गज़ल क्या है? कैसी विधा है? कहाँ से आई है? इस पर अब ज़्यादा कुछ कहने को शेष नहीं है। न ही ये विवादित हैं, इन पर आम राय स्थापित हो चुकी है और ...
गज़ल क्या है? कैसी विधा है? कहाँ से आई है? इस पर अब ज़्यादा कुछ कहने को शेष नहीं है। न ही ये विवादित हैं, इन पर आम राय स्थापित हो चुकी है और यह मान्य भी है।
भारत के संदर्भ में गज़ल के कथ्य, भाषा या यूं कहें उसके मिजाज़ो-पैरहन पर चर्चा की जा सकती है।
गज़ल के मिजाज़ में बदलाव आया है, वह पूरे उपमहाद्वीप में इसके उद्बोधन से स्पष्ट है। आशनाई और लौंडेबाजी से यह इकबाल से पहले से उबर चुकी थी, इधर जीवन की विसंगतियों पर तंज़ करती गज़लें आम हो चली हैं, हालांकि बहुतायत में रचनाकर अब भी पारंपरिक मालो-असबाब को एहतियात से सँजो कर रखने में लगे हैं।
स्वर्गीय दुष्यंत, रामावतार त्यागी तथा अन्य रचनाकर गज़ल को एक नए तेवर के साथ हिन्दी में लेकर आए।
मैं मानता हूँ कि गज़ल एक ऐसी शमा है जिसकी मीठी लौ में दहक के कई प्रतिभाएँ भस्म हो गईं। देखने में सहज लगने वाली गज़ल उतनी सहज नहीं है जितनी कि आमूमन कोई भी रचनाकार समझ लेता है। इस की सादगी के चक्कर में लिपट कर कई रचनाकार तबाह हो चुके हैं-बेबहर हो गए हैं।
गज़ल केवल रदीफ़ और काफिया मिलाना ही नहीं है। गज़ल का हर शेर, अशआर दूर की कौड़ी लाता है। जिस गज़ल में यह “दूर की कौड़ी” नहीं रहेगी वह रचना कुछ भी हो पर गज़ल नहीं हो सकती।
एक मोहतरमा ने बात-चीत शुरू करते हुए कहा “ओझा जी! आज कल गज़ल लिख रही हूँ और पाँच सौ से ज़्यादा गज़लें लिख चुकी हूँ।“
“कोई दीवान आया?” मैंने पूछा।
“दीवान???”
मैं समझ गया मोहतरमा क्या लिखती होंगी। एक-दो बरस में पाँच सौ गज़ल पर तो गालिब भी कोमा में चले जाते।
खैर, पढ़ता हूँ कि पाकिस्तान में कही जाने वाली गज़लों में उर्दू के शब्दों को छांट-छांट के हटाया जा रहा है, क्योंकि उर्दू के बहुत से शब्द संस्कृत से निकल कर देशज हुए और उर्दू में घुल-मिल गए। पाकिस्तानी खुद को अरबी-फारसियों की संतान मानने लगे हैं सो अपने बाप-दादाओं की ज़बान (अरबी-फारसी) गज़ल में डाल रहे हैं। पाकिस्तान में गज़ल का पैरहन जान-बूझ कर बदला जा रहा है। वह वहाँ भी अपनी लोकप्रियता खोती जा रही है।
हिंदुस्तान में गज़ल को जब हिन्दी के धरातल पर उतारा गया तो इसे मुकम्मिल सराहना मिली। अकबर इलाहाबादी, जिगर, साहिर, मजरूह, निदा, बेकल, शकील के साथ-साथ राजेन्द्र धवन, नीरज सरीखे रचनाकारों ने सहज हिन्दी-उर्दू शब्दों के साथ फिल्मी गीतों में इसे पिरोकर, जनता के होठों पर इसे चस्पा कर दिया।
अब मैं खुद को फेसबुक की आभासी दुनिया से जोड़ते हुए कुछ कहना चाहूँगा।
यहाँ दो रचनाकार ऐसे हैं जिनसे मैं खुद को जुड़ा हुआ पाता हूँ।
आदरणीय कुँवर बेचैन जी, जिनका मैं स्कूल के समय से श्रोता रहा हूँ (लगभग 40 वर्ष) और जिन्हें अपने संस्थान (भेल-नोएडा) में निमंत्रित करने का मुझे सु-अवसर प्राप्त हुआ था और बड़े भाई सम डॉ धनंजय सिंह जी से जिन्हें मैं 1983 में ‘माया’ के दिनों से जानता हूँ और गाहे-ब-गाहे सान्निध्य भी प्राप्त करता रहता हूँ।
दोनों की ही रचनाएँ ज़मीन से जुड़ी हुई और सहज भाषा में होती हैं किन्तु दूर की बात कहती हैं, जो कि गज़ल की विशेषता है।
भाई डॉ धनंजय जी ने अभी एक ताज़ा रचना पोस्ट की है उसे यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ :
डॉ.धनञ्जय सिंह
3 July at 12:59 •
शाख फिर-फिर जवान होती है .......
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रात बारिश में झर गये पत्ते
सारे आँगन में भर गये पत्ते
पेड़ सिर पर बिठाए रखते थे
ताश बनकर बिखर गये पत्ते
साथ बारिश के बिजलियाँ होंगी
इन खयालों से डर गये पत्ते
धूप, बारिश, हवा, बरफ, बिजली
झेल सबका कहर गये पत्ते
कौन हरियालियों की बात करे
पी के पीला ज़हर गये पत्ते
छाँह देने का मुझसे वादा था
जाने किस-किसके घर गये पत्ते
ठूँठ जंगल में राह तकता है
किस शहर में ठहर गये पत्ते
शाख फिर-फिर जवान होती है
इसका ऐलान कर गये पत्ते
--धनञ्जय सिंह
कहने की तनिक आवश्यकता नहीं है किस साफ-गोई से बिना शब्दों के आडंबर के गज़ल बहती हुई निकल गई। ऐसा लगता है कि कवि ने रचना करने में कोई प्रयास किया ही नहीं, यह रचना सहज रूप से ही बह निकली। यही इस रचना की खूबी है।
उन्हें मुबारकबाद।
डॉ कुँवर बेचैन हिन्दी के प्रसिद्ध कवि-गीतकार हैं, शोधार्थियों के प्रिय हैं। उनकी रचनाओं पर छात्र पीएचडी कर रहे हैं।
कुँवर साहब की रचनाओं की भी यही विशेषता है कि वे स्व-स्फूर्त होती हैं, उनमें जटिलता की गांठें नहीं रहतीं। किन्तु, बहुत अधिक लिखने की चाह में शायद मिजाज़ की प्रफुल्लता पर बन आती है। कुँवर जी इतने सशक्त और बड़े हस्ताक्षर हैं कि हमें उनसे सदैव उत्कृष्टता की ही आशा रहती है, जब वह नहीं मिलती तो मन खिन्न सा हो उठता है। उनके मानदंड का स्तर बहुत ऊंचा है।
किसी अन्य रचनाकार की बेहतरीन से बेहतरीन रचना उनकी उनकी रचना के समक्ष साधारण ही ठहरेगी। कुछ रचनाओं को उनकी पोस्ट से ही उद्धृत कर रहा हूँ :
Kunwar Bechain
30 June at 23:50 •
मुझसे बोली जो ये एलार्म घड़ी है आगे
ज़िन्दगी एक क़दम और बढ़ी है आगे
वक़्त के ग्वाले ने कुछ तरह हाँका है मुझे
इक छड़ी पीठ पे, तो एक छड़ी है आगे
लड़खड़ाते हुए क़दमों ने मुझे बतलाया
राह मुश्किल है, अभी और कड़ी है आगे
आओ हँस बोल लें जितना भी समय बाक़ी है
वर्ना हर आँख पे आँसू की लड़ी है आगे
काम औरों के भी आऊँ ये है चाहत मेरी
मैं तो छोटा हूँ मगर बात बड़ी है आगे
--कुँअर बेचैन
Kunwar Bechain to Udaypratap Singh
29 June at 11:26 •
ज्यों नदी अपने मुहानों को नहीं काटती है
याद भी पिछले ज़मानों को नहीं काटती है
तुमने तो अपने शरणदाता का सर काट दिया
तेज़ तलवार भी म्यानों को नहीं काटती है
देश की फौज हो, आपस में ये लड़ना छोड़ो
फौज़ खुद अपने जवानों को नहीं काटती है
लोग जब उनको लड़ाते हैं तभी कटती हैं
ख़ुद पतंग अंपनी उड़ानों को नहीं काटती है
सिरफिरे लोग ही इक-दूसरे को काटते हैं
प्रार्थना कोई अज़ानों को नहीं काटती है
बाढ़ बनकर के भटकना ही पड़ा है उसको
जो नदी अपने उफ़ानों को नहीं काटती है
मुँह बज़ुर्गों से न फेरो कि कोई भी तारीख़
