डॉ . भीमराव रामजी अंबेडकर उन चर्चित विभूतियों में से हैं जिन पर अभी तक कई किताबें, लेख, शोधकार्य व समालोचनाएँ आ चुकी हैं। उन पर प्रकाशित अधि...
डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर उन चर्चित विभूतियों में से हैं जिन पर अभी तक कई किताबें, लेख, शोधकार्य व समालोचनाएँ आ चुकी हैं। उन पर प्रकाशित अधिकांश साहित्य में उन्हें सिर्फ दलितों के पैरोकार तक सीमित करके छोड़ दिया गया है। मेरे विचार से यह उनके व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन नहीं है। वे जितने दलितों के हितचिंतक थे, उतने ही प्रकाण्ड अर्थशास्त्री व महत्वपूर्ण राष्ट्रभक्त तथा राष्ट्रनायक भी थे।
एक बड़ी गलत धारणा यह भी प्रचलित है कि अंबेडकर जी को सारे सवर्णों ने ही प्रताड़ित किया या उन्हें सवर्णों से सदा सदा ही प्रताड़णा मिलती रही। जबकि तथ्य यह है कि डॉ. अंबेडकर को उनकी महाविद्यालयीन शिक्षा के समय से ही सयाजीराव गायकवाड़ की ओर से आर्थिक सहायता मिलने लग गई थी। डॉ. अंबेडकर ने भी अपने शोधप्रबंध ‘The Evaluation of Provincial Finance in British India’ के प्रकाशन पर उसे सयाजीराव गायकवाड़ को ही अर्पित किया था।
गांधी-अंबेडकर विवाद पर बोलते समय कई वक्ता निष्पक्ष नहीं रह पाते और गांधी जी को किसी खलनायक की तरह प्रस्तुत करने लग जाते हैं। महात्मा गांधी से उनके वैचारिक मतभेद अवश्य हुए मगर दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति सम्मान था। दुर्भाग्य से उनके बीच के मतभेद के कारण अंबेडकर जयंती पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों व इस दिन प्रकाशित होने वाले अधिकांश लेखों में इस मतभेद के प्रसंग के कारण गांधी जी को दलित विरोधी और अंबेडकर जी को एकमात्र दलित हितचिंतक बताया जाता है। असलियत यह है कि गांधी जी ने दलित वर्ग की एक कन्या का पालन-पोषण अपने घर में अपनी बच्ची के समान किया था, जिसका उल्लेख अंबेडकर ने किया है। विवाद गोलमेज़ परिषद पुणे समझौते के समय दो भूमिकाओं की भिन्नता के कारण बढ़ा था। अंबेडकर जी गांधी जी द्वारा दिए गए ‘हरिजन’ विशेषण व उनके द्वारा स्थापित ‘हरिजन सेवक संघ’ के विरोधी थे। उनका मत था कि उन्हें ‘प्रोटेस्टेंट हिंदू’ कहा जाए। उन्हें ‘हरिजन’ शब्द में राजनीति नज़र आती थी। उनके अनुसार ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना का उद्देश्य ‘to kill the untouchables with kindness’ का था।
मुझे याद है कि कुछ वर्ष पूर्व बैंकनोट प्रेस देवास में आयोजित अंबेडकर जयंती कार्यक्रम में जबलपुर से आए एक वक्ता ने गांधी जी को ‘बुड्ढा’ व दलित विरोधी करार दे दिया था। मैंने तत्कालीन महाप्रबंधक श्री दिलीप गोंडनाले जी को पत्र लिखकर इसका विरोध भी दर्ज़ करवाया था।
गांधी जी, कांग्रेस व डॉ. अंबेडकर के परस्पर संबंधों के बारे में श्रीपाल सबनीस द्वारा निकाले गए निष्कर्ष लक्षणीय हैं। उनके अनुसार “संपूर्ण समता प्राप्त करने के दोनों महापुरुषों के प्रयास परस्पर पूरक रहे।“ डॉ. य. दि. फड़के के अनुसार “अंबेडकर के विभिन्न ग्रन्थों का जो विश्लेषण हुआ है वह मुख्यतः सामाजिक, राजनीतिक, व धार्मिक विषयों के उनके चिंतन का हुआ है। एम.ए., पीएच.डी., व डी.एससी. उपाधि प्राप्त करने के लिए कोलंबिया वि.वि., लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रस्तुत अर्थशास्त्र के उनके प्रबंध की चर्चा किसी ने नहीं की।“ डॉ. अंबेडकर जी का निष्कर्ष था कि “ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले अस्पृश्य आर्थिक दृष्टि से असमान होने के कारण आर्थिक शोषण सहन करते हैं। फिर भी उन्हें सामाजिक बहिष्कार जैसी कुरीतियों का सामना करना पड़ता है। इसलिए उनकी मुक्ति आर्थिक स्वावलंबन में है।“
अंबेडकर जी के जिस कार्य से उनका अखिल भारतीय नेतृत्व निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है वह है संविधान निर्माण का महत् कार्य। हालांकि यह भी सही है कि डॉ. अंबेडकर संविधान के प्रारूप का विश्लेषण करने वाली समिति के अध्यक्ष मात्र थे। संविधान का मूल प्रारूप तो श्री बेनेगल नरसिंहाराव ने तैयार किया था। इतना ही नहीं, संविधान समिति की गठन संबंधी टिप्पणी भी राव ने ही प्रस्तुत की थी। और तो और 1935 के जिस क़ानून के आधार पर स्वतंत्र भारत के जिस संविधान का विचार करना था, उस अधिनियम में प्रस्तावित संघराज्य की कल्पना के बारे में डॉ. अंबेडकर के विचार अत्यंत प्रतिकूल थे। आंध्रप्रदेश सरकार की सेवा में रत पिछड़े, अजा/अजजा के नौकरीपेशा वर्ग द्वारा ‘डॉ. बी.आर. अंबेडकर : उनके विचारों की प्रासंगिकता’ विषय पर आयोजित चर्चासत्र के उद्घाटन भाषण में श्री रंगराजन ने कहा था –“...बाबासाहब को आशंका थी कि यदि जनतंत्र में भी आर्थिक व सामाजिक विषय बहुसंख्यकों के हाथों में सौंपे गए तो संपन्न लोगों की तानाशाही व युगों –युगों के सामाजिक अत्याचार का चिरस्थाईकरण होगा।“ लेखक के अनुसार इस संभाव्यता के विरुद्ध कुछ व्यवस्था की जा सकती थी किंतु संविधान समिति में ‘लिबरल डेमोक्रेट्स’ की संख्या अधिक होने के कारण बाबासाहब कुछ कर नहीं पाए। सबको साथ लेकर चलने की अनिवार्यता के कारण कई बार बाबसाहब को अपने मुद्दे छोड़ने पड़े थे। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ‘महानगर’ के ‘अंबेडकर विशेषांक’ में 13 अप्रैल 1993 को डॉ. य.दि. फड़के ने स्पष्ट रूप से कहा कि बाबासाहब को एक अलग प्रकार का संविधान अभिप्रेत था। यही नहीं संविधान अमल में लाने के तीन वर्ष पश्चात 2 सितंबर 1953 को ही बाबासाहब ने संविधान के बारे
में तीव्र असंतोष व्यक्त करते हुए उसे जलाने की अपनी इच्छा को भरी सभा में प्रकट किया था।
जब भी संविधान पर विवाद या असहमति की कोई बात चलती तो विरोधी कहा करते थे कि संविधान के निर्माता तो आप ही थे। इस पर बाबासाहब का उत्तर होता-; “I did much against my will.’”… I have made the constitution. But I am quite prepared to say that I shall be the first person to burn it out. I do not want it. It does not suit my body.”
धारा 370, जिस पर आज भी एक ज्वलंत मुद्दा बन जाता है, उस पर भी बाबासाहब की असहमति रही थी। आरएसएस स्वयंसेवकों से उनका नित्य संपर्क रहा है। दत्तोपंत ठेंगड़ी ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है कि डॉ. अंबेडकर व डॉ. हेडगेवार की पद्धति अलग-अलग दिखती है, पर दोनों की दिशा एक ही है। दोनों ही समता व समरसता के समर्थक हैं। आरएसएस व डॉ. अंबेडकर के बीच खाई निर्माण करने का प्रयत्न कुछ प्रगतिशील माने जाने वाले लोगों ने किया। यह गलतफहमी उस समय पैदा की गई जब बाबासाहब ने धर्मांतरण की दीक्षा-विधि के लिए नागपुर चुना। इसका खंडन करने के लिए धर्मांतरण के समय प्रमुख भाषण प्रारंभ ही इसके खंडन के साथ किया। उन्होंने नागपुर चुनने का कारण स्पष्ट करते हुए कहा कि बौद्धधर्म के प्रसार का संबंध ‘नाग’ लोगों से रहा है, केवल इसी कारण दीक्षा के लिए नागपुर को चुना है।
अंबेडकर जी को सिर्फ दलित चिंतक व संविधान निर्माता तक सीमित रखना उनके कार्य व व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन नहीं हो सकता। ***
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