-- एक एकलव्य ## अँधेरे में मैं अब भी तीर चला लेता हूँ और सही मानो तो सही निशाना लगा लेता हूँ | तुम्हें जरूरत होगी या तो मेरे अंगूठे ...
-- एक एकलव्य
##
अँधेरे में मैं अब भी
तीर चला लेता हूँ
और सही मानो तो सही
निशाना लगा लेता हूँ |
तुम्हें जरूरत होगी
या तो मेरे अंगूठे की या
पूरा हाथ मांग लोगे ..?
***
तुम नहीं थे मेरे आदर्श
नहीं झुकाया था सर तुम्हारे आगे
तुमने नहीं दी थी मुझे दिशाएँ
तुम्हारी उंगली थाम के भी एक पग
चला नहीं था मैं...
नहीं किया था अनुसरण
तुम्हारे किसी दिकबोध का
तुम्हारे पग चिन्हों को ढूंढते
नहीं गया था दूर अरण्य, दलदल में
पता नहीं क्यों
बावजूद इसके
तुम्हें लगता रहा
मेरी उपलब्धियों में कहीं न कहीं हो तुम
केवल तुम
**
अपनी इस सोच के दायरे से
जरा भी नहीं डिगते तुम
साधिकार
आ जाते हो
सुबह -शाम दरवाजे पर
इस तगादे में कि,
तुम्हें काट कर दे दूंगा
मैं
अपना अंगूठा
**
मेरे पिता ,
तुम्हें मालूम है आदमी जब
भूख की
अहम् की
अस्तित्व की
लड़ाई में
जब होता है
उसके सामने बौने हो जाते हैं
सभी किरदार
वे खुद लिख लेता है
अपने भोगे
यथार्थ का इतिहास
उसे याद हो आये
पुराने लनम की कोई बात
खून से लथपथ अंगूठा
अंगूठे के बीच
प्रत्यंचा में अब -तब छूटने को
तीर की नोक पर उसकी
अपनी आजीविका ...
***
सुशील यादव
नफरतों के घने जंगल
मुहब्बत या जंग बराबर सा लगा
पड़ोसी फिर मुझे रहबर सा लगा
यकीन के बाजुओं सर पटका किए
अचानक वो कड़ा पत्थर सा लगा
लकीर जिसे नसीब कहे आदमी
कहीं वो बेसबब अजगर सा लगा
नफरतों के घने जंगल क्या घिरे
कजा भी पलट ढाई अक्षर सा लगा
हमेशा सावधानी की सोचिये
भले ही सांप मोम-रबर सा लगा
सुशील यादव
जमीन में अब कहाँ गड़ा खजाना मिलता है
एक बार बिछुड़ा दोस्त कब पुराना मिलता है
अब नहीं मिलते शहर में रिश्ते सहज आपसी
महज कहने को मौसम यहाँ सुहाना मिलता है
सुशील यादव
आओ कि सफर की अब थकान भूल जाएँ
बहुत हो चुका गमों की मीजान भूल जाएँ
बैठें किसी लुढ़कते पत्थर में जानिबे मंजिल
राह में मिले हादसों की ढलान भूल जाएँ
सुशील यादव दुर्ग
वे अहिंसा के पुजारी ...
लक्ष्य का हमको पता नहीं पतवार लिए हैं
हम गंधारी के पुत्रों सा संस्कार लिए हैं
बेच पाते हम कहाँ ईमान टके भाव भी
अपने मन का लोग शायद बाजार लिए हैं
हाशियों में है विज्ञापित यारों बेकारी
आने वाले कल का हम यूँ अखबार लिए हैं
वे अहिंसा के पुजारी चल दिए किताबों
कुछ बचे से लोग ख़ंजर- तलवार लिए हैं
लौट आते वो पुराने दिन काश अच्छे
अब बुढ़ापे खण्डहर से घरद्वार लिए हैं
सुशील यादव दुर्ग
सवालों के आईने में ...
