रंगमहल की खिड़कियां और मैली हवाएं - प्रबोध कुमार गोविल

SHARE:

जब हम सुबह-सुबह अख़बार के किसी कोने में "दुष्कर्म" की खबर पढ़ते हैं तब हमारी कुंद पड़ चुकी संवेदना इसे आसानी से सह जाने का हौसला दे द...

मेरा फोटो

जब हम सुबह-सुबह अख़बार के किसी कोने में "दुष्कर्म" की खबर पढ़ते हैं तब हमारी कुंद पड़ चुकी संवेदना इसे आसानी से सह जाने का हौसला दे देती है। हम सरसरी तौर पर केवल ये जान लेते हैं कि घटना कहाँ की है,बलात्कार करने वाला कौन था और पीड़िता की आयु क्या थी ?

आज के माहौल में ये आयु कुछ महीनों से लेकर गहन वृद्धावस्था तक कुछ भी हो सकती है। इतना ही नहीं, बल्कि दुष्कर्म जैसा अपराध करने वाला तेरह-चौदह साल के लड़के से लेकर अस्सी साल का वृद्ध तक, कोई भी हो सकता है। कहीं-कहीं इस दुष्कर्म की परिणति नृशंस हत्या अथवा अंग-भंग में भी होती है,और शुरू हो जाता है हमारी न्याय प्रणाली के दायरे में एक ऐसा दुष्चक्र, जो दुष्कर्म की ही भांति ह्रदय-विदारक है। इस चक्र में पैसा, प्रभाव, इच्छा,लोभ, प्रायश्चित, दुश्मनी सब गड्ड-मड्ड हो जाता है।

वैसे एक सच ये भी है कि दुष्कर्म के मामलों में कई झूठे भी होते हैं। कई महज़ अवैध सम्बन्ध होते हैं जो ज़ाहिर हो जाने पर "दुष्कर्म" की श्रेणी में आ जाते हैं। कई प्रतिशोध की आग में तपे रंजिश के ही मामले होते हैं। कहीं-कहीं पीड़िता जिसे दुष्कर्म नहीं मानती उसे उसके विरोध कर रहे अभिभावक दुष्कर्म की संज्ञा दे देते हैं। चंद अपवाद ऐसे भी सामने आते हैं जहाँ लड़के या पुरुष को ब्लैकमेल करके बलि का बकरा बनाया गया हो। अपना कोई कार्य साधने के लिए पहले देह का लालच दिया गया और बाद में इसे दुष्कर्म बता दिया गया। आरोप-प्रत्यारोप का कोहरा असलियत को जल्दी सामने नहीं आने देता।

बहरहाल, जो भी हो, दुष्कर्म किसी समाज के लिए सहज सहनीय नहीं हो सकता। इसकी उपेक्षा या अनदेखी करना मनुष्य का प्रस्तर-युग में लौटना ही माना जायेगा।

आइये देखें, किसी पुरुष शरीर में इस दावानल की चिनगारियाँ "कहाँ शुरू-कहाँ खत्म"होती हैं।

प्रायः आठ-नौ साल तक के बच्चे सेक्स के बारे में कुछ नहीं जानते। वे सहज भाव से बच्चे ही होते हैं और अपने या किसी अन्य के शरीर की किसी जटिलता से परिचित नहीं होते। इसके बाद उनमें कुछ परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं। इनमें कुछ बातें वे सूंघ-जान कर स्वयं महसूस करने लगते हैं तो कुछ दबे-छिपे ढंग से उन्हें बताई भी जाने लगती हैं। इस समय शरीर के परिवर्तनों को वे बड़े ध्यान और कौतुक से देखते हैं। पहला परिवर्तन उन्हें दिखता है कि लिंग के ऊपरी भाग में छोटे-छोटे चमकीले बाल उगने लगते हैं। इनके चलते वे कुछ- कुछ संकोची होने लगते हैं। दूसरों के सामने नंगे रहने या कपड़े बदलने में उन्हें झिझक होने लगती है। वे स्वयं लड़कियों से, या लड़कियां उनसे एक अदृश्य दूरी सी बनाने लगते हैं। जो माँ अब तक अपने हाथ से मल-मल कर उन्हें नहलाया करती थी वह अब कहने लगती है- "अपने आप नहा कर आओ।"
अपने काम अपने आप करने को कहा जाता है। ये बात लड़कों को एक अजीब तरह का आत्म-विश्वास भी देने लगती है। इसी उम्र में बच्चे यदा-कदा बड़ों के बीच उठने-बैठने या माता-पिता से कुछ समय अलग रहने का अवसर भी पाने लग जाते हैं। हमारा सामाजिक ताना-बाना कुछ इस तरह का है कि अपनों से हट कर बच्चे जब दूसरों के संपर्क में भी आने लग जाते हैं तो उनके सामने दुनिया की कई मायावी परतें खुलने लगती हैं। लड़के बड़ों को गाली देते सुनते हैं और अपने अवचेतन में ये भी समझने लगते हैं कि सभी गालियां या अपशब्द महिलाओं के ही विरुद्ध हैं। ये बात उनमें एक उद्दण्ड संरक्षा का भाव जगा देती है। बहुत से बच्चे स्वयं भी गालियां देना सीख जाते हैं और ये भली प्रकार से समझने लगते हैं कि ये शब्द नारी जाति की अस्मिता को ही क्षति पहुँचाने वाले हैं, इनसे खुद उन्हें किसी तरह का नुकसान नहीं है। यही कारण है कि इस आयु से जहाँ अधिकांश लड़कियां लाज-संकोच से झुकना सीखने लगती हैं, वहीँ लड़के प्रायः लापरवाही से उच्श्रृंखल होना सीखने लगते हैं।

उम्र का एक दशक पार करते-करते लड़कियों में मासिक स्राव [मासिक धर्म] शुरू होने लगता है जो उनमें हमउम्र लड़कों की तुलना में एक हीनता-बोध भरने लगता है। साथ रहने पर वे कभी-कभी लड़कों के हंसी-मज़ाक का कारण भी बनने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप उनसे दूर छिटकने लगती हैं। ऐसे समय बहन तक भाई से दूरी बनाने लगती है। यही बात लड़कों को अपने दोस्तों के और करीब करती है तथा उनके सामने संगति की एक अनजानी बिसात बिछने लगती है। शालीन और भली संगति पाकर लड़के एक ओर जहाँ संजीदा होने लगते हैं, वहीं लापरवाह व बिगड़ी संगत से वे आवारगी में भी पड़ने लगते हैं। नशों के प्रति जिज्ञासा,सस्ते अपशब्द-युक्त बोल, लड़कियों पर फ़िकरे या फब्तियां कसने आदि की शुरुआत यहाँ से होने लगती है और ध्यान न दिए जाने पर किशोर से शोहदा बनते उन्हें देर नहीं लगती। तेरह-चौदह साल की आयु में उनके सामने जीवन का एक नया अध्याय खुलने लगता है जब उन्हें जाने-अनजाने पता चलता है कि उनके लिंग में एक सुखद कड़ापन उगने लगा है। इस स्थिति को वे बेचैनी और आनंद के मिले-जुले अनुभव से स्वीकारते हैं।


यहीं उनके अब तक के संस्कार काम करते हैं। कुछ लड़के इस तिलिस्म की अनदेखी करके पढ़ाई , खेल, कैरियर और रिश्तों के गणित में अधिक ध्यान देने लगते हैं, जबकि कुछ लड़के बदन की इस विचित्रता की परत-दर-परत पड़ताल करने के मोह में पड़ जाते हैं। कुछ समय गुज़रता है कि उन्हें अपने अंग के इस कड़ेपन का कारण भी पता लगता है और वे शरीर में "वीर्य" बनने की प्रक्रिया से वाकिफ़ हो जाते हैं। इस समय जो बच्चे अभिभावकों-परिजनों के साथ रहते हैं वे इस ओर से आसानी से ध्यान हटा कर इसे शरीर की सामान्य प्राकृतिक क्रिया मानने लग जाते हैं। मित्रों से घिरे रहने वाले बच्चे इस स्थिति से घबराते नहीं, उन्हें अपनी शंकाओं-समस्याओं का सहज पारस्परिक समाधान मिल जाता है। जबकि अकेले या अपरिचितों के बीच रहने वाले बच्चे "हिट एन्ड ट्रायल" से ही हर बात का जवाब पाते हैं और कभी-कभी अस्वाभाविक यौन-व्यवहार के चक्रव्यूह में भी घिर जाते हैं। लड़कों को तेरह से पंद्रह वर्ष की आयु के बीच अपने वीर्यवान होने का पता प्रायः निम्न कारणों से चलता है।

1. हमउम्र या कुछ बड़े मित्रों से सुन कर।

2. पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर।

3. कभी-कभी फ़िल्म, टीवी या वास्तविकता में कोई दृश्य या व्यक्ति हमें आकर्षित करता है, और अवचेतन में बैठा ये दृश्य नींद में आकर हमें उत्तेजित करता है। तब नींद में ही इस उत्तेजना से मुक्त होने के लिए हमारे शरीर से वीर्य स्खलित होता है। यह अधिकांश लोगों के साथ होने वाली सबसे ज्यादा स्वाभाविक क्रिया है। प्रकृति हमारे जीवन के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर हमें ऐसे ही लाती है। ऐसा होते ही, या तो हमें गहरी नींद के कारण इस घटना [क्रिया] का पता तत्काल नहीं चल पाता है,या फिर हमारी आँख खुल जाती है। हम महसूस कर पाते हैं कि ऐसा होते ही शरीर ने एक अदम्य सुख हासिल किया है। अब ये किसी भी किशोर या नवयुवक की परीक्षा की घड़ी होती है। जिन किशोरों को गहरी नींद में इस क्रिया का पता नहीं चल पाता उन्हें भी सुबह अपने अंतर्वस्त्र पर वीर्य के दाग देख कर इसका पता चल जाता है। जिन बच्चों को इस बारे में बिलकुल ज्ञान नहीं होता वे इसे कोई रोग मान कर चिंतित होते भी देखे जाते हैं।

कुछ लड़के इस पर खास ध्यान नहीं देते और फिर ये घटना समय-समय पर थोड़े अंतराल से उनके साथ घटने लगती है। इसे नाम तो "स्वप्नदोष" दिया जाता है पर ये कोई दोष न होकर एक प्राकृतिक क्रिया है जो सभी के शरीर में होती है। ऐसा कितने अंतराल पर होगा, ये इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी दिनचर्या कैसी है, आपकी संगति कैसी है,आपका खानपान और रहन-सहन कैसा है। वैसे तो सभी को साफ़-सफ़ाई से रहने की सलाह विद्यालयों में दी ही जाती है किन्तु इस अवस्था में शरीर के इन ढके रहने वाले अंगों की स्वच्छता बहुत ज़रूरी होती है। जो लड़के लिंग की सफाई का ध्यान खासकर वीर्य-स्खलन के बाद नहीं रखते उनके लिंग की बाहरी चमड़ी के चारों ओर यह सफ़ेद पदार्थ जम कर चिपक जाता है।यह रात को सोते समय लिंग की त्वचा पर हल्की मीठी सी खाज पैदा करता है और नींद में ही हाथ इसे खुजाने-सहलाने लगता है। इस क्रिया में अभूतपूर्व आनंद मिलता है और अधिकांश लड़के इसे लगातार खुजाने की आदत में पड़ जाते हैं। परिणाम ये होता है कि इससे लिंग फिर उत्तेजित हो जाता है और लगातार यही क्रिया करते रहने पर वीर्य निकल जाता है। इस तरह यह चक्र एक सिलसिलेवार ढंग से शुरू हो जाता है। इसे ही "हस्तमैथुन" कहते हैं। यह भी एक स्वाभाविक क्रिया है पर इस पर थोड़ा ध्यान देकर नियंत्रण रखा जा सकता है। यह चक्र किस अंतराल से होगा, यह बात और बातों के साथ-साथ प्रत्येक के लिंग की बनावट पर भी निर्भर होती है।

इस तरह एक लड़के के लगभग सोलहवें साल में पड़ते ही वीर्य का यह नियमित चक्र शुरू हो जाता है। इसका अंतराल तथा निष्कासन विधि ही हमारे भविष्य के यौन व्यवहार को निर्धारित करते हैं। वैसे तो यह एक सर्वव्यापी, सर्वकालिक नैसर्गिक प्रक्रिया है, लेकिन क्योंकि कुछ देशों [ जिनमें भारत भी है] में यौन व्यवहार को "चरित्र" से जोड़ कर देखा जाता रहा है, इसलिए इसे तरह-तरह से नियंत्रित व अनुशासित करने के सार्वजनिक, सांस्कृतिक और क़ानूनी प्रयास भी किये गए हैं।

कोई कानून ये तय नहीं कर सकता कि कोई व्यक्ति प्रतिदिन कितना मल-मूत्र,थूक, छींक या दूषित वायु निकालेगा , किन्तु कानून या समाज ये ज़रूर निर्धारित कर सकता है कि देश के सामाजिक ताने-बाने के अधीन ये सब कहाँ, किस तरह निकाला जाए कि अन्य नागरिकों की सुविधा-असुविधा प्रभावित न हो। कुछ बातें सामान्य शिष्टाचार के अंतर्गत रख कर नियंत्रित की जाती हैं, कुछ कानून के सहारे। वीर्य उत्पादन तो हरएक शरीर का अपना मामला है किन्तु वीर्य निष्पादन के लिए कानून इस तरह बीच में आता है।

1. किसी बच्चे के साथ यौनाचार, अश्लील वार्तालाप या अश्लील क्रियाकलाप पूर्णतः वर्जित और दंडनीय है।

2. अठारह साल से पहले लड़की और इक्कीस साल से पहले लड़के का विवाह करना गैर-क़ानूनी है।

3. समलिंगी यौनाचार अथवा अप्राकृतिक मैथुन को भी विधिक दृष्टि से प्रतिबंधित किया गया है, जिसमें पशुओं के साथ यौनिक क्रियाकलाप भी वर्जित है।
4 . किसी भी आयु में किसी भी आयु की महिलाओं के साथ उनकी सहमति के बिना बनाए गए शारीरिक सम्बन्ध को भी "दुष्कर्म" की श्रेणी में रख कर दंडनीय बनाया गया है।

उपर्युक्त प्रावधान पंद्रह वर्ष की आयु के बाद लड़कों में वीर्य निष्कासन के निम्न विकल्प ही छोड़ते हैं-

1. स्वप्नदोष 2. हस्त मैथुन [एकल अथवा सहयोगी या सामूहिक]
एक तीसरा विकल्प शास्त्रीय पद्धति पर आधारित "ब्रह्मचर्य" भी है, जो अत्यन्त कठिन, अव्यावहारिक तथा अनाकलनीय है। दूसरी ओर प्रकृति ने पुरुष शरीर से वीर्य निकलने की निम्न तथ्याधारित व्यवस्था बनाई है-

1.नारी शरीर के संसर्ग से

2 . उत्कट प्रेम के वशीभूत किसी के भी साथ वास्तविक/ काल्पनिक संसर्ग से

3 .यौन दृश्य देखकर या लैंगिक आकर्षण से स्वतः स्खलन और शीघ्र पतन आदि से

4 . अपशब्द उच्चारण या अश्लील वार्तालाप से |

मनुष्य की सामान्य प्रकृति के आधार पर तीन तरह की सोच वाले पुरुष प्रायः होते हैं-

१. जो वयस्क होने के बाद समाज और कानून की मान्यताओं और प्रतिबंधों का आदर करते हैं।

२. जो निजी अनुभवों और परिस्थितियों के दबाव में मान्यताओं व प्रतिबंधों का पालन करते हुए दिखाई तो देते हैं, किन्तु अपने बचाव की पर्याप्त सावधानी रखते हुए इन्हें तोड़ने के जोखिम लेने का साहस भी करते हैं।
३. जो समाज और कानून की अवहेलना व उपहास करते हुए खुले-आम इनके विपरीत आचरण करते देखे जा सकते हैं।

सेक्स और वीर्य निष्पादन को लेकर भी 15 से 25 वर्ष की आयु [ विवाह न होने, अथवा सफल विवाह न होने पर अधिक भी] के लड़के और पुरुष इन्हीं स्थितियों में विचरते देखे जा सकते हैं। ऐसे में यौनाचार की आदतों को लेकर भी उन्हें इन वर्गों में रखा जा सकता है-

1. ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, निष्ठ, प्रतिबद्ध और निष्काम भाव से जीवन यापन करने वाले।

2. नैतिकता और कानून के दायरे में रहकर हलके-फुल्के यौनाचार अथवा अश्लील साहित्य,यौन चर्चा,स्पर्श-सुख, कच्ची उम्र के वासना-आधारित क्रिया-कलापों या अस्थाई / काल्पनिक प्रेम-सम्बन्धों के सहारे समय काटने वाले।
3. नशे, कामुकता और समाजद्रोह की प्रवृत्ति के सहारे खुले-आम उच्श्रृंखल,अराजक, अमानवीय जीवन बिताने वाले।

4. दोहरी मानस-वृत्ति वाले वे सामान्य लोग जो समय-सुविधा-सुरक्षा के कमज़ोर क्षणों में अपवाद और अपराध-स्वरुप अनैतिक यौनाचार कर बैठते हैं।
5. अशिक्षित/अपशिक्षित/कुशिक्षित वे अंधविश्वासी लोग जो वास्तव में गुप्त-रोगों से ग्रसित ही नहीं होते बल्कि वे विभिन्न भ्रांतियों से ग्रसित भी होते हैं। इनके चलते वे कभी-कभी समाजकंटक भी बन जाते हैं।

समय-समय पर दुष्कर्म अपराधियों पर हुए अध्ययन और सर्वे बताते हैं कि प्रायः "दुष्कर्म" के निम्नांकित कारण सामने आये हैं-

1. विवाह करने की पर्याप्त क्षमता और इच्छा होते हुए भी किसी न किसी कारण से विवाह न हो पाना और लम्बे समय तक कुंठा-ग्रस्त जीवन बिताने पर विवश होना।

2. अकस्मात परिस्थिति-वश इसकी सुविधा या सहयोग का मिल जाना।

3. नशों की गिरफ्त के साथ-साथ कुसंगति से इसके लिए उकसाया जाना।

4. आपसी रंजिश में हताश होकर प्रतिशोध की भावना मन में आ जाना।

5. जीवन-शैली में व्याभिचार का आदी हो जाना।

6. महिलाओं द्वारा उकसा दिया जाना अथवा चुनौती-स्वरुप ललकारा जाना।

7. सफ़ेद-पोश रईसों द्वारा पैसा देकर दुष्कर्म करवाया जाना।

8. एकतरफ़ा प्रेम के कारण विवाह की सम्भावना सुनिश्चित करना।

9. महिला की सहमति से अनैतिक सम्बन्ध बनाना किन्तु किसी के द्वारा देख लिए जाने या आपत्ति किये जाने पर मामले का दुष्कर्म में बदल जाना।

10. पाखंडी, तंत्र-मंत्र करने वालों द्वारा अन्धविश्वास पूर्ण भ्रांतियों से उकसाया जाना।

11. नीम-हकीमों द्वारा गुप्त-रोगों के इलाज स्वरुप ऐसा करना बताया जाना।

12. असहाय या लालची महिलाओं द्वारा छल-कपट से स्वयं को संसर्ग हेतु प्रस्तुत किया जाना, तथा बाद में बात से पलट जाना।

13. लम्बे समय तक वैवाहिक संतुष्टि न मिलना।

14. सैनिकों-कैदियों-पुलिस कर्मियों द्वारा क्षणिक आक्रामक भावना के वशीभूत ऐसे कृत्य कर देना।

15. "खुले में शौच" की सामाजिक विवशता भी कभी-कभी इसका कारण बन जाती है जब एकांत मिलते ही गुप्तांगों को देख कर वासना का ज्वार उमड़ पड़ता है।

कभी-कभी समाज के व्याख्याकारों द्वारा कुछ हास्यास्पद कारण भी दिए जाते हैं जैसे महिलाओं की पोषाक का उत्तेजक होना,उनका देर रात पार्टियों में आना-जाना आदि। किन्तु इन कारणों को पूर्णतः सत्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि दुष्कर्म की प्रवृत्ति दुष्कर्म करने वाले के भीतर से उपजती है, "लक्ष्य" के भीतर से नहीं। यह कहना ठीक ऐसा ही है कि यदि "हम अपना पर्स कहीं खुला छोड़ देंगे तो चोरी हो ही जाएगी"। वस्तुतः चोरी तभी होगी जब वहां कोई "चोर" होगा, अन्यथा पर्स आपको ढूंढ कर लौटा दिया जायेगा। अशिक्षित समाज में फैली कुछ भ्रांतियां भी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं, जैसे- "लड़की के रजस्वला होने से पूर्व उसके साथ यौन सम्बन्ध बनाने से लिंग पुष्ट होता है और शीघ्रपतन जैसे रोग ठीक होते हैं। अथवा जिस योनि में मित्र ने संसर्ग किया है,तत्काल उसी में सम्भोग करने से मित्रता गहरी और जीवन-पर्यन्त रहती है।" ऐसी निराधार और भ्रामक बातें आज सामूहिक दुष्कर्म को प्रोत्साहन दे रही हैं |

उम्र के यौन ज्वार को संतुष्ट करने अथवा इससे बचने के लिए भारत जैसे विशाल जनसँख्या वाले देश में प्रायः कुछ स्थितियां सहायक होती हैं। यथा-

1. मेलों, मंदिरों, धार्मिक/सामाजिक/राजनैतिक आयोजनों में होने वाली बेतहाशा भीड़ शरीरों को नैसर्गिक रूप से आवश्यक दृष्टि सुख और स्पर्श सुख तो दे देती है, साथ ही आप पर नैतिक, धार्मिक,सामाजिक नियंत्रण भी स्थापित रहता है।

2. शहरों का असीमित फैलाव और वाहनों की बेहद सुविधाजनक बढ़ोतरी आपको अपने परिजनों से दूर व निरापद रख कर अपने साथी के साथ समय बिताने का अवसर दे देते हैं।

3. पढ़ाई, व्यापार और नौकरी के लिए अपने मूल स्थान से दूर इधर-उधर रहना व अपरिचितों से मिलना भी यौन व्यवहार के पर्याप्त मौके दे देता है।

लेकिन सच ये भी है कि यही परिस्थितियां स्वच्छन्द-निरंकुश शरीर सम्बन्धों का अवसर और आदत भी देती हैं। ऐसे में यौन वर्जनाओं का टूटना चरमराना सामने आता रहता है। व्यवस्था [पुलिस, प्रशासन,कानून] का दिनोंदिन वस्तुनिष्ठ,तकनीक आधारित और मीडिया-मुखर होता जाना भी ऐसे मामलों को बेवजह तूल देता है। इसे एक फिल्म के एक संवाद-प्रकरण से समझा जा सकता है, जहाँ फिल्म की नायिका तलाक लेने के लिए अपने पति की शिकायत कोर्ट में करने के उद्देश्य से वकील के पास आई थी। सारी बात सुन कर वकील ने कहा-"तुम उस पर मारपीट करने का आरोप भी लगाना।" नायिका तत्काल बोली-"नहीं-नहीं, इन्होंने मुझ पर हाथ कभी नहीं उठाया !" तब बुजुर्ग वकील ने कहा-"बेटी, ये तुम्हारा पहला तलाक केस है,पर मेरा एक सौ पचासवां तलाक केस है, जैसा कहता हूँ वैसा करो।" ये फ़िल्मी-उद्धरण है, पर ऐसे वाक़यात आज आम जीवन में घटना कोई अनोखी बात नहीं है। हो सकता है कि आज के व्यावसायिक मीडिया के लिए तिल का ताड़ बनाना धंधे की मज़बूरी हो, किन्तु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी सभ्य-सुसंस्कृत-सित समाज में "तिल" को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता, क्योंकि आज का बीज ही कल का झाड़ है। साधारणतया ये कहा जा सकता है कि निम्नांकित कदम समाज में सेक्स बर्ताव को कुछ हद तक नियंत्रित रखते हुए दुष्कर्म जैसी प्रवृत्तियों को कम कर सकते हैं। जैसे-

1.मिडल स्तर की स्कूली शिक्षा के दौरान लड़के और लड़कियों को शरीर के परिवर्तनों और इनके कारण होने वाले प्रभावों को भली प्रकार समझा दिया जाना चाहिए।

2. स्कूल/कॉलेज/नौकरी/व्यापार/भ्रमण आदि के सिलसिले में यह प्राथमिकता से प्रयास किया जाना चाहिए कि लड़के या लड़कियां समूह में रहें और यथासम्भव अकेले रहने से बचें।

3. नशे के खरीद-बिक्री केंद्र आबादी से पर्याप्त दूर रखे जाएँ तथा इनके कारोबार/उपभोग आदि की प्रक्रिया पारदर्शक/ तकनीक सुविधा[कैमरा इत्यादि] आधारित तथा पर्याप्त नियंत्रण में हो।

4. आध्यात्मिक/तंत्र-मंत्र से जुड़े व्यक्ति/संस्थान भी पंजीकरण व नियंत्रण की सीमा में हों।

5. जिस प्रकार स्वच्छ्ता हेतु पीकदान/मूत्रालय/धूम्रपान आदि की पर्याप्त व्यवस्था की जाती है,ठीक उसी प्रकार समाज द्वारा अविवाहितों के मासिक धर्म या वीर्य निष्कासन को भी स्वाभाविक प्राकृतिक क्रिया मान कर इनके संसाधन व स्थान का पर्याप्त ध्यान रखा जाये।

6. अविवाहितों के समलैँगिक सम्बन्धों को अपराध की श्रेणी से बाहर रखा जाये।
7. विधवा/विधुर व्यक्तियों की समस्या पर पर्याप्त कदम-आयुर्वेदिक औषधियों/योग/टीकाकरण/वन्ध्याकरण आदि की सहायता से सहयोगी आधार पर उठाये जाएँ।

8. उत्तेजित करने वाले साधनों /साहित्य/मनोरंजन पर पर्याप्त अंकुश रखने की कोशिश की जाये।

9. दुष्कर्म और छेड़छाड़ के मामलों की त्वरित सुनवाई की कारगर व्यवस्था हो और दोषियों को सख्त सजा पर्याप्त प्रचार और प्रताड़ना के साथ देने का प्रावधान हो, ताकि समाज में इसे किसी भी कीमत पर सहन न किये जाने का सन्देश प्रचारित हो।

यदि इन क़दमों को पर्याप्त ईमानदारी के साथ उठाया जाता है तो दुष्कर्म जैसी समस्या से काफ़ी हद तक बचा जा सकता है।

यहाँ ध्यान देने की बात ये भी है कि आपसी सहमति से बने प्रेम सम्बन्धों को बाद में किसी भी कारण से दुष्कर्म मानने से भी हमें बचना होगा। अन्यथा इस पर रोक लगाने का कोई सटीक जरिया नहीं रहेगा।

एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात और है। कानून व प्रशासन के स्तर पर जिस तरह बाल-विवाह की रोकथाम के लिए कई उपाय किये जाते हैं उसी तरह एक आयु के बाद विवाह न होने की स्थिति पर भी कड़ा नियंत्रण रखने की ज़रूरत है। व्यक्ति जवाबदेही से बताये कि उसका विवाह न होने अथवा न करने का कारण क्या है और वह व्यक्ति भी कारण सहित पंजीकरण की सीमा में आये।
हमें प्रेम और वासना को अलग-अलग रखना होगा, तथा परिभाषित करना होगा, "दुःख-बेकारी-कलह-कलेश-नाकारगी" व्यक्ति के प्रेम करने की प्रवृत्ति को रोक सकते हैं किन्तु वासना को परिचालित होने से नहीं रोक सकते। वासना भावना का प्रश्न नहीं है, यह शरीर की ज़रूरतों से जैविक स्तर पर जुड़ा मामला है, दुष्कर्म इसी से प्रभावित और संचालित होते हैं।

भारत जैसे देश के समाज में विवाह न होने के प्रायः कई कारण होते हैं,यथा-
1. लड़कियों के मामले में अभिभावकों के पास पर्याप्त संसाधन या धन न होना, लड़कों के मामले में अत्यधिक धन के लालच-लालसा में विवाह की आयु गुज़र जाना, फिर इसके लिए कोई उत्सुकता शेष न होना।

