//मानवीय अन्तर्विरोधों को उद्घाटित करता सशक्त दस्तावेज// ‘‘बुद्धिमान की मूर्खता’’ रचनाकार वीरेन्द्र सरल समीक्षा डॉ. स्नेहलता पाठक व्यंग्य वि...
//मानवीय अन्तर्विरोधों को उद्घाटित करता सशक्त दस्तावेज//
‘‘बुद्धिमान की मूर्खता’’
रचनाकार
वीरेन्द्र सरल
समीक्षा
डॉ. स्नेहलता पाठक
व्यंग्य विसंगतियों का दस्तावेज होता है। वह हर युग में तत्कालीन विसंगतियों और अन्तर्विरोधों का उद्घाटन करता रहा है। चाहे वह ‘‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’’ वाला युग रहा हो। या ‘‘अंधेर नगरी चौपट राजा वाला। ‘राग दरबारी’ का स्वतंत्र्योत्तर काल रहा हो या ‘बुद्धिमान की मूर्खता’ की इक्कीसवीं सदी। व्यंग्य अपनी तीव्रतम क्षमतावाली व्यंजनात्मकता के साथ सदा समय की विसंगतियों को सामने लाने का दायित्व निर्वहन करता रहा है। जिसे हम आधुनिक युग कहते है वह मूलतः मानवीय मूल्यों के पराभव का युग है। आज यर्थाथ के ऊपर इतने चमकदार आवरण चढ़ाये जा चुके है कि वास्तविकता की पहचान मुश्किल हो गई है। ऐसी स्थिति में व्यंग्य ही एक ऐसी साहित्यिक विधा है जो समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और शोषण की किलेबंदी को तोड़कर यथार्थ की तस्वीर जनता के सामने उपस्थित करता है। व्यंग्य की इस सार्थक परंपरा का जो बीज कबीर ने बोया था वह हरिशंकर परसाई, शरद जोशी आदि से होता हुआ वीरेन्द्र सरल तक पहुँच गया है। आशा है वीरेन्द्र सरल इस परंपरा को पल्लवित करने का सार्थक प्रयास करेगें।
इस व्यंग्य संग्रह में कुल 23 व्यंग्य रचनायें हैं। जो समाज में व्याप्त तमाम तरह की विसंगतियों को चरितार्थ करती हैं। साथ ही आधुनिक विदूपताओं को उभारने के लिये सशक्त मिथकों का प्रयोग व्यंग्यकार की परिपक्व दृष्टि की ओर संकेत करती है। ‘‘श्रद्धेय उल्लू जी’’ में गधा सर्वहारा वर्ग का प्रतीक है जो सदा से शोषित प्राणी रहा है। जिसकी न कोई ऊंची ऊंची इच्छायें होती हैं और न बराबरी का दर्जा पाने की महत्वाकांक्षा दूसरी ओर उल्लू आधुनिक युग की चतुराई से भरा हुआ जुगाड़मेंटी प्रवृत्ति में प्रवीण प्राणी है। इसी प्रवीणता वह लक्ष्मी जी का वाहन पद प्राप्त कर लेता है। जैसा कि सभी जानते है कि आज का राजनैतिक कुचक्र पैसा, पद और पावर के आसपास घूमता रहता है। परिणाम स्वरूप उल्लू भी पद पाकर सारी सुख सुविधाओं का अधिकारी बन बैठता है। हमारी इसी गला काट प्रतिस्पर्धा की प्रवृत्ति गधे जैसे परिश्रमी और ईमानदारी के लिये अभिशाप बन गई है। इसके अतिरिक्त भवसागर तरण केंद्र, स्मार्ट मरीज, आलोक तंत्र की कथा दर्द-ए-दोणाचार्य, ज्ञानी जी का ज्ञान, मृत्यु प्रमाण पत्र, मुफ्त तीर्थ यात्रा के नुस्खे, हिरण्य कश्यप की आधुनिक कथा आदि सभी रचनायें व्यंग्य की ताजगी से भरी हुई है। पढ़ो तो लगता है जैसे रचनायें उत्तरोत्तर व्यंग्य सरिता की तरह अठखेलियां करती हुई भी अपनी यात्रा पूरी कर रही है। इस प्रकार लेखक अपने चारों ओर व्याप्त घिनौने खेलों पर दृष्टि डालते हुये बहुत ही सजगता से अपने विचार सामने रखता है। स्वयं लेखक के शब्दों में ‘‘गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दस दौर में जिंदगी की रफ्तार इतनी तेज हो गई है कि मानवीय मूल्य बहुत पीछे छूटते जा रहे है। .........अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिये वह सब कुछ करने के लिये वह सब कुछ करने को तैयार है। इस प्रकार वह पूरे व्यंग्य संग्रह में आम आदमी की पीड़ा से छटपटाता नजर आता है।