कुछ भी हो, गुज़रे ज़मानों को नहीं काटती है
अच्छे अच्छों को हिला जाता है ग़म का सैलाब
बाढ़ क्या पक्के मकानों को नहीं काटती है
बेहिचक कहिये, जो हो बात खरे सोने-सी
बाली सोने की हो, कानों को नहीं काटती है
अपने माँ-बाप से रिश्ते को न काटो, बच्चों
फ़स्ल कोई हो, किसानों को नहीं काटती है
मैंने ये सोच के उम्मीद को माँ समझा था
माँ ही बच्चों की उठानों को नहीँ काटती है
आखिरी एक दवा नींद थी, लेकिन ऐ 'कुँअर'
नींद भी अब तो थकानों को नहीं काटती है
-कुंअर बेचैन-
Kunwar Bechain
29 June at 22:49 •
बिजली की तड़प भी है, गिरता हुआ पानी भी
बरसात का मौसम है अब अपनी कहानी भी
जिस रोज़ से बिछुड़े हैं, वो मिल ही कहाँ पाये
यूँ मेरी कहानी में राजा भी है रानी भी
पलकों में छुपा लेंगे , हम अपना हर इक आँसू
ये अपनी धरोहर हैं, और उनकी निशानी भी
हैं इश्क़ के चर्चे तो दुनिया में बहुत लेकिन
दुनिया से कहो समझे, अब इसके मआनी भी
यादों में उभरती हैं, दो भीगी हुईं पलकें
था जिनमें समुन्दर भी, दरिया की रवानी भी
हम धूप में जलते हैं, आँसू की तपन लेकर
तुम आओ तो मिल जाए, एक शाम सुहानी भी
ये उम्र का चौथापन कब खुद से निकल पाया
क़ैदों से निकल भागे , बचपन भी जवानी भी
कहते हैं ग़ज़ल जिसको, ये शै तो हक़ीक़त में
आशिक़ का बयाँ भी है, और सन्त की बानी भी
सच ये है 'कुँअर' जीवन खुद वक़्त के होंठों पर
इक ताज़ा ग़ज़ल भी है, इक नज़्म पुरानी भी
-कुँअर बेचैन-
वो भी औरत सी है लाचार, नहीं बोलेगी
कुछ भी लिख दीजिये, दीवार नहीं बोलेगी
कितनी कलियों के बदन नोंचे गए हैं उनमें
ये किसी महल की मीनार नहीं बोलेगी
ये तो मजबूर दुल्हन की है हथेली साहब
इसपे मेंहदी है कि अंगार, नहीं बोलेगी
हाथ क्या पीले हुए, हो गई गुड़िया गूंगी
बोलकर देखिये, इस बार नहीं बोलेगी
फूल की बात तो कह देगी ज़माने भर से
शाख़ को कितने मिले ख़ार, नहीं बोलेगी
देखिये, आप की नफ़रत ये अभी फिर बोली
आप तो कहते थे इस बार नहीं बोलेगी
वक़्त अब आ ही गया ज़ुल्म से टकराने का
अब न सोचो कि ये तलवार नहीं बोलेगी
आग जब दिल में लगेगी तो वो चीखेगा ही
क्या हथेली पे हो अंगार, नहीं बोलेगी
देखकर फूल-सी पीठों पे ये कोड़ों के निशाँ
क्या तेरी लेखनी, फ़नकार, नहीं बोलेगी
ज़िन्दगी चार दिनों की ही कहानी है 'कुँअर'
बीत जब जायेंगे दिन चार, नहीं बोलेगी
-कुँअर बेचैन
डॉ कुँवर बेचैन और डॉ धनंजय सिंह के क्रम में मैं अब श्री रामानुज श्रीवास्तव ‘अनुज’ का ज़िक्र करूंगा। मेरा उनका ऐसा कोई परिचय नहीं है जैसा कि बेचैन जी और धनंजय जी से है, इधर काफी दिनों से वे फेसबुक पर मित्र हैं। शुरू-शुरू में मैंने उनकी रचनाओं को फौरी तौर पर देखा, कुछ गहराई नज़र आई। मैंने सोचा अपवाद होगी। आगे बढ़ गया। किन्तु ध्यान रखिए, उत्कृष्ट रचनाओं में गजब का चुम्बकीय आकर्षण होता है, ऐसी रचनाएँ अपना पाठक ढूंढ ही लेती हैं।
