पत्थर हो या इंसान -- भीतर की आग जब बाहर निकलती है तो यही होता है । # हो सकता है , आज जो सत्य-कथा मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ वह आपको सुनने...
पत्थर हो या इंसान -- भीतर की आग जब बाहर निकलती है तो यही होता है ।
# हो सकता है , आज जो सत्य-कथा मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ वह आपको सुनने में अविश्वसनीय लगे । लेकिन कई बार सच पर यक़ीन कर पाना आसान नहीं होता । यह सत्य-कथा मुझे मेरे एक संवेदनशील मित्र भास्कर ने कुछ अरसा पहले सुनाई । मैं चाहता हूँ कि आप सब भी यह दास्तान सुनें ।
भास्कर पिछले पंद्रह-बीस सालों से देश के आदिवासी इलाक़ों में आदिवासियों की भलाई के लिए एक एन. जी. ओ. चला रहा है । उसका एन. जी. ओ. ' सवेरा ' आदिवासियों को शिक्षित और जागरूक बनाने की दिशा में बहुत अच्छा काम कर रहा है । भास्कर दिन-रात जंगल-पहाड़ आदि की परवाह किए बिना किसी जुनूनी आदमी की तरह देश के दूर-दराज़ के आदिवासी इलाक़ों में अपने काम में लगा रहता है । छत्तीसगढ़ , महाराष्ट्र , झारखंड , उड़ीसा , बंगाल और तेलंगाना के आदिवासी इलाक़ों में लगभग हर आदिवासी भास्कर और उसके एन. जी . ओ . के नाम और काम से परिचित है ।
महीना भर पहले जब भास्कर कुछ दिनों के लिए दिल्ली आया तो एक दिन मैंने उसे अपने घर खाने पर बुलाया । वहीं बातों-बातों में उसने मुझे यह सत्य-कथा सुनाई । अब यह अजीब दास्तान आप उसी के शब्दों में सुनिए --
कई साल पहले छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा ज़िले में सरकार ने आदिवासियों की लगभग दो सौ एकड़ उपजाऊ ज़मीन उनसे औने-पौने दाम पर ज़बरदस्ती ले ली । असल में राज्य के एक बड़े उद्योगपति जतन नाहटा ने वहाँ कोल्ड-ड्रिंक बनाने का प्लांट लगाने का मन बना लिया था । नाहटा राज्य के शीर्ष नेताओं और आला अफ़सरों को जानता था , सभ्यता के अंधकार में चमकती थीं जिनकी खुर्रांट आँखें । नाहटा को अपना काम करवाने के सभी गुर आते थे । लिहाज़ा उसे आदिवासियों की यह दो सौ एकड़ उपजाऊ ज़मीन सस्ते में ही मिल
गई । बहुत से स्थानीय आदिवासी बेघर-बार हो गए । उन्होंने विरोध भी किया , लेकिन बेचारे आदिवासियों की सुनता ही कौन है । मुट्ठी भर अमीर लोगों के उल्लास का रंग आदिवासियों के उदासी के रंग का जनक था । उनके आकाश का चाँद कीचड़ में सना पड़ा था । रात की पीठ में किसी ख़ंजर के गहरे घाव-सा था उनका समय । सीलिंग-फ़ैन से टकरा कर कट गई तड़पती चिड़िया-सा था उनका समय । पानी से बाहर खींच ली गई छटपटाती मछली-सा था उनका समय । विस्थापित आदिवासियों की दुर्दशा देख कर जैसे सितारों की आँखें भीग गई थीं । जैसे हवा की बोली में एक बेचारगी-सी आ गई थी । स्तब्ध रात में जब हवा चलती तो लगता जैसे नक्षत्र रो रहे हों ।
आख़िर प्लांट बन कर तैयार हो गया । वह एक ऐसी सुबह थी जो रात के रंग की थी । इस फ़ैक्ट्री-परिसर में ही जतन नाहटा ने अपने लिए एक शानदार कोठी भी बनवाई जो सुख-सुविधा के सभी साधनों से लैस थी । जब कभी सुरक्षा-कर्मियों से घिरा नाहटा अपने प्लांट के दौरे पर आता तो उसी शानदार मकान में रहता ।
ज़ख़्म पर नमक यह कि नाहटा को आदिवासियों पर कोई भरोसा नहीं था । उनके बारे में उसकी धारणा अच्छी नहीं थी । इसलिए उसने अपने कारख़ाने में स्थानीय आदिवासियों को नौकरी नहीं देने के स्पष्ट निर्देश दे रखे थे । ग़ैर-आदिवासी मज़दूरों को कारख़ाने में काम करने के लिए दूसरे राज्यों से लाया गया । बेचारे स्थानीय आदिवासी कहीं के नहीं रहे । एक तो उनकी पुश्तैनी ज़मीन उन से छीन ली गई थी । दूसरे , उन्हीं की ज़मीन पर बने कारख़ाने में उन्हें ही नौकरी नहीं दी जा रही थी ।
मुझसे यह अन्याय देखा नहीं गया । मैं रायपुर में जतन नाहटा से मिला । मैंने उसे बहुत समझाया कि अगर वह अपने प्लांट में स्थानीय आदिवासियों को नौकरी देगा तो वहाँ के आदिवासियों में उसके प्रति रोष कम हो जाएगा । हालाँकि नाहटा मुझसे शिष्टता से मिला लेकिन वह अपने स्टैंड से टस-से-मस नहीं हुआ । जैसे पत्ते पेड़ों से चिपके रहते हैं , वैसे ही वह चिपका रहा अपने नज़रिए से ।
" ये स्साले ' झिंगालाला हो ' लोग किसी काम के नहीं होते । भास्कर बाबू , अगर आप इन आदिवासियों के लिए फिर भी काम करना चाहते हैं तो शौक़ से कीजिए । मेरी शुभकामनाएँ । " यह कह कर नाहटा ने मेरी बात टाल दी ।
उस पल मेरी निगाह से वह ऐसा गिरा जैसे गिरता है कोई दुनिया की सबसे ऊँची इमारत से । दरअसल नाहटा जैसे लोग खुद को काजू , किशमिश और मेवा समझते थे । लेकिन वे छिलकों से भी गए-गुज़रे थे । वे आईने की भ्रामक गहराई को सच समझते थे । यह युग ही ऐसा था कि यहाँ बौने लोग डाल रहे थे लम्बी
परछाइयाँ । हर खोटी अठन्नी रुपए के भाव चल रही थी जबकि असली रुपया धूल में उपेक्षित पड़ा था । छेनी , हथौड़ा , फावड़ा , रेगमार , खुरपी और हँसिया यहाँ रो रहे थे जबकि हर डकार-मारू तोंद यहाँ ऐश कर रही थी ।
नाहटा के इंकार के बावजूद मैंने अपना प्रयास जारी रखा । बीच-बीच में उससे मिल कर मैं उसे समझाने की कोशिश करता रहता ।
जतन नाहटा से अपनी मुलाक़ातों के दौरान मुझे पता चला कि उसे प्राचीन और दुर्लभ मूर्तियाँ आदि इकट्ठा करने का शौक़ है । एक बार जब मैं रायपुर में उसके बंगले पर उससे मिलने गया तो मुझे उसके ड्राइंग-रूम के एक कोने में किसी आदिवासी-देवता की बहुत पुरानी आदमकद मूर्ति रखी दिखी । मेरे पूछने पर नाहटा ने मुझे बताया --
" अभी हाल ही में मैं दांतेवाड़ा में अपनी फ़ैक्ट्री के दौरे पर गया था । तब किसी ने मुझे बताया कि पास के एक आदिवासी गाँव के मुखिया के पास किसी आदिवासी-देवता की प्राचीन और दुर्लभ मूर्ति है । यह सुनकर मैं उस गाँव में गया । मूर्ति देखते ही मेरे मन ने कहा -- यह तो संग्रहणीय है । इसे मेरे पास होना चाहिए ।
इतनी बेशक़ीमती मूर्ति इन गँवारों के पास क्या कर रही है । लेकिन आदिवासी लोग इसे बेचने के लिए तैयार ही न हों । वे इसे अपना ग्राम-देवता बताते थे और इसकी पूजा करते थे । मैंने उन्हें बहुत लालच दिया पर वे नहीं माने । तब मुझे दूसरे तरीके से इस मूर्ति को हासिल करना पड़ा ।"
मुझे बेचारे आदिवासियों से सहानुभूति हुई । हमने उनकी नदियाँ-जंगल-पहाड़ , सब उनसे छीन लिये थे । उनकी नदियों पर हमने जगह-जगह बाँध बना दिये थे जिससे उनकी हज़ारों एकड़ ज़मीन पानी में डूब गई थी और वे विस्थापित हो गए थे । हमने उनके जंगल काट डाले थे और उन्हें उनके ही इलाक़े से बेदख़ल कर दिया था । हम उनके पहाड़ों से चट्टानें काट-काट कर अपने नगर और महानगर बसा रहे
थे । वे अपनी आजीविका के लिए जिस प्रकृति की देन पर निर्भर थे , हमने उसका अंधाधुँध दोहन करके आदिवासियों को कहीं का नहीं छोड़ा था । मजबूरी में इनकी युवतियाँ महानगरों के साहब लोगों के घरों में नौकरानियों का काम कर रही थीं जहाँ इनका हर प्रकार से शोषण हो रहा था । हर तरह के शोषण और अत्याचार से तंग आ कर इनके युवक हथियार उठा रहे थे और पुलिस से मुठभेड़ों में मारे जा रहे थे । हम अपनी फ़िल्मों में इन आदिवासियों की वेश-भूषा , इनकी बोली और इनके रहन-सहन का मज़ाक उड़ा रहे थे । इन्हें उपहास का पात्र बना रहे थे । हमने इनकी उपजाऊ ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके वहाँ फ़ैक्ट्रियाँ बना ली थीं । इतना सब कर के भी जब हमारा मन नहीं भरा था तो अब हम आदिवासियों से इनकी जीवन-पद्धति और इनके देवी-देवता भी छीन रहे थे । इस देश के इन मूल निवासियों के साथ हम यह कैसा व्यवहार कर रहे थे ?
मुझ से रहा नहीं गया और मैंने स्थानीय लोगों के माध्यम से दांतेवाड़ा के उस गाँव के आदिवासी-देवता की मूर्ति की चोरी की रपट वहाँ के थाने में लिखवा दी । साथ ही यह सूचना भी दे दी कि वह मूर्ति इस समय जतन नाहटा के घर में है । इस मामले में मैं स्वयं पर्दे के पीछे ही रहा ताकि नाहटा मेरे एन. जी. ओ. का नुक़सान नहीं करे । लेकिन जतन नाहटा जैसे उद्योगपति के हाथ बहुत लम्बे थे । उसने हर स्तर पर रिश्वत दे कर मामले को रफ़ा-दफ़ा करवा दिया । मैंने मीडिया में भी नाहटा की करतूत का पर्दाफ़ाश करवाया । पर वह राज्य के सत्तारूढ़ दल को चुनाव के समय तगड़ा चंदा देता था । लिहाज़ा राज्य सरकार ने उसके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं
की । मन मसोस कर मैंने अपना पूरा ध्यान अपने एन. जी. ओ. को चलाने में लगा दिया । अपने एन. जी. ओ. के माध्यम से मैं जो भी थोड़ा-बहुत इन आदिवासियों के लिए कर सकता था , करता रहा ।
इसके बाद साल भर मैं छत्तीसगढ़ से बाहर दूसरे राज्यों के आदिवासी इलाक़ों में व्यस्त रहा । जब मैं वापस रायपुर लौटा तो एक दिन मुझे पता चला कि रतन नाहटा काफ़ी समय से बीमार था और अस्पताल में भर्ती था । किसी ने बताया कि उसकी दिमाग़ी हालत अब ठीक नहीं थी । यह सुन कर मुझे हैरानी हुई । साल भर पहले तो वह बिल्कुल ठीक-ठाक था ।