परंपरा के अनुसार जहाँ किसी भी कार्य का शुभारंभ श्री गणेश से होना चाहिये वहीं वीरेन्द्र सरल अपने संग्रह का प्रारंभ स्मार्ट मरीज से करते है। यह भी व्यंग्य के तरकश से निकला नुकीला तीर है जो बताना चाहता है कि बीमार मानसिकता वाले देश में तथाकथित आकाओं की सोच भी संकीर्णता से अवरूद्ध हो चुकी है। जिनकी आस्था गणेश में नहीं पैसे में बसती हैं, अतः येनकेन प्रकारेण हर आम आदमी को रूग्ण बताकर पैसा ऐंठना उनकी प्राथमिकता बन चुकी है। वीरेन्द्र सरल का मानना है कि साहित्य तभी मूल्यवान बनते है जब मानवीय चरित्र भी उद्दात हों। जो जीवन हम आजादी के नाम पर जी रहे है वह बेहतर होना चाहिये। इसके लिये वह खोज करता है कि कहां, क्या, कैसे बेहतर बनाया जा सकता है। व्यंग्यकार के मन की यही आकुलता पूरे संग्रह में व्याप्त है। संग्रह की कुछ रचनाओं में व्यंग्यकार ने यह भी संकेत दिया है कि कुछ विसंगतियाँ स्थूल होती है जिन्हें आंखों से देखा, कानों से सुना और व्यवहार में महसूस भी किया जा सकता है। परंतु कुछ इतनी सूक्ष्म होती हैं जिन्हें देखा या सुना नहीं जा सकता। केवल महसूस किया जा सकता है। व्यंग्यकार ने इन्हीं अमूर्त विसंगतियों को अपनी अंतश्चेतना से देना है। जैसे ‘बुद्धिमान की मूर्खता’ ‘भवसागर तरण केंद्र’ ‘देश भक्ति का बुखार’ आदि।
‘‘बुद्धिमान की मूर्खता’’ लेखक का तीसरा व्यंग्य संग्रह है। जिसने पाठक जगत में अपनी पहचान बनाई है। इससे स्पष्ट हो जाता है। यह युवा लेखक व्यंग्याकाश में उभरता हुआ बेहद प्रकाशमान सितारा है जो भविष्य में व्यंग्य लेखन जगत में मील का पत्थर बनेगा। कुल मिलाकर वे वर्तमान के रचनाकार है। संग्रह की सभी रचनाओं की भाषा सरल और शिल्पगत विशेषताओं से ओतप्रोत है। इस संग्रह की रचनायें पाठकों को हंसने गुदगुदाने की जगह तिलमिलाने एवं सोचने पर विवश करती है। विशेष रूप से लेखक ने जिस तरह समस्याओं को उभारने के लिये मिथकों का सहारा लिया है वह बेजोड़ है। उनकी व्यंग्य रचनायें बताती हैं कि हमारा समाज हमारे रिश्ते, व्यवस्था, राजनैतिक चिंतक, प्रशासनिक व्यवस्था, न्याय प्रणाली, कितनी अर्थहीन होती जा रही है। वीरेन्द्र सरल की शैली की एक खास विशेषता है कि वे व्यक्ति समाज और राष्ट्र की भीतरी रगो में घुसकर उलझी हुई गांठों को बात बात में खोलकर सामने रख देते है। अंत में इस संग्रह के लिये वीरेन्द्र सरल को इस आशा के साथ बधाई देती हूं कि उनका व्यंग्य संग्रह ‘‘बुद्धिमान की मूर्खता’’ अपने विचारात्मक संकल्पों के साथ व्यंग्य साहित्य जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा।
--
लेखक-वीरेन्द्र सरल डॉ. स्नेहलता पाठक
अमन प्रकाशन कानपुर
COMMENTS