रामानुज जी की रचनाओं को अब मैं तलाश कर पढ़ता हूँ।
मिजाज़ और पैरहन में पूरी तरह हिन्दुस्तानी इनकी गज़लों में आपको पूरा हिंदुस्तान मिलेगा। यहाँ की माटी, बोली, मुहावरे, तहज़ीब सब कुछ, बहुत सँजो कर रखते हैं अपनी रचनाओं में।
यह आश्चर्य की बात है कि इस ज़मीन से हिन्दी में बीए-एमए किए बच्चे गज़ल लिख कर उसमें अरबी-फारसी के ऐसे अल्फ़ाज़ चेप रहे हैं कि अरबी-फारसी के दानिशमंद भी अचरज में हैं कि इन लोगों ने हिन्दी से बीए-एमए किया था या फिर इनके भी बाप-दादा पाकिस्तानियों की तरह से अरब से ही आए थे? हिन्दी में छंद लिखती-लिखती एक मोहतरमा पर इकबाल का भूत सवार हो गया, उन्होंने अरबी-फारसी में गज़ल लिख कर उसके हिन्दी मायने भी लिख दिए, मैं खुद को रोक नहीं पाया। लिख आया, कि इकबाल साहब के बाद यही गज़ल हुई है।
खैर, इन हल्की-फुल्की बातों से दूर पढिए श्री रामानुज श्रीवास्तव ‘अनुज’ की कुछ गज़लें उनकी ही पोस्ट से और अपने विचार/आकलन बताएं :
आँख जिनके पास न थी वे उजाले हो गये।
आदमी बैरंग सारे, तार वाले हो गये।
जिन घरों की खानदानी, रौशनी बीमार थी,
उन घरों में आज देखा, बंद ताले हो गये।
साँस जो रुक सी गई थी फिर से चालू क्या हुई,
गायकी ऐसी चलाई, गीत काले हो गये।
खोज में भटकें है जिनकी जेब में तस्वीर रख,
वे सभी कल रात से ही घर निकाले हो गये।
मकड़ियों डेरा जमा लो, स्वयं का ही घर समझ,
फख्र है कि आज से औलाद वाले हो गये।
मंजिलों को घर बुलाने को गये पर क्या हुआ,
साथ भी आई नहीं, औ पांव छाले हो गये।
इस तरह का वक्त गुजरे न किसी इंसान पर,
अनुज" जब से होश पाया, घर सम्हाले हो गये।
*रामानुज श्रीवास्तव ‘अनुज’
वो तुम्हारा कान पकड़े मुँह सटाकर सो गया।
और तुम कहते हो कैसे, हादसा ये हो गया।
साथ चलिये हम दिखाएं सड़क में खोदा कुआं,
जान लेना देख कर कि और क्या क्या हो गया।
कोशिशें पुरजोर थीं कि, कोई न पहुँचे इधर,
पर न जाने कौन जाहिल, हाथ गंदे धो गया।
जो कहावत थी पुरानी आज देखा सच लगी,
रोटियाँ कुत्ते ने खाई, और अंधा पो गया।
फूल पथ में थे बिछाये, सूंघकर, पहचान कर,
पर न मालूम कौन दुश्मन, रात कांटे बो गया।
दोपहर तूफान आने की हिदायत क्या मिली,
रौशनी के तार लेकर, शहर आधा खो गया।
इंकलाबी लोग है जब देख सुन निकलो 'अनुज,"
काट न ले नाक कोई, चीखना फिर वो गया।
*रामानुज श्रीवास्तव ‘अनुज’
काम चाहे कुछ दिखे न, मन लगा रहता तो है।
बे-अदब चाहे कहो पर सर झुका रहता तो है।
व्यर्थ की बकवास से अच्छा यही कि चुप रहें,
और फिर कहने में सारा घर लगा रहता तो है।
रात भर सोये या जागे, मामला है दिल का ये,