उत्सुकतावश नाहटा का पता लगा कर मैं उससे मिलने अस्पताल में पहुँचा । वह उस महँगे प्राइवेट अस्पताल के मनोरोगी वार्ड में भर्ती था । डॉक्टरों से पूछने पर पता चला कि उसे ' ऐक्यूट पैरानोइया ' और ' शिज़ोफ़्रीनिया ' जैसा कुछ मर्ज़ हो गया है । वहाँ मौजूद उसके घरवालों ने बताया कि उसे काल्पनिक आवाज़ें सुनाई देती हैं । वह किसी अदृश्य व्यक्ति से बातें करता है । उसे यह भय भी सताता रहता है कि कोई उसकी हत्या करने के लिए आ रहा है। कभी वह अवसाद-ग्रस्त हो जाता है , कभी हिंसक हो उठता है । वग़ैरह ।
उसकी पत्नी वसुंधरा रोते हुए कहने लगी -- " भाई साहब , पता नहीं इन्हें क्या हो गया है । इलाज का भी कोई फ़ायदा नहीं हो रहा ।" मैंने उसे सांत्वना दी और हिम्मत से काम लेने के लिए कहा ।
हालाँकि डॉक्टर मुझे नाहटा से मिलने देने के लिए पहले राज़ी नहीं हुए , लेकिन अपने जोखिम पर मैंने डॉक्टरों को मना लिया ।
" सावधान रहिएगा ," एक डॉक्टर ने मुझे चेतावनी दी ।
जब मैं नाहटा के कमरे में दाखिल हुआ तो वह अपने बिस्तर पर उकड़ूँ बैठा हुआ दीवार को घूर रहा था । उसकी दाढ़ी बेतरतीबी से बढ़ी हुई थी । उसके सिर के अधिकांश बाल इस थोड़े से अरसे में ही सफ़ेद हो गए थे ।
मैंने धीरे से उसका नाम लिया और वह मेरी ओर पलटा । कुएँ के तल पर जो आदिम अँधेरा होता है वैसा कुछ उसकी आँखों में भरा हुआ था । वह मुझे घूर रहा था । खोई हुई निगाहों से । जैसे उसके लिए चेहरों के कोई नाम न हों । दिनों का कोई वार न हो ।
फिर भी मैंने उसे धीरे से अपना नाम बताया और अचानक जैसे वह अँधेरे को लाँघ कर रोशनी में लौट आया । उसके चेहरे की उदास मुस्कान में पहचान का मद्धिम बल्ब जल उठा ।
" यह सब कैसे हुआ ?" मैंने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा ।
" मूर्ति...।" वह अस्पष्ट-सा कुछ बुदबुदाया । ज़ाहिर है , वह उस आदिवासी-देवता की मूर्ति की बात कर रहा था । उसकी सहमी हुई आँखों में एक गूँगा रुदन
था ।
" क्या हुआ ? " मैंने कोमल स्वर में फिर पूछा ।
" उस मूर्ति में आदिवासियों ने जादू-टोना कर दिया है । वह मूर्ति नहीं , काला जादू है । रात में वह मूर्ति किसी भयानक जीवित आदमी में बदल जाती है । एक रात जब मैं सो रहा था , वह मूर्ति वाला आदमी मेरे बेड-रूम में घुस आया । मेरी छाती पर चढ़ कर वह मेरा गला दबाते हुए कहने लगा -- " मैं तेरा ख़ून पी जाऊँगा ।" बहुत मुश्किल से जान बचा कर मैं वहाँ से भाग पाया । मेरे घरवाले और डॉक्टर , सब मुझे पागल समझते हैं । कोई मेरी बात पर यक़ीन नहीं करता । लेकिन मैं सच कह रहा हूँ , मैं पागल नहीं हूँ । भास्कर बाबू , मुझे बचा लो ।" उसकी चेतना के मुहाने पर दु:स्वप्नों की दस्तक थी ।
" हो सकता है, आप ने कोई बुरा सपना देखा हो । यह सब आप का वहम भी तो हो सकता है । " उसके कंधे पर हाथ रखकर मैंने उसे सांत्वना दी । उसकी देह बर्फ की सिल्ली-सी ठंडी थी । उसकी आँखों में अंतरिक्ष का काला खोखल भरा था ।
