डॉ. सुधीर आज़ाद ग़ज़लें : 1. इस बात पर मग़रूर है बदनाम था मशहूर है जब हिज़्र था तो उम्मीद थी लेकिन ये वस्ल बेनूर है मैं उसके रंग में र...
डॉ. सुधीर आज़ाद
ग़ज़लें :
1.
इस बात पर मग़रूर है
बदनाम था मशहूर है
जब हिज़्र था तो उम्मीद थी
लेकिन ये वस्ल बेनूर है
मैं उसके रंग में रंग चुका
वो मेरे नशे में चूर है
नहीं बेसबब यह चाँदनी
ये मुहब्बतों का नूर है
है पास वो रूह के बहुत,
पर जीस्त से बड़ा दूर है
कहते हुए रुकता है वो
कहना तो कुछ ज़रूर है
आवाम को अभी पास रख
दिल्ली अभी भी दूर है
ये ख़्वाब,हसरत,इश्क़ क्या
तेरा-मेरा फितूर है
2.
हिज्र होता है, विसाल होता है
इश्क़ में होना कमाल होता है
इश्क़ में इतनी-सी बात होती है
आदमी बेमिसाल होता है
होती रहती है नूर की बारिश
खालीपन भी गुलाल होता है
रोज़ लाऊं जवाब कैसे नया
रोज़ एक ही सवाल होता है
झूठ तुमसे मैं कह नहीं सकता
सच कहूँ तो बवाल होता है
दिल में तुम हो, तुम्हारा जुनूं सर पर
दीवाना तो हमाल होता है
.....
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सुशील यादव
कब तक बोलो ....
##
कब तक बोलो ,
हम अपने कन्धों पर
विवशताओं का रेगिस्तान
उठाये चलें ....?
अपनी प्यास
भावनाओं की मरीचिका से
कहाँ तक बहलाये चलें ....
किस दिशा में
तलाशे पत्थर
माथा किधर अपना पटकें ....?
आखिरी हर्फ जिस
कलम से लिख चुके
और कितना झटकें ....?
सुना है,
नई व्यवस्था के नाम,
मील के सभी पत्थरों को
मन्दिरों में तुमने कैद कर लिया है
ये ...
तुम्हारे इशारों पर नाचते हैं
तुम्हारी
सुरक्षा के कवच
नए -नए मुहावरों में
साँचते-
बांचते हैं ....
....बताओ ,
ऐसे में हमें
'दिकबोध' कहाँ हो
सफर ,कितना हमने 'तय' किया
कितना हम 'निकल' आये
ले ली है ,
तुमने शायद
पैदायशी शपथ,
नहीं होओगे
किसी 'तरस' पर
अनावृत
नहीं दिखाओगे
किसी सुविधा-सहानुभूति
के आगे
हसीं चलचित्र ....
हाँ इतना सच है ,
केवल देखने को हम शापित रहेंगे
तुम्हारा दागदार
चरित्र ....
पता नहीं आगे
कितनी सदियों तक ... ?