कहीं चोट खाए सवालों घिरे हैं
बंधे हम मुस्काए सवालों घिरे हैं
जनाजा किसी गैर का और शामिल
रहे मुंह छिपाए सवालों घिरे हैं
नहीं बात बनती दिखे तो समझिये
बुद्दू लौट आए सवालों घिरे हैं
जिसे नींद में चलने की आदत नहीं
तजुर्बे भुनाए, सवालों घिरे हैं
जनाजे को उनके कंधा क्या दिये हम
रहे सर चढ़ाए ,सवालों घिरे हैं
नहीं जानता था सबूतों में शामिल
दस्ताने छुपाए ,सवालों घिरे हैं
सुशील यादव
मैं तुझसे मिलने का, कोई बहाना ढूंढ लेता हूँ
गुमा वहमों के जंगल में , खजाना ढूंढ लेता हूँ
सितम की है गली तेरी जहां तक अधबनी जानम
निशानी देख कर वही, कैदखाना ढूंढ लेता हूँ
मुझे भी थी हिदायत पैर हो आसान राहों पर
मगर माजी में कातिल वहशियाना ढूंढ लेता हूँ
सियासत की जब आएगी समझ तब बात कुछ होगी
गमों के दौर किस्मत आजमाना ढूंढ़ लेता हूँ
फिजाओं में बिखर गई है कई खुशबू न जाने क्यों
तेरे अहसास की उतरन दस्ताना ढूंढ़ लेता हूँ
सुशील यादव दुर्ग
अब यहां ना आशियाँ परिंदा बचा
धूल के साये बचे,या धुँआ बचा
ले गया छीन कर बस्ती से अमन
आंसुओं खारा-सफेद कुँआ बचा
कौन वाकिफ है भली सूरत यहाँ
किसके पास कहो आइना बचा
है अदावत की खड़ी दीवार बस
आखिरी पहचान मानो निशा बचा
बीते कल को तुम भुला बैठे कैसे
स्लेट-माजी खूब सारा लिखा बचा
पर जिनके कटे थे
पर जिनके कटे थे ,परिन्दे कहाँ गए
भोले-भाले,सीधे-सादे, बाशिंदे कहाँ गए
जमीन खा गई उसे ,या निगला आसमान
वो निगरानी शुदा थे ,दरिन्दे कहाँ गए
यही है जगह जहाँ ,कल्पना का लोक था
सब मिले सलीके से,घरौंदे कहाँ गए
मजहब की ये जमी ,बारूद और धुँआ
लाशों के सब ढेर में,जिन्दे कहाँ गए
सुकून तेरे होने का, रहता कहीं भीतर
जहाँ सर रखे रोते ,कन्धे कहाँ गए
सुशील यादव
२ २ १ २ २ २ १ २ २1२
वो कुछ दिनों से ....
वो कुछ दिनों से इधर नहीं बोलता
मुझे चाहता है मगर नहीं बोलता
खोया रहे अपनी धुनों में मगन
उसपे नशा कोई जहर नहीं बोलता
शायद चली तलवार किसी बात पर
अपना कभी ख़ंजर नहीं बोलता
कितनी कवायद की तुझे भूलने
हमसे हमारा जिगर नहीं बोलता
तेरी महक रहती है फूलो यहाँ
यूँ खिल के तो इतर नहीं बोलता
कुछ समझ में आने लगी बात फिर
तुमसे भले बेहतर नहीं बोलता
सुशील यादव
Sushil Yadav
ये वो सुबह तो नहीं ,
**
ये वो सुबह तो नहीं ,
जिसकी बांग
किसी मुर्गे ने दी हो
और
जाग गया हो
सोते से
सारा गाँव ..