2. बौद्धिक या अत्यधिक आधुनिक जीवन शैली के चलते भावी जीवन साथी तलाश करने में अनायास वक़्त गुज़र जाना।

3. किसी शारीरिक कमी के कारण विवाह करने से बचना।
4. बहुत अधिक कैरियर-महत्वाकांक्षी होना, जिसमें विवाह की अनदेखी हो जाना।
5. कुंडली नक्षत्र /अंधविश्वासों को लेकर बेहद दकियानूसी विचारों का होना।
6. आर्थिक लाभ के लिए अपने आश्रितों द्वारा ही विवाह में रोड़ा अटकाना।
7. विवाह संस्था में विभिन्न विपरीत अनुभवों के कारण विश्वास न होना।
8. किसी दुखद घटना से उपजा अवसाद भी विवाह में रूचि न होने का कारण बन सकता है।

वस्तुतः विवाह शारीरिक और मानसिक आनंद के साथ सामाजिक उत्तरदायित्व तथा संतान के लालन-पालन की ज़िम्मेदारियाँ भी लाता है, इसलिए व्यवस्थित तरीके से इसका होना किसी समाज को पर्याप्त अभिरक्षा देता है, किन्तु इसका अभाव समाज को वे ख़तरे भी देता है जो स्वच्छन्द यौनाचार एवं दुष्कर्म जैसी घटनाओं में बदलते हैं।

यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि तमाम सावधानियों व प्रयासों के बावजूद यदि दुष्कर्म जैसी घटना घट ही जाती है तो उसके बाद पीड़ित और आक्रान्ता के साथ क्या बर्ताव किया जाये कि समाज की व्यवस्थाएं चरमरायें नहीं।
जबरन यौन आक्रमण के पीड़ित व्यक्ति [लड़की या लड़का जो भी हो] के पुनर्वास व यथाजीवितता की माकूल कोशिश की जानी चाहिए, जिसमें शारीरिक क्षति की चिकित्सा, आर्थिक सम्बल, भविष्य के प्रति संरक्षा और जिन कारणों से आक्रमण हुआ उनका निराकरण आदि शामिल है। मुआवज़ा पुनर्स्थापन भी इसमें सहयोगी हैं।

दुष्कर्मी के प्रति निम्नलिखित कठोर क़दमों का अपनाया जाना आवश्यक है-

दुष्कर्म करने वाले को दो तरह से देखना होगा,एक इस रूप में कि वह भविष्य में किसी के लिए भी ऐसा करने का कारण या प्रेरक न बने,दूसरे उसके अपने जीवन को भी असामाजिक तत्व बनने से रोका जा सके।
कुछ लोग यह सुझाव देते हैं कि ऐसा करने वाले व्यक्ति को नपुंसक बना कर भविष्य में यौनाचार करने के काबिल ही न छोड़ा जाये। किन्तु इस उपाय में यह खतरा निहित है कि यौनाचार से वंचित किया गया व्यक्ति अन्यथा हिंसक व असामाजिक सिद्ध हो सकता है। यदि फाँसी जैसे कठोर दण्ड से उसका जीवन समाप्त किया जाता है तो यह उस पर आश्रित अन्य परिजनों के साथ अन्याय व उनमें प्रतिशोध की भावना जगाने का कारण बन सकता है। यह मानव अधिकार का प्रश्न भी है। हम किसी प्राकृतिक कृत्य के लिए किसी के जीवन को समाप्त करने की सजा को उचित नहीं मान सकते। क्या किसी को छीन कर खा जाने या बिना पूछे खा जा जाने पर मृत्युदंड देना उचित होगा?

जब हम आदमी की तन-लीला और कानून के दायरे की बात करते हैं तो एक बात और हमारे सामने आती है। प्रत्येक मनुष्य शारीरिक दृष्टि से नर और मादा गुण-अवगुण का मिश्रण है।

सौ प्रतिशत पुरुषार्थ वाला न कोई पुरुष है और न ही शत प्रतिशत नारी गुण-सम्पन्न कोई महिला है। पुरुषत्व और नारीत्व का यह सम्मिश्रण हमारे शरीर और मानस में किस अनुपात में विद्यमान है उसी से हमारा व्यक्तित्व बनता है। आप वेट-लिफ्टिंग करती महिलाओं को भी देख सकते हैं और पुरुष पुलिस अधिकारी को "राधा" वेश में घूमते भी पा सकते हैं।

प्रायः लगभग आधे से अधिक प्रतिशत "व्यक्तित्व-तत्व" ये तय करते हैं कि आप क्या हैं। समाज का एक बड़ा वर्ग 'ट्रांसजेंडर्स' का भी है। किन्तु कानून के दायरे में बनने वाले परिवार की व्याख्या ये कहती है कि एक पुरुष और एक स्त्री मिल कर एक परिवार बनायें।

वास्तविकता ये है कि समाज के लगभग छः से सात प्रतिशत लोग नहीं जानते कि वे क्या हैं, अथवा जानते भी हैं, तो भी वे ये नहीं तय कर पाते कि वे जीवन में किस तरह से रहना चाहते हैं। दो पुरुष या दो स्त्रियाँ भी अवचेतन में जीवन-भर साथ रहने की लालसा पाले रख सकते हैं।

अपवाद स्वरुप ऐसे लोगों को जब अपने मनोवांछित सम्बन्ध से इतर सम्बन्धों के साथ रहने की चुनौती सहनी पड़ती है तो वे-
-लगातार असंतुष्ट रह सकते हैं।

-अवसाद में जीने या आत्महत्या करने जैसे कदम उठा सकते हैं।
-यौनाचार में अतिरिक्त हिंसक या निष्क्रिय हो सकते हैं।

-"दुष्कर्म" जैसा कदम क्षणिक भावना के वशीभूत उठा सकते हैं।
कानून घटना घट जाने के बाद इनके लिए सजा मुक़र्रर कर सकता है किन्तु इन्हें रोक नहीं सकता।

