भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 भाग 5 भाग 6 भाग 7 उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल भाग 8 दिनेश कुमार माली -- अठारहवाँ सर्ग पंचक...
भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 भाग 5 भाग 6 भाग 7
उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल
भाग 8
दिनेश कुमार माली
--
अठारहवाँ सर्ग
पंचकन्या तारा
किष्किन्धा प्रदेश के महाराज बाली की पत्नी तारा थी। तारा के चरित्र का वर्णन करने में कवि उद्भ्रांत उनके व्यक्तिगत गुणों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि उनका वानर समाज में मान-सम्मान था, देवर सुग्रीव उन्हें माँ मानकर नित्य चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते थे और बड़े भाई को भी पिता के समान मानते थे। सुग्रीव की पत्नी रोमा अर्थात उनकी देवरानी एक धर्मभीरु नारी थी और सारे समाज में मान-मर्यादाओं का पूरी तरह से खयाल रखती थी। कवि उद्भ्रांत के अनुसार दोनों भाइयों में दुर्लभ प्रगाढ़ प्रेम था और दोनों के पराक्रम का डंका पूरे जगत में बजता था। यहाँ तक कि एक बार उनको रावण द्वारा ललकारने पर मल्लयुद्ध में धोबी पछाड़ देकर बाईं बाहु के नीचे रखकर उसकी गर्दन को इतनी ज़ोर से दबाया था कि रावण त्राहि कर उठा था और उसके बाद किष्किन्धा प्रदेश में जाना ही भूल गया। तारा का पुत्र अंगद अत्यंत ही शक्तिशाली, बुद्धिमान और माता-पिता का आज्ञाकारी था। इस तरह कवि उद्भ्रांत ने उनके परिवार को सुखी व समृद्ध दर्शाया है। इस दृश्य को कवि उद्भ्रांत जी ने ऐसे दर्शाया हैं:-
सुख के दिन
बीत रहे थे जीवन के, तभी
आंधी-सी आई एक जिसने
दोनों सगे भाइयों को-
-एक-दूसरे के प्रति
जान छिड़कते थे जो-
पृथक ही नहीं किया,
बना दिया-
एक-दूसरे के रक्त का प्यासा।
मगर अचानक उनके जीवन में भी एक आंधी आ गई और वे एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। एक बार मायावी राक्षस से गुफा के अंदर बाली युद्ध कर रहे थे तथा अपने छोटे भाई को गुफा के द्वार पर बैठने का निर्देश दिया और कहा कि अगर 15 दिनों में मैं बाहर नहीं आता हूँ तो तुम इसका मतलब मुझे मारा हुआ जान किष्किन्धा की गद्दी पर आसीन हो कर राज्य संभालना और मेरे पुत्र अंगद और पत्नी तारा की रक्षा करना। 15 दिन बीतने के बाद भी जब बाली गुफा से बाहर नहीं आए, बल्कि गुफा से रक्त की धार बाहर निकली तो सुग्रीव अपने भाई को मारा हुआ जान, गुफा के द्वार पर शिला रखते हुए दुःखी मनसे किष्किन्धा प्रदेश लौट गये और रोते हुए वहाँ पर पूरा माजरा तारा को बताया, मगर तारा को बिलकुल भी विश्वास नहीं हुआ। मगर जब सुग्रीव ने शपथ खाते हुए बताया तो तारा रोते-रोते मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। सुग्रीव ने अंगद को राजा बनाने का प्रस्ताव रखा तो जाम्बवन्त जैसे मंत्री ने उसके अवयस्क होने के कारण इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और सुग्रीव को सर्व सम्मति से किष्किन्धा का राजा घोषित कर दिया। मगर एक दिन अचानक वानर समूह “महाराज बाली की जय हो” का गगनभेदी नारा लगाते हुए महलों की तरफ बढ़ते आए तो उसे विशवास नहीं हुआ। महाराज बाली ने सुग्रीव को मारा पीटा, प्रताड़ित किया और किष्किन्धा से निष्कासित कर दिया। इस अवस्था में तारा के मन मस्तिष्क पर क्या गुजरी होगी, उसका वर्णन करते हुए कवि उद्भ्रांत लिखते हैं कि विवाहित स्त्री की भावनाओं के रक्तस्नात होने का ध्यान किये बगैर किस तरह वह पटरानी से पदच्युत होकर देवरानी की सौतन बनी थी। एक सुहागन स्त्री के लिये इससे ज्यादा और क्या विडम्बना हो सकती थी! इस विडम्बना की अभिव्यक्ति कवि के इन शब्दों में:-
अपनी विवाहित स्त्री की भावनाओं के
रक्तस्नात होने का
नहीं करते हुए कोई ध्यान जिसने
उसे पटरानी के स्थान से च्युत करते हुए
देवरानी की सौतन
बनने का उपहार दिया।
सुहाग मेरा अक्षत था,
सुहागिन मैं, पर सुहाग-
मेरा नहीं अक्षