अपने देश की एक बड़ी खासियत यह भी है कि यहाँ यदि कोई बेकार से बेकार बात भी संस्कृत में कह दी जाए तो प्रायः सभी लोग यह मान लेते हैं कि यह वेद-...
अपने देश की एक बड़ी खासियत यह भी है कि यहाँ यदि कोई बेकार से बेकार बात भी संस्कृत में कह दी जाए तो प्रायः सभी लोग यह मान लेते हैं कि यह वेद-वाक्य है। वेद-वाक्य यानी किसी महान ऋषि अथवा देवता की वाणी, आर्ष वाक्य, जिस पर शंका करने अथवा प्रश्न उठाने का आपको कोई अधिकार नहीं। ऐसा ही एक वेद-वाक्य है- वचने किम् दरिद्रता? इसका हिन्दी अनुवाद होगा- बोलने में क्या जाता है?
सोलहों आने सही बात है। अरे, भाई! बोलने में आपका क्या जाता है? आप कोई रघु-कुल वाले तो हैं नहीं कि प्राण जाहिं पर वचन न जाई। कोई आपसे कुछ काम करने को कहता है, अथवा आपके मन में थोड़ी देर को झक्ख सवार होती है कि अमुक-अमुक काम होना चाहिए, अथवा अमुक-अमुक को यह प्यारी, मधुर वाणी बोलकर बुद्धू बनाया जाए, तो आप बोल दीजिए। जो आपको पसंद आए वह बोलिए, अथवा जो आपका श्रोता सुनना चाहे- वह बोलिए। यानी बस बोल दीजिए, बोलने में क्या जाता है? अलबत्ता कुछ आता ही है। आप किसी की मनभावन बात बोलिए, वह खुश हो जाएगा। यदि उसके दिमाग का दिवाला पिटा होगा तो यह भी नहीं सोचेगा कि आपने उसका मन रखने के लिए बस यूँ ही उसकी मन-पसंद बात बोल दी है, और वह आपकी चाशनी-पगी बातों को ही सच मानकर आपका मुरीद हो जाएगा। अपने देश में अधिकतर नेताओं को यह तत्व-बोध पैदाइशी यानी जन्मजात होता है। वे वही बोलते हैं जो श्रोता को पसंद हो। मधुर-मधुर बोलकर वे जनता के हृदय-हार बन जाते हैं। जनता उन्हें चुनाव में जिता देती है। नेता अपना उल्लू सीधा करने लगते हैं और जनता फिर से किसी मधुर-भाषी, प्रियंवद नेता की मधुरं प्रियं वाणी की बाट जोहने लगती है। अपने यहाँ कहावत है- मधुर वचन है औषधी, कटुक वचन है तीर। नेता लोग इस दिव्य ज्ञान से शुरू से ही अभिज्ञ रहते हैं। उन्हें झूठा कहने वाला महा अज्ञानी। उसे अपनी महान परंपरा का तनिक भी ज्ञान नहीं।
यही बात हमारे दफ्तरों के पूरे परिवेश पर लागू होती है। हमारे दफ्तरों की तुलना किसी पारितंत्र की आहार-शृंखला से की जा सकती है। सबसे नीचे सबसे छोटे पदक्रम का कर्मचारी, उसके ऊपर लिपिकीय संवर्ग वाले छोटे-बड़े कर्मचारी, उनके ऊपर छोटे-बड़े अधिकारी, उनके ऊपर ...। हर नीचे वाला अपने से हर ऊपर वाले का उपजीव्य। ऊपर वाला नीचे वाले का परजीवी। नीचे वाले को यह अधिकार नहीं कि वह किसी भी बात में, यानी कच्ची-पक्की, अच्छी-बुरी, घटिया-बढ़िया, किसी भी तरह की बात में ऊपर वाले की हाँ में हाँ न मिलाए। जैसे शोले फिल्म में गब्बर सिंह तब तक बसंती के प्रेमी बीरू पर गोली नहीं चलवाता, जब तक बसंती नाचती रहती है, वैसे ही हमारे दफ्तरों में होता है। बॉस रूपी गब्बर सिंह तब तक अपने अधीनस्थ बीरू की जान बख्शता रहता है जब तक वह गब्बर के इशारों पर नाचता रहता है। इशारों पर नाचना बंद किया तो समझो गोली दगी। सरकारी तंत्र का यही हाल है। और प्राइवेट का? उसका तो इससे भी बुरा हाल है। तो ऐसे में कौन नासमझ होगा जो वचन-दारिद्र्य दिखाए! बॉस दिन के बारह बजे कहे कि रात है तो अधीनस्थ चट से हाँ में हाँ मिलाए कि हाँ सर, कितनी अँधेरी रात है!