मखमली चादर बिछाए तन पड़ा रहता तो है।
हम किसी की छींक का बिल्कुल बुरा माने नहीं,
फिर भी नन्ही जान खातिर डर बना रहता तो है।
खिड़कियों को खोल क्यूँ हम रात में सोया करें,
उनके आने के लिये चिलमन खुला रहता तो है।
हम कभी पहुँचे नहीं है, गुलशनों की मदद तक,
किंतु दायाँ पांव आखिर कुछ बढ़ा रहता तो है।
तू अकेला क्या करेगा, मत जला अन्तस "अनुज'
ये भी इतना कम नहीं कि अनमना रहता तो है।
*रामानुज श्रीवास्तव ‘अनुज’
व्यर्थ की बातों में उलझे लोग सारे आजकल।
लोग दरिया को लगाते है, किनारे आजकल।
ठीक से ही सोचकर के बात अब बोला करो,
आदमी पैदल बहुत है, सर उतारे आजकल।
खटमलों से जंग करके, ताज छीने हैं मगर,
मच्छरों की जंग में, लगते है हारे आजकल।
दोस्तों की क्या कमी थी, जेब जब तक गर्म थी,
किंतु अब हैं साथ रहते चाँद तारे आजकल।
खूबसूरत आइना जब, गर्द खा अंधा हुआ,
हम भी रहते है अकेले, तन उघारे आजकल।
स्वप्न भागे खौफ खाये, साँस ज्योंही बज उठी,
नींद भागी फिर रही है, नयन द्वारे आजकल।
सब्र करना अक्ल अपनी जाग जायेगी 'अनुज"
जब लगेगा कुछ नहीं है, घर हमारे आजकल।
*रामानुज श्रीवास्तव ‘अनुज’
हम अभावों में जिए है, चाह क्या पाने की है।
आदमी से और अच्छा और क्या होने की है।
एक दिन जी में हुआ कि, जा के थोड़ा पूछ ले,
शह्र की आबोहवा में शर्त क्या रहने की है।
लग रहा सम्वेदनाएँ खत्म सी अब हो चली,
मौत में भी पूछते है, वज़ह क्या रोने की है।
वे कभी कुछ न कहेंगे, बोलना सीखा नहीं,
हो सके तो तुम कहो जो बात अब कहने की है।
काम से लौटा हुआ वो सख्स घर आया नहीं,
लोग तो कहते है उसकी आदतें पीने की है।
अनसुनी आवाज़ सुनकर, द्वार वे सब खुल गये,
था यकीं पक्का जिन्हें, कि आहटें सोने की है।
कौन मिलता है गले से 'अनुज" सोचो बेवजह,
वक्त की मंशा यही सब देखकर चलने की है।
*रामानुज श्रीवास्तव ‘अनुज’
ठीक से टूटे नहीँ जो, फिर मरोड़े जाएंगे।
खार सारे आंसुओ से फिर निचोड़े जाएंगे।
वे सभी कायर नही थे, जो गली का रुख किये,
देखियेगा, एक दिन सब उधर दौड़े जाएंगे।
काम लहरों से यही, लेना पड़ेगा अनवरत,
वे भले छू ले किनारा, फिर से मोड़े जाएंगे।
सच नहीं कहते किसी से क्यूँ कि मालूम है हमें,
एक सच के साथ कितने, झूठ जोड़े जाएंगे।
जो यहाँ से उठ गये है, जब नहीं लौटेंगे वे,
कर रहे हैं क्यूँ मनौव्वल, मान थोड़े जाएंगे।
क्यों नहीं उड़ता परिंदा, आशियाना छोड़कर,
क्या नहीं मालूम तुमको, पंख तोड़े जाएंगे।
नीति का निर्वाह करके, बात कहियेगा "अनुज"
क्योंकि सच्चे रास्ते हरगिज़ न छोड़े जाएंगे।
*रामानुज श्रीवास्तव ‘अनुज’
डा. सुधेन्दु ओझा..
सम्पादक.. भाषा भारती
साहित्यिक मासिक पत्रिका
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