बहुत पहले सत्यनारायण पटेल जी की कहानियों को पढ़ते हुए मैंने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि ये कहानियाँ मुझे मेरे प्रिय कहानीकार विजयदान ...
बहुत पहले सत्यनारायण पटेल जी की कहानियों को पढ़ते हुए मैंने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि ये कहानियाँ मुझे मेरे प्रिय कहानीकार विजयदान देथा की बरबस ही याद दिलाती हैं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में समाज , जीवन की विडम्बनाओं , विरूपताओं को लोककथात्मक शैली और स्थानीयता के सहज रंग में रंगते हुए कहानीकार जिस कथानक को रचता दीखता है , वह समस्याओं के रूखे गाम्भीर्य और बेरंग यथार्थ से पाठकों का निर्मम परिचय तो अवश्य कराता है किन्तु बोझिल वातावरण को दरकिनार करता हुआ बड़ी आत्मीयता से कथापात्रों , कथानक से हमारा परिचय भी कराता है।
संग्रह की कहानियों पर चर्चा करने से पूर्व कहानियों में निहित यथार्थ के सन्दर्भ में “ नयी कहानी : लेखक के बही खाते से “ शीर्षक आलोचना में कहानीकार , आलोचक निर्मल कुमार के विचार दृष्टव्य हैं , “ यथार्थ एक पक्षी की तरह झाडी में छिपा रहता है , जहाँ से उसे जीवित निकाल पाना उतना ही कठिन है जितना कि उसके बारे में निश्चित तौर पर कुछ कह पाना , जब तक कि वह छिपा है। कहानीकार “ बीटिंग अबाउट द बुश “ के अलावे कुछ करने की स्थिति में नहीं रहता है।”
महान कहानीकार हेमिंग्वे ने इसी बात को बड़ी मार्मिकता से अभिव्यक्त करते हुए शब्दों में बाँधा - , “ कहानी लिखना बहुत कुछ बुल फाइटिंग की तरह है – हर कथाकार अखाड़े में सांड के सामने रहता है – और हर बार उसके भयावह सींग के सामने रहता है – और हर बार उसके सींग – हम चाहे उसे जिन्दगी कह लें या सत्य या यथार्थ – उसे छीलते हुए , छूते हुए निकल जाते हैं। “हेमिंग्वे के इसी कथन को निर्मल कुमार ने व्याख्यायित करते हुए कहा कि , ‘ इस अखाड़े के बीच रहना शोर मचाती रक्तातुर भीड़ से घिरे होकर भी – अपने में अकेले रहना .... लिख पाना , एक अनिवार्य नियति है , जिससे भागा नहीं जा सकता। एक संघर्षरत व्यक्ति के लिए यह राजनीति है , यदि कहानीकार महज अपने समय का दर्शक नहीं बल्कि भोक्ता रहने का साहस रखता है तो वह राजनीति से खुद को दरकिनार कैसे कर सकता है ? और सत्यनारायण पटेल के कहानी संग्रह “ तीतर फांद “ की हर कहानी में राजनीति अपनी समग्र विद्रूपता , वीभत्स नग्नता के साथ विद्यमान है , परोक्षतः भी नहीं एकदम प्रत्यक्ष रूप में ! इसके पीछे कहानीकार का राजनीति के यथार्थ स्वरुप को सम्पूर्णता में भोगने का साहस ही कारण है।
संग्रह की पहली कहानी , ‘ ढम्म ... ढम्म ...ढम्म ‘ राजनैतिक भ्रष्टाचार को पोषित करने के उद्देश्य से सत्ता के दावेदारों द्वारा धर्म , संप्रदाय एवं जाति जैसी दुर्बलताओं की बिसात पर आम आदमी को मोहरे के रूप में इस्तेमाल करना और शोषण की पाट में निरंतर पिसे जाने के बावजूद भी गूँगे बने रहने की विवश पीड़ा को रूपायित करती है , “ ....जबान डर के मारे जा दुबकी बत्तीस पहरेदारों के बीच “। अपनी अस्मिता और अपने अस्तित्व के संकट से एकसाथ लड़ता आम आदमी यदि अपने अधिकारों के प्रति सतर्क होने का प्रयास करता भी है तो उसका सामना होता है उन तथाकथित रक्षकों , सेवकों से जो किसी को भी बख्शना न तो जानते हैं , न चाहते हैं क्योंकि सेवा करना , रक्षा करना उनकी बाध्यता है ,स्वघोषित धर्म है ! इस सन्दर्भ में युवा कवयित्री ज्योति तिवारी की कुछ पंक्तियाँ उधृत करना चाहूंगी जो अपने निहितार्थ में समभावी प्रतीत होती हैं , “ मैंने झल्लाहट में दीवार पर एक सामूहिक आकृति बनाई , जिसमें एक वृत्त , एक त्रिभुज , एक आयत , बुझा चेहरा , जकड़े पाँव , कटी उंगलियाँ शामिल थीं / मगर इन सबके बाहर एक सच बोलती जीभ टंकी थी / अचानक आवाजें गूंजने लगीं खतरनाक ....खतरनाक ....किसकी जीभ है ? घेरे से बाहर क्यों हैं ?