वो सुबह ,कि
घण्टियाँ बजाते
चल रहे हो बैल
किसी खेत की पगडंडियों पर
और हुर्र की आवाज से चौंक कर
उड़ गई हो चहचहाट करती चिड़ियाएं
वही मस्जिद की किसी मीनार पर जा बैठते
बरबस गूंज गई हो अजान
वो सुबह जब
शब्द -कीर्तन की आवाज संग उठने को
आतुर हुई हो
सूरज की पहली आभा वाली किरणें
या जाड़े में ठिठुरते
रामायण की चौपाई बांचता
बगल से गुजर गया हो
कोई पण्डित
ये सुबह वो तो नहीं
जब
अलगू और जुम्मन
एक ही छाते में
कुछ भीगते, कुछ भागते
पड़ोस के गाँव से
बुला लाये हो डाक्टर
और बचा ली हो
प्रसव वेदना से कराहती किसी
गऊ माता की जान
ये वो सुबह भी नहीं
जब
झुर्रियों भरे चरहरों से
पर्दा करती
चुपचाप निहरे
पानी भरने
निकल रही हो औरतें
या पीछे ,नँगे-अधनंगे बच्चे
रात की बासी रोटियां लिए
माँ की घुड़कियों सुन
खपरैल के घरों को लौट रहे हो
***
शायद गाँवों में
इन दिनों भी
ऐसी सुबह हुआ करती हो
अम्न,चैन ,भाई चारे की
पर रोना तो ये है
मेरी नींद
इन दिनों
देर से खुलती है
***
सुशील यादव
लम्हा नहीं ऐसा कोई,सजदा नहीं किया
कोई मंजिल तेरे सिवा, देखा नहीं किया
चौखट जहाँ,माथा नवा सब मांगते रहे
हमने नबी तुझसे कभी मांगा नहीं किया
देना अगर होता दे देते बस सुकून ही
दौलत तिजौरी में कभी चाहा नहीं किया
इस कौम की हो दांव में इज्जत व आबरू
इस कौम के लोगों ने बस सोचा नहीं किया
करते नहीं हैं हम शिकायत सामने कभी
तेरे भरोसे आज तक फैसला नहीं किया
सुशील यादव
24.1.2017
##2221 2221 2221 212
छोटी उम्र में बड़ा तजुर्बा.....
जाकर दूर, वापस लौटना, अच्छा नहीं लगा
रिश्तों को, अचानक तोड़ना,अच्छा नहीं लगा
#$#
मातमपुर्सी आते, लोग हैं आजकल इस तरह
रस्मों को तराजू-तौलना अच्छा नहीं लगा
#$#
काबिल हो अभी माफी के दीगर बात है वर्ना
जगह-जगह पे हो जाते रुसवा, अच्छा नहीं लगा
#$#
तुम सम्हाल लो अपनी तमाम ये सल्तनत यहीं
कल तो और का है बोलना, अच्छा नहीं लगा
#$#
गम के दौर में कब चलन से बाहर हुआ 'सुशील'
'नोटों' आप-खुद का बिखरना, अच्छा नहीं लगा
#$#
लाखों तक रटी गिनती, करोड़ कभी सुने कहाँ
छोटी उम्र में बड़ा तजुर्बा, अच्छा नहीं लगा
#$#
सुशील यादव
14.12.16
यूँ आप नेक-नीयत, सुलतान हो गए
सारे हर्फ किताब के, आसान हो गए
समझे नहीं जिसे हम, गुमनाम लोग वो
हक़ छीन के हमी से , परेशान हो गए
कुनबा नहीं सिखा सकता बैर- दुश्मनी
नाहक ही लोग , हिंदु-मुसलमान हो गए
सहमे हुए जिसे ,समझा करते बारहा
बेशर्म- लोग जाहिल - बदजुबान हो गए
एक हूक सी उठी रहती,सीने में हरदम
बाजार में पटक दिए, सामान हो गए
एक पुल मिला देता हमको, आप टूटकर
रिश्तों की ओट आप, दरमियान हो गए
तेरी दुनिया नई नई है क्या
रात रोके कभी, रुकी है क्या
बदलते रहते हो,मिजाज अपने
सुधर जाने से, दुश्मनी है क्या
जादू-टोना कभी-कभी चलता
सोच हरदम,यों चौकती है क्या
तीरगी , तीर ही चला लेते
पास कहने को, रौशनी है क्या
सर्द मौसम, अभी-अभी गुजरा
बर्फ दुरुस्त कहीं जमी है क्या
सुशील यादव
सुशील यादव ....
शहर में ये कैसा धुँआ हो गया
कहीं तो बड़ा हादसा हो गया
किसी जिद, न जाने, वहां था खड़
शिनाख्त, मेरा चेहरा हो गया
हुकुम का गुलाम, जिस की जेब हो
शह्र का वही, बादशा हो गया
हमारे वजूद की, तलाशी करो
ये खोना भी अब, सिलसिला हो गया
ये चारागरों जानिब खबर मिली
मर्ज ला इलाज-ऐ- दवा हो गया
अदब से झुका एक, मिला सर यहाँ
'सलीका' 'सुशील' का , पता हो गया
@@
बिना कुछ कहे सब अता हो गया
हंसी सामने चेहरा हो गया
दबे पाँव चल के,गया था कहीं
शिकारी वही, लापता हो गया
मुझे दख, 'फिर' गई निगाह उनकी
गुनाह कब ख़ास, इतना हो गया
नहीं बच सका, आदमी लालची
भरे पाप का जो, घडा हो गया
छुपा सीने में राज रखता कई
सयाना वो मुखबिर, बच्चा हो गया
दबंग बन लूटा,सब्र की अस्मत
इजाफा गुरुर, कितना हो गया
कहीं मातमी धुन सुना तो लगा
अचानक शहर में दंगा हो गया
@@
222222222
सुशील यादव
समझौते की कुछ सूरत देखो
है किसको कितनी जरूरत देखो
ढेर लगे हैं आवेदन के अब
लोगों की अहम शिकायत देखो
लूटा करते , वोट गरीबों के
जाकर कुनबों की हालत देखो
भूखों मरते कल लोग मिलेंगे
रोटी होती क्या हसरत देखो
फैला दो उजियारा चार तरफ
एक दिए की कितनी ताकत देखो
6
२१२२ २१२२ २१२१ २२
सुशील यादव
साथ मेरे हमसफर वो साथिया नहीं है
लुफ्त मरने में नहीं ,जीने का मजा नहीं है
रूठ कर चल दिए तमाम सपने- उम्मीद
इस जुदाई जिन्दगी का जायका नहीं है
साथ रहता था बेचारा बेजुबान सा दिल
ठोकरें, खामोश खा के भी गिना नहीं है
आ करीब से जान ले, खुदगर्ज हैं नहीं हम
फूल से न रंज, कली हमसे खपा नहीं है
शौक से लग जो गया, उनके गले तभी से
लाइलाज ए मरीज हूँ, मेरी दवा नहीं है
7
२१२२ २१२२ २१२
तुम नजर भर ये, अजीयत देखना
हो सके, मैली-सियासत देखना
ये भरोसे की, राजनीति ख़ाक सी
लूट शामिल की, हिमाकत देखना
दौर है कमा लो, जमाना आप का
बमुश्किल हो फिर, जहानत देखना
लोग कायर थे, डरे रहते थे खुद
जानते ना थे , अदालत देखना
तोहफे में 'लाख', तुमको बाँट दे
कौम की तुम ही, तबीयत देखना
अजीयत =यातना ,जहानत = समझदारी
सुशील यादव ....
रोने की हर बात पे कहकहा लगाते हो
जख्मों पर जलता ,क्यूँ फाहा लगाते हो
गिर न जाए आकाश, से लौट के पत्थर
अपने मकसद का , निशाना लगाते हो
हाथों हाथ बेचा करो ,ईमान- धरम तुम
सड़कों पे नुमाइश ,तमाशा लगाते हो
फूलो से रंज तुम्हें ,खुशबू से परहेज
बोलो किन यादों फिर ,बगीचा लगाते हो
छन के आती रौशनी ,बस उन झरोखों से
संयम सुशील मन ,से शीशा लगाते हो
@@@
10
.....सुशील यादव ....
फुरसत में चाहत की ,कभी दास्ताँ लिखना
हाशिये पर सोच के ,मुझे ज़िंदा लिखना
लड़ लड़ हम थके ,नेक नामी के वास्ते
हैं कही इश्तिहार ,बावस्ता लिखना
खौफ ख्याल निकालो ,अगर हो जेहन में
जिक्र में पानी का मुझे ,बुलबुला लिखना
रेत के घरौंदे सभी, आंधियों से मिट गए
खत में तुम जानो हो, कैसा पता लिखना ,
हवाओं के बहाने जो ,खिडकियों में आ जाऊं
मेरी गुस्ताखियों पे ,कड़ी सजा लिखना
@@@१६.१२.१५
मुझसे मेरे दोस्त, तू परछाई न मांग
कितनी अजीब मेरी,तनहाई न मांग
लिखता दर्द गम के ,अहसास को भूलने
थोडी सी बच गई है ,रोशनाई न मांग
बद मुट्ठी में रखा हूँ ,मैं छुपा के जन्नतें
ये हसरतें न छीन , वो खुदाई न मांग
गुनाह की मुकर्रर ,है वो सजा, सब मिले
फिजूल न हो वकालतें,औ रिहाई न मांग
जज्ब किये बैठा हूँ ,लोगों के गिले-शिकवे
हर बात कह थका ,तो सफाई न मांग
@@
सबकी नावें .....
#
केवल सुख आधार नहीं है
कल्पना में विस्तार नहीं है
#
सबकी नावें पार उतरती
अपना बेड़ा-पार नहीं है
#
नगद-नगद ही कसमें खाई
तुमसे कहीं उधार नहीं है
#
सुलग-सुलग जाती ये बस्ती
सोई कहीं सरकार नहीं है
#
जात-पात नाम ठगी है
ढाई-आखर दरकार नहीं है
#
बेच के घोड़े मस्ती में सोए
किस्मत-धनी लाचार नहीं है
#
अंधविश्वास सबकी बीमारी
ठोस कहीं उपचार नहीं है
#
लोग नफा-नुकसान सोचें
चाहत अपना व्यापार नहीं है
#
सुशील यादव
हिल गई दीवार .......
#
तंग गली दिल की कभी सजा देते
मुड़ के ज़रा सा तुम मुस्कुरा देते
#
कुछ तसल्ली हो रहती सुकून होता
अगर खताओं की मुझे सजा देते
#
दिन गिन के काट रहे यहाँ खौफ में
आहट या आने की इत्तिला देते
#
हिल गई दीवार पुराने रिश्तों की
नींव को फिर से अब हौसला देते
#
तेरे शहर घूम रहा हूँ आवारा
काश ठिकाना, अपना पता देते
#
पास बचे हैं बस मंजिलों के निशां
मंजिल तक पहुंचने रास्ता देते
#
सीख नहीं पाए हमी हुनर कसम से
चाहत के दांव तुझे सिखा देते
#
भीड़ में
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
भीड़ में कोई किसी को रास्ता देता नहीं
एक तिनका डूबते को आसरा देता नहीं
ले कहाँ जाएँ कहो बीमार को बाहर कहीं
साफ नीयत दिल से अब कोई हवा देता नहीं
मैं गुनाहों के उतार ही दूँ तमाम नकाब भी
क्यूँ खुदा मुझको मुनासिब चेहरा देता नहीं
है यहाँ खुशियाँ पलों की इसे सहेज कहीं रखो
मुस्कुराहट जिन्दगी भर, मसखरा देता नहीं
कोई चारागर मिले तो पूछ लेते हम यही
मर्ज कौन सा ताउम्र दाग गहरा देता नहीं
कल की कुछ धुंधली बनी रहती है तस्वीरें मगर
अब उभार के साफ-सूरत, आइना देता नहीं
है पुरानी बात मिल-मिल के बिछड़ते हम रहे
अब सुकून सही ठिकाना या पता देता नहीं
सुशील यादव
::इसीलिए तो ...
##
होंठ सिए हमने अनुबंधों में
जहर पिए खुद सौगंधों ने
इसीलिए तो
बस्ती सपनों की
रात बसाई
रह -रह उजड़ गई
रह -रह उजड़ गई ....
##
अंधियारे सा अभिशापित मन
उजियारे का क्या देखे दर्पण
इसीलिए तो
अनुकरण की
बात बनाई
रह -रह बिगड़ गई
रह -रह बिगड़ गई ....
##
दर्द का तब अहसास नहीं था
राहत -मलहम पास नहीं था
इसीलिए तो
बीच आपसी
गहरी खाई
रह -रह उभर गई
रह -रह उभर गई ....
