हास्य-व्यंग्य नाटक : जमाल मियां और उनके मुसाहिब - लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

SHARE:

मंज़र एक नए किरदार -: दाऊद मियां – स्कूल के ऑफिस असिस्टेंट, उम्र छप्पन साल, सस्ते भाव में लिए गए पतलून और बुशर्ट पहने, नज़दीक की नज़र कम...


image

मंज़र एक

नए किरदार -:

दाऊद मियां – स्कूल के ऑफिस असिस्टेंट, उम्र छप्पन साल, सस्ते भाव में लिए गए पतलून और बुशर्ट पहने, नज़दीक की नज़र कमजोर है, इसलिए जेब में ऐनक रखते हैं। ज़र्दे के शौकीन मगर अपनी जेब में ज़र्दे की पेसी रखते नहीं, शमशाद बेग़म और मनु भाई की दुकान से ज़र्दा लेकर अपना काम चला लेते हैं। आराम-तलबी ऐसे हैं मियां कि, कुर्सी पर बैठे-बैठे ऊँघ ले लिया करते हैं। स्कूल सियासत में सियासती चालें चलने में माहिर, दफ़्तरेनिग़ार का काम करने में दिलचस्पी नहीं, मगर मेडमों का काम हल्का करने के लिए खुद उनका काम कर लिया करते हैं। यही कारण है, स्कूल की मेडमें अक्सर इनके पास बैठी रहती है। शमशाद बेग़म के साथ परवारिक मुद्दों अक्सर गुफ़्तगू करते रहते हैं।

जमाल मियां – इस स्कूल में सबसे कम उम्र के मुलाज़िम। उम्र करीब २० या बाईस साल के लगभग। जनाब की रीश बढ़ी हुई है, सर पर पगड़ी भी पहना करते हैं। बार-बार नाक में उंगली डालकर नाक खुजाने की गंदी आदत इनमें है। महंगे बुशर्ट व पतलून पहना करते हैं। आरामतलबी है, दफ़्तर का काम करने की जगह जनाब या तो फ़िल्मी मैगजीन पढ़ते हैं या फिर स्कूल की सियासत में अपना पाँव फंसाए रखते हैं। जनाब ठहरे खुराफ़ाती, दो को लड़ाकर मज़ा देखने वालों की श्रेणी में सबसे आगे।

मुसाहिब जमाल मियां से रुपये उधार लेने वाले।

[मंच रोशन होता है, स्कूल का बरामदा दिखायी देता है, यह बरामदा इनकी मनपसंद जगह है, बैठने की। इसलिए, यहीं इन्होने अपना दफ़्तर बना रखा है। इसी बरामदे में कई कुर्सियां रखी है, जिन पर अक्सर स्कूल की मेडमें बैठी-बैठी गुफ़्तगू करती रहती है। चाय के अखाड़े के बाद इनके दफ़्तर का स्थान शुरू हो जाता है, इनकी सीट के बिलकुल सामने हेड मिस्ट्रेस के कमरे की खिड़की है। अक्सर यह खिड़की बंद रहती है, मगर अन्दर हो रही गुफ़्तगू मियां को साफ़-साफ़ सुनायी देती है। इनकी सीट के पास ही छोटे दफ़्तरेनिग़ार की सीट है। जहां छोटे दफ़्तरेनिग़ार जमाल मियां बैठा करते हैं। इस स्कूल में सबसे कम उम्र के हैं, जिसका कारण है जनाब ने कम उम्र में ही मृत राज्य कर्मचारी आश्रित कोटे से नौकरी हासिल कर ली है। अभी सुबह का वक़्त है, घड़ी में करीब १० बजे होंगे। मियां अपनी सीट पर बैठे एक फ़ाइल देख रहे हैं, जिसमें छिपी है एक फ़िल्मी मैगज़ीन..जिसको खोलकर वे फ़िल्मी तारिकाओं के अर्द्ध नग्न फोटो आराम से देख रहे हैं। उनके पास ही कई उनके मुलाकातियों की भीड़ लगी है, वे कभी-कभी मुंह ऊँचाकर उनको ज़वाब भी देते जा रहे हैं। इन मुलाकातियों में पड़ोस की सेकेंडरी स्कूल के दफ़्तरेनिग़ार साबिर मियां भी मौज़ूद है। इन सबको दाऊद मियां अपनी बुलंद नज़रों से देखते हैं, और मालुम करने की कोशिश करते हैं कि ‘ये सभी मुलाकाती, किस वज़ह से यहाँ आये हैं ?’ अब, बातों का सिलसिला चालू होता है।]

एक आदमी – जनाब, आप ठहरे रहमदिल इंसान..मैं जानता हूँ आप ज़रूर हमारा काम कर देंगे।

दूसरा आदमी – क़िब्ला, आपके दादा मियां और हमारे वालिद साहब लंगोटिया यार थे। अम्मा कसम, इस रब्त के कारण आपको हमारा काम करना ही होगा।

तीसरा आदमी – [दूसरे आदमी से, कहता है] – अरे ओ बीबी फातमा के नेक दुख्तर। यहाँ आपकी दाल गलने वाली नहीं। तीन पीढ़ी से हमारा ख़ानदान इनके ख़ानदान की ख़िदमत करता आया है, मियां अब तो तुम यहाँ से गधे के सींग की तरह उड़न-छू हो जाओ।

जमाल मियां – [मुंह उठाते हुए, कहते हैं] – ख़ामोश हो जायें, मेरे मुअज्ज़मों। सबका काम, बन जाएगा। तसल्ली रखिये, पैसे आपके दीवानखाने पहुंच जायेंगे। अब पहले यह बताएं, कि आप सबकी मेहमानबाज़ी कैसे की जाय ? आप कहें तो चाय मंगवा दूं, या लस्सी ? बस आप पहले मुझे, अपने काम से फारिग़ होने दें।

[इतना कहकर, जमाल मियां अपनी टेबल की दराज़ से डायरी निकालते हैं, उसे खोलकर उसमें से टिकट निकालते हैं। तभी शमशाद बेग़म शीशे की ग्लासों में शरबत-ए-आज़म ले आती है। फिर सभी मुसाहिबों को शरबत-ए-आज़म के ग्लास थमाकर, टी-क्लब की चाय बनाने चली जाती है। उसके जाने के बाद, मियां अपने मुलाकातियों से कहते हैं।]

जमाल मियां – [मुलाकातियों से, कहते हैं] – मेरे हमदर्द, आपको ख़ुदा पर भरोसा होना चाहिए। ज़रा सुनिए, ख़ुदा किसी भी तरह अपने बन्दों को फ़ायदा पहुंचाने के लिए, कोई रास्ता इज़ाद करता है। अब देख लीजिये, ख़ुदा के मेहर से हमारे हाथ यह स्कीम लगी है..इस स्कीम से सबका भला होगा।

एक आदमी – कहिये जनाब, ऐसी कौनसी स्कीम आपको हाथ लगी है ? जिससे, हम सभी मोमिनों का भला होगा।

जमाल मियां – [खुश होकर, कहते हैं] – सुनिए जनाब, एक आदमी तीन आदमी को टिकट बेचेगा, इस तरह तीनों आदमी बारी-बारी अपने तीन ग्राहक बनायेंगे। बस, इस तरह चैन बनती जायेगी।

दूसरा आदमी – फिर, क्या होगा जनाब ?

जमाल मियां – आप समझ लीजिये, हर सौदे के तीसरे दौर पर पैसे लौटते रहेंगे। इस तरह आदमी खूब रुपये कमा लेगा। बस ध्यान रहें, यह ग्राहकों की चैन टूटनी नहीं चाहिए। अगर चैन टूट गयी, तो रुपये आने बंद।

[फिर क्या ? सभी मुलाकाती मियां के जाल में फंस जाते हैं, और जमाल मियां हरेक आदमी को टिकट बेचकर अपना कोटा पूरा कर लेते हैं। जिन-जिन आदमियों को टिकट बेचा गया, उनके नाम और पते अपनी डायरी में उतार लेते हैं जनाब। सभी मुलाकाती खुश होकर, चले जाते हैं। जाते-जाते उनको आशा भी बांध जाती है कि, जमाल मियां उनको अब उधार देने को तैयार हैं और यह रक़म वे उनके दीवानखाने पहुंचा ज़रूर देंगे..इस तरह उनका आया काम सलट जाएगा। इसके साथ पैसे उगाने की एक स्कीम भी उनके हाथ लग गयी है, ग्राहक बनने के हर तीसरे दौर पर उनके पास रुपये आते रहेंगे। अब दाऊद मियां से उनका यह नाटक देखा नहीं जा रहा है, वे तपाक से जमाल मियां से पूछ ही लेते हैं।]

दाऊद मियां – बड़ी देर से देख रहा हूँ, आपका यह ड्रामा। आज़कल कहीं आपको, कौम का ख़िदमतगार बनने का शौक तो नहीं चर्राया ?

[जमाल मियां की एक आदत है, बुरी। मियां दूसरों पर अपना रोब जमाने के लिए, वे बार-बार अपनी रीश [दाढ़ी] को हाथ से सहलाते रहते हैं।]

जमाल मियां – [अपनी रीश को, सहलाते हुए कहते हैं] – परवरदीगार ने इस बन्दे पर मेहर बरसा है, अजी क्या कहूं आपसे ? लोगों के बीच मुहब्बत फैलाने का जुम्मा दिया है, ख़ुद ख़ुदा ने। इस मुहब्बत ने, हमारा बना डाला है, बहुत बड़ा सर्किल।

[इतना कहने के बाद, मियां टेबल से फाइल उठाते हैं। फिर फाइल खोलकर, उसमें महज़ूफ [छुपी] फ़िल्मी मैगज़ीन के पन्ने बदलते हैं। मैगज़ीन में छपी अर्द्ध नग्न फिल्म तारिकाओं के चित्रों को निहारते हुए दाऊद मियां से गुफ़्तगू जारी रखते हैं।]

जमाल मियां – [मैगज़ीन में छपी फिल्म तारिकाओं के अर्द्ध नग्न चित्र निहारते हुए, कहते हैं] – जनाब आप जानते हैं, हम लायंस क्लब के मेंबर हैं। हर शाम को ये बड़े-बड़े ऑफिसर्स कलेक्टर, ए.डी.एम., एस.डी.एम वगैरा हमारे साथ कई इनडोर खेल खेला करते हैं।

[इतना कहकर, किसी फिल्म हिरोइन के चित्र को देखते हैं। और साथ में उसके बढ़े हुए उरोज़ों पर, उंगली रख देते हैं। इसके बाद वे अपने दिमाग़ में ऐसा अहसास लाते हैं, मानों वे उन मद-भरे उरोज़ों को स्पर्श कर रहे हों ? फिर, बरबस उनके मुंह से सिसकारी की आवाज़ निकल जाती है]

जमाल मियां – [सिसकारी की आवाज़, मुंह से निकालते हैं] - आ हा..क्या मस्त चीज़ है ?

दाऊद मियां – क्या कहा, साहबजादे ?

जमाल मियां – आपने बीच के बाल जो बढ़ा रखे हैं ना, बस हम उस चोटी जैसे बालों पर कायल हो गए..जनाब।

दाऊद मियां – नहीं, तुम कुछ अलग ही कह रहे थे।

जमाल मियां – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] - तब हमने यही कहा होगा कि, “आपको कभी भी कलेक्टरेट के बड़े ओहदेदारों से काम हो, आप बिना शर्म किये हमसे कहिये..हम चुटकियों में आपका वह काम करवा देंगे। [रोब गांठते हुए, कहते हैं] रोटरी क्लब में ये सभी ओहदेदार, हमारे साथ टेनिस खेला करते हैं।

[दाऊद मियां को बहुत बुरा लगता है, यह पिद्दी छोरा क्या बकता जा रहा है उनके सामने ? तीस साल नौकरी की है हमने, तब कहीं जाकर थोड़ा पब्लिक सर्किल बढ़ा। इस तरह उनको सफ़ेद झूठ बोलते देखकर, उनको तनाव हो जाता है। दाऊद मियां को ठहरा, नज़ला जुकाम। जब भी उन्हें थोड़ा सा तनाव होता है, उसी वक़्त उनकी नाक बहने लगती है। जमाल मियां की ऐसी घमंड से भरी बात सुनकर, उनको थोड़ा तनाव हो गया है। इसलिए वे, झट जेब से रुमाल बाहर निकालते हैं। अब वे उसे नाक पर लगाकर, नाक सिनकते हैं। इस तरह, नाक साफ़ करके झट उस रुमाल को अपनी जेब में रख लेते हैं। उनको नाक साफ़ करते देखकर, जमाल मियां झट आदत के मुताबिक़ अपना हाथ झट अपनी नाक पर रख देते हैं। फिर, वे नाक में उंगली डालकर नाक को खुजाने लगते हैं। फिर वे, अपनी शान में क़सीदे पढ़ते हुए कह देते हैं।]

जमाल मियां – [नाक में उंगली डालकर, उसे खुजाते हुए कहते हैं] – आप हमारे बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं, जनाब। अब हम आपको बता देते हैं कि ‘हमारे मुसाहिबों की फ़ेहरिस्त, काफ़ी लम्बी है।’ अजी क्या कहूं, आपसे ? काम पड़ने पर, ये ख़ुदा के बन्दे किसके पास जायेंगे ? हमारे पास ही आयेंगे, आख़िर हम ठहरे उनके मोहसिन। आप हमें दूसरे लफ़्ज़ों में, इनका बोहरा भी कह सकते हैं। आये दिन, काम पड़ने पर हम इनके काम आते हैं..रुपये-पैसे हमसे ही उधार ले जाते हैं। [उंगली पर लगा नाक का मैल, टेबल पोश से रगड़कर साफ़ करते हैं]

दाऊद मियां – आख़िर, ये रुपये-पैसे आपके पास आते कहाँ से हैं ? कहीं आपने, कारू का खज़ाना लूट लिया क्या ?     

जमाल मियां – [हंसते हुए, कहते हैं] – अरे हुज़ूर, हमारी अम्मीजान ने अपनी जमा राशि हमारे बैंक में छोड़ रखी है। बस, वही राशि इन ख़ुदा के बन्दों के काम में आ जाती है।

दाऊद मियां – [होंठों में ही, कहते हैं] – इस ख़िलक़त को हमने क़रीब से देखा है, उसे परखा है मियां। ये बाल, हमने धूप में सफ़ेद नहीं किये हैं। एक-एक पैसा जमा करके बनायी है, अपनी हैसियत। आज़ कहीं जाकर, हमारे अन्दर दो पैसे उधार देने की क़ाबिलियत आयी है...! मगर..

[होंठों में कहते-कहते दाऊद मियां के नाक में एक बदतमीज़ मच्छर घुस जाता है, फिर क्या ? मियां लगा देते हैं छींकों की झड़ी। बेचारे मियां नाक सिनककर, वापस जमाल के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं।]

दाऊद मियां – [होंठों में ही, कहते हैं] – यह जमालिया कल का छोरा, ऐसे बात करता है, मानों इसके हाथ में कारू का खज़ाना लग गया हो ? मरते-गुड़ते इस मर्दूद ने दसवी पास की है, फिर अपने वालिद मास्टर निहाल अली के मरने पर इसे मृत राज्यकर्मचारी आश्रित के कोटे में यह नौकरी मिल गयी। इसने देखी कहाँ है, तकलीफ़ें ? यह मर्दूद क्या जानता है, हमने क्या-क्या देखी है तकलीफ़ें..? आख़िर कैसे पायी है, यह नौकरी ?

[सोचते-सोचते दाऊद मियां, अतीत के सागर में गौते खाने लगते हैं। उन्हें याद आ जाता है, दसवी पास करते ही उनके वालिद ने हाथ झटक लिया। अब उनकी आवाज़ इनके कानों में गूंज़ने लगी “साहबजादे। अब जवान पट्ठे हो गए हो तुम, अब तुम कमाओ और खाओ और दो पैसे बचे तो हमें लाकर दो।’ फिर करे, क्या, जनाब ? नौकरी कोई पेड़ों पर लगे अनार नहीं, जिसे तोड़कर हासिल कर लिया जाय ? अरे जनाब, उसके लिए जुगत लड़ानी पड़ती है। फिर क्या ? कोशिश करते-करते, दाऊद मियां की नौकरी लग जाती है..बिजलीघर में। मगर इस इस दफ़्तर में बिजली के बिलों के साथ माथा-पच्ची करना जनाब को भाया नहीं। बस, जनाब झट इस्तीफ़ा देकर घर चले आये। तब से इंशाल्लाह, घर में पड़े-पड़े खटिया तोड़ने लगे मियां। वह दिन उनसे भूला नहीं जा रहा है, जब जुहर की नमाज़ से फारिग़ होकर उनकी अम्मीजान दालान में आती दिखायी दी। जहां दाऊद मियां, पाँव पसारे कुर्सी पर आराम फ़रमा रहे थे। वहां आते ही, उनकी नातिका ने क़हर ढाह दिया। फिर क्या ? अम्मीजान की कर्कश आवाज़ गूंज उठी। इस तरह इस मंज़र को याद करते हुए मियां की आँखों के आगे उनका पुश्तेनी मकान नज़र आता है, जहां बाहर नल पर पानी भरने वाली मोहल्ले की जंगजू मोहतरमाओं की शक्लें अब उनकी आँखों के आगे छाने लगती है। धीरे-धीरे मंच पर अँधेरा छा जाता है।]

अंक दो मंज़र दो

बेरोज़गारी के आलम में

राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित

नए किरदार

शमशुदीन – दाऊद मियां के दोस्त।

कमरू दुल्हन – शमशुदीन की बीबी।

दूदू – शमाशुदीन के घर का नौकर।

ज़ोहरा बी शमशुद्दीन की अम्मीजान। और - दाऊद मियां की अम्मीजान।

[मंच रोशन होता है, दाऊद मियां दालान में एक आराम कुर्सी पर पाँव पसारे आराम से बैठे हैं। तभी जुहर की नमाज़ से फारिग़ होकर उनकी अम्मीजान दालान में आती है। वहां मियां को निक्कमें की तरह बैठे देखकर, वह गुस्से से उबल पड़ती है।]

अम्मीजान – शर्म नहीं आती, घर बैठे बाप के टुकडे तोड़ते ? ज़रा सोचो, कल तुम्हारा बाप हो जाएगा रिटायर्ड...तब तुम भीख माँगते नज़र आओगे। अभी भी लोग क्या कह रहे हैं, ध्यान है तूझे ? कह रहे हैं कि, ‘लीजिये, देखिये कैसा है यह छोरा ? लोगों को नौकरी हाथ आती नहीं, और यह बेवकूफ हाथ आयी नौकरी को छोड़ आया ? और अब, घर बैठा तोड़ रहा है खटिया...’

दाऊद मियां – अम्मीजान, अब क्या करूं ? नौकरी किसी पेड़ पर लगा अनार नहीं है, जिसे तोड़कर खा लिया जाए ?

अम्मीजान – ज़रा देख, जोहरा बीबी के नेक दुख्तर शमसुद्दीन को, जो तेरा दोस्त है। वह बेचारा, कड़ी धूप में मज़दूरों के साथ काम कर रहा है। बेचारा मेहनत की रोटी खाता है, और एक तू...? यहाँ कुर्सी पर बैठा सुस्ता रहा है, रईसों की तरह।

दाऊद मियां – [आंखें मसलते हुए, कहते हैं] – हाय अल्लाह, यहाँ तो कोई हमें सोने नहीं देता ? अम्मीजान, अभी-अभी आँख लगी, और आपने हाय तौबा मचाकर मुझे जगा दिया। अम्मीजान ज़रा भरोसा कीजिये, मुझ पर।नौकरी लगते ही, कर लूँगा नौकरी.. फ़िक्र क्यों करती हैं, आप ?      

अम्मीजान – [गुस्से से उबलती हुई, कहती है] – अरे कमज़ात, तेरी अक्ल पर ताला जड़ गया या तू समझना नहीं चाहता ? जानता है, तेरी छोटी बहन सबीना शादी लायक हो गयी है..साहबजादे, कैसे करेगा तू उसकी शादी ? घर में पैसों का झाड़ नहीं लगा है, जो तू उससे काम चला लेगा ?

दाऊद मियां – [कुर्सी से उठते हुए, कहते हैं] – अम्मीजान। भरोसा रखें, हम पर। हम जी-जान लगाकर कोशिश कर रहें हैं, अल्लाह मियां ने चाहा तो सब ठीक हो जाएगा। आज़ ही मैं शमशु से मिलता हूँ, शायद पी.ढब्लू. डी. महकमें में फेमिन की कोई पोस्ट बची हो तो काम बन जाएगा।

[दाऊद मियां वहां से चले जाते हैं, अब उनके क़दम शमशुदीन के मकान की ओर बढ़ते हैं। कुछ ही मिनट बाद, दाऊद मियां शमशुद्दीन के दौलतखाने के दरवाज़े पर दस्तक देते नज़र आते हैं। दस्तक देकर मियां, दरवाज़ा खुलने इन्तिज़ार करते हैं। अन्दर से, शमशुद्दीन की अम्मीजान ज़ोहरा बी ज़वाब देती है।]

ज़ोहरा बी – दरवाज़ा खुला है, बेटा। उसे ज़रा धकेलकर, अन्दर आ जाओ। [शमशुद्दीन की बीबी को आवाज़ देकर, कहती है] अरी ओ कमरू दुल्हन, दाऊद मियां तशरीफ़ लाये हैं। ज़रा, पानदान इधर लेती आना।

दाऊद मियां – [अन्दर दाख़िल होकर, सलाम करते हैं] – आदाब अर्ज़ है, चाचीजान। ज़रा तकलीफ़ दी, आपको।

[घर का नौकर दूदू पानदान लेकर आता है, पानदान लेकर ज़ोहरा बी उसमें से एक पान की गिलोरी निकालती है। फिर उस गिलोरी को अपने मुंह में ठूंसती है। दूदू चला जाता है, उसके जाने के बाद ज़ोहरा बी पान चबाती हुई कहती है।]

ज़ोहरा बी – [पान चबाती हुई, कहती है] – कोई तकलीफ़ नहीं हुई, बेटे। तुममें और शमशु में, क्या फ़र्क है ? तुम दोनों हमारे बेटे हो, अब खड़े क्यों हो ? आओ कुर्सी पर बैठ जाओ, दस्तरख्वान लगा है...आज़ बिना खाना खायें, तुमको जाने नहीं दूंगी।

[दाऊद मियां दालान में चले आते हैं, अन्दर आकर मियां क्या देखते हैं ? दस्तरख्वान लगा है। डाइनिंग टेबल के चारों तरफ़ कुर्सियां लगी है। बीच वाली कुर्सी पर, ज़ोहरा बी तशरीफ़ आवरी है। कमरू दुल्हन आकर, खाना परोसती है। अब जुहर की नमाज़ से फारिग़ होकर, शमशुदीन वहां चले आते हैं। कुर्सी पर बैठते हुए, वे बैठे दाऊद मियां से कहते हैं।]

शमशुद्दीन – खाना ठंडा हो रहा है, जनाब। ज़रा पढ़िये ज़ोर से “बिस्मिल्लाहि रहमान रहीम।’ शर्म मत कीजिएगा, झट खाना स्टार्ट कीजिये। इसे अपना ही घर समझिये।

[अब दोनों दोस्त एक साथ बोलते हैं ‘बिस्मिल्लाहि रहमान रहीम।’ इतना कहकर, वे दोनों भोजन करना शुरू करते हैं।]

दाऊद मियां – [पहला निवाला मुंह में डालते हुए, कहते हैं] – भाभीजान ने क्या लज़ीज़ खाना बनाया है, शमशु ? ऐसी बीबी पाकर, तुम्हारी तो क़िस्मत चमक गयी है।

[अपनी बेरोज़गारी का रोना लेकर, दाऊद मियां होंठों में ही बड़बड़ाने लगते हैं।]

दाऊद मियां – [होंठों में ही] – अरे कमज़ात, तूने एक्सइन मिर्ज़ा साहब की इकलौती बेटी से क्या ब्याव रचाया, कमबख्त नौकरी और बीबी का हक़दार बन गया तू। वाह, भाई वाह। क्या क़िस्मत पायी है, तूने ? मां और बीबी दोनों मनुआर करके खाना खिला रही है, और दूसरी तरफ़ हम ठहरे ऐसे इंसान जिसकी क़िस्मत अभी-तक सोयी पड़ी है।

