बचपन में बिताए गए दिनों की याद आते ही, आँखों के सामने अनेक रंग-बिरंगे चित्र बनने लगते हैं. सबसे पहले मुझे याद आती है अपने दिवंगत माता-पिता क...
बचपन में बिताए गए दिनों की याद आते ही, आँखों के सामने अनेक रंग-बिरंगे चित्र बनने लगते हैं. सबसे पहले मुझे याद आती है अपने दिवंगत माता-पिता की, प्रायमरी से लेकर कालेज तक पढ़ाने वाले शिक्षक-प्रोफ़ेसरों की, तथा पास-पड़ोस में रहने वाले उन तमाम लोगों की,जिन्हें देख-सुनकर मैं बड़ा हुआ हूँ और जिन्होंने मेरा पथ प्रदर्शित किया था.
माँ केवल चौथी कक्षा पास थी,लेकिन रामायण,गीता, भागवत, पुराण आदि ग्रंथों का नियमित पाठ किया करती थी. सप्ताह में दो दिन वे उपवास भी रखती थीं. सूर्योदय के पहले वे मुझसे बिस्तर छॊड़ देने और सैर पर निकल जाने को कहतीं. कड़ाके की ठंड पड़ रही होती थी उन दिनों. कौन भला ठंड में ठिठुरना चाहेगा? कहना टाल भी तो नहीं सकता था. ना-नुकुर के बाद उठना ही पड़ता था. घर से निकलने के पहले वे इतना जरुर कहतीं कि एक दौड़ लगा लेना, ठंड भाग जाएगी और मैं ऎसा ही करता. अंदर तक कंपकंपी भर देने वाली ठंड पल भर में गायब हो जाती. इस तरह सुबह उठने की आदत सी पड़ गई थी.
इस तरह मेरा परिचय प्रकृति में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों से हुआ. तब मैं महसूस कर सका था कि सुबह मंथर गति से बहने वाली पुरवाई जैसे ही हमारे शरीर को छूती हुई आगे बढ़ती है, शरीर पर इसका काफ़ी असर पड़ता है, मन प्रसन्नता से खिल उठता है और हम एकदम तरोताजा हो जाते हैं. सुबह सूरज के उदित होते ही मैं उसे अपनी आंखों से देख भी सकता था.. उसकी किरणॊ का व्यापक प्रभाव शरीर पर पड़ता है, जिससे शरीर निरोग होता है, जो जीवन भर साथ देता है. कहा भी गया है कि निरोग शरीर में स्वस्थ मन रहता है. बुद्धि भी तीव्र होती है. इसलिए पढ़ने वाले विद्यार्थियों को रोज सुबह उठकर प्रकृति की गोद में जाना चाहिए.
इसके साथ ही मैंने महसूस किया कि प्रकृति हर पल, हर क्षण, पुनर्नवा हो रही है. सुबह-दोपहर-शाम के क्रम के बाद रात और रात बीतते ही फ़िर दिन निकलता है. सूर्योदय के साथ ही शुद्ध-शीतल हवा बह निकलती है. कलियाँ चिटक कर फ़ूल बनने लगती हैं. रंग-बिरंगी तितलियां फ़ुदकने लगती हैं और एक मादक सुगंध, हवा की पीठ पर सवार होकर, पूरे वातावरण को सुवासित कर जाती है. इसी तरह दिन के अस्त होने और संध्या के आगमन के बीच भी बहुत कुछ घटता है और रात आते ही नील गगन में चांद-तारों का उदय होता है. इतना कुछ प्रकृति में घट जाता है, जिसकी कल्पना हम नहीं कर पाते. सचमुच यदि हम देर तक सोते रह गए तो फ़िर इन अद्भुत नजारों को देखने से वंचित रह जाएंगे. प्रकृति के इस तादात्म्य का मुझ पर इतना असर पड़ा कि वह मेरी कविता और कहानियों में भी विस्तार के साथ अपना स्थान बना लेती हैं.
