कहानी // सरकारी लाल // जितेंद्र आनंद

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सड़क बनाना सरकार का बहुत ही जरूरी कार्य है। सड़क है तो हर काम है, घर तक सामान लाना हो या ऑफिस जाना हो, स्कूल हो या फिर सब्जी मण्डी। और फिर बार...

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सड़क बनाना सरकार का बहुत ही जरूरी कार्य है। सड़क है तो हर काम है, घर तक सामान लाना हो या ऑफिस जाना हो, स्कूल हो या फिर सब्जी मण्डी। और फिर बारात भी तो सड़क पर ही निकलती है।

विनोद कुमार जी बचपन से ही बहुत विद्वान थे, पिता कुशल प्रताप सरकार के सड़क निर्माण विभाग में कार्यपालक अभियन्ता के पद से सेवानिवृत्त हुए और बहुत ईमानदार स्वभाव के परिचायक थे। कुशल जी के बारे में दूर दूर तक चर्चा थी की कमीशन की वजह से आज तक कभी किसी भी ठेकेदार की बिल नहीं रोका, भगवान की कृपा से उन्हें पत्नी मधु भी सुयोग्य मिली और जीवन को आराम से निकाल दिया। शिक्षा का साथ विनोद कुमार को बचपन से मिल गया और बस न जाने कैसे आईएएस की परीक्षा भी पास हो गयी। समझदार पिता ने विनोद जी की शादी अपने जैसे सरकारी ऑफिसर की बेटी सुनीता कुमारी से करवा दी। गाँव-गाँव में विकास के कार्य कराते हुए एक दिन शहरी विकास मंत्रालय के सचिव पद पर आसीन हो गए। दिल्ली में उनका बिहार प्रदेश के कलेक्टर जैसा रुतबा तो न था लेकिन सरल स्वभाव की विरासत उन्हें कहीं परेशान न होने देती।

कहानी आसान है, सरल है और ये सड़क की चर्चा के बीच में अचानक कैसे आ गयी .....चलिये हम आपको अलग दिशा में ले चलते हैं, हुआ यूँ की विनोद कुमार जी के आईआईटी पास कर आईआईएम अहमदाबाद के उज्ज्वल भविष्य वाले बेटे शरद कुमार को न जाने कैसे आईएएस बनने का भूत सवार हो गया और विनोद कुमार जी दिन रात की नींद न जाने कहाँ उड़न छू हो गयी, वह समझ नहीं पा रहे थे कि उनकी शरद के परवरिश में कहाँ कमी रह गयी।

राजनीति उतनी बड़ी चीज नहीं जितनी वो दूर से नज़र आती है। यह बात विनोद जी कि समझ में दिल्ली आ कर ही आई। हर रोज अपने देश के मोबाइल नेटवर्क कंपनी के मैनिजिंग डाइरेक्टर के घर के सामने से निकलते हुए महसूस होने लगा था कि पूरी पढ़ाई और सारी सरकारी नौकरी में बनाई रद्दी को अगर सबसे महंगे कबाड़ी को बेच दें तो नई दिल्ली के इलाके में एक गमला रखने कि जगह भी न ले पायेंगे। एक बार जब वो बक्सर के कलेक्टर थे और सारी दुनिया उनके आस पास घूमती थी, तो दिल्ली में अपने जिले में बेहतरीन कार्य के लिए केन्द्रीय मंत्री से पुरुस्कार लेने आए थे। बहुत अच्छा लगा, बस गलती से ज़ोर बाग में एक घर कि कीमत जानने के लिए अपनी सरकारी कार रोक ली। ड्राईवर समझदार निकला, उसने बात तुरन्त संभाल ली और ज़ोर बाग के बाजार में एक चाय पिला कर विनोद कुमार जी बिहार भवन छोड़ आया।

ये सड़क भी न जाने किन किन रास्तों से निकल जाती है, सारे रास्ते देश के गरीबों के घर चले जाते तो ठीक था, जब ये किसी ऐसे देशवाशी के घर के सामने से निकाल जाएँ जो इन पढ़े लिखों को ही नौकरी पर रखता है तो बड़ी फजीहत है। कलेक्टर को तो गरीबों कि जय – जय कार के नारों से फुर्सत नहीं और कहाँ अमृता शेरगिल मार्ग पर बने बँगले। फिर एक दिन विनोद कुमार जी ने सुना कि 31 जनवरी लेन में भी एक घर बिक गया। फिर एक बार जिज्ञासा जागी, आखिरकार बक्सर के सबसे नामी पते पर रहते थे, और चाहे एमपी हों या एमएलए, रोज दरवाजे पर कोई न कोई मिल ही जाता। बिहार के मुख्यमंत्री तो जैसे उनकी पूजा ही करते रहते, हर मीटिंग में विनोद जी के चर्चे। मुख्यमंत्री हमेशा बाकी ऑफिसर को मिसाल देते न थकते। आखिरकार पता चल ही गया कि 31 जनवरी लेन में बिका घर उनके जिले में चल रही प्रदेश कि सारी सरकारी योजनाओं के कुल बजट से भी बहुत ज्यादा था।

उन्हें बात भूलने में बहुत ज्यादा समय न लगा, आखिर कार फुर्सत कहाँ ? एक दिन सुनीता जी ने गुजरात घूमने का मन बना लिया। साहेब बहुत दिनों बाद कहीं घूमने निकले, हर तरह का इंतज़ाम हो चला, आखिर कार ये रुतबा किस दिन काम आएगा। हालत और सम्मान ये कि बिहार के मुख्यमंत्री ने खुद फोन करके गुजरात के मुख्यमंत्री को विनोद कुमार जी के बारे में बताया, गुजरात का प्रशासन चकरा गया कि आखिर कोई कलेक्टर आ रहा है। जाने भी दो, बस यात्रा शुरू हुई। हर जगह वाहन उपलब्ध, साथ में कोई न कोई ऑफिसर।

फिर न जाने क्या हुआ , हुआ ये कि सोमनाथ के मन्दिर में एक बुजुर्ग सज्जन पुरुष ने न जाने एक जिज्ञासा कर दी। विनोद कुमार जी के साथ चल रहे ऑफिसर उनकी कुछ जान पहचान के लगे। विनोद कुमार जी ने बता दिया कि बक्सर के कलेक्टर हैं और उन्होने बता दिया कि गुजरात के मुख्य सचिव से सेवानिवृत्त हैं। बात परिवार तक पहुँच गयी, विनोद जी ने आखिर कार संज्ञान ले ही लिया, बेटा क्या करता है और क्या कभी उसको आईएएस बनाने का ख्याल नहीं आया। एक अनजानी मुलाक़ात में अनजान सेवानिवृत्त मुख्य सचिव का जवाब उनके मन को आहत कर गया। आखिरकार वह अपने बेटे का बुरा तो नहीं चाहते थे कि उसके आईएएस बनने के कामना करते।

एक बिहारी के जीवन का सम्मान लगता हो जैसे टूट गया हो, जीवन भर कि साधना, माँ – बाप की महानता और प्यार, समाज का सम्मान, ये रुतबा ये ...। बिहार कोई इंडस्ट्रियल राज्य तो नहीं जो कोई अपने संघर्ष को बिल गेट्स बना दे, अगर संघ लोक सेवा आयोग हर साल नौकरी न निकाले, तो लाखों के जीवन के उद्देश्य का क्या होगा ? समय नहीं था विनोद कुमार जी के पास, अब तक दिन में बीस फोन आ चुके थे, बड़े गंभीर मसले, एमपी साहब कई बार पूंछ चुके कि कब आयेंगे और एमएलए साहब तो लगता था कि अब बचे ही नहीं ....और फिर गरीब महिलाओं का पूरा हजूम उनके दफ्तर के सामने धरना लेकर बैठा था। इतनी दूर आकर, सफर का आनन्द किरकिरा हो गया। अपनी प्रिय सुनीता को समझा लिया कि बहुत जरूरी कार्य आ पड़ा, पर्यटन छोटा हो गया। विनोद जी ने वेरावल से ही टूर समाप्त कर दिया। सुनीता अपने पति का चेहरा देखती रह गयीं, चेहरे पर बसा अभिमान आज टूट गया है। आज के बाद अब विनोद अब वह विनोद नहीं।

खामोशी से चलता वह सरकारी गाड़ियों का दस्ता आज बहुत भारी हो चला। सफर है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेता, सुनीता ने अपनी आँखें बन्द कर ली हैं, अब कहने को क्या बचा है समझ नहीं नहीं आ रहा। जरा सी बात और ये भी कोई बात हुई, पर आज बात बिगड़ गयी है ये समझ में आ गया है।

एक सप्ताह बाद विनोद जी अपने मुख्य सचिव को दिल्ली जाने का आवेदन दे दिया। शायद इस शहर में जो जीवन का अब तक ध्येय रहा उसको भूल जाने की कोशिश कामयाब रहे। सड़क ही तो है न जाने कहाँ ले आई और न जाने कहाँ ले जायेगी।