##
मेरा 'पर' मत नोचना,बाकी बहुत उड़ान
रहते हुए जमीन पर , नभ की चाह समान
कैदी आशाराम की ,हिचकोले में नाव
दुर्गति की अब जाल से,कैसे करें बचाव
निर्मल बाबा ये बता,कहाँ कृपा में रोक
शक्ति -भक्ति दो नाम की ,चिपक गई है जोंक
कैदी आशाराम को ,मिला न तारनहार
हर गुनाह ले डूबता,हिचकोले पतवार
एक सबक ये दे गया, कैदी आशाराम
कोई बाबा दे नहीं,याचक को आराम
अतुलित बल या ज्ञान का ,मिला जहाँ अतिरेक
समझो आशाराम सा ,निष्ठुर बना विवेक
अगर छलकता ज्ञान हो ,रखो उसे सम्हाल
दुर्गति के आरंभ में ,करें जांच -पड़ताल
मेरे हिस्से में नहीं ,कोई राख-भभूत
इसी बहाने जानता ,पाखण्डी करतूत
कैसे बेचें सीख लो , बात-बात में राम
मंदी में मिलने लगे,गुठली के भी दाम
बार-बार गलती वही ,दुहराते हो मित्र
शायद दुविधा के कहीं ,उल्टे पकड़े चित्र
महुआ खिला पड़ौस में ,मादक हुआ पलाश
किस वियोग में तू बना ,चलती फिरती लाश
मायावी जड़ खोदना,चढ़ना सीख पहाड़
वज्र सरीखे काम हैं ,जान दधीची हाड़
आओ मिल कर बाँट लें, वहमों का भूगोल
कहीं रखूं नमकीन मैं ,कुछ चीनी तू घोल
काशी मथुरा घूम के ,घूम हरी के द्वार
कोस दूर कानून से , यूपी और बिहार
करें प्रेम की याचना ,मिल जाए तो ठीक
वरना दुखी जहान है ,आहिस्ता से छींक
इस रावण को मारकर ,करते हो कुहराम |
भीतर तुम भी झाँक लो,साबुत कितना राम ||
#
रावण हरदम सोचता,सीढ़ी स्वर्ग दूं तान |
पर ग्यानी का गिर गया ,गर्व भरा अभिमान ||
#
रावण करता कल्पना ,सोना भरे सुगन्ध |
पर कोई सत कर्म सा,किया न एक प्रबन्ध ||
#
सीढ़ि स्वर्ग पहुचा सके ,रावण किया विचार |
आड़ मगर आता गया ,खुद का ही व्यभिचार ||`
#
रावण बाहर ये खड़ा ,भीतर बैठा एक|
किस-किस को अब मारिये, सह-सह के अतिरेक||
प्रीत-प्यार इजहार में,थे कितने व्यवधान
वेलेंटाइम ने किया , राह यही आसान
आये हैं अब लौट कर . हम अपने घर द्वार
दुविधा सांकल खोल दो ,प्रभु केवल इस बार
टूटे मन के मोहरे ,चार तरफ से तंज
कैसे दुखी बिसात पर ,खेले हम शतरंज
खुद को शायद तौलने,मिला तराजू एक
समझबूझ की हद रहें , खोये नहीं विवेक
भीतर कोई खलबली ,बाहर कोई रोग
लक्षण सभी हैं बोलते ,हुआ बसन्त वियोग
संभव सा दिखता नहीं,हो जाए आसान
शुद्र-पशु,ढोंगी-ढोर में ,व्यापक बटना ज्ञान
#
सक्षम वही ये लोग हैं,क्षमा किये सब भूल
शंका हमको खा रही ,बिसरा सके न मूल
#
संयम की मिलती नहीं,हमको कहीं जमीन
लुटी-लुटी सी आस्था ,है अधमरा यकीन
#
इतने सीधे लोग भी ,बनते हैं लाचार
कुंठा मजहब पालते ,कुत्सित रखें विचार
#
कुछ दिन का तुमसे हुआ ,विरहा,विषम,वियोग
हम जाने कहते किसे,जीवन भर के रोग
#
दिन में गिनते तारे हम ,आँखों कटती रात
यही बुढ़ापे की मिली ,बच्चों से सौगात
सुशील यादव दुर्ग
कहाँ-कहाँ पर ढूंढता ,जीवन का तू सार
दुश्मनी के अम्ल सहज ,डाल दोस्ती क्षार
उजड़े -उखड़े लोग हम ,केवल होते भीड़
सत्तर सालों बाद भी ,सहमा-सहमा नींड
मन की हर अवहेलना,दूर करो जी टीस
व्यवहारिकता जो बने ,ले लो हमसे फीस
बीते साल यही कसक ,हुए रहे भयभीत।
कोसों दूर हमसे रहे,सपने औ मनमीत।।
सुख के पत्तल चाट के,गया पुराना साल
दोना भर के आस दे,बदला रहा निकाल
भारी जैसे हो गए,नये साल के पांव
खाली सा लगने लगा,यही अनमना गांव
साल नया स्वागत करो ,हो व्यापक दृष्टिकोण
अंगूठा छीने फिर नहीं ,एकलव्य से द्रोण
मन की बस्ती में लगी ,फिर नफरत की आग
जिसको देना था दिया ,हमको गलत सुराग
मंदिर बनना राम का ,तय करते तारीख
चतुरे-ज्ञानी लोग क्यों,जड़ से खायें ईख
खोया क्या हमने यहॉं ,पाया सब भरपूर
तब भी हमको यूँ लगे ,दिल्ली है अति दूर
जागी उसकी अस्मिता,उठा आदमी आम
कीमत-उछले दौर में ,बढ़ा हुआ है दाम
अपनी दुकान खोल के,कर दे सबकी बन्द
राजनीति के पैंतरे ,स्वाद भरे मकरन्द
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग छतीसगढ़
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अमित मिश्रा
"काव्य" स्मृति की रेखाओं से
मेरे इस सूने मन में,
तुमने ही दीप जलाए।
इक आभा मन में देकर,
हो शून्य क्षितिज में छाए।।
मैं पा न सका था तुमको,
रह गई तम्मना बाकी।
क्यों छोड़ चल दिये हमको,
क्या रही याद न बाकी।।
तेरे शरीर की आभा,
जो अभी अधखिली ही थी।
क्यों त्याग दिया है तुमने,
जो अभी अनकही ही थी।।
तेरे उस चन्द्र वदन को ,
जो कली रूप में ही था।
अब पा न सकूंगा उसको ,
जो प्राण रूप मेरा था।।
मेरी नीरव आंखों से,
जो अश्रु पात होता है।
क्या खबर नहीं है तुमको,
कोई प्राण यहां खोता है।।
क्यों बुझा रहे हो मेरे ,
प्राणों की अंतिम ज्वाला।
आकर अब शून्य क्षितिज से,
पहना दो जीवन माला।।
*************************
वह स्नेह भरी लतिका,
जो गले की माला थी।
आज दूर खड़ी है क्यों,
क्या व्यर्थ निकटता थी।।
मैं दिनमणि था उसका,
वह इंदुमती मेरी।
मेरे प्रकाश से जो,
पल्लवित हुआ करती।।
दिनकर की किरणों सी,
थी आभा जिसमें देखी।
क्यों लाजवंत होकर,
है क्रोध लिए बैठी।।
उस भुवन मोहिनी छवि पर,
न्योछावर प्रणय मेरा था।
खुद मदन धरा पर आकर ,
जिसका सिंगार करता था।।
नीलाम्बर जैसा आँचल,
था ढके स्वर्णमय तन को।
थी रवि की प्रथम किरण सी,
न भूल सकूंगा उसको।।
*************************
मेरे क्षण भंगुर जीवन में,
वह ज्योति तरह थी आयी।
आकर इस शून्य हृदय में,
करुणा की बेल लगाई।।
मेरे प्राणों की रेखा,
जब क्षीण नजर आती थी।
आकर उस विकट समय में,
दिखला दी छवि बिजली सी।।
सावन की घटा घिरी थी,
झीनी थीं बूँदे पड़ती।
मेरे अंतर्मन की ,
ज्वालाएं फिर भी जलती।।
मैं अधिवासी उस घाटी का ,
जो दर्द में डूबी रहती।
तुम एक खिलौना माटी का,
जो मूर्ति बनी हो बैठी।।
सागर कल कल ध्वनि से,
था रोज यहां पर बहता।
मैं यहीं कहीं पर बैठा,
बस तेरी बाट जोहता ।।
ये धवल रेत कणिकाएं,
मेरे बिखरे मैन सी।
जीवन का सत्य दिखती,
बनकर पथदर्शी सी।।
ये शस्यश्यामला धरती,
जो विरह की शैय्या थी।
अब रेगिस्तान बानी है,
क्या व्यर्थ सहजता थी।।
मैं नीरव बदल सा,
चुपचाप यहां स्थिर हूँ ।
तुम झंझा युक्त तड़ित सी,
जाने कहाँ छिपी हो ।।
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मैं जान रहा हूँ यह भी,
तुम नहीं धरा पर अब हो।
पर हृदय मानता अब भी,
तुम यहीं कहीं विस्तृत हो।।
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माधव झा
करके अनुपम श्रृंगार,
भर के आंखों में प्यार।
मिलने को मुझसे आई थी,
परियों की रानी इक बार।।
शरमाते हुए सामने से आकर,
अपनी पलकों को झुकाकर।
थमा गई हाथ में मेरे,
एक प्यारा-सा गुलाब।
मिलने को मुझसे आई थी,
परियों की रानी इक बार।।
मुस्कुराते हुए कुछ कह रही,
मुझसे थी वह बार-बार।
कुछ भी समझ ना पा रहा था मैं,
हाल था हुआ मेरा बेहाल।
मिलने को मुझसे आई थी,
परियों की रानी इक बार।।
देख के उसकी कंचन काया,
अपनी तो सुध-बुध पर थी माया।
फिर दिल ने मेरे मुझ पर हुकुम चलाया,
कर ले तू भी प्यार भरा इजहार।
मिलने को मुझसे आई थी,
परियों की रानी एक बार।।
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द्रोणकुमार सार्वा
*कहाँ खो गई पगडंडी*
धूल भरे वो कांटे वाली
छोटी सी पहुचाने वाली
दिल को दिल से जोड़े रखती
खुशियाँ आँगन लेन वाली
कहाँ खो गई पगडंडी।।
प्यारे बचपन की प्यारी बातें
फूफी मौसी रिश्ते नाते
निश्छल था सबके भीतर का मन
बड़े जतन से सभी निभाते
मिटी दूरियां गांव शहर से
सिमट गया पर आज आदमी
कहाँ खो गई पगडंडी।।
सँकरे रस्ते फैल गए अब
बनी झोपड़ी महल हवेली
साक्षर हुए लोग यहाँ पर
रूप स्कूलों की कालेजो ने ली
भाभी भैया ताऊ ताई
गंगाबारु मीत सखाई
गांवों का वो दौर खो गया
पगडंडी भी सड़क हो गया
सच विकास का दौर हो गया
पर मानव को जोड़ा करते जो
वो कहाँ खो गई पगडंडी
गांव का झगड़ा चौपालों तक
न्याय सस्ती थी हर हाल पर
रस्ते बढ़े है थानों की चल पड़े है
हत्या लूट बलात्कार डकैती
न्याय बेचारी हो बिकती दा म पर
कहाँ खो गई पगडंडी।।
*द्रोणकुमार सार्वा*
मोखा(बालोद)
छत्तीसगढ़
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विकास त्रिवेदी 'प्रलय'
स्वामी विवेकानंद:-
१२ जनवरी १८६३ में उस महासूर्य का उदय हुआ,
उस कांतिमान बालक को पाकर हर्षित सबका हृदय हुआ,
ओज भरी वाणी थी जिनकी नरेंद्र दत्त था नाम,
प्रचार सनातन धर्म का करते थे अविराम,
विश्वनाथ जी पिता और भुवनेश्वरी देवी माता थी,
कलकत्ता की पावन वसुधा उनकी भाग्य विधाता थी,
परमहंस के योग्य शिष्य थे वेद पुराणों के ज्ञाता,
धर्म और दर्शन से उनका रहा बहुत गहरा नाता,
दिया शिकागो भाषण ऐसा सभी फिरंगी झूम गए,
विश्वगुरु भारत को माना उनके चरणों को चूम गए,
मैकाले के प्रबल विरोधी विधिवत हिंदी भाषी थे,
२२ भाषाओँ के ज्ञाता वे निज में मथुरा काशी थे,
बृह्मचर्य जीवन था उनका कर्मयोग निर्माता थे,
श्रुतिधरा कहे जाते थे धर्म सनातन त्राता थे ,
खेतड़ी के राजा अजित ने ही विवेक था नाम दिया,
बन विवेक स्वामी जी ने युवकों को नव आयाम दिया,
स्वामी जी ने ही वास्तव में तरुणाई का अर्थ बताया है,
होती क्या है युवा शक्ति सबको ये बोध कराया है,
शत बार नमन भारत भू को जहाँ विवेकानंद हुए,
नवयुवकों के आदर्श बने भारत के स्वप्न बुलंद हुए !!
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डां नन्द लाल भारती
सुरसा
वो दिन वो रात याद हैं बाबू,
जल उठता था दीया भोर मे
चौखट पर जब..............
दादा जुट जाते थे
करने सानी पानी
गाते थे निर्गुण सुहावन
भोर हो जाती थी लुभावन.......
दादा बैलों के कान मे कहते
उठ जा अब धीरु वीरू
कर लो दाना पानी
हो गया सानी पानी.......
