नाटक - दबिस्तान-ए-सियासत पहला मंज़र आ गया नूरिया, स्कूल में। राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित किरदारों की पहचान साबू भाई – डवलपमेंट कमेटी के मेंब...
पहला मंज़र
आ गया नूरिया, स्कूल में। राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित
किरदारों की पहचान
साबू भाई – डवलपमेंट कमेटी के मेंबर और नगर परिषद के ठेकेदार। वय – उम्र ५५ वर्ष के बुजुर्ग, डवलपमेंट कमेटी के मेंबर और नगर परिषद के ठेकेदार। पहनावा – सर पर जोधपुरी साफ़ा पहना हुआ है, बदन पर धोती और कमीज़ पहने, चेहरे पर घनी मगर रोबदार बांकड़ली सफ़ेद मूंछें। पांवों में हवाई चप्पल।
मनु भाई – डवलपमेंट कमेटी के मेंबर और रिटेल किराणा व्यापारी। ५५ वर्ष के बुजुर्ग, सांवला रंग, चेहरे पर दफ़्तरेनिग़ार टाइप छोटी मूंछें, पहनावा पतलून और बुशर्ट, पांवों में मारवाड़ी जूत्तियाँ।
रशीदा बेग़म – स्कूल की हेडमिस्ट्रेस। उम्र ५५ वर्ष मगर बालों में गार्नियर डाई लगी होने से उम्र कम लगती है। गोरा रंग, चेहरे पर हल्का मेकअप, बदन पर क्रीज़ की हुई प्लेन साड़ी और उस साड़ी को मेच करता ब्लाउज़ और शाल। पांवों में मेट्रो चप्पल।
आक़िल मियां – बड़े बाबू और स्कूल के खाज़िन। उम्र करीब ५५ वर्ष, रंग गोरा, चेहरे पर मुगलिया मूंछें, बालों पर हीना लगा रखी है। शरीर थोड़ा भारी, बदन पर क्रीज़ किये हुए पतलून और बुशर्ट। पेंट पर बेल्ट लगा हुआ, और पांवों में एक्शन कंपनी के बूट।
नूरिया – जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय से तबादला होकर आया एक जैलदार। चेहरे पर कहीं-कहीं चेचक के दाग, चेहरे पर सफ़ाचट दाढ़ी-मूंछ, सांवला रंग और बिखरे हुए बालों को वह बार-बार मिथुन स्टाइल में जमाने का आदी। बिना क्रीज़ की पतलून और बुशर्ट पहने। बुशर्ट पतलून से बाहर निकला हुआ है। पांवों में बिना पोलिस किये हुए, बाटा कंपनी के बूट पहने हुए। उम्र करीब चालीस साल।
शमशाद बेग़म – स्कूल की जैलदार [चपरासिन] है। रंग सांवला, उम्र ५५ के लगभग। ग्रामीण वेशभूषा पहने रहती है। पांवों में दो पट्टी के चप्पल पहने रखती है। बालों पर हीना लगाए रखती है। बच्चियां इनको ख़ालाजान या ख़ाला कहती है, इसलिए स्टाफ वाले सभी इनको इसी नाम से पुकारा करते हैं।
अन्य – मेडमें और बच्चियां।
[मंच रोशन होता है, मज़दूर बस्ती का मंज़र सामने आता है। इस बस्ती से कुछ दूर हाई वे पर एक सूती वस्त्र बनाने की मिल है। इस कारण आस-पास के क्षेत्र को मिल क्षेत्र के नाम से पुकारा जाता है। सुबह का वक़्त है, मिल के साइरन की आवाज़ सुनकर, इस बस्ती में रहने वाले मज़दूर टिफन लिए मिल की तरफ़ जाते नज़र आ रहे हैं। अब रफतः-रफतः रोशनी डेयरी जाने वाली सड़क पर गिरती है। इस रोड पर एक सरकारी गर्ल्स सेकेंडरी स्कूल दिखायी देती है। इस बिल्डिंग के कमरे अंग्रेजी के हर्फ़ “E” के शेप में बने हैं। मुख्य सड़क पर, इस स्कूल का मेन गेट है, उसके पास ही अन्दर की तरफ़ एक बबूल का पेड़ है। जिसके तले, स्कूल की बच्चियों ने अपनी साइकलें खड़ी कर रखी है। इसके कुछ आगे ही ही स्कूल की मेडमों ने, अपने स्कूटर खड़े किये हैं। इस डेयरी रोड का वह मोड़ जो मिल की तरफ़ जाता है, वहां नुक्कड़ पर मियां भंवरु खां ने प्याऊ बना रखी है। उसके पास ही छात्राओं और मेडमों के लिए नगर-परिषद ने पाख़ाने बना रखे हैं, इन पाखानों के निर्माण का ठेका इस स्कूल के सामने रहने वाले मियां साबू खां ने लिया था। प्याऊ के पास पाख़ाने बनाने से इस प्याऊ और आस-पास के क्लास-रूम में बराबर बदबू बनी रहती है। इस कारण छात्राएं अपने क्लास-रूम की खिड़कियां बंद रखती है। स्कूल के में गेट के सामने, नगर परिषद ठेकेदार मियां साबू खां का मकान है। मकान के आगे के हिस्से में, उन्होंने कतारबद्ध दुकानें बना रखी है। पहली दुकान को उन्होंने अपने मित्र मनु भाई को किराए पर दे रखी है, जहां वे रिटेल किराणा के व्यापार करते हैं। अगली दुकान पर इनका बड़ा पुत्र स्टेशनरी की दुकान चलाता है। इस दुकान के आगे वाली दुकान में इन्होंने सीमेंट का गोदाम बना रखा है। अंतिम दुकान में ये ज़नाब, कमठा मेटीरियल बेचने का व्यापार करते हैं। इसके साथ कमठा सम्बंधित घोड़ा, अडाण वगैरा सामान साबू भाई किराए पर पर देने का धंधा करते हैं। स्कूल के में गेट के पास चारदीवारी से सटा हुआ किसी अनजान बाबा की मज़ार बनी हुई है, इसका निर्माण कार्य साबू भाई के हाथों हुआ है। ताकि वे इस मज़ार के पास, चारदीवारी से सटाकर कमठा मेटीरियल रख सके। मज़ार के कारण ही इनके द्वारा किया गया अतिक्रमण बना रहता है, किसी की हिम्मत नहीं हो पाती जो इनके किये गए अतिक्रमण का विरोध कर सके। यहाँ पर, इंटें, चूना, खंडे आदि सामान, बेचने के लिये साबू भाई ने लाकर रखा है। बांस के बने स्टूल, रस्सियाँ, अडाण आदि सामान जो साबू भाई किराए पर दिया करते हैं..वह सामान भी, यहीं रखा है। साबू भाई और इनके मित्रों को, स्कूल की राजनीति पर गुफ़्तगू करने का बहुत शौक है। इसलिए साबू भाई ने मनु भाई की दुकान के बिलकुल सामने दो बेंच लगा रखी है, जो एक-दूसरी के आमने-सामने हैं। और छांया के लिए, यहाँ दो पेड़ भी लगा दिए गए है। यहाँ बैठकर ये लोग आपस में गुफ़्तगू करते रहते हैं, और स्कूल में आने-जाने वाले आदमी इनकी निगरानी में रहते हैं। स्कूल की राजनीति में हस्तक्षेप बनाए रखने के लिए साबू भाई की मित्र-मंडली, स्कूल की विकास समिति की मेंबर बनी हुई है। अब इन बेंचों पर बैठी मित्र-मंडली एक नौजवान को देखती है, जो सनसनाता हुआ तेज़ी से हेडमिस्ट्रेस रशीदा बेग़म के कमरे की तरफ़ क़दम बढ़ा रहा है। फिर क्या ? बिना किसी की अनुमति लिए वह हेडमिस्ट्रेस के कमरे में दाख़िल हो जाता है। इस वक़्त हेडमिस्ट्रेस स्कूल की मेडमों के साथ गुफ़्तगू कर रही है, इस वक़्त इसके अन्दर आ जाने से इनकी गुफ़्तगू में बाधा उत्पन्न हो जाती है। गुस्से से, रशीदा बेग़म अपने होंठों में ही कहती है।]
रशीदा – [होंठों में ही, कहती है] – हाय अल्लाह, अब बर्दाश्त नहीं होता। ऐसे बदतमीज़ लोगों को देखकर, तबीयत बेकैफ़ हो जाती है। ऐसे ज़ाहिल बदतमीज़ इंसानों को अल्लाह मियां दोज़ख़ नसीब करें, तो ज्यादा अच्छा। अब करें, क्या ?
[तभी वह नौजवान अपने दोनों हाथ कमर पर रखकर, बदतमीज़ों की तरह तनकर खड़ा हो जाता है। फिर अपनी लाल-सुर्ख आँखों से, हेडमिस्ट्रेस रशीदा को जंगली जानवर की तरह घूरता है। उसका यह रूप देखकर रशीदा बेग़म सोच में पड़ जाती है, वह सोचती है कि, “ऐसे बदतमीज़ इंसान ज़रूर इस मज़दूर बस्ती के दारुखोरे ही हो सकते हैं, आये होंगे दस्तावेज़ सत्यापित करने..यहाँ इस स्कूल में इनको भेजने का काम, इस नगरपरिषद के सदस्यों का करा-कराया काम है। ये कमबख्त, आये दिन वोटों के ख़ातिर न मालूम क्या-क्या दस्तावेज़ तैयार करवाते रहते हैं ?” बस, फिर क्या ? सारा गुस्सा इन नगरपरिषद के पार्षदों के ऊपर उतर आता है। वह सोच रही है कि, “इन नामाकूलों को यहाँ इस स्कूल में भेजने वाले ये नगर परिषद के पार्षद ही है, नामुराद आये-दिन इन कमबख्तों को दस्तावेज़ सत्यापित करवाने के लिए यहाँ भेज देते हैं। इनके लिए मैं हेडमिस्ट्रेस न होकर, अदालत के बाहर बैठने वाली नोटरी हूँ ?” अब वह होंठों में ही, बड़बड़ाती नज़र आती है।]
रशीदा – [होठों में ही, बड़बड़ाती है] – इस नगरपरिषद ने इस स्कूल को एक भवन बनाकर क्या दे दिया, ये कमबख्त पार्षद और इनके ये दारुखोरे आदमी आये दिन व्यवधान फैला देते हैं, इस स्कूल के दफ़्तर में ? कम से कम इन पार्षदों को चाहिए कि, ‘इनको भेजने के पहले अपने इन चमचों को, अधिकारियों से बात करने का सलीका तो सिखला देते ?
[आख़िर नाक-भौं की कमानी को ऊपर चढ़ाकर, वह गुस्से से कह बैठती है।]
रशीदा – [गुस्से से, कहती है] – आ जाते हो मियां, बदतमीजों की तरह इस स्कूल में ? जानते हो, यह सरकारी स्कूल है न कि तुम्हारे लिए सैर-ओ-तफ़रीह करने का बेग़म विक्टोरिया का पार्क ? इस इलाके में केवल हम ही गज़टेड अफ़सर नहीं हैं, मियां और भी है। आ गए सुबह-सुबह, मुंह खोले ? जाओ किसी दूसरे दफ़्तर में जाकर करवा लो सत्यापन, तुम्हारे दस्तावेज़ों का।
नौजवान – [हकलाता हुआ, कहता है] – बे..बे.. बेन जी।
रशीदा – [फटकारती हुई, कहती है] – बे बे क्या बकता है, नामाकूल..बकरी है क्या ? चल, निकल बाहर। न जाने, कहाँ से आ गया, यह दारुखोरा ?
[सकपकाकर वह नौजवान बाहर चला आता है, उसके कमरे से बाहर आते ही वहां बैठी मेडमों के कहकहे बुलंद हो जाते हैं। कहकहे सुनकर वह नौजवान ख़िल-खिलाकर हंस पड़ता है, फिर वह अपने जेब से कंघा निकालकर अपने खिचड़ी नुमा बालों को संवारता है। बाल संवारता हुआ कमरे के बाहर बैठी जैलदार शमशाद बेग़म से कहता है।]
नौजवान – [बाल संवारता हुआ, कहता है] – हम तो उस्ताद आये हैं, सरकारी मुलाज़िम बनकर। तबादला-ए-ख़याल, आख़िर यहाँ आया क्यों ‘नूर’ ? यहाँ तो डिस्को नचा दिया हमको, बिना फ़रियाद सुने ? लानत है, इन मेडमों को...
शमशाद बेग़म – हाय अल्लाह, यह नामाकूल क्या बक रहा है ?
नौजवान – [तेज़ी खाकर, बोलता है] – क्या जानें ये मेडमें, होता क्या है डिस्को ? ज़रा आ जाओ हमारे साथ, मंच पर। फिर तुम सोचोगी, खिसको खिसको।
[जेब से पर्स और साइकल की चाबी निकालता है, फिर वह पर्स में लगी फिल्म अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती की फोटो को निहारता हुआ चाबी को गोल-गोल घूमाता है। फिर, आगे कहता है।]
नौजवान – [साइकल की चाबी घूमाता हुआ, आगे कहता है] – बाबा मिथुन अब हम हैं, अब देखो हमारा डिस्को। कहकहे बंद हो जायेंगे, तब कहोगी खिसको खिसको।
[इतना कहकर, वह मिथुन स्टाइल में नाचने लगता है। और साथ में गाता है बेसुरा “आई एम ए डिस्को डांसर..”। इसके गाने की आवाज़ सुनकर, क्लासों में बैठी बच्चियां झट बाहर निकल आती है। और इस नाच रहे नौजवान को देखकर, वे सभी ख़िल-खिलाकर ज़ोर से हंस पड़ती है। जैसे ही उस नौजवान की निग़ाह इन बच्चियों पर गिरती है, वह खुश होकर और तेज़ रफ़्तार से नाचने लगता है। उसका नाच देख रही बच्चियां, अब तालियाँ पीटने लगती है। इधर इन बच्चियों का शोर, और उधर साथ में शमशाद बेग़म की हंसी गूंज उठती है। अचानक शमशाद बेग़म की नज़र दीवाल घड़ी के कांटों पर गिरती है, रिसेस का वक़्त हो गया है..वह उठकर घंटी लगा देती है। अब क्लासों में बैठी सारी बच्चियां घंटी की आवाज़ सुनकर, क्लासें छोड़कर बाहर मैदान में दौड़ आती है। और वहां आकर, वे खेलने लगती है। उधर शमशाद बेग़म घंटी लगाकर, उस लोहे के डंडे को यथास्थान रख देती है। फिर वह, स्कूल के खाज़िन आक़िल मियां के कमरे की तरफ़ क़दम बढ़ा देती है। वहां जाकर दरवाज़े पर दस्तक देकर, कहती है।]
शमशाद बेग़म – [दस्तक देकर, कहती है] – ज़नाब, अन्दर आने की इज़ाज़त चाहती हूँ।
[रोकड़ बही लिख रहे आक़िल मियां, सर उठाकर कहते हैं।]
आक़िल मियां – [सर उठाकर, कहते हैं] – आइये, ख़ालाजान। तशरीफ़ लाइए, आपको पूछने की क्या ज़रूरत ?
शमशाद बेग़म – [अन्दर दाख़िल होकर, कहती है] – आदाब अर्ज़ है, ज़नाब। एहबाब के तौर पर कह देती हूँ ज़नाब, आप इस कोलोनी के इन बेअक्ल लौंडों को अपने मुंह न लगाया करें।
आक़िल मियां – [लबों पर, मुस्कान बिखेरते हुए कहते हैं] – सुनिए, “कौन अच्छा है इस ज़माने में, क्यूं किसी को बुरा कहें कोई।”
शमशाद बेग़म – हुज़ूर, आप इनकी तरफ़दारी न करें, आप जानते नहीं है इन लोगों को। आज़कल न जाने कितने निक्कमें लोग सैर-ओ-तफ़रीह करने आ जाते हैं, स्कूल में ? शौक से यह बगीचा क्या लगाया, आपने ? बस ये नामुराद किसी न किसी बहाने को गढ़कर, आ जाते हैं इस स्कूल में।
आक़िल मियां – आपका मतलब क्या है ?
शमशाद बेग़म – [झुंझलाकर, कहती है] - हाय अल्लाह। आप कुछ समझते ही नहीं ? इन नामाकूलों को जब रोकती हूँ, तब यह बड़ी बी क्या कहती हैं..सुना आपने ? [रशीदा की आवाज़ की नक़ल करती हुई, कहती है] ख़ाला, यह अवाम है..अपने माई-बाप। इनकी ख़िदमत करना ही, आपका फ़र्ज़ है।
आक़िल मियां – [हंसते हुए, कहते हैं] – आगे कहिये, ख़ाला। ‘नहीं रोकने पर, यह मोहतरमा अपने मुख से अंगारे उगलती होगी ? अब आपको, करना क्या है ? अपना काम करती रहिये, और क्या ? सुनिए, ‘हमारे घर की दीवारों पे 'नासिर' उदासी बाल खोले सो रही है।’ फिर आप काहे की मगज़मारी करके, अपना बेशकीमती वक़्त जाया करती हैं ?