“ न्याव “ जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है , स्थानीयता का पर्याप्त प्रभाव जहाँ यथार्थ को स्थायीत्व प्रदान करता है वहीँ किस्सागोई का तत्व कथानक में मनोरंजकता का समावेश तो करता ही है , पाठकों को पात्रों एवं कथावस्तु के साथ भी जोड़ता चलता है। कहानी का कथ्य समाज के दमनकारी शक्तियों द्वारा अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए संरक्षण दिए जा रहे दिग्भ्रमित युवाओं पर केन्द्रित है जो समाज को जंगल में तब्दील करने की जुगत में शातिर शिकारी की भूमिका में उतर चुके हैं , सुरेश ऐसा ही एक शिकारी है जिसके लिए चालीस वर्ष की विधवा स्त्री एवं पंद्रह – सोलह साल की प्रियंका उसके लिए शिकार के अलावा कुछ नहीं , शिकार करने की घात में लगे ये शिकारी , शिकार को लुभाने की सभी कलाओं में माहिर हैं। कहानीकार ने प्रियंका की घात में लगे सुरेश की मनःस्थिति के एक एक दृश्य को बड़ी कुशलता से जोड़ते हुए “ मूविंग इफ़ेक्ट “ देने में सफलता पाई है -, “ ... सुरेश का मन चार -छःदिनों से किसी चीज में नहीं लग रहा। शिकार किये भी पंद्रह -बीस दिन हो गए। मोबाइल का पोर्न क्लिप भीतर सुलगती आग में घी का काम कर रही। वह ऐसे लग रहा जैसे पंख फडफडाती फुद्दी के शिकार के इंतजार में छिपकली दीवार से चिपकी हो। दम साधे। जीभ भीतर – बाहर करती। कब छिपकली के सामने दीवार पर फुद्दी बैठे ....और छिपकली झट से मुँह खोले ...लप्प से दबोच ले। “ प्रतीकों और बिम्बों का सहज ,स्वाभाविक सामंजस्य कथानक को सबलता और जीवन्तता प्रदान करता है। सामान्य जन के अधिकारों और जीवन को संरक्षण देने की कटिबद्धता का खोखला दावा करने वाली न्याय व्यवस्था की भी कलई खोलने में कहानी सर्वदा सफल रही है।
किसी भी सामान्य अथवा असामान्य स्थिति से गुजरते हुए वह उतनी जटिल प्रतीत नहीं होती, जब तक कि हम उसे एक स्थिति के रूप में नहीं लेते हैं , किन्तु जब हम उसके प्रति सचेत एवं सक्रिय हो जाते हैं तब स्थिति में मनोवैज्ञानिक समस्या का समावेश हो जाता है। अनुभूति के विस्तार के साथ दृष्टि में भी गहराई आई है। कहानी के पात्रों की भिन्न – भिन्न एवं विरोधाभासी परिस्थितियों में संवेदना का स्तर भी एक ही स्थिति – राजनैतिक घालमेल जिसमें धर्म , संप्रदाय , जाति सबकी चाशनी डाल दी गई है , की स्वीकृति स्पष्ट दिखाई देती है। कथा के विकास के साथ–साथ स्थिति के प्रति सचेतनता और सक्रियता भी बढती दिखाई देती है जो मानवीय संवेदना की सहज माँग है।
“ नन्हा खिलाडी “ में जीवन के छोटे – छोटे अनुभवों की स्वानुभूतियों की अभिव्यक्ति , संवेदना की व्यापकता के साथ देखने को मिलती है। प्लेटफार्म पर ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे कहानीकार के कुछ घंटे उनकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म दृश्यों को समग्रता में ग्रहण करती हुई जीवन , समाज और व्यवस्था के साथ विभिन्न सन्दर्भों में अलग – अलग कोणों से जोड़ने में सफल रहे हैं।