मुझे यह भी अच्छे से याद है कि माँ रामायण का पाठ करने से पहले मुझे पास बिठाती और पढ़ने का क्रम जारी रखती. यह प्रतिदिन का कार्य था. चार-छः दिन के अंतराल के बाद वे कभी सिर दर्द या जी अच्छा नहीं लग रहा है का बहाना बतलाकर कहतीं- तुम थोड़ा पढ़कर सुनाऒ तो जी अच्छा लगने लगेगा. मैं उसी लय और ताल में उसे पढ़ने का उपक्रम करता. इस तरह पाठ्यक्रम के अलावा अन्य किताबों को पढ़ने का शौक मुझमें जाग्रत हुआ. घर में रामायण, गीता भागवत, शिवपुराण और भी न जाने कितने ग्रंथ आलमारी में भरे रहते जिन्हें मैं. फ़ुरसत के क्षणॊं में पढ़ता. इस तरह मैं अल्प-आयु में ही काफ़ी कुछ पढ़ चुका था.
माताएं अपनी संतानों को सहेजती हैं, संवारती है और सुयोग्य बनाती हैं. संतानें केवल लाड़-प्यार से नहीं, बल्कि त्याग, बिछोह और कड़े अनुशासन से योग्य बनाती हैं. वे अपने बच्चॊं में किस कुशलता के साथ संस्कारों का बीजारोपण कर देती हैं, इस उदाहरण से समझा जा सकता है.
पिता अक्सर खामोशी ओढ़े रहते थे. वे बोलते कम और अपने काम में ज्यादा व्यस्त रहते थे. जब मैं चौथी अथवा पांचवीं कक्षा का विध्यार्थी रहा होऊंगा, वे गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने वाली पतली-पतली, दस-बीस पेजों वाली किताबें खरीद लाते. अमूमन उनकी कीमत उस समय, एक पैसे से लेकर एक रुपया तक होती थीं. किताबों में नैतिक शिक्षा पर कई छॊटॆ-बड़े लेख छपे होते. कुछ किताबों में महापुरुषॊ की जीवनी होती, जिसने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से मेरे कोमल मन पर गहरा प्रभाव डाला. मैं कक्षा सातवीं अथवा आठवीं में पढ़ रहा होऊंगा, वे मुझे पीली दुअन्नी देते हुए सिनेमा देख आने को कहते. यह वह समय था जब देश को आजाद हुए कोई एक दशक ही बीता होगा, उस समय महापुरुषों की जीवनी पर आधारित, धार्मिक और ऎतिहासिक फ़िल्में ज्यादा बना करती थी, को देखने और समझने का मौका मिला.
जब मैं कक्षा चौथी का विध्यार्थी था. उस समय एक नए शिक्षक का आगमन हुआ. उनका नाम था श्री सुन्दरलाल पवार. वे चित्र-कला में पारंगत थे. उनके आते ही स्कूल नए परिवेश में ढलने लगा था. जगह-जगह सुभाषित लिखे जाने लगे थे. स्कूल में एक बड़ा आ आर्च था,जिसमें उन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरु जी से महात्मा गांधी से चर्चा करते हुए चित्र उकेरा था. मैं उनकी गतिविधियों को ध्यान से देखता और स्लेट-पट्टी पर बनाने का प्रयास करता. इस तरह मुझे ड्राईंग करने का शौक लगा. कालान्तर में जब मैंने कविताएं लिखना शुरु किया, तो मैं हर कविता के साथ कोई न कोई चित्र जरुर बनाता. एक बार मुझे किसी किताब में यह पढ़ने को मिला कि कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर फ़ूलों और पत्तियों से रंग उतारकर अपने चित्रों में भरा करते थे. बस क्या था. एक सूत्र हाथ लग गया. उन दिनों पोस्टर कलर मिलते भी थे अथवा नहीं, यह मैं नहीं जानता,लेकिन फ़ूल-पत्तियों से रंग उतारकर अपने चित्रों में रंग जरुर भरने लगा था. उस समय की बनाई डायरी आज भी मेरे पास सुरक्षित है.