बॉस कोई काम करने को कहे, तो अधीनस्थ का धर्म क्या है? यस सर, यस मैडम, बिलकुल सर, बिलकुल मैडम। हो जाएगा सर, अभी करता हूँ मैडम। इसके अलावा कुछ भी कहना वर्जित है। कुछ और कहा तो गये। बॉस की नज़रों से गिरकर सीधे बीस फुट गहरे और शहर के सबसे गंदे सीवर में चले जाएँगे, फिर बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं। वहीं सड़िए रिटायर होने तक। और यस-यस, हाँ-हाँ कहते रहे तो? हो जाएगी- बल्ले-बल्ले। यह सोचकर तिल-तिल घुलने की ज़रूरत नहीं कि बॉस के सामने यस-यस करते रहे और बाद में उनका बताया काम नहीं कर पाए तो क्या होगा! अरे, होगा क्या! कद्दू होगा! बॉस को भी पता है कि अमुक काम हो सकता है, अमुक नहीं। वह तो बस नो यानी नहीं शब्द सुनना नहीं चाहते। बॉस हमेशा सकारात्मक सोच वाले होते हैं। काम असंभव हो तो भी उन्हें ना सुनना नकारात्मक लगता है। और बॉस की ईगो का क्या? आपने नहीं कहा नहीं कि बॉस की ईगो पर गोला दगा नहीं। बॉस का दिया कोई काम न करो, पर उसकी ईगो का सम्मान करते चलो। बॉस है तो ईगो है, उनकी ईगो है तो आप का करियर है। कभी सोचता हूँ कि कुत्ते जैसा गंधैला जीव मनुष्य जैसे सुरुचि-संपन्न जीव का असीम, अगाध, अनन्य प्यार कैसे पा लेता है! दर असल कुत्ते की खुद की कोई ईगो नहीं होती। वह अपने मालिक के आगे दुम हिलाता है, कूँ-कूँ करता है, उसकी घुड़की और प्यार सब कुछ को सम भाव से ग्रहण करता है। इसलिए वह मालिक के प्यार का पात्र बन जाता है। भगवान और भक्त के मध्य भी यही संबंध होता है। इसीलिए कबीर ने कहा- हौं तो कूका राम का, मुतिया मोरा नांउँ। गले राम की जेवड़ी, जित खींचे तित जांउँ। बॉस और अधीनस्थ के मध्य ऐसा संबंध स्थापित हो जाए, इसके लिए जरूरी है बॉस की हाँ में हाँ मिलाना, यानी वचने किम् दरिद्रता।
यह शब्द-स्फीति ही हमारे भारतीय समाज का वर्तमान युग-सत्य है। जिसे देखो- भाषण झाड़ रहा है। तरह-तरह के आदर्श बघार रहा है। बातों की खेती लहलहा रही है। बाबा लोग बड़े-बड़े तम्बू- पण्डाल लगाकर हजारों श्रद्धालुओं के सामने अपने वचनामृत की नदियाँ बहा रहे हैं। अपने देश में सबसे उपजाऊ, सबसे कमाऊ कारोबार यही रह गया है। मधुर, मृदु शब्दों की झड़ी लगाओ, लोगों को बुद्धू बनाओ और उनका सर्वस्व हर लो। अपने श्रद्धालुओं की धन-सम्पत्ति ले लो, उनकी युवा सुदर्शना पत्नी, बेटी, बहू की आबरू ले लो और बदले में उन्हें अच्छी-अच्छी बातें दे दो। बातें ले जाकर वे अपने घर में रक्खें। आपको तो उनका सब कुछ चाहिए और उन्हें आपकी मधुर-मधुर बातें। उनका काम आपकी बातों से चल जाएगा। इस गरीब लेखक की बात पर यकीन न हो तो भारत की जेलों में बंद बाबाओं और नेताओं का स्मरण करें।
