राजेश माहेश्वरी 106, नया गांव हाउसिंग सोसायटी रामपुर, जबलपुर समर्पण ये रचनाएं समर्पित हैं मेरी पौत्रियों मान्या एवं सात्विका को सुखद एवं सफल...
राजेश माहेश्वरी
106, नया गांव हाउसिंग सोसायटी
रामपुर, जबलपुर
समर्पण
ये रचनाएं
समर्पित हैं
मेरी पौत्रियों
मान्या एवं सात्विका को
सुखद एवं सफल जीवन की
शुभकामनाओं और स्नेहाशीषों के साथ।
आत्म-कथ्य
कभी खुशी - कभी गम के बीच जीवन के साठ बसंत जाने कब बीत गये।
जो कुछ देखा, सुना और समझा उन अनुभूतियों और विचारों को कविता, कहानी और उपन्यास के रूप में व्यक्त किया।
कुछ सच और कुछ कल्पना का सहारा लेकर अपनी अभिव्यक्तियों को सरस और सरल बनाने का प्रयास किया है।
मेरा सृजन पाठकों को प्रसन्नता भी दे और कुछ प्रेरणा भी दे सके तो समझूंगा कि मेरा प्रयास सफल रहा है।
रचनाओं को सजाने संवारने में श्री अभय तिवारी और श्री राजेश पाठक ’प्रवीण’ का अमूल्य सहयोग प्राप्त होता रहा है जिसके लिये मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।
राजेश माहेश्वरी
106, नया गांव हाउसिंग सोसायटी
रामपुर, जबलपुर
अनुक्रमणिका
1- पात्र की महिमा
2- धीरज
3- धन की महिमा
4- विवेक
5- विनम्रता
6- मौलिकता
7- शरणागत
8- लातों के भूत
9- अहंकार
10- भेड़ और भेड़िये
11- चतुराई
12- आलसी
13- पालतू
14- परिश्रम
15- कौआ
16- साधन
17- सात्विका
18- ततैया
19- चेहरे पे चेहरा
20- मित्र और मित्रता
21- धन का सदुपयोग
22- पत्थर
23- ईर्ष्या
24- हम कैसे आगे बढे़
25- प्रथम श्रेणी में प्रथम
26- ईमानदार बेईमानी
27- चाहत
28- मैं कौन हूँ
29- हार-जीत
30- फातिहा
31- निर्जीव सजीव
32- आत्म सम्मान
33- प्रायश्चित
34- वेदना
35- सेवा का महत्व
36- आत्मविश्वास
37- बाँसुरीवाला
38- ईश्वर कृपा
39- पाश्विकता
40- जीवन का सत्य
41- नाविक
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1 पात्र की महिमा
यह घटना मगध की है। मगध के एक छोटे से राज्य के राजा की कोई सन्तान नहीं थी। जब वे वृद्धावस्था के करीब पहुँचे तथा उन्हें लगा कि उनके जीवन का सूर्य अब अस्ताचल के करीब जा रहा है और सन्तान प्राप्ति की कोई आशा नहीं रही तो उन्होंने अपने राज्य के एक सैनिक को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। वह सैनिक बहुत वीर और साहसी था। वह बहुत बुद्धिमान भी था। उसने अपनी बुद्धि और वीरता से अनेक बार राजा के प्राणों की रक्षा की थी। यही कारण था कि राजा का उस पर स्नेह और विश्वास था। राजा की मृत्यु के बाद वह राजगद्दी पर बैठाया गया।
मगध के नागरिक उसका सम्मान नहीं किया करते थे क्योंकि वह एक गरीब परिवार से आया था। वह राजघराने का व्यक्ति नहीं था। उसने अपना जीवन बहुत निचले स्तर से प्रारम्भ किया था। वह भी यह जानता था कि मगध के लोग उसका सम्मान नहीं करते हैं किन्तु उसने इसके लिये कोई सख्त कदम नहीं उठाये। वह चतुराई के साथ उन्हें अपने पक्ष में करता चला गया। जब उसने देखा कि अब लोग उसके पक्ष में तो आ गये हैं लेकिन अभी भी उनके मन में यह झिझक है कि मैं एक निचले गरीब परिवार का व्यक्ति हूँ तो उसने एक उपाय किया।
राजा के रुप में उसके पास जो सम्पत्ति थी उसमें एक सोने का पात्र था। वह पात्र उसके और उसके अतिथियों के विशेष अवसरों पर पैर धोने और मुँह आदि धोने के उपयोग में लाया जाता था। उसने उस पात्र को तुड़वाकर उससे एक देवता की मूर्ति बनवाई। उसने वह स्वर्ण की प्रतिमा नगर में एक सबसे अच्छी जगह पर लगवा दी। लोग उस मूर्ति का सम्मान और पूजन करने लगे। वह प्रतिमा बहुत पूजनीय हो गई थी। एक बार उसके राज्य में एक समारोह था। उसमें राज्य के लगभग सभी लोग उपस्थित थे। जिस समय उस जन समुदाय को राज्य के महामन्त्री संबोधित कर रहे थे तो उन्होंने सभी उपस्थित नागरिकों को बतलाया कि देवता की वह सम्मानित मूर्ति कभी राजा के अतिथियों के पैर धोने का पात्र थी जिसमें लोग पैर धोते थे, कुल्ला करते थे और अपनी गन्दगी साफ किया करते थे। उसने उन्हें समझाया कि सोना तो सोना ही होता है। चाहे वह गन्दगी धोने का पात्र हो या फिर देवता की मूर्ति। महत्व सोने का नहीं है महत्व उस रुप का है जो उसे दिया गया है।
कोई व्यक्ति किस परिवार का है या कैसे परिवार का है यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी महत्वपूर्ण बात यह है कि उसका आचरण कैसा है और वह कार्य क्या करता है। अच्छे कार्य करने वाला निम्न परिवार का होकर भी सम्माननीय हो सकता है और अच्छे परिवार का होकर भी एक व्यक्ति अपने कार्यों के कारण निन्दनीय हो सकता है। लोगों को उसकी बात समझ में आ गई और फिर सारा राज्य उसका सम्मान करने लगा।
धीरज
सिकन्दर महान ने अपने दो भगोड़े सैनिकों को मौत की सजा सुनाई। उनमें से एक यह जानता था कि घोड़े सिकन्दर को बहुत पसंद हैं। वह अपने घोड़ों से बहुत प्रेम करता था। उसने सिकन्दर से कहा- अगर आप मेरी जान बख्श दें तो मैं आपके घोड़े को एक साल में उड़ने की कला सिखा सकता हूँ। ऐसा होने पर आप दुनिया के इकलौते उडने वाले घोड़े पर सवारी कर सकेंगे।
यह बात उसने कुछ इस प्रकार कही कि सिकन्दर सहित वहाँ उपस्थित लोगों को भी लगा कि वह घोड़े को उड़ना सिखा सकता है। सिकन्दर उसकी बात मान गया और उसने एक साल का समय उसे घोड़े को उड़ने की कला सिखाने के लिये दे दिया। साथ ही उसने यह शर्त भी रख दी कि यदि वह घोड़े को उड़ना नहीं सिखा पाया तो उसका सर उसके धड़ से अलग कर दिया जाएगा। उस सैनिक ने सिकन्दर की बात को स्वीकार कर लिया।
उसका दूसरा साथी यह जानता था कि यह कार्य असंभव है और उसके साथी ने मात्र एक साल का समय लेने के लिये यह सब किया है।
उसने उससे कहा- तुम जानते हो कि तुम घोड़े को उड़ना नहीं सिखा सकते तब तुमने इस प्रकार की बात कैसे की और कैसे सिकन्दर ने इस शर्त को मान लिया? जबकि तुम केवल अपनी मृत्यु को एक साल के लिये टाल रहे हो।
ऐसी बात नहीं है। मैंने अपनी जान बचाने के लिये दरअसल स्वतंत्रता के तीन मौके लिये हैं। पहली बात यह कि सिकन्दर महान एक साल के भीतर मर सकता है। दूसरा यह कि एक साल के भीतर मैं मर सकता हूँ। तीसरी बात यह कि यह घोड़ा मर सकता है।
फिर ऐसा हुआ कि एक साल के भीतर सिकन्दर ही इस दुनिया से विदा हो गया और वह कैदी हमेशा के लिये आजाद हो गया। उसे विपरीत परिस्थितियों में भी धीरज न खोने का पुरूस्कार मिल गया।
धन की महिमा
एक धनवान व्यक्ति था किन्तु वह बहुत कन्जूस था। एक बार उसने अपनी सारी सम्पत्ति को सुरक्षित रखने का एक उपाय सोचा। उसने अपना सब कुछ बेच दिया और सोने की एक बड़ी सिल्ली खरीद ली। उसने उसे दूर एक सुनसान जगह पर जमीन के भीतर छुपा दिया। अब वह प्रतिदिन उसे देखने जाने लगा। उसे देखकर वह संतुष्ट हो जाता और प्रसन्नता पूर्वक वापिस आ जाता था।
उसके एक नौकर को उत्सुकता जागी कि उसका मालिक प्रतिदिन कहाँ जाता है। एक दिन उसने छुपकर उसका पीछा किया। उसने देखा कि मालिक एक जगह पर जाकर जमीन के भीतर कुछ खोदकर देख रहे हैं फिर उसे वैसा ही पूर कर वापिस लौट आए हैं। उनके आने के बाद वह वहाँ गया। उसने वहाँ खोदकर देखा। उसे वहाँ वह सोने की सिल्ली मिली। उसने उसे रख लिया और मिट्टी पूर कर वापिस आ गया।
अगले दिन वह कंजूस जब अपना धन देखने गया तो वहाँ कुछ भी नहीं था। यह देखकर वह रोने लगा। वह दुख में डूबा हुआ रोता हुआ घर वापिस आया। उसकी स्थिति पागलों सी हो गई थी। उसकी इस हालत को देखकर एक पड़ौसी ने इसका कारण पता किया और कारण पता लगने पर वह उस कंजूस से बोला- तुम चिन्ता मत करो। एक बड़ा सा पत्थर उठाकर उस स्थान पर रख दो। उसे ही अपनी सोने की सिल्ली मान लो। तुम उस सोने का उपयोग तो करना ही नहीं चाहते थे। इसलिये तुम्हारा रोना व्यर्थ है, तुम्हारे लिये तो उस पत्थर और सोने में कोई फर्क नहीं है।
विवेक
एक बार एक घाटी में एक शेर एक सांभर का पीछा कर रहा था। वह उसे पकड़ने ही वाला था और हसरत भरी आंखों से निश्चिन्त होकर संतुष्टि दायक भोजन की कल्पना कर रहा था। उसे पूरा विश्वास था कि उसका शिकार अब उससे बचकर नहीं निकल सकता। एक गहरी खाई सामने थी। सांभर बहुत तेजी से भाग रहा था, अपनी जान बचाने के लिये उसने अपनी पूरी ताकत लगाई और कमान से निकले तीर की तरह कूदकर खाई को पार कर गया और एक चट्टान पर खड़े होकर पीछे मुड़कर देखने लगा। वह बहुत थक चुका था। उसके लिये अब आगे चलना संभव नहीं था। उसका पीछा करता हुआ शेर घाटी के इसी ओर रूक गया। उसे वह घाटी पार करना संभव नहीं लग रहा था। शिकार को हाथ से जाता देखकर वह बहुत निराशा और झुंझलाहट में था। तभी उसकी मित्र लोमड़ी उसके पास आई। वह भी शेर के पीछे-पीछे ही आ रही थी।
वह बोली- आप इतने ताकतवर और तेज होते हुए भी क्या एक कमजोर सांभर से हार जाएंगे। आपमें सिर्फ इच्छा शक्ति की कमी है, वरना आप चमत्कार कर सकते हैं। यद्यपि यह खाई गहरी है लेकिन यदि आप सचमुच गंभीर हैं तो मैं यकीन के साथ कह सकती हूँ कि आप इसे आसानी से पार कर जाएंगे। आप मेरी निस्वार्थ मित्रता पर विश्वास कर सकते हैं। अगर मुझे आपकी शक्ति और तीव्रता पर विश्वास नहीं होता तो मैं आपको ऐसी सलाह कभी नहीं देती जिससे आपके जीवन को खतरा हो।
शेर का खुन गर्म होकर उसकी शिराओं में दौड़ने लगा। उसने अपनी पूरी ताकत से छलांग लगा दी। किन्तु वह घाटी को पार नहीं कर सका। वह सिर के बल नीचे गिरा और मर गया। उसकी वह मित्र लोमड़ी यह देख रही थी। वह सावधानी से घाटी में नीचे उतरी और खुले आसमान के नीचे खुली हवा में उसने देखा कि शेर के प्राण निकल चुके हैं। अब उससे डरने या उसकी चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसने कुछ दिनों में ही उसकी हड्डियां तक साफ कर दीं।
शेर क्रोध में आ जाने के कारण विवेक शुन्य हो गया और घाटी को पार करने की मूर्खता कर बैठा। विवेक को जाग्रत रहना चाहिए। यह भगवान का वरदान है। विवेकशील व्यक्ति ही जीवन में सकारात्मक सृजन करके समाज के लिये कुछ कर पाता है। विवेकहीन व्यक्ति तो बस पशुओं के समान होता है।
विनम्रता
रामसिंह अपनी दुकान पर बैठे हुए थे तभी उनके मित्र हरिसिंह का पुत्र रमेश कुछ लेने के लिये आया। उस समय ग्राहकी तेज थी। अनेक ग्राहक सामान लेने के लिये अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। रामसिंह और उनका नौकर जितनी तेजी से संभव था उतनी तेजी से काम कर रहे थे। रमेश ने दूसरे ग्राहकों की उपेक्षा करते हुए तेज और कर्कश स्वर में सामान मांगा। उसका यह आचरण रामसिंह को अच्छा नहीं लगा और उसने लगभग उसे डांटते हुए उससे कहा कि-तुमसे पहले से ये लोग खड़े हैं पहले इन्हें सामान दूँगा तुमको थोड़ा रूकना पड़ेगा।
उसे यह बात नागावार गुजरी और वह दुकान से बाहर निकला तथा घर आकर पिता से बोला कि उनके मित्र ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया है। उसकी बात पर हरिसिंह को विश्वास नहीं हुआ। वे दोनों अच्छे मित्र थे वह रामसिंह के स्वभाव से वाकिफ था। हरिसिंह ने अपने बेटे से कहा- तुम मेरे साथ चलो! मैं देखता हूँ। वे दोनों रामसिंह की दुकान पर पहुँचे। उस समय भी रामसिंह एक ग्राहक को सामान दे रहा था। हरिसिंह चुपचाप अपने बेटे के साथ वहीं पड़ी बेन्च पर बैठ गया। उसने रमेश को भी अपने बगल में बैठा लिया। जैसे ही रामसिंह ग्राहक से निवृत्त हुआ उन दोनों में दुआ-सलाम हुई। तब हरिसिंह ने उससे कहा- क्या बात है रमेश आपसे क्यों नाराज हो गया है?
रामसिंह ने सारी बात जब अपने मित्र को समझाई तो हरिसिंह ने बेटे से कहा- हमारे विनम्र होने में ही समझदारी है। विनम्रता का अर्थ सिर्फ मीठी वाणी ही नहीं है बल्कि अपने मन में दूसरे के प्रति आदर रखते हुए अपनी बात को प्रस्तुत करना होता है। हमें अपनी बात इस प्रकार रखना चाहिए कि सुनने वाले के हृदय में कोई ठेस न लगे और वह भी हमें उसी प्रकार उत्तर दे। जब हम अपनी बात को जोर-जोर से दूसरे की भावनाओं को समझे बिना कहते हैं तो वह असभ्यता है और असभ्यता मूर्खता की श्रेणी में आती है। हमारे असभ्य व्यवहार से हमारी मित्रता शत्रुता में बदल सकती है। यह वैसा ही पागलपन होगा जैसे हम अपने ही घर में स्वयं आग लगा लें।
विनम्रता में कभी कन्जूसी नहीं करना चाहिए और समझदार आदमी इसका प्रयोग पूरी उदारता से करता है। वैसे तो मोम कठोर होता है किन्तु उसे जरा सी गरमी देकर कोमल बनाकर जैसा चाहो वैसा आकार दिया जा सकता है। इसी प्रकार विनम्रता और मित्रतापूर्ण व्यवहार की आँच से कठोर से कठोर हृदय को अपने वश में किया जा सकता है और उससे मनचाहा कार्य कराया जा सकता है।
विनम्रता इन्सान के स्वभाव पर वही असर डालती है जो गरमी मोम पर डालती है। विनम्रता एक गुण ही नहीं है वरन वह एक ऐसा साधन और ईश्वर द्वारा दिया गया एक असाधारण उपहार है जिसका प्रयोग करके आप हारी हुई बाजी को भी जीत में परिवर्तित कर सकते हैं। वह हमारी सभ्यता, संस्कृति एवं संस्कारों का आधार है। किसी से क्रोध में बात करना शब्दों या हावभाव से नफरत को प्रदर्शित करना एक ओछापन और बुरी आदत है। रमेश चुपचाप सुन रहा था वह शर्मिन्दा और नतमस्तक था।
मौलिकता
एक युवा चित्रकार कला एकेडेमी से शिक्षा पूरी करके प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर निकला। उसे चित्रकला से बहुत प्रेम था। वह उसके प्रति समर्पित था। वह अच्छे-अच्छे कलाकारों की कलाकृतियों की हू-बहू नकल कर देता था। वह इसमें इतना पारंगत था कि यह समझना मुश्किल हो जाता था कि कौन असली है और कौन नकली। वह जहाँ भी अपनी कलाकृतियों को प्रदर्शित करता था वहाँ उसकी सराहना तो होती ही थी साथ ही दर्शकों का कथन यही रहता था कि कलाकृति मौलिक नहीं है। इसके कारण उसे कला जगत में वह स्थान प्राप्त नहीं था जो उसे प्राप्त होना चाहिए था।
एक दिन उसके नगर में प्रसिद्ध चित्रकार आये। उनसे उसकी मुलाकात हुई। उसने उन्हें अपनी व्यथा बतलाई। उन्होंने उसे बड़े स्नेह पूर्वक समझाया- जो दूसरे का अनुसरण करते हैं वे नकलची माने जाते हैं। वे कितना भी श्रम करें नकलची की छवि से नहीं उभर पाते। उत्कृष्टता की नई राह या यश का आधुनिक मार्ग खोजना एक असाधारण योग्यता है। जीवन में किसी की नकल कभी साहसिक कल्पना का स्थान नहीं ले सकती। सफलता उन्हें मिलती है जो अपनी मौलिकता को कायम रखते हैं। तुम देखो कि मैंने कला जगत में एक नयी शैली को जन्म दिया है। मैं गहरे रंगों का प्रयोग करता हूँ एवं तुम मेरी पेन्टिगस को देखकर स्वयं समझ सकते हो कि ये मेरी कलाकृति है। तुम्हें भी इसी प्रकार अपनी एक नयी शैली विकसित करना होगी। हर व्यक्ति के जीवन में ऐसा समय आता है जिसमें उसे विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करना पड़ता है। ऐसे समय में हमें विचलित नहीं होना चाहिए। तुम मेहनत करोगे तो एक दिन सफलता निश्चित तुम्हारे कदम चूमेगी।
शरणागत
एक बार एक कौआ चोंच में एक नवोद्भिद को लेकर जा रहा था। वह जब एक इमारत के ऊपर था तभी वह नन्हा पौधा कौए की चोंच से फिसलकर गिर गया। गिरकर वह पौधा एक इमारत की एक दरार में जा पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उस नन्हें पौधे ने इमारत से निवेदन किया कि वह उसे शरण देकर उसकी रक्षा करे।
उसने कहा- मैं ईश्वर का वास्ता देकर कहता हूँ कि आप जैसी इमारत की ऊँचाई, सुन्दरता, वास्तुकला एवं निर्माण की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम है। आप जैसी भव्य एवं आकर्षक इमारत तो मैंने कहीं देखी ही नहीं। रात के समय जब आप रौशनी से जगमागाती होंगी तो इन्सान तो क्या देवता भी देखकर प्रसन्नता का अनुभव करते होंगे। आपसे मेरा आग्रह है कि आप मुझे सहारा देने की कृपा करें। जब मैं उस क्रूर कौए की चोंच में था तो मैंने कसम खाई थी कि यदि मैं बच गया तो अपनी बाकी जिन्दगी एक छोटी सी जगह में भी गुजार दूंगा। ईश्वर की कृपा है जो मैं किसी रेगिस्तान या किसी वीराने में नहीं गिरा। मैं गिरा भी तो आपकी गोद में। आप मेरी रक्षा कीजिये और अपनी शरण में ले लीजिये।
दीवार ने सोचा कि अपनी शरण में आये हुए की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है। फिर यह नन्हीं सी जान है अगर इसकी रक्षा नहीं की गई तो इसका तो जीवन की समाप्त हो जाएगा। उसकी बात सुनकर उस इमारत की दीवाल को उस पर दया आ गई। उसने उसे अपने पास शरण दे दी। वह पौधा वहां रहने लगा। धीरे-धीरे वह पौधा बढ़ने लगा। उसकी जड़ें फैलने लगी और नीचे पत्थरों की दीवार के बीच से सेंध लगाते हुए जमीन के भीतर प्रवेश करने लगीं। वे धीरे-धीरे मोटी होकर पत्थरों को खिसकाने लगीं। वृक्ष की शाखाएं भी आसमान की और बढ़ने लगीं। एक समय ऐसा आया जब उस वृक्ष की जड़ें इतनी मोटी हो गई कि दीवार को ही खिसकाने लगीं। इससे वह इमारत ही खतरे में आ गई। बहुत दिनों बाद जाकर दीवार को होश आया कि उसकी दया के कारण आज उसका ही अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। लेकिन अब दुख या अफसोस करने से कोई फायदा नहीं था। कुछ ही समय बाद वह दीवार गिर गई और उसके कारण वह इमारत धराशायी हो गई।
किसी को भी शरण देने से पूर्व अपने विवेक का उपयोग करना चाहिए। इस बात पर भली भाँति विचार कर लेना चाहिए कि हम जिसे सहारा दे रहे हैं कहीं ऐसा न हो कि उसके कारण हमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये दूसरों की शरण में जाना पड़े।
लातों के भूत
एक मालगुजार जो आर्थिक रुप से बहुत सम्पन्न था उसके बगीचे में सेव का एक वृक्ष लगा था। उसमें फल नहीं आते थे। विभिन्न प्रकार के पक्षी उस पर अपने घोंसले बनाकर रहते थे। एक दिन उसने पेड़ काटने का फैसला किया। वह उस वृक्ष पर कुल्हाड़ी से प्रहार करने लगा। पक्षियों ने उससे आग्रह किया कि वह उस वृक्ष को न काटे क्यों कि उस वृक्ष पर उनके घोंसले हैं और उन घोंसलों में उनके अण्डे और बच्चे रह रहे हैं। उसने उनके आग्रह पर कोई ध्यान नहीं दिया और पेड़ काटना प्रारम्भ कर दिया। वह अभी कुछ प्रहार ही कर पाया था कि उस वृक्ष पर रहने वाली मधुमक्खियां उसके पास आईं। उन्होंने भी उससे उस वृक्ष को न काटने का आग्रह किया किन्तु वह दुष्ट और स्वार्थी व्यक्ति नहीं माना। वह प्रहार करता ही गया और उसने उन्हें भी झिड़क कर भगा दिया।
यह देख कर रानी मधुमक्खी को क्रोध आ गया। उसने सभी मधुमक्खियों को हमले का आदेश दे दिया। जैसे ही मधुमक्खियों ने उसे काटना प्रारम्भ किया वह दर्द से चीखता हुआ वहाँ से भाग खड़ा हुआ। उसके बाद उसने उस वृक्ष को काटने का विचार त्याग दिया। संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें केवल अपने स्वार्थ से मतलब होता है। ऐसे लोग न तो दूसरों का कष्ट ही समझते हैं और न ही दूसरों के आग्रह और विनम्रता का उन पर कोई प्रभाव होता है। ऐसे लोग केवल दण्ड की भाषा समझते हैं और वे किसी बात को तभी मानते हैं जब या तो उनका स्वार्थ पूरा हो रहा होता है अथवा उन्हें स्वयं दण्ड का भय होता है। ये लातों के भूत होते हैं बातों से नहीं मानते हैं। वे अपने स्वार्थों की पूर्ति में ही लिप्त रहते हैं। यह ध्यान रखने वाली बात है कि दण्ड भी कभी सही दिशा दे देता है।
अहंकार
एक बार दो मुर्गे एक कचरे के ढेर पर लड़ रहे थे। उनमें से एक अधिक ताकतवर था, उसने दूसरे को हराकर कचरे के ढेर से दूर भगा दिया। यह देखकर सारी मुर्गियाँ कचरे के ढेर के पास एकत्रित होकर उसकी तारीफ करने लगीं। विजयी मुर्गे में अहंकार आ गया। उसे लगने लगा कि उसकी ताकत का डंका चारों और बजे। वह खलिहान पर उड़कर बैठ गया और अपने पंख लहरा-लहरा कर तेज आवाज में बोलने लगा- देखो मैं जीतने वाला मुर्गा हूँ। दुनियां में किसी भी मुर्गे में इतनी ताकत नहीं है कि मुझसे मुकाबला कर सके।
अभी मुर्गे की बात पूरी भी नहीं हो पायी थी कि एक बाज ने उस पर झपट्टा मारा और उसे अपने पंजों में दबाकर अपने घोंसले में ले गया और फिर अपनी पत्नी व बच्चों के साथ मिलकर उसे मारकर खा गया। हमें ईश्वर ने कुछ दिया है तो हमें उसका अहंकार नहीं करना चाहिए वरना हमारी हालत भी उसी मुर्गे के समान हो जाएगी।
भेड़ और भेड़िये
एक बार भेड़ों ने सोचा कि उनके और भेड़ियों के बीच हमेशा झगड़ा और लुका-छिपी का खेल चलता रहता है। क्यों न भेड़ियों से बात करके सुलह कर ली जाए। इससे उनके बीच शान्ति भी कायम हो जाएगी और उनका भय भी समाप्त हो जाएगा।
भेड़ों ने अपना एक प्रतिनिधि मण्डल भेड़ियों के पास भेजा और इस बात की चर्चा की तो भेड़ियों ने उनसे कहा- हमारे और आपके बीच तो दोस्ताना संबंध बन सकते हैं किन्तु इसमें कुत्ते हमारे बीच बाधा हैं। उनके कारण हमारे बीच शान्ति कायम नहीं हो पाती है। इसके लिये हमें उपाय करना होगा। यदि हम मिलकर इस जंगल से कुत्तों को भगा दे ंतो हमारे बीच शान्ति स्थापित हो सकती है।
सीधी-सादी भेड़ें उनकी चाल को नहीं समझ सकीं। उनने भेड़ियों के साथ मिलकर कुत्तों को जंगल के बाहर खदेड़ दिया। कुत्तों के जाते ही भेड़ियों का राज हो गया।
कुत्ते भेड़ियों को मारकर भेड़ों की रक्षा किया करते थे। अब भेड़ियों को कोई भय नहीं रह गया। वे धीरे-धीरे सारी भेड़ों को मारकर खा गए।
हमें सदैव कोई भी कदम सोच-समझकर उठाना चाहिए अन्यथा हमारा हाल भी मूर्ख भेड़ों के समान हो सकता है। हम यह सीखें कि अपने लाभ के लिये दूसरों का प्रयोग कैसे किया जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति अपने शत्रुओं से भी लाभ ले लेता है, लेकिन मूर्ख अपने मित्रों से भी हानि उठाता है।
चतुराई
एक घने जंगल में एक हाथी अपने झुण्ड से भटककर घूम रहा था। वह थक चुका था और एक वृक्ष के नीचे आराम करने के लिये खड़ा हो गया। वह रूक-रूक कर चिंघाड़ रहा था।
उसी पेड़ पर एक बन्दर विश्राम कर रहा था। हाथी की चिंघाड़ से उसकी निद्रा में व्यवधान आ रहा था। उसने हाथी से अनुरोध किया कि आप कहीं और जाकर विश्राम करने चले जाएं। मैं इस वृक्ष पर अनेक वर्षों से रह रहा हूँ। आपकी आवाज से मैं आराम नहीं कर पा रहा हूँ।
हाथी को उसका यह कहना अच्छा नहीं लगा। उसे अपने बड़े और शक्तिशाली होने पर घमण्ड था। उसकी बात सुनकर वह और जोर से चिंघाड़ मारने लगा। इससे बन्दर को विश्राम करना दूभर हो गया।
बन्दर भी हार मानने के लिये तैयार नहीं था। उसने हाथी को शिक्षा देने की मन में ठान ली। वह वृक्ष से हाथी की पीठ पर कूदा और उसे गुदगुदी करने लगा।
हाथी बेचैन हो गया, उसने अपनी सूड़ से उस बन्दर को पकड़ने का प्रयास किया। बन्दर सतर्क था वह उछल कर वृक्ष पर चढ़ गया। बन्दर बार-बार उसकी पीठ पर कूदता और जब हाथी उसे पकड़ने का प्रयास करता तो वह वृक्ष पर चढ़ जाता। इस प्रकार वह हाथी उस स्थान को छोड़ने के लिये मजबूर हो गया। उसने वह जगह छोड़ी और दूसरी जगह आराम करने चला गया।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि शक्तिशाली को भी बुद्धि और चतुराई से कम शक्तिवान भी पराजित कर सकता है। दूसरा हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे किसी कार्य से किसी दूसरे को कष्ट तो नहीं पहुँच रहा है। हमें अपने सुख के लिये किसी दूसरे को परेशान करने का कोई अधिकार नहीं होता है।