यह बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा नौवीं का विद्यार्थी था. व्याख्याता श्री एनलाल जैन हमें संस्कृत पढ़ाते थे. मैंने संस्कृत की कापी के किसी पन्ने पर कविता की कुछ लाइनें लिख दी थी. कविता इस प्रकार थी
“ मेरे उद्बोधन के झील किनारे / तुम गुमसुम-गुमसुम सी बैठी-बैठी / फ़ूलों के पांखों से / कोमल-कोमल हाथों से / मेरे जीवन घट में घोल रही हो सम्मोहन / तो, हे देहलता सी तरु बाला / बोलो-बोलो तुम कौन ?/ तोड़ो-तोड़ो हे मौन.”
कापी की जांच करते समय उनकी नजर इस कविता पर पड़ी. उन्हें यह जानकर आश्चर्य तो जरुर हुआ होगा कि मैं कविता लिखने लगा हूँ. वे स्वयं भी एक प्रख्यात कवि थे. मुझे पास बुलाया, प्रशंसा की और कहा कि जब भी कुछ लिखा करो, मुझे जरुर बतलाया करो. फ़िर समझाईश देते हुए अलग डायरी बनाने को कहा. इस तरह मेरा साहित्य के प्रति रुझान बढ़ता चला गया. इसी समय स्कूल में नए प्राचार्य श्री आर.व्ही.पौराणिक साहब का पदार्पण हुआ था. वे भी एक आला दर्जे के साहित्यकार थे. उनके आगमन के साथ ही, स्कूल में प्रार्थना के बाद किसी एक छात्र को सुभाषित कहने के लिए बुलाया जाता और हर शनिवार को एक घंटे के लिए बड़े से हाल में कार्यक्रम आयोजित किए जाते,जिसमें मैं उत्साह के साथ भाग लेता था. मंच पर वक्ता को किस तरह बोलना है, किस तरह अपने हाव-भाव प्रकट करना है की एक कला का, इस तरह मुझमें विकास हुआ. इसी क्रम में हस्तलिखित पत्रिका भी लिखी जाने लगी थी, उसमें मेरी कविताएं-आलेख और चित्र जरुर होते थे.
-पड़ोस में रहने वाले श्री नाथुलाल पवार( एक कुशल ड्राईंग शिक्षक), स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री रामजीराव पाटिल, श्री बलवंत खन्नाजी, श्री सोम्मार पुरी गोस्वामी, डाक्टर श्री भोजराज खाड़े, समाजसेवी श्री परवतराव खाड़े आदि महानुभाव रहा करते थे. गायकी में विशेष दक्षता रखने वाले श्री खेमलाल यादव, फ़कीरचंद यादव, भिक्कुलाल यादव, सागरमल ओसवाल, श्री गेन्दपुरी आदि की टोली थी, जिनकी मण्डली आए दिन भजन की शानदार प्रस्तुति दिया करती थी और होली के पावन पर्व पर इनके द्वारा विशेष रूप से गायी जाने वाली फ़ाग समूची बस्ती में धमाल मचाया करती थी, को सुनने के अनेक अवसर आए. इस तरह मैं आंचलिक गीतों और लोकगीतों से परिचित हो पाया. फ़िल्मों में काम करने वाले कलाकार श्री पी.कैलाश( फ़िल्म अभिनेता दिलीपकुमार के साथ फ़िल्म आदमी में जानदार अभिनय के लिए जाने जाते थे), श्री शैल चतुर्वेदी जी (हास्य कवि ) इस शहर की एक खास सख्सियतों में से एक थे. इस समय वे काका हाथरसी के साथ मंचों पर धमाल मचा रहे थे. बाद में आपने अनेक फ़िल्मों में हास्य अभिनेता के रूप में काम किया. पी.कैलाश और शैलजी का जब भी मुलताई आगमन होता, वे कैलाश शर्मा, शंभु प्रधान, शर्मा मास्साब, सुन्दरलाल यादव एवं सूरजपुरी के साथ मिलकर थियेटर करते. इन सबका मेरे मन पर प्रभाव पड़ना लाजमी था.
