स्वीकृत रचना के दर्द शीर्षक देखकर आप चौंक तो ज़रूर गए होंगे. आप कहेंगे कि स्वीकृत रचना तो ख़ुशी का ख़जाना होता है जो किश्तों में हाथ आता है या...
स्वीकृत रचना के दर्द
शीर्षक देखकर आप चौंक तो ज़रूर गए होंगे. आप कहेंगे कि स्वीकृत रचना तो ख़ुशी का ख़जाना होता है जो किश्तों में हाथ आता है यानी कि स्वीकृत होने के कुछ अरसा बाद रचना रोशनी में आती है मतलब प्रकाशित होती है; फिर कुछ समय बाद यह आपके हाथों को थोड़ी मैल बख्शती है; और इसके बाद (अगर रचना में दम हो तो) इसके अनुवाद वग़ैरह की बातें पैदा होती हैं. ऐसे में यह स्वीकृत रचना के दर्दवाली बात कहाँ से उठ खड़ी हुई?
हुज़ूर, वो किसी ने कहा है न जिस तन लागे सो तन जाने, वह ठीक ही कहा है. स्वीकृत रचना कैसे-कैसे दर्देदिल पैदा कर सकती है, यह तो कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है और बदकिस्मती से बन्दा इसी श्रेणी में आता है. अब यह बदकिस्मती आपकी है कि आपको यह ‘रामकहानी’ सुनने को मिल रही है.
जहाँ लौट आई रचना ऐसी कन्या के समान होती है जिसे लड़के वालों ने नापसन्द कर दिया हो, वहीं स्वीकृत रचना एक ऐसी कन्या की तरह होती है जिसकी षादी तो हो चुकी हो, मगर गौना होना अभी बाकी हो. अस्वीकृत रचना के मामले में तो आप दिल को थोड़ा च्यवनप्राश खिलाकर उसे (रचना को, दिल को नहीं!) कहीं और भेजने की ज़ुर्रत कर भी सकते हैं, पर स्वीकृत रचना के मामले में तो आपके पास रचना के छपने का इन्तज़ार करने के अलावा ओर कोई चारा रह ही नहीं जाता.
होने को तो यूँ भी हो सकता है कि इधर आपको रचना का स्वीकृत पत्र मिले और उधर पत्र-पत्रिका के अगले अंक में ही वह रचना अपना घूँघट उठाए नज़र आए. लेकिन होता यूँ भी है कि स्वीकृत हो जाने के बाद रचना लेखक को ऐसे इन्तज़ार करवाने लग जाए जैसे दफ़्तर के बाबू को तनख़्वाह मिलने की तारीख़. बाबू के हाथ में तो, ख़ैर, फिर भी एक निश्चित तारीख़ को तनख़्वाह आ जाती है, पर रचना के छपने के मामले में ऐसा कोई नियम नहीं है. पत्र-पत्रिका का हर नया अंक आने तक लेखक के दिल की धड़कन बढ़ी रहती है और जब नए अंक में भी उसकी स्वीकृत रचना को जगह नहीं मिली होती तो उसकी धड़कन की किश्ती निराशा के सागर में डूब-डूब जाया करती है.
और फिर शुरू होता है इन्तज़ार का सिलसिला. कई बार तो यह सिलसिला इतना लम्बा खिंच जाया करता है कि लेखक को नानी व दादी, दोनों, याद आने लगती हैं. सम्पादक महोदय को रचना के प्रकाशन के सम्बन्ध में पूछताछ हेतु डाले गए कई-कई जवाबी पत्रों के जवाब भी जब नदारद रहते हैं, तो ऐसे में लेखक की सूरत पर बजे समय का अन्दाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है.
ख़ुदाया-ख़ुदाया जब रचना छप जाती है, तो ऐसा नहीं होता कि नैया पार लग गई हो. अगर लेखक को पत्र-पत्रिका का वह अंक हासिल हो जाता है जिसमें उसकी रचना आई हो, तब तो ठीक, अन्यथा वांछित अंक पाने के लिए दौड़धूप की ऐसी प्रक्रिया शुरू होती है जिसमें लेखक महोदय को उससे भी ज़्यादा दंड पेलने पड़ते हैं जितने उन्होंने रचना लिखने के लिए भी नहीं पेले थे. अंक की प्रति पाने के चक्कर में लेखक का सुख-चैन हराम हो जाता है. ऐसे में यदि वह अपने प्रयोजन में सफल हो जाता है, तब तो ठीक, वरना अपनी छपी हुई रचना को न देख पाने का ग़म उसके दिलोदिमाग़ पर एक ऐसा जख़्म छोड़ जाता है जो आखि़र नासूर बनकर ही दम लेता है.