शमशाद बेग़म – अरे ज़नाब, वक़्त जाया कैसे न होगा ? वह ऐसे बोलेगी कि ‘ख़ाला आपको सलीका आता नहीं, मुलाकाती को मेरे कमरे में कैसे भेजा जाता है ? अलाहौल-विल-कूव्वत, बेकैफ़ हो गयी मैं। बेकार की बकवास छोड़ो, ख़ाला। पहले मुलाकाती की पर्ची भेजा करो, अन्दर। बाद में मेरी इज़ाज़त लेकर, उसे अन्दर भेजा करो।’
आक़िल मियां – तो हो गया, क्या ?
शमशाद बेग़म – अभी-तक आप समझे नहीं ? अरे हुज़ूर इस बड़ी बी ने कैसे कह डाला कि ‘मुझे सलीका आता नहीं ? साहेब, क्या मैं गोद में खेलने वाली बच्ची हूँ ? जिसको, कोई सलीका आता नहीं। हुज़ूर, मैंने ४० साल इस महकमें में नौकरी करके भाड़ नहीं झोंकी ?
आक़िल मियां - क्या कहती है...? भाड़ झोंकना, उनका काम। आप तो, अपने काम पर ध्यान दीजियेगा।
[अब इसी लग्व के कारण, आक़िल का ध्यान बंट जाता है। वे रोकड़ बही के ज़रब को सही नहीं कर पाते, आख़िर केलकुलेटर लेकर ज़रब के क्रोस की जांच करते हैं। ज़रब का क्रोस न मिल पाने से आख़िर, अपने दोनों हाथ अपने जबीं पर रखकर बैठ जाते हैं। फिर, वे शमशाद बेग़म से कहते हैं।]
आक़िल मियां – [सर पर हाथ रखे हुए, कहते हैं] – कितनी बार कहा है ख़ाला आपको कि आप क़ायदे का ध्यान रखा करें, ताकि आप बेफ़िजूल की बकवास से बची रहेंगी।
[अब आक़िल मियां को जबीं पर हाथ रखे देखकर, वह उन्हें आश्चर्य से देखती है। फिर गैस के चूल्हे के निकट जाकर, चाय बनाने लगती है। आक़िल मियां के कमरे के बाहर ही सामने के कमरे की खिड़की के पास एक टेबल रखी है। जिस पर गैस का चूल्हा रखा है, और उसकी गैस की टंकी नीचे रखी है। पास ही एक टेबल पर पटवारी साइज़ की लोहे की अलमारी रखी है, जिसमें चाय बनाने के सामान रखे हैं। स्कूल के स्टाफ़ का टी-क्लब चलता है, जिसकी चाय यहाँ ही बनती है और इसी बरामदे में बैठकर, मेडमें चाय का लुत्फ़ उठाती है।]
शमशाद बेग़म – [शेर पेश करती हुई, कहती है] - ‘ऐ दोस्त हम ने तर्क-ए-मोहब्बत के बावजूद, महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी कभी।’ जनाब, अब चाय बना देते हैं। एक मर्तबा, सेरीडोन की गोली चाय के साथ ले लीजियेगा।
[गैस का चूल्हा जलाती है, अब चाय का पानी चढ़ाने के लिए पानी से भरा भगोना गैस पर रखती है।]
आक़िल मियां – [जबीं पर रखे दोनों हाथों को हटाकर, कहते हैं] – हाँ ख़ाला, आपने वज़ा फ़रमाया। बस आप चाय में तुलसी की पत्ती डाल देना, प्लीज़ भूलना मत।
शमशाद बेग़म – [खिन्नता से, कहती है] – तुलसी को छोडिये, हुज़ूर। जैसे आप हुक्म देंगे, वे सभी चाय के मसाले दाल चीनी, काली मिर्च, सूंठ वगैरा डाल दूंगी। बस मालिक, आप एक पकड़ का बंदोबस्त कर देते तो...
आक़िल मियां – आपका मफ़हूम क्या है, आख़िर ? जो हर्ज़-बुर्ज़ हो, सामने रखिये। कहिये, क्या है आपकी हर्ज़-बुर्ज़ ? ख़ालाजान आप अपने दिल में क्या सोचती है, हमें क्या मालूम ? बस, आप यह बता दीजिये कि, आपकी हर्ज़-बुर्ज़ कैसे मिटाई जा सकती है ?
शमशाद बेग़म – [रुंआसी होकर, कहती है] – क्या करूं, हुज़ूर ? जब चाय उबल रही हो और तब उस भगोने को रिदा से पकड़कर उठाती हूँ..ख़ुदा रहम, कहीं भगोना हाथ से छूट गया तो अल्लाह कसम मेरा बदन जल गया तो...?
[इतना कहा ही था, शमशाद बेग़म ने...तभी वह नौजवान लपककर चला आता है आक़िल मियां के कमरे में। आकर वह कमबख्त आक़िल मियां के पाँव कसकर पकड़ लेता है। बेचारे आक़िल मियां को, क्या मालुम ? वह लंगूर, कब चुपके से अन्दर दाख़िल हो गया ? ज़नाब तो रोकड़ बही की ज़रब का क्रोस मिलाने में ऐसे तल्लीन थे, जनाब और कुछ देख नहीं पा रहे थे ? जब वह ज़ोर-ज़ोर से पाँव दबाने लगा, और इससे उनके पांवों में अकड़न पैदा होती है..फिर उस पैदा हो रहे दर्द के कारण, आक़िल मियां पांवों की तरफ़ देखते हैं, वहां उसे पाँव दबाते देखकर वे चिल्लाकर कहते है।]
आक़िल मियां – कौन है रे, नामाकूल ?
नौजवान – हुज़ूर...हुज़ूर, मैं आपका ख़िदमतगार..आ गया हूँ अब..हुज़ूर। अब मैं आपकी खूब ख़िदमत करूंगा।
आक़िल मियां – [लबों पर मुस्कान लाकर, कहते हैं] – सदका उतारूं, तेरा। अल्लाह की कसम, कमाल का डिस्को डांस करता है तू....कहीं मियां, हमारी नज़र न लग जाए तुम्हें ? अब तो तूझे इमामबाड़ा से कारचोब वाला इमामजामिन मंगवाकर, पहन लेना चाहिए। अरे कमबख्त, अब तो छोड़ दे मेरे पाँव..दर्द हो रहा है।
नौजवान – वाह हुज़ूर ? आप तो भूल गए मुझे, पहचाना नहीं मुझे ? मैं हूँ मास्टर साहेब भंवरु खांजी का नेक दख्तर। हुज़ूर की दुआ से मेरा तबादला आपकी स्कूल में हो गया। ज़ोर इस बन्दे को सभी नूर मोहम्मद कहते हैं, और प्यार से नूरिया बन्ना कहते हैं। [अभी-तक वह नामुराद ज़ोर-ज़ोर पाँव दबाता जा रहा है।]
आक़िल मियां – ख़िदमत तू बाद में करना, अभी तो मियां...मेहरबानी करके मेरे इन पांवों पर रहम खाओ, और छोड़ दो इन पांवों को।
नूरिया पाँव छोड़ देता है, और फिर वह तनकर खड़ा हो जाता है। आक़िल मियां हाथों को ऊपर ले जाते हुए जम्हाई लेते हैं। फिर, कहते हैं।]
आक़िल मियां – अब तू ऐसा कर, तेरी जॉइननिंग लिख देता हूँ मैं। [पेड से एक काग़ज़ निकालकर उस पर उस नूरिये की ड्यूटी जॉइन करने की दरख्वास्त लिख देते हैं। फिर उसे कलम थमाकर, कहते हैं] अब इस पर, तू अपने दस्तख़त कर दे। और देकर आ जा, बड़ी बी को। वापस आकर, चाय पी लेना।
नूरिया – [दरख्वास्त पर दस्तख़त करता हुआ, कहता है] – अभी देकर आता हूँ यह दरख्वास्त। फिर नूरिया आकर ज़रूर पी लेगा, गरमा-गरम मसालेदार चाय। ग्लास भरकर गरमा-गरम चाय तैयार रखना, हुज़ूर। यह लीजिएगा, अपनी कलम।
[कलम रर्ख देता है, टेबल पर। फिर दरख्वास्त लेकर नूरिया चला जाता है, अब आक़िल मियां फ़िक्र के मारे सोचने बैठ जाते हैं।]