नैतिकता और सामाजिकता की शिक्षा लेने के लिए आपको और कहीं नहीं जाना पड़ता. वह आपको अपने परिवार से खासकर माता-पिता. पास-पडौस में रह रहे कुलीन व्यक्तियों से तथा सतसाहित्य के पठन-पाठन से सहज में ही मिल जाती है. इसका असर आपके दैनन्दिन काम तथा आचरण पर जरुर पड़ता है और आप एक आदर्श नागरिक के रूप में पहिचाने जाते हैं.
ग्लोबलाईज होती दुनिया तेजी के साथ बदलती रही. इस बदलाव का असर शहरों पर तो हुआ ही,साथ ही गावों और कस्बों तक को उसने अपनी लपेट में ले लिया. राजनीति की षड़यंत्रकारी जड़ें भी तेजी से गहराती चली गई. अब वह भाई-चारा कहीं देखने को नहीं मिलता, जो कभी हमारी पहचान हुआ करता था. आज चारों तरफ़ मारा-मारी है. शिक्षा तंत्र भी इस मार से अछूता नहीं रहा. हिन्दी अथवा मातृभाषा को हिकारत से देखा जाने लगा. हर व्यक्ति के दिमाक में यह बात घर कर गई है कि बिना अंग्रेजी पढ़े अच्छी नौकरी नहीं पायी जा सकती. देखते ही देखते प्रायवेट स्कूल और कालेजों की भरमार होने लगी. सरकारी स्कूल बंद होने की कगार पर आने लगे. आज कोई भी उसमें अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता. पुरानी कहावत के अनुसार दान में सबसे बड़ा दान “शिक्षा दान” ही माना गया था. अब शिक्षा दान में नहीं “अनुदान” से“ या फ़िर धन” से प्राप्त होती है. धन के अभाव में अनेक बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते है. जिनके पास अकूत धन है, वे हर क्षेत्र में अपने पैर पसारते रहते हैं. इस तरह समाज में एक गहरी खाई बढ़ती गई. अघोषित रूप से देश दो हिस्सों में बंट गया. “इण्डिया” धनकुबेरों के लिए बना और शेष के लिए “भारत”. इस खाई को पाटने के लिए कई जन-आंदोलन भी हुए लेकिन राजनीति की गंदी चाल से सफ़ल नहीं हो पाए.
रोजी-रोटी के चक्कर में पिता के साथ-साथ अब मांए भी नौकरियां करने लगी हैं. सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां हैं. आज सभी के पास बहुत कुछ है. मोटर गाड़ियां है, बंगला है, आलीशान कोठियां हैं, धन-दौलत है. यदि किसी चीज की कमी है तो वह “समय” की कमी है. समय का इतना टॊटा हो गया है आज आदमी के पास कि वह अपने ही परिवार के लिए समय नहीं निकाल पाता.
बच्चे को क्या बनना है इसका फ़ैसला मां-बाप करते हैं. बच्चे से कभी नहीं पूछा जाता कि वह क्या बनना चाहता है? बस, गड़बड़ी यहीं से शुरु होती है. बच्चा मनमसोस कर रह जाता है. यदि वह साहस करके कुछ कहने की कोशिश भी करता है तो उसकी बात यह कहकर उपहास में उड़ा दी जाती है और उसे यह सुनने में मजबूर होना पड़ता है कि, “बेटा हमने दुनियां देखी है, अभी तेरी उमर ही कितनी है?”.सिवाय चुप रहने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं रह जाता.