महिला भिखारिनों या पुरुष भिखारी को कथा के मुख्य पात्रों में शामिल करते हुए कहानीकार उन्हें हमारी सहानुभूति का पात्र बड़ी ही स्वाभाविकता से बना देता है जो परोक्षतः उसकी मानवीय पीड़ा , संवेदना की अभिव्यक्ति का रूप है।
व्यंजना का भी प्रयोग कहानीकार ने नितांत नवीनता के साथ किया है - , “ आसमान के आँगन में एक भी तारा – सितारा न था। लगा रहा था कि कलमुँही रात ही चाट कर गई होगी – ढोकला या फाफड़ा समझकर ! रात का शौक व चटोरापन किसी से छुपा न था !.....तारों -सितारों से भरी विशाल आसमानी परात को चाट – पोंछकर यूँ साफ़ किया था कि जैसे जर्मन शेफर्ड कुतिया ने प्लेट से नॉनवेज साफ़ किया हो !....”
नई दृष्टि एवं नए सन्दर्भों के समावेशन से कहानी में भी नवीनता का बोध होता है। वर्तमान समस्याओं और उनका सामना करना तथा उन्हें अपने रोजमर्रा के जीवन में शामिल करने का भाव नया है जिसके कारण उन समस्याओं को नई सोच और मानसिकता के साथ ग्रहण करते हुए अभिव्यक्ति के नए आयाम भी सामने आये। सूक्ष्म से सूक्ष्म संकेतों द्वारा बड़ी बात को सुझाया जाना , वर्तमान स्थिति में संवेदनशीलता के नए द्वारों को खोलने की चेष्टा इस कहानी में है .... , “ ओह्ह ... मैं कैसे वक्त में था ! कैसे सफ़र में था ! रात की हँसी और माननीय दैत्य कुमार के भाषण के शोर में कुछ सुनना – कहना कठिन होता जा रहा था ! मैं खुद को ढाढ़स बंधा रहा था कि जब तक नन्हा खिलाडी खेलता रहेगा , उम्मीद जिन्दा रहेगी ! लेकिन नहीं मालूम कि कब तक खेल सकेगा नन्हा खिलाड़ी “ ....| तमाम निराशाजनक स्थितियों , सन्दर्भों की उपस्थिति में किंचित अनिश्चितता के भाव से भरी यह आशाजनित दृष्टि ही आम आदमी की जिजीविषा है और उस आम आदमी का प्रतिनिधित्व करती है कहानीकार की दृष्टि और उनकी संवेदना।
कहानी , “ गोल टोपी “ का केन्द्रीय कथ्य प्रथम दृष्टया बहुश्रुत लोककथा तोता – मैना के समकक्ष ही प्रतीत होती है किन्तु कहानी के मुख्य पात्र जिन्हें कहानीकार तोता मैना के प्रतीक के रूप में कथानक में प्रस्तुत करता है , वे आधुनिक मानसिकता एवं महानगरीय जीवन शैली से आक्रांत प्रेम की पारंपरिक अवधारणा एवं परिभाषा को उसके मूल रूप में स्वीकारने की बात तो दूर , मूर्तिभंजक की भूमिका में खड़े दिखाई देते हैं। आज की पीढ़ी के युवाओं की तरह प्रेम की पवित्रता एवं एकनिष्ठता को वे सिरे से ख़ारिज कर चुके हैं। इस पीढ़ी के लिए लहना सिंह , मधुलिका , चम्पा आदि नायक – नायिकाएं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आउटडेटिड हो चुके हैं और जहाँ ये प्रतिमाएं निरंतर आघात – प्रत्याघात से खंडित होती दिख रही हैं वहीं प्रेमी – प्रेमिकाएं प्रेम के ककहरे की शुरुआत देह की भौगोलिक रचना को समझाने के बाद ही करते हैं। प्रेम का अंतिम पड़ाव उनके लिए प्रेम की यात्रा का आरम्भ है और प्रेम के आरम्भ – अंत से सर्वथा असम्पृक्त रहते हुए सम्बन्ध को मात्र देह से जोड़ अंतरंगता या प्रगाढ़ता से स्वयं को विरक्त रखने की कला में आज की पीढ़ी निष्णात है। कहानी में स्त्री , पुरुष पात्रों में दैहिक सम्बन्ध को लेकर न कोई दुराव – छिपाव है , न कोई वर्जना न अनुराग और न ही आत्मीयता – बस जिंदगी की अन्य जरूरतों की तरह यह भी एक जरुरत मात्र है और जरुरत पूरी होने के बाद – यूज एंड थ्रो ! आसक्ति का कोई भाव उन्हें उस जरुरत से जड़ नहीं पाता। आधुनिकता और अश्लीलता के बीच की अदृश्य रेखा को यह पीढ़ी पूर्णतः अनदेखा कर चुकी है जिसके तहत न तो इसे श्लीलता के नियम स्वीकार्य हैं और न ही अश्लीलता की सीमा। कहानी के तोता – मैना भी इसी ओपेन माइंडेड जमात का हिस्सा हैं , मैना शादी या लिव इन मुद्दों पर अपने विचार यूँ व्यक्त करती है , “ कल तू शादी करेगा ,| परसों बच्चे पैदा करेगा .... फिर उम्मीद करेगा कि मैं पतिव्रता रहूँ। करवा चौथ का व्रत रखूँ और बच्चों को पालती रहूँ। वर्ना डिवोर्स .... इतनी बोरिंग लाइफ ! छिः ...||मैं तुझे उन्नीसवीं सदी की लग री हूँ कि जिसके गले में तू मंगलसूत्र बाँध जिंदगी भर के लिए बंधक बना लेगा ! मैं पहाड़ी मैना हूँ। गृहस्थी के पिंजरे में रहना होता तो पहाड़ , जंगल और नदी लाँघ यहाँ क्यों आती ? “
दूसरी तरफ तोता अपने विचारों के जाल में उलझा था ... , “ मैना कभी न कभी शादी वादी की बात करेगी। हो सकता है न भी करे। मगर मुझे अपनी तरफ से पहले ही साफ़ कर देना चाहिए ताकि कल मुझे वह गौरैया की तरह भला बुरा न कहे कि मैंने उसका इस्तेमाल किया ... वगैरह – वगैरह ! कहीं कोई बखेड़ा खड़ा न करे। जब अलग हो तो मन में साझा स्मृति की मिठास लिए हो , कटुता लिए न हो। “
तोता और मैना उस आधुनिक पीढ़ी का प्रतिनिधत्त्व करते हैं जो उच्छृंखल मनोवृति एवं वर्जनाहीन जीवनशैली के साथ जीते हैं एवं परंपरागत जीवन पद्धति , मानसिकता और सामाजिक मर्यादाओं में संसय के चरम तक अविश्वास रखते हैं , जहाँ अमर्यादित जीवन जीने में उन्हें कोई संकोच नहीं , वहीं वैवाहिक संस्था में उनकी कोई आस्था शेष नहीं , दूसरी तरफ स्वछन्द यौनाचार के प्रति उनका सीमातीत आकर्षण है। ये इस भ्रम के साथ जी रहे हैं कि सड़ी गली सामाजिक मान्यताओं को खंडित करने एवं एक नवीन समाज की रचना में उनकी यह मानसिकता और सक्रियता क्रांतिकारी भूमिका निभाने में सक्षम हैं। इस आधुनिकता बोध को ही संभवतः केदार नाथ अग्रवाल ने , “ खंडित मानव मन की खंडित मनोदशा की खंडित अभिव्यक्ति “ कहा था। तथाकथित अत्याधुनिक बोध के साथ जी रही आज की पीढ़ी इसी मनोदशा की शिकार है।
भाषिक स्तर पर संवादों में कहीं – कहीं स्वच्छंद एवं असंतुलित प्रवाह देखने को मिलता है जो संभवतः पात्रों के मुक्त जीवन एवं परिवेश को चित्रित करने हेतु कहानीकार की बाध्यता बन गई हो।
कहानी के अंत में , “ गोल टोपी “ के प्रतीक द्वारा तोता -मैना की पीढ़ी के एक सशक्त , सकारात्मक जीवन बोध का संकेत दिया है , और वह है इनका सांप्रदायिक व्यामोह से सर्वथा मुक्त होना। इस प्रकार कहानीकार कहानी के अंत में जहाँ तोता कहता है , “ माफ़ करना यार भाई जान ... हमने गोल टोपी के बारे में जाने क्या – क्या सोचा .... इस्लामी ... आतंकी ....हाफिज सईद .... आई एस आई ! “ इस सत्य को उद्घाटित करने में भी सफल हुआ है कि सामाजिक विपर्यय की अघोषित मान्यता है कि जाति , धर्म , संप्रदाय विशेष के व्यक्ति उस जाति , धर्म और संप्रदाय से ही सुरक्षा का अनुभव कर सकते हैं।
“ मिन्नी ,मछली और सांड “ कहानी माँ के रूप में आराधना कलम अपनी अपूरित महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की प्रत्याशा में बेटी मिन्नी को इमोशनली ब्लैकमेल करने से भी नहीं चूकती...., “ क्या कभी किसी मछली की आँखों में ऐसा लालच कौंधा कि वह तैरना भूल गई हो .... और डूब मरी हो। बताओ मिन्नी क्या तुमने देखा – सुना कभी ऐसा ! छोड़ – छाड़ के नदी और समंदर की गली / मछली शॉपिंग मॉल चली। .... तुम्हारी चुप्पी कह रही है कि तुमने ऐसा कुछ भी नहीं देखा – सुना। फिर क्यों पानी से बाहर निकलना चाहती हो ? मछलियों का सुख – दुःख और जीवन पानी में ही है। .... तुम तैराकी में किसी भी नस्ल की मछली से कम न हो ? तैरना ही तुम्हारा जीवन ! धर्म ! इश्क़ – मुहब्बत ! ..... तुम तैराकी की सचिन तेंदुलकर बनो .... तैरो कि तुम्हारी तैराकी के किस्से सुन मछलियाँ भी चमत्कृत हो जाएँ। “
मिन्नी माँ और कोच मैथ्यू के लिए अपनी अपूर्ण महत्वाकांक्षा , हताशाजनित कुंठा और अव्यक्त आक्रोश के निस्तार का माध्यम है जिसका इस्तेमाल वे लालफीताशाही में संलग्न साँडों से प्रतिशोध लेने के लिए करने को सन्नद्ध हैं।
कहानी में सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार की दुर्गन्ध को फैलाती लालफीताशाही , घूसखोरी , अहंमन्यता , स्नॉबरी जैसी ब्यूरोक्रेटिक एटीटूएड , परिवारवाद , जातिवाद , क्षेत्रवाद और गुटवाद जैसी प्रवृतियों के साथ ही वर्चस्ववादियों की वैयक्तिक गतिविधियाँ चरम पर हैं जहाँ प्रतिभा का सही मूल्यांकन नहीं किया जाता बल्कि उसे धूल फाँकने को विवश कर दिया जाता है। ऐसे ही षडयंत्र और लालफीताशाही की शिकार अनुराधा एवं कमोबेश कोच मैथ्यू हैं।मिन्नी की जन्मजात विलक्षण प्रतिभा दोनों के दमित आकांक्षा को साकार करने का जैसे एकमात्र माध्यम बन जाती है। उनकी महत्वाकांक्षाओं की मकड़जाल में उलझ मिन्नी अपने बचपन के सहज , स्वाभाविक सपनों को बलि चढ़ते देख भी प्रतिकार करने की स्थिति अपने को नहीं डाल पाती और प्रतिक्रिया की तीव्रता उसके व्यवहार में लक्षित होने लगती है। किन्तु जब उसकी माँ अपनी अनकही पीड़ा उसके साथ बांटती है तो मिन्नी सब भूल माँ को उस पीड़ा और प्रताड़ना से उबरने को प्रतिबद्ध हो उठती है।
मनोविज्ञान के दो विपरीत बिन्दुओं – बल एवं वयस्क मनोवैज्ञानिक गुत्थियों की उलझनें , व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को कितनी गहराई तक प्रभावित करती है , चेतन – अवचेतन का निरंतर संघर्ष कहानी को स्वाभाविक गति और कथानक को नवीनता प्रदान करता है।
गद्य स्वभावतः वर्णनात्मक होता है और चूँकि कहानी विधा का माध्यम गद्य है अतः वर्णनात्मकता कहानी का अनिवार्य गुण है। कहानी की सफलता सार्थक वर्णन के ऊपर ही निर्भर करती है और वर्णनात्मकता की सार्थकता कहानी के आंतरिक संघटन की पुष्टि में है जो कहानी में नई बनावट पैदा करता है या प्रभाव का पुनर्संयोजन करता है। इस दृष्टि से सत्यनारायण पटेल के संग्रह “ तीतर फांद “ की लगभग सारी कहानियों में वर्णनात्मकता अपरिहार्य उपस्थिति कहानियों की आंतरिक संघटन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। “ तीतर फांद “ कहानी कई जगहों पर अतिवर्णनात्मकता के दुराग्रह का शिकार बनती सी दिखाई देती है। यद्यपि स्थानीय भाषिक पुट देकर कहानीकार ने प्रतीकात्मक चरित्रों के संवादों को सहजता , प्रभावोत्पादकता प्रदान करने का सफल प्रयास किया है। लम्बी कहानी में कई लघु लोककथाओं का संगुफन है जो कथा चरित्रों के माध्यम से राजनैतिक वितंडा का शिकार बने आम आदमी की पीड़ा को गहनता से रूपायित करता है।ठग और महाराजा की कथा सुनते हुए तीतर कहता है , “ भिया ठेठ राजा -महाराजाओं के टेम का किस्सा है। उस वक्त में भी अपने महाराजा टाइप का एक आदमी था। जो था तो भौत गरीब माँ का बेटा , पर था महाचतुर भिया ! महालफ्फाज ! फांकोडिया ! फेंकू ! झांसेबाज ! “ .... वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह लोककथा राजनैतिक भ्रष्टाचार , अनैतिकता की सड़ांध , स्वार्थ लिप्सा की भूख को समग्रता दे उजागर करती हुई अपनी पुरातनता को छोड़ सामयिकता में ढल जाती है।
चुनाव अपने को लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी नौटंकी के रूप में अपनी प्रतिष्ठा कर चुका है , आम अदमी मतदाता के रूप में अपनी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका के भ्रम में जीता हुआ महज एक कठपुतली के अलावे और कुछ नहीं होता – सर्वशक्तिमान राजनेताओं की उँगलियों के इशारों पर नाचता हुआ वह अपने को राजनीति का नियामक मान लेने की भूल कर बैठता है।
कहानी में ‘ मैं “ और तीतरी के संवाद आज की व्यवस्था का कच्चा चिठ्ठा खोलने में पर्याप्त सक्षम हैं।
कहानीकार की सवेदना वर्तमान व्यवस्था से किस हद तक आहत है , यह कहानी में कई स्थानों पर उनकी तीव्र प्रतिक्रियात्मक प्रगल्भता से जाहिर होती है , विडम्बना यही है कि स्वार्थ , लोलुपता किसी जाति विशेष या संप्रदाय की थाती नहीं , एक सार्वजनिक विकार हैं और हर हाल में इनका शिकार कमजोर तबके के लोग ही बनने को अभिशप्त हैं। तीतर , शिकारी और फांद के बिम्बों का सार्थक प्रयोग करते हुए कहानीकार एक सुंदर रूपक रचता है एवं अपने वर्चस्व को हर हाल में बरकरार और बढ़ाते जाने में समर्थ सत्तालोलुप राजनीतिज्ञों एवं सर्वहारा वर्ग के बेमानी संघर्ष को जिसमें सर्वहारा वर्ग की पराजय सुनिश्चित है , मार्मिकता से रूपायित करने में सफल हुआ है। इन स्थितियों को चित्रित करने में कहानीकार ने व्यंजना का सुंदर प्रयोग कहानी में किया है।
वर्तमान राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में जीवन की चहुमुंखी विभीषिकाओं से घिरे आम आदमी की लाचारी और बेचारगी का जीता – जागता दस्तावेज है सत्यनारायण पटेल का “ तीतर फांद “।
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परिचय - डॉ. मीरा श्रीवास्तव ( एम ए हिंदी , बी एड , पी एच डी )
द्वारा - प्रो. सुरेश श्रीवास्तव , राजेंद्र नगर ,आरा - भोजपुर
पूर्व प्राचार्या डी ए वी पब्लिक स्कूल , आरा - भोजपुर
विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में कवितायें , लेख , समीक्षाएं प्रकाशित
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