आलसी
दो घोड़े अपनी पीठ पर एक-एक गट्ठर लाद कर ले जा रहे थे। आगे वाला घोड़ा ठीक तरह से चल रहा था, लेकिन पीछे वाला घोड़ा आलसी था। वह बार-बार लड़खड़ाने का अभिनय कर रहा था। वह ऐसे चल रहा था जैसे वह उस बोझ के कारण चल नहीं पा रहा है। उनके मालिक ने पीछे वाले घोड़े का गट्ठर भी सामने वाले घोड़े पर लाद दिया। गट्ठर का बोझ हटने के बाद पीछे वाला घोड़ा आसानी से चलने लगा। वह आगे वाले घोड़े से बोला- तुम मेहनत करो और पसीना बहाओ। तुम जितनी ज्यादा मेहनत करोगे तुम्हें उतना ही अधिक कष्ट उठाना पड़ेगा।
जब वे गन्तव्य तक पहुँच गये तो मालिक ने सोचा ’’ जब मैं एक ही घोड़े पर सारा सामान लाद सकता हूँ और एक ही घोड़े से मेरा सारा काम चल सकता है तो फिर मैं दो घोड़ों को खिलाने-पिलाने का खर्चा क्यों उठाऊँ, इससे अच्छा तो यह रहेगा कि मैं एक घोड़े को भरपेट खिलाऊँ और दूसरे को बेच दूँ। मुझे उसके अव्छे दाम बाजार में मिल जाएंगे। उसने ऐसा ही किया उस घोड़े को अब पहले से भी अधिक मालिक की सेवा करनी पड़ती है। वह मन ही मन पछता रहा था कि अगर वह आलस नहीं करता तो आज उसकी यह स्थिति नहीं होती।
पालतू
ऊँट को सबसे पहले जिस आदमी ने देखा वह भाग खड़ा हुआ। लेकिन उसके मन में उसके बारे में जानने की लालसा जाग गई। वह अगले दिन फिर उसी स्थान पर गया। उसने वहाँ आसपास उसे खोजा। कुछ ही दूर पर वह ऊँट उसे दिखलाई दे गया। वह उसे छुपकर देखता रहा। उसने देखा कि वह घास-पत्ते खा रहा है। उसे समझ में आ गया कि यह तो शाकाहारी है। यह देखकर उसने उसके पास जाने का हौसला जुटाया और उसके पास तक गया। वह काफी देर उसके आसपास रहा। फिर धीरे से उसने उसकी गरदन पर हाथ फेरना प्रारम्भ कर दिया।
जब ऊँट की ओर से भी मैत्री पूर्ण व्यवहार मिला तो वह निश्चिन्त हो गया। अगले दिन वह एक रस्सी लेकर गया। वह फिर उस ऊँट का गला सहलाने लगा। बदले में ऊँट भी उसके प्रति अपना प्रेम दिखलाने लगा। तब उस आदमी ने उसके गले में रस्सी डाल दी। वह उसे अपने साथ ले आया। कुछ ही दिनों में वह ऊँट उस आदमी का पालतू जानवर बन चुका था और उसके काम करने लगा।
आदमी पहली बार जब कोई अजीबो-गरीब चीज देखता है तो वह उससे आशंकित हो जाता है उसके मन में उसके प्रति भय का संचार होता है किन्तु धीरे-धीरे वह उससे संबंध स्थापित कर लेता है। यह मानव का स्वभाव है।
परिश्रम
एक बार एक मुर्गी की आँखों की रोशनी चली गई। अन्धी होने के बाद भी वह बहुत मेहनत से भोजन की तलाश में जमीन खोदती रहती थी। इस मेहनती मुर्गी को आखिर क्या फायदा होना था। दूसरी तेज आँख वाली मुर्गी अपनी शक्ति को बचाकर रखती थी। वह हमेशा इस अन्धी मुर्गी के पास ही रहती थी और उसकी मेहनत का फल चखती रहती थी। जब भी अन्धी मुर्गी अनाज का दाना खोदकर निकालती थी तो उसकी तेज आँख वाली सहेली उसे खा जाती थी।
चालाक मुर्गी दिनों दिन मोटी होती जा रही थी और बेचारी अन्धी मुर्गी मेहनत करके भी कमजोर थी और किसी तरह अपना जीवन काट रही थी। एक दिन एक कसाई आया। अन्धी मुर्गी को उसने यह सोचकर छोड़ दिया कि इससे उसे बहुत थोड़ा गोश्त मिलेगा। लेकिन उसने मोटी मुर्गी को पकड़ा और उसे काट डाला।
मुर्गी एक बुद्धि और विवेक रहित प्राणी है। लेकिन हम इन्सान हैं। हमें ईश्वर ने विवेक दिया है। हम उचित और अनुचित को समझने की शक्ति रखते हैं। हम पाप और पुण्य में भेद कर सकते हैं। यदि हम मुर्गी के समान व्यवहार करते हैं और दूसरे के परिश्रम से प्राप्त किये धन या वस्तु को हड़पने का प्रयास करते हैं तो यह उचित नहीं है। एक दिन हमारी गति भी मोटी मुर्गी के समान हो सकती है।
कौआ
एक कौआ था जिसका स्वभाव ही दूसरों को परेशान करना था। वह एक दिन एक भेड़ की पीठ पर जा बैठा। भेड़ को मजबूरी में उसे काफी समय तक इधर-उघर ढोना पड़ा। अंत में वह झल्लाकर बोली- अगर तुम किसी कुत्ते के साथ इस तरह का व्यवहार करते तो वह तुम्हें अपने तेज दांतों से मजा चखा देता।
कौए ने हँस कर कहा- मैं कमजोरों को ही सताता हूँ और जो शक्तिशाली होते हैं मैं उनकी चापलूसी करता हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं किसे परेशान कर सकता हूँ और मुझे किसकी चापलूसी करना चाहिए। मुझे विश्वास है कि नीति पर चलकर मैं काफी समय तक सुख पूर्वक जिन्दा रहूँगा और वृद्धावस्था में भी आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करुँगा।
साधन
अगर कोई शिकारी घोड़ागाड़ी पर सवार होकर छैः घोड़ों के पैरों का इस्तेमाल करता है और अच्छे बुद्धिमान सारथी को उनकी बागडोर थामने देता है तो वह बिना थके तेज जानवरों से आगे निकल जाएगा। अब यदि वह घोड़ागाड़ी के लाभ को छोड़ दे। घोड़े के उपयोगी पैरों व सारथी की निपुणता का इस्तेमाल न करे और पैदल ही जानवरों के पीछे भागने लगे तो उसके पैर भले ही कितने तेज हों, लेकिन वह जानवरों से आगे नहीं निकल पाएगा। इसीलिये कहा जाता है कि अच्छे घोड़े और मजबूत घोड़ागाड़ी का उपयोग करके साधारण से साधारण व्यक्ति भी जानवरों को पकड़ सकता है।
आवश्यकता के अनुसार साधनों का प्रयोग करके हम कम प्रयास से अधिक काम कर सकते हैं और सफलता प्राप्त कर सकते हैं जबकि साधनों के अभाव में हम कितना भी परिश्रम क्यों न करें हम उतनी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। जब हम किसी साधन का प्रयोग करें तो यह भी देखें कि जिस काम के लिये हमने जो साधन चुना है वह उसके लिये उपयुक्त है कि नहीं। जो काम हम घोड़ागाड़ी का प्रयोग करके कर सकते हैं वह काम हम खच्चर गाड़ी का प्रयोग करके नहीं कर सकते।
सात्विका
मेरी तीन वर्षीय पौत्री सात्विका की मित्रता राहुल एवं राधिका से हैं। दोनों की उम्र उससे दो या तीन वर्ष अधिक है, वे तीनों मिलकर दिन भर खेलते-कूदते रहते हैं। राहुल एवं राधिका मेरे यहाँ भोजन पकाने वाली के बच्चे हैं। किन्तु स्वभाव से वे बड़े सीधे और सरल हैं। वे सात्विका को बहुत चाहते हैं।
एक बार सात्विका को अपनी माँ के साथ 15 दिनों के लिये अपने नाना-नानी के घर उनके आमन्त्रण पर जाना था। वे दोंनों नियत दिन एवं समय पर मेरे साथ कार में स्टेशन जाने के लिये बैठ रहे थे तभी राहुल एवं राधिका एक-एक फूल लेकर मुख्य द्वार से अंदर आये और दौड़कर उन्होंने वे पुष्प सात्विका के हाथ में दिये। उनकी भावना उसकी सुखद और सुरक्षित यात्रा की थी। इसके साथ ही साथ उनके मन में बिछोह का दर्द भी होने के कारण अनायास ही उनकी आंखों से आंसू टपक पड़े और वे तीनों आपस में लिपटकर रोने लगे। यह देखकर मैं और उसकी मम्मी तुरन्त कार को छोड़कर उन बच्चों के पास गये और तीनों को समझाया कि सिर्फ पन्द्रह दिन की ही तो बात है उसके बाद तो सात्विका को वापिस आ जाना है और तुम बच्चों को वापिस पहले के समान ही खेलना-कूदना है।
हमारी बातों का राहुल और राधिका पर प्रभाव पड़ा और उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई। उन्होंने खुशी-खुशी सात्विका को कार में बैठाकर विदा किया। जब तक कार उनकी आंखों से ओझल नहीं हो गई तब तक वे दोनों हाथ हिलाकर उसे बाय-बाय कर रहे थे और सात्विका भी कार के पिछले कांच से अपना हाथ हिलाकर उन्हें देख रही थी।
मैं रास्ते में सोच रहा था कि बच्चों में इतना निश्छल, निष्कपट और बिना किसी स्वार्थ के आपस में प्रेम होता है। बच्चे अमीरी-गरीबी, धर्म-संप्रदाय, जाति आदि के भेदभाव से कितना दूर हैं। आपस में प्रेम से कितने करीब रहते हैं। जब हम बड़े होते हैं तो ये बातें धीरे-धीरे हमारे मन व मस्तिष्क ये दूर होने लगती हैं और हमारा स्वार्थ निश्छल प्रेम से हमें बहुत दूर कर देता है। काश! बड़े होने पर भी बच्चों के समान भावना बनी रहे तो मानव जाति की सभी समस्याएं अपने आप ही समाप्त होकर धरती पर स्वर्ग की अनुभूति हो सकती है। जीवन में यह सिर्फ एक कल्पना ही है जो कि कभी भी हकीकत न ही बनी है और न ही बन सकती है।
मैं अपने विचारों में खोया हुआ था तभी आवाज से चौंककर देखा कि स्टेशन आ गया है। मैं उन्हें ट्रेन में बैठाकर ट्रेन के प्लेटफार्म छोड़ने तक हाथ हिलाकर विदा करता रहा। मेरे मन में उन बच्चों का हाथ हिलाना एक अमिट छाप छोड़ चुका था।
ततैया
एक बार एक सभा हो रही थी। जहाँ यह सभा हो रही थी उसी के पास एक वृक्ष पर एक ततैये का छत्ता था। उसमें एक नौजवान ततैया बैठा मुख्यमंत्री का संबोधन सुन रहा था। मंत्री जी कह रहे थे- जो नाम मशहूर नहीं है वह बिना लपटों वाली आग की तरह है। हमेशा लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहिए। चाहे उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। वे और भी बहुत कुछ कह रहे थे किन्तु वह ततैया उनकी बात सुनकर सोच में पड़ गया। उसने सोचा अगर मुझे भी नाम कमाना है तो मुझे भी कुछ ऐसा करना पड़ेगा जिससे लोगों का ध्यान मेरी ओर आकर्षित हो। उसके मन में विचार आया कि क्यों न मुख्यमंत्री जी के माध्यम से ही मैं मशहूर हो जाऊं। ऐसा विचार आते ही वह अपने छत्ते से उड़ा और उसने जाकर मुख्यमंत्री जी के गाल पर अपना डंक मारा और उड़कर उनके ही ऊपर मंडराने लगा। जैसे ही उसने डंक मारा मुख्यमंत्री जी दर्द के मारे चिल्लाए। उनकी चिल्लाहट सुनकर वहाँ पर उपस्थित सभी लोगों का घ्यान उनकी और गया। वे अपना गाल पकड़कर कराह रहे थे। यह देखकर आसपास के सभी लोग उनकी और लपके। उनके बाडीगार्ड भी उनकी सुरक्षा में लग गये। पहले तो लोगों को समझ में नहीं आया कि क्या हुआ है किन्तु फिर जब लोगों ने उनके ऊपर उड़ते हुए ततैये को देखा तो सबकी समझ में माजरा आ गया। लोग उस ततैये को पकड़ने की कोशिश करने लगे। वह ततैया भी अपने को बचाते हुए उड़ा और उसने दूसरे एक और मंत्री को डंक मार दिया। वह ततैया उड़ रहा था और लोग उसे पकड़ने का प्रयास कर रहे थे। टी. वी. चैनलों के पत्रकार अपने कैमरों में उस उड़ते हुए ततैये की तस्वीरें ले रहे थे। उनके एंकर जोर-शोर से यह बता रहे थे कि यही वह ततैया है जिसने मुख्यमंत्री के गाल पर डंक मारा है।
अन्त में कुछ सुरक्षा कर्मियों ने उस ततैये को पकड़ लिया और उसे वहीं मार डाला। मुख्यमंत्री जी को वहाँ से तत्काल अस्पताल पहुँचाया गया और उन्हें सघन चिकित्सा कक्ष में भरती कर दिया गया। डॉक्टरों की टीम उनका परीक्षण कर रही थी। उनमें से जो प्रमुख डॉक्टर था वह हर आधे घण्टे में आकर उनके स्वास्थ्य का बुलेटिन जारी कर रहा था। टी.वी. चैनलों पर प्रसारण से पूरे प्रदेश में हल्ला हो गया था। उनके दल के लोग अपने नेता के स्वास्थ्य लाभ के लिये धार्मिक अनुष्ठान करने लगे। हर जगह टी.वी. चैनल वाले उनके स्वास्थ्य की स्थिति प्रसारित कर रहे थे।
दो दिनों तक यह नाटक चलता रहा। घटना की जाँच के लिये आयोग का गठन हो गया। जाँच चलती रही और फिर धीरे-धीरे लोग उसे भूल गये। उस ततैये की ख्याति देखकर बहुत से दूसरे ततैयों में ख्याति प्राप्त करने की लालसा जाग्रत हो गई। सुरक्षा दल ने उस क्षेत्र के सारे ततैयों का सफाया कर दिया। जिन ततैयों के मन में ख्याति की लालसा जाग्रत हो गई थी वे मरने के बाद आदमी के रुप में पैदा हुए और अपने इस जन्म में वे नेताओं के आसपास मंडराते हुए देखे जा सकते हैं। ये ततैये जब भी मौका मिलता है नेताओं के गालों पर डंक मारने से बाज नहीं आते।
चेहरे पर चेहरा
रामसिंह नाम का एक व्यक्ति था, वह पेशे से डॉक्टर था। वह बहुत से लोगों को नौकरी पर रखे था। उसने यह प्रचारित किया था कि वह जनता के हित में एक सर्वसुविधा युक्त आधुनिक तकनीक से सम्पन्न अस्पताल बनाना चाहता है। वह हमेशा मंहगी कारों पर चला करता था। उसके पास घर पर मरीजों का तांता लगा रहता था। कुछ तो उससे अपना इलाज कराने के लिये दूर-दूर के दूसरे नगरों से भी आते थै। वह बीमारों के इलाज के बदले उनसे एक भी पैसा नहीं लेता था। गरीबों की मदद करने के लिये वह हमेशा तत्पर रहा करता था। उन्हें वह दवाएं भी बिना पैसों के दिया करता था। उसकी शानो-शौकत व रहन-सहन देखकर लोग उसे बहुत अमीर, परोपकारी और ईमानदार मानते थे।
लोग उसे अस्पताल के लिये दिल खोलकर दान दिया करते थे। बहुत से लोगों ने अपना कीमती सामान और धन उसके पास सुरक्षित रख दिया था। वह उनके धन पर उन्हें ब्याज भी देता था। उनका ब्याज हमेशा उन्हें समय से पहले प्राप्त हो जाया करता था।
एक दिन अचानक वह नगर से गायब हो गया। किसी को भी पता नहीं था कि वह कहाँ चला गया। लोग आश्चर्य चकित थे। कुछ दिन तक तो लोगों ने उसकी प्रतीक्षा की किन्तु फिर जब उनका धैर्य समाप्त होने लगा तो सबके सामने स्थिति स्पष्ट होने लगी। वह बहुत सा धन अपने साथ ले गया था। वह सारा धन जो लोगों ने उसके पास अमानत के तौर पर या व्यापार के लिये रखा था वह सब लेकर चंपत हो गया था।
लोगों ने जब उसकी शिकायत पुलिस में की तो पुलिस ने उसकी खोजबीन प्रारम्भ की और तब जाकर पता चला कि उसके पास उसका स्वयं का कुछ भी नहीं था। जो कुछ भी था सब किराये का था जिसका किराया तक उसने नहीं दिया था। उसकी डिग्री जो वह अपने बैठक खाने में टांगे था वह फर्जी थी। लोगों के पास अब सिवाय हाथ मलने और पछताने के कोई चारा नहीं बचा था। हमें किसी की चमक-दमक देखकर उससे प्रभावित नहीं हो जाना चाहिए। हमें अपने विवेक को जागृत करके रहना चाहिए वरना हम भी ऐसे जालसाजों एवं धोखेबाजों के शिकार हो सकते हैं। यदि किसी व्यक्ति की जीवन-शैली और कार्य करने की पद्धति सामान्य से भिन्न हो तो हमें हमेशा उससे सावधान रहना चाहिए। यह निश्चित समझिये कि वह कोई न कोई ऐसा कार्य करेगा जो समाज के लिये हितकारी नहीं होगा। ऐसे व्यक्ति पर विश्वास करना स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होता है।
पाँच वर्ष बाद की एक शाम-मैले कुचेले कपडे पहने भीगता हुआ एक व्यक्ति मंदिर की सीढी पर बैठा हुआ था। मंदिर में आरती हो रही थी, पुजारी जी आरती के उपरान्त सीढियों से नीचे उतर रहे थे कि उन्होंने उस व्यक्ति को देखा और ठिठक कर रूक गये। वो उसको पहचानने का प्रयत्न करने लगे। तभी वह हाथ जोड़कर उनके करीब आया और बोला हाँ मैं वही हूँ जो आज से पाँच वर्ष पूर्व यहाँ के लोगों को बेवकूफ बनाकर,धोखा देकर, लाखों रूपये लेकर चम्पत हो गया था। मुझे मेरी करनी का फल मिल गया। देखिये आज मेरी कितनी दयनीय हालत है। पुजारी जी ने फिर पूछा ये कैसे हो गया। वह बोला मैंने यहाँ से जाकर उन रूपयों से एक उद्योग खोला था। मुझे उसमें घाटा होता चला गया। वह बंद हो गया और मेरी जमा पूँजी समाप्त हो गयी। मेरी पत्नी और मेरा एकमात्र बच्चा टीÛबीÛ की बीमारी में परलोक सिधार गये। मैं अकेला रह गया और आज दो वक्त की रोटी के लिये भी मोहताज हूँ। यह दुर्दशा मेरे गलत कार्यों के कारण हुई है। जीवन में कभी किसी को धोखा देकर उसका धन नहीं हड़पना चाहिये। किसी के विश्वास को तोड़ना जीवन में सबसे बडा पाप होता है। मुझे इंसान तो क्या भगवान भी माफ नहीं करेंगे। मैं इसी प्रकार अब भटकता रहूँगा। इतना कहकर वह रोते हुए अनजाने गन्तव्य की ओर चला गया।
मित्र और मित्रता
विद्याधर एक बहुत सम्पन्न व्यापारी था। उसका संतोष नाम का एक पुत्र था। वह बहुत ही सीधा-सादा भला नौजवान था। उसके मित्र उसकी सज्जनता का फायदा उठाते थे। उसके अनेक मित्रों ने उसे विश्वास में लेकर उससे काफी रूपया उधार ले लिया था।
एक बार जब विद्याधर अपना हिसाब-किताब देख रहा था तो उसे समझ में आया कि उसके बेटे से लोगों ने बहुत रूपया ले रखा है तब उसने अपने बेटे को बुलाकर समझाया- जीवन में सभी से सद्व्यवहार रखते हुए मित्रतापूर्ण व्यवहार रखना चाहिए। परन्तु उन सभी को अपना मित्र नहीं समझ लेना चाहिए। सच्चा मित्र मिलना बहुत दुर्लभ है। यदि तुम्हें ऐसा मित्र मिल जाए जो तुम्हारे प्रति समर्पित हो, जिसके मन में यह चाह हो कि तुम जीवन में अपने सद्कार्यों से चमकते-दमकते रहो। तो तुम अपने को भाग्यवान समझना। उसने यह भी समझाया कि- बिना किसी जमानत के किसी को भी धन नहीं देना चाहिए।
पापा मैंने जिनको रूपये दिये हैं मैं उन सब को अच्छी तरह से जानता हूँ। वे सभी मेरे बहुत अच्छे और सच्चे मित्र हैं।
ऐसा करो कि तुमने जिस-जिस को धन दिया है उनसे कहो कि तुम्हें धन की आवश्यकता है और फिर देखो कितने मित्र तुम्हें तुम्हारा धन लौटाते हैं।
पिता के कहने पर पुत्र ने एक-एक कर अपने सभी मित्रों से ऐसा ही कहा। वह अनेक दिनों तक प्रयास करता रहा कि उसे उसका धन प्राप्त हो जाए और वह अपने पिता को सौंप सके। लेकिन किसी भी मित्र से उसे धन प्राप्त नहीं हो सका। अन्त में हारकर एक दिन उसने अपने पिता को सारी वास्तविकता बता दी।
पिता ने बड़े स्नेह पूर्वक उससे कहा कि तुम उस धन की चिन्ता मत करो। वह धन तो गया। बहुत प्रयास करोगे तो थोड़ा बहुत प्राप्त भी हो जाएगा, लेकिन पूरा नहीं मिल पाएगा। किन्तु वह एक बहुत बड़ी शिक्षा और सबक दे गया है।
हम जिस युग में आज जी रहे हैं उसमें मन व तन पर धन की काल्पनिक चादर होने के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व को पहचानना कठिन हो गया है। जीवन में सच्चा मित्र खुली पुस्तक के समान होता है। वह आपको ज्ञान का रास्ता दिखलाता है। मि़त्रता कोमल सुमनों के समान होती है, वह पूजा की थाली के समान पवित्र होती है, वह किसी बहती हुई नदी के समान होती है जो अपने तट की भूमि को हरा-भरा रखती है और वह ठण्डी हवा के समान भी होती है जो हमें उस समय राहत पहुँचाती है जब हम कठिनाइयों में पड़कर उसी प्रकार बेचैन होते हैं जैसे कोई कड़ी धूप से गरमी में झुलस रहा होता है।
धन का सदुपयोग
धन का मूल्य उसका स्वामी बनने में नहीं होता है वरन धन का मूल्य उसका सही उपयोग करने में होता है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम धन को व्यर्थ बरबाद करें। हमें धन का सही उपयोग करना चाहिए।
एक बार एक शिक्षाविद एक विश्वविद्यालय बनाने के लिये एक सेठ के पास दान मांगने पहुँचे। उस समय वह सेठ अपने लड़के को डांट रहा था। उसके लड़के को सिगरेट पीने की आदत पड़ गई थी। उसे देखने के लिये सेठ ने अपने नौकर को उसके पीछे-पीछे भेजा था। नौकर ने आकर बताया कि उस लड़के ने एक सिगरेट और एक माचिस खरीदी। सिगरेट जलाने के बाद उसने वह माचिस फेक दी। सेठ अपने लड़के को उस माचिस को फेकने पर डांट रहा था। यह देखकर उन शिक्षाविद ने सोचा कि जो व्यक्ति एक माचिस की डिब्बी के लिये अपने लड़के को ऐसा डांट रहा है वह क्या दान देगा।
जब लड़का चला गया तो सेठ जी ने उनसे आने का कारण पूछा। उनने अपने आने का कारण बताया तो उस सेठ ने अपनी चैक बुक निकाल कर एक चैक पर हस्ताक्षर करके उनको दे दिया और कहा कि आप जितनी चाहें उतनी रकम इस पर लिख लें। उन शिक्षाविद ने डरते-डरते 101 रूपये की राशि उस पर लिखी और उस सेठ की और बढ़ा दी। सेठ जी ने उस चैक को देखा तो अपनी कलम उठायी और उसके आगे दो शून्य लगाकर उसके भी आगे एक और लिख दिया। इस प्रकार वह रकम एक लाख एक हजार एक रूपये हो गई। फिर उन्होंने वह चैक उन्हें वापिस कर दिया।
चैक पर इतनी बड़ी रकम देख कर वे शिक्षाविद आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने उस सेठ से कहा कि अभी तो आप एक पैसे की माचिस के लिये अपने लड़के को इतनी बुरी तरह डांट रहे थे और आप मुझे इतनी बड़ी रकम दान में दे रहे हैं। उस सेठ ने कहा- मैं जानता हूँ कि आप जो रकम मुझ से ले जा रहे हैं उसका एक-एक पैसा आप देश के हित में खर्च करेंगे और इसका एक पैसा भी बरबाद नहीं होगा इसलिये मुझे आपको पैसा देने में कोई कष्ट नहीं है। लेकिन मेरे लड़के ने वह माचिस फेंक कर पैसा बरबाद किया था और मैं एक नये पैसे की भी बरबादी बर्दाश्त नहीं कर सकता। इसलिये हमें भी जीवन में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम धन खर्च तो करें लेकिन अच्छे और उपयोगी कामों में खर्च करें। धन को बरबाद न करें।
पत्थर
एक संत अपने शिष्य के साथ चुपचाप अपने गंतव्य की राह पर चले जा रहे थे। वह रास्ता काफी पथरीला था और उनके पाँव में चुभन हो रही थी। पत्थर भी अपने ऊपर उनके पाँव को देखकर माने अपमानित महसूस कर रहे थे। और आने जाने वालों के कारण तिरस्कृत होकर परेशानी महसूस करते थे,परंतु चुप रहना ही मानो उनकी नियति थी। एक दिन एक पत्थर ने सोचा कि ऐसी परिस्थितियों से समझौता करना अच्छी बात नहीं है। एक राहगीर की ठोकर से उछलकर एक पत्थर नदी में गिर गया और तलहटी में जाकर आराम से रहने लगा। अब उस पर किसी मानव का पैर नहीं पड़ता था। एक दूसरा पत्थर बहुत स्वाभिमानी था उसने बदला लेने के लिये एक पथिक की ठोकर से उछलकर उसके सिर पर चोट की और वह पथिक वही पर अपनी जान गवाँ बैठा। संत ने अपने शिष्य को समझाया की जीवन में कभी किसी का अपमान नहीं करना चाहिए। पत्थर जैसे निर्जीव भी अपना अपमान एवं तिरस्कार नहीं सह पाते, फिर तुम तो मानव हो। ऐसा कहा जाता है कि इस घटना के बाद से ही हम किसी राह पर चलते समय अपने को पत्थर से बचाने की यथासंभव कोशिश करते हैं।
ईर्ष्या
किसी नगर में दो भाई रहते थे। दोनों ही बहुत सम्पन्न थे। उनके पास बहुत धन दौलत थी। समय के साथ उनमें बंटवारा हुआ। नगर में उनकी एक बहुत बड़ी सोने, चांदी और हीरे जवाहरात की दुकान थी। उनका व्यापार खूब फल-फूल रहा था। बड़े भाई ने वह दुकान अपने हिस्से में कर ली। उनकी एक फैक्टरी भी थी। उसमें दुकान से कम फायदा होता था। वह छोटे भाई के हिस्से में आई।
बड़ा भाई बहुत लालची था। वह अधिक धन कमाने के चक्कर में ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी करने लगा। लोगों को जब इस बात का पता लगा तो उनने उसके यहाँ जाना बन्द कर दिया। इससे धीरे-धीरे उसकी दुकान पर ग्राहकों का आना बन्द होने लगा। उसे घाटा होने लगा। धीरे-धीरे उसकी दुकान बन्द होने के कगार पर पहुँच गई।
दूसरी ओर छोटा भाई ईमानदार था। उसका एक पुत्र था। वह भी बहुत होशियार और परिश्रमी था। उनका परिश्रम रंग लाया और उनका उद्योग लगातार उन्नति करने लगा। उनका लाभ भी लगातार बढ़ने लगा। यह देखकर बड़े भाई को बड़ी ईर्ष्या होती थी। वह उनको लगातार हानि पहुँचाने का प्रयास करता रहता था उसने उनके मजदूरों को भड़काने के लिये अनेक षड़यंत्र किये। वह तरह-तरह से उनके उत्पादन की गुणवत्ता को गिराने का भी प्रयास करता रहा लेकिन छोटे भाई और उसके पुत्र की ईमानदारी और मेहनत के कारण वह कभी सफल नहीं हो सका। लेकिन उसकी इन हरकतों से उन्हें अनेक बार अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा। उसकी हरकतों से तंग आकर एक दिन छोटे भाई का पुत्र अपने पिता से बोला- पिता जी आप मुझे इजाजत दीजिए। मैं ताऊ को सबक सिखाना चाहता हूँ। मैं उन्हें ऐसा सबक सिखाउंगा कि फिर वे कभी भी हमें परेशान करने का प्रयास नहीं करेंगे। उसके पिता ने पूछा- तुम क्या करना चाहते हो ?
पुत्र ने अपनी योजना अपने पिता को बतलाई। उसकी योजना सुनकर छोटे भाई को समझ में आ गया कि इससे बड़े भाई को बहुत घाटा होगा और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी गिर जाएगी। वह अपने पुत्र को ऐसे रास्ते पर नहीं जाने देना चाहता था जिस पर चलकर वह किसी का भी अहित करे अतः उसने अपने पुत्र को समझाया- तुम्हारे ताऊ जो कुछ कर रहे हैं उसका असली कारण है उनके मन की ईर्ष्या। वे हमारी उन्नति और अपनी अवनति के कारण हमसे ईर्ष्या करते हैं। इसलिये वे ऐसा कर रहे हैं। पर तुम तो समझदार हो।
हमें ईर्ष्यालू नहीं होना चाहिए और जिसमें यह प्रवृत्ति आ जाए उससे बच कर रहना चाहिए। ईर्ष्यालु व्यक्ति सदैव असंतुष्ट रहता है वह कभी भी अपने आप को संतुष्ट नहीं कर पाता है। दूसरों का सुख उसके लिये दुख का विषय होता है। वह ऐसा व्यवहार करता है जैसे वह आपका परम हितैषी है किन्तु आपकी सफलताओं और उपलब्धियों से वह मन ही मन दुखी रहता है। ऐसे लोग बड़े चाटुकार होते हैं। ईर्ष्यालु व्यक्ति रहस्यमयी या वासनामयी पापी की तरह सावधानी से अपने आप को छिपाकर रखते हैं। इन्हें इसके लिये असंख्य उपाय आते हैं। वे नये-नये तरीकों से अपने आपको छुपाते हैं। वे दूसरों की श्रेष्ठता से अनभिज्ञ होने का नाटक करते हैं जबकि भीतर ही भीतर वे उनसे बुरी तरह जलते हैं। ऐसे लोग निपुण अभिनेता होते हैं और षड़यंत्र रचने में अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं।
वे श्रेष्ठता को किसी भी रुप में रोकने का प्रयास करते हैं। यदि उन्हें धोखे से भी अवसर मिल जाए तो वे श्रेष्ठ व्यक्तियों और उनके कार्यों पर आरोप लगाते हैं। वे आलोचना करते हैं, व्यंग्य करते हैं और जहर उगलते हैं। एक कहावत है कि ज्यादातर लोग समृद्ध मित्र को बिना ईर्ष्या के सहन नहीं कर पाते हैं। ईर्ष्यालू मस्तिष्क के आसपास ठण्डा जहर रहता है। जो जिन्दगी में दोगुना कष्ट पहुँचाता है। उसके अपने घाव उसे सताते हैं। जिन पर उन्हें मरहम-पट्टी करनी होती है। दूसरों की खुशी उसे श्राप की तरह अनुभव होती है। हमें ऐसे लोगों से हमेशा सावधान रहना चाहिए और यथा संभव उनसे दूर ही रहना चाहिए। तुम्हारे ताऊ इसी ईर्ष्या का शिकार हैं। जब तक उनके मन में यह भाव रहेगा उनका स्वभाव नहीं बदलेगा।
तुम अगर उनसे बदला लेने या उन्हें क्षति पहुँचाने का प्रयास करोगे तो तुम्हारा समय और तुम्हारी ऊर्जा का दुरूपयोग होगा। तुम्हारे मन में उनके प्रति शत्रुता का भाव आएगा। आदमी अपने मित्र को हर समय याद नहीं करता किन्तु उसे अपना शत्रु हमेशा याद आता रहता है। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे मन में अपने ताऊ या किसी और के प्रति शत्रुता का भाव हो। मैं यह भी नहीं चाहता कि जो शक्ति तुम उन्नति करने में लगा रहे हो वह कहीं और लगे। ईश्वर पर भरोसा रखो। समय सबसे बड़ा शिक्षक होता है। वह उन्हें निश्चित रुप से सबक सिखलाएगा और एक दिन वे स्वयं अपने किये पर पछताएंगे तथा सही रास्ते पर आ जाएंगे।
हम कैसे आगे बढ़े
सूबेदार करतार सिंह सेना से रिटायर होकर जब गाँव पहुँचा तो उसका ऐसा स्वागत हुआ जैसे वैशाखी पर नयी फसल का होता है। सूबेदार का जीवन बड़ा साफ सुथरा रहा। वह देश के लिये जीने मरने वाले समर्पित सैनिकों में गिना जाता था। उसने अपने सेवाकाल में अनेक पुरूस्कार प्राप्त किये थे। उसके दो बेटे थे।
बड़ा बेटा स्नातक होने के बाद गाँव आ गया था। उनका गाँव कहने को तो गाँव था पर विकास क्रम में वह एक कस्बा बन चुका था। एक छोटा सा बाजार विकसित हो चुका था जहाँ लगभग दैनिक उपभोग की सभी वस्तुएं उपलब्ध थीं। गाँब की आबादी भी लगभग दस हजार के आसपास पहुँच चुकी थी। करतार सिंह ने जब अपने बेटे से पूछा कि आगे उसका क्या इरादा है तो उसने कहा मैं यहाँ रहकर अपनी खेती-बाड़ी के साथ ही कुछ व्यापार करना चाहता हूँ। करतार सिंह ने भी अपनी सहमति देते हुए कहा- तुम जैसा चाहते हो वैसा करो। मेरा मशविरा है कि अपने गाँव में कोई अच्छी सी जनरल स्टोर्स की दूकान नहीं है। तुम अगर उचित समझो तो जनरल स्टोर्स खोल सकते हो।
करतार सिंह ने उसे यह भी समझाया जीवन में अपने काम में पहला होना सर्वश्रेष्ठ होता है। यह बहुत लाभकारी होता है। गुणवत्ता होने पर यह दोगुना लाभ पहुँचाता है। जीवन में किसी भी क्षेत्र में पहले व्यक्ति के रुप में पहुँचकर आप किला फतह करने जैसी सफलता पा लेते हैं। जो लोग पहले स्थान पर पहुँचते हैं उन्हें ख्याति प्राप्त होती है। हमें व्यापार में तीन बातों का हमेशा ध्यान रखना पड़ता है। पहली तो यह कि ईमानदारी पूर्वक कार्य करने वाले को सभी अपने साथ रखना पसंद करते हैं। दूसरा यह कि नकारापन आदमी के सम्मान और मूल्य को समाप्त कर देता है। तीसरा यह कि धन लोलुप व्यक्ति केवल धन का सगा होता है और धन के लिये वह किसी भी सीमा तक गिर सकता है। ऐसे लोगों से बच कर रहना चाहिए।
उसका दूसरा बेटा फौज में जाने का संकल्प लिये बैठा था। करतार सिंह ने उसे भी इसकी इजाजत दे दी। जब उसका चयन फौज के लिये हो जाता है और वह जाने लगता है तो करतार सिंह ने कहा कि-
यदि हम सावधानी, सतर्कता और साहस से आगे बढ़ते हैं तो हम सफल होते हैं जहाँ इनका अभाव होता है वहाँ असफलता मिलती है। लेकिन सफलता के लिये सिर्फ इतना ही पर्याप्त नहीं होता है। इसके अतिरिक्त भी कुछ बातें होती हैं जिनका हमें ध्यान रखना पड़ता है।
व्यक्ति को सावधान एवं साहसी दोनों होना चाहिए। तकदीर बहादुरों के आधीन रहती है जबकि कायर लोगों के पास भी नहीं फटकती है। सैन्य प्रक्रिया का काम दुश्मन के इरादों को भाँपना है।
सेना की पूर्णता निराकार बनने में है। युद्ध में विजय एक ही रणनीति को बार-बार दुहराने से नहीं मिलती है। बल्कि लगातार बदलाव करने से मिलती है। सेना का एक ही व्यूह नहीं होता है जैसे पानी का एक ही आकार नहीं होता है। विरोधी के अनुसार बदल कर और ढलकर विजय प्राप्त करने की योग्यता को ही प्रतिभा कहते हैं। ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि तुम जीवन में सफल रहो और देश का नाम रौशन करो। इसे ध्यान रखना कभी-कभी छोटी-छोटी बातें भी विशाल रुप ले लेती हैं।
प्रथम श्रेणी में प्रथम
एक बार की बात है एक बहुत धनी व्यक्ति था। उसका जन्म एक निर्धन परिवार में हुआ था। बचपन में उसने बहुत अभावों में जीवन बिताया था। वह पढ़ने में बहुत होशियार था। अपनी शिक्षा और योग्यता के बल पर ही उसने बहुत धन कमाया था। उसकी नगर में दो बड़ी-बड़ी दुकानें थीं जिन्हें वह अकेला ही चलाता था। उसकी एक फैक्ट्री भी थी। वह कहा करता था कि आदमी को हमेशा प्रथम श्रेणी में प्रथम होना चाहिए तभी वह तरक्की कर सकता है जैसे कि उसने की थी।
उसके दो पुत्र थे। दोनों पढ़ने में होशियार थे। वे एक अच्छी स्कूल में पढ़ते थे। उस विद्यालय में और भी अच्छे घरों के होशियार बच्चे पढ़ते थे। वे दोनों लड़के हमेशा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण हुआ करते थे लेकिन वे प्रथम श्रेणी में प्रथम कभी नहीं आ पाते थे। इस बात से उनके पिता प्रायः नाराज हुआ करते थे। उनकी माँ उन्हें समझाती और प्रोत्साहित करती रहती थी इसलिये वे हमेशा परिश्रम किया करते थे और कक्षा में अच्छे अंक प्राप्त किया करते थे।
एक बार जब उनका परीक्षा परिणाम आया तो जो बड़ा बेटा था वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था। उसे जब अपना परीक्षा परिणाम पता चला तो वह घबरा उठा। वह सोचने लगा कि जब प्रथम आने पर पिताजी इतने नाराज हुआ करते हैं तो द्वितीय आने पर तो न जाने वे क्या करेंगे। यही सोचते-सोचते वह घर पहुँचा तो अपने कमरे में जाकर उसने अनाज में रखी जाने वाली जहर की गोलियाँ लीं और एक साथ कई गोलियाँ खा लीं।
उसे ऐसा करते हुए उनकी दादी ने देख लिया। वह चिन्ता में पड़ गईं। उनने उससे पूछा कि यह कैसी गोलियाँ खा रहे हो। क्या तुम्हारी तबियत खराब है? उसने दादी से कहा- कुछ नहीं है तुम चिन्ता मत करो। अपना काम करो। दादी को उसका उत्तर सुनकर अच्छा नहीं लगा, उन्हें कुछ संदेह भी हुआ। उन्होंने तत्काल यह बात जाकर उसकी माँ को बतलायी। उसकी माँ ने उसके पास आकर देखा। तब तक वह बेहोश होने लगा था और उसे उल्टियां भी आ रही थीं। उन्होंने तत्काल डॉक्टर को बुलवाया। डॉक्टर ने जैसे ही उसे देखा वह सब समझ गया। उसने तत्काल उसे अस्पताल भिजवाया। वहाँ उसका उपचार प्रारम्भ हो गया। अस्पताल में उसके माता-पिता और रिस्तेदार एकत्र हो चुके थे। जब उस बालक को होश आया तो डॉक्टर ने उससे प्यार से सब पूछा। लड़के ने सारी बात डॉक्टर को बतला दी।
डॉक्टर वहाँ से उस धनी के पास आया और उसने पूछा- आपके लिये आपका बेटा अधिक महत्वपूर्ण है या उसका प्रथम श्रेणी में प्रथम आना ? उसने कहा कि मेरे लिये तो मेरा बेटा ही अधिक महत्वपूर्ण है। तब डॉक्टर ने उसे सारी बात बतलाई और समझाया कि सरदार वल्लभ भाई पटैल पूरे विश्व में लौह पुरूष के नाम से जाने जाते हैं किन्तु वे पढ़ाई में बहुत होशियार नहीं थे। इसी प्रकार बिल ग्रेट्स जो आज पूरे विश्व में जाना जाता है उसे तो उसके शिक्षक ने कक्षा से बाहर ही कर दिया था। पढ़ाई में अच्छे अंकों से आना अच्छी बात है किन्तु आप यदि ईमानदारी से पढ़ाई करते हुए अच्छे अंक प्राप्त नहीं कर पाते हैं तो निराश नहीं होना चाहिए।
पता नहीं आपके भीतर ईश्वर ने और कौन सी प्रतिभा दी हो जिसके कारण आप का जीवन सफल हो जाए। आप लोग भी पढ़ाई में पूरी मेहनत कीजियेगा लेकिन यदि अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता है तो इससे निराश नहीं होना चाहिए तथा न केवल पढ़ाई में बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी पूरी ईमानदारी से मेहनत कीजिये और निराशा को कभी अपने आप पर हावी मत होने दिया कीजिये। आप स्वयं महसूस करेंगे कि आपके अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो रहा है और आप हर कदम पर सफलता प्राप्त करेंगे।
ईमानदार बेईमानी
एक दिन प्रातः काल स्वर्गलोक में प्रभु के साथ नारद जी भी भ्रमण कर रहे थे। नारद जी से अचानक प्रभु ने कहा- आज मुझे तुम कोई ऐसा वृत्तान्त बतलाओ जो सारगर्भित, मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद हो। नारद जी बोले- प्रभु आप की बात पर मुझे पृथ्वी लोक की एक घटना याद आ रही है। मैं नहीं जानता कि यह घटना आप की शर्तों को पूरा करती है या नहीं।
पृथ्वी लोक पर भारत देश में जबलपुर नगर के पास पाटन गाँव में रुपसिंह पटैल नाम के एक सम्पन्न किसान रहते थे। उनके पास हजारों एकड़ खेती की जमीन थी जिससे वे लाखों रूपये प्रतिवर्ष कमाते थे। उनके परिवार में उनकी पत्नी के अतिरिक्त एक जवान बेटा हरिसिंह था। रुपसिंह अपनी उम्र के साथ अब वृद्ध एवं अशक्त हो गए थे। एक दिन उन्होंने अपने बेटे से कहा कि अब मेरे जाने का समय करीब आ रहा है। मैं तुम्हें जीवन का अंतिम व्यवहारिक ज्ञान देना चाहता हूँ। इससे तुम अपना व्यापार बिना पूंजी लगाए दूसरे से प्राप्त धन से नैतिकता एवं ईमानदारी को बरकरार रखते हुए कर सकते हो। उनका बेटा आश्चर्यचकित होकर उनसे पूछता है- यह कैसे संभव है? रुपसिंह यह सुनकर मुस्कराते हुए कहते हैं- समय आने पर इसका उत्तर तुम्हें स्वयं प्राप्त हो जाएगा।
रुपसिंह का आसपास के क्षे़त्रों में बहुत मान-सम्मान था। वे एक ईमानदार, नेक व भले इन्सान के रुप में जाने-जाते थे। उन्होंने नये व्यवसाय को प्रारम्भ करने के लिये क्षेत्र के सम्पन्न लोगों से कर्ज लिया और लाखों रूपये एकत्र कर लिये। उन्होंने सभी को एक वर्ष के अंदर रकम लौटाने का आश्वासन दिया। इस बात का पूरा हिसाब कि उन्होंने किससे कितना रूपया लिया है एक बही में लिख कर अपने बेटे को दे दिया। उसे यह हिदायत भी दी कि जो तुमसे ईमानदारी पूर्वक जितना धन उसने दिया है वह वापिस मांगने आये तो उसे तत्काल लौटा देना। किन्तु जो लालचवश अपने दिये गये धन से अधिक की मांग रखे उसे स्पष्ट यह कहकर वापिस कर देना कि आप सही-सही हिसाब बताएं और अपना धन ले जाएं। ऐसा लालची व्यक्ति रूष्ट होकर तुम्हें भला-बुरा कहकर वापिस चला जाएगा। उसकी बात का बुरा मत मानना।
कुछ समय बाद रुप सिंह का निधन हो गया। उसकी मृत्यु के पश्चात उसके बेटे ने सभी को यह खबर भिजवा दी कि उन्होंने जो धन उसके पिता को दिया था वे उससे वापिस प्राप्त कर लें। धन वापस लेने के लिये लोगों का आना प्रारम्भ हो गया। उसके पुत्र ने भी अपनी बही देखकर लोगों को उनका धन वापिस करना प्रारम्भ कर दिया। यह देखकर कुछ धनाढ्य लोगों के मन में लोभ जागृत हो गया। ऐसे लोगों ने कर्ज ली हुई रकम से कई गुना अधिक रकम कर्ज में देने की बात कर उससे धन वापिस लेने का प्रयास किया। रुपसिंह को अपनी बही देखकर यह समझ में आ जाता था कि कौन उससे अधिक धन की मांग कर रहा है। वह उनसे विनम्रता पूर्वक कहता कि आप अपना हिसाब फिर से देख लें और फिर आने को कहकर विदा कर देता।
ऐसे लोग वापिस जाने के बाद धर्मसंकट में पड़ जाते। वे घर जाने के बाद दुबारा रुपसिंह के पास इसलिये नहीं जा पाते थे क्योंकि अगर वे दुबारा जाकर सही धन की मांग करते हैं तो वे बेईमान कहलाएंगे और उनकी सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी।
एक माह बाद हरिसिंह ने पाया कि लाखों रूपया उसके पास जमा हो गया है जिसका लेनदार कोई नहीं है। उसने इस धन से एक नया व्यापार प्रारम्भ कर दिया जिससे कालान्तर में उसकी आमदनी कई गुना अधिक बढ़ गई। वह अपनी आमदनी का भाग गाँव की तरक्की और लोगों की भलाई पर खर्च करने लगा।
एक दिन उसके यहाँ एक संत पधारे। उसने उनसे सारी बात बतलाई और पूछा कि स्वामी जी मैं आपसे कुछ प्रश्नों का समाधान चाहता हूँ। मेरे स्वर्गीय पिता द्वारा किया गया यह कार्य क्या नैतिक दृष्टि से सही है। मैंने अपने पिता की आज्ञा मानकर जो किया क्या वह ईमानदारी की परिभाषा में आता है। मैं धन वापिस करने के लिये तैयार था लेकिन जो स्वयं ही धन लेने के लिये नहीं आए तो क्या मैं उनका कर्जदार हूँ। तथा यह पूरा वृत्तान्त पाप और पुण्य की दृष्टि से क्या मूल्य रखता है?
महात्मा जी ने गंभीर चिन्तन करके कहा- हमें धन, धर्म, कर्म एवं उससे प्राप्त फल को समझना चाहिए तब समाधान स्वमेव हो जाएगा। यहाँ धन का आगमन और निर्गमन धर्म पूर्वक करने का प्रयास तुमने किया है। धन से तुमने अपना नया व्यापार प्रारम्भ किया और धनोपार्जन किया। जब भी कोई कर्ज देने वाला अपना धन वापिस मांगने आया तो तुमने उसे ईमानदारी से धन वापिस किया है। इससे स्पष्ट है कि तुमने कर्म में धर्म का पालन किया। हरिसिंह के पास में जब भी कोई और कर्ज वापिस मांगने आता था तो उसे दो सुझाव देता था एक तो यह कि तुम अपना धन वापिस ले लो। दूसरा धन व्यापार में लगा रहने दो और उसका ब्याज लेते जाओ। उसकी ईमानदारी और स्पष्टवादिता से सभी प्रभावित थे। उसका व्यापार भी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा था। यह सभी को ज्ञात था। इसलिये अधिकांश लोगों ने अपना धन वापिस न लेकर ब्याज लेना ही स्वीकार किया था। इस प्रकार हरिसिंह उनके ही धन से अपना व्यापार करके धन कमाकर उस राशि से ही कर्ज चुका रहा था।
इस पूरे प्रकरण में तुमने या तुम्हारे पिता जी ने कोई गलत कार्य नहीं किया है। किसी को भी कष्ट पहुँचाने की न तो तुम्हारी मन्शा रही है और न ही तुमने कष्ट पहुँचाया है अतः तुम्हारे द्वारा कोई पाप नहीं किया गया है। तुमने उससे स्वयं लाभ कमाया है अतः इसे तुम्हारा पुण्य भी नहीं कहा जा सकता। तुमने और तुम्हारे पिता जी ने तो व्यापार करने का एक नया दृष्टिकोण दिया है। इतना कहकर नारद जी प्रभु से आज्ञा लेकर ब्रम्हा जी से मिलने हेतु अन्तर्ध्यान हो गए।
चाहत
सावन माह में चारों ओर फैली हरियाली मन को प्रफुल्लित कर रहीं थी। आनन्द और राकेश बगीचे में बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे। उनमें इस बात पर चर्चा हो रही थी कि जीवन कैसा होना चाहिए। राकेश ने कहा- मैं तो समझता हूँ कि जीवन एक दर्पण के समान होता है। हमारी सोच सकारात्मक होना चाहिए। प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव है और उसका जीवन बिना संघर्ष के एवं बिना किसी सृजन के बेकार है। जीवन में सेवा सबसे बड़ा कर्म है।
वे अपनी बातचीत में व्यस्त थे तभी चौकीदार ने आकर राकेश से कहा- सर, एक महिला आपसे मिलने के लिये सुबह सात बजे से बैठी है। मैंने उसे बतलाया भी कि आज छुट्टी का दिन है तुम आफिस में कभी भी जाकर मिल लेना। परन्तु वह बिना मिले जाने को तैयार नहीं है। वह आपसे पांच मिनिट का समय चाहती हैं। उसे कोई बहुत जरुरी काम है। उसका कहना है कि उसे कलेक्टर साहब के रीडर ने भिजवाया है।
राकेश ने आनन्द की ओर देखते हुए पूछा- बताओ! क्या किया जाए?
आनन्द ने कहा- अभी तो तुम अच्छी-अच्छी बातें मुझसे कर रहे थे। उसकी बात पांच मिनिट में सुन लेने में क्या बुराई है? क्या पता वह किस जरुरी काम से सुबह-सुबह तुम्हारे पास आई हो?
राकेश ने उस महिला को वहीं ले आने को कह दिया।
एक सौम्य, शालीन और सादे कपड़े पहने हुए महिला ने प्रवेश किया।
राकेश ने उससे बैठने का आग्रह किया। वह संकोच के साथ पास ही रखी एक कुर्सी पर बैठ गई। राकेश ने पूछा- कहिये आप क्या कहना चाहती हैं?
मेरा नाम सविता है। मैं नजदीक ही सुकरी गाँव में रहती हूँ। मेरा विवाह तीन वर्ष पूर्व ही हुआ था। मेरे पति आटो चलाते हैं। उसी से हमारा परिवार चलता है। अभी दो माह पहले उन्हें कुछ तकलीफ हुई। जाँच कराने पर पता लगा कि उनकी दोनों किडनी बेकार हो गईं हैं। इनके इलाज में हमारी सारी पूंजी खर्च हो गई और कर्ज भी हो गया है। हमारी थोड़ी सी जमीन थी वह भी बिक गई। घर में हम चार लोग हैं। इनके माता-पिता तथा मैं और ये। कमाई करने वाले यही एक हैं। इनके बीमार हो जाने से अब कमाने वाला कोई नहीं रह गया। मैं सुबह-सुबह आपके पास इसलिये आई हूँ कि मेरे पास आज इनके डायलेसिस के लिये भी रूपया नहीं है। भगवान जाने आगे क्या होगा। आज 12 बजे तक इनका डायलेसिस कराना है।
उसने आंसू पोछते हुए बतलाया- मैं कलेक्टर के पास मदद के लिये गई थी । जिस समय मैं उनकी राह देख रही थी उसी समय कलेक्टर के यहाँ उनके रीडर ने मुझे आपका पता देकर कहा कि- मैं आपसे मिलूँ। आपके माध्यम से मेरी समस्या का कुछ समाधान जल्दी निकल सकेगा। इसीलिये मैं आपके पास आई हूँ। मेरे आने से आपके कामों में जो खलल पड़ा उसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।
राकेश ने पूछा- आप मुझसे क्या चाहती हैं और मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ?
यह सुनकर उसकी आँखों से आंसू बहने लगे और बोली- मैं बहुत परेशान हो चुकी हूँ। दिन रात इनकी चिन्ता और घर की समस्याएं व तनाव मिलकर मुझे जीने नहीं दे रहे हैं। हालत बहुत खराब है। हर दूसरे दिन डायलेसिस हो रहा है। डाक्टरों का कहना है कि किडनी बदलने के अलावा और कोई चारा नहीं है। मेरी ननद इनको किडनी देने तैयार है लेकिन उसके लिये मेरे पास धन नहीं है। इतना कहते-कहते वह फिर रो पड़ी।
राकेश और आनन्द ने उसे सांत्वना दी और समझाते हुए पूछा कि इलाज में कितने धन की आवश्यकता है और उसके पास कितनी व्यवस्था है?
सरकार से मुझे ढाई लाख रूपये की सहायता मिल रही है जो सीघे मुम्बई के जे जे अस्पताल को दे दिया जाएगा। जे जे अस्पताल के डॉक्टरों ने भी बिना किसी शुल्क के आपरेशन करने की सहमति दे दी है। इसके अतिरिक्त भी मैंने कुछ व्यवस्था की है लेकिन अभी भी पूरे इलाज में चार लाख रूपये कम पड़ रहे हैं। इसकी व्यवस्था कैसे हो इसी आशा में आपके पास आई हूँ।
उसकी बात सुनकर राकेश और आनन्द एक-दूसरे से चर्चा करने लगे। उन्होंने उसे सान्त्वना देते हुए ढाढ़स बंधाया और उसे बताया कि मैं और आनन्द एक-एक लाख रूपये आपको दे देंगे किन्तु यह राशि अस्पताल के नाम से ही दी जाएगी। राकेश ने मुम्बई में अपने एक मित्र से चर्चा की और सविता से कहा- आपका काम हो जाएगा। धन की व्यवस्था हो गई है। मैं आपको मुम्बई का एक पता दे रहा हूँ। वे धन के साथ-साथ आपके रहने और खाने-पीने की निशुल्क व्यवस्था कर देंगे।
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सविता के प्रति राकेश और आनन्द दोनों के ही मन में सहानुभूति का भाव स्थान ले चुका था। वह अपनी परिस्थितियों से जूझते हुए मुसीबत के समय में न केवल अपने पति के साथ खड़ी थी वरन उसकी जीवन रक्षा के लिये जी तोड़ मेहनत कर रही थी।
वे लगातार उसके पति के उपचार के विषय में जानकारी लेते रहते थे। एक दिन जब वे इस विषय पर बात कर रहे थे तब आनन्द ने कहा-
कठिनाइयों में
कठिनाइयों के करीब होते हुए भी
उन्हें कठिन मत समझो
कठिनाइयों को खत्म करने की शक्ति
हममें है
और हम
उन्हें खत्म करके
जीवन को एक नई दिशा
एवं नया आयाम दे सकते हैं।
सविता ने इस बात को पूरी तरह से सिद्ध कर दिया है। राकेश भी आनन्द की इस बात से सहमत था। वह बोला-तुम सच कहते हो। आज के समय में ऐसा समर्पण और ऐसी कर्मठता कम ही देखने को मिलती है। मैं तो उसकी बहिन का भी कायल हूँ जो अपने भाई के जीवन की रक्षा के लिये अपनी एक किडनी तक देने को तत्पर है। आज ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं।
देखो राकेश जीवन में ऐसा कोई नहीं है जिसे कोई चिन्ता न हो और ऐसी कोई चिन्ता नहीं है जिसका कोई समाधान न हो। चिन्ताओं का निवारण करते हुए आशा और निराशा के बीच झूलता हुआ पेण्डुलम के समान हमारा जीवन है। आशा से भरे हुए जीवन का नाम ही वास्तविक जीवन है। निराशा के निवारण का प्रयास ही जीवन संघर्ष है। जो इसमें सफल है वही सुखी और सम्पन्न है। दुख और निराशा है जीवन का अन्त। यही है जीवन का नियम और जीवन का क्रम। जीवन पथ प्रायः होता है अनजाना, संकटपूर्ण और कष्टों से भरा हुआ। हम होते हैं प्रायः दिग्भ्रमित, यदि सही मार्ग मिल गया तो हम अपने लक्ष्य तक सरलता से पहुँच जाते हैं, अन्यथा भटकने में ही समय नष्ट होता जाता है। इसलिये हमें सबके विचारों को सुनना चाहिए और अपने विवेक से निर्णय लेना चाहिये कि हमें कब, किसकी और कितनी सहायता करना है।
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सविता अपने पति और ननद के साथ ट्रेन में मुम्बई जा रही थी। वह बहुत थकी हुई थी और ट्रेन छूटने के कुछ समय बाद ही अपनी बर्थ पर आँख मूंद कर लेट गई। उसके विचारों में उसका बचपन आ गया।
वह सपनों में परियों की कथाएं और नानी की कहानियाँ सुनकर अपनी आँखों में प्यार अनुभव करती हुई सपनों के संसार में खो गई। ट्रेन में हल्का सा झटका लगने पर उसकी नींद खुल गई और वह आसपास सबको देखकर पुनः आँख बन्द कर सो गई। वह जीवन और मृत्यु का चिन्तन कर रही थी और इसी में खो कर उसे लगा कि मृत्यु जैसे उसके पति को छूकर निकल गई हो। मृत्यु के इस अहसास ने उसे ईश्वर के प्रति विश्वास में और वृद्धि कर दी। अब वह अपने गाँव को याद कर रही थी। नदी किनारे बसे हुए उसके गाँव में लोग कितने सीधे सरल और सच्चे हैं। वह अपने पति के इलाज के लिये उनसे निवेदन कर रही है किन्तु उसे कोई भी सहयोग देने के लिये आगे नहीं आ रहा है। वह राकेश और आनन्द के विषय में सोचती है कि वे लोग कितने भले हैं। उसके पति का इलाज चालू हो गया है और उसके पति को आपरेशन थियेटर में ले गए हैं और तभी उसकी नींद खुल जाती है।
वह पति के पास जाती है और देखती है कि दवाओं का समय हो गया है। वह उनका हालचाल पूछती है और दवाएं देती है। दिन ढल चुका था। वह ननद के साथ भोजन करती है। उसकी ननद उसे समझाती है कि चिन्ता मत करो ईश्वर जो करेगा सो अच्छा ही करेगा। तुम प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक पति की सेवा में व्यस्त हो। तुम्हारी नियति है कि जब तक सांस है तब तक आस है और तुम्हें प्रयासरत ही रहना है। हमारा लक्ष्य है कि किसी भी प्रकार जगदीश अच्छा हो जाए। यह सच है कि जीवन में सभी की सभी मनोकामनाएं पूरी नहीं होतीं। लेकिन जो अपने लक्ष्य को पाने के लिये सच्चे मन से परिश्रम करते हैं अपने धन, धैर्य और कर्म में समन्वय रखते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं उन्हें एक दिन सफलता अवश्य मिलती है। तुम देखना जगदीश बिल्कुल अच्छा हो जाएगा। तुम्हारी मेहनत बेकार नहीं जाएगी। ईश्वर तुम्हारी मदद अवश्य करेगा। भोजन के बाद दोनों अपनी-अपनी बर्थ पर सोने चले जाते हैं। उनके मन में यह चिन्ता थी कि मुम्बई में क्या होगा? वे कहाँ रूकेंगे? कैसे इलाज होगा? इलाज के बाद क्या होगा? आदि।
मुम्बई पहुँचने पर जब वह ट्रेन से उतरती हैं तो उन्हें एक आदमी उनके नाम की तख्ती लिये उसे चारों ओर घुमाता हुआ दिखलाई देता है। वे लोग उसके साथ हो जाते हैं। वह उन्हें ले जाकर अस्पताल के पास ही एक धर्मशाला में ठहरा देता है। वह उन्हें अपना नम्बर भी देता है और कहता है कि आप लोग निश्चिन्तता के साथ अपना कार्य कीजिये और किसी भी प्रकार की आवश्यकता हो तो वे उसे फोन कर दें वह सारी व्यवस्था कर देगा।
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वे दूसरे दिन प्रातः अस्पताल पहुँचे। उन्हें डॉ. माथुर की प्रतीक्षा थी। डॉ. माथुर को ही उसका उपचार करना था। सविता को चिन्तित देखकर जगदीश ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा- हम चिन्तन में खोकर भूत, वर्तमान व भविष्य का मन्थन करते हैं। हम यह नहीं सोचते कि जो समय बीत गया वह खत्म हो गया। जो वर्तमान में हो रहा है वह हमारा प्रारब्ध है और भविष्य की नकारात्मक सोच से परेशान होना हमारी विवेकहीनता है। जीवन में जो हो रहा है और जो भविष्य में संभावित है तुम उसे रोक नहीं सकती। तुम केवल एक दर्शक के समान हो उसे बदलने का अधिकार या ताकत तुममें नहीं है फिर उसे सोच-सोचकर दुखी क्यों होती हो। हम सही समय पर सही निर्णय लेकर आपरेशन के द्वारा किडनी प्रत्यारोपण करवा रहे हैं। जिससे हमारा शरीर सुरक्षित रह सके। तुम अपने मन में किसी प्रकार की आशंका मत रखो। जो भगवान की मर्जी है वही होगा। यह भी भरोसा रखो कि सब ठीक होगा। वह इस प्रकार की बातें कर ही रहा था तभी डॉ. माथुर का आगमन होता है।
अपना क्रम आने पर सविता और उसकी ननद, जगदीश को लेकर डॉ. माथुर के पास गये। उन्होंने गहराई से उसकी जाँच की और उसकी जाँच रिपोर्ट्स को चैक किया। फिर वे बोले आपको इनकी और किडनी डोनेट करने वाले की कुछ जाँचें और करवाना है। मैं लिखकर दे रहा हूँ। इनकी रिपोर्ट्स भी शाम तक मिल जाएंगी। कल इनकी किडनी का प्रत्यारोपण किया जाएगा। वे उसे समझाकर बतलाते हैं कि आपरेशन के उपरान्त भी मरीज को कोई संक्रमण न हो सके इसलिये दो माह तक आपको विशेष ध्यान देना होगा। आप किसी को भी उनके पास तक नहीं जाने दीजियेगा। स्वयं भी आप उनके पास मास्क लगाकर ही जाइयेगा।
सविता उनसे कहती है- डॉक्टर साहब! हम लोग बहुत गरीब लोग हैं आप सब की सहायता से ही इस कार्य को कर पा रहे हैं।
डॉ. माथुर ने उससे कहा- आप निश्चिन्त रहिए। हम लोग अपनी पूरी कोशिश करेंगे और मुझे पूरा विश्वास है कि आप लोग यहाँ से खुशी-खुशी घर जाएंगे। मुझे आप लोगों के विषय में सारी जानकारी हो चुकी है। आपकी लगन, आपके परिश्रम और आपकी सेवा भावना के कारण ही हमारे अस्पताल के पूरे स्टाफ ने यह निश्चय किया है कि हम लोग आपसे किसी प्रकार का शुल्क नहीं लेंगे। हमारी अस्पताल के डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ अच्छी सेवा प्रदान करने हेतु प्रतिबद्ध हैं। हम प्रयास ही कर सकते हैं। परिणाम तो ऊपर वाले पर ही निर्भर है। आपकी ननद जो अपनी किडनी दान कर रही हैं वह भी बहुत ही प्रशंसनीय तथा अनुकरणीय है।
कल की ही बात है, एक सम्पन्न आदमी की किडनी का प्रत्यारोपण हम लोगों ने किया है। उसकी पत्नी बार-बार हम लोगों से कह रही थी कि हम धन की चिन्ता न करें। धन चाहे जितना लग जाए पर मेरे पति के जीवन की रक्षा हो जाए। मैंने उन्हें भी समझाया था कि धन से आदमी के प्राणों का कोई संबंध नहीं है। अगर धन से जान बचती होती तो दुनिया का कोई धनवान कभी न मरता। लेकिन ऐसा नहीं है। आप भरोसा रखिये मैं और मेरे सभी सहयोगी पूरे मन से आपके पति की जान बचाकर उसे स्वस्थ्य बनाने के लिये कटिबद्ध हैं।
दूसरे दिन जब जगदीश को ऑपरेशन के लिये ले जाया जा रहा था उस समय राकेश, राकेश की पत्नी और उसका मित्र विष्णु भी वहाँ उपस्थित थे। सभी सविता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े थे। सविता को चिन्ता तो थी लेकिन सभी उपस्थित लोगों को देखकर उसके अन्दर एक आत्म विश्वास जागृत हो गया था कि उसके पति स्वस्थ्य हो जाएंगे। वह अपनी ननद के स्वास्थ्य के लिये भी ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी। दो-ढाई घण्टे के बाद डॉ. माथुर ने आकर ऑपरेशन सफलता की सूचना दी। दोनों मरीजों को सघन चिकित्सा कक्ष में स्थानान्तरित किया जा चुका था और उनकी पूरी देखरेख की जा रही थी।
डॉ. माथुर ने ऑपरेशन के बाद की सावधानियों और व्यवस्थाओं के संबंध में सविता को समझाया और उसके परिश्रम की सराहना भी की। सविता ने भी डॉक्टर साहब और पूरे अस्पताल के लोगों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उनके निर्देशों का पालन करने की सहमति दी।
डॉ. माथुर जा चुके थे। वहाँ उपस्थित लोग भी जाने को तत्पर थे तभी उनमें से एक युवक ने आकर सविता से कहा-
मैं एक समाजसेवी संस्था की ओर से आपके पास आया हूँ। मेरा नाम विनोद है। मैं प्रतिदिन सुबह शाम आकर देख लिया करूंगा। आप मेरा नम्बर ले लीजिये, अस्पताल से भी आपको मेरा नम्बर मिल सकता है। आप जब भी मुझे फोन करेंगी मैं कुछ ही समय में आपके पास पहुँच जाउंगा।
सविता देख रही थी कि जब से वह आया था सभी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था। खास तौर से बीमारी और उपचार के विषय में तो वह काफी गम्भीर था। विनोद भी बाकी सदस्यों के साथ अस्पताल से विदा हो जाता है।
अब अस्पताल में सविता अकेली रह गई थी। वह सघन उपचार कक्ष के बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठी-बैठी भगवान को याद करती हुई अपने पति और ननद के स्वस्थ्य होने की कामना कर रही थी। बीच-बीच में वह आती-जाती नर्सों से और अन्य कर्मचारियों से उनका हाल जानती रहती थी। शाम को लगभग छैः बजे के आसपास विनोद आता है। वह अपने साथ एक थर्मस, गिलास-कप आदि लिये हुए था। सविता अकेली बाहर कुर्सी पर बैठी हुई थी। वह पास की ही दूसरी कुर्सी पर बैठ जाता है। वह पूछता है-
अब उन लोगों का क्या हाल है?
अस्पताल में भीतर तो रहने नहीं देते हैं। मैं बीच में दो बार उन्हें देखने भीतर गई थी। ड्यूटी डॉक्टर ने बतलाया कि स्थिति ठीक है और चिन्ता की कोई बात नहीं है।
विनोद ने थर्मस से चाय भरकर सविता को भी दी और स्वयं भी ली। उसने बतलाया कि यहाँ से जाने के बाद उसने डॉक्टर माथुर से बात की थी।
क्या कह रहे थे?
उनका कहना है कि यदि तीन साल पहले इनका ठीक से उपचार होता तो यह स्थिति नहीं आती।
इनको तकलीफ तो रहती थी। उपचार भी करवाते थे किन्तु हमें यह लगता था कि मामूली पेट दर्द है। फिर दवाओं से आराम भी लग जाता था। जब तकलीफ बढ़ गई तो बड़े डॉक्टर को दिखलाया। हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। बड़े डॉक्टरों की फीस भी अधिक होती है। इसलिये भी थोड़ी सी लापरवाही हो गई।
डॉ. माथुर कह रहे थे कि ऐसे केसेज में सत्तर प्रतिशत तक तो मरीज ठीक हो जाते हैं किन्तु तीस प्रतिशत मामलों में किडनी प्रापर रिस्पान्स नहीं करती है और स्थिति बिगड़ भी जाती है।
आप सब लोगों की सहायता से मैं जितना कर सकती हूँ कर रही हूँ। आगे भगवान की मर्जी।
आपके परिवार से और कोई साथ नहीं आया?
परिवार में इनके और मेरे माता-पिता हैं। सभी वृद्ध और कमजोर हैं इसलिये उन्हें साथ लाना उचित नहीं था। मेरे ननदोई घर पर बच्चों के साथ हैं और वे अपना परिवार देख रहे हैं। उन्हें यहाँ की जानकारी मैं देती रहती हूँ।
आप कहीं नौकरी करती हैं?
नहीं! मैं घर पर ही रहती हूँ और घर की देखभाल करती हूँ।
आपको देखकर लगता है कि आप काफी पढ़ी-लिखी हैं?
मैंने एम. एससी. और एमसीए किया है। मैं जाब तलाश कर रही थी तभी मेरी इनसे मुलाकात हो गई। ये भी पोस्ट ग्रेजुएट हैं। परिवार की परिस्थितियों के कारण और नौकरी न मिलने के कारण ये आटो चलाने लगे। मेरे घर वालों को इनके आटो चलाने पर बहुत एतराज था। वे हमारी शादी के पक्ष में नहीं थे। हम लोगों ने लव मैरिज की थी। हमारा अन्तर्जातीय विवाह हुआ था, इस कारण से परिवारों में वैसे संबंध नहीं हैं जैसे होना चाहिए। आपके परिवार में कौन-कौन हैं?
मेरे यहाँ आभूषण निर्माण का काम होता है। मैं, मेरा बड़ा भाई और पिता जी मिलकर अपना व्यवसाय देखते हैं। मैं व्यापार के साथ-साथ परिवार को भी देखता हूँ। इसके साथ-साथ समाजसेवा भी करता हूँ। इसमें मेरे पिता जी का भी सहयोग रहता है। आप यदि मेरी बात को अन्यथा न लें तो एक बात कहूँ?
कहये!
अस्पताल में रिस्तेदारों को सिर्फ शाम को ही मिलने दिया जाता है। आपको अभी दो-तीन माह यहाँ रहना पड़ेगा। बाकी समय में आप क्या करेंगी। यदि आप कहें तो मैं आपके लिये किसी नौकरी की व्यवस्था कर सकता हूँ। इससे आपका समय भी अच्छे से निकल जाया करेगा और इलाज भी चलता रहेगा।
दो-चार दिन देख लें। इनकी हालत थोड़ा सुधर जाए तो मन हल्का हो जाएगा। आप यदि मेरे लिये किसी नौकरी की व्यवस्था कर सकें तो यह मेरे ऊपर आपका बड़ा उपकार होगा।
विनोद कुछ देर वहाँ और रूकता है। वह जगदीश को देखने भी जाता है और उसकी हालत की भी जानकारी लेता है। उसके बाद वह चला जाता है।
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दूसरे दिन विनोद दोपहर में लगभग 12 बजे आया। उसने सविता से जगदीश के हालचाल जानने के बाद भीतर जाकर उसे देखा और ड्युटी डॉक्टर से उसके विषय में बात की। फिर वह सविता के पास आया। उसने सविता को खुशखबरी देते हुए बतलाया कि अस्पताल के नजदीक ही उसने एक फर्म में सविता के लिये नौकरी की बात की है। उसने यह भी बतलाया कि वह जब भी चाहे काम प्रारम्भ कर सकती है।
विनोद ने जब उससे उसके खाने के विषय में पूछा तो पता चला कि अभी उसने भोजन नहीं किया है तब वह उसे किसी होटल में चलने के लिये कहता है। सविता के लिये मुम्बई एक अपरिचित नगर था। उसे कदम-कदम पर किसी सहारे की आवश्यकता थी। वह सहमति दे देती है।
विनोद उसे पास ही एक अच्छे होटल में ले गया। सविता ने जब होटल की भव्यता और सुन्दरता देखी तो उससे कहा- मैंने अपने जीवन में पहले कभी ऐसी अच्छी होटल नहीं देखी।
मुम्बई बहुत बड़ी है। यह हमारे देश की आर्थिक एवं सांस्कृतिक राजधानी है। अगर आप यहाँ नौकरी करती हैं तो धीरे-धीरे आप मुम्बई के रंग में ढल जाएंगी और यहीं की होकर रह जाएंगी। यह नगर इसी तरह से महानगर बना है। यहाँ के अधिकांश लोग बाहर से आकर ही यहाँ बसे हैं।
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सविता ने दूसरे दिन ही नौकरी पर जाना प्रारम्भ कर दिया। विनोद उसे लेकर उस फर्म तक गया था और वहाँ उसके मालिक से उसका परिचय करवा आया था। अब सविता की दिनचर्या बहुत व्यस्त हो गई थी। वह सुबह तैयार होकर अस्पताल जाती। वहाँ से निकल कर अपने काम पर चली जाती और फिर शाम को अस्पताल पहुँच जाती। शाम को विनोद आता था तो रात्रि का भोजन वे प्रायः साथ-साथ ही किया करते थे। वहाँ से विनोद उसे उसके गेस्ट हाउस में छोड़कर फिर अपने घर जाता था। उनके बीच संबंध प्रगाढ़ होते जा रहे थे। विनोद प्रायः उसके लिये उपहार आदि लाता रहता था। सविता उसको अस्वीकार नहीं कर पाती थी। जगदीश दिनों-दिन अच्छा होता जा रहा था। सविता उसकी ओर से निश्चिन्त होती जा रही थी और विनोद के रुप में उसे एक अच्छा और विश्वसनीय साथी मिल गया था जिससे वह अपने सारे सुख-दुख और मन की बातें खुल कर कह लेती थी। विनोद मन ही मन सविता के प्रति झुकता जा रहा था।
एक दिन रात्रि के भोजन के दौरान विनोद ने सविता से पूछा कि वह जीवन में क्या बनना चाहती थी। सविता ने एक ठण्डी सांस भरकर कहा- जीवन में किसी की सभी हसरतें कहाँ पूरी होती हैं। फिर उनकी चर्चा करने से क्या फायदा?