आज की स्थिति यह बन पड़ी है कि बच्चों को सही दिशा...सही मार्गदर्शन देने वाले, न तो वे आदर्श शिक्षक रह गए हैं और न ही मोहल्ले-पड़ौस में आदर्श व्यक्तित्व के धनी लोग. शायद यही कारण है कि समाज में पढ़े-लिखों की संख्या में वृद्धि तो जरुर हुई लेकिन आदर्श आदमी एक भी नहीं बन पाता.
चूंकि बच्चों को पढ़ाना है अतः महंगे से महंगे स्कूल का इंतजाम तो माता-पिता कर ही देते है जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ आंकड़ों का खेल चल रहा होता है. आंकड़ों के हिसाब से, स्कूल में पढ़ने वाले छात्र प्रायः सौ में से निन्यानबे अंक पाकर उत्तीर्ण होते हैं,लेकिन अफ़सोस इस बात का कि कोई भी ऎसा छात्र नहीं निकल पाता, जिसने आगे चलकर कोई बड़ा आविष्कार किया हो या फ़िर कोई ऎसी खोज की हो जो आमजन के जीवन को सरल बनाती हो. शायद यही कारण है कि हमारा देश आज भी प्रतिभा संपन्न व्यक्तियों की कमी से जूझ रहा है.
कामकाजी घरों में अकेले रहते बच्चों को समय पास करने के लिए टीव्ही. या फ़िर तरह-तरह के खेल खेलने के लिए एलेक्ट्रानिक उपकरण थमा दिए जाते है. मकान की तंगी कहें या फ़िर कई अन्य कारणों से यह प्रचलन चल पड़ा है कि बूढ़े मां-बाप को साथ रखकर एडजस्ट नहीं किया जा सकता. एक वह समय था, जब हम एक साथ रहते हुए, अपने दादा-दादी या फ़िर नाना-नानी के पोपले मुंह से किस्से कहानियां सुनकर बड़े हुए थे, आज के बच्चे उस दुनिया से अनजान बने हुए हैं. उनके मन में किसी प्राणी के प्रति दया, ममता, शोक, दुख आदि कुछ भी नहीं होता, क्योंकि बेजान वस्तु से खेलते-खेलते वे भी भाव-शून्य हो जाते हैं.
आज सोच का दायरा भी इतना नीचे आ गया है कि हम देश में रह तो जरुर हैं लेकिन अब हमारे दिलों में देश नहीं रहता. छब्बीस जनवरी या पन्द्रह अगस्त हम मनाते जरुर हैं, नारे भी खूब लगाते हैं,लेकिन वो बात अब नहीं,जो कभी हुआ करती थी. बावजूद इसके, हम सीना ठोककर कहते नहीं थकते कि हमसे बड़ा देश-भक्त कोई हो ही नहीं सकता. कभी वह दिन भी था जब शहीद भगतसिंह जैसे शूरवीर हमारे आईकान हुआ करते थे.....हमारे आदर्श हुआ करते थे. अब हीरो बदल गए हैं. कुल मिलाकर इतनी अधिक घालमेल हो गई है कि सच का सूरज ही दिखाई नहीं देता.