##
मेहंदी वाले हाथ ले अपने
लौट गए अनब्याहे सपने
इसीलिए तो
पथ यादों की
सुर शहनाई
रह -रह बिफर गई
रह -रह बिफर गई ....
सुशील यादव
है निजाम तेरा,
दरवेश के हर हुजरे से अब मेहमां हटाइए
जो लाश ले चलती गरीबी,दरमियाँ हटाइए
बार-ए-गिरेबा को कलफ न मिले जहाँ नसीब में
तहजीब की अब उस कमीज से गिरेबां हटाइए
ये है निजाम तेरा, सफीना सोच कर उतारना
चलती हवा दरिया से बे-मकसद तूफां हटाइए
उनको बिछा दो मखमली कालीन मगर साहेब
उम्मीद की बुनियाद हों काटे, वहाँ हटाइए
जाने कोई क्यों खटकता है आँख में दबा-दबा
अब हो सके मायूस नजरें अँखियाँ हटाइए
सुशील यादव
सरकार .....
हाथों में दम-पतवार है साथी
माझी की कब दरकार है साथी
बस एक बिगुल से दौडे तुम चलना
सीमा की सुनो पुकार है साथी
छलनी-छलनी कश्मीर का सीना
घायल- मजहब, व्यवहार है साथी
है अपनी जमा पूँजी बस इतनी
साबुत सांझी-दीवार है साथी
उनसे मेरी अब निभेगी कैसे
मेरी-उनकी तकरार है साथी
हाशिये में बहुत आम हैं खबरें
सफा-सफा तो इश्तिहार है साथी
बैद- हकीम बैगा-गुनिया देखे
मुल्क अब तलक बीमार है साथी
देशद्रोह का इल्जाम है उनपर
मासूम कहीं गिरफ्तार है साथी
राम-राज लाने विदेश निकलती
अजीब अपनी सरकार है साथी
सुशील यादव
२५.६.१६
जिद की बात नहीं....
है कौन जिसे दर्द का एहसास नहीं होता
सब कुछ होते हुए भी,कुछ पास नहीं होता
$$$
चल देते हैं छोड़ , करीबी लोग अचानक
लुट जाने का मन को आभास नहीं होता
$$$
मैं अपने तर्कों की दुनिया में हूँ तनहा
तेरी दखल यहाँ कोई , ख़ास नहीं होता
$$$
हर शाम बुझा रहता, ये दिल एहतियातन
जुगनू अच्छे लगते,जब उजास नहीं होता
$$$
समझा के रखता हूँ दिल-ए-नादाँ को तभी
जिद की बात नहीं, बहुत उदास नहीं होता
$$$
सुशील यादव
थमा कर गया
दोस्ती का हक, यूँ अदा कर गया
मुझको मुझसे ही जुदा कर गया
कुछ दिनों से ,रूठ गया था, तभी
कश्तियों को सब डुबा कर गया
तैरना तब जानता भी कहा
हौसला हाथ से छुड़ा कर गया
घूंट भर सब खौफ के जहर पिए
वो मयकदे,डर उठा कर गया
तोड़ कर फूल, चमन के सभी
आँख पतझड़ को ,दिखा कर गया
उंगली जो थाम, चलता मेरे
वो नसीहत सा थमा कर गया
किस किनारे हो दो गज भर जमी
नाखुदा किसको बता कर गया
**** सुशील यादव ****
1,8,16
तू मेरे राह नहीं.......
जाने के साथ मेरे, पतझर चला जाएगा
खामोशी का आलम, मंजर चला जाएगा
नासमझी के और न, फेंको पत्थर इधर-उधर
छूट के तेरे हाथ कभी गुहर चला जाएगा
मांग अंगूठे की करते समय न सोचा होगा
एक गरीब का सरमाया , हुनर चला जाएगा
मेरे हक में ये कौन, गवाही देने आया
सुन के जमाने की बाते, मुकर चला जाएगा
रौनक महफिल की देख न ठहरा जाए हमसे
सदमों में ये दिल आप उठ कर चला जाएगा
शायद मैं सीख लूँ, जीना तेरे बगैर सुशील
तू मेरे राह नहीं कि, मुड़कर चला जाएगा
सुशील यादव
सके तो ::सुशील यादव
हर निगाह चमक, हरेक होंठ, हँसी ले के आओ
हो सके तो,कमजर्फो के लिए,जिंदगी ले के आओ
इस अँधेरे में दो कदम,न तुम चल सकोगे,न हम
धुंधली सही ,समझौते की मगर,रोशनी ले के आओ
कुछ अपनी, हम चला सकें, कुछ दूर तुम चला लो
सोच है,कागज़ की कश्ती है,नदी ले के आओ
चाह के,ठीक से पढ़ नहीं पाते,खुदगर्जों का
पेश्तर किसी नतीजे, हम आये,रोशनी लेके आओ
सिमट गए हैं, अपने-अपने दायरे, सब के नसीब
‘पारस’की जाओ, कही ढूँढ के,‘कनी’ले के आओ
खुदा तेरे मयखाने, जाने कब से, प्यासा है ये ‘रिंद
किसी बोतल,किसी कोने‘बची,ज़रा-सी ले के आओ
१२२२ १२२२
जहाँ भी जो भी होता है
न चाहें तो भी होता है
सियासत आलुओं अक्सर
बगावत गोभी होता है
तनाव रहे न शिकन कहीं
इंसा सफल तभी होता है
दर्द सब दिल से निकल गए
रहम ख़ास कभी होता है
मिराज में भटके तब ा
सुशील यादव
19.७.१६
इतने गहरे घाव ...
२१२२ २१२२ २१२२ २२२.
खौफ रहजन का रखे हो,दर खुला भी रखते हो
कोई घर में अजनबी,अपने सिवा भी रखते हो
जानता हूँ मैं हकीकत सब , वफाओं की तेरी
याद के दश्त में भटकने का, सिला भी रखते हो
आइना किस काम का यूँ,लोग कहते हैं पागल
चेहरे में सब जहाँ के गम, मिला भी रखते हो
तुम उसी की सोचते , हैरान हुए जाते हरदम
वो तबाही सोचता, उस पे दुआ भी रखते हो
हाथ बंधे, पाँव बेडी डाल दी अगर किसी ने
बोल दो फूटें ज़रा, मुंह में जुबां भी रखते हो
घाव इतने भी तहों तक,ना उतारा कर दिल में
सोच में अपनी जिसे, सालो हरा भी रखते हो
हो गया था जीतना तय,बस उसी दिन तुम्हारा
राम मुंह में,जेब लेकिन , उस्तरा भी रखते हो
टूट जाते लोग चाहत को कंधे पर बैठाए
तुम इस जहाँ के नहीं जो हौसला भी रखते हो
सुशील यादव
२१२२ २१२२ २१२२ २
चेहरे क्यों हैं मलिन,.....
जिन्दगी को आदमी, आम की, नजर देखो
रख कभी सीने , वजन कोई , पत्थर देखो
डूबने लग जाए, स्वयं ही वजूद कभी
लहर उठती,रह किनारे, समुंदर देखो
आग नफरत की लगाकर, जो छिपा करते
उतरता 'खूनी' वहां कब , खंजर देखो
जो हमें बेख़ौफ़ मिलते, हर-कहीं हरदम
चेहरे क्यों हैं मलीन, आँखें भी अन्दर देखो
एक तमाशा सा, हुआ तेरे शह्र में कल भी
आज की, ताजी फिजा क्या है ,खबर देखो
@@@१८.१२.१५ ....सुशील यादव .
तुम बाग़ लगाओ, तितलियाँ आएँगी
उजड़े गाँव नई, बस्तियां आएँगी
जिन चेहरों सूखा, आँख में सन्नाटा
बादल बरसेंगे, बिजलियाँ आएँगी
दो चार कदम जो, चल भी नहीं पाते
हिम्मत की नई, बैसाखियाँ आएँगी
उम्मीद की बंसी, बस डाले रखना
किस्मत की सब, मछलियाँ आएँगी
सफर में अकेले, हो तो मालूम रहे
तेरे सामने भी, दुश्वारियां आएँगी
नाकामी अंदाज में, कुछ नये छुपाओ
अखबार छप के, सुर्खियाँ आएँगी
सुशील यादव
COMMENTS