[कमरू दुल्हन प्याज व चाकू लाकर, दाऊद मियां की थाली के पास रखती है। फिर, नीम्बू लाने के लिए बावर्चीखाने में चली जाती है। मगर अभी भी दाऊद मियां को कहाँ होश ? वे अभी भी, होंठों में बड़बड़ाते जा रहे हैं। इधर कमरू दुल्हन, नीम्बू और नमकदान लेकर लौट आती है। नीबू और नमकदान, दाऊद के पास रख देती है।]

दाऊद मियां – [होंठों में ही] – बेरोज़गारी के आलम में, रोज़ सुनते जा रहे हैं, अम्मीजान की झिड़कियां। सभी मतलबी है, प्यारे। पैसा ही सब-कुछ है, पैसा ही इज़्ज़त दिलाता है इंसान को। बस, अब हमने ठान ली। ख़िलक़त को झुकाना है तो पैसे-पैसे को पकड़ना होगा, चोंच से।

[जनाब ने इतना ही होंठों में कहा, और ख़ुदा जाने यह दीवानखाने के आले में रखा रेडिओ यह गीत “आसमान को झुकाने वाला चाहिए...कत्थक चूना।” क्यों सुनाने लगा ? मगर यहाँ तो ख़्वाब में डूबे दाऊद मियां एक-एक पैसे को पकड़ने के स्थान पर, उस चाकू के फलक को ज़ोर से दबाकर पकड़ते हैं। ख़ुदा रहम। चाकू की धार तेज़ नहीं है, इस तरह उनकी उंगलियाँ चोट खाने से बच जाती है। फिर क्या ? ज़ोर से पकड़ने से, उनकी हथेली में दर्द ज़रूर उठता है, और वे चमककर छोड़ देते हैं ख़्वाबों की दुनिया। अब वे सामने ज़ोहरा बी नज़र आती है, जो उनसे चाकू लेकर हंसती हुई कह रही है।]

ज़ोहरा बी – [चाकू लेती हुई, हंसती हुई कहती है] – पैसे को पकड़ो बेटा, मगर इस चाकू के फलक पर दबाव डालकर इसे मत पकड़ो। कहीं हथेली से खून न निकल जाए ? [चाकू से नीम्बू काटती है, फिर उस पर नमक छिड़कती है] क्यों सोचते जा रहे हो, बेटा ? बंद करो, सोचना। मुझे पता है, बेटा...

दाऊद मियां – [चमककर होश में आते हैं, फिर कहते हैं] – चाची, क्या कह रही थी अभी ? आपको क्या क्या मालुम है ?

ज़ोहरा बी – [लबों पर मुस्कान लाती हुई, कहती है] – आख़िर, तुम चाहते क्या हो ? मुझे पता है। अल्लाह पर भरोसा करो, वह करीम है। वह सबकी सुनेगा। बस, तुम रोटी खाओ। ज़रा एक मिनट, मैं वापस आती हूँ।

[ज़ोहरा बी जाती है, पदचाप सुनायी देती है।]

शमशुद्दीन – क्यों फ़िक्र करते हो, यार ? अम्मीजान सब जानती है, उनसे कुछ छिपा नहीं है। [शेर पढ़ते हैं] ‘ना वाफ़िक-ए-ग़म अब दिल-ए-नाशाद नहीं है।’

दाऊद मियां – [परेशान होकर, कहते हैं] – मैं क्या करूं, मुझे क्या पता ?

शमशुद्दीन – [लबों पर मुस्कान लाकर, कहते हैं] – असल बात यह है कि, कल चाचीजान की मुलाक़ात अम्मीजान से हो गयी। मस्तान बाबा की मज़ार पर मिली, तब उन्होंने तुम्हारे बेरोज़गार रहने की बात चलाते हुए कहा कि ‘वे मिर्ज़ा अंकल से, इस संबंध में मदद मांगे।’

दाऊद मियां – क्या यह बात सच्च है, मियां ?

शमशुद्दीन – सच्च कह रहा हूँ, अम्मीजान अभी-अभी फ़ोन पर मिर्ज़ा अंकल से बात करने के लिए ही गयी है। तुम फटा-फट खाना खा लो, फिर मिर्ज़ा अंकल के घर चलते हैं। शायद, तुम्हारी दी गयी दरख्वास्त का ज़वाब आ गया हो ?

[तभी ज़ोहरा बी लौटकर आती है, और वह कहती है।]

ज़ोहरा बी – बेटा, तुम-दोनों को मिर्ज़ा अंकल ने अभी अपने घर बुलाया है। तुम दोनों खाना खाकर, वहीँ चले जाओ।

[दोनों खाना खाकर, वाश बेसिन में अपने हाथ धोते हैं, फिर वहीँ खूंटी पर लटके तौलिये से अपने हाथ पोंछते हैं। अब दोनों, ज़ोहरा बी से रुख्सत होने की इज़ाज़त चाहते हैं।]

शमशुद्दीन – रुख्सत होते हैं, अम्मीजान। ख़ुदा से दुआ मांगना, इसका काम झट बन जाए।

दाऊद मियां – आदाब चाचीजान। चलते हैं, ख़ुदा हाफ़िज़।

[सभी जाते हैं, उनके पैरों की आवाज़ दूर तक सुनायी देती है। मंच पर, अँधेरा फ़ैल जाता है।]

अंक मंज़र तीन


यह बचत ही बुनियाद है, बचत ही तामीर

राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित

नए किरदार – मिर्ज़ा साहब, तिर्याक़ साहब, और नौकरानी रौनक।

[मंच रोशन होता है, मिर्ज़ा साहब के दीवानखाने का मंज़र नज़र आता है। दोनों दोस्तों को अन्दर दाख़िल होते देख, मिर्ज़ा उन्हें सोफ़े पर बैठने का इशारा करते हुए कहते हैं।]

मिर्ज़ा साहब – आओ साहबजादों। तुम्हारा ही इन्तिज़ार था। अभी-अभी ज़ोहरा भाभी का फ़ोन आया..खैर, तसल्ली से बता देना। ज़रा पहले तुम दोनों इतमिनान से बैठ जाओ, यहाँ। [सोफ़े पर बैठने का इशारा करते हैं।]

मिर्ज़ा साहब – [दाऊद मियां से, कहते हैं] – अभी तो दाऊद मियां, तुम ऐसा करो..नौकरी के लिए, दरख्वास्त की एक कोपी देते जाओ। कल वापस दुल्हे मियां के साथ आ जाना, और नौकरी का हुक्मनामा लेते जाना।

[दोनों सोफ़े पर बैठते हैं, तभी घर की नौकरानी रौनक चाय-नाश्ता लाकर मेहमानों के पास रखी टी-टेबल पर रख देती है। फिर सलाम करके, वापस चली जाती है।]

शमशुद्दीन – हुज़ूर, अभी इन्हें कौनसा ओहदा दिया जा रहा है ?      

मिर्ज़ा साहब – अभी तो गालिबन मेट की नौकरी दे रहा हूँ, आगे इनकी मेहनत और ईमानदारी काम आयेगी। वैसे यह नौकरी बुरी नहीं, तो उम्दा भी नहीं। मगर, वक़्त गुजारने के लिए काफ़ी है। कॉलेज की तालीम के साथ-साथ, यह नौकरी भी चलती रहेगी।

शमशुद्दीन – वज़ा फ़रमाया हुज़ूर, वक़्त गुज़ारना भी है। और पढ़ाई के खर्चे निकालने के लिए, अब किसी के आगे हाथ फैलाना नहीं पड़ेगा।

[सभी चाय पीकर, अब नाश्ता लेने लगे हैं। मिर्ज़ा साहब अंगड़ाई लेते हुए, कहते हैं]

मिर्ज़ा साहब – [अंगड़ाई लेते हुए, कहते हैं] – चाय पी चुके आप, अब दो मिनट के लिए और रोकूंगा आपको।

शमशुद्दीन – मगर, क्यों ? बात तो लगभग पूरी हो गयी है, ना ?

[दरवाज़े पर दस्तक की आवाज़ सुनायी देती है, थोड़ी देर बाद वहीँ से तिर्याक़ साहब के पुकारने की आवाज़ सुनायी देती है।]

तिर्याक़ साहब – [दरवाज़े पर] – मिर्ज़ा साहब, तशरीफ़ रखते हैं ?

मिर्ज़ा साहब – [वहीँ बैठे-बैठे, आवाज़ देते हैं] – तिर्याक़ साहब, अभी हाज़िर हुआ। [रौनक को आवाज़ देते हुए, कहते हैं] अरी ओ, रौनक। तिर्याक़ साहब आये हैं, ज़रा पानदान लेती आना।

[मिर्ज़ा साहब दरवाज़ा खोलने जाते हैं, फिर दोनों वापस दीवानखाने में चले आते हैं। तिर्याक़ साहब को सोफ़े पर बैठाकर, खुद निकट रखी आराम कुर्सी पर बैठ जाते हैं।]

तिर्याक़ साहब – [सोफ़े पर बैठते हुए, कहते हैं] – आदाब। माफ़ कीजिएगा, आपको ज़रा तकलीफ़ दी।

मिर्ज़ा साहब – [हंसकर, कहते हैं] – तशरीफ़ लाये आप, और तकलीफ़ दी हमें ? क्या खूब कहा...’क़त्ल भी करे हैं, खुद ही सवाब उल्टा।’

तिर्याक़ साहब – यह आप कह रहे हैं, जनाब ?

मिर्ज़ा साहब – तिर्याक़ साहब सच्च कहें, तो तकलीफ़ हम दे रहे हैं आपको। हमारा वक़्त और पैसा, दोनों बचा रहे हैं आप।

तिर्याक़ साहब – अरे जनाब, आप तो हमारी शान में कसीदे पढ़कर हमें आप राई के पहाड़ पर चढ़ा रहे हैं ? हमारे अन्दर कहाँ है, इतनी क़ाबिलियत...?

मिर्ज़ा साहब – आप तो जानते ही हैं, हुज़ूर। पैसा एक जगह टिकता नहीं हैं, क्योंकि उसके चार पाँव होते हैं। मगर आपने आर.डी., सी.टी.डी., किसान विकास पत्र वगैरा-वैगेरा की प्लानिंग बताकर इस पैसे के पाँव बाँध दिए। और, हमारा पैसा बच गया। आपकी इस मदद के लिए, शुक्रगुज़ार हूँ। अरे जनाब, हमने इस बचत से कई काम निपटा लिए और हमें कहीं से भी लोन लेने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

तिर्याक़  – [मुस्कराते हुए, कहते हैं – छोड़िये जनाब, जानता हूँ, अभी साल भर पहले आपने अपनी इकलौती नेक दुख्तरा कमरू की शादी का काम निपटाया है। तब आपको कहीं से लोन लेना नहीं पड़ा, यही बचत आपके काम में आ गयी। ये लीजिये, अपनी पसबुकें।

[टेबल पर पासबुकें रखते हैं। फिर दोनों सहबज़ादों पर निग़ाह डालकर, कहते हैं।]

तिर्याक़  - ये दोनों कौन हैं, हुज़ूर ? इनसे हमारी तआरुफ़ [जान-पहचान] नहीं करायेंगे क्या ?

