श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग राजा नृग को गोदान उपरान्त भी शाप क्यों भोगना पड़ा ? मानसश्री डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता ‘ मानस ...
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
राजा नृग को गोदान उपरान्त भी शाप क्यों भोगना पड़ा ?
मानसश्री डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता
‘मानस शिरोमणि'एवं विद्यावाचस्पति
कलि युग जोग न जग्य न ग्याना। एक आधार राम गुन गाना ॥
श्रीरामचरित मानस उत्तरकाण्ड - 102 (ख) 03
कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्रीरामजी का गुणगान ही एक मात्र आधार है। श्रीराम का नाम ही भवसागर को पार करता है। श्रीराम को मर्यादा पुरूषोत्तम कहा गया है। श्रीराम के आदर्श चरित्र का दर्शन उनके द्वारा किये गये, एक राजा के कर्तव्यों में वर्णित है। वन गमन जाने के पूर्व जब लक्ष्मणजी ने श्रीराम से कहा कि, भैय्या मैं भी आपके साथ वन में जाना चाहता हूं। तब श्रीराम ने उन्हें कहा कि, भरत और शत्रुघ्न पिताजी के पास नहीं है। तुम माता - पिता के चरणों की सेवा करना। यदि तुम मेरे साथ चलोगे तो अयोध्या सभी प्रकार से अनाथ हो जावेगी। यदि, ऐसा नहीं करते हो तो, बड़ा अनर्थ हो जावेगा। यथा -
रहहु करहु सब कर परितोषु। नतरू तात होइहि बड़ दोषू।
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥
श्रीरामचरित मानस अयो. 70 - 3
अतः हे लक्ष्मण !तुम यहीं रहो और सबका सन्तोष सेवा करते रहो। नहीं तो तात बड़ा दोष होगा। जिसके राज्य में प्यारी प्रजा दुखी रहती है, वह राजा अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है। ऐसा ही प्रसंग श्रीराम ने सीताजी के लोकापवाद के कारण लक्ष्मणजी के द्वारा वन में सीताजी के छोड़ आने के बाद चार दिनों तक पुरवासियों के काम किये बिना रहने पर बताया है।
पौरकार्याणि यो राजा न करोति दिने दिने।
संवृते नरके घोरे पतितो नात्र संशयः॥
वाल्मिकी रामायण , उत्तरकांड सर्ग 53 - 6
जो राजा प्रतिदिन पुरवासियों के कार्य नहीं करता, वह निस्संदेह सब ओर से निि�छद्र अतएव वायुसंचार से रहित घोर नरक में पड़ता है। राजा के कर्तव्यों की व्याख्या एवं विवेचना करते हुए, श्रीराम का उत्तरकांड के वाल्मीकि रामायण एवं, मलयालम अध्यात्म रामायण एवं, उत्तर रामायण केरल के महाकवि कुञ्चत्तु रामानुजन एलुत्तच्छन ने भी किया है। इस केरल मलयालम के मलयालम ग्रन्थ में नृग चरित में राजा के अपने कर्तव्यों का निर्वाहन न करने स,े होने वाले परिणाम का वर्णन है।
श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं कि, पहले अयोध्या में इक्ष्वाकु के भ्राता नृग नाम के राजा शासन करते थे। राजा नृग ने एक बार, पुष्करतीर्थ में जाकर ब्राह्मणों को सुवर्ण से भूषित तथा बछड़े सहित, एक करोड़ गौएं दान कीं। इस दान में दी गई गायों में से एक गाय, बछड़े सहित अचानक आकर नृग राजा की अन्य गायों में मिल गई। राजा को इस गाय के बछड़े सहित अन्य गायों में मिल जाने का पता नहीं था। राजा नृग ने संकल्प करके उसे, किसी अन्य ब्राह्मण को दान में दे दिया। वह बेचारा ब्राह्मण, भूख - प्यास से पीड़ित होकर उसे खोयी हुई गाय को, बहुत वर्षों तक सारे राज्यों में जहां - तहाँ ढूढता फिरा परन्तु वह गाय उसे कहीं भी दिखाई नहीं दी। अन्त में एक दिन, कनखल पहुँचने पर उसे उसकी वह गाय, एक ब्राह्मण के घर में नीरोग हृष्ट - पुष्ट बछड़े सहित दिखाई दी। ब्राह्मण ने उस गाय का नाम, ‘शबला' रक्खा था। ब्राह्मण ने जैसे ही उसका नाम शबला पुकारा, वैसे ही गाय उस ब्राह्मण के पीछे - पीछे उसे पहचानकर बछड़े सहित चल पड़ी।
जो ब्राह्मण इतने दिनों से उसका पालन कर रहा था, वह भी तुरन्त उस गाय का पीछा करते हुए, दूसरे ब्राह्मण के समीप पहुँच गया। उसने उस ब्राह्मण से कहा कि, यह गाय बछड़े सहित मेरी है। मुझे तो राजा नृग ने इसे बछड़े सहित दान में दे दिया है। उस गाय के बछड़े सहित, दोनों ब्राह्मणों का विवाद हुआ तथा लड़ते - झगड़ते दोनों दानी नरेश नृग के पास गये। न्याय प्राप्त करने के लिये, दोनों ब्राह्मणों ने राजभवन के दरवाजे खटखटाये किन्तु, उन्हें न तो राजा मिला और न ही न्याय प्राप्त हुआ।
अन्त में दोनों ब्राह्मणों ने राजा के द्वारा, न्याय प्राप्त न होने से क्रोध कर शाप दिया कि, राजन्! अपने विवाद निर्णय कराने की इच्छा से आये प्रार्थी पुरूषों के कार्य की सिद्धि के लिये तुम, उन्हें मिलकर दर्शन नहीं देते हो इसलिये, तुम सब प्राणियों से छिपकर रहने वाले गिरगिट होकर ही पड़े रहोगे। जब यदुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले वासुदेव नाम से विख्यात, भगवान विष्णु पुरूष रूप से इस जगत में अवतार लेंगे, उस समय वे ही तुम्हें इस शाप से मुक्त करेंगे। इसलिये, इस समय तो तुम, गिरगिट हो ही जाओगे। श्रीकृष्ण देवता के समय में ही तुम्हारा उद्धार होगा। इस प्रकार साथ देकर वे दोनों ब्राह्मण शान्त हो गये। उन्होंने उस गाय को बछड़े सहित, किसी अन्य ब्राह्मण को दे दी। इस प्रकार राजा नृग उस अत्यन्त दारूण शाप को सहन कर रहे हैं। अतः कायार्थी पुरूषों का विवाद यदि निर्णीत न हो तो, वह राजाओं के लिये महान् दोष की प्राप्ति कराने वाला होता है। अतः कार्यार्थी मनुष्य शीघ्र मेरे सामने उपस्थित हों। प्रजापालन रूप पुण्यकर्म का फल क्या राजा को नहीं मिलता है? अवश्य प्राप्त होता है। अतः लक्ष्मण ! तुम जाओ, राजद्वार पर प्रतीक्षा करो कि, कौन कार्यार्थी पुरूष आ रहा है। यह सुनकर, लक्ष्मण जी ने श्रीराम से कहा कि, उन दोनों ब्राह्मणों ने थोड़े से ही अपराध पर राजा नृग को बहुत कठोर शाप दे दिया।
तब राजा नृग ने उन दोनों ब्राह्मणों से क्या कहा ? लक्ष्मण जी के इस प्रकार पूछने पर श्रीराम ने कहा कि शापग्रस्त राजा नृग ने जो कहा वह बताता है। जब राजा नृग को शाप का पता चला तब तक दोनों ब्राह्मण वहाँ से जा चुके थे। राजा ने मंत्रियों और पुरवासियों एवं पुरोहितों को बताया कि, नारद एवं पर्वत दोनों ने आकर शाप की बात बताकर एवं, मुझे उसका भय दिखाकर चले गये।
राजा ने अपने पुत्र वसु को राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और कारीगर बुलाकर, तीन कुंए तैयार करने का आदेश दिया। राजा ने कहा कि, ब्राह्मणों के शाप को वह इन तीन कुँओं में रहकर व्यतीत करेगा। इनमें एक कुंआ ऐसा होना चाहिए जो कि, वर्षा के कपट का निवारण करने वाला हो। दूसरा सर्दी से बचाने वाला हो और, तीसरा गर्मी निवारण करने वाला हो।
इन कुँओं के आसपास फल एवं फूल देने वाली लताऐं लगा दी जाये। जब तक शाप का समय बीत नहीं जाता मैं वहीं गिरगिट बनकर रहूँगा। वसु को सिंहासन पर बैठाकर नृग ने कहा - बेटा तुम प्रतिदिन धर्मपरायण रहकर क्षत्रिय धर्म के अनुसार, प्रजा का पालन करना। यह कथा सुनने के बाद, लक्ष्मणजी ने श्री राम से पूछा - हे रघुपति! अनजाने ही थोड़ा सा अपराध होने पर, इस प्रकार क्रोध में आकर उन ब्राह्मणों को ऐसा शाप देना क्या उचित है।
यह सुनकर श्रीराम ने कहा, हे भाई! कौन जान सकता है। प्रारब्ध कर्मों का फल, मनुष्य यहीं भोगता है। वत्स! पूर्वजन्म में किये गये कर्म के अनुसार, मनुष्य उन्हीं वस्तुओं को पाता है, जिन्हें पाने का वह अधिकारी है। उन्हीं स्थानों पर जाता है, जहाँ जाना उसके लिए, अनिवार्य है तथा, उन्हीं दुखों और सुखों को उपलब्ध करता है, जो उसके नियत है, अतः तुम विवाद न करो। कर्म के बन्धन से कोई मुक्त नहीं होता है। राजा हो या रंक उसे, कर्म का फल अवश्य भोगना होता है। अतः मनुष्य जन्म से सदा सद्कर्म में लगे रहना चाहिये।
मानसश्री डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता
‘मानस शिरोमणि''एवं विद्यावाचस्पति
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