अपने-अपने संस्कार छुट्टी का दिन था और शाम को सात बजे भारत और आस्ट्रेलिया का ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट मैच होना था. उत्सुकता चरमसीमा पर थी क्यो...
अपने-अपने संस्कार
छुट्टी का दिन था और शाम को सात बजे भारत और आस्ट्रेलिया का ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट मैच होना था. उत्सुकता चरमसीमा पर थी क्योंकि इसी मैच की विजेता टीम को फाइनल में पहुँचना था.
अपनी उत्सुकता के वशीभूत मैच शुरू होने से कुछ मिनट पहले ही मैं टी.वी. लगाकर डबल बेड पर अधलेटा-सा बैठ गया था. गर्मी के दिन थे. मैंने अपनी छोटी बेटी, नित्या, को कहा कि फ्रिज में से मेरे लिए ठंडे पेय की एक बोतल ले आए. मैं पूरा लुत्फ़ उठाते हुए मैच देखना चाहता था.
मगर मेरी हर बात को तत्परता से माननेवाली नित्या उसी तरह खड़ी रही. मैं कुछ पल उसे देखता रहा कि वह बस जा ही रही होगी ठण्डा पेय लेने, पर वह उसी तरह सावधान की मुद्रा में खड़ी रही. इस पर मैंने थोड़ी तेज़ आवाज़ में अपनी बात दोहराई, लेकिन मुझे ऐसा लगा मानो उसने मेरी बात सुनी ही न हो. मैं आगबबूला होकर कुछ कहने की सोच ही रहा था कि वह कहने लगी, ‘‘पापा, ला रही हूँ कोल्ड ड्रिंक. मैच से पहले जन गण मन आ रहा था न.’’
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यार की टॉफी
दफ़्तर के एक सहकर्मी मुझे पितृवत स्नेह देते थे. उन्हें कार्यालय के काम का बहुत अनुभव होने के कारण मैं अपने काम की अनेक समस्याओं की चर्चा अक्सर उनसे किया करती थी, जिनके समाधान वे प्रायः सुझा दिया करते थे.
पिछले दिनों वे सहकर्मी दफ़्तर के टूर पर विदेश गए, तो वापिस आकर उन्होंने मुझे टॉफियों का एक ख़्ाबसूरत डिब्बा दिया जो वे मेरे दो वर्षीय बेटे, चीनू, के लिए लाए थे.
टॉफियों का डिब्बा मैंने घर आकर अपने पति, प्रदीप, और चीनू को दिखाया. फिर हाथ-मुँह धोकर चाय-वाय बनाने के लिए मैं किचन मैं चली गई.
कुछ देर बाद मुझे चीनू के ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ सुनाई दी- कुछ देर तो मैं किचन में काम करती रही, लेकिन जब चीनू का रोना बन्द नहीं हुआ, तो मैं घबराकर उस कमरे की ओर चली गई, जिसमें चीनू और प्रदीप थे.
चीनू न जाने किस बात पर लगातार रोए जा रहा था. मैंने पास ही पड़ा टॉफियों का वही डिब्बा खोला और उसमें से एक टॉफी निकालकर चीनू को दे दी- टॉफी मिलते ही चीनू चुप हो गया और टॉफी चूसने में मग्न हो गया.
तभी प्रदीप बोल उठे, ‘‘देखा, यार की टॉफी का कमाल!’’
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सॉरी
दफ़्तर के कॉरीडोर में तेज़-तेज़ कदमों से चल रहा था. तभी सामने से एक अन्धा व्यक्ति अपनी लाठी से रास्ता टटोलते हुए आगे बढ़ता दिखाई दिया. जल्दबाज़ी में मेरा पैर उस व्यक्ति की लाठी से टकरा गया. तभी वह अन्धा व्यक्ति बोल उठा, ‘‘सॉरी!’’
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धन्यवाद ज्ञापन
मैं बेहद परेशान था. कुछ ही देर पहले मेरी छोटी बहन का फोन आया था कि उसकी बेटी का रिश्ता तय हो गया है और पन्द्रह दिन बाद की शादी की तारीख़ निकली है. माँ-बाप के गुज़र जाने के बाद भान्जी की शादी में भात वगैरह देने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी. यह सोच-सोचकर ही मेरा ख़ून सूख रहा था कि इतना खर्च मैं कैसे उठा जाऊँगा. इसी तनाव के वशीभूत पत्नी से भी झगड़ बैठा था कि उसे घर चलाने का शऊर नहीं है; वह मेरी सारी तनख़्वाह खर्च कर डालती है; और कुछ बचत नहीं होने देती.
तभी मेरी पत्नी ने भेद-भरे स्वर में मुझसे कहा, ‘‘आप चिन्ता मत करिए. मैंने हर महीने थोड़ा-थोड़ा बचाकर पैसा इकट्ठा किया हुआ है. पचासेक हज़ार तो होंगे ही. इनसे काम चल जाएगा.’’