आक़िल मियां – [सोचते हुए] - यह बच्चा मास्टर भंवरु खांजी का नेक दख्तर है। मेरे बड़े भाईजान जब हायर सेकण्ड्री स्कूल में पढ़ा करते थे, उस दौरान भंवरु खांजी उनको भूगोल विषय पढ़ाया करते थे और साथ में वे स्कूल में स्काउट मास्टर भी थे। अब यह कमबख्त नूरिया, इस रब्त को दूर की कोड़ी बनाकर ले आया।
[उधर चाय उबलकर तैयार हो गयी है, शमशाद बेग़म रिदके से उस भगोने को पकड़कर उठाती है और उसे टेबल पर रखती है। इसके बाद वह चीनी के प्यालों में चाय डालती है। उबली हुई चाय की खुश्बू फ़ैल जाती है। मगर आक़िल मियां के दिमाग़ में चल रहे विचारों के सागर में कोई उथल-पुथल नहीं ? वे शान्ति से, सोचते जा रहे हैं। वे अभी भी होंठों में ही, कहते जा रहे हैं।]
आक़िल मियां – [होंठों में ही, बड़बड़ाते जा रहे हैं] – ख़ुदा की पनाह। बड़ी बी ने देख ली है, इस नूरिये की बदतमीज़ी। अब वह इस कोदन को माफ़ करने वाली नहीं। मगर, मैं जानता हूँ कि, ऐसे मंदबुद्धि के लोग सक्लोजिकल ट्रीटमेंट से ठीक हो सकते हैं। बस, इन लोगों को ज़रा सी सिम्पेथी मिलनी चाहिए। आख़िर, दिमाग़ भी एक मशीन की तरह है, ख़ुदा की कसम ऐसी मशीनों के लिए क़ाबिल इंजीनियर की ज़रूरत है।
[मेज़ पर चाय का कप रखते ही विचारों की कड़ियाँ टूट जाती है, सामने शमशाद बेग़म को खड़ा पाकर आक़िल मियां कहते हैं।]
आक़िल मियां – देखो ख़ाला, यह नूरिया यानि नूर मोहम्मद आपकी केडर का जैलदार [चपरासी] है, ‘इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल’ दफ़्तर से तबादला होकर इस स्कूल में ड्यूटी जॉइन करने आया है। जब यह बड़ी बी के कमरे से लौट आये, तब आप इसे चाय पिला देना। भूलना मत, ख़ाला।
[तभी नूरिया दरख्वास्त देकर, लौट आता है। उसे देखते ही शमशाद बेग़म, उसे चाय से भरा प्याला थमा देती है। फिर, वह उससे कहती है।]
शमशाद बेग़म – बन्ना। चाय पी लेना, शर्म करना मत। यह बात अपने दिमाग़ में बैठा लेना कि, तुम पराये नहीं हो। जानते हो ? तुम्हारे वालिद मेरे फूफाजी हैं।
नूरिया – [दूसरा हाथ जिससे कप थामा नहीं गया, उसी को नचाता हुआ कहता है] – जो हुक्म, ख़ालाजान। आपकी ख़िदमत करना मेरा फ़र्ज़ है। कहिये, मेरे लिए कोई काम ?
शमशाद बेग़म – [चेहरे पर मुस्कान लाकर, कहती है] – ठीक है, बन्ना। पहले आराम से बैठकर चाय की चुश्कियाँ ले लीजिये, फिर बाद में चाय बनाने का भगोना और जूठे बरतन मांजकर धो देना। बरामदे में जहां पानी की मटकी रखी है, उसके सामने नल है..वहां बैठकर इस काम को निपटा लेना। अब मैं बड़ी मेडम और अन्य मेडमों को, चाय सर्व करती हुई वापस लौट रही हूँ। जाती हूँ, मियां।
[तश्तरी में चाय से भरे प्याले रखती है, फिर उसे उसे उठाये बड़ी बी के कमरे की तरफ़ क़दम बढ़ा देती है। मंच पर, अँधेरा फ़ैल जाता है।]
(अगले अंक में क्रमशः जारी ….)
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