उसकी बात सुनकर विनोद भावुक हो गया। उसे लगा जैसे उसने सविता के किसी मर्म स्थान पर हाथ रख दिया है। वह उसे समझाते हुए बोला-
जिन्दगी में सभी हसरतें
पूरी नहीं होतीं
और नहीं बनती हैं
भविष्य का आधार।
हम समझ नहीं पाते
हसरतें हैं
हमारे जीवन का दर्पण।
हसरतों को पूरा करने के लिये
करना पड़ता है
बहुत परिश्रम।
धन, ज्ञान, कर्म और भाग्य का समन्वय
बनता है
सफलता का आधार।
यदि हम करते रहें
निरन्तर प्रयास
तो हमारी सभी हसरतें
एक दिन
निश्चित ही होती हैं पूरी।
वह भावुक होकर कहता है- जीवन में सब कुछ पाया पर एक दिन यह काया मिटकर केवल धर्म और कर्म की स्मृतियां ही रह जाएंगी। हमें अपने जीवन में पुरूषार्थ और भाग्य को समझना चाहिए। भाग्य है एक दर्पण के समान और पौरूष है उसका प्रतिबिम्ब। दोनों का जीवन में सामन्जस्य हो तभी जीवन की सम्पूर्णता होकर सफलता मिलती है। जीवन में एक दिन सभी को अनन्त में विलीन होना है। अतएव भगवान द्वारा प्रदत्त इस जीवन का पूरा-पूरा उपभोग कर लेना चाहिए। वह सविता के प्रति प्रेम व समर्पण की भावना में बह रहा था। सविता उसकी बातों को सुन रही थी किन्तु उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था।
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जगदीश को दो दिनों से ज्वर आ रहा था। डाक्टर उसका उपचार कर रहे थे किन्तु कोई लाभ नहीं हो रहा था। आज डाक्टरों ने बतलाया कि ट्रांसप्लान्ट की गई किडनी सही रिस्पान्स नहीं कर रही है। वे सविता को अपने रिस्तेदारों को बुला लेने के लिये कहते हैं। इस स्थिति से सविता काफी असहज हो गई थी। उसने अपने सास-ससुर को खबर कर दी थी। दूसरी ओर उसकी ननद बिलकुल सामान्य हो गई थी। उसे रिलीव किया जा रहा था। जगदीश की हालत बिगड़ती ही जा रही थी।
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सविता के सास-ससुर मुम्बई पहुँच गये थे। जगदीश के उपचार के लिये डाक्टर लगातार प्रयास कर रहे थे किन्तु वे उसे नहीं बचा सके। जगदीश इस दुनियां को छोड़कर चल दिया। सविता इस घटनाक्रम से लगभग टूट चुकी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। सभी की सलाह पर जगदीश का अंतिम संस्कार वहीं मुम्बई में ही किया गया। सविता वहां से छुट्टी लेकर अपने सास-ससुर के साथ अपने गृह नगर आ गई। मृत्यु के बाद के सारे काम हो जाने के बाद उनके परिवार के सामने फिर आजीविका की समस्या खड़ी हो गई थी। परिवार की सहमति से ही सविता वापिस मुम्बई रवाना हो गई। वहां उसने अपनी पुरानी सेवाएं पुनः प्रारम्भ कर दीं। वह नियमित रुप से अपने सास-ससुर को भी खर्च भेजती रहती है।
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उस दिन शाम को जब विनोद उसके पास आता है तो वह कुछ चिन्तित सा था। वह सविता को समुद्र के किनारे घुमाने ले जाता है। वहाँ वे एक चट्टान पर बैठे थे। तभी विनोद उससे कहता है- मेरी समझ में नहीं आ रहा मैं तुमसे अपने मन की यह बात कैसे कहूँं?
कौन सी बात?
विनोद कुछ रूककर कहता है मैं चाहता हूँ कि मैं और तुम जीवन भर एक दूसरे के साथ रहें। यदि तुम स्वीकार करो तो मैं तुम्हारे साथ विवाह करना चाहता हूँ।
उसकी बात सुनकर सविता अवाक रह जाती है। वह कहती है- यह सही है कि आप एक बहुत अच्छे इन्सान हैं। ईश्वर ने आपको सब कुछ दिया है। मेरी और आपकी कोई बराबरी नहीं है। मैंने जगदीश से प्रेम विवाह किया था। वही मेरा पहला और अंतिम प्यार था। मैंने आपको कभी भी इस दृष्टि से नहीं देखा। मेरे ऊपर मेरे माता-पिता और सास-ससुर की जिम्मेदारी है। यही कारण है कि मैं पुनः मुम्बई वापिस आ गई हूँ। आपने मुझे जो काम दिलवा दिया है उसी से कमाकर मैं उनकी सेवा करुंगी। मैं आजीवन आपकी आभारी रहूंगी कि आपने निस्वार्थ भाव से एक अपरिचित परिवार का इतना ध्यान रखते हुए सेवा,सुश्रुषा प्रदान की, और अपनी ओर से हर संभव प्रयास किया कि जगदीश अच्छा हो जाए। पर मेरा दुर्भाग्य है कि अथक प्रयासों के बाद भी हम उसे बचा नहीं सके।
मेरे ऊपर दो परिवारों की जवाबदारी आ गयी है। मेरे माता पिता जिन्होने मुझे जन्म दिया और दूसरे मेरे सास ससुर जिन्होने विवाह के बाद मुझे अपनी बेटी के समान रखा। इन सभी का मेरे अलावा और कोई नहीं हैं। मुझे ही इन सबकी देखभाल अकेले ही करनी होगी, मैं अपनी जवाबदारी से विमुख होकर विवाह कर लूँ , यह मेरे लिए संभव नहीं है। मैं भारतीय सभ्यता,संस्कृति एवं संस्कारों में पली हूँ। और मैं आजीवन उनके देखभाल में अपना समय देना चाहती हूँ। आप मुझे गलत मत समझयिगा।
मैं तो आपके सुखद व संपन्न भविष्य की प्रभु से हमेशा प्रार्थना करती रहूँगी। अब मेरी और आपकी राहें अलग अलग हो रही है।
विनोद कुछ उत्तर नहीं देता। उसका सिर कुछ झुका हुआ था। सविता भी मौन थी। कुछ देर बाद दोनों उठकर चल पड़े। पश्चिम में सागर में सूरज डूबता चला जा रहा था।
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मैं कौन हूँ?
अरे! तुम अभी तक सो रहे हो! सूर्योदय का कितना प्रकाश हो गया है। माँ की आवाज सुनकर राकेश हड़बड़ाकर उठा। माँ ने उसे चाय का प्याला थमा दिया और कहा- नहा-धो कर जल्दी नीचे आ जाओ। तुम्हारे पापा तैयार हो रहे हैं और नाश्ता भी तैयार हो चुका है। यह कहते हुए माँ कमरे से बाहर निकल गई। राकेश भी उठकर तैयार होकर नाश्ते की टेबल पर पहुँच गया। वहाँ उसके पिता उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उसे देखते ही उन्होंने उससे कहा- आइये दार्शनिक जी! आज आपके दर्शन शास्त्र में कौन सा नया प्रश्न उठा है। जिसका समाधान आप खोज रहे हैं।
पिता का प्रश्न सुनकर राकेश बोला- मैं गम्भीरता पूर्वक सोच रहा हूँ कि ’’मैं कौन हूँ?’’ ’’आप कौन हैं?’’ ’’इस दुनियां में मानव का जन्म क्यों और किसलिये होता है?’’ यह सुनते ही उसके पिता बोले- अरे! तू सेठ निहाल चन्द का पुत्र है और मैं सेठ निहाल चन्द अपने पिता सेठ करोड़ीमल का बेटा हूँ। यह तो सामान्य सी बात है। इसमें इतना सोचने की क्या बात है?
राकेश बी. काम. अंतिम वर्ष का विद्यार्थी था। वह बहुत गम्भीर, चिन्तनशील और अध्ययनशील नौजवान था। उसने पिता जी से कहा- यह प्रश्न बहुत गम्भीर है। आपका दिया हुआ उत्तर तो मुझे भी पता है।
जब तुम्हें पता है तो फिर इस पर अपनी ऊर्जा और समय क्यों व्यर्थ नष्ट कर रहे हो?
उसी समय उसकी माँ नाश्ता लेकर आ गई और बोली आप लोग नाश्ता कीजिये। सुबह-सुबह व्यर्थ की बातों में उलझकर अपना दिन खराब मत कीजिये। वे राकेश से बोलीं- तू अपनी आदत से बाज नहीं आएगा, प्रतिदिन सुबह-सुबह एक नया राग छेड़ देता है और तेरे पिता जी को तो उल्टी-सीधी बातें करने में मजा आता है।
उसकी बात सुनकर सेठ निहाल चंद ने कहा- राकेश जल्दी से नाश्ता कर ले और मेरे साथ दुकान चल। अब तू बड़ा हो गया है। कालेज में पढ़ रहा है। पढ़ाई के साथ-साथ तुझे व्यवसाय में भी ध्यान देना चाहिए। राकेश ने अपनी मौन स्वीकृति दी और नाश्ता करके पिता जी के साथ दुकान के लिये निकल पड़ा।
सेठ निहाल चन्द का कपड़े का व्यवसाय था। वे समाज में एक ईमानदार और परिश्रमी व्यवसायी के रुप में प्रतिष्ठित थे। राकेश दुकान में बैठा था किन्तु उसके मन में यही प्रश्न बार-बार कौंध रहा था कि- मैं कौन हूँ? उसे अपने प्रश्न का कोई संतोष जनक उत्तर नहीं सूझ रहा था। उसके मस्तिष्क में एक विचार आया और उसने कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों पर लिखना प्रारम्भ कर दिया कि-
’’आप जरा विचार कीजिये-
मैं कौन हूँ?
यदि आपको इस प्रश्न का उत्तर पता हो तो कृपया वह मुझे भी बताएं।’’
इसके बाद जो भी ग्राहक आता उसे सामान की रसीद के साथ-साथ वह उनमें से प्रश्न लिखा हुआ कागज का टुकड़ा भी उसे दे देता। उसके पिता उसके इस कृत्य से अनभिज्ञ थे। लगभग डेढ़-दो घण्टे बाद जब उसके कालेज का समय होने लगा तो वह अपने पिता से अनुमति लेकर दुकान से चला गया।
दोपहर को हवलदार रामसिंह सेठ जी के पास आया और उनसे बोला- सेठ जी! आप एक कपड़े के व्यापारी हैं और आपका नाम सेठ निहाल चन्द है। सेठ जी उसकी बात सुनकर चौंके और बोले- यह तो मुझे भी पता है। तुम मुझे क्या बताना चाहते हो? रामसिंह बोला- आपने जो पूछा है वही मैं आपको बताना चाहता हूँ। सेठ जी और भी अधिक आश्चर्य में पड़ गये। वे बोले- मैंने तुमसे यह कब पूछा है? हवलदार ने उन्हें वह कागज का टुकड़ा पकड़ा दिया और कहा- सुबह जब मैं आपके यहाँ से सामान लेकर गया था तभी तो आपके बेटे ने रसीद के साथ ही यह कागज का टुकड़ा भी मुझे दिया था। सेठ जी ने वह कागज का टुकड़ा ले लिया और उसे पढ़ा तो उनकी समझ में आ गया कि यह सब राकेश का काम है। उन्होंने हवलदार को राकेश के विषय में बतलाया और उसे समझा कर विदा कर दिया।
अभी हवलदार को गए कुछ ही समय बीता था कि उनके परिवार का डाक्टर आ गया। उसने भी वही सब कहा-सुना जो हवलदार कहकर गया था। सेठ जी ने उन्हें भी समझा-बुझा कर विदा किया। तब तक एक और सज्जन आ गए। वे भी उनसे इसी विषय पर बोले। अब तो उनका धैर्य समाप्त होने लगा। तभी कुछ हिजड़े सेठ जी के पास आ धमके। उनमें से एक हिजड़ा सुबह सेठ जी के यहाँ से कपड़े लेकर गया था। उसे भी राकेश ने वही प्रश्न लिखा कागज दिया था। हिजड़े सेठ जी से उलझ रहे थे। आसपास के दुकानदार मजा ले रहे थे। सेठ जी को राकेश पर तो क्रोध आ ही रहा था। उनने किसी तरह से उन हिजड़ों से अपना पीछा छुड़ाया और दुकान बन्द करके घर की ओर चल दिये।
राकेश ने कालेज पहुँचकर वहाँ शौचालय से लेकर क्लास रुम और दीवालों पर यही प्रश्न लिख दिया। किसी को यह भनक नहीं लगने दी कि यह किसने किया है। कालेज में जब शिक्षकों, विद्यार्थियों और अन्य लोगों ने जगह-जगह यह पढ़ा तो चर्चा का विषय बन गया। विद्यार्थी आपस में एक-दूसरे से मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ? कहकर मजा लेने लगे। लोग पढ़ाई-लिखाई छोड़कर इस पर चर्चा कर रहे थे। प्राचार्य ने इस पर एक बैठक बुलाई। बैठक में कुछ शिक्षकों ने कहा कि यह तरीका तो गलत है किन्तु प्रश्न महत्वपूर्ण है। यह जिसका भी काम है वह छात्र चिन्तनशील ही होगा। हमें इस पर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए। बैठक बेनतीजा ही समाप्त हो गई।
कालेज से लौटकर जब राकेश घर पहुँचा तो वह बहुत प्रसन्न था किन्तु जब उसका सामना अपने पिता से हुआ तो दृश्य ही बदल गया। सेठ निहाल चंद क्रोध और चिन्ता दोनों से भरे हुए थे। राकेश की हरकत से वे क्रोधित थे तो उसके भविष्य को लेकर चिन्तित थे। यह बात उनके चेहरे पर झलक रही थी। वे उससे झल्लाकर बोले- तुम्हारे कारण आज मैं बहुत परेशान हो चुका हूँ। तुम या तो अपनी ये हरकतें बन्द करके पढ़ाई और धन्धे में ध्यान लगाओ या फिर अपने इन ऊल-जलूल प्रश्नों के उत्तर पाने के लिये हिमालय पर किसी महात्मा के पास चले जाओ जिनके पास तुम्हें ऐसे प्रश्नों के समाधान मिलते रहें।
सेठ निहाल चंद ने यह बात ऐसे ही कह दी थी। उन्हें इस बात का अनुमान नहीं था कि राकेश उसे गम्भीरता से लेगा। लेकिन राकेश को पिता की बात में अपनी समस्याओं का समाधान नजर आया। उसी रात वह किसी को कुछ भी बताये बिना केवल एक छोटा सा पत्र रखकर घर से बाहर निकल गया। वह अपने पत्र में लिख कर रख गया कि मैं अपने ज्ञान की वृद्धि के लिये जा रहा हूँ । आप लोग मेरी चिन्ता न करें । जब मेरे प्रश्नों का समाधान हो जाएगा तो मैं स्वयं वापिस आ जाऊंगा।
राकेश घर से निकला तो सीधा हरिद्वार पहुँच गया। वहाँ उसने अनेक महात्माओं से मुलाकात की लेकिन गाँजा-चरस पीने वाले उन ढोंगियों में उसका मन नहीं भरा। कई दिनों की खोज के बाद भी वह संतुष्ट नहीं हो सका। उसने कभी पढ़ा था जो अब उसे सच्चा लग रह था।
संत और महात्मा की खोज में
हम भटक रहे हैं।
काम, क्रोध, लोभ और मोह की
दुनियां में रहकर भी
जो इनसे अप्रभावित है
वह संत है।
जो इनको त्याग कर भी
लोक-कल्याण में समर्पित है
वह महात्मा है।
इतनी सी बात
हम समझ नहीं पा रहे हैं
और इनकी खोज में
व्यर्थ चक्कर खा रहे हैं।
लेकिन राकेश के मन में यह भी था कि खोजने से तो भगवान भी मिल जाता है तब फिर कोई न कोई सच्चा संत अवश्य मिलेगा जो उसे सच्चा मार्ग दिखलाएगा। वह हरिद्वार से बद्रीनाथ पहुँच गया। वहाँ वह एक स्थान पर बैठा सोच रहा था कि यहाँ किससे मिला जाए। वह ठण्ड से ठिठुर भी रहा था। वह जहाँ बैठा था उसके सामने ही एक छोटे से मकान में एक वृद्ध सज्जन अपनी बेटी के साथ रहते थे। उनकी बेटी का नाम पल्लवी था।
सांझ हो रही थी। पल्लवी अपनी दिनचर्या के अनुसार गाय को चारा देने घर से बाहर निकली। जब उसने देखा कि उसके घर के सामने सड़क के उस पार कोई परदेसी बैठा ठण्ड में ठिठुर रहा है तो उसने उसके पास जाकर उससे पूछा कि आप कौन हैं और यहाँ क्या कर रहे हैं?
यही तो मैं जानना चाहता हूँ कि मैं कौन हूँ। इसी प्रश्न के समाधान के लिये मैं बहुत दूर से यहाँ आया हूँ। अभी तक तो कोई नहीं मिला जो इस प्रश्न का समाधान मुझे दे सके। यहाँ बैठकर यही सोच रहा हूँ कि अब क्या करुं।
पल्लवी को उसकी बातें अजीब लगीं पर राकेश उसे एक निश्छल और समझदार व्यक्ति लगा। उसने राकेश से कहा- तुम मेरे घर चलो! भीतर मेरे पिता जी हैं। वे तुम्हें कोई रास्ता अवश्य बतला देंगे।
राकेश उसके साथ उसके घर चला गया। उसके पिता ने राकेश की सारी बातें सुनी तो वे बोले- आज अभी रात हो गई है। तुम हमारे यहाँ ठहर जाओ। अभी खाना खा कर आराम करो। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर बाबा बालकनाथ ही दे सकते हैं। वे ऊपर गौमुख में रहते हैं। वहाँ की यात्रा बहुत कठिन है। वे महिने में एक-दो दिन के लिये यहाँ नीचे आते हैं। पिछले माह आये थे। इस महिने अभी नहीं आये हैं। एक-दो दिन में आते ही होंगे। तब तक तुम चाहो तो हमारे यहाँ अतिथि बनकर रह सकते हो।
राकेश उनकी बात मान लेता है और वहीं ठहर जाता है। पल्लवी उसे अपने पिता के साथ बैठाकर खाना खिलाती है। भोजन के बाद राकेश और पल्लवी के पिता के बीच बातचीत होती है। काफी देर वे एक-दूसरे के साथ बातें करते हैं। वे राकेश का परिचय प्राप्त करते हैं और राकेश उनसे व उनके अतीत से परिचित होता है। जब उन्हें पता लगता है कि राकेश किस प्रकार वहाँ आया है तो वे राकेश को समझाते हैं और उससे नम्बर लेकर सेठ निहाल चंद से बात करते हैं। वे उन्हें बताते हैं कि राकेश उनके यहाँ है और दो-तीन दिनों के बाद यहाँ से अपने घर वापिस आएगा। वे उनसे यह भी कहते हैं कि इस बीच वे जब चाहें उसका समाचार प्राप्त कर सकते हैं, वे राकेश और उसकी माँ की बात भी करवाते हैं। रात को वे दोनों तो कुछ ही देर में सो जाते हैं किन्तु राकेश को नींद नहीं आती। वह सोच रहा था- अपने जीवन के विषय में। सोचते-सोचते वह पल्लवी के विषय में सोचने लगता है।
पल्लवी कितनी निस्पृह लड़की है। मुझे देखकर ही समझ गई और अपने घर पर अतिथि बना लिया वरना इस भीषण ठण्ड में रात कैसे कटती। उसके कारण ही उसके प्रश्न का समाधान मिलने का रास्ता भी मिल गया लग रहा है। पल्लवी बहुत सुन्दर है। उसकी सादगी और सहजता उसके सौन्दर्य में चार चाँद लगा रहे हैं। वह कितनी परिश्रमी है। उसके चेहरे पर सुबह के उगते हुए सूरज सी ताजगी और लालिमा है। वह उसके प्रति एक अपनेपन के भाव से भर उठा। उसके मन में विचार आया कि अगर बाबा बालकनाथ दो चार दिन और न आये तो उसे पल्लवी के साथ रहने का और अधिक अवसर मिलेगा। उसका मन हुआ कि वह अपनी चारपाई से उठकर पल्लवी के पास चला जाए और उसे अपने सीने से चिपटा ले।
सहसा राकेश चौंक उठा। वह यह सब क्या सोचने लगा। वह एक सभ्य आदमी से कामुक पशु कैसे बन गया। फिर उसे लगा कि नहीं काम सिर्फ पशुता नहीं है। वह तो इस सृष्टि का आधार है।
काम
वासना नहीं है,
वह तो है
प्रकृति और जीवन चक्र की
स्वाभाविक प्रक्रिया,
कामुकता वासना हो सकती है।
काम है प्यार के पौधे के लिये
उर्वरा मृदा।
काम है सृष्टि में
सृजन का आधार।
इससे हमें प्राप्त होता है
हमारे अस्तित्व का आधार।
काम के प्रति समर्पित रहो
वह भौतिक सुख और
जीवन का सत्य है।
कामुकता से दूर रहो,
वह बनती है
विध्वंस का आधार
और व्यक्ति को करती है
दिग्भ्रमित।
यह सब सोचते-सोचते ही राकेश जाने कब सो गया। सुबह सूर्योदय से पूर्व ही राकेश तैयार हो चुका था। पल्लवी अपने पिता के निर्देशानुसार राकेश को बद्रीनाथजी के दर्शन कराने ले जा रही थी। उसके पिता को आर्थोराइटिस था। वे साथ में जाने से असमर्थ थे। जिस समय वे घर से निकले उस समय सूर्योदय में कुछ कसर थी। पहाड़ों के पीछे से कुछ रौशनी आने लगी थी। वे पैदल चले जा रहे थे। राकेश के पैरों के साथ ही उसके विचारों का सिलसिला भी चल रहा था।
सूर्योदय हो रहा है, और सत्य का प्रकाश विचारों की किरणें बनकर सभी दिशाओं में फैल रहा है। हर ओर कैसी आनन्ददायी शान्ति व्याप्त है। यह शान्ति सभी को समान रुप से प्राप्त होने वाला प्रकृति का उपहार है जो उसे सृजन की दिशा में प्रेरित कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि तमसो मा ज्योतिर्गमय के रुप में दिन का शुभारम्भ हो रहा है। ऐसे ही समय में हमारा दिल और दिमाग परमात्मा की कृपा का अनुभव करता है। यही सब सोचते-सोचते वे मन्दिर पहुँच जाते हैं। पल्लवी आपनी स्वाभाविक लज्जा के कारण मौन थी तो राकेश अपने विचारों में खोया हुआ मौन था। मन्दिर आया तो जैसे दोनों की चेतना जागृत हो गई।
पूजा के उपरान्त घर वापिस आते समय राकेश और पल्लवी के बीच सहज स्वभाविक बातचीत होती है। पल्लवी के बातचीत के सलीके, उसकी समझ और उसके विचारों से राकेश बहुत प्रभावित होता है। घर पर आकर पल्लवी अपने प्रतिदिन के कामों में लग जाती है। राकेश उसके पिता के पास जाकर बैठ जाता है। उनके बीच चर्चाओं का सिलसिला चल पड़ता है। उसके पिता राकेश को बतलाते हैं कि किस तरह चीन के आक्रमण के समय चीनी सेनाएं बद्रीनाथ के करीब तक पहुँच गईं थीं। उस युद्ध के शहीदों की स्मृति में बना स्मारक आज भी उनकी याद ताजा कर रहा है। वे उसे भगवान बद्रीनाथ जी का पूरा इतिहास भी बतलाते हैं। इसी प्रकार विभिन्न विषयों पर बातचीत करते-करते ही भोजन भी तैयार हो चुका था। भोजन बहुत स्वादिष्ट था। राकेश पल्लवी के पाक-कौशल से भी प्रभावित होता है। वह उसे इतना स्वादिष्ट भोजन कराने के लिये धन्यवाद भी देता है। भोजन के बाद राकेश उसके पिता से अनुमति लेकर घूमने निकल पड़ता है। वह शहीदों के स्मारक पर जाता है। वहाँ कुछ देर रूकने के बाद वह आसपास के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने के लिये घूमता रहता है। शाम होने लगती है तो वह पल्लवी के घर वापिस आता है।
जब वह वापिस आता है तो पल्लवी के पिता राकेश को देखकर बोल पड़े- बेटा! तुम बहुत भाग्यशाली हो। तुम जिनकी प्रतीक्षा कर रहे थे वे आज ही आ गये। तुम्हें अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। राकेश ने देखा कि उनके पास ही एक सन्यासी बैठे हुए हैं। उनके सारे केश ऐसे श्वेत हैं जैसे किसी ने उन्हें उजले कपास से बनाया हो। इकहरी और दीर्घ काया है। मुख पर लालिमा युक्त तेज है। उनकी आँखों में सम्मोहन है। राकेश ने आगे बढ़कर उनको शीश रखकर प्रणाम किया और वहीं पास में पालथी मारकर बैठ गया। पल्लवी के पिता ने उन महात्मा को राकेश का परिचय दिया और उसके बद्रीनाथ पहुँचने की वृत्तान्त बतलाया। वे मौन होकर शान्त भाव से राकेश की ओर देखते रहे। बात समाप्त होने के बाद वे कुछ देर मौन रहकर बोले- बेटा! तुम्हारे मन में जो प्रश्न है वह बहुत महत्वपूर्ण है मुझे आश्चर्य है कि उसके समाधान के लिये तुम इतनी दूर तक आये हो। मैं अगर संक्षिप्त उत्तर दूँ तो बस इतना समझ लो कि ईश्वर ने इस सृष्टि का सृजन किया है और मानव उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। हम, तुम और सब उसकी सृष्टि की अनवरतता के हेतु हैं।
महात्मा जी का उत्तर सुनकर राकेश को जैसे मन चाहा वर मिल गया हो। उसके मन की सारी ऊहापोह समाप्त होकर उसके चेहरे पर संतुष्टि के भाव झलकने लगे। वह प्रसन्न हो गया था। उसके बाद उनके बीच वार्तालाप चलता रहा। वे सभी तन्मय थे। उनका ध्यान तब टूटा जब पल्लवी ने आकर भोजन तैयार होने की सूचना दी।
अगले दिन सुबह दरवाजे पर दस्तक हुई। पल्लवी ने दरवाजा खोला तो सामने एक दम्पति खड़े थे। उन्होंने उससे कहा कि वे राकेश के माता-पिता हैं। राकेश क्या वहीं ठहरा हुआ है? पल्लवी ने सहमति व्यक्त करते हुए उनका अभिवादन किया और उन्हें भीतर अपने पिता के पास ले गई। उस समय उसके पिता महात्मा जी के साथ ही थे, राकेश भी वहीं था। राकेश जैसे ही अपने माता-पिता को देखता है वह सुखद आश्चर्य से भर उठता है और आगे बढ़कर उनके चरण स्पर्श करता है। एक आत्मीय प्रसन्नता का वातावरण पूरे कक्ष में छा जाता है। आपस में परिचय के उपरान्त सन्यासी जी उनसे कहते हैं आप लोग दूर से आये हैं। थोड़ा विश्राम आदि कर लीजिये मैं भी जिस प्रयोजन से आया हूँ वह कार्य सम्पन्न कर लूँ। फिर संध्याकाल में जब बैठेंगे तो चर्चा होगी।
महात्मा जी राकेश को साथ लेकर चले जाते हैं। पल्लवी के पिता और राकेश के माता-पिता उसी कमरे में बैठकर बातें करने लगते हैं। पल्लवी के पिता ने उनसे कहा-
आप ने क्यों कष्ट किया। आपका बेटा तो इतना समझदार है। महात्मा जी उसकी उस जिज्ञासा को शान्त कर चुके हैं जिसके कारण वह यहाँ आया था। अब तो वह घर वापिस ही आने वाला था।
हम तो यह सोचकर चले आये कि हमें भी बद्रीनाथ जी के दर्शन हो जाएंगे। हमारे मन में आपसे मिलने की भी इच्छा थी। आपने उसे परदेश में सहारा दिया है, हम लोगों को उसका समाचार देकर हमारी चिन्ता को दूर किया और महात्मा जी से मिलवाकर राकेश को सच्चा रास्ता भी दिखलाया है। इसीलिये हमने सोचा कि हम स्वयं आकर आपके प्रति अपना आभार जताएं।
आपका आना तो हमारे लिये सौभाग्य की बात है। लेकिन आपका सामान कहाँ है?