बज उठती थी बैलों की घण्टी
दादा भी लेकर बैठ जाते थे
हुक्का
टूटी खाट हो या मचिया पुरानी....
मुंह उठाया जब बैलों ने
हौदी से
दादा बुझ जाते थे आसन
बैलों के...........
दुलारते पीठ थपथपाते
पहना देते थे जुआठ की माला
बैल धारण कर ये काठ का गहना
चल पड़ते थे खेत की ओर
खुद दादा हल कंधे पर लादे
पीछे पीछे चलते
पंक्षी गाते चल उठ मुसाफिर
हो गई भोर.......
भोर मे बैलों की घण्टी खूब भाती थी
मंदिर की घण्टी मस्जिद की अजान
जैसी सुहाती थी........
सब कुछ बदल गया है अब
बाजार युग है अब प्यारे .........
लद गए दिन मेहनत के
जीने की आदत पड़ गई
मशीन युग मे.............
काश हल बैल और धरती से
रिश्ता कायम रहता
ना स्वार्थ की सुरसा होती
ना बैल ठीहे पर, ना किसान
सूली पर चढता........
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रुचि प जैन
धरा
धरा तुम देवी हो,माँ हो, सखा हो,
चित मोहिनी, अन्नपूर्णा , वसुंधरा हो।
हरीतिमा का आँचल ओढ़े ,
निर्झरों की माला हो।
साक्षात जीवन दायनी हो,
अंबर से ढकी हो,
सूर्य चंद्र का मुकुट धारी हो।
जड़ी बूटियों , औषधियों का भण्डार हो,
मूक हो पर देती सबको सीख हो,
तुम अद्वितीय हो, अद्भुत हो।
ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति हो,
प्रत्येक अलंकार से पूर्ण , तुम सौंदर्य की पराकाष्ठा हो।
तुम सदा ही दायनी हो, लुटा देती अमृत हो,
प्रतिकार में न कुछ लेती हो,
हर जीव के चित में सौरभ फैला देती हो।
हे !मानव अब तो कुछ सुध ले, पुत्र हो,
अब तो कुछ अपने कर्तव्य का भान हो,
सोए थे जिसकी गोद मे , उसकी रक्षा अब तुम्हारा धर्म हो।
निर्दयता से धरा माँ के लालों को क्यों नष्ट कर रहे हो,
स्वार्थ , ईर्ष्या , क्रोध विध्वंसकारी भावों से भरे हो,
पहचानो अब तो भूल अपनी ,क्यों सिर्फ़ दूसरों पर दोषारोपण करते हो।
एक ही धरा के लाल तुम हो,
मिट जाए वर्चस्व इसका , तुम सजग हो,
फैल रहा अँधियारा ,अब सबके मन में यही प्रण हो,
भूल सब निजता को, मन से निकले माँ ये जीवन तुम्हें ही समर्पण हो।
Email- ruchipjain11@ yahoo.com
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प्रिया देवांगन "प्रियू"
स्वच्छता अभियान
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स्वच्छ भारत अभियान,
स्वच्छ भारत अभियान ।
गली मोहल्ला साफ रखो ,
और स्वच्छता अपनाओ ।
घर हो चाहे बाहर हो ,
कचरा मत फैलाओ ।
दुश्मन को दोस्त बनाओ ,
स्वच्छता अपनाओ ।
अपने मन को स्वच्छ रखो और
अच्छी सोच अपनाओ।
वातावरण को स्वच्छ रखने से ,
तन मन शुद्ध हो जायेगा।
हर तरफ खुशहाली होगी ,
बीमारी दूर हो जायेगा।
पर्यावरण को बचाना है ,
भारत को स्वच्छ बनाना है ।
स्वच्छ रखने से हर घर में ,
रोज खुशियाँ आयेगी ।
छू न सकेगी बीमारी ,
झट से दूर हो जायेगी।
बीमारी को भगाना है
स्वच्छता अपनाना है।
स्वच्छ भारत अभियान चलाओ ,
जीवन में खुशियाँ फैलाओ ।
--
पंडरिया (कवर्धा )
छत्तीसगढ़
priyadewangan1997@gmail.com
हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार और समृद्धि के लिए सराहनीय कदम।
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