व्यथा के कोख से ही कथा पैदा होती है। व्यथा अर्थात जीवन की वेदना। वेदना को वही महसूस करता है जिसके भीतर संवेदना होती है। बिना संवेदना के हम अ...
व्यथा के कोख से ही कथा पैदा होती है। व्यथा अर्थात जीवन की वेदना। वेदना को वही महसूस करता है जिसके भीतर संवेदना होती है। बिना संवेदना के हम अपना दुःख तो महसूस कर सकते है पर दूसरों का दुख? मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जब हम समाज की पीड़ा को महसूस करते है तभी हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं। यदि हम दूसरों की खुशी में प्रसन्न और दूसरों के दुख में दुखी नहीं होते तो इसका अर्थ यही है हमारी संवेदना निष्प्राण हो गई है। जीवन सह अस्तित्व के सिद्धांत पर ही निर्भर है। सर्वे भवन्तु सुखिनः के उच्च आदर्श को आत्मसात कर व्यवहार में लाना ही मनुष्यता का मेरूदंड है। मगर अफसोस आज हम और हमारा समाज स्वकेन्द्रित होता जा रहा है। मैं ही सब कुछ हूँ और मेरा ही सब कुछ है, यह आत्मघाती सोच ही मनुष्यता को गर्त में ढकेल रहा है। मनुष्यता को बचाये रखने के लिए हृदय में संवेदना का संचार करना आज सबसे बड़ा युग धर्म है। साहित्यकार का धर्म इसी लक्ष्य को प्राप्त करना होता है। वह अपनी सर्जना के माध्यम से एक बेहतर समाज का निर्माण करना चाहता है। इसीलिए वह अपनी लेखनी के माध्यम से अपने विचारों और अपनी अनुभतियों को शब्दों में पिरोकर कागजों पर उतारता है और पाठकों के समक्ष रखता है। लेखक की सर्जना का हर शब्द जीवंत होकर गुहार लगाता है, अन्याय के विरूद्ध हुंकार भरता है, भटके हुए लोगों को सही राह दिखाता है और स्वार्थ की महामारी से मुचि्र्छत होती जा रही मनुष्यता के भीतर प्राण फूंकता है। लेखन की पहली शर्त जनपक्षधरता है। एक वृहत्तर समाज के साथ खड़े होकर उनकी पीड़ा को महसूस करना और अपने शब्दों में मुखर करना ही लेखकीय दायित्व है और इस गुरूत्तरदायित्व का निष्ठापूर्वक तथा पूर्ण समर्पण के साथ निर्वहण करने वाली लेखिका को हिन्दी जगत लघुकथाकार डॉ. शैलचन्द्रा के नाम से जानता और पहचानता है।
वैसे लेखक अपने व्यक्तित्व से नहीं बल्कि अपने कृतित्व से पहचाना जाता है। इसलिए डॉ. शैल चन्द्रा के कृतित्व पर ही चर्चा करना यहां अभिष्ट है। उनकी कथायात्रा विडम्बना नामक लघुकथा से शुरू हुई और जुनून और अन्य कहानियां से लेकर घोसला, घर और अन्य कहानियां तक अनवरत जारी है। डॉ. शैलचन्द्रा की लघुकथाओं को मैं वामन में विराट की कथायात्रा मानता हूँ। उनकी लघुकथाएं इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वामन का अवतार, हिमालय से भी ऊँचा हो सकता है। यश प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित घोसला और घर और अन्य कहानियां मेरी बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। यह लघुकथा संग्रह डॉ. चन्द्रा की नवीनतम कृति है जो हिन्दी लघु कथा में चर्चा के केन्द्र में है। एक सौ बारह पृष्ठ की इस किताब में अठहत्तर लघुकथाओं को संकलित किया गया। इससे कहानियों के आकार के संबंध में आप सहज ही अंदाज लगा सकते हैं। पर अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की सीमा नहीं बल्कि उसका उद्देश्य मायने रखता है। शायद ऐसे ही किसी संदर्भ में रहीम कवि ने कहा होगा कि ‘‘रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजै डारि। जहां काम आवै सुई का करही तरवारि।‘‘ जब हम कम-से कम शब्दों में अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करने की दक्षता रखते हैं तो व्यर्थ ही शब्द जाया करने का कोई मतलब नहीं है। यदि गोली से लक्ष्य पर निशाना साधा सकता है, तो गोला दागना बेमानी है। डॉ शैलचन्द्रा की इसी दृढ़ मान्यता का मूर्त रूप है घोसला और घर और अन्य कहानियां।