हम पास ही के गेस्ट हाउस में ठहरे हैं?
घर होते हुए भी आप गेस्ट हाउस में ठहरें यह तो अच्छा नहीं लगा। उन्होंने पल्लवी की ओर उन्मुख होते हुए उसे नौकर के साथ जाकर समान ले आने के लिये कहकर सामान बुलवा लिया।
महात्मा जी का बद्रीनाथ जी में भी आश्रम था। वे ठहरते तो इनके यहाँ थे किन्तु लोगों से अपने उसी पुराने छोटे से आश्रम में मिला करते थे। वहां वे गोमुख जाने के पहले रहते थे। वे राकेश को लेकर उसी आश्रम में गये थे। वहाँ जब वे और राकेश एकान्त में बैठे थे उस समय महात्मा जी ने उससे कहा- प्रभु ने इस सृष्टि में वैभव व प्रसन्नता पूर्वक मानव जीवन बिताने हेतु हमें जन्म दिया है। हमारा जीवन कैसा हो? हमारे लक्ष्यों का निर्धारण हमें स्वयं इस प्रकार करना चाहिए कि उससे राष्ट्र और समाज लाभान्वित हो। भाग्य व समय एक दूसरे के साथ चलते हैं। वे कभी भी एक दूसरे के विपरीत नहीं होते। मानव जीवन इसके परिणामों को प्रसन्नता और शोक के रुप में प्राप्त करता है। यही हमारे जीवन का सत्य है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो इस समय तुम्हें गूढ़ दार्शनिक विषयों की अपेक्षा जीवन के व्यावहारिक विषयों पर अपने को एकाग्र करना चाहिए। पहले उस संसार को समझ लो जिसमें रह रहे हो फिर उस संसार को समझने का प्रयास करना जो हमारी दृष्टि से परे एक अलौकिक सृष्टि है।
राकेश उनकी बातों को स्वीकार करते हुए उन्हें आश्वस्त करता है कि वह पहले अपना अध्ययन पूरा करेगा।अपने परिवार, समाज और देश के लिये समर्पित रहेगा। वह इतना कहते हुए स्वामी जी के चरणों में अपना सिर रख देता है। स्वामी जी स्नेह पूर्वक उसके सिर पर हाथ रखकर उसे सुखी जीवन और सफलता का आशीर्वाद देते हैं।
उधर पल्लवी राकेश की माता-पिता को बद्रीनाथ जी के दर्शन कराने ले जाती है। वहाँ से लौटकर भोजन के उपरान्त राकेश और पल्लवी के पिता साथ-साथ बातें करते हुए विश्राम करते हैं तथा पल्लवी राकेश की माँ को ले जाकर बद्रीनाथ धाम का बाजार घुमाती है।
संध्या हो रही थी, पल्लवी अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त थी तभी राकेश की माँ और उसके पिता जी को एकान्त मिला। राकेश की माँ ने उनसे पल्लवी के संबंध में चर्चा करते हुए उसके गुणों की तारीफ की। उसके पिता ने भी उसकी तारीफ की और उसे अपनी बहू बनाने का विचार व्यक्त किया। राकेश की माँ ने कहा- हमें राकेश से भी पूछ लेना चाहिए। सेठ निहालचंद ने अपनी सहमति देते हुए राकेश के मन की बात जानने का जिम्मा उसकी माँ को ही सौंप दिया।
स्वामी जी राकेश के साथ जब घर वापिस आये तो उसकी माँ ने राकेश को अलग ले जाकर अपने और पिता जी के विचारों से उसे अवगत कराते हुए उसकी मर्जी जानना चाही। राकेश ने कहा- माँ! मैंने तो इस प्रकार से सोचा ही नहीं है। फिर अभी मुझे अपनी पढ़ाई भी पूरी करना है। ऐसे में जैसा भी आप लोग उचित समझें मुझे स्वीकार है।
कुछ समय बाद जब सब लोग महात्मा जी के समक्ष बैठे थे तभी राकेश के पिता ने स्वामी जी से अपने मन की बात कही। स्वामी जी ने उनसे कहा- आचार-विचार की दृष्टि से दोनों की जोड़ी उत्तम है। मैं पल्लवी को बचपन से जानता हूँ। राकेश को भी आज और कल में जितना जान पाया हूँ उसके अनुसार कह सकता हूँ कि आपके मन में जो विचार आया है वह उत्तम है। लेकिन लोकाचार का तकाजा है कि आपने तो पल्लवी का घर-द्वार देख लिया किन्तु अभी उसके पिता ने कुछ भी नहीं देखा है। अच्छा होगा कि एक बार वे आपके घर जाएं और फिर उसके बाद ही आप दोनों इस रिश्ते को आगे बढ़ाएं। महात्मा जी की बात सभी को अच्छी लगी और सब इसके लिये सहमत हो गए। विदा होने के पूर्व महात्मा जी ने सेठ निहालचंद को एक रूद्राक्ष की माला और गोमुख से लाया हुआ गंगाजल आशीर्वाद स्वरुप दिया।
समय तेजी से गुजरता है। अगले वर्ष दोनों का विवाह बद्रीनाथ धाम में ही धूमधाम से सम्पन्न होता है। महात्मा जी आकर विवाह में दोनों को अपने आशीर्वाद देते हैं और उनके माता-पिता को एक सुन्दर-सुशील बहू के रुप में बेटी मिलने की बधाई देते हैं। उसी समय सेठ निहालचंद महात्मा जी सहित सभी के सामने राकेश से कहते हैं कि मैं कौन हूँ के उत्तर में तुम्हें पत्नी तो मिल गई लेकिन अब कहीं यह मत खोजने लगना कि ’’यह कौन है?’’ या ’’हम कौन हैं?’’
हार-जीत
सुमन दसवीं कक्षा में एक अंग्रेजी माध्यम की शाला में अध्ययन करती थी। वह पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद में भी गहन रूचि रखती थी और लम्बी दूरी की दौड़ में हमेंशा प्रथम स्थान पर ही आती थी। उसको क्रीड़ा प्रशिक्षक कोचिंग देकर यह प्रयास कर रहे थे कि वह प्रादेशिक स्तर पर भाग लेकर शाला का नाम उज्ज्वल करे। इसके लिये उसके प्राचार्य, शिक्षक, अभिभावक और उसके मित्र सभी उसे प्रोत्साहित करते थे। वह एक सम्पन्न परिवार की लाड़ली थी। वह क्रीड़ा गतिविधियों में भाग लेकर आगे आये इसके लिये उसके खान-पान आदि का ध्यान तो रखा ही जाता था उसे अच्छे व्यायाम प्रशिक्षकों का मार्गदर्शन दिये जाने की व्यवस्था भी की गई थी। उसके पिता सदैव उससे कहा करते थे कि मन लगाकर पढ़ाई के साथ-साथ ही खेल कूद में भी अच्छी तरह से भाग लो तभी तुम्हारा सर्वांगीण विकास होगा।
सुमन की कक्षा में सीमा नाम की एक नयी लड़की ने प्रवेश लिया। वह अपने माता-पिता की एकमात्र सन्तान थी और एक किसान की बेटी थी। वह गाँव से अध्ययन करने के लिये शहर में आयी थी। उसके माता-पिता उसे समझाते थे कि बेटी पढ़ाई-लिखाई जीवन में सबसे आवश्यक होती है। यही हमारे भविष्य को निर्धारित करती है एवं उसका आधार बनती है। तुम्हें क्रीड़ा प्रतियोगिताओं में भाग लेने से कोई नहीं रोकता किन्तु इसके पीछे तुम्हारी शिक्षा में व्यवधान नहीं आना चाहिए।
एक बार शाला में खेलकूद की गतिविधियों में सुमन और सीमा ने लम्बी दौड़ में भाग लिया। सुमन एक तेज धावक थी। वह हमेशा के समान प्रथम आयी और सीमा द्वितीय स्थान पर रही। प्रथम स्थान पर आने वाली सुमन से वह काफी पीछे थी।
कुछ दिनों बाद ही दोनों की मुलाकात शाला के पुस्तकालय में हुई। सुमन ने सीमा को देखते ही हँसते हुए व्यंग्य पूर्वक तेज आवाज में कहा- सीमा मैं तुम्हें एक सलाह देती हूँ तुम पढ़ाई लिखाई में ही ध्यान दो। तुम मुझे दौड़ में कभी नहीं हरा पाओगी। तुम गाँव से आई हो। अभी तुम्हें नहीं पता कि प्रथम आने के लिये कितना परिश्रम करना पड़ता है। तुम नहीं जानतीं कि एक अच्छा धावक बनने के लिये किस प्रकार के प्रशिक्षण एवं अभ्यास की आवश्यकता होती है।
मेरे घरवाले पिछले पाँच सालों से हजारों रूपये मेरे ऊपर खर्च कर रहे हैं और मैं प्रतिदिन घण्टों मेहनत करती हूँ तब जाकर प्रथम स्थान मिलता है। यह सब तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के लिये संभव नहीं है इसलिये अच्छा होगा कि तुम अपने आप को पढ़ाई-लिखाई तक ही सीमित रखो। इतना कहकर वह सीमा की ओर उपेक्षा भरी दृष्टि से देखती हुई वहाँ से चली गई।
सीमा एक भावुक लड़की थी उसे सुमन की बात कलेजे तक चुभ गई। इस अपमान से उसकी आँखों में आंसू छलक उठे। घर आकर उसने अपने माता-पिता दोनों को इस बारे में विस्तार से बताया।
पिता ने उसे समझाया- बेटा! जीवन में शिक्षा का अपना अलग महत्व है। खेलकूद प्रतियोगिताएं तो औपचारिकताएं हैं। मैं यह नहीं कहता कि तुम खेलकूद में भाग मत लो किन्तु अपना ध्यान पढ़ाई में लगाओ और अच्छे से अच्छे अंकों से परीक्षाएं पास करो। तुम्हारी सहेली ने घमण्ड में आकर जिस तरह की बात की है वह उचित नहीं है लेकिन उसने जो कहा है वह ध्यान देने लायक है। तुम हार-जीत की परवाह किए बिना खेलकूद में भाग लो और अपना पूरा ध्यान अपनी शिक्षा पर केन्द्रित करो। उसकी माँ भी यह सब सुन रही थी। उसने सीमा के पिता से कहा- पढ़ाई-लिखाई तो आवश्यक है ही साथ ही खेलकूद भी उतना ही आवश्यक होता है। इसमें भी कोई आगे निकल जाए तो उसका भी तो बहुत नाम होता है।
सीमा के पिता को उसकी माँ की बात नागवार गुजरी। वह भी सीमा को बहुत चाहते थे। उनकी अभिलाषा थी कि बड़ी होकर वह बड़ी अफसर बने। सीमा दोनों की बातें ध्यान पूर्वक सुन रही थी। उसकी माँ ने उससे कहा- दृढ़ इच्छा शक्ति और कठोर परिश्रम से सभी कुछ प्राप्त किया जा सकता है।
सीमा अगले दिन से ही गाँव के एक मैदान में जाकर सुबह दौड़ का अभ्यास करने लगी। वह प्रतिदिन सुबह जल्दी उठ जाती और दैनिक कर्म करने के बाद दौड़ने चली जाती। एक दिन जब वह अभ्यास कर रही थी तो वह गिर गई जिससे उसके घुटने में चोट आ गई। वह कुछ दिनों तक अभ्यास नहीं कर सकी, इसका उसे बहुत दुख था और वह कभी-कभी अपनी माँ के सामने रो पड़ती थी। जब उसकी चोट ठीक हो गई तो उसने फिर अभ्यास प्रारम्भ कर दिया। अब वह और भी अधिक मेहनत के साथ अभ्यास करने लगी। वह उतनी ही मेहनत पढ़ाई में भी कर रही थी। इसके कारण उसे समय ही नहीं मिलता था। वह बहुत अधिक थक भी जाती थी। उसके माता-पिता दोनों ने यह देखा तो उन्होंने यह सोचकर कि विद्यालय आने-जाने के लिये गाँव से शहर आने-जाने में उसका बहुत समय बरबाद होता है। उन्होंने उसके लिये शहर में ही एक किराये का मकान लेकर उसके रहने और पढ़ने की व्यवस्था कर दी। शहर में उसके साथ उसकी माँ भी रहने लगी। इससे उसके पिता को गाँव में अपना कामकाज देखने में बहुत परेशानी होने लगी किन्तु उसके बाद भी उन्हें संतोष था क्योंकि उनकी बेटी का भविष्य बन रहा था।
शहर आकर सीमा जिस घर में रहती थी उससे कुछ दूरी पर एक मैदान था। लोग सुबह-सुबह उस मैदान में आकर दौड़ते और व्यायाम करते थे। सीमा ने भी अपना अभ्यास उसी मैदान में करना प्रारम्भ कर दिया। एक बुजुर्ग वहाँ मारनिंग वॉक के लिये आते थे। वे सीमा को दौड़ का अभ्यास करते देखते थे। अनेक दिनों तक देखने के बाद वे उसकी लगन और उसके अभ्यास से प्रभावित हुए। एक दिन जब सीमा अपना अभ्यास पूरा करके घर जाने लगी तो उन्होंने उसे रोक कर उससे बात की। उन्होंने सीमा के विषय में विस्तार से सभी कुछ पूछा। उन्होंने अपने विषय में उसे बतलाया कि वे अपने समय के एक प्रसिद्ध धावक थे। उनका बहुत नाम था। वे पढ़ाई-लिखाई में औसत दर्जे के होने के कारण कोई उच्च पद प्राप्त नहीं कर सके। समय के साथ दौड़ भी छूट गई। उन्होंने सीमा को समझाया कि दौड़ के साथ-साथ पढ़ाई में उतनी ही मेहनत करना बहुत आवश्यक है। अगले दिन से वे सीमा को दौड़ की कोचिंग देने लगे। उन्होंने उसे लम्बी दौड़ के लिये तैयार करना प्रारम्भ कर दिया।
शाला में प्रादेशिक स्तर पर भाग लेने के लिये चुने जाने हेतु अंतिम प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। इसमें 1500 मीटर की दौड़ में प्रथम आने वाले को प्रादेशिक स्तर पर भेजा जाना था। प्रतियोगिता जब प्रारम्भ हो रही थी सुमन ने सीमा की ओर गर्व से देखा। सुमन पूर्ण आत्मविश्वास से भरी हुई थी और उसे पूरा विश्वास था कि यह प्रतियोगिता तो वह ही जीतेगी। सुमन और सीमा दोनों के माता-पिता भी दर्शक दीर्घा में उपस्थित थे। व्हिसिल बजते ही दौड़ प्रारम्भ हो गई।
सुमन ने दौड़ प्रारम्भ होते ही अपने को बहुत आगे कर लिया था। उसके पैरों की गति देखकर दर्शक उत्साहित थे और उसके लिये तालियाँ बजा-बजा कर उसका उत्साह बढ़ा रहे थे। सीमा भी तेज दौड़ रही थी किन्तु वह दूसरे नम्बर पर थी। वह एक सी गति से दौड़ रही थी। 1500 मीटर की दौड़ थी। प्रारम्भ में सुमन ही आगे रही लेकिन आधी दौड़ पूरी होते-होते तक सीमा ने सुमन की बराबरी कर ली। वे दोनों एक दूसरे की बराबरी से दौड़ रहे थे। कुछ दर्शक सीमा को तो कुछ सुमन को प्रोत्साहित करने के लिये आवाजें लगा रहे थे। सुमन की गति धीरे-धीरे कम हो रही थी जबकि सीमा एक सी गति से दौड़ती चली जा रही थी। जब दौड़ पूरी होने में लगभग 100 मीटर रह गये तो सीमा ने अपनी गति बढ़ा दी। उसकी गति बढ़ते ही सुमन ने भी जोर मारा। वह उससे आगे निकलने का प्रयास कर रही थी लेकिन सीमा लगातार उससे आगे होती जा रही थी। दौड़ पूरी हुई तो सीमा प्रथम आयी थी। सुमन उससे काफी पीछे थी। वह द्वितीय आयी थी।
सीमा की सहेलियाँ मैदान में आ गईं थी वे उसे गोद में उठाकर अपनी प्रसन्नता जता रही थीं। वे खुशी से नाच रही थीं। मंच पर प्राचार्य जी आये और उन्होंने सीमा की विजय की घोषणा की। सीमा अपने पिता के साथ प्राचार्य जी के पास पहुँची और उसने उनसे बतलाया कि वह प्रादेशिक स्तर पर नहीं जाना चाहती है। उसकी बात सुनकर प्राचार्य जी और वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये थे। प्राचार्य जी ने उसे समझाने का प्रयास किया किन्तु वह टस से मस नहीं हुई।
सीमा ने उनसे कहा कि वह आईएएस या आईएफएस बनना चाहती है। इसके लिये उसे बहुत पढ़ाई करने की आवश्यकता है। दौड़ की तैयारियों के कारण उसकी पढ़ाई प्रभावित होती है इसलिये वह प्रादेशिक स्तर पर नहीं जाना चाहती। अन्त में प्राचार्य जी स्वयं माइक पर गये और उन्होंने सीमा के इन्कार के विषय में बोलते हुए सुमन को विद्यालय की ओर से प्रादेशिक स्तर पर भेजे जाने की घोषणा की। यह सुनकर सुमन सहित वहाँ पर उपस्थित सभी दर्शक भी अवाक रह गये। सुमन सीमा के पास आयी और उसने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया। सीमा उसे भी वही बतलाती है जो उसने प्राचार्य से कही थी। उसने सुमन को एक ओर ले जाकर उससे कहा कि मेरा उद्देश्य क्रीड़ा प्रतियोगिता में आने का नहीं था वरन मैं तुम्हें बताना चाहती थी समय सदैव एक सा नहीं होता। कल तुम प्रथम स्थान पर थी आज मैं हूँ कल कोई और रहेगा। उस दिन पुस्तकालय में तुमने जो कुछ कहा था उसे तुम मित्रता के साथ भी कह सकती थी किन्तु तुमने मुझे नीचा दिखाने का प्रयास किया था जो मुझे खल गया था। मेरी हार्दिक तमन्ना है कि तुम प्रादेशिक स्तर पर सफलता प्राप्त करो।
नियत तिथि पर सुमन स्टेशन पर प्रतियोगिताओं में भाग लेने जाने के लिये उपस्थित थी। विद्यालय की ओर से प्राचार्य और आचार्यों सहित उसके अनेक साथी एवं उसके परिवार के लोग भी उसे विदा करने के लिये आये हुए थे। प्राचार्य जी ने उसे शुभकामनाएं देते हुए कहा- सच्ची सफलता के लिये आवश्यक है कि मन में ईमानदारी, क्रोध से बचाव, वाणी में मधुरता किसी को पीड़ा न पहुँचे, अपने निर्णय सोच-समझकर लेना ईश्वर पर भरोसा रखना और उसे हमेशा याद रखना यदि तुम इन बातों को अपनाओगी तो जीवन में हर कदम पर सफलता पाओगी। जीवन में सफलता की कुंजी है वाणी से प्रेम, प्रेम से भक्ति, कर्म से प्रारब्ध, प्रारब्ध से सुख लेखनी से चरित्र, चरित्र से निर्मलता, व्यवहार से बुद्धि और बुद्धि से ज्ञान की प्राप्ति होती है। मेरी इन बातों को तुम अपने हृदय में आत्मसात करना ये सभी तुम्हारे लिये सुख-समृद्धि वैभव व मान-सम्मान प्राप्त करने की आधार शिला बनेंगे।
सुमन सभी से मिल रही थी और सभी उसे शुभकामनाएं दे रहे थे किन्तु उसकी आँखें भीड़ में सीमा को खोज रही थीं। ट्रेन छूटने में चंद मिनिट ही बचे थे तभी सुमन ने देखा कि सीमा तेजी से प्लेटफार्म पर उसकी ओर चली आ रही है। वह भी सब को छोड़कर उसकी ओर दौड़ गई। सीमा ने उसे शुभकामनाओं के साथ गुलदस्ता भेंट किया तो सुमन उससे लिपट गई। दोनों की आँखों में प्रसन्नता के आंसू थे।
फातिहा
हिमाच्छादित पर्वतों के बीच, कल-कल बहते हुए झरनों का संगीत, प्रकृति के सौन्दर्य को चार चाँद लगा रहा था। कश्मीर की इन वादियों में पहुँचना बहुत कठिन है। चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वत और गहरी खाइयाँ हैं। इसी क्षेत्र में भारत और पाक की सीमा है। यह क्षेत्र सामरिक दृष्टि से दोनों देशों के लिये बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे देश की सीमा में अंतिम चौकी पर मेजर राकेश के नेतृत्व में सेना एवं कमाण्डो दल देश की सीमाओं की रक्षा करने के लिये तैनात था। राकेश को हैडक्वार्टर से गोपनीय सूचना प्राप्त हुई कि आज रात को पाक सेना के संरक्षण में दुर्दान्त आतंकवादियों को हमारी सीमा में प्रवेश कराया जाएगा।
राकेश ने अधिकारियों को आश्वस्त करते हुए कहा कि आप निश्चिंत रहिये, हमें इस दिन का बहुत दिनों से इन्तजार था। हम उनके स्वागत के लिये तैयार हैं। यह कहकर उसने अपनी योजना के अनुसार फौजियों को तैनात कर दिया। उसने इस प्रकार की व्यूह रचना बनायी थी कि भारतीय सीमा में आतंकवादी प्रवेश तो कर जाएं किन्तु फिर उन्हें घेरकर उनका काम तमाम कर दिया जाए। वह चाहता था कि आतंकवादी भी बचकर न जा पाएं, हमारी सेना को भी कम से कम क्षति हो और हम अपने उद्देश्य में सफल रहें।
रात्रि का दूसरा पहर समाप्त होने को था, अभी तक उस ओर से कोई हलचल नहीं दिख रही थी। राकेश और उसके सहयोगियों को यह लगने लगा था कि संभवतः गुप्त सूचना गलत भी हो सकती है अथवा दुश्मन को आभास हो गया है और उसने अपनी योजना में परिवर्तन कर दिया है। वे यह सब सोच ही रहे थे कि सीमा पर कुछ हलचल हुई। उस समय रात्रि के लगभग तीन बज रहे थे। राकेश ने अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यह अनुमान लगा लिया कि दूसरी ओर से लगभग दस से पन्द्रह आतंकवादी सीमा में घुसपैठ का प्रयास कर रहे हैं। अभी तक उसे पाक सेना की ओर से घुसपैठियों की मदद के लिये कोई गतिविधि होती नजर नहीं आई किन्तु वह इसके लिये भी सतर्क और तैयार था।
आतंकवादी छिपते हुए भारतीय सीमा में प्रवेश करते हैं। न तो पाक सेना की ओर से उनकी मदद की कोई कार्यवाही होती है और न भारतीय सेना की ओर से उनको रोकने के लिये कोई कार्यवाही की जाती है। वे आगे बढ़ते जाते हैं। सीमा में पर्याप्त भीतर आने के बाद वे एक स्थान पर एकत्र होकर बैठ गये। शायद वे वहाँ रूककर कुछ विचार-विमर्श करने लगे। राकेश को जैसे इसी समय की प्रतीक्षा थी। वह चारों ओर से उन्हें घेरकर हमला करने का संकेत दे देता है। इस अचानक हमले से वे हतप्रभ रह जाते हैं। जब तक वे संभल पाते उसके पहले ही अनेक मौत की गोद में समा जाते हैं। बचे हुए आतंकवादियों को जब यह समझ में आता है कि वे चारों ओर से घिर चुके हैं तो वे पाक सीमा में घुसने का प्रयास करते हैं। तभी पाक सेना की एक टुकड़ी आतंकवादियों की सुरक्षा के लिये फायरिंग चालू कर देती है। पूरी घाटी में गोलियों की आवाजें गूंजने लगती हैं। घायल आतंकवादियों की कराह भी सुनाई नहीं देती। इस व्यूह रचना में आतंकवादी फंस जाते हैं। अगर वे आगे बढ़ते हैं तो भारतीय सेना की गोलियों का शिकार होते हैं और यदि पीछे हटते हैं तो पाक सेना की गोलियाँ उन पर बरस रही होती हैं। तीन घण्टों तक चली इस मुठभेड़ में सारे के सारे आतंकवादी मारे गये।
राकेश अपने कुछ साथियों के साथ जिस स्थान से पाक सेना गोलियाँ चला रहीं थी उस स्थान को घेरने का प्रयास करता है। वह इसमें सफल होता है और उन्हें घेरने के बाद उन पर हमला कर देता है। पाक सेना में अफरा-तफरी मच जाती है वे भी पीछे हटने के लिये मजबूर हो जाते हैं। उनकी सेना के कुछ जवान मारे जाते हैं और कुछ भागने में सफल हो जाते हैं। तब तक सवेरा होने लगा। फायरिंग बन्द हो गई। प्रकाश पूरी तरह फैल तो वह यह जानने का प्रयास करता है कि हमारी ओर से कितने जवान घायल हुए या मारे गये हैं। वह यह जानकर बहुत प्रसन्न था कि हमारी ओर का कोई जवान मारा नहीं गया था। इक्का-दुक्का जवान ही घायल हुए थे।
राकेश ने हैडक्वार्टर को सारा विवरण भेज दिया। वहाँ से अगली कार्यवाही प्रारम्भ हो गई। मुख्यालय से अधिकारियों के आने के बाद मृतकों को एकत्र करने की कार्यवाही गई। राकेश जब उन मृत आतंकवादियों और सैनिकों की लाशों को देखता है तो एक सैनिक की लाश देखकर वह अवाक रह जाता है।
उच्च स्तर पर पाक सेना को समाचार दिया गया और उन शवों को ले जाने के लिये कहा गया किन्तु पाक की ओर से ऐसी किसी वारदात से इन्कार करते हुए शवों को ले जाने से मना कर दिया गया।
सेना के नियमों के अनुसार उन शवों के अंतिम संस्कार का बन्दोबस्त किया गया। इस कार्यवाही में उपस्थित कर्नल अमरेन्द्र सिंह के पास जाकर राकेश ने उनसे कहा कि वह एक शव अंतिम संस्कार स्वयं करना चाहता है।
कर्नल अमरेन्द्र सिंह ने चौंककर पूछा-
क्यों? किसलिये? क्या तुम इसे जानते हो?