मैं एकाएक हल्का हो आया था मानो सिर पर अचानक आई भारी मुसीबत टल गई हो, मगर तभी मेरा पारा फिर चढ़ने लगा था. गुस्से से भरकर मैं पत्नी पर चिल्लाने लगा, ‘‘हर महीने मुझसे छुपाकर पैसे बचाती रही! कितनी बड़ी धोखेबाज़ हो तुम!’’
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थैंक यू
लोकल बस में मेरे साथ बैठे सहयात्री ने खड़े होकर सफ़र कर रहे एक वृद्ध को सीट दे दी. सीट पर बैठते ही वृद्ध ने सीट पर थोड़ी-सी जगह बनाकर अपने पाँच वर्षीय पोते को भी अपने साथ बिठा लिया. इस पर पोता उस वृद्ध से कहने लगा, ‘‘थैंक यू दादू, सीट देने के लिए.’’
जवाब ने वृद्ध ने कुछ नहीं कहा बस मुस्करा-भर दिया.
तभी उसका पोता कहने लगा, ‘‘दादू, आपने इन अंकल को थैंक यू बोला था क्या सीट देने के लिए?’’
वृद्ध के चेहरे की मुस्कराहट एकाएक ग़ायब हो गई.
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अपनी-अपनी ख़ुशी
आज सुबह दफ़्तर जाने के लिए पति बहुत लेट हो गया था. नाश्ते के साथ पी जाने वाली ठंडी थी. और कोई दिन होता तो वह आसमान सिर पर उठा लेता. चाय का एकाध घूँट पीकर बाही-तबाही बकते और पैर पटकते हुए दफ़्तर चला जाता. मगर आज की ठंडी चाय पति को वरदान की तरह लगी थी. गटगट उसे पीते हुए वह मन-ही-मन बहुत ख़ुश हो रहा था कि चलो एक-डेढ़ मिनट बच गया.
उधर पत्नी भी बहुत ख़ुश थी कि हर रोज़ चाय में कोई-न-कोई नुक्स निकालने वाले पति को आज चाय बहुत अच्छी लगी है, तभी तो शिक़ायत में एक लफ़्ज भी नहीं कहा.
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नाम हरीश कुमार ‘अमित’
जन्म 1 मार्च, 1958 को दिल्ली में
शिक्षा बी.कॉम.; एम.ए.(हिन्दी);
पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
प्रकाशन 700 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. एक कविता संग्रह 'अहसासों की परछाइयाँ', एक कहानी संग्रह 'खौलते पानी का भंवर', एक ग़ज़ल संग्रह 'ज़ख़्म दिल के', एक बाल कथा संग्रह 'ईमानदारी का स्वाद', एक विज्ञान उपन्यास 'दिल्ली से प्लूटो' तथा तीन बाल कविता संग्रह 'गुब्बारे जी', 'चाबी वाला बन्दर' व 'मम्मी-पापा की लड़ाई' प्रकाशित. एक कहानी संकलन, चार बाल कथा व दस बाल कविता संकलनों में रचनाएँ संकलित.
प्रसारण - लगभग 200 रचनाओं का आकाशवाणी से प्रसारण. इनमें स्वयं के लिखे दो नाटक तथा विभिन्न उपन्यासों से रुपान्तरित पाँच नाटक भी शामिल.
पुरस्कार-
(क) चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की बाल-साहित्य लेखक प्रतियोगिता 1994ए 2001ए 2009 व 2016 में कहानियाँ पुरस्कृत
(ख) 'जाह्नवी-टी.टी.' कहानी प्रतियोगिता, 1996 में कहानी पुरस्कृत
(ग) 'किरचें' नाटक पर साहित्य कला परिाद् (दिल्ली) का मोहन राकेश सम्मान 1997 में प्राप्त
(घ) 'केक' कहानी पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान दिसम्बर 2002 में प्राप्त
(ड.) दिल्ली प्रेस की कहानी प्रतियोगिता 2002 में कहानी पुरस्कृत
(च) 'गुब्बारे जी' बाल कविता संग्रह भारतीय बाल व युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा (म.प्र.) द्वारा पुरस्कृत
(छ) 'ईमानदारी का स्वाद' बाल कथा संग्रह की पांडुलिपि पर भारत सरकार का भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, 2006 प्राप्त
(ज) 'कथादेश' लघुकथा प्रतियोगिता, 2015 में लघुकथा पुरस्कृत
(झ) 'राट्रधर्म' की कहानी-व्यंग्य प्रतियोगिता, 2016 में व्यंग्य पुरस्कृत
सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त
पता - 304ए एम.एस.4ए केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56ए गुरूग्राम-122011 (हरियाणा)
ई-मेल harishkumaramit@yahoo.co.in
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