दाऊद मियां – [तपाक से, कहते हैं] – आपको तो हम जान गए, पहचान गए। आप ठहरे, अल्पबचत के सफ़ल एजेंट। अब तो हम भी आपको तकलीफ़ देने आपके रिहाहिश घर आयेंगे, हुज़ूर। इसके लिए हम, मिर्ज़ा अंकल के शुक्रगुज़ार हैं।

मिर्ज़ा साहब – [खुश होकर, कहते हैं] – वज़ा फ़रमाया आपने, साहबज़ादे। नौकरी आपको मिल गयी, चाहे यह नौकरी पक्की है या कच्ची। मगर आज़ से तुम दोनों उसूल बना लो, आज़ की बचत, कल की आमदानी है हम जानते हैं, अभी आप पर कोई विशेष ज़िम्मेदारी नहीं। आसानी से, बचत करने की आदत बन जायेगी।

शमशुद्दीन – वज़ा फ़रमाया, हुज़ूर।

मिर्ज़ा साहब – तुम हर छ: माह बाद या बारह महीने बाद एक आर.डी. खुलवा सकते हो। साहबज़ादे, बूँद-बूँद से घड़ा भरता है देख लो, मुझे। हर साल आर.डी., सी.टी.डी.वगैरा खुलवाकर, मैंने बड़े-बड़े खर्चे निपटाए हैं।

तिर्याक़  – [ज़ोर-शोर से] – अहा हा। सुभानअल्लाह, क्या कहना है ? यह बचत ही बुनियाद है, बचत ही तामीर उस्ताद, मान गए, आपको। अल्पबचत के एजेंट हम ठहरे, मगर तक़रीर हासिले-तरह आपने पेश कर डाली।

[सोफ़े से उठ जाते हैं, फिर दाऊद मियां की तरफ़ देखते हुए कहते हैं।]

तिर्याक़  – [दाऊद मियां से, कहते हैं] – साहबज़ादे मिलते रहना, इमामबाड़े के पास वाली चांदनी गली में हमारा ग़रीबखाना हैं। ज़रूर, तशरीफ़ रखना।

मिर्ज़ा साहब – तक़ल्लुफ़ की कोई ज़रूरत नहीं, साहबज़ादे समझदार है मियां। खुद ही मकान ढूँढ़कर, आ जायेंगे।

तिर्याक़  – ख़ुदा हाफ़िज़। अब जाने की इज़ाज़त चाहता हूँ।

शमशुद्दीन – आदाब, हुज़ूर। हम ज़रूर मिलेंगे आपसे, हम ख़ुद चाहते हैं, इसी मसयले में आपके दीदार करें।

[सभी रुख्सत होते नज़र आते हैं। दूर तक, उनके क़दमों की आवाज़ सुनायी देती है। मंच पर, अँधेरा छा जाता है।]

मंज़र ४,

गए निक्कमें कहीं के, धंधे के वक़्त...

राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित

नए किरदार – वसीम मियां – मनु भाई के नेक दुख्तर, जिनकी उम्र है १७-१८ साल की। जनाब की बुरी आदत है, अपनी हम-उम्र ख़ूबसूरत लड़कियों को देखते ही आशिकी पर उतर आना।

[मंच रोशन होता है, पोर्च में बैठे दाऊद मियां ख़्वाबों की दुनिया में खोये नज़र आ रहे हैं। आली जनाब कुर्सी पर बैठे-बैठे झपकी ले रहे हैं। खवाब में वे अपनी पिछली ज़िन्दगी की उन घटनाओं को देख रहे हैं, जो उनको ज़िंदगी जीने का तरीका सिखा गयी। उन वाकयों के बारे में वे सोचते हुए अब बड़बड़ाने लगे हैं।]

दाऊद मियां – [बड़बड़ाते हुए, कह रहे हैं] – मेट की नौकरी के बाद में, एजुकेशन महकमें में छोटे दफ़्तरेनिग़ार [एल.डी.सी.] की नौकरी हासिल कर ली। फिर, धीरे-धीरे वक़्त बितता गया..और हमारे होते गये परमोशन। धीरे-धीरे हम छोटे दफ़्तरेनिग़ार से, दफ़्तरे निज़ाम बन गए..यानि, ऑफिस असिस्टेंट। इस नौकरी में पैसा बचाने का हमने नायब तरिका निकाल डाला। भविष्य को सुरुक्षित करने के लिए, एक ज़मीन का ऐसा प्लोट ख़रीदा जिसके भाव भविष्य बढ़ने वाले थे। फिर हर दो साल बाद नफ़ा कमाकर, उस प्लाट को बेच देते और दुगनी संख्या में सस्ते प्लाट खरीदते रहे..जिनके भाव, भविष्य में बढ़ने वाले थे। इस तरह प्लोटों की बिक्री होती रही, और हम नफ़ा कमाते रहे। फिर क्या ? कमाई गयी राशि से, हम ज़रूरतमंद लोगों को ब्याज पर पैसे देने लगे। इस तरह, हमने ब्याज पर रुपये उधार देने का धंधा खोल डाला। बस, अब तो चारों तरफ़ से पैसों की बरसात होने लगी। मगर ऐश-मौज़ के लिए, हमने कभी भी पैसे बरबाद नहीं किये। मगर जब भी इस शमशु को मैं देखता हूँ, कलेज़े पर सांप लोटने लगते हैं। कैसे कहूं ? पैसा तो उसने भी कमाया है, मगर सभी ऐश-मौज़ पूरी करके। कमबख्त कहता है, “मियां, ट्यूशन पढ़ाने जाओ तो स्कूटर पर सवार होकर जाओ। इस तरह वक़्त बचेगा और आप एक की जगह चार ट्यूशन ज़्यादा पढ़ा पायेंगे।” मगर करें, क्या ? पैसे को चोंच से पड़ने की आदत जो रही हमारी, बेफिजूल खर्च हमसे होता नहीं। बस हम तो ट्यूशन के लिए साइकल का ही इस्तेमाल करते हैं और करते रहेंगे, जो हम पर हंसते हैं हम इन बकवादी लोगों को कह देंगे कि “साइकल की सवारी से बदन की कसरत हो जाती है, अमां यार स्कूटर, मोटर साइकल या कार की सवारी तुम करते रहोगे तो जल्दी बीमार पड़ जाओगे। जवानी यूं ही ढल जायेगी, जल्दी बूढ़े नज़र आओगे।”

[इधर दाऊद मियां ख़्वाब देखते जा रहे हैं, और उधर बरामदे की जाली पर छा रही पांच पत्ती की बेल के पास चुग्गा खां हाथ में बाल्टी लिए खड़े हो जाते हैं। अब वे डब्बे से पानी भरकर, उस बेल पर पानी का छिड़काव करते जा रहे हैं। जैसे ही ठंडे पानी के छींटें दाऊद मियां पर गिरते हैं, और मियां झट चमककर उठते हैं। इस तरह ख़्वाबों की दुनिया छोड़कर मियां लौट आते हैं, वर्तमान में। मगर बदबख्त ठहरे, दाऊद मियां। उनका बोला गया अंतिम जुमला, चुग्गा खां के कानों को सुनायी दे जाता है। सुनते ही चुग्गा खां हो जाते हैं, बेनियाम। फिर क्या ? आली जनाब एक की जगह चार बातें सुना देते हैं, दाऊद मियां को।]

चुग्गा खां – [बाल्टी को ज़मीन पर रखकर, कहते हैं] – बूढ़े होंगे, हमारे दुश्मन। हुज़ूर, हम बूढ़े नहीं हैं। पूरे बगीचे में पानी देकर आ रहे हैं, घंटों का काम मिनटों में निपटा दिया हुज़ूर।

दाऊद मियां – [आखें मसलते हुए, कहते हैं] – माफ़ करना, बिरादर। ज़रा आँख लग गयी, क्या करें ? आज़कल हम बैठे-ठाले, पुरानी यादों में अक्सर खो जाया करते हैं।

[चाय से भरा प्याला लेकर आती है, शमशाद बेग़म। पास आकर उनको चाय का प्याला थमा देती है, फिर उनसे कहती है।]

शमशाद बेग़म – [चाय का प्याला थामकर, कहती है] – हुज़ूर, साबिर मियां तशरीफ़ लाये थे। आपके पास आकर, उन्होंने आदाब भी कहा। मगर, क्या करें हुज़ूर ? आप उस वक़्त, सुनहरे सपनों की दुनिया में सैर कर रहे थे। फिर क्या ? वे जमाल मियां से मिलकर, चले गए।

दाऊद मियां – ऐसे ही आये, या कोई काम रहा होगा जमाल मियां से ? ऐसा क्या काम रहा होगा, आप बता सकती है ख़ाला ?  

शमशाद बेग़म – [लबों पर मुस्कान बिखेरती हुई, कहती है] – आज़ के ज़माने में, बिना काम कौन आता है ? हुज़ूर, थोड़ा-बहुत इन कानों ने सुना था। शायद, कुछ कुछ रुपये उधार लेन-देन की तकल्लुम कर रहे थे।

दाऊद मियां – [थोड़ा घबराते हुए, कहते हैं] – यह क्या कह दिया ख़ाला, आपने ? रुपये उधार लेने का मामला था, तो मुझे जगाया क्यों नहीं ? कहीं इस जमाले ने, हमारी इस मुर्गी को तो न फांस ली ?

शमशाद बेग़म – फांस क्या ली हुज़ूर, अब-तक तो उसका कबाब बना डाला होगा ?

दाऊद मियां – [थोड़ा आवेश में] - ऐसा हो नहीं सकता, जमाले की क्या औकात जो हमारे बाकीदार [कर्ज़दार] का खून चूष ले ? फिर, हम किस लिए बैठे हैं यहाँ..हम किस काम के ?

शमशाद बेग़म – आपसे क़र्ज़ कब लिया, साबिर मियां ने ? हुज़ूर, फिर कैसे बन गए आपके बाकीदार ? उठिए जनाब, अभी वे दूर नहीं गए हैं। अभी जाकर पकड़ लीजिएगा उनको, स्कूल के फाटक के पास। फिर तसल्ली से उनका खून चूशते रहना। अभी वे फाटक के पास भी नहीं पहुंचे होंगे, जल्दी कीजिये हुज़ूर।

दाऊद मियां – अरे ख़ाला, दो मिनट क्या हमने आंखें मूँद ली ? आपने तो समझ लिया, ‘हम इस दुनिया-ज़हान से, रुख्सत हो गए हैं ?’

शमशाद बेग़म – रुख्सत हो, आपके दुश्मन। अरे हुज़ूर, यह तो आप सोचिये कि ‘मैं आपकी नींद में, कैसे ख़लल डाल पाती ? आख़िर, यह आपकी तंदरुस्ती का सवाल ठहरा। नहीं जगाया, तो आप नाराज़ होते जा रहे हैं ?’ अब हुज़ूर जब भी आप ख़्वाब देखेंगे तब मैं कह दूंगी बड़ी बी से, कि “हेड साहब काम के वक़्त नींद ले रहे हैं।” फिर क्या ? वह आकर उठा देगी, आपको।

दाऊद मियां – [धीरे से, कहते हैं] – क्या कहती हो, ख़ाला ? थोड़ा संभालकर बोला करो। तुम नहीं जानती, वह उठा देगी क्या ? वह तो हमें, इस ख़िलक़त से रुख्सत कर देगी।

[फ़टाफ़ट चाय पीकर, दाऊद मियां ख़ाली कप मेज़ पर रख देते हैं। ख़ाली चाय का प्याला उठाकर, शमशाद बेग़म जाफ़री की जाली से बाहर देखती है। उसे साबिर मियां नज़र आ जाते हैं, जो मेन गेट की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा रहे हैं। उनको देखते ही, शमशाद बेग़म तपाक से दाऊद मियां से कहती है।]

शमशाद बेग़म – [चाय का प्याला नल के नीचे रखती हुई, कहती है] – हुज़ूर, साबिर मियां तशरीफ़ ले जा रहे हैं। जनाब जाइए, जाइए। फ़टाफ़ट पकड़ लीजिये, उन्हें। न तो आप..

[दाऊद मियां ने आव देखा न ताव, झट लपक पड़े साबिर मियां को पकड़ने। फिर क्या ? तेज़ क़दम चलते हुए, तुरंत उनको पीछे से दबोच लेते हैं। अचानक कन्धों पर दबाव पाकर साबिर मियां घबरा जाते हैं, और बहदवासी में तुनककर कह देते हैं।]

साबिर मियां – [घबराते हुए, तुनककर कह देते हैं] – अरे कौन है, कमबख्त ?