संग्रह के शीर्षक लघुकथा घोसला और घर की यह पंक्तियां दृष्टव्य है कि एक दिन मादा चिड़िया बोली, ‘‘सुनो जी! यहाँ के वातावरण और आदत का प्रभाव हम पर पड़ रहा है। हम प्रेम से रहने वाले प्रेमी पक्षी पर इस अट्टालिका में रहने वाले मनुष्यों का बुरा प्रभाव पड़ रहा है। हम यहाँ नहीं रहेंगे। प्रत्युत्तर में नर चिड़िया ने कहा-‘‘अब तुम समझ गयी होगी कि यह अट्टालिका ‘घर‘ नहीं सिर्फ अट्टालिका है।‘‘इस संवाद से ही आज के दुनिया की स्थिति समझी जा सकती है। आज मनुष्य के पास भौतिक सुख-सुविधाओं के साधनों की कमी नहीं है। आलीशान कोठियां है। संचार के बहुत सारे माध्यम है। कुछ ही समय में दुनिया के किसी एक कोने से दूसरे कोने पर लाने और ले जा सकने वाले जेट विमान है। चमचमाती सड़कें हैं। नहीं है तो बस दिल को दिलों से जोड़ने वाला प्रेम नहीं है। प्रेम के बिना दुनिया की स्थिति बिल्कुल वैसी ही है जैसे सुगंध के बिना फूल य प्राण बिना स्वर्ण की सुन्दर और कीमती मूर्ति। आपसी प्रेम, भाईचारा और विश्व बन्धुत्व की भावना के बिना क्या हम अपनी मनुष्यता को बचा पायेंगे, यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने चट्टान की तरह अड़ा है। कुछ लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए हमें धार्मिक आडम्बरों और पाखंडों की ओर ढकेल रहे हैं तो कुछ अपनी कट्टरपंथी विचारधारा से साम्प्रदायिक सदभाव को बिगाड़ने पर तुले हैं। कुछ निजी स्वार्थ के लिए प्रगतिशील सोच को अवरूद्ध कर फिर से अंधविश्वास और जड़ता के चक्रव्यूह में जकड़ने को तैयार खड़े हैं, तो कुछ बाजारवाद के जरिये लीलने को कमर कसकर जुटे हैं। डॉ चन्द्रा की लघु कथाएं ऐसे ही समाज विघातक आसुरी शक्तियों के खिलाफ जागरण का शंखनाद करती है।
संग्रह में संकलित सभी लघुकथाएं सोद्देश्य है। पारिवारिक, सामाजिक, नैतिक एवं चारित्रिक तथा राजनैतिक एवं साहित्यिक पतन को ही केन्द्र में रखकर कथाओं की सर्जना की गई है। खोखलापन, उनकी बारी साहित्यिक पतन की कथा कहती है तो बंजर और कदम्ब का पेड़ औद्योगीकरण के भेंट चढ़ते कृषि भूमि और प्रदूषित होते पर्यावरण और सिमटते जंगलों की व्यथा कहती है। नेपथ्य का सच, तेरहवीं, आस्था का बिजनेस और भयमुक्त कहानी धार्मिक आडम्बर और अंध विश्वास के गाल पर तमाचा जड़ती है तो कौमी एकता तथा सोशल वर्कर कहानी कथनी और करनी के असामंजस्य का पोल खोलती है। प्रमोशन यौन उत्पीड़न के पीड़ा को स्वर देती है तो इक्कीसवीं सदी की शादी समलैंगिकता का समर्थन करने वालों को भयावह भविष्य के प्रति सचेत करती है।
संग्रह की सभी कहानियां हमें वैज्ञानिक चिन्तन से सम्पन्न प्रगतिशील सोच के साथ आडम्बर रहित जीवन शैली के साथ सादा जीवन उच्च विचार को अपनाने एवं एक सहृदय मनुष्य तथा देश के जिम्मेदार नागरिक बनने का संदेश देती है।
मैं आशान्वित हूँ कि आकर्षक मुखपृष्ठ और सुन्दर छपाई से युक्त, लेखिका की इस नवीनतम कृति का हिन्दी जगत में स्वागत होगा। पाठक इस संग्रह में अन्तनिर्हित संदेशों को आत्मसात करेंगे तथा एक स्वास्थ्य समाज और सुदृढ़ राष्ट्र के निर्माण में सक्रिय सहभागिता निभायेंगे। डॉ. शैल चन्द्रा की और भी उत्कृष्ट साहित्य की अपेक्षा के साथ मैं उन्हें हार्दिक बधाई देता हूँ।
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वीरेन्द्र ‘सरल‘
बोड़रा (मगरलोड़)
जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)
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