर्क जानने की समझ बाकी रही होगी, उससे नई पीढ़ी का मार्ग दर्शन करें। क्या करना है, क्या नहीं करना है के बारे में दिशा निर्देश दें। यही उनके और व्यंग्य के लिए बेहतर भी होगा। “
किसी के पास कहने को कुछ नया नहीं बचा यह कौन तय करेगा? कोई क्या लिखता है यह उसके ऊपर छोड़ देना चाहिये। जब लेखन में दोहराव के आरोप परसाईजी पर लगे और उनके मित्रों ने उनसे यह कहा तो उन्होंने -“जब घटनायें रिपीट होंगी तो लेखन भी रिपीट होगा।“ आज के वरिष्ठों ने क्या अपराध किया है तो उनको दोहराव के फ़ायदे और ’कदमताली लेखन’ से वंचित किया जाये। जो बड़े-बुजुर्ग लोग व्यंग्य की चिंता करते हैं तमाम मंचों से उनको भी मैं सालों से एक जैसी बातें दोहराते ही सुन रहा हूं।
6. लेख में जिन लेखकों के नाम आ गये वे तो खुश हो गये होंगे जैसे अपन हुये। लेकिन अगर आज सुशील सिद्धार्थ जी होते तो सबसे ज्यादा वे खुश हुये होते कि सुभाष जी ने उनको युवा व्यंग्यकारों में सबसे पहले रखा। काश यह लेख उनके ( हाल ही में स्वर्गीय) होने के पहले छप जाता तो वे पक्का इसके लेख के साथ अपने सेल्फ़ी सटाते हुये सूचना साझा करते। जिनके नाम छूट गये उनके लिये सुभाष जी पहले ही लिख चुके हैं वे माफ़ करें। माफ़ करने के मूड में न हों तो वे अपने को वरिष्ठों में शामिल मान सकते हैं।
7. ये जो आपने कहा न -“ अपने युवा व्यंग्यकार साथियों से बस इतनी सी गुज़ारिश करना चाहूंगा कि पहले तो वे अपने वरिष्ठों और समकालीनों को खूब पढ़े, गुने, फिर लिखें।“
तो भाई साहब लफ़ड़ा यह है कि इतना समय किधर से आयेगा? आज हर रोज कम से कम पचीस दोस्त व्यंग्यकार तो कुछ न कुछ लिख ही देते हैं। सबको पढने के लिये कम से चार-पांच घंटे चाहिये ही। वरिष्ठ लोगों का भी पढना है। फ़िर अपना भी लिखना है। कहां से इत्ता समय आयेगा मालिक। यशवन्त कोठारी से बात हुई तो उन्होंने कहा था आदमी के घंटे वही 24 इसी में नौकरी भी करनी है, घर भी चलाना है, टीवी भी देखना है, मनोरंजन भी करना है, पढना भी है। तो सबके बाद घंटा-दो घंटा समय जो बचा उसमें जो मन होगा वही तो करेगा, इंसान। महानगरों में तो आदमी समय के चलते अपने में विसंगति का शिकार हो जाता है। अपन उन सबके लेख भी कहां पढ पाते हैं जिनके यहां वाह-बधाई लिखकर भाग आते हैं। सच तो यह है कि आमतौर पर लोग लेखक के कुछ लेख पढकर पढकर उनके बारे में धारणा बनाकर उसी नजर से लेख बांचते रहते है। लेखों पर प्रतिक्रिया लेखक के साथ पाठक के आपसी संबंध पर बहुत कुछ निर्भर करती है। ज्ञान जी ने सुशील सिदार्थ जी के बारे में लिखते हुये उनके जिस लेख की तारीफ़ से बात शुरु की थी वह लेख मुझे सुशील जी के सबसे खराब, प्रतिगामी लेखों में से एक लगता है। हाल ही में जिस लेखक को व्यंग्य में बहुत काम किया है कहते हुये बड़े-बुजुर्गों ने इनाम थमा दिया उनके एकाध लेख से अधिक मैं आज तक नहीं पढ पाया।
8. आपने बहुत मेहनत से लेख लिखा लेकिन आधे लेख के बाद जहां नाम स्मरण की आंधी चली उसके बाद पाठक की रुचि इस पर टिक गयी कि इसमें अपना या अपने परिचित का नाम है कि नहीं। है तो लिखा क्या है? इतना लंबा लेख लिखने की बधाई देते हुये अनुरोध करता हूं कि आप हड़काते बहुत हो। बुजुर्ग टाइप हो रहे हो आप। हड़काते बहुत हो। जब व्यंग्य या किसी अन्य विधा में उस विधा के बड़े बुजुर्ग खराब लेखन का स्यापा करते हैं तो मुझे लगता है कि उस समय उस विधा में अच्छा काम करने वालों की अनदेखी कर रहे हैं। जो बेहतरीन काम कर रहे हैं उनका रेखांकन, मूल्यांकन करना ज्यादा जरूरी है।
9. यह लम्बी प्रतिक्रिया बिना मेरे मन के भाव हैं। यह विचार किसी व्यंग्य लेखक हैसियत से नहीं वरन एक पाठक की हैसियत से ही हैं। जरूरी नहीं कि आप या अन्य पाठक इससे सहमत हों। कुछ खराब लगे तो मुस्कराते हुये अपने व्यंग्य संग्रह का नाम याद करियेगा -’जरा हंस ले यार।’ (मंगाना है इसे अभी मुझे)
(सृजन कुञ्ज में प्रकाशित सुभाष चन्दर के लेख -युवा व्यंग्य लेखन परिदृश्य पर कुछ नोट्स पर अनूप शुक्ल की टिप्पणी उनके फ़ेसबुक पृष्ठ से साभार पुनर्प्रकाशित)
COMMENTS