जी श्रीमान! मैं इसे जानता हूँ। इसका नाम अहमद है?
तुम इसे कैसे जानते हो?
यह एक लम्बी दास्तान है।
आखिर मामला क्या है?
सर! बतलाने में बहुत समय लगेगा। यहाँ सबके बीच इसे बताना उचित नहीं होगा। कृपया आप मेरा आग्रह स्वीकार कर इसका अंतिम संस्कार मुझे कर लेने दीजिये।
कर्नल अमरेन्द्र सिंह पशोपेश में पड़ जाते हैं। मेजर राकेश सिंह उनका बहुत विश्वसनीय, होशियार एवं देशभक्त आफीसर था। उन्होंने सोचते हुए उसे सुझाव दिया यहाँ से तीन चार किलोमीटर दूर एक गाँव है जहाँ पर उसके परिचित मौलवी साहब रहते हैं। वह दस-पन्द्रह घरों का छोटा सा गाँव है। इस शव को वहाँ ले जाने की व्यवस्था कर देते हैं और मौलवी साहब के निर्देशन में तुम्हारे सामने ही दफन करवा देता हूँ। क्यों ठीक है न।
राकेश की सहमति के बाद वे इसका बन्दोबस्त करवा देते हैं।
अहमद को कब्र में सुला देने के बाद राकेश उसकी आत्मा की शान्ति के लिये फातिहा पढ़ता है। राकेश की मनः स्थिति को भांपकर कर्नल उसे अपने साथ श्रीनगर ले आए। हैडक्वाटर में शाम के समय अमरिन्दर सिंह ने राकेश को अपने पास बुलाया और कहा- मैं चाहता हूँ कि मुझे उस पाकिस्तानी सैनिक के विषय में तुम क्या और कैसे जानते हो ? मुझे बतलाओ ? उस समय तुम्हारे चेहरे पर जो दुख और विषाद था वह मैंने देख लिया था। इस बात को केवल चार ही लोग जानते हैं एक मैं दूसरे तुम तीसरे वे मौलवी जी और चौथे जनरल साहब। मैं चाहता हूँ कि यह बात हम चार लोगों के ही बीच में रहे।
राकेश ने बतलाया कि अमृतसर में वह और अहमद का परिवार अगल-बगल में रहते थे। दोनों परिवारों के बीच तीन-चार पीढ़ी के संबंध थे। हम सुख-दुख में एक दूसरे के साथ ही रहते थे। मेरे और अहमद के दादाजी में दांत काटी रोटी का संबंध था। उनका पूरा व्यापार करांची और रावलपिण्डी में फैला हुआ था। 1947 के बंटवारे में उन्हें इसी कारण से पाकिस्तान जाकर बसना पड़ा। जाते समय वे अपना घर भी हमें ही सौंप गये थे। मेरे पिताजी और उसके पिता जी में बंटवारे के बाद भी यथावत मित्रता कायम रही। अहमद के पिता जी का देहान्त होने पर हमारा परिवार उनके यहाँ पाकिस्तान गया था। अहमद उनकी इकलौती संतान था। हम दोनों उच्च शिक्षा के लिये सिंगापुर गये थे। वहाँ हम दोनों साथ-साथ ही रहते थे। पहले से ही पारिवारिक संबंधों के कारण हमारे बीच भी प्रगाढ़ संबंध स्थापित हो चुके थे। हम दोनों पढ़ाई के अतिरिक्त भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर भी बहुत चर्चा हुआ करती थी। अहमद बहुत संवेदनशील था। वह कविताएं और कहानियां लिखा करता था। उसकी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैं। इन पंक्तियों से उसकी सोच का पता चलता है।
हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएं
मन को शान्ति
हृदय को संतुष्टि
आत्मा को तृप्ति देती हैं।
हमने सृजन के स्थान पर
प्रारम्भ कर दिया
विध्वंस।
कुछ क्षण पहले तक
आनन्द बिखरा रहा था
यह अद्भुत और अलौकिक सौन्दर्य।
कुछ क्षण बाद
आयी गोलियों की बौछार
कर गई काम-तमाम
और जीवन का हो गया पूर्ण विराम।
हमें विनाश नहीं
सृजन चाहिए
कोई नहीं समझ रहा
माँ का बेटा
पत्नी का पति
और अनाथ हो रहे।
बच्चों का रूदन
किसी को सुनाई नहीं देता।
राजनीतिज्ञ
कुर्सी पर बैठकर
चल रहे हैं
शतरंज की चालें
राष्ट्र प्रथम की भावना का संदेश देकर
हमें सरहद पर भेजकर
त्याग व समर्पण का पाठ पढ़ाकर
सेंक रहे हैं
राजनैतिक रोटियां।
सिंगापुर में एक दिन जब मैं सड़क पर जा रहा था और गलती से एक गाड़ी के नीचे आने वाला था तभी अहमद ने अपनी जान की परवाह न करते हुए मेरे प्राणों की रक्षा की थी। यह ईश्वर का ही खेल है कि पढ़ाई समाप्त करके मैं यहाँ सेना में भरती हो गया और अहमद भी पाकिस्तानी सेना में शामिल हो गया। संभवतः वह मेरी ही गोली का शिकार हुआ है
फिर तो तुम जो कर रहे हो, वह ठीक है। तुम्हारी जगह होता तो शायद मैं ऐसा ही करता।
कुछ दिन बाद राकेश छुट्टियाँ लेकर अपने घर गया। उसकी और अहमद की माँ के बीच फोन से बात होती रहती थी। कुछ दिन पहले ही अहमद की माँ ने कहा था कि कई दिनों से अहमद की कोई खबर नहीं मिल रही है। पाकिस्तानी सेना से संपर्क करने पर भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला है। वह बहुत चिन्तित है। यह सुनकर उसने अपनी माँ को पूरा वृत्तांत विस्तार से बतलाया। सुनकर वह बहुत दुखी और स्तब्ध रह गई।
कुछ समय बाद उसने राकेश से कहा कि तुम अहमद की माँ को सारी बात बतला दो और यह भी समझा दो कि अहमद अब इस दुनियां में नहीं है। तुमने उसे पूरे रीति-रिवाज से सुपुर्दे-खाक कर दिया है। राकेश ने माँ के आदेश का पालन किया। अहमद की माँ ने जब यह समाचार सुना तो उस पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। उसकी सिसकियाँ बंध गईं। राकेश उसे सान्त्वना देने का प्रयास करने लगा तो वे राकेश से बोल पड़ी- बेटे मुझे तो अपने दोनों ही बेटों पर गर्व है। अहमद ने अपने फर्ज की खातिर शहादत दी और तुमने अपने फर्ज को बखूबी अंजाम देकर हमारे दूध की लाज रखी।
31. निर्जीव सजीव
जबलपुर के पास नर्मदा किनारे बसे रामपुर नामक गाँव में एक संपन्न किसान एवं मालगुजार ठाकुर हरिसिंह रहते थे। उन्हें बचपन से ही पेड़-पौधों एवं प्रकृति से बड़ा प्रेम था। वे जब दो वर्ष के थे, तभी उन्होने एक वृक्ष को अपने घर के सामने लगाया था। इतनी कम उम्र से ही वे उस पौधे को प्यार व स्नेह करते रहे। जब वे बचपन से युवावस्था में आए तब तक पेड़ भी बड़ा होकर फल देने लगा था। गाँवों में शासन द्वारा तेजी से विकास कार्य कराए जा रहे थे, और इसी के अंतर्गत वहाँ पर सड़क निर्माण का कार्य संपन्न हो रहा था। इस सड़क निर्माण में वह वृक्ष बाधा बन रहा था, यदि उसे बचाते तो ठाकुर हरिसिंह के मकान का एक हिस्सा तोड़ना पड सकता था। परंतु उन्होने वृक्ष को बचाने के लिए सहर्ष ही अपने घर का एक हिस्सा टूट जाने दिया। सभी गाँव वाले इस घटना से आश्चर्यचकित थे एवं उनके पर्यावरण के प्रति प्रेम की चर्चा करते रहते थे।
पेड़ भी निर्जीव नहीं सजीव होते है, ऐसी उनकी धारणा थी। इस घटना से मानो वह पेड़ बहुत उपकृत महसूस कर रहा था। जब भी ठाकुर साहब प्रसन्न होते तो वह भी खिला-खिला सा महसूस होता था। जब वे किसी चिंता में रहते तो वह भी मुरझाया सा हो जाता था।
एक दिन वे दोपहर के समय पेड़ की छाया में बैठे वहाँ के मनोरम वातावरण एवं ठंडी-ठंडी हवा में झपकी लग गयी और वे तने के सहारे निद्रा में लीन हो गये। उनसे कुछ ही दूरी पर अचानक से एक सांप कही से आ गया। उसे देखकर वह वृक्ष आने वाले संकट से विचलित हो गया और तभी पेड़ के कुछ फल तेज हवा के कारण डाल से टूटकर ठाकुर साहब के सिर पर गिरे जिससे उनकी नींद टूट गयी। उनकी नींद टूटने से अचानक उनकी नजर उस सांप पर पडी तो वे सचेत हो गये। गाँव वालों का सोचना था, कि वृक्ष ने उनकी जीवन रक्षा करके उस दिन का भार उतार दिया जब उसकी सड़क निर्माण में कटाई होने वाली थी।
समय तेजी से बीतता जाता है और जवानी एक दिन बुढ़ापे में तब्दील हो जाती है इसी क्रम में ठाकुर हरिसिंह भी अब बूढ़े हो गये थे और वह वृक्ष भी सूख कर कमजोर हो गया था। एक दिन अचानक ही रात्रि में ठाकुर हरिसिंह की मृत्यु हो गयी। वे अपने शयनकक्ष से भी वृक्ष को कातर निगाहों से देखा करते थे। यह एक संयोग था या कोई भावनात्मक लगाव का परिणाम कि वह वृक्ष भी प्रातः काल तक जड़ से उखड़कर अपने आप भूमि पर गिर गया।
गाँव वालों ने दोनों का एक दूसरे के प्रति प्रेम व समर्पण को देखते हुए निर्णय लिया कि उस वृक्ष की लकड़ी को काटकर अंतिम संस्कार में उसका उपयोग करना ज्यादा उचित रहेगा और ऐसा ही किया गया। ठाकुर साहब का अंतिम संस्कार विधि पूर्वक गमगीन माहौल में संपन्न हुआ इसमें पूरा गाँव एवं आसपास की बस्ती के लोग शामिल थे और वे इस घटना की चर्चा आपस में कर रहे थे। ठाकुर साहब का मृत शरीर उन लकड़ियों से अग्निदाह के उपरांत पंच तत्वों में विलीन हो गया और इसके साथ-साथ वह वृक्ष भी राख में तब्दील होकर समाप्त हो गया। दोनों की राख को एक साथ नर्मदा जी में प्रवाहित कर दिया गया। ठाकुर साहब का उस वृक्ष के प्रति लगाव और उस वृक्ष का भी उनके प्रति प्रेमभाव, आज भी गाँव वाले याद करते हैं।
आत्मसम्मान
मैंने कोई चोरी नहीं की है, मुझे आपकी चूडियों के विषय में कोई जानकारी नहीं है। पुलिस के हवाले मत कीजिए, वे लोग बहुत मारेंगे, मैं चोर नहीं हूँ, गरीबी की परिस्थितियों के कारण आपके यहाँ नौकरी कर रहा हूँ। ऐसा अन्याय माँ जी मेरे साथ मत कीजिए। मेरे माता पिता को पता लगेगा, तो वे बहुत दुखी होगे। मानिक नाम का पंद्रह वर्षीय बालक रो रो कर एक माँ जी को अपनी सफाई दे रहा था। वह घर का सबसे वफादार एवं विश्वसनीय नौकर था।
माँ जी की सेने की चूडियाँ नहीं मिल रही थी। घर के नौकरों से पूछताछ के बाद भी जब कोई समाधान नहीं निकला, तो पुलिस के सूचना देकर बुलाया गया। पुलिस सभी नौकरों को पूछताछ के लिए थाने ले गई। उन्हें सबसे ज्यादा शक मानिक पर ही था, क्योंकि वही सारे घर में बेरोकटोक आ जा सकता था। पुलिस ने बगैर पूछताछ के अपने अंदाज में उसकी पिटाई चालू कर दी। वह पीडा से चीखता चिल्लाता रहा, परंतु उसकी सुनने वाला कोई नहीं था। इसी दौरान अचानक ही बिस्तर के कोने में दबी हुई चूडियाँ दिख गई, उनके प्राप्त होते ही पुलिस को सूचना देकर सभी को वापस घर बुला लिया गया। मानिक मन में संताप लिये हुए,आँखों में आँसू,चेहरे पर मलिनता के साथ दुखी मन से घर पहुँचा और तुरंत ही अपना सामान लेकर नौकरी छोडने की इच्छा व्यक्त करते हुए सबकी ओर देखकर यह कहता हुआ कि उसके साथ आप लोगों ने अच्छा व्यवहार नहीं किया, मेरे मान सम्मान को ठेस पहुँचाकर एक गरीब को बेवजह लज्जित किया है। यह सुनकर परिवार के सभी सदस्यों ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए उसे नौकरी नहीं छोडने का निवेदन किया परंतु वह इसे अस्वीकार करते हुए रोता हुआ नौकरी छोडकर चला गया।
आज भी जब मुझे उस घटना की याद आती है, तो मैं सिहर उठता हूँ और महसूस करता हूँ, जैसे मानिक की आँखें मुझसे पूछ रही हो, क्या गरीब की इज्जत नहीं होती, क्या उसे सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार नहीं है, उसकी सच बातों को भी झूठा समझकर क्यों अपमानित किया गया ?
प्रायश्चित
नर्मदा नदी के किनारे पर बसे रामपुर नाम के गाँव में रामदास नामक एक संपन्न कृषक अपने दो पुत्रों के साथ रहता था। उसकी पत्नी का देहांत कई वर्ष पूर्व हो गया था, परंतु अपने बच्चों की परवरिश में कोई बाधा ना आए इसलिये उसने दूसरा विवाह नहीं किया था। उसके दोनो पुत्रों के स्वभाव एक दूसरे से विपरीत थे। उसका बडा बेटा लखन गलत प्रवृत्ति रखते हुए धन का बहुत लोभी था, परंतु उसका छोटा पुत्र विवेक बहुत ही दातार, प्रसन्नचित्त एवं दूसरों के कष्टों के निवारण में मददगार रहता था। वह कुशल तैराक भी था एवं तैराकी के शौक के में काफी समय देता था। वह अपने पिता के कामों में बहुत कम रूचि रखता था। वह सीधा, सरल एवं नेकदिल इंसान था एवं उसे अपने बडे भाई पर गहन श्रद्धा एवं विश्वास था।
रामदास ने अपनी वृद्धावस्था को देखते हुए अपनी वसीयत बनाकर अपने सहयोगी मित्र के पास रखवा दी थी और उसे रजिस्टर्ड करने का निर्देश भी दिया था, परंतु ऐसा होने के पूर्व ही दुर्भाग्यवश हृदयाघात के कारण उसकी मृत्यु हो गई। उसके बडे बेटे लखन ने हालात का फायदा उठाकर अपने पिता के मित्र को येन केन प्रकारेण अपनी ओर मिलाकर वह वसीयत हथिया ली एवं अपने पिता की हस्ताक्षर युक्त कोरे कागज पर नई वसीयत बनाकर खेती की पूरी जमीन व अन्य संपत्तियाँ, गहने, नकदी आदि अपने नाम लिखकर उन्हें हथिया लिया और विवेक को संपत्ति में उसके वाजिब हक से बेदखल कर दिया। विवेक के हितैषियों ने उसे न्यायालय जाने की सलाह दी, परंतु उसे ईश्वर पर गहरी श्रद्धा एवं विश्वास था और वह प्रभु से न्याय करने की प्रार्थना करके चुपचाप रह गया।
विवेक अपने सीमित साधनों में ही अपना गुजर बसर किसी प्रकार कर रहा था। इस घटना के बाद दोनो भाइयों में पूर्णतः संबंध विच्छेद हो गये और लखन के विवाह में भी विवेक को नहीं बुलाया गया। कुछ वर्षों बाद लखन को पुत्र की प्राप्ति हुई, परंतु सभी समारोहों में विवेक की उपेक्षा की गई। वक्त बीत रहा था और लखन का बेटा दे वर्ष का हो गया था।
एक दिन वह अपनी माँ के साथ नाव से नदी पार कर रहा था, तभी न जाने कैसे हादसा हुआ और बच्चा छिटककर नदी में गिर गया। विवेक इस घटना को पास के ही टापू से देख रहा था। उसका मन अपने अपमान को याद करके सहायता करने से रोक रहा था। विवेक ने देखा कि वह अबोध बालक लगभग डूबने की स्थिति में आ गया है और उसके दोनो हाथ पानी के ऊपर दिख रहे है। यह हृदय विदारक दृश्य देखकर वह अपने आपको रोक नहीं सका एवं बिजली की गति से पानी में तैरकर उस बालक के पास पहुँच गया। अपनी तैराकी के अनुभवों से उसे बचाकर किनारे की ओर ले आया। इस दुर्घटना की खबर आग की तरह सारे गाँव में फैल गई और लखन बदहवास सा नंगे पैर दौड़ता हुआ नदी के पास आया।
वहाँ पर उसने देखा कि काफी लोग विवेक को घेरकर उसके साहस, त्वरित निर्णय एवं भावुकता की भूरि भूरि प्रशंसा कर रहे थे। लखन को देखकर विवेक बच्चे को हाथ में उठाकर उसे देने हेतु उसके पास आया। यह दृश्य देखकर लखन स्तब्ध रह गया और उसके मुख से ये शब्द निकल पडे कि आज मैं याचक हूँ और तुम दाता हो, उसकी आँखें सजल हो गई और वह फूट फूटकर रो पडे मानो पश्चाताप आँसुओं से झर रहा था। वह रूंधे गले से कह रहा था, “ मैंने तेरे साथ हमेशा अन्याय किया है। मेरी धन लोलुपता एवं लोभी स्वभाव ने मुझे अधर्म के पथ पर ले जाकर भ्रष्ट कर दिया था। तुमने अपने अपमान को पीकर भी अपनी जान जोखिम में डालकर मेरे बच्चे की रक्षा की है। मुझे मेरी गलतियों के लिए माफ कर दो और मेरे साथ घर चलो।“
विवेक चुपचाप खडा सोच रहा था, तभी वह बालक चाचा चाचा कह कर उसकी गोद में आने के लिये मचलने लगा। ऐसे भावपूर्ण दृश्य ने लखन और विवेक के दिलों को एक कर दिया। लखन ने विवेक को घर ले जाकर उसे उसकी संपत्ति का हिस्सा देने के कागजात तुरंत बनवाए एवं इसके साथ ही गहने, नकदी, तथा अन्य चल संपत्तियों में जो भी वाजिब हिस्सा विवेक का था, वह उसे दे दिया। लखन ने कहा कि तुम्हारा अधिकार तुम्हें देकर भी मैं अपने पापों से मुक्त नहीं हो सकता। यह सुनकर विवेक ने अपने बडे भ्राता के कंधे पर हाथ रखकर कहा कि उसके मन में अब किसी भी प्रकार का दुराभाव नहीं है। आप भी अपने नकारात्मक विचारों को हृदय से निकालकर सकारात्मक शुरूआत करें। यही आपके लिए जीवन का सच्चा प्रायश्चित होगा।
वेदना
सड़क के किनारे चुपचाप उपेक्षित बैठी हुई वह अबला नारी हर आने जाने वाले को कातर निगाहों से देख रही थी। उसके पास रूककर उसके दर्द को जानने का प्रयास कोई भी नहीं कर रहा था। उसके तन पर फटे-पुराने कपडे लिपटे हुये थे, जिससे वह बमुश्किल अपने तन के ढके हुए थी। उसके चेहरे पर असीम वेदना एवं आतंक का भाव दिख रहा था। वह अपने साथ कुछ माह पूर्व घटी निर्मम,वहशी बलात्कार की घटना के बारे में सोच रही थी, और इसे याद करके थर थर कांप रही थी।
इतने में पुलिस की गाडी की गाडी आयी, जिसे देखकर उसका खौफ, मन का डर और भी अधिक बढ गया। यह देखकर उसके मन में उस दिन की याद ताजा हो गयी, जब वह थाने में अपने साथ हुये अत्याचार एवं अनाचार का मामला दर्ज कराने पहुँची थी, परंतु उसके प्रति सहानुभूति ना रखते हुए पुलिसवालों ने उसे डांट डपटकर भगा दिया था। जिन अपराधी तत्वों ने ऐसा घृणित कृत्य किया था, वे अभी भी बेखौफ घूम रहे थे। पुलिसवाले उसे सड़क से थोडा दूर हटकर बैठने की हिदायत देकर चले गये, मानो वे अपना फर्ज पूरा कर गये थे। उसे भिखारी समझकर कुछ दयावान व्यक्ति चंद सिक्के उसकी ओर उछालकर आगे बढ जाते थे। वह असहाय, इंसान में इंसानियत को खोज रही थी, जो समाज से तिरस्कृत एक गरीब महिला थी, जिसकी ऐसी स्थिति उसके परिवार के निजी कारणों से हो गई थी।
उसने सड़क पर ही असीम प्रसव वेदना के साथ एक बच्चे को जन्म दे दिया, वह पीडा से निरंतर तडप रही थी। किसी संवेदनशील ने उसकी दयनीय हालत देखकर आपातकालीन सेवा को सूचना दी। उन्होंने त्वरित कार्यवाही करते हुये उस ले जाकर शासकीय अस्पताल में भर्ती करा दिया, परंतु समय पर इलाज ना होने के कारण उसकी मृत्यु हो गई और उसकी संतान को अनाथालय में भेज दिया गया। मैं सोच रहा था, जिस बच्चे का जन्म ऐसी परिस्थितियों में हुआ हो, उसका बचपन, जवानी और बुढापा कैसे बीतेगा ?
कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि एक विदेशी दंपती बच्चे को गोद लेकर अपने देश चले गये है। मैं मनन कर रहा था, कि जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान होता है।
सेवा का महत्व
राधाबाई नाम की एक सेविका एक धनाढ्य परिवार में कार्यरत हैं। परिवार के सभी सदस्यों की सेवा करना वह अपना परम धर्म समझती है। वह जब तक अपने मालिकों की रात में पाँव दबा कर उन्हें सुला ना दे, तब तक उसे चैन नहीं आता है।
एक दिन वह अचानक बीमार पड गई, उसे इलाज के लिए अच्छे अच्छे डॉक्टरों को दिखाया गया, उनकी दवाइयाँ उसे दी गई, परंतु हालत में परिवर्तन ना होकर धीरे धीरे उसका स्वास्थ्य इतना गिर गया कि वह आज गई या कल गई की स्थिति में आ गई थी।
व्ह उस परिवार की पाँच वर्षीय बेटी मानसी से बहुत प्रेम करती थी और वह भी उसे दादी कहकर पुकारा करती थी। उसकी ऐसी स्थिति देखकर मानसी दुख से व्याकुल हो गई, उसने पास जाकर उसके माथे पर हाथ रखा और कोमल हाथों से उसके पैर दबाने लगी। यह ईश्वरीय चमत्कार था, दवाईयाँ का प्रभाव या उस बच्ची की निस्वार्थ, निष्कपट सेवा का परिणाम कि राधाबाई का स्वास्थ्य ठीक होने लगा और वह तीन चार दिन में ही स्वस्थ हो गई।
ऐसा कहा जाता है कि दवाईयों से ज्यादा दुआ और सेवा कठिन वक्त पर काम आती है। उस बच्ची के मन में मालिक और नौकर की भावना का भेदभाव नहीं था, इसलिये वह निस्वार्थ सेवा स्वयं करने लगी थी, जबकि बडे बुजुर्ग ऐसी सेवा करने में हिचकिचा रहे थे। एक नौकर और मालिक के बीच का अंतर शायद उन्हें एक नौकर के पाँव दबाने से रोक रहा था।
आत्मविश्वास
दिन ढल चुका था, चाँद की दूधिया रोशनी भी अंधेरे को दूर करने में असमर्थ थी। चारों ओर घने बादल आकाश में छाए हुए थे, तेज बारिश हो रही थी। हाथों को हाथ नहीं सूझ रहा था, कडकडाती हुई बिजली, मन में एक डर का माहौल पैदा कर रही थी।
विपुल लगभग एक माह से तेज ज्वर से पीडित था। वह इतना कमजोर हो चुका था कि बिना किसी सहारे के उठ भी नहीं पाता था। आज रात वह बहुत बेचैनी महसूस करते हुए कराह रहा था। उसकी यह हालत देखकर वह उसके पास आयी और चुपचाप बैठकर उसके माथे पर हाथ रखकर महसूस कर रही थी कि उसे बहुत तेज बुखार है। वह उसे कंबल उढाकर राते के अंधेरे में ही भीगती हुई बाहर चली गई। वह भीगती हुई थोडी देर बाद वापस आई और उसने विपुल को दवा पिलायी, अपने गीले कपडे बदलने अंदर चली गई।
विपुल दवा पीकर बडबडाने लगा कि माँ, तुम मेरे लिए इतने दिनों से कितना कष्ट उठाकर मेरी सेवा सुश्रुषा कर रही हो, मुझे ऐसा महसूस होता है कि मेरा जीवन का समय पूरा हो चुका है और तुमसे बिछुडने का समय नजदीक आता जा रहा है। माँ ने उसकी बात सुनकर उसे अपनी गोद में लेकर समझाया “ जब तक साँस है जीवन में आस है। “ विपुल बोला मै सभी आशाएँ छोड चुका हूँ, आज की रात मुझे गहरी नींद में सोने दो, मैं कल का सूरज देख पाता हूँ या नही, यह नहीं जानता। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मेरी आत्मा के द्वार पर चाँद का दूधिया प्रकाश दस्तक दे रहा है। मैं अंधकार से प्रकाश की ओर प्रस्थान कर रहा हूँ। मुझे भूत, वर्तमान और भविष्य के अहसास के साथ पाप और पुण्य का हिसाब भी दिख रहा है। मैंने धर्म से जो कर्म किये है, वे ही मेरे साथ जाएँगे, परिवार और समाज को भी उनका फल प्राप्त होगा। माँ, तू ही बता यह मेरा प्रारंभ से अंत है या अंत से प्रारंभ ?
विपुल की करूणामय बातें सुनकर माँ का मन भी विचलित हो गया। उसने अपनी आँखों से आए आँसुओं के सैलाब को रोकते हुए अपने बेटे से कहा कि देखो तुम हिम्मत मत हारना, यही तुम्हारी सच्ची मित्र है। सुख दुख में सही राह दिखलाती है और विपरीत परिस्थितियों में भी तुम्हारा साथ निभाकर तुम्हें शक्ति देकर तुम्हारे हाथों को थामें रहती है, मैं तुम्हें एक वृत्तांत सुनाती हूँ, इसे गंभीरता पूर्वक सुनकर इस पर मनन करना -
“ कुछ वर्षों पूर्व नर्मदा के तट पर एक नाविक अपनी किश्ती के साथ रहता था। वह नर्मदा के जल में दूर दूर तक सैलानियों को घूमाता था। यही उसके जीवन यापन का आधार था। वह अपनी किश्ती को अपने पुत्र के समान बहुत प्यार करता था। वह नाविक बहुत ही अनुभवी, मेहनती, होशियार एवं समयानुकूल निर्णय लेने की क्षमता रखता था। एक दिन वह किश्ती को नदी की म़झधार में ले जाकर ठंडी हवा के झोंकों एवं थकान के कारण सो गया। उसकी जब नींद खुली, तो यह देख भौच्चका रह गया कि चारों दिशाओं में पानी के गहरे बादल छाए हुए थे और हवा के तेज झोंको से किश्ती डगमगा रही थी, आँधी तूफान के आने की पूरी संभावना थी। ऐसी विषम परिस्थितियों को देखकर उसने अपनी जान बचाने के लिए किसी तरह किश्ती को एक टापू तक पहुँचाया और स्वयं उतरकर उसे एक रस्सी के सहारे बांध दिया, उसी समय अचानक तेज आंधी तूफान और बारिश आ गई। उसकी किश्ती रस्सी को तोडकर नदी के तेज बहाव में बहते हुए टूटकर टुकडे टुकडे हो गयी। नाविक यह देखकर दुखी हो गया और उसे लगा कि अब उसका जीना व्यर्थ है। उसकी अंतरात्मा ने उसे धिक्कारते हुए कहा कि यह नकारात्मक सोच में क्यों डूबे हुए हो ? इस सृष्टि में प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव का जन्म है, तुम पुनः मेहनत करके कठोर परिश्रम से अपने आप को पुनर्स्थापित कर सकते हो।
यह विचार आते ही वह नई किश्तियें के निर्माण में लग गया। उसने दिनरात मेहनत करके पहले से भी सुंदर और सुरक्षित नई किश्तियों को बनाकर पुनः अपना व्यवसाय शुरू कर दिया। वह मन ही मन आंधी तूफान को कहता था कि तुम मेरी एक किश्ती को खत्म कर सकते हो, परंतु मेरे श्रम, सकारात्मक सोच को खत्म करने की क्षमता तुम्हारे में नहीं है। तुमने एक किश्ती को खत्म किया है, मैंने दो नई किश्तियों का निर्माण करके तुम्हारे विध्वंस को सृजन का स्वरूप प्रदान किया है। “
बेटा विपुल इस वृत्तांत से तुम शिक्षा लो और हिम्मत से बुखार रूपी आंधी तूफान का सामना करते हुए नई किश्ती के समान नवजीवन को प्राप्त करो। विपुल पर माँ की बातों का बहुत गहरा प्रभाव पडा। इसने उसके अंदर असीति उर्जा, दृढ इच्छा शक्ति व आत्मविश्वास को जाग्रत कर लिया।
यह ईश्वरीय कृपा थी, माँ का आशीर्वाद, स्नेह एवं प्यार था या विपुल का भाग्य कि वह कुछ दिनों में ठीक हो गया। आज वह पुनः ऑफिस जा रहा था। उसकी माँ उसे दरवाजे तक विदा करने आयी, उसका बैग उसे दिया और मुस्कुरा कर उसकी आँखों से ओझल होने तक उसे देखती रही ।
बाँसुरीवाला
मुंबई शहर के पैडर रोड पर अपने मित्र के यहाँ जब भी मैं जाता तो प्रतिदिन सुबह 6 बजे के लगभग एक अंधा वहाँ से बाँसुरी बजाता हुआ निकलता था। वह बाँसुरी के बीच बीच में बडे ही मधुर स्वर में भजन गाता जाता था। एक दिन मैंने उसे रोका और उससे कुछ बातें की।
बातों में पता चला कि वह एक कुलीन परिवार का व्यक्ति था। एक दुर्घटना में उसकी आँखें जाती रही। उसके ही अपने लोगों ने कपटपूर्वक उसका कुछ हथिया लिया और उसे बेघर कर दिया। जो कुछ थोडा बचा था उसे संभाले वह मुंबई आ गया। यहाँ एक चाल में एक छोटे से कमरे में रहता था। प्रातः काल भ्रमण करना उसकी बचपन की आदत थी। दुनिया में ईश्वर के अतिरिक्त उसका कोई नहीं बचा था, उसका ही स्मरण वह हमेशा किया करता था।
मैंने उससे कहा कि मुझे आपके भजन बहुत ही प्रिय लगते है, लेकिन मैं उन्हें कभी पूरा नहीं सुन पाता। मैं चाहता हूँ कि आप थोडा रूककर मुझे एक भजन सुना दें। उसने जो भजन सुनाया उसका भाव कुछ इस प्रकार था -
मन प्रभु दर्शन को तरसे
विरह वियोग श्याम सुंदर के
झर झर आँसू बरसे।
इन अँसुवन से चरण तुम्हारे
धोने को मन तरसे।
काल का पहिया चलता जाए
तू कब मुझे बुलाए।
नाम तुम्हारा रटते रटते
ही यह जीवन जाए।
मीरा को नवजीवन दीनो
केवट को आशीष।
शबरी के बेरों को खाकर
तृप्त हुये जगदीश।
जीवन में बस यही कामना
दरस तुम्हारे पाऊँ।
गाते गाते भजन तुम्हारे
तुममें ही खो जाऊँ।
ईश्वर के प्रति उसकी यह भक्ति और समर्पण देखकर सहज ही यह समझ में आ गया कि वह वेशभूषा से भले ही सामान्य नागरिक दिखते थे, परंतु वह अपने आप में एक संत थे। मुझसे उम्र में काफी बडे थे, इसलिये मैंने उनसे आशीर्वाद लिया। उसके बाद लंबे समय तक जब जब भी मैं मुंबई जाता था, उनसे अवश्य मिलता था। उनसे भजन सुनता था और उन्हें अपनी कविताएँ भी सुनाता था हम दोनों अच्छे मित्र बन चुके थे।
ईश्वर कृपा
जबलपुर शहर में सेठ राममोहन दास नाम के एक उद्योगपति रहते थे। वे अत्यंत दयालु, श्रद्धावान एवं जरूरतमंदों, गरीबों तथा बीमार व्यक्तियों के उपचार पर दिल खोल के खर्च करने वाले व्यक्ति थे। वे 80 वर्ष की उम्र में अचानक ही बीमार होकर अपने अंतिम समय का बोध होने के बाद भी मुस्कुराकर गंभीरतापूर्वक अपने बेटे राजीव को कह रहे थे कि बेटा मेरी चिंता मत कर, मैं अपने जीवन में पूर्ण संतुष्ट हूँ। तुमने मेडिकल की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम आकर हम सबको गौरवान्वित किया है। मेरा मन तुम्हारे डॉक्टर बनने की खुशी में कितना प्रसन्न है, इसकी तुम्हें कल्पना भी नहीं है।
सेठ जी अपनी आँखें बंद करके भरे मन से बोले कि काश अगर तेरी माँ जीवित होती तो उसे कितनी खुशी होती ? राजीव ने पिताजी के हाथ को अपने हाथ में रखकर कहा कि आप ठीक कह रहे हैं परंतु ईश्वर की इच्छा के आगे सभी मजबूर हो जाते है। सेठ जी ने राजीव को उसकी जन्म की घटनाओं के विषय में बतलाना प्रारंभ किया। वे अपनी जिंदगी के 50 वर्ष पूर्व राजीव के जन्म के अवसर की घटनाओं को मानों साक्षात देख रहे थे। वे बोले कि 15 अक्टूबर का दिन था, मैं नर्मदा किनारे गोधूलि बेला में बैठा हुआ नदी में बहते हुए जल की ओर अपलक देख रहा था। मेरा मन अवसाद में डूबा हुआ था एवं दिलो दिमाग में निस्तब्धता छायी हुयी थी। हमारे पुराने मुनीम और कार ड्राइवर जो कि विगत 20 वर्षों से हमारे यहाँ कार्यरत थे, उन्होंने कहा कि मालिक समय निकलता जा रहा है, हमें तुरंत अस्पताल पहुँचना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर सभी चिकित्सक पहुँच चुके है और आपका इंतजार कर रहे है। आप ईश्वर पर विश्वास रखिए, वह जो भी करेगा अच्छा ही करेगा। सेठ जी भरे मन से उठे और धीरे धीरे भारी कदमों से अपनी कार की ओर बढ गए। वे मन ही मन सोच रहे थें कि मैंने अपना सारा जीवन सादगी, धर्म और कर्म को प्रभु के प्रति साक्षी रखते हुए सेवा भावना से अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रखते हुए बिताया है, फिर आज मुझे क्यों इस विकट परिस्थितियों से जूझना पड रहा है।
सेठ राममोहनदास के बचपन में ही पिता का साया उठ गया था। उनकी माँ ने व्यवसाय को सँभालते हुए उन्हें बडा किया एवं उनका विवाह भी एक संपन्न और सुशील परिवार में कर दिया था। उनके विवाह के दस साल के उपरांत उनकी पत्नी, माँ बनने वाली थी और इस सुखद सूचना को सुनकर पूरा परिवार अत्याधिक प्रसन्न होकर ईश्वर की इस असीम कृपा के प्रति नतमस्तक था। उनकी पत्नी को गर्भावस्था के अंतिम माह में अचानक तबीयत खराब होने से अस्पताल में भर्ती किया गया था और चिकित्सकों उनकी स्थिति को गंभीर बताते हुए सेठ जी को स्पष्ट बता दिया था कि बच्चे के जन्म से माँ के जीवन को बहुत अधिक खतरा है तथा उनकी प्रसव के दौरान मृत्यु भी हो सकती है ?
इन परिस्थितियों में माँ के जीवन को बचाने हेतु गर्भपात कराना होगा। इस खबर से सभी गहन दुख की स्थिति में आ गये थे। सेठ जी अपने प्रतिदिन के नियमानुसार नर्मदा दर्शन हेतु गये हुये थे और वहाँ पर उन्होंने दुखी मन से इस निर्णय को स्वीकार करने का मन बनाते हुए वापस अस्पताल जाकर काँपते हुए हाथों से इसकी सहमति पर हस्ताक्षर कर दिये। अब चिकित्सकों की टीम ने विभिन्न प्रकार की दवाइयाँ व इंजेक्शन देकर गर्भपात कराने का पूरा प्रयास किया।
उनकी पत्नी इससे अनभिज्ञ थी व तकलीफ के कारण बुरी तरह कराह रही थी। समय बीतता जा रहा था और उनकी तबीयत गंभीर होती जा रही थी। ऐसी स्थिति में चिकित्सकों ने श्ल्य क्रिया के द्वारा स्थिति को संभालने का प्रयास किया। सेठ जी बाहर अश्रुपूर्ण नेत्रों से सोच रहे थे, यह कैसी विडम्बना है कि जिन हाथों से उन्होंने बच्चे को गोद में खिलाने की खिलाने की कल्पना की थी, उसे ही परिस्थितियों वश गर्भपात हेतु सहमति देनी पड रही थी।
ऑपरेशन पूरा हो चुका था और नर्स ने बाहर आकर सेठ जी को बधाई दी और कहा कि आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है और आपकी पत्नी भी सुरक्षित है। सेठ जी यह सुनकर अवाक रह गये और प्रभु कृपा के प्रति भाव विभोर होकर हृदय से मन में उपजे अविश्वास में अनर्गल बातें कहने हेतु ईश्वर से माफी माँग रहे थे। सेठ जी की माता जी भी दादी बनने से अति प्रसन्न थी और प्रभु के प्रति इन विपरीत परिस्थितियों में भी माँ और बच्चे दोनो की रक्षा हेतु हृदय से आभार व्यक्त कर रही थी। मुनीम जी ने भी उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा कि मालिक ईश्वर के घर देर हो सकती है, अंधेर नही।
सेठ जी ने राजीव से कहा देखो आज तुम डॉक्टर बन गये हो यह एक बहुत ही पवित्र पेशा है। मेरा अंतिम समय नजदीक दिखाई पड रहा है। मैं यह असीम धन दौलत तुम्हें सौंपकर जा रहा हूँ मेरी अंतिम इच्छा यही है कि जिन आदर्शां को अपनाकर मैंने अपना जीवन जिया, वे तुम्हारे जीवन में मार्गदर्शक बने रहे।
इतना कह कर वे अपनी अंतिम साँस लेकर अनंत में विलीन हो गये। यह एक विचारणीय तथ्य है जिसे जन्म लेने से रोकने का प्रयास चिकित्सकों द्वारा किया गया, उसने प्रभु कृपा से जन्म लेकर अपने जीवन को सार्थक किया। आज राजीव शहर के जाने माने चिकित्सक के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका है और अपने पिता के बनाये आदर्शों पर दीन दुखियों की सेवा, परमार्थ हित एवं धर्मपूर्वक कर्म में अपना जीवन आनंद पूर्वक बिता रहा है।
पाश्विकता ं
मैं प्रतिदिन सुबह घर के बगीचे में आकर बैठ जाता था। वह एक बंदर था, जो नियमित रूप से उसी समय प्रतिदिन आकर याचनापूर्वक दोनों हाथों से मानो निवेदन करता हुआ बिस्किट माँगता था। मैं भी सहर्ष उसको बिस्किट देकर प्रसन्नता का अनुभव करता था। वह शांतिपूर्वक बिस्किट खाकर चला जाता था।
एक दिन मैं बीमार हो गया, वह नियत समय पर आया, मैंने खिड़की से उसे बिस्किट दे दिया, उसने उसे लेकर बिना खाए संभालकर खिड़की के पास ही रख दिया। मैं तीन दिन तक बीमार रहा, वह प्रतिदिन तीन चार बार आकर खिड़की से मुझे देखकर वापस चला जाता था। मेरा स्वास्थ्य ठीक होने पर मैं वापस बगीचे मैं बैठने लगा। वह भी प्रसन्नचित्त होकर छिपाए हुए बिस्किट को खाकर चला गया। मैं अपने प्रति उसका व्यवहार देखकर आश्चर्यचकित था कि जानवर भी कितने संवदेनशील होते है।
एक दिन वह रक्तरंजित अवस्था में बडी मुश्किल से लँगडाकर चलते हुए मेरे पास आया और बेहोश होकर गिर पडा। किसी ने उस पर पत्थर किया था, जिससे वह बुरी तरह जख्मी हो गया था। हम उसे तुरंत अस्पताल ले गए। जहाँ डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।
मैं दुखी मन से उसके बहते हुए रक्त में मानवीय क्रूरता का अट्ठहास महसूस कर रहा था एवं अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि देकर चुपचाप वापस घर आ गया। आज भी जब वह घटना याद आ जाती है, तो मैं द्रवित हो जाता हूँ और मनुष्य की पाश्विकता को नहीं भूल पाता।
जीवन का सत्य
एक सुप्रसिद्ध महात्मा जी से एक नेताजी ने पूछा कि वे चाहते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद भी उनके परिवार का भविष्य व्यवस्थित रहे।
महात्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि व्यक्ति केवल सोच सकता है, प्रयास कर सकता है लेकिन अंतिम निर्णय और परिणाम तो ईश्वर और भाग्य के हाथ होता है। तुम स्वयं अपना भविष्य नहीं जानते और दूसरों के भविष्य की चिंता कर रहे हो। इस दुनिया में जब तक व्यक्ति जीवित है, बात तब कुछ और होती है और उसकी आँख मुँद जाने के बाद कुछ और हो जाती है। यदि तुम इसका अनुभव करना चाहते हो, तो कर सकते हो, और लोगों को यह विश्वास दिला दो कि तुम्हारी मृत्यु हो गई है।
नेताजी ने महात्माजी की बात मानकर एक दिन नाव पर बैठकर नदी पार करते समय बीच में ही नदी में छलाँग लगा दी। वे भीतर ही भीतर तैरकर चुपचाप इस प्रकार उस पार हो गए कि लोगों को लगा कि नेताजी नदी में डूबकर मर गए है। यह खबर सभी जगह फैल गई। उनके घरवालों को जैसे ही पता चला, सबसे पहले वे उनकी उस तिजोरी की चाबियाँ को खोजने लगे जिसमें उनके देश और विदेश में जमा करोंडों रूपयों के कागजात थे। वे जनता को दिखाने के लिए तो रो रहे थे, परंतु वे वसीयत और अन्य जरूरी जायदाद से संबंधित कागजात एवं बँटवारे के संबंध आपस में लगे हुए थे। नेताजी के जो अनुयायी थे, वे धीरे धीरे दूसरे नेताओं के चमचे बन गए। नेताजी जिस पद पर थे, अब उस पद पर कोई दूसरा नेता आसीन हो गया था और मन ही मन नेताजी के मरने पर खुश हो रहा था। उनके ना रहने के कारण ही यह पद खाली हो गया था और उसे प्राप्त हो गया था।
नेताजी का जो धन व्यापारियों के पास लगा हुआ था, उसने उस पर चुप्पी साध रखी थी और उसे हड़प लिया था। नेताजी ने अपने पद पर रहते हुए लोगों के काम करवाने के लिए जो घूस ली थी, वे सभी उन्हें भ्रष्टाचारी और हरामखोर बतलाते हुए मन ही मन ही बहुत प्रसन्न हो रहे थे। इस प्रकार किसी किसी को भी ना ही उनकी मृत्यु का दुख था और ना ही कोई उनका अभाव महसूस कर रहा था। नेताजी चुपचाप वेश बदलकर जीवन का सत्य देख रहे थे। इससे उनकी आत्मा को बडा कष्ट हुआ और उनका हृदय परिवर्तन हो गया। वे महात्माजी के पास पहुँचे और उनके चरण छूकर बोले कि मुझे जीवन की वास्तविकता का अनुभव हो गया है। अब मुझे अपने परिवार, मित्रों तथा तथाकथित शुभचिंतकों व हितैषियों की वास्तविकता मालूम हो गई है। अब मुझे संसार में काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं माया से विरक्ति हो गई है। इतना कहकर वे अनजाने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर गए एवं वापस उस शहर में कभी नहीं आए।
महात्माजी ने उन्हें समझा दिया था कि जीवन में मृत्यु के उपरांत सकारात्मक, सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्य जो मानव जनहित में करता है, वही याद रखे जाते है। उसका स्वयं का अस्तित्व मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। सिर्फ अच्छे कर्मों से ही उनका नाम स्मृति में रहता है।
नाविक
जबलपुर में नर्मदा के तट पर एक नाविक रहता है। उसका नाम है, राजन। वह एक कुशल और अनुभवी नाविक व गोताखोर है। उसने अनेक लोगों की जान डूबने से बचाई है। सुबह सूर्य भगवान की ओर यात्रा अपनी नौका की पूजा के साथ ही प्रारम्भ होती है उसकी दिनचर्या। उसने लालच में आकर कभी अपनी नौका में क्षमता से अधिक सवारी नहीं बैठाई, कभी किसी से तय भाडे से अधिक राशि नहीं ली।
एक नेताजी अपने चमचों के साथ नदी के दूसरी ओर जाने के लिए राजन के पास आए। नेताजी के साथ उनके चमचों की संख्या नाव की क्षमता से अधिक थी। राजन ने उन्हें कहा कि वह उन्हें दे चक्करों में पार करा देगा, लेकिन नेताजी सबको साथ ले जाने पर अड गए। जब राजन इसके लिए तैयार नहीं हुआ, तो नेताजी एक दूसरे नाविक के पास चले गए। नेताजी के रौब और पैसे के आगे वह नाविक राजी हो गया और उन्हें नाव पर लादकर पार कराने के लिए चल दिया।
राजन अनुभवी था। उसने आगे होने वाली दुर्घटना को भाँप् लिया। उसने अपने गोताखोर साथियों के बुलाया और कहा कि हवा तेज चल रही है और उसने नाव पर अधिक लोगों को बैठा लिया है। इसलिये तुम लोग भी मेरी नाव में आ जाओ। हम उसकी नाव से एक निश्चित दूरी बनाकर चलेंगे। वह अपनी नाव चलाने लगा। उसके साथियों में से किसी ने यह भी कहा कि हम लोग क्यों इनके पीछे चलें। नेताजी तो बडी पहुँच वाले आदमी है, उनके लिए तो फौरन ही सरकारी सहायता आ जाएगी, लेकिन राजन ने उन्हें समझाया कि उनकी सहायता जब तक आएगी तब तक को सब कुछ खत्म हो जाएगा। हम सब नर्मदा मैया के भक्त है। हम अपना धर्म निभाएँ। उसकी बातें से प्रभावित उसके साथी उसके साथ चलते रहें।
जैसी उसकी आशंका थी, वही हुआ। हवा के साथ तेज बहाव में पहुँचने पर नाव डगमगाने लगी। हड़बडाहट में नेताजी और उनके चमचे सहायता के लिए चिल्लाने लगे और उनमें अफरा तफरी मच गई। इस स्थिति में वह नाविक संतुलन नहीं रख पाया और नाव पलट गई। सारे यात्री पानी में डूबने और बहने लगे, जिन्हें तैरना आता था, वे भी तेज बहाव के कारण तैर नहीं पा रहे थे। राजन और उसके साथी नाव से कूद पडे और एक एक को बचाकर राजन की नाव में चढाया गया। तब तक किनारे के दूसरे नाव वाले भी आ गए। सभी का जीवन बचा लिया गया।
पैसे और पद के अहंकार में जो नेताजी सीधे मुँह बात नहीं कर रहे थे, अब उनकी घिग्गी बँधी हुई थी। अपनी खिसियाहट मिटाने के लिए उन्होंने राजन और उनके साथियों को इनाम में पैसे देने चाहे तो राजन ने यह कहकर मना कर दिया कि हमें जो देना है वह हमारा भगवान देता है। हम तो अपनी मेहनत का कमाते है और सुख की नींद सेते है। आपको बचाकर हमने अपना कर्तव्य पूरा किया है, इसका जो भी इनाम देना होगा, वह हमें नर्मदा मैया देंगी।
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