[इतना कहकर दाऊद मियां को देखे बिना, धक्का देकर अपना कन्धा छुड़ा लेते हैं। मगर, यह क्या ? धक्का खाकर बेचारे दाऊद मियां पास के हेड पम्प से पानी ला रही एक मोहतरमा के ऊपर गिर पड़ते हैं। क्या करें ? इन मोहल्ले की औरतों का स्कूल के इस हेड पम्प पर आना बंद होता नहीं, कारण यह है अभी गर्मी के मौसम में पानी की किल्लत चल रही है। मना करने के बाद भी, न जाने कितनी मोहतरमाएँ घड़ा ऊंचाये पानी भरने यहाँ चली आती है ? और साथ में स्कूल का मेन फाटक खुला छोड़ जाती है, उनको क्या मालुम इनकी इस लापरवाही के कारण कोलोनी के न जाने कितने अवारा पशु स्कूल के बगीचे में घास चरने चले आते हैं ? बदक़िस्मती से अभी एक मोहतरमा पानी भरकर लौट रही थी, और तभी उसकी टक्कर दाऊद मियां से हो जाती है। फिर क्या ? टक्कर लग जाने ने सर पर रखा पीतल का घड़ा धड़ाम से आकर गिरता है दाऊद मियां के ऊपर। बेचारे गए चुग्गा चुगने, मगर ग़लत जगह अपना पाँव फंसाकर औंधे मुंह गिर पड़ते हैं ज़मीन पर। वह मोहतरमा गलीज़ गालियां बकती हुई, ज़मीन पर गिरा घड़ा उठाती है और वापस अपने क़दम हेड पम्प की तरफ़ बढ़ा देती है। अब बेचारे दाऊद मियां किसी तरह उठते हैं, और सामने साबिर मियां को ठहाका लगाकर हंसते पाते हैं। अपने धंधे के कस्टमर साबिर मियां को, अपशब्द कहने की हिम्मत उनमें अब है कहाँ ? बेचारे दाऊद मियां खिसियानी हंसी हंसते हुए, साबिर मियां से कहते हैं।]

दाऊद मियां – [खिसियानी हंसी हंसते हुए, कहते हैं] – ही..s..ही...ही। [गीले कपड़ों को निहारते हुए] कुछ नहीं, गर्मी है अभी सूख जायेंगे। [कपड़े झाड़ते हैं] अब मियां, अपनी सुनाओ। क्या लोगे, चाय-वाय या कुछ ?

साबिर मियां – [अपने होंठों में ही, कहते हैं] – क्यों मियां, चच्चा करीम के मक्खीचूश भतीजे। क्या पिलाओगे, चाय-वाय ? अभी मुफ़्त का ज़र्दा चखाकर, नाक की बारह बजा दोगे ? आप तो अभी यही कहोगे “स्कूल में जनाब ने चाय तो पी ली होगी, अब क्या बार-बार चाय पीना ? अरे यार, बार-बार चाय लेने से एसिडिटी की शिकायत बढ़ जाया करती है। चलिए, मनु भाई की दुकान पर चलकर ज़र्दा चखते हैं।”

[मगर यह क्या ? इधर साबिर मियां ने अपने दिल में दाउद मियां के बारे में जो सोचा, वही बात सच्च हो गयी। दाऊद मियां ने, वही जुमला कैसे बोल डाला ?]

दाऊद मियां – क्या मुंह बनाकर, यहाँ खड़े हो गए ? चलिए मनु भाई की दुकान पर, अभी ज़र्दा चखते हैं। और बदन में आती है, स्फूर्ति।

[अब दोनों मेन गेट पार करके पहुँच जाते हैं, मनु भाई की दुकान पर। वहां पत्थर की बेंच पर दाऊद मियां बैठ जाते हैं, मगर साबिर मियां खड़े ही रहते हैं। तब दाऊद मियां, उनसे कहते हैं।]

दाऊद मियां – क्यों मुंह लटकाये खड़े हो, मियां ? रुपये-पैसों का इन्तिज़ाम जमाल मियां नहीं कर पाए, यही बात है ना ? कोई बात नहीं, हम कर देंगे बंदोबस्त। अब अपने लबों पर मुस्कान लाओ, चलिए बिरादर, पहले ज़र्दा चख लेते हैं। फिर क्या ? झट उठकर, चले आते हैं दुकान के काउंटर के पास, और जनाब कहते हैं मनु भाई से।]

दाऊद मियां – [मनु भाई की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] – आदाब, मनु भाई।

[इस वक़्त आदाब बजाने का क्या अर्थ ? मनु भाई अच्छी तरह से जानते हैं, बस झट उनकी मांग को समझते हुए उनको थमा देते हैं देशी ज़र्दे और गीले चूने के डब्बे। अब दाऊद मियां इन डब्बों से ज़र्दा और चूना निकालकर अपनी हथेली पर रखते हैं। फिर दूसरे हाथ के अंगूठे से ज़र्दा और चूने के मिश्रण को अच्छी तरह मसलते हैं, फिर मनु भाई से कहते हैं।]

दाऊद मियां – [मनु भाई से, कहते हैं] – जनाब, खैरियत है ? ज़रा आप भी चखिए यह सुर्ती।

[इतना कहकर, दूसरे हाथ से इस मिश्रण पर लगाते हैं दो-चार बार ज़ोर की थप्पी। और कहते हैं, जोर से “अल्लाह हो अकबर।” फिर क्या ? खंक उड़ती है, जो उड़कर मनु भाई, साबिर मियां और दुकान पर सौदा ले रहे ग्राहकों के नासा छिद्रों में चली जाती है। फिर क्या ? नासा छिद्र खुल जाते हैं, और छींकों की झड़ी लग जाती है। बेचारे ये अनजान मोमीन, जो आये थे खुर्दाफरोश यानि घी, तेल, आटा वगैरा किराणा का सामान ख़रीदने, मगर इस आसमानी आफ़त ने उनका हाल बुरा बना डाला। बेचारे छींकते-छींकते परेशान हो जाते हैं, अब दोनों डब्बे मनु भाई की दुकान के काउंटर पर रखकर, अपनी हथेली मनु भाई के सामने लाते हैं। लिहाज़ के मारे मनु भाई थोड़ी सी सुर्ती उठाकर, अपने होंठों के नीचे दबा लेते हैं। अब मनु भाई को सुर्ती थमाने के बाद, शेष बची हुई सुर्ती में थोड़ी साबिर मियां को उठाने देते हैं और बची-खुची सुर्ती अपने होंठों के नीचे दबाकर मियां आकर बैठ जाते हैं वापस बेंच पर। निक्कमें इंसान की तरह दाऊद मियां का वापस बेंच पर बैठ जाना, मनु भाई को अख़रता है। उधर बेचारे मोमिनों की बुरी हालत देखकर, मनु भाई दाऊद मियां के बारे में अपने होंठों में ही बड़बड़ाते हैं।]

मनु भाई – [होंठों में ही, बड़बड़ाते हैं] – मुफ़्त का चन्दन, लगा मेरे भैय्या। हमसे ही ज़र्दा-चूना लेकर, हमें ही परेशान करने लगे मियां छींकों की झड़ी लगवाकर ? ऊपर से पूछने लगे कि ‘मियां, खैरियत है ?’ अब काहे की,  खैरियत ? ख़ाली, हमारी मज़बूरी का फ़ायदा उठा रहे हैं।

[उधर गली में एक फेरी वाला आ गया है ठेला लेकर, जो बच्चों को बर्फ के गोले बनाकर बेच रहा है। वह बच्चों को बुलाने के लिए, बार-बार घंटी बजाता जा रहा है। उसकी घंटी की आवाज़ सुनकर, दसवी क्लास की लड़कियां स्कूल के बाहर चली आती है बर्फ का गोला खाने। वहां खड़ी-खड़ी वे, मनु भाई के लख्ते ज़िगर वसीम मियां का इन्तिज़ार करने लगी। इधर इन छोरियों को देखते ही वसीम मियां, एक बार अपने अब्बू का चेहरा देखते हैं। उनको विचारों में तल्लीन पाकर, हाथ की सफ़ाई दिखलाने की कारश्तानी पर उतर आते हैं, वसीम मियां। दबे पाँव जाकर, गल्ले से बीस रुपये पार कर लेते हैं। थोड़ी देर बाद, वे उस फेरी वाले के पास खड़े नज़र आते हैं। अब वे हंसी के ठहाके लगाते हुए, इन बच्चियों को शरबत में डूबे बर्फ के गोले खिलाते जा रहे हैं। मगर यहाँ मनु भाई की तंद्रा कहाँ टूटी है ? वे अब भी, सोचते जा रहे हैं।]

मनु भाई – [होंठों में, बड़बड़ाते हैं] – हाय अल्लाह। रसूखात तोड़ नहीं सकता इनसे, वक़्त-बेवक्त मुझे उधार देने वाला इनके सिवाय है कौन ? इस बस्ती में किराणे की दुकान, क्या खोली ? अब तो यह दुकान, जी का जंजाल बन गयी है। बस, पूँजी डालते ही जाओ, डालते ही जाओ..मगर, एक पैसे का नफ़ा नहीं। मोहल्ले वाले माल ले जाते हैं, उधार।

[बीस रुपये ख़त्म होने के बाद वसीम मियां लौट आते हैं, दुकान पर। और चुपचाप अपने दबे पाँव जाते हैं, चाकलेट के मर्तबान के पास। ढक्कन खोलकर १०-१५ चाकलेट बाहर निकालकर उन बच्चियों के पास चाकलेट बांटने चले आते हैं। मगर, मनु भाई अभी भी विचारों में खोये सोचते जा रहे हैं।]

मनु भाई – [होंठों में ही, बड़बड़ाते हैं] – मगर अल्लाह के फ़ज़लो करम से हमें तो नकद देकर ही माल उठाना पड़ता है। इधर हमारा नालायक बेटा वसीम, मर्दूद अक्सर तो दुकान पर बैठता ही नहीं। अगर बैठता है तो, मोहल्ले की जवान छोरियों को कभी आईस-क्रीम तो कभी बर्फ के गोले खिलाकर कर देता है गल्ला कम। अरे, करें क्या ? आडे वक़्त ये दाऊद मियां रुपये तो दे देते हैं उधार, मगर देते हैं बाज़ार रेट से ज्यादा ब्याज रेट लगाकर। बस यही कारण है, मुफ़्त में इनको सुर्ती खिलाकर इनको खुश रखना पड़ता है।

दाऊद मियां – [मनु भाई को, विचारों में तल्लीन पाकर] – किस फ़िक्र में बैठ गए, मनु भाई ? एक बार और ज़र्दे की फाकी लगाकर आपके नासा छिद्रों को खोल दें क्या ?

साबिर मियां – [बीच में, बोलते हुए] – एक बार खुल गए, नासा छिद्र। अब बार-बार क्यों खोल रहे हैं, उस्ताद ? अब आप हमारी दास्तान कब सुनेंगे, आख़िर हम क्यों आये थे जमाल मियां के पास ?

दाऊद मियां – कहिये, जनाब।

दाऊद मियां – कुछ महीने पहले गए थे हम कलेक्टर ऑफिस। उस वक़्त ये जमाल मियां और पोलिटेकनिकल कोलेज़ के जूनियर अकाउंटेंट जनाब अयूब खां कण्ट्रोल रूम में डेपुटेशन पर लगे थे। उनके कमरे के बाहर उनकी ख़िदमत में नवाब शरीफ़ एक स्टूल पर तशरीफ़ आवरी थे।

दाऊद मियां – क्या काम, नवाब शरीफ़ से ? हम तो पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म से भी कोई ताल्लुकात नहीं रखते।

साबिर मियां – सुनिए तो सही, वह बेचारा चपरासी नवाब शरीफ़ इन दोनों की ख़िदमत करता-करता परेशान हो गया। ये दोनों ठहरे, चटोखरे। कभी इस बेचारे को केन्टीन भेजकर मंगवाते लस्सी, तो कभी मंगवाते मिठाई-नमकीन। बेचारा एक मांग पूरी नहीं कर पाता, तब-तक तो दूसरी मांग खड़ी हो जाती। बेचारा इनकी मांग पूरी करता-करता अपने पांवों को दर्द का अलील दे बैठा।

दाऊद मियां – पांवों को क्यों तकलीफ़ दी, इस बेवकूफ नवाब शरीफ़ ने ? साला फोड़ देता सर, इस जमाले का। कमबख्त मौज़ मनाने बैठ गया डेपुटेशन पर, और यहाँ मैं काम के बोझ से दब गया। अब क्या कहूं, मियां ? उस दौरान मुझे, इसके हिस्से का सारा काम करना पड़ा।

साबिर मियां – आप तो अब उस नवाब की हालत देखिये, छोड़िये जमाल मियां को। अल्लाह की ताज़ीर देखिये, हुज़ूर। एक नवाब शरीफ़ तो है पाकिस्तान मुल्क का वज़ीर-ए-आज़म, और दूसरा यह नवाब शरीफ़ दफ़्तर में जूठे कप-प्लेट उठाता है। वाह अल्लाह, तेरे दर पे ऐसी नाइंसाफ़ी ?

[गुफ़्तगू करते-करते साबिर मियां के पांवों में दर्द होने लगता है, इतनी देर उनमें खड़े रहने की ताक़त नहीं। इस कारण वे भी आराम से, बेंच पर बैठ जाते हैं। दाऊद मियां तो निक्कमों की तरह पहले से बैठे हैं इस बेंच पर, और अब एक और निक्कमें इंसान को बैठते देखकर मनु भाई ने सोचना बंद कर देते हैं। अब वे इन निक्कमों को रुखी नज़रों से देखते हुए, बड़बड़ाते हैं।]

मनु भाई – [धीरे-धीरे, बड़बड़ाते हैं] – गए निक्कमें कहीं के, धंधे के वक़्त आकर बैठ गए यहाँ, अब उठने का नाम नहींख़ुदा रहम, कहीं इन निक्कमों को देखकर निक्कमें-आज़म फन्ने खां यहाँ तशरीफ़ न ला बैठे।

दाऊद मियां – [मनु भाई की तरफ़ न देखकर, साबिर मियां से कहते हैं] – कहिये साबिर मियां, फिर क्या हुआ ?

साबिर मियां – होना क्या ? जो हमेशा होता आया है। घंटी बजती है, और हमारे नवाब साहब हो जाते हैं तैयार हुक्म की तामिल करने। मगर मनसूबा बना लेते हैं कि अगर इन लोगों ने मिठाई मंगवाई तो दस्तरख्वान पर मिठाई रखेंगे बाद में, पहले वे अपना हिस्सा ज़रूर अलग रख लेंगे। ख़ुदा जाने, फिर मिठाई बचे या नहीं ?

[साबिर मियां अपनी दास्तान सुनाते जा रहे हैं, एक फिल्म की तरह सारा वाकया दाऊद मियां और मनु भाई की आँखों के आगे छाने लगता है। धीरे-धीरे, मंच पर अँधेरा छा जाता है।]

मंज़र

ब्याज का धंधा राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित

नए किरदार

अयूब मियां जमाल मियां के दोस्त, जो पोलिटेकनिकल कोलेज में जुनियर अकाउंटेंट के ओहदे पर काम करते हैं

दूदू केन्टीन का बेरा

नवाज़ शरीफ़ कलेक्ट्रेट में चपरासी है

सियासती दल के लोगों का हज़ूम

[मंच रोशन होता है, जिला कलेक्टर ऑफिस का कण्ट्रोल रूम नज़र आता है। कमरे के अन्दर एक बड़ी मेज़ रखी है, जिसके पहलू में तीन कुर्सियां रखी है। जिस पर जमाल मियां और अयूब मियां आराम से बैठे हैं। उनके पास ही मेज़ पर टेलिफ़ोन रखा है। दो तीन इनफार्मेशन लिखने के रजिस्टर और मुलाकातियों के नाम उतारने की किताबचह वगैरा रखे हैं। आगंतुकों के बैठने के लिए एक बेंच भी रखी है। कमरे के बाहर, स्टूल पर जनाब नवाब शरीफ़ तशरीफ़ आवरी हैं, जो बार-बार कमरे के अन्दर झाँक लेते हैं कि ‘ख़ुदा जाने, न मालुम कब केंटिन से मिठाई-नमकीन मंगवाने की फ़रमाइश आ जाए ?’ इनके पास ही, मुसाहिब साबिर मियां खड़े हैं। ये साबिर मियां ठहरे, जमाल मियां के दोस्त। इनको कभी जमाल मियां ने कह रखा था, “जब कभी ज़रूरत पड़े पैसों की, वे बिना शर्म किये आ जायें उनके पास..वे ज़रूर उनको बिना ब्याज लगायें, रुपये उधार दे देंगे।” इसी कारण, साबिर मियां यहाँ तशरीफ़ लाये हैं। तभी नवाब शरीफ़ को, हुक्म की घंटी सुनाई देती है। और पीछे-पीछे, अयूब मियां की आवाज़ सुनायी देती है।]

अयूब मियां – [नवाब शरीफ़ को आवाज़ देते हुए, कहते हैं] – नवाब साहब, ज़रा अन्दर तशरीफ़ रखिये हुज़ूर। तीन मर्तबा घंटी बजा चुका हूँ, जनाब। [नवाब शरीफ़ को अन्दर दाख़िल होते देखकर] जाओ, पांच छाछ से भरी बोतलें केन्टीन से लेते आओ। ज़रा देखने की तकल्लुफ़ करना, बाहर जमाल साहब से कौन साहब मुलाक़ात करने आये हैं ?

नवाब शरीफ़ – हुज़ूर छाछ मंगवाने से, हमारे जमाल साहब की शान में बट्टा लग जाएगा। आख़िर, जमाल साहब ठहरे नवाब ख़ानदान के। उनकी शान को बनाए रखने के लिए गुलाब हलुआ और शाही कोफ़्ता मंगवाना माकूल है, हुक्म दें तो यह बन्दा केंटिन से लेता आयेगा। आख़िर, आने वाले इनके ख़ास मेहमान हैं।

जमाल मियां – क्या अनाप-शनाप बके जा रहे हो, मियां ? कहीं आपकी यह तो मर्ज़ी नहीं कि, हम बार-बार पाख़ाना जाते रहें ? यार नवाब मियां, हम पर रहम करो। नीचे का दफ़्तर, दो दिन से दुरस्त नहीं है। अब गुलाब हलुआ खिलाकर, मारोगे क्या ?

नवाब शरीफ़ – हुज़ूर, यह अलील आपको है..क़िब्ला हमें नहीं। हम तो जनाब, बड़े मज़े से खायेंगे। आप मंगवाइये, तो सही।

अयूब मियां – बिल्ली की तरह छीका मत तोड़ो, भाई। [अब अयूब मियां अपनी दोनों हथेलियों को मिलाकर उन्हें कटोरे की शक्ल देते हैं, फिर बड़ी मायूसी से भिखमंगे की तरह कहते हैं] ला दे, मंगा दे प्यारे जमाल मियां अल्लाह के नाम से मंगा दे। अल्लाह के बन्दे, अल्लाहताआला तेरा भला करेगा।

[इस तरह भिखारी की तरह उनको माँगते देखकर, जमाल मियां अपनी हंसी रोक नहीं पाते हैं। फिर क्या ? वे ज़ोर से, ख़िल-खिलाकर हंस पड़ते हैं। फिर, नवाब शरीफ़ को मिठाई और नमकीन लाने का हुक्म दे देते हैं। अब अयूब मियां को चिढ़ाते हुए, उनसे कहते हैं।]

जमाल मियां – क़ुरबान हो जाऊं, मियां। कभी-कभी हमारे दर पर कटोरा लिए तशरीफ़ रखिये, हुज़ूर का मुंह रुपये-पैसों से भर दूंगा। [नवाब शरीफ़ पर निग़ाह डालकर, कहते हैं] अरे नवाब साहब, अभी-तक रुख्सत नहीं हुए। क्या, आपको भी भीख देनी होगी ?

अयूब मियां – [दरवाज़े पर खड़े साबिर मियां की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] – ओ ख़ुदा के बन्दे, आप बाहर क्यों खड़े हैं ? अन्दर तशरीफ़ रखिये, मेहरबान।

जमाल मियां – [ख़ाली कुर्सी को, आगे रखते हुए] – आइये साबिर मियां, बैठिये हुज़ूर।

[मुंह झुकाए नवाब शरीफ़, केन्टीन की तरफ़ क़दम बढ़ा देते हैं। साबिर मियां अन्दर आकर, कुर्सी पर तशरीफ़ आवरी होते हैं। उनके बैठ जाने के बाद, अयूब मियां जमाल मियां से कहते हैं।]

अयूब मियां – ओ मेरे मसीहा, तेरे रहम से ही बचे-खुचे दिनों में हमारा गुज़ारा चल जाता है। तनख्वाह तो मियां, बस दस-पंद्रह दिनों में ही ख़त्म हो जाती है। ए अल्लाह पाक के बन्दे, साबिर मियां की मदद कर। अल्लाह रसूल, तेरी सभी ख़ताओं को माफ़ कर देगा।

जमाल मियां – [साबिर मियां से, कहते हैं] – आपकी क़दमबोसी से, इस दफ़्तर में क्या हुई ? हमें अल्लाह पाक के दीदार हो गए। कहिये मियां, खैरियत तो है ?

साबिर मियां – आपके हुस्ने-समाअत से जी रहे हैं, मेरे खैरख्वाह। कुछ काम था, आपसे। माफ़ करना, थोड़ी तकलीफ़ देने आ गया।

जमाल मियां – अल्लाह का फज़ल है, आपने इस नाचीज़ को ख़िदमत के लायक समझा। अजी हमारा तो यह कहना है कि, परवरदीगार ने ये दो हाथ किसी ज़रूरतमंद इंसान की मदद के लिए दिए हैं ? अब आप यह बताएं कि, गोया मैं आपके कुछ काम आ सकूं ? 

साबिर मियां – [खुश होकर, कहते हैं] – आपकी इस सलाहियत की क़द्र करता हूँ, आज़ दुनिया में कहाँ ऐसे रब्त रहे जो किसी ज़रूरतमंद के काम आ सके ?

अयूब मियां – चलिए, अब इस मोहमल लग्व को छोड़िये, असली काम के मुद्दे पर आ जाइए।

साबिर मियां – औलिया के मेहर से, ख़ानदान-ए-चराग़ रोशन हुआ है। अगले जुम्मेरात अजमेर जाकर, ग़रीब नवाज़ की मज़ार पर चादर चढ़ानी है। बस हुज़ूर, आपकी मेहरबानी से ख़ाली पांच हज़ार रुपयों का इन्तिज़ाम हो जाय। आप ठहरे नवाबी ख़ानदान के, आपके लिए यह मामूली बात होगी।

[इनकी यह उधार देने की बात सुनकर, जमाल मियां दोनों हथेलियाँ अपनी हिचकी पर रखकर सोचने बैठ जाते हैं।]

जमाल मियां – [सोचते हुए] – एक तो साबिर मियां ठहरे, हमारे ख़ास दोस्त। एक दिन हमने डींग हांकते हुए इनको कह दिया कि, “अमां यार, तुम तो ठहरे हमारे जिगरी यार। कभी ज़रूरत पड़े रुपये-पैसे उधार लेने की, बस तुम शर्म करना मत माँगने में। तुमसे एक पैसा ब्याज का नहीं लूंगा।”

[अभी जहां जमाल मियां बैठे हैं, उनकी पीठ पीछे कमरे की खिड़की खुली है। उस खिड़की से साफ़ दिखायी दे रहा है, बाहर क्या हो रहा है ? इस वक़्त अपोजिट सियासती पार्टी वालों का हज़ूम नारे लगाता हुआ, कलेक्ट्रेट के गेट की तरफ़ बढ़ता नज़र आ रहा है। वहां गेट पर खड़ा दरबान, जो भरपूर कोशिश करता हुआ उन लोगों को अन्दर आने से रोकता जा रहा है। वहां इतना शोर-गुल बढ़ गया है कि, दफ़्तर के लिपिक तन्मयता से काम नहीं कर पा रहे हैं। सभी लिपिक अपनी सीट छोड़कर वहां आ गए हैं, मगर जमाल मियां वैसे ही अपनी सीट पर विचारमग्न बैठे हैं। उनके दिल में कहीं भी कतुहल नज़र नहीं आ रहा हैं कि, ‘वे वहां जाकर, मुआइना कर आयें ?’]

जमाल मियां – [होंठों में ही, कहते हैं] – अब यह काफ़िर साबिरिया आ गया, रुपये माँगने ? हाय अल्लाह, दोस्ती में पैसों का आना..गंजलक ? कल इसने वक़्त पर पैसे नहीं लौटाए तो, पैसे तो डूबेंगे ही। मगर साथ में, मुहब्बत पर खंजर चल जाएगा। कल रात को ही मरहूम अब्बाजान सपने में आये, और आकर कह गए कि..

[अब कलेक्टर साहब ने, नारे लगा रही सियासती पार्टी के नेताओं को गुफ़्तगू के लिए अपने चेंबर में बुला लिया है। इस कारण बरामदे में में अब कोलाहल नहीं है, शान्ति छा गयी है। मगर, जमाल मियां से इससे क्या लेना-देना ? वे तो, पहले की तरह सोचते जा रहे हैं।]

जमाल मियां – [होंठो में ही] – अब्बा हुज़ूर ने कहा कि, “अम्मी के पैसे हिफाज़त से रखना बेटा, ऐसा न हो तुम किसी को बिना ब्याज पर पैसे उधार देकर ख़ानदानी वज़ा के खिलाफ़ कोई काम कर बैठो। यह भी याद रखना, दोस्ती जैसे पाक रिश्ते में रूपया-पैसा बीच में लाकर...रब्त को ग़ारत मत करना। क्योंकि, इस मामले में ब्याज आना तो दूर...मूल से भी हाथ धो बैठोगे।”

[इतना सोचने के बाद, जमाल मियां अपने बैग से डायरी निकालते हैं। फिर सरसरी नज़रों से, उस डायरी में भरी एंट्रीज़ को देख डालते हैं। तभी नवाब शरीफ़ मिठाई और नमकीन लिए लौट आते हैं। अब नवाब शरीफ़ मेज़ पर मिठाई और नमकीन को रखकर, जमाल मियां से कहते हैं।]

नवाब शरीफ़ – कहाँ खो गये, उस्ताद ? माल-मसाला आ गया, हुज़ूर। ‘बिस्मालाहि रहमान रहीम’ कहकर माल-मसाले का लुफ्त उठाया जाय।

जमाल मियां – [आंखें मसलते हुए, कहते हैं] – नवाब साहब छाछ लाने का हुक्म दिया था, जनाब भूल गए क्या ?

नवाब शरीफ़ – [ज़ब्हा से टपक रहे पसीने को रुमाल से पोंछते हुए, कहते हैं] – पूरी टोपी गीली हो गयी होगी, हुज़ूर। [टोपी उतारकर, उसे खूंटी पर लटका देते हैं] अब बाहर कैसे जाऊं, बिना टोपी पहने ?

अयूब मियां – [झट जमाल मियां की टोपी को उतारकर, थमा देते हैं नवाब शरीफ़ को] – यह टोपी पहन लो, नवाब मियां। क्या फर्क़ पड़ता है ? अहमदिया की टोपी, महमूदिये के सर।

नवाब शरीफ़ – [वापस जमाल मियां को टोपी पहनाते हुए, कहते हैं] – फिर भी महमूदिया फिरे ऊघाड़ा सर। हुज़ूर, ऐसी टोपी पहनने की क्या ज़रूरत ? हम खुद ठहरे नवाब शरीफ़, जिन्हें दूसरों को टोपी पहनाना आता है..बड़े-बड़े मुसाहिबों को टोपी पहना चुके हैं, हम।

अयूब मियां – इस कमबख्त टोपी को मारो गोली, जनाब आप जल्दी जाइए और छाछ लेते आइये। हलक सूखता जा रहा है। ख़ुदा के लिए इस हलक को तर कर दो, प्यारे।

जमाल मियां – [होंठों में ही] – इसकी टोपी, उसके सर। यह बात खूब कही, इस कमबख्त ने। अब छाछ की जगह लगाता हूँ तेरे मुंह में आग। फिर कैसे बचाता है तू, अपने मुंह को ?

[जेब से मेडम सुपारी की पुड़िया बाहर निकालते हैं, फिर मुंह में सुपारियाँ रखते हुए अपने दिमाग़ के कल-पूर्जों को ठीक करते हैं। इधर सुपारी मुंह में क्या गयी, मियां के कुबदी दिमाग़ की नसों में हरक़त होने लगी। यकायक सोचने की पोवर में इजाफ़ा हो गया। फिर क्या ? जनाब झट अयूब मियां से, कह देते हैं।]

जमाल मियां – ऐसा करते हैं, ज़रा साबिर मियां को बाहर टहलने भेज देते हैं...तब-तक हम डायरी में देख लेते हैं कि, रुपये-पैसों का इन्तिज़ाम हो सकता है या नहीं ?

साबिर मियां – चलिए नवाब साहब, ज़रा टहलकर आते हैं।

[फिर क्या ? नवाब शरीफ़ और साबिर मियां के क़दम, केन्टीन की तरफ़ बढ़ते हैं। क्योंकि, अब तो नवाब मियां को छाछ की ठंडी बोतलें लाने का हुक्म तामिल करना है। उनके रुख्सत होते ही, जमाल मियां अयूब मियां से कहते हैं।]

जमाल मियां – ऐसा क्यों नहीं करते, मियां ? अभी आपके राक़िम खाते से, साबिर मियां को रुपये उधार दे दिये जाय..?

अयूब मियां – क्यों जनाब, हम क्यों बने कुरबानी का बकरा ? मिलने वाला आपका, और रुपये उधार दें हम ? मियां, यह कहाँ का क़ानून है ?

जमाल मियां – बात ऐसी है मियां, तुम कुछ समझा करो। साबिर मियां ठहरे, हमारे दोस्त। उनसे हम पैसा लौटाने की उतावली कर नहीं सकते, और ना उनसे ब्याज ले सकते हैं।

अयूब मियां – अब मौक़ा आया है, ज़रा नवाबी के तौर-तरीक़े दिखलाइये ना। दे दीजियेगा, उनको उधार बिना ब्याज लिए...आख़िर, साबिर मियां ठहरे आपके ख़ास दोस्त। वक़्त पड़ने पर, दोस्त दोस्त के काम आता है..न तो दोस्त किस काम का ? फिर उसे दोस्त नहीं, दोष ही कहिये ना। ज़रा, दोस्ती निभाइए, मेरे खैरख्वाह।

जमाल मियां – अमां यार, इतनी बड़ी-बड़ी तकरीरे दे रहे हैं आप..और आप इतने बड़े दानिश होकर, यह छोटी सी हमारी बात समझ नहीं पा रहे हैं ? हम आपको यही बात समझाना चाहते हैं कि, आप..

अयूब मियां – खुलकर बोलिए यार, जल्दी कीजिये कहीं साबिर मियां वापस लौटकर न आ जाय ?

जमाल मियां – देखो मियां, हम आपके हम-पेशा दोस्त ठहरे..दोनों का धंधा एक ही है ब्याज का धंधा अब आप यह सोचिये, एक धंधे वाला दूसरे धंधे वाले की मदद करता है या नहीं। एक-दूसरे के धंधे में मदद चलती रहेगी, तब-तक यह धंधा बकरार रहेगा और दोनों धंधे वाले दोनों हाथों से कमाते रहेंगे। इस तरह मैं आपकी मदद ही, कर रहा हूँ।

अयूब मियां - आपका मफ़हूम समझ नहीं पा रहा हूँ, ज़रा आप सिलसिलेवार बयान कीजिये ना।

जमाल मियां – हम आपको यह कहना चाह रहे हैं कि, अभी-तक आपकी एजुकेशन महकमें वालों से इस धंधे के सिलसिले में मुलाक़ात नहीं हुई है। अब आप साबिर मियां को रुपये उधार देंगे, तब आपको दो फ़ायदे होंगे। वक़्त पर काम आने पर साबिर मियां खुश हो जायेंगे, और वे अपने महकमें के ज़रूरतमंद लोगों को कहते रहेंगे कि...

अयूब मियां – क्या कहेंगे, मियां ? ‘अल्लाह माफ़ करें, यह नामाकूल तो बड़ा शातिर सूदखोर निकला।’

जमाल मियां – अजी वे तारीफ़ करते हुए यही कहेंगे कि, “देखिये जनाब, वक़्त पर काम आने वाला ऐसा मोमीन कहाँ मिलता है आज़कल ? आप वक़्त-बेवक्त इनसे रुपये उधार लेकर, अपना काम चला सकते हैं। अरे मियां, इस तरह आपका धंधा बढ़ जाएगा। आप झट, साबिर मियां को रुपये उधार दे दीजियेगा।

अयूब मियां – [खुश होकर, चहकते हुए कहते हैं] – वाह प्यारे, बात तो सौ टका सही है। फ़ायदा ही फ़ायदा है, मियां। अब तो मैं तैयार बैठा हूँ, हुक्म दीजिये मेरे दोस्त।

जमाल मियां – [चेहरे पर मुस्कान लाते हुए, कहते हैं] – ठीक है, मियां। अब सुनो, यह ग्राहक हमने दिया है आपको। हमारा वाज़िब कमीशन बनता है, प्यारे। अब आपका फ़र्ज़ बनता है कि, आप हर माह वाजिब कमीशन देते रहें हमें।

[दोनों ठहाके लगाकर हंसते हैं, फिर दोनों ख़ास गुफ़्तगू करने मशगूल हो जाते हैं। इस गुफ़्तगू में उधार देने की शर्तें तय हो जाती है, थोड़ी देर बाद इनको पदचाप सुनायी देती है और ये ये दोनों सूद के सौदागर अपनी गुफ़्तगू बंद कर देते हैं। साबिर मियां और नवाब शरीफ़, वापस लौट आते हैं। साबिर मियां आकर वापस कुर्सी पर बैठ जाते हैं। नवाब शरीफ़ काम में लग जाते हैं। छाछ की ठंडी बोतलें मेज़ पर रखकर, मिठाई और नमकीन अलग-अलग प्लेटों में डालकर दस्तरख्वान सज़ा देते हैं। इस काम को अंजाम देते हुए, वे अपना हिस्सा अलग रखना भूलते नहीं। फिर अपना हिस्सा उठाकर, बैठ जाते हैं स्टूल पर। फिर “बिस्मिल्लाहि रहमान रहीम” कहकर, अपनी पेट-पूजा में तल्लीन हो जाते हैं।]

अयूब मियां – [साबिर मियां से, कहते हैं] – आओ मियां, झटपट मिठाई और नमकीन पर हाथ साफ़ कर लो। माल आपका ही है, हुज़ूर। अब खाने में शर्म मत करना। लीजिये झट कहिये “बिस्मिल्लाहि रहमान रहीम”। फिर करते हैं, आपकी क़िस्मत का फैसला।

[“रुपये उधार मिल जायेंगे” यह आश्वासन पाते ही, साबिर मियां की बांछे ख़िल जाती है। अब तो जनाब के दिल और दिमाग़ में एक एक ही बात घर कर जाती है कि, “अब पैसों का इन्तिज़ाम हो गया है, और बेग़म के सामने हमारी इज़्ज़त सलामत रह गयी।” फिर क्या ? झट पेट के क़ब्रिस्तान में मिठाई-नमकीन डालनी शुरू कर देते हैं। उधर मिठाई-नमकीन खाते अयूब मियां कहने लगे।]

अयूब मियां – [खाते हुए, कहते हैं] - देखो साबिर मियां, कल ही जमाल मियां से रक़म लेकर हमने अपने एक रिश्तेदार को दिला दी। अब यही कारण है, जमाल मियां के पास एक्स्ट्रा रुपये है नहीं आपको देने के लिए। अब आप बताइये, अब आप क्या करेंगे ?

[साबिर मियां की ज़ब्हा पर फ़िक्र की रेखाएं नज़र आने लगी, उस पर जल्द ही पसीने की बूँदें छलकने लगी। उनको फ़िक्र होने लगी कि, “कहीं उनका बना-बनाया काम बिगड़ तो नहीं गया ?” इस तरह अब उनका चेहरा उदास नज़र आने लगा। फिर क्या ? मिठाई-नमकीन खाना छोड़कर वे, अपने दोनों हाथ सर पर रखकर बैठ जाते हैं।

अयूब मियां – [कहकहा बुलंद करते हुए, कहते हैं] – कहाँ फ़िक्र करने बैठ गए, साबिर मियां ? ज़रा अपने दिल को थामो यार, मर्द हो आख़िर। कभी सुना, आपने ? “हिम्मते मर्दा मदद दे ख़ुदा, बादशाह की लड़की फ़क़ीर से निकाह।” 

साबिर मियां – [रुंआसी आवाज़ में] – जनाब, मर्द ज़रूर हूँ। मगर मुझे निकाह नहीं करना है। आप जानते ही हैं कि, ख़ाली एक निकाह किया है जिसकी सज़ा अभी-तक भुगत रहा हूँ। हमने एक मर्तबा कहा था मेडम से कि, “रुक जाओ, बेग़म। हमारी एक आर. डी. ठीक दो साल बाद पाक रही है, तब चल पड़ेंगे बेग़म।

अयूब मियां – [कहकहा बुलंद करते हुए] – कहाँ चल पड़ोगे, भाई ? हनीमून जाना है, या और कहीं ?

साबिर मियां – अरे हुज़ूर, बेग़म कहने लगी कि, “ख़ानदान-ए-चराग़ रोशन हुआ है, अब हम बिरादरी में किसी को मुंह दिखलाने के क़ाबिल बने हैं। अब पैसों की कंजूसी करके ओछी हरक़त मत करो। मैं अपने पीहर वालों को, शिरनी खाने का न्योता भी दे आयी हूँ..”

अयूब मियां – ऐसा, क्या हुआ ? जो, आपको न्योता देना पड़ा ?

साबिर मियां – अमां यार, बेग़म भड़क उठी। कहने लगी कि, ‘क्यों भद्दी लगाते हो, मेरी ? घर में इतनी भूख नहीं आयी है, जो दस जनों को दावत दे नहीं सकते ? अगले जुम्मे रात अजमेर चलना है, चादर चढ़ाने।’ ओ मेरे ग़रीब नवाज़ तू सबकी बिगड़ी बनाता है, कोई रास्ता निकाल।

[इतना कहकर, साबिर मियां रुंआसे बने आसमान की तरफ़ देखने लगे। माहौल ग़मगीन हो जाता है, अब साबिर मियां के कंधे पर हाथ रखे अयूब मियां कहते हैं।]

अयूब मियां – फ़िक्र मत करो, ख़ुदा के बन्दे। जहां एक रास्ता बंद हो जाता है, वहां ख़ुदा दूसरा रास्ता खोल देता है। [जेब से रुमाल निकालकर, साबिर मियां को देते हैं।] पसीना पोंछ लो, यार। मर्द बनो, अब दुनियादारी की बात हमसे सुनो।

साबिर मियां – [रुंआसी आवाज़ में, कहते हैं] – अरे हुज़ूर, पसीने को मारो गोली। [पसीना पोंछकर वापस रुमाल थमाते हैं, फिर कहते हैं] आप मुद्दे को न छोड़िये, फ़रमाइये हुज़ूर। क्या हुक्म है, हमारे लिए ?

अयूब मियां – अब तुम क्या करोगे, मियां ? शायद अब तुम जाओगे बनिए के पास, उधार लेने। बनिया बोलेगा कि, “ज़ेवर गिरवी रखकर चार गुना ज्यादा ब्याज पर रक़म ले जाओ।” फिर तुम बेग़म के पास जाकर, गिरवी रखने के लिए ज़ेवर मांगोगे। अब तुम सोचो, मियां कि..

साबिर मियाँ – क्या सोचूँ, मियां ? अब तो मुझे कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा है।

साबिर मियां – इस मौक़े पर आपकी बेग़म ज़ेवर पहनेगी, या अपने ज़ेवर गिरवी रखकर खून के आंसू निकालेगी ? अगर वह रज़ामंद नहीं हुई तो...यह सब तुम जानते हो। अरे मियां क्यों इतनी सारी परेशानियों से गुज़रना, तुमको गवारा है ? फिर, तुम ऐसा क्यों नहीं कर लेते कि...

साबिर मियां – क्या कर लूं, हुज़ूर ? अब बाकी रहा क्या ?

अयूब मियां – दो परसेंट ब्याज पर हमसे उधार ले लो, और क्या ? हम तो आपके एहबाब ठहरे, इसलिए एक मर्तबा कह दिया कि “आपको फ़िक्र में डूबा हुआ, हम देख नहीं सकते।” फिर आप जानो, और आपका काम जाने।

[बस, फिर क्या ? काम बन गया, साबिर मियां चहकते हुए उठते हैं। उठकर, अयूब मियां को अपनी बाहों में भर लेते हैं। फिर, उनको वापस कुर्सी पर बैठाकर ख़ुद उनके पहलू में रखी कुर्सी पर बैठ जाते हैं। उनको शुक्रिया अदा करके, आगे कहते हैं।]

साबिर मिया – शुक्रिया जनाब, आप पर क़ुरबान हो जाऊं मियां। आपने इन कम्युनिष्ट दिनों में, मेरा काम निकाला।

अयूब मियां – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – क़ुरबानी तो बाद में देते रहना, मूल और ब्याज चुकाकर। पहले मर गए तो मियां, हमारा बकाया पैसा कौन चुकाएगा ? आख़िर भाई, धंधे का सवाल है। यहाँ तो तय-शुदा शर्तों पर रुपये उधार मिलते हैं, अभी हम आपको शर्तें सुना देंगे। [हंसी के ठहाके लगाते हैं]

[अब अयूब मियां बैग से चैक बुक निकालकर, चैक लिखकर उस पर दस्तख़त करते हैं। फिर चैक काटकर, साबिर मियां को थमा देते हैं। फिर हिदायत देते हुए, उनसे कहते हैं।]

अयूब मियां – [चैक थमाते हुए, कहते हैं] – लीजिये चैक, अब शुक्रगुज़ार बनिए अल्लाह मियां के। जिन्होंने आपकी मुलाक़ात हमसे करवायी, अब आप नोट कर लीजिएगा। ब्याज हमारे दीवानखाने बराबर भेजते रहना।

साबिर मियां – ना तो मियां, क्या होगा ?

अयूब मियां – हम आपके दर पर आ गए, तो मियां...बुलाने पर मेज़बानी का खर्च आपको भुगतना होगा। आप तो जानते ही हैं, कोई ऑफिसर आपकी स्कूल में दौरे पर आता है..तब उसकी कार का पेट्रोल कौन भरवाता है और किसके पैसे से ?

साबिर मियां – उसकी कार में पेट्रोल, हम ही भरवाएंगे हुज़ूर। [उदासी से] जानता हूँ, हुज़ूर। आप आला ख़ानदान के हैं, और आपके सारे रिश्तेदार पुलिस महकमें में ऊंचे ओहदों पर बैठे हैं। ब्याज देरी से चुकाने का अंजाम, क्या होगा ? हुज़ूर हम समझ गए, यहाँ लिहाज़ नाम की कोई सहूलियत नहीं।

[इसके बाद अयूब मियां जो शर्तें तय करनी है, वे सब शर्तें उनको बता देते हैं। शर्तें सुनकर, साबिर मियां का मुंह उतर जाता है, बेचारे आये थे बिना ब्याज रुपये लेने..मगर फंस गए अयूब मियां के जाल में। अब कठिन शर्तों पर ज्यादा ब्याज देना होगा। मरता क्या करता, वक़्त रहा बहुत कम..अनमने से साबिर मियां चैक थाम लेते हैं। अच्छा होता यहाँ आने से पहले मियां, दाऊद मियां के पास चले जाते। चैक लेकर, साबिर मियां उठते हैं। उठते ही उनकी नज़र कमरे के दरवाजे पर गिरती हैं, वहां केन्टीन का छोरा दूदू दिखायी देता है। जो मिठाई, नमकीन और छाछ के पैसे लेने आया है। अब दूदू रास्ता रोककर, साबिर मियां के सामने खड़ा हो जाता है। और, उनसे पैसे मांगता है।]

दूदू – साहब, ज़रा मिठाई, नमकीन और छाछ के दाम देते जाइए।

[बेचारे साबिर मिया लाचारी से, जमाल मियां और अयूब मियां का मुंह ताकते हैं। मगर, उन पर कोई असर नहीं। क्योंकि, यहाँ तो साबिर मियां ठहरे क़ुरबानी के बकरे।]

अयूब मियां – [लबों पर मुस्कान फैलाते हुए, कहते हैं] – नावाकिफ़ न बनिए, मियां। हमने पहले ही कह दिया था आपसे कि, “मियां हाथ साफ़ करो, आपका ही माल है।”

[दास्तान कहते-कहते साबिर मियां के हलक में अलूज़ आती है, वे खंखारते हैं। उनके खंखारने से दाऊद मियां और मनु भाई वर्तमान में लौट आते हैं। आँखों के आगे आ रहे वाकये की तसवीरें आनी बंद हो जाती है। दास्तान सुनकर दाऊद मियां बेंच से उठते हैं, उठते हुए वे कहते हैं।]

दाऊद मियां – फिर क्या हुआ, बिरादर ?

साबिर मियां – [दाऊद मियां से नज़रें हटाकर, मनु भाई को देखते हुए कहते हैं] – होना क्या ? बड़ी मुश्किल से, ब्याज की दूसरी किश्त चुकाकर आ रहा हूँ। और, होना क्या ? ब्याज की किश्त के रुपये, अयूब मियां के पास भिजवाने के लिए जमाल मियां के पास आया था। मनु भाई, एक बार इनको कहिये ना।

मनु भाई – [हंसते हुए, कहते हैं] - किसको कहूं और क्या कहूं, साबिर मियां ? आपके सेठ दाऊद मियां, स्कूल की तरफ़ क़दम बढ़ा चुके हैं। वाह मियां, क्या ध्यान रखते हैं आप ? आपके सामने क़दम बढ़ा रहे थे, और आपको पता न लगा ? अरे जनाब, उनको एक बात समझ में आ गयी कि, आख़िर ब्याज का धंधा कैसे चलता है ? कहीं आप उनसे पैसे उधार मांगकर, और भी सीख देना चाहते हैं उन्हें ?

साबिर मियां – वज़ा फ़रमाया, हुज़ूर। इस बेरहम अयूब मियां को ब्याज की किश्तें चुकानी बहुत भारी पड़ रही है, इसलिए हमने सोचा कि, “अगर दाऊद मियां से कम ब्याज पर रुपये उधार लेकर, एक बार अयूब मियां का हिसाब साफ़ कर दें...तो हम, फ़ायदे में ही रहेंगे। मगर, हाय अल्लाह..यह दीनदार मोमीन कहाँ चला गया ?

मुनु भाई – रहने दें, आप। यह दाऊद मियां, कब रहे दीनदार मोमीन ? ज़र्दा मुंह में डालते ही जनाब बोलते हैं ज़ोर से, “अल्लाहो अकबर।“ मगर आप यह बताएं कि, कुरआन शरीफ़ की किस आयत में लिखा है कि, एक सच्चे मोमीन को ब्याज का धंधा करना चाहिए ?”

साबिर मियां – आप कहना क्या चाहते हैं, मनु भाई ? क्या अब मुझे कम ब्याज पर, दाऊद मियां से रुपये उधार नहीं मिलेंगे ?

मनु भाई – इतनी लम्बी आपकी दास्तान सुनकर क्या अब आप उनसे, कम ब्याज की दर पर रुपये उधार लेने की उम्मीद रखते हैं ? अरे हुज़ूर, यहाँ तो सभी सूदखोर बाकीदार [क़र्ज़ लेने वाला] को...

साबिर मियां – [घबराते हुए, कहते हैं] – क्या..क्या ? क्या समझते हैं, हमें ? बताइये ना। आपका यह कहने का क्या मफ़हूम है ? 

साबिर मियां – हक़ीक़त यह है मियां, कोई किसी की मदद नहीं करता। सभी कर्ज़ा लेने वालों को समझते हैं, मुर्गी। बस, उस मुर्गी को हलाल कैसे किया जाय ? नायाब तरीक़े ढूँढ़ते हैं, सभी।

साबिर मियां – [ग़मगीन होकर, कहते हैं] – बस समझ गया हुज़ूर, यही दुनिया का तुजुर्बा है, भाईहम लोगों की मज़बूरी, इनके लिए बन जाती है मुर्गीऔर ये सारे सूदखोर इस मुर्गी को हलाल करने के लिए मौक़े तलाशते रहते हैंइनकी शमशीर...

[मनु भाई की कही बात सुनकर साबिर मियां इतने मायूस हो गए हैं, बेचारे..कि, वे आगे बोल नहीं पाते। फिर क्या ? पांवों से लड़खड़ाते हुए, रुख्सत होते हैं। धीरे-धीरे, उनके क़दमों की आवाज़ दूर से सुनायी देती है। मंच पर, अँधेरा छा जाता है।

----

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: हास्य-व्यंग्य नाटक : जमाल मियां और उनके मुसाहिब - लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
हास्य-व्यंग्य नाटक : जमाल मियां और उनके मुसाहिब - लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-7wn9K6dE_OoA6pwmj4sCFBjWqLhs2UyvHg4pyScvpD2Vg1jw_VsnpNPrX43LHl-FLA7-iadtX6dBY-GKUm_5mZMr0bMKIV-nFRpi5N-TWBENoEIRZPyQCz6Dkf_XqTHFFSov/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-7wn9K6dE_OoA6pwmj4sCFBjWqLhs2UyvHg4pyScvpD2Vg1jw_VsnpNPrX43LHl-FLA7-iadtX6dBY-GKUm_5mZMr0bMKIV-nFRpi5N-TWBENoEIRZPyQCz6Dkf_XqTHFFSov/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/04/blog-post_2.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/04/blog-post_2.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content