इस क्रूर और विवेकशून्य होते जा रहे समय में बच्चों को सही ज्ञान और सही दिशा, यदि कोई दे सकता है, तो वह केवल बाल-साहित्य ही दे सकता है. वह बच्चों को उनका खोया हुआ साम्राज्य फ़िर दिला सकता है और हताशा, निराशा और कुण्ठा के फ़ैलते जा रहे जंगल से मुक्ति दिला सकता है. बाल साहित्य में ही वह ताकत है जो बच्चों को, न केवल सही रास्ता मार्ग सुझा सकता है,बल्कि उनके मुरझाए चेहरे पर हंसी के फ़ूल खिला सकता है. विष्णु शर्मा की पंचतंत्र की कथाओं में इतनी ताकत थी कि उन्होंने अपनी छोटी-छॊटी कहानियों के माध्यम से, जिसके मुख्य पात्र पशु-जगत से लिए गए थे, तीन राजकुमारों का मानसिक रूप से रुपान्तरण करते हुए उन्हें संस्कारित कर दिया था. इन कहानियों ने, न केवल राजकुमारों को दीक्षित किया, अपितु पीढ़ी-दर-पीढ़ी बच्चों और युवकों को संस्कारित करने में भी,अग्रणी भूमिका का निर्वहन किया. कौतूहल के साथ जिज्ञासा का यह समन्वय, सही संस्कारों का एक ऎसा मार्ग है जिस पर चलकर, हर पथिक जीवन के उज्ज्वल पक्ष को प्राप्त कर सकता है.
आज के तथाकथित विष्णु शर्मा ने बच्चों के हाथ में किताब थमाने के बजाय, रिमोट और मोबाईल पकड़ा दिया है. इंटरनेट के माध्यम से बच्चे वह सब ग्रहण करते जा रहे हैं,जो उनके लिए वर्जित है. यह सच है कि वर्तमान युग में विज्ञान एवं प्रौधौगिकी का प्रादुर्भाव, मानव को आश्चर्यजनक साधन उपलब्ध कराने में सफ़ल रहा है. भौतिकतावादी संस्कृति के पोषक मानव ने विलासिता और व्यक्तिगत लाभ-लोभ के चलते सब कुछ छिन्न-भिन्न कर दिया है. उसने बच्चों को बच्चा रहने ही नहीं दिया. बच्चे क्या कर रहे हैं, इसे देखने के लिए न तो अभिभावकों के पास समय है और न ही घर में वे बड़े-बूढ़े रह गए हैं,जो उन पर निगरानी रख सकें...प्यार से उन्हें बता सकें...समझा सकें कि क्या गलत है और क्या सही है? आशा की एक किरण अब भी बाकी है और वह किरण है बालसाहित्यकार की, जो अपनी उपस्थिति से सीलन और अन्धकार से भरे जीवन में उजाला भर सकता है.
केवल और केवल बाल साहित्यकारों की कलम में वह ताकत है जिसके बलबूते पर वह आमूल-चूल परिवर्तन ला सकता है. देश-प्रदेश से निकलने वाली बाल-पत्रिकाएं इस बात का प्रमाण है कि बच्चों को दिशा-बोध देने के लिए बाल साहित्यकार भगीरथ तप कर रहे हैं. वे उनके लिए नैतिक शिक्षा, चारित्रिक शिक्षा आदि पर काफ़ी बल भी दे रहे हैं. जहाँ तक असर की बात है तो इतना कहा जा सकता है कि इसका व्यापक असर इसलिए भी नहीं हो पा रहा है कि बाल पत्रिकाएं अब भी बच्चों की पकड़ से बहुत दूर है. दोष उन साहित्यकारों का नहीं है, दोष है उनके अभिभावकों का कि वे बाल सुलभ रचनाओं को बालकों तक पहुँचाने में मददगार साबित नहीं हो रहे हैं. फ़िर एक वर्ग ऎसा भी है जो बाल साहित्य को साहित्य ही नहीं मानता. यह महत्वपूर्ण विधा आज भी अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रही है. सरकारों को भी चाहिए कि इस पर त्वरित निर्णय लेकर इसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि करे, उसे साहित्य का दर्जा दे और पत्रिकाओं को आर्थिक मदद भी मुहैया करवाये ताकि पत्रिकाएँ, कम से कम कीमत पर बच्चों तक अपनी पहुँच बना सके.
यदि यह संभव हुआ तो निश्चित ही इसके दूरगामी परिणाम हमें देखने को अवश्य मिलेंगे.
बाल मनोविज्ञान एवं परिवेश का सजीव संस्मरण। हार्दिक बधाई।
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