आखिरकार विनोद जी ने शहरी विकास मंत्रालय में संयुक्त सचिव की नियुक्ति पा ही ली। गाँव – गाँव के विकास में कमाया हुआ नाम आखिर शहर के विकास में काम आ ही गया , फर्क कहाँ हुआ उनके चयन में ये आज तक उन्हें समझ में नहीं आया। शहर में स्मार्ट सिटी था और गाँव में मनरेगा। जाने भी दो इतनी रिसर्च जरूरी नहीं, आखिरकार कैबिनेट सचिव महोदय भी जो बिहार ही के थे ...वही आईएएस हर जगह, कोई महाराष्ट्र, गुजरात, नागालैंड, केरल या अरुणाचल से नहीं। सभी एक जैसे, और सभी या तो उत्तर प्रदेश से या फिर बिहार से... बड़ी त्रासदी, बड़ी आपदा कोई देशव्यापी आपदा प्रबंधन नहीं।

बस यहीं तमाशा हो गया, जहाँ बक्सर में हर काम आसानी से हो जाता, वहीं अब हर कागज बनाने के लिए दस बार पठन करना पड़ता। पढ़े लिखे बाबुओं की भीड़ में इज्जत बचानी मुश्किल हो गयी। एक से एक काबिल लगा हुआ था, कोई कंसल्टेंट बन कर तो कोई ऍडवाइजर बन कर। झमेला ही झमेला और मीटिंग का मेला ही मेला। लोग दिल्ली की पोस्टिंग क्यों चाहते हैं यह रहस्य आखिरकार कैबिनेट सचिव जी की सलाह से खुल ही गया, आखिर वो अपने दोनों बच्चों को अमेरिका भेजने में कामयाब जो हो गए। अगले दिन विनोद जी पहुँच गए कालू सराय और बेटे का आईआईटी की कोचिंग के लिए एड्मिशन करा दिया। उद्देश्य बदल गए, जिंदगी बदल गयी और कसम खाली की अब बेटे को सरकारी नौकरी की तरफ रुख न करने देंगे।

समय का पता न चला पहले आईआईटी फिर आईआईएम, होनहार पिता के काबिल बेटे ने आसानी से शिक्षा हासिल कर ली, चलो गाँव गाँव टोयलेट तो नहीं बनवाता डोलेगा। इतना कठिन परीक्षा देकर लगता है कि कोई विशाल मुकाम हासिल हो गया है पर वही बदबूदार कमरे, कुर्सी पर पड़ी तौलिया, कॉरीडोर में लटके हुए तार, चाहे बिहार सचिवालय हो या नई दिल्ली का शास्त्री भवन।

न जाने ये फितूर आया कैसे, बेटे को क्या तरकीब बताएँ। यूपीएससी भी कभी ये नहीं बताती कि कैसे घर मिलेंगे, कैसा ऑफिस होगा, आस पास के लोग कैसे होंगे और क्या काम करना पड़ेगा। सालों बाद जब समझ में आता है तो निकम्मापन ही बच जाता है, अब तो अक्ल लगाकर भी कुछ नहीं मिलेगा इस लिए लोग नौकरी में चलते ही रहते हैं, लेकिन बेटे को कैसे बचाएँ ...

तरकीब भी आखिर एक उपसचिव बता ही गए। साहिब जी बेटे को कुछ दिन देशाटन पर भेज दो और कुछ कलेक्टर से मिलवा दो, अपने आप ही अक्ल आ जाएगी। शायद, विनोद जी को यह विचार ठीक ही लगा, अगर यूपीएससी भी ऐसी कोई सुविधा देती कि परीक्षा से पहले काम का अनुमान हो जाता तो वो भी शायद जीवन ऐसे न गुजारते। आखिरकार बेटा सात राज्यों में तीस कलेक्टर साहबों से मिला, चार सयुंक्त सचिवों से और दो सेवानिवृत्त मुख्य सचिवों, अगले दिन शरद ने कैम्पस से मिली जॉब को तीस लाख साल के पैकेज पर जॉइन कर लिया।

जिस सड़क ने उन्हें भटका दिया वही सड़क बेटे शरद को सही राह पर ले आयी।

जितेंद्र आनंद – एक परिचय

जन्म : 21 अगस्त 1970 को अलीगढ़ में। मालवीय क्षेत्रीय अभियांत्रिकी विद्यालय, जयपुर से स्नातक व रुड़की विश्वविद्यालय, रुड़की से स्नातकोत्तर डिग्री।

हिन्दी में लेखन के लिए लगाव हमेशा से रहा। संयोगवश देर से बात बनी। अपने आस पास के लोगों की जीवन जीने की लिए की जाने वाली दिन रात की मेहनत ही प्रेरणा बन गयी है। कठिन देश और परिवेश में आशा बनाए रखना भी बहुत दुष्कर कार्य है।

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रचनाकार: कहानी // सरकारी लाल // जितेंद्र आनंद
कहानी // सरकारी लाल // जितेंद्र आनंद
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