मानव सभ्यता की सबसे अमूल्य थाती ये बातें ही हैं, जो हमारी भांति-भांति की किताबों में भरी पड़ी हैं। दिल्ली और उसके आस-पास, खास तौर से ब्रज-प्रभावित इलाकों की स्थानीय बोल-चाल में किस्से-कहानी को भी ‘बात’ कहा जाता है। इस लिहाज से बात का अर्थ है किस्सा-कहानी, कपोल-कल्पना। जब कोई नेता या उच्चाधिकारी कोई मन-भावन, लोक-लुभावन वादा करता है, नारा उछालता है तो उसका आशय इस किस्से-कहानी वाली बात से अधिक कुछ नहीं होता। यह पक्का जानिए। ये लोग कहते हैं कि देश के करोड़ों युवाओं को नौकरी दे देंगे। कोई इनसे पूछे कि भाईजी, कोई ठोस आंकड़ा है आपके पास, या यों ही बतोले मार रहे हो? ठोस आंकड़ा कोई न होगा। होगा भी तो उसमें सच्चाई न होगी, क्योंकि सच्चाई और आंकड़े में फर्क होता है। विश्वास न हो तो सांख्यिकी विशेषज्ञों से पूछ लें और उच्चाधिकारियों से उसकी तसदीक कर लें। आंकड़ा यानी आंकड़ा, सच्चाई यानी सच्चाई- दोनों परस्पर पर्याय नहीं होते।
प्रायः देखने में आता है कि मरीज़ धीरे-धीरे, टुकड़ा-टुकड़ा मर रहा होता है तो भी उससे मिलने गये लोग यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते कि आपका मर्ज़ तो दिन ब दिन बिगड़ता चला जा रहा है। वे झूठ बोलते हैं- पहले से तो आप काफी ठीक लग रहे हैं। हौसला रखिए, जल्द ही आप अस्पताल से छुट्टी पाकर घर आ जाएँगे। इसी को ग़ालिब ने कहा- दिल के बहलाने को ग़ालिब खयाल अच्छा है। बाबा तुलसीदास ने ताकीद की- मंत्री, गुरु अरु वैद्य जो प्रिय बोलहिं भय आस, देस, सिस्य अरु देह को होय बेगिही नास। पर आज का मंत्री, आज का गुरु और आज का वैद्य- कोई भी सच बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। उसके पास इतना नैतिक बल नहीं, इतना साहस नहीं और उसके मन में इतनी समाई, सबूरी व संतोष नहीं कि वह सच बोल सके। यदि वह सच बोल दे तो उसका व्यावसायिक हित प्रभावित होगा। मंत्री यानी जिसे मंत्रणा देने का दायित्व प्राप्त है, यानी किसी बड़े अधिकारी का छोटा मातहत सच बोले तो बॉस की झिड़की सुने, बॉस की नाराज़गी मोल ले। गुरु यानी शिक्षक सच बोले तो उसकी संस्था या ट्यूटोरियल के विद्यार्थी घट जाएँ, बिल्डिंग की बनवाई न निकले, उसके खर्चे न पूरे हों; वैद्य यानी चिकित्सक सच बोले तो मरीज़ आगे इलाज न कराए, मृतप्राय मरीज़ को वेंटिलेटर पर चढ़ाकर वसूला जा रहा आईसीयू का किराया न निकले, बैंक से लिए गए ऋण की किस्त न चुक पाए। हर पेशे की यही सच्चाई है। इसीलिए संस्कृत में एक और वेद-वाक्य परोसा गया- न ब्रूयात् सत्यं अप्रियम्। अप्रिय सच न बोलो।
सच सुनने के लिए हिम्मत चाहिए और वह हिम्मत हमारे भीतर है नहीं। इसलिए हम झूठ दर झूठ बोलते जाते हैं। तर्कवादियों के तईं दुनिया की बहुत-सी खूबसूरत अवधारणाएं झूठ हैं। इन अवधारणाओं में स्वर्ग और नरक, पुनर्जन्म, पाप-पुण्य और भगवान तक शामिल हैं। महात्मा बुद्ध तक ने इस बात को स्वीकार किया। इसीलिए हमारे अपने काल के महान कवि श्री हीरानन्द सच्चिदानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने अपनी ‘सागर-मुद्रा’ शीर्षक कविता में कहा- ‘जितना तुम्हारा सच है/ उतना ही कहो।’
पर हम तो यह नहीं मानते। हम तो फिर भी कहेंगे- वचने किम् दरिद्रता! बोलने में क्या जाता है!
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