" पहले मुझे भी ऐसा लगा था । लेकिन उस रात के बाद भी जब दो-तीन बार और वही मूर्ति वाला भयानक आदमी उसी तरह बेड-रूम में मेरी छाती पर चढ़ कर मेरा गला दबाने लगा तो मैं समझ गया , यह कोई काला जादू है । अँधेरे में उसकी जलती कोयले-सी दहकती आँखें मैं नहीं भूल सकता । " नाहटा ने कहा । वह पाशविक अँधेरे में लिपटा था । उसके धूप-विहीन चेहरे में धँसी ऊष्मा-रहित आँखें डरावनी लग रही थीं ।
" अब वह मूर्ति कहाँ है ? " मैंने पूछा ।
" मेरे मकान के तहख़ाने में । लेकिन मैं अब उस मकान में वापस नहीं
जाऊँगा ।" नाहटा के चेहरे पर भय की रेखाएँ फैलने लगी थीं । अचानक वह
चीख़ा -- " देखो , देखो । वह मुझे मारने आ रहा है । बचाओ , बचाओ ...। " वह
डर के मारे चिल्ला रहा था । उसका चेहरा राख. के रंग का हो गया था । वह जैसे अपने दु:स्वप्नों के भँवर में फँसा छटपटा रहा था ।
फिर जैसे गाड़ी का गियर बदल जाता है , ठीक वैसे ही उसके हाव-भाव में परिवर्तन आ गया । अब वह ग़ुस्से में आ गया था । मैं आशंकित हो कर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ । उसने कुर्सी उठाई और दीवार पर निशाना साध कर किसी अदृश्य व्यक्ति पर वह कुर्सी दे मारी ।
डॉक्टरों ने मुझे फ़ौरन कमरे से बाहर बुला लिया । फिर कुछ वार्ड-बोएज़ ने आ कर नाहटा को पकड़ा । वह लगातार उनसे छूटने के लिए जद्दोजहद कर रहा था । जैसे उसकी धमनियों में बाढ़ का शोर हो । शिराओं में सुनामी आ गई हो । साँसें किसी चक्रवात की चपेट में हों । बहुत मुश्किल से डॉक्टर उसे शांत करने के लिए सोने का इंजेक्शन लगा पाया ।
हालाँकि नाहटा ने आदिवासियों के साथ जो किया था , मैं वह जानता था लेकिन फिर भी मुझे उसकी हालत पर तरस आ गया । उसका जीवन मौत से ज़्यादा निर्मम हो गया था । पर मेरे पास फ़ुर्सत नहीं थी । मैं अपने एन. जी. ओ. के काम में व्यस्त हो गया ।
दो माह बाद जब मैं दोबारा रायपुर लौटा तो वहीं मुझे यह ख़बर मिली कि पागलपन की हालत में ही जतन नाहटा ने अस्पताल के कमरे में आत्म-हत्या कर ली थी । पता चला कि एक रात उसने खिड़की का काँच तोड़ कर उस काँच से अपने हाथ की नस काट ली । किसी ने बताया कि अपने अंतिम दिनों में वह किसी मूर्ति वाले भयानक आदमी से बुरी तरह डरा रहता था । उसे पागलपन के भयानक दौरे पड़ते थे ।
यह सुन कर मैं सोचने लगा -- इंसान अपने लिए स्वयं ही सोने-चाँदी की बेड़ियाँ और हथकड़ियाँ बना लेता है । और ऐश्वर्य के कारावास भी । दौलत की हवस आदमी से क्या-क्या नहीं करवाती । वह दूसरों का हक़ मारता है । औरों के हिस्से की धूप , पानी , हवा , आकाश छीनता है । लेकिन अंत में सब कुछ यहीं धरा रह जाता है ।आगे केवल अर्थी होती है । चिता होती है । अस्थियाँ होती हैं । बस ।
