जद्दोजहद कहानी धर्मेन्द्र कुमार त्रिपाठी टीन एज यानि तरूणावस्था बहुत से तूफान लेकर आती है। इसी दौर में वह था। पिताजी रेलवे में बाबू और मा...
जद्दोजहद
कहानी
धर्मेन्द्र कुमार त्रिपाठी
टीन एज यानि तरूणावस्था बहुत से तूफान लेकर आती है। इसी दौर में वह था। पिताजी रेलवे में बाबू और माता गृहणी। मेरी मुलाकात उससे एक प्रतियोगी परीक्षा के दौरान हुयी थी। ग्यारहवीं में था उस दौरान वह। औसत कद काठी, रंग गेंहुआ और घुँघराले वालों वाला स्मार्ट और आकर्षक आनन्द। आनन्द पढ़ने में होशियार था। मेरे शहर से पच्चीस तीस किलोमीटर दूर एक छोटे से स्टेशन के रेलवे क्वार्टर में माता पिता के साथ रहता था। ट्रेन में मुलाकात हुयी और एक ही सेंटर में परीक्षा होने के कारण आनन्द और मैं दोस्त बन गये। साथ ही एक ही ट्रेन से वापस लौटे और फिर मुलाकात का वादा लेकर हम दोनों अपने-अपने घर चले गये।
उसके बाद हमारी मुलाकात कॉलेज में हुयी जब उसने उसी कॉलेज मैं एडमीशन लिया जिसमें मैं फाईनल में था। एडमीशन की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद, कॉलेज के बरामदे में मैं अपने दोस्त के साथ खड़ा था, तभी वह लापरवाही से हवाई चप्पल पहने हुए और बाल बिखराये हुये आता दिखा था। मुझे देखते ही वह अचकचा गया और हैलो कहा। मैं भी उसे इतने सालों बाद देखकर आश्चर्यमिश्रित खुशी से भर उठा। मैं उससे दो साल सीनियर हो गया था। उसने उस गांव का स्कूल टॉप किया था। गणित और अंग्रेजी में विशेष योग्यता के साथ। लेकिन दो साल पिछड़ने का कारण मेरी समझ में नहीं आया। वह अप डाउन करता था। कॉलेज में खाली पीरियड में मुलाकातें होने लगीं तभी वह कुछ खुला था।
दसवीं में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने के बाद उसने मैथ साइंस विषय ले लिया था। गणित-अंग्रेजी उसकी अच्छी थी। कक्षा दसवीं में उसे गणित और अंग्रेजी में विशेष योग्यता मिली थी। उच्च गणित लेने के बाद वह गणित में ही डूब गया था। उसे फिजिक्स एवं केमेस्ट्री भी पास होने के लिए पढ़ने थे यह होश ही नहीं रहा और न उसने इन विषयों की तरफ ध्यान देना ही मुनासिब समझा। वह उच्च गणित में ही उलझा रहा नतीजा परीक्षा में गणित में विशेष योग्यता मिली लेकिन वह फिजिक्स एवं केमेस्ट्री में दहाई अंक भी नहीं ला पाया। सप्लीमेंट्री में गुरूजनों की कृपा से एवं गणित के अंकों को ध्यान में रखते हुए बारहवीं में प्रोन्नत कर दिया गया। लेकिन बारहवीं में भी फिजिक्स, केमेस्ट्री तो थे ही। ग्रामीण स्कूल होने के कारण कोचिंग की सुविधा भी नहीं थी। स्कूल की पढ़ाई पर ही निर्भरता थी।
इसके अलावा एक कारण और था जो मुझे बाद में ज्ञात हुआ। उसके पिताजी के बचपन के दोस्त उसी विभाग में उसी वर्ष ट्रांसफर होकर आये थे। बाजू के क्वार्टर में उनका बंदोबस्त हो गया था। उनकी एक बेटी डिंपल और एक बेटा अजय था। अजय का एडमीशन उसके साथ हो गया था और डिंपल का दो क्लास पीछे नवमीं में एडमीशन हो गया। उसके पिता के बचपन का दोस्त होने के कारण दोनों में घरोबा चलता था। नये-नये आये थे तो ज्यादा लोगों को जानते भी नहीं थे। डिंपल उसे भैया संबोधित कर राखी बांधने लगी थी़। सोलह साल में हर लड़की खूबसूरत होती है। सोलहवें साल की खूबसूरती आनन्द को तो नजर नहीं आयी, लेकिन उसके कुछ आवारा दोस्तों को नजर आ गयी थी। वे डिंपल का स्कूल से आते जाते पीछा करने लगे, कमेण्ट पास करने लगे। कुछ दिनों बाद आनन्द को एक दोस्त के द्वारा उसके आवारा दोस्तों की हरकतों का पता चला था। आनन्द ने दूसरे दिन ताड़ा और बात सही निकली। जब डिंपल और उसकी सहेलियां घर पहुंच गयीं तो आनन्द ने बात जानने की कोशिश की। डिंपल तो खामोश रही, लेकिन उसकी सहेलियों ने बताया कि आनन्द के आवारा दोस्त डिंपल पर फब्तियां कसते हैं और आते जाते पीछा करते हैं। आनन्द आपे से बाहर हो गया और अजय को साथ ले वह उन आवारा लड़कों को ढूंढ़ने निकल पड़ा। आखिर बाजार में पान के टपरे में वे मिल गये। आनन्द के मुंह से अनायास गालियों की बौछार होने लगी। अजय उसे रोकता रहा, लेकिन दोस्तों की इस घटिया हरकत से आहत आनन्द उन पर पिल पड़ा था। शाम को पिताजी आये और उन आवारा लड़कों के घरवालों ने जब उन लड़कों से माफी मंगाई, तब मामला सुलटा था। लेकिन आनन्द उन आवारा लड़कों का साथ छोड़ सतर्कता से बाहर निकलने लगा था।
आनन्द, अजय और डिंपल अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गये। दोनों घरों के बीच घरोबा बढ़ गया। यहां तक कि रिश्तेदारियों में भी आना जाना चालू हो गया। आनन्द के हमउम्र एक रिश्तेदार अशोक का आना जाना डिंपल के घर बढ़ गया था। सब सहजता से चल रहा था कि एक दिन आनन्द को डिंपल और अशोक के बीच चल रहे पत्राचार का पता चला था। आनन्द सकते में आ गया। डिंपल के पिता, आनन्द के पिता से सीनियर पोस्ट पर थे। पद के कारण कुछ मगरूर तो थे ही, साथ ही कुछ तंगख्याल भी थे। आनन्द ने अशोक के हाथ पैर जोड़कर मामला रफा दफा किया था और अशोक ने भी आना जाना बंद कर दिया था। लेकिन टीन एज का असर डिंपल पर हावी हो रहा था। उसकी आसक्ति अब आनन्द के प्रति जाहिर होने लगी थी। आनन्द घबरा गया। डिंपल के पिता की तंगख्याली और उनका गुरूर। साथ ही राखी भाई का रिश्ता। आनन्द एक तूफान से घिर गया। उसने धीरे-धीरे डिंपल और उसक घरवालों से दूरी बनानी चालू कर दी। लेकिन जितनी दूरी वो बना रहा था डिंपल उतना ही उसके ख्यालों में हावी होती जा रही थी। पढ़ाई में व्यवधान उत्पन्न होने लगा तथा परीक्षा में वह गणित छोड़ सभी विषयों में फेल हो गया।
दूसरे साल वह एक साल पिछड़ने का गम लिए स्कूल में दाखिल हुआ। बारहवीं में वैसे भी आगे के अच्छे कैरियर के लिए दबाव होता है और फेल होने से वह दबाव बढ़ गया था। उसे अपना भविष्य अंधकारमय प्रतीत होने लगा। इस बीच डिंपल की नादानियां भी बढ़ने लगी थी, नतीजा वह गुमसुम रहने लगा। क्या करे, क्या न करे का झंझावात उस पर हर वक्त छाया रहता। परीक्षा आयी और उसने फिर परीक्षा छोड़ दी। दो साल पिछड़ने के बाद उसी स्कूल में एडमीशन नहीं हुआ और उसने एक बदनाम स्कूल में एडमीशन लेकर बारहवीं की नैया पार लगाने की एक अंतिम कोशिश की। स्कूल में रोज आने जाने की टेंशन नहीं थी सो उसने अप डाउन करके कोचिंग में दाखिला ले लिया। अप डाउन करने से और कोचिंग के नये दोस्तों के बीच वह उस घुटन वाले माहौल से दूर हुआ और गणित और अंग्रेजी में विशेष योग्यता प्राप्त करते हुए उसने आखिरकार स्कूल टॉप कर लिया।
कॉलेज में बी एस-सी प्रथम वर्ष में एडमीशन तो ले लिया लेकिन उसके अंदर तब तक हीन भावना घर कर चुकी थी। रही सही कसर उसके साथ पढ़ने वाले और अब सीनियर हो चुके छात्रों ने पूरी कर दी। क्लास में जिन्हें वह शिक्षक की अनुपस्थिति में गणित के सवाल ब्लैकबोर्ड पर हल करके दिया करता था, वे उसके सीनियर हो गये थे। जिन छात्र-छात्राओं की वह प्रेक्टिकल में मदद किया करता था, अब वे उसके आगे की क्लास में थे। फिर भी उसने क्लास अटेंड करना जारी रखा लेकिन कॉलेज के लेक्चर अंग्रेजी में हुआ करते थे और अधिकतर बीएस-सी के छात्र कोचिंग पर निर्भर थे। वह डिप्रेशन में आ गया। उसने कॉलेज छोड़ दिया और जूतों की दुकान में काम करने लगा। मैंने दसवीं के बाद आर्ट लिया था। उसे समझाया तब वह काम करते हुए प्राईवेट बीए करने को राजी हुआ।
मेरे कहने पर वह कॉलेज में हिन्दी के प्रोफेसर डॉ दीनबंधु दिवाकर के पास जाने लगा। डॉ दीनबंधु दिवाकर हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष होने के साथ ही एक नामी राष्ट्रीय स्तर के कवि, कथाकार एवं गीतकार थे। उनसे मिलने के बाद आनन्द को मानसिक संबल मिला और वह काम करते हुए प्राईवेट परीक्षा की तैयारी करने लगा। वह किराये से कमरा लेकर कस्बे में ही टिक गया। डिंपल अतीत हो गयी। उसने काम करते हुए प्राईवेट बीए प्रथम वर्ष एवं द्वितीय वर्ष की परीक्षा पास कर ली। इस बीच उसके पढ़ाई में खराब प्रदर्शन को लेकर उसके पिताजी उससे निराश हो गये और बातचीत करना बंद कर दी। हफ्ते की छुट्टी में जब वह घर जाता तो घर के सदस्य बेगानों जैसा व्यवहार करते। उम्मीद से पेड़ लगाया था और पेड़ जब बड़ा होकर न फले न फूले तो गहन निराशा और नफरत होती है। यही निराशा और नफरत वह झेलने के लिए अभिशप्त हो गया।
डॉ दीनबंधु दिवाकर के प्रोत्साहन से जो डिप्रेशन से बाहर आया था, वह निष्फल साबित हुआ। उसकी बेरूखी से डिंपल के मगरूर पिता को बुरा लगा और उन्होंने दूर घर लेने के साथ ही आनन्द के पिता को जलील करना शुरू कर दिया। आनन्द के खिलाफ तरह-तरह की कहानियां प्रचारित की जाने लगीं। आनन्द इन सब बातों से उद्वेलित हो गया। आखिरकार दबाव और तनाव में उसने घर से दूर भाग जाना ही उचित समझा। एक दिन वह घर से निकल पड़ा। कई दिनों तक इस ट्रेन से उस ट्रेन में, यहां से वहां घूमता रहा। ट्रक ड्राईवरों के साथ खलासी गिरी करता रहा। आखिरकार जब कहीं ढंग का ठौर ठीया नहीं पाया तो मन मारकर वापिस आ गया। वापिस तो आ गया किन्तु वह सिजोफ्रेनिया का मरीज हो चुका था। सुबह तीन बजे से वह सबको उठाने लगा। उसमें गजब की उर्जा आ गयी। बगैर खाये पिये वह पैदल की कई किलोमीटर चला जाता। उसे लगने लगा जैसे वह बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति हो। टीवी में चलने वाले कार्यक्रम से उद्वेलित हो जाता और अल्ल-बल्ल बोलने लगता। आनन्द के पिता को जब कस्बे के एक डॉक्टर ने योग्य मनोचिकित्सक से सलाह लेने के लिए कहा तो घर में तूफान आ गया। डिंपल के पिता एवं रिश्तेदारों द्वारा प्रचारित कहानियों पर उन्हें यकीन हो गया। मनोचिकित्सक का इलाज चालू करने के साथ ही उस पर नजर रखी जाने लगी। चौबीस घंटे नजरबंद रखा जाने लगा। गॉंव के दोस्तों का साथ छूट गया था अब घरवालों के स्नेह और अपनत्व से वह वंचित हो गया।
बीए की पढ़ाई पूरी करने के लिए डॉ दीनबंधु दिवाकर से मिलने वह पिताजी के साथ आया था। डॉ दीनबंधु दिवाकर ने आनन्द के पिताजी को समझाया और उसे पुरानी साहित्यिक पत्रिकाओं के कई अंक पढ़ने के लिए दिये। वह घर में साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ने लगा और बीए की पढ़ाई पूरी की। डॉ दीनबंधु दिवाकर ने एक डायरी दी, जिसमें वह अपने मनोभावों को लिखने लगा। बीए करने के बाद डॉ दीनबंधु दिवाकर ने उसे कस्बे के एक स्थानीय अखबार में नौकरी दिला दी। वह स्थानीय खबरें कवर करने लगा और लिखने लगा। सिजोफ्रेनिया का मरीज होने के कारण अच्छे पढ़े लिखे लोग भी उसे पागल कहने लगे और आनन्द का इस कठोर दुनिया में सर्वाइव करने की जद्दोजहद चालू हो गयी, जो आज भी जारी है।
धर्मेन्द्र कुमार त्रिपाठी
मनं 501, रफी अहमद किदवई वार्ड नं 18,
रोशन नगर, साइंस कॉलेज डाकघर,
कटनी मप्र -483501
Email-tripathidharmendra.1978@gmail.com
कुछ और ......पाठकीय अपेक्षा जगती कहानी निम्न मध्यवर्गीय गुमराह नायक की यह कहानी आज के दौर के युवकों का चिंतनीय सत्य है. धर्मेन्द्र कुमार त्रिपाठी हड़बड़ाहट पर नियंत्रण कर अपने कथानक को बांधें.और बेहतर की उम्मीद के साथ शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंbahut dhanyawad
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