अब जहाँ तक परिश्रमिक की बात है, बहुत कम पत्र-पत्रिकाएँ ऐसी हैं जो रचना स्वीकृत होते ही पारिश्रमिक की डोली को लेखक के पते पर रवाना कर दिया करती हैं. वरना ज़्यादातर के यहाँ तो रचना के ‘प्रकाशित’ हो जाने पर ही पारिश्रमिक देने की प्रथा है. अब रचना कब ‘प्रकाशित’ होगी, इसकी गारंटी आमतौर पर नहीं ही होती है. और यह भी ज़रूरी नहीं कि रचना छप जाने के दो-तीन महीने के अन्दर लेखक की मुलाक़ात पारिश्रमिक के चैक/मनीऑर्डर से हो ही जाए. पारिश्रमिक पाने के लिए एक लम्बी दौड़धूप लेखक को फिर से करनी पड़ सकती है और सम्भावना यह भी है कि लेखक के पसीने से कोई फल-फूल फिर भी न खिल पाए.
अब तो आप हमारी इस बात से सहमत हो गए होंगे कि रचना के स्वीकृत हो जाने पर ही लेखक के श्रम की इतिश्री नहीं हो जाती. कई-कई पापड़ उसके बाद भी बेलने पड़ सकते हैं, जिस दौरान लेखक ख़ुद पापड़ बनने की स्थिति में पहुंच सकता है.
अब देखना यह है कि प्रस्तुत रचना के सिलसिले में ख़ाकसार को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं.
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नाम हरीश कुमार ‘अमित’
जन्म 1 मार्च, 1958 को दिल्ली में
शिक्षा बी.कॉम.; एम.ए.(हिन्दी);
पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
प्रकाशन 700 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. एक कविता संग्रह 'अहसासों की परछाइयाँ', एक कहानी संग्रह 'खौलते पानी का भंवर', एक ग़ज़ल संग्रह 'ज़ख़्म दिल के', एक बाल कथा संग्रह 'ईमानदारी का स्वाद', एक विज्ञान उपन्यास 'दिल्ली से प्लूटो' तथा तीन बाल कविता संग्रह 'गुब्बारे जी', 'चाबी वाला बन्दर' व 'मम्मी-पापा की लड़ाई' प्रकाशित. एक कहानी संकलन, चार बाल कथा व दस बाल कविता संकलनों में रचनाएँ संकलित.
प्रसारण - लगभग 200 रचनाओं का आकाशवाणी से प्रसारण. इनमें स्वयं के लिखे दो नाटक तथा विभिन्न उपन्यासों से रुपान्तरित पाँच नाटक भी शामिल.
पुरस्कार-
(क) चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की बाल-साहित्य लेखक प्रतियोगिता 1994ए 2001ए 2009 व 2016 में कहानियाँ पुरस्कृत
(ख) 'जाह्नवी-टी.टी.' कहानी प्रतियोगिता, 1996 में कहानी पुरस्कृत
(ग) 'किरचें' नाटक पर साहित्य कला परिाद् (दिल्ली) का मोहन राकेश सम्मान 1997 में प्राप्त
(घ) 'केक' कहानी पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान दिसम्बर 2002 में प्राप्त
(ड.) दिल्ली प्रेस की कहानी प्रतियोगिता 2002 में कहानी पुरस्कृत
(च) 'गुब्बारे जी' बाल कविता संग्रह भारतीय बाल व युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा (म.प्र.) द्वारा पुरस्कृत
(छ) 'ईमानदारी का स्वाद' बाल कथा संग्रह की पांडुलिपि पर भारत सरकार का भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, 2006 प्राप्त
(ज) 'कथादेश' लघुकथा प्रतियोगिता, 2015 में लघुकथा पुरस्कृत
(झ) 'राट्रधर्म' की कहानी-व्यंग्य प्रतियोगिता, 2016 में व्यंग्य पुरस्कृत
सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त
पता - 304ए एम.एस.4ए केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56ए गुरूग्राम-122011 (हरियाणा)
ई-मेल harishkumaramit@yahoo.co.in
व्यंग्य लेखकों के दर्द को बयां करता है। बधाई।
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