चलो ज़रा मुड़ते हैं आज बीते दिनों की टोह लेते हैं पुरानी गलियों में से गुज़रके ज़रा सा आज रो लेते हैं कमबख़्त रात ख़त्म ही नहीं होती लम...
चलो ज़रा मुड़ते हैं आज
बीते दिनों की टोह लेते हैं
पुरानी गलियों में से गुज़रके
ज़रा सा आज रो लेते हैं
कमबख़्त रात ख़त्म ही नहीं होती
लम्बी बोहोत है सुरंग सी
दीवारें सील गई हैं
हो बैठी हैं बेरंग सी
लफ़्ज़ चीख़ रहे हैं
पर क़ब्र में वो दफ़्न हैं
आँसू थक चुके हैं
चुप से वो दिल में ही मग्न हैं
सोचा आसपास देख लूँ
किसी शख़्स को ढूँढ लूँ
फिर सोचा रहने दूँ
मेरे हिस्से की छांव है
क्यूँ ज़हर किसी को दूँ
एक छोटा सा बादल बाकी है
उससे ही आस है
नहीं तो आसमान पूरा का पूरा
मेरे ख़िलाफ़ है
कभी तो धूप खिलेगी
कभी तो सुबह होगी
इसी आस में चल रहा हूँ
इक इसी उम्मीद की ख़ातिर
दर्जनों चोले बदल रहा हूँ
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सदियों पहले नारी की क़िस्मत सोयी होगी
बुजदिली की मिसाल देखकर पाँचाली भी रोयी होगी
गर बोले होते नरेश
तो महाभारत का बवाल ना हुआ होता
देखती सब है
महसूस भी करती है
पर गूँगी ना होती
नारी का ये हाल ना हुआ होता
दुर्योधन तब भी था
दुर्योधन आज भी है
पर उस त्राहि को अब ना झेलेगी औरत
तब तो धृतराष्ट्र अंधा था
पर आज, कुछ तो दिखा आदमी अपनी ग़ैरत
थक चुकी है सह सह कर
अब और आज़माए जाने की हिम्मत नहीं है
कुछ तो डरो, कहते हैं,
स्वर्ग - नर्क किसने देखा है
इंसाफ़ अगर होगा तो यहीं है
विद्रोही है आज की नारी
ना ग़लत सहती है ना करती है
पीछे मुड़कर नहीं देखती
बस पग भर्ती है
ये हौसला अगर दिखाती
तो यूँ ना खोयी होती
इतिहास के पन्नों में
पाँचाली ना रोयी होती
इतिहास में कुछ कमाल भी हुए हैं
लक्ष्मी और संयोगिता जैसे
बेशक़ीमती हीरे भी पिरोए हैं
उठाई थी उन्होंने कटार
अन्याय के ख़िलाफ़
घर हो या बाहर
बुलंद की थी उन्होंने आवाज़
माता पिता को समझना होगा
की कन्या अमूल्य है
लड़के की चाह में रोना
फ़िज़ूल है
बचपन से ही सिखाना होगा
अन्याय सहो नहीं
गर फिर भी सामना करना पड़े
तो हालात से डरो नहीं
आज की नारी तो
चाँद पे ध्वज लहरा रही है
वहीं गाँव कूचों में
वो दर्द से कराह रही है
अक्षर ज्ञान चाहे आए ना आए
अपने वजूद को ना हिलने दे
ज़रा आदमी को भी
अपनी हार का स्वाद चखने दे
अब तक ज़िद ख़ूब सही
अब ज़िद पर जो उतर आए
आने वाली पीढ़ी में
नारी के हौसले सँवर जायें
नारी नयी नस्ल बनाती है
बीज को फलता फूलता पेड़ बनाती है
आँख खुलते ही
शिशु को पहला पाठ
माँ ही पढ़ाती है
आज तक मर्द ने
औरत पर हाथ ख़ूब उठाए
मज़ा तब आए
जब वो हाथ ही तोड़
औरत, मर्द को धूल चटाए
हावी ना होने दे ख़ुद पे
कुछ यूँ अपनी अस्मिता बचाए
मर्द की औक़ात क्या है
उसे याद दिलाए
जब मोटर गाड़ी लड़की चलाती है
तो रोटी भी अकेले वो क्यूँ बनाए
जब घर वो भी चलाती है
तो मर्द भी उसका हाथ बँटाए
तानाशाही ना सहे
आँसू ना बहाए
कंधे से कंधा जब मिलाया है
तो आधे कपड़े पति से धुलवाए
ना का मतलब ना है
सफ़ाई देने की ज़रूरत नहीं है
औरत पे ज़बरदस्ती का
किसी मर्द तो हक़ नहीं है
सशक्त नारी अपने सम्मान के लिए लड़े
निडर होकर
अपने हक़ के लाइट
क़ानून को साथ ले आगे बढ़े
देखते हैं फिर
किसमें है दम
जो नारी से भीड़ जाए
जब बुलंद कर इरादों को
नारी ज़माने से लड़ जाए
ये ना भूले आदमी
की जिस समाज की आड़ में
वो ज़ुल्म करता है
वो बदल रहा है
नारी की कामयाबी का जादू
पूरी दुनिया पर चल रहा है
पिछड़ा वर्ग कहकर
जो मखौल औरत का उड़ाया जाता है
अब वक़्त आ गया है बताने का
कि आधा हिस्सा आबादी का
औरत का वर्ग ही बनाता है
गरिमा, नज़ाकत की बात करते हैं
ये क्यूँ भूल जाते हैं
ख़ुद की रक्षा करने के लिए
मजबूर औरत को आदमी ही बनाते हैं
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मैंने बुलाया और तुम ना आए
तो क्या होगा
खरे ना उतरे, जो आज़माये
तो क्या होगा
ना याद रहे पल जो साथ बिताए
तो क्या होगा
मुड़कर देख मुझे, ना मुस्कुराए
तो क्या होगा
चलते चलते जो हाथ छुड़ाए
तो क्या होगा
आधा आधा, ना बाँट पाए
तो क्या होगा
दिल में रखकर कह ना पाए
तो क्या होगा
सपने कुछ छोटे से ना बनाए
तो क्या होगा
बिन शब्द, आँखों को मेरी समझ ना पाए
तो क्या होगा
तस्वीर में ओझल कुछ हो जाए
तो क्या होगा
तू तू मैं मैं में उलझ गए
तो क्या होगा
जलते जलते साथ, दिल बुझ गए
तो क्या होगा
मर कर भी जो हम मिल ना पाए
तो क्या होगा
बताओ...
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खुद के साथ वक़्त बिताना
अच्छा लगता है
बीते पलों के गलियारों में घूम के आना
अच्छा लगता है
कभी पलकें भीगती हैं
कभी लब मुस्कुराते हैं
कभी कुछ एहसास, दिलासे दे जाते हैं
सुख-दुःख में यु गोते खाना
अच्छा लगता है
खुद के साथ वक़्त बिताना अच्छा लगता है
कुछ यार पुराने याद आते हैं
वो लम्हे जो गुज़रे, गुदगुदाते हैं
उनमें से कुछ दोस्त अब भी पास हैं
यही काफी है, सुकून पनपता है
खुद के साथ वक़्त बिताना अच्छा लगता है
हाथ में खुशबू भरे पन्ने पकड़ना
कुछ पुराने जोड़ों में सजना संवरना
दिल को जंचता है
सोचकर मुस्कुराना की लाल रंग अभी
मुझ पर फबता है
खुद के साथ वक़्त बिताना अच्छा लगता है
नींद में बेसुध होकर सपने देखना
और खुद से बार-बार ये कहना
की जो हुआ उसका कोई मकसद रहा होगा
बुरा बीता है, कोई बात नही
अब आगे अच्छा होगा
आखिर सोना भी तप-तप के निखरता है
दुख सहकर ही सुख का मोल पता लगता है
साफ नए सवेरे की उम्मीद में
जीना सच्चा लगता है
खुद के साथ वक़्त बिताना अच्छा लगता है
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इतने दिनों के बाद मिलोगे
बोलो क्या क्या बोलोगे
बरसेंगे जो आंसू मेरे
किस आँख से कितने गिरे
बोलो कैसे गिनोगे
इतनी रैन बितायी जो खाली
खाली मुझे वो कर गयी
सयाही मेरी मिटा के
बोलो, रंग अब कैसे भरोगे
ख्वाब जो हुए चूर
धीरे-धीरे सब खो गये
अरमाँ मेरे जो भी थे
दुर दरिया में बह गये
नये ख्वाब कहाँ से लाओगे?
मेरे सपने पूरे कैसे करोगे
बोलो तुम कैसे करोगे
चुप-चुप रही जो मैं इतने बरस
शबदों का मुँह भूल गयी
इन्तज़ार में तेरे
मेरे इतने जो पल फ़िज़ूल गये
हर रात का हिसाब दे मुझे
तुम क्या क्या दिलासे दोगे
क्या क्या जतन करोगे
तुम कैसे मेरे सवालों से तरोगे
मुझमेँ उम्मीद फिर कैसे भरोगे
बोलो अब तुम क्या करोगे
कब सवेरा हुआ कब रात घिरी
मुझे होश नहीं था
तुम जानते हो ये अच्छे से
इसमें मेरा कोई दोष नहीं था
जो मैं चढु अब सूली पे
तो क्या तुम ख़ुशी से चढोगे
बोलो ये तुम कैसे करोगे
तुम्हें देख जो हैरानी होगी
जरा सी ही सही परेशानी होगी
फिर से न हो कुछ बुरा
ये डर कैसे जाएगा
कौन यकीन दिलायेगा
कि तुम फिर कभी नहीं लडोगे
बाताओ ये तुम कैसे करोगे
ये देहलीज़ जो तुम्हारी थी
मैंने पार नहीं की
तुम ही चले गए थे
अबकी बार बारी मेरी है
ये गर मैं बोलूं
चली गयी मैं तुम्हें छोड़कर
तो क्या तुम डरोगे
बोलो फिर तुम क्या करोगे?
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शबनम शर्मा
अनमोल कुंज, पुलिस चैकी के पीछे, मेन बाजार, माजरा, तह. पांवटा साहिब, जिला सिरमौर, हि.प्र.A
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