नाहटा की ऐसी मौत की ख़बर सुनकर मुझे अफ़सोस हुआ लेकिन बार-बार मूर्ति वाली वह अजीब बात याद आ जाती । इसलिए एक दिन मैं नाहटा की पत्नी वसुंधरा से मिलने उसके बंगले पर पहुँचा । उसकी पत्नी से संवेदना व्यक्त करते हुए मैंने आदिवासी-देवता की उस प्राचीन मूर्ति के बारे में जानना चाहा ।
" वह तो तहख़ाने में पड़ी है । " नाहटा की पत्नी वसुंधरा केवल इतना ही बता पाई । तब मैंने उसे उस मूर्ति के बारे में सारी बात बताई कि कैसे उसे दांतेवाड़ा के एक स्थानीय आदिवासी-गाँव से चुरा कर यहाँ लाया गया था । मैंने इच्छा प्रकट की कि वह मूर्ति वापस उसी आदिवासी-गाँव के निवासियों को सौंप दी जाए जहाँ से वह चुराई गई थी । वह वहाँ के देवता की मूर्ति थी । उस गाँव के आदिवासी उस मूर्ति की पूजा करते थे । यह उनकी परम्परा का अभिन्न अंग था ।
" ले जाइए इसे । हमारे लिए तो यह केवल दुर्भाग्य ले कर ही आई । इसी के कारण इनकी जान चली गई ।" आदिवासी-देवता की वह प्राचीन मूर्ति मुझे सौंपते हुए नाहटा की पत्नी वसुंधरा रोने लगी थी ।
उस मूर्ति को छू कर देखने पर न जाने क्यों मुझे भी ऐसा लगा जैसे वह कोई साधारण मूर्ति नहीं थी । जैसे उसके सीने में दिल जैसा कुछ धड़क रहा था ।
मैंने वह मूर्ति उस गाँव के आदिवासियों को वापस लौटा दी जहाँ पहले की तरह ही अब वे अपने धार्मिक रीति-रिवाजों और परम्पराओं का पालन करते हैं ।
मैंने बहुत प्रयास किया कि जतन नाहटा ने अपना प्लांट बनाने के लिए आदिवासियों की जो दो सौ एकड़ ज़मीन ले ली थी , वह उन आदिवासियों को वापस लौटा दी जाए । दरअसल नाहटा की पत्नी वसुंधरा उस ज़मीन को अपशकुनी मानती थी । इसलिए उसने वह ज़मीन सरकार को वापस लौटा दी । लेकिन नीति-नियंताओं और अधिकारियों ने वह ज़मीन वापस आदिवासियों को देने के एवज़ में मुझसे लाखों रुपए की रिश्वत माँगी । मेरे पास इतने रुपए नहीं थे । इसलिए कुछ नहीं हो सका । अब उस जगह पर एक एक वीरान खंडहर है जहाँ जंगली घास और विषैली वनस्पतियाँ उगती हैं और मच्छर पनपते हैं । लोग बताते हैं कि ढही हुई रातों में जब पीला , खंडित चाँद उस खंडहर पर उगता है तो वहाँ का पूरा दृश्य भुतहा हो जाता है ...
तो यह थी वह अजीब दास्तान , वह त्रासद कथा जो मेरे मित्र भास्कर ने मुझे सुनाई । कभी-कभी मुझे लगता है जैसे उस उद्योगपति जतन नाहटा का पागलपन और उसकी मौत आदिवासी-देवता द्वारा लिया गया बदला थी । आदिवासियों से उनकी ज़मीन छीन लेने का बदला । आदिवासियों की जीवन-पद्धति , परम्पराओं और आस्था पर वार करने का बदला । जैसे वह मूर्ति हिसाब चुका रही थी । पाठको,
सच क्या है , मैं नहीं जानता । इसका फ़ैसला मैं आप पर छोड़ता हूँ । यदि भास्कर की मानें तो --
" पत्थर हो या इंसान , भीतर की आग जब बाहर निकलती है तो यही होता है । "
--
सुशांत सुप्रिय
A-5001,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद -201014
( उ. प्र. )
ई-मेल: sushant1968@gmail.com
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