इन 6-7 प्रतिशत लोगों के "होने" के कारण कई हो सकते हैं-

1. शारीरिक / अनुवांशिक कमी या बनावट

2. स्त्री या पुरुष के रूप में लगातार असफलताओं से स्त्री का स्त्री के ही साथ रहना या पुरुष का पुरुष के ही साथ रहने की कामना करना [ मनोरोग की हद तक भी हो सकता है, और सामान्य आदत की तरह भी]

3. विकासशील देशों में विपन्नता की स्थितियों/ बढ़ती आबादी से घबरा कर कुछ लड़के महिलाओं से शारीरिक सम्बन्ध बनाने में कतराने लग जाते हैं और समलिंगी हो जाते हैं। ठीक ऐसा ही स्त्रियों के साथ भी होता है जब वे स्त्री की गर्भ-धारण प्रक्रिया को दहशत से देख कर इससे भयभीत होने लगती हैं और फलस्वरूप लड़कों से संसर्ग करना ही नहीं चाहतीं। वे प्रसव पीड़ा को सजा की तरह देखती हैं।

ऐसे लोग भी कभी न कभी परिस्थितिवश दुष्कर्म के पीड़ित या आक्रान्ता के रूप में सामने आ सकते हैं।

वैसे तो दुनिया बनने के समय से ही औरत और पुरुष एक दूसरे के साथ, एक दूसरे के लिए और एक दूसरे के वास्ते ज़रूरी रहते आये हैं, किन्तु आधुनिक समाज में "सहमति के बिना संसर्ग" एक बड़ी समस्या बन कर उभर रही है। क़ानून की भाषा में हम जिसे "दुष्कर्म" कह रहे हैं, वे एकाएक बढ़ता दिखाई दे रहा है तो इसलिए, क्योंकि –

1. वर्षों तक हमारा समाज पुरुषवादी सोच और व्यवस्था से चलता रहा है, अतः, ऐसे में यदि पहले भी स्त्री की असहमति [अर्थात दुष्कर्म ही हुआ] रहती रही होगी तो वह सामने नहीं आती होगी, क्योंकि उसका कोई मोल नहीं था।

2. आज संचार के माध्यम और मीडिया का दायरा व्यापक है जिससे घटनाएं तुरंत सामने भी आ रही हैं और दर्ज़ भी हो रही हैं।

3. आज के समाज में औरत और पुरुष बराबर के स्तर पर आर्थिक चक्र में शामिल हैं, जिससे औरतें घर-परिवार से बाहर निकल कर अजनबियों के संपर्क में आ रही हैं।

4. एक कड़वा सच ये भी है कि बौद्धिक-स्तर पर जीना सीखने की कोशिश में महिला-पुरुष के बीच में परस्पर प्रेम-सौहार्द्र-सहिष्णुता के स्थान पर संदेह-टकराव-अहम-प्रतिशोध कुछ अधिक मात्रा में दिखाई दे रहे हैं।

5. आज के समाज में औरत और आदमी के "कार्य" फिर से परिभाषित हो रहे हैं और उनकी पुनर्व्याख्या हो रही है। इससे पुरुषों को लगता है कि स्त्रियां "लाभ" की स्थिति में जा रही हैं। यह बात उनमें महिलाओं के प्रति घृणा भर रही है।

जबकि महिलाओं को लगता है कि उनके पास नए दायित्व तो आ रहे हैं पर पुरानी ज़िम्मेदारियाँ हट नहीं रहीं।इस से उनके मन में पुरुषों का आदर घट रहा है।

6. यदि संसर्ग या सम्भोग के सामाजिक-पारिवारिक प्रभावों को छोड़कर केवल शारीरिक प्रभाव की बात करें,तो यहाँ भी परस्पर संवेदनाएं दिनोंदिन आहत होती दिखाई देती हैं। आत्मनिर्भरता से जीती स्त्री पुरुष को "भोग्या" होने का स्वाद नहीं देती। उसका आधुनिक रहन-सहन, पहनावा, बोलने-चालने का अंदाज़ पुरुष के अहम को अवचेतन में नहीं लुभा पाता। वह केवल समझौते के स्तर पर ही उसे सहन करता है। यह बात स्त्री को खा कर भी भूखा उठने का सा अहसास देती है।

इस बात को स्त्रियां इस तरह से भी समझ सकती हैं -
जब आप सब्ज़ी खरीदने के लिए दुकान पर होती हैं तो लौकी,भिंडी जैसी सब्ज़ियों को छाँटते हुए किस तरह नाख़ून से दबा कर देखती हैं? ज़रा सा कठोर या "पका" होने पर छोड़ देने का मन होता है न?

पुरुष भी प्रायः आपको जीवन-साथी बनाते समय इसी तरह देखता है।
बस फर्क ये है कि वह आपके व्यक्तित्व के सौंधे कच्चेपन को अपने शरीर के लिए चाहता है, और पकेपन को जीवन व परिवार की और ज़रूरतों के लिए।
वास्तव में केवल शारीरिक सम्भोग के समय की बात करें तो उस समय उसकी अंतश्चेतना में स्त्री को कुछ देने का भाव होता है इसलिए वह बदले में सामने वाले के चेहरे पर एक याचक की नरमी या सहृदयता देखना चाहता है। वह भाव न मिलने पर उसे सब कुछ देकर भी संतुष्टि न मिलने जैसा दंश झेलना पड़ता है।
आधुनिक शिक्षित-समर्थ और स्वाधीन स्त्री में ये भाव नहीं मिलता, क्योंकि ये व्यक्तित्व निर्माण की चुनौतियों का सामना करने में जीवन से तिरोहित हो चुका होता है।

लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि इसके लिए स्त्री दोषी है, या पुरुष कोई महान त्याग कर रहा है, वास्तव में तो पुरुष के लिए ये वह-कुछ वापस लौटाने की पीड़ा है जिसे सदियों से वह अपने हक़ में बेईमानी से स्त्री के ख़िलाफ़ लिए बैठा है।

एक बेहद अपवादात्मक स्थिति की चर्चा भी यहाँ करना आवश्यक होगा, क्योंकि इस अत्यन्त दुर्लभ तथा विचलित करने वाली स्थिति ने भी समाज को यदा-कदा अपने होने का अहसास करवाया है।

आश्चर्यजनक ये भी है कि समय के साथ-साथ ऐसे प्रकरण कम नहीं हो रहे, बल्कि बढ़ रहे हैं।

ये स्थिति है अपने निकट सम्बन्धियों के साथ दुष्कर्म कर देने की।
चाचा-भतीजी, मामा-भांजी, सौतेले भाई-बहन या भाभी- देवर के बीच जबरन शारीरिक संपर्क के मामले तो अब बहुत सामान्य मामलों की शक्ल में सामने आ रहे हैं, वास्तविकता ये है कि वर्तमान समय में हमारा कानून पिता-पुत्री, भाई-बहन,माँ-बेटा तक के यौन सम्बन्धों की पड़ताल से जूझ रहा है।
इस तरह के सम्बन्ध बन जाना, जारी रहना, अकस्मात् दुष्कर्म के रूप में सामने आना जिन कारणों से होता है, दरअसल उनकी बुनियाद बहुत गहरी होती है, ये एकाएक नहीं बनते।

इनका वातावरण या कारण बनने में कभी-कभी वर्षों का समय लगता है, और हमारे जाने-अनजाने वह पार्श्वभूमि तैयार हो जाती है जिनमें ये सम्पन्न होते हैं। जैसे-

1. जिन लोगों की कई शादियाँ और तलाक होते हैं उनके परिवारों में ऐसे बच्चे होना स्वाभाविक है जिनके पिता या माता अलग-अलग हों। बाहर से तो समाज उन्हें आपस में भाई-बहनों के रूप में जानता है किन्तु उनके भीतर वे भावनाएं नहीं होतीं, जो सगे भाई-बहनों के बीच होती हैं। ये भावनाएं संस्कारगत भी होती हैं और अनुवांशिक-जैविक रुपी भी।

अनुकूल वातावरण मिलते ही इनके बीच यौन सम्बन्ध पनप सकते हैं। और यही सम्बन्ध झगड़े,प्रतिशोध,अलगाव की स्थिति में दुष्कर्म के रूप में भी आ सकते हैं।

2. सौतेली माँ या सौतेले पिता के मामले में भी यह स्थिति आ सकती है।
बेहद दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि सगे भाई-बहनों या पिता-पुत्री, माँ-बेटा के बीच भी ऐसे मामले आधुनिक समय ने देखे हैं।

3. कभी-कभी नशे के प्रभाव, झगड़े या आक्रामक बहस के समय व्यक्ति बच्चों के सामने इस तरह की अश्लील कही जाने वाली बातें या अपशब्द बोल देता है। बार-बार सामान्य रूप में इन बातों को सुनते रहने से बच्चे इन्हें स्वाभाविक मानने लग जाते हैं। उम्र के साथ-साथ जब उनके शरीर को अंगों का सहयोग मिलने लगता है तब वे ऐसी क्रिया को भी वास्तव में कर डालते हैं जो उनसे कतई अपेक्षित नहीं है।

मैंने स्वयं एक दुकान पर ये दृश्य देखा, जब एक मज़दूर औरत सीमित पैसे लेकर अपने पांच वर्षीय पुत्र का हाथ पकड़े सौदा लेने आई। बच्चा कुछ दिलाने की ज़िद कर रहा था। माँ के मना करते ही वह बिफ़र पड़ा और रोते -चिल्लाते हुए बीच बाजार में कहता रहा-"आज घर चल, देख मैं कैसे बिना तेल के तेरे ठोकता हूँ!"

माँ बीच-बाजार खिसियाते हुए हंसती भी जाती थी और बच्चे को बाँह पकड़ कर घसीटती भी जाती थी। आने-जाने वाले लोग तमाश-बीन थे।
अपने नाकारा और नशेड़ी पिता से संस्कार सीखा ये बच्चा भविष्य में अपने साथ खेलती किसी बालिका से ज़रा सा झगड़ा या अनबन होने पर किसी भी सीमा तक जा सकता है।

हमारी कचहरियों की हज़ारों फाइलें और बाल-सुधार गृहों के दफ़्तर ऐसी मिसालों से पटे पड़े हैं, जिनकी बुनियाद खुद हमारे घरों में तैयार हुई है।

प्रबोध कुमार गोविल

बी-301 मंगलम जाग्रति रेसीडेंसी,

447 कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर,

जयपुर-302004 [राजस्थान]

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: रंगमहल की खिड़कियां और मैली हवाएं - प्रबोध कुमार गोविल
रंगमहल की खिड़कियां और मैली हवाएं - प्रबोध कुमार गोविल
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9pzQtkLt-bY4rAbGDl3WQxov-JvDgBAtLUJvocOmESakHfBMLAuDJA9cfRC5YbFheb3sjYsYuVRLAi97gs4phDdIfcDYfrJh8KwDAV8-4RbndfJmzQN_5WSucl429euF4GQGA/s113/DSC_0005+%25281%2529.JPG
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9pzQtkLt-bY4rAbGDl3WQxov-JvDgBAtLUJvocOmESakHfBMLAuDJA9cfRC5YbFheb3sjYsYuVRLAi97gs4phDdIfcDYfrJh8KwDAV8-4RbndfJmzQN_5WSucl429euF4GQGA/s72-c/DSC_0005+%25281%2529.JPG
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/04/blog-post_85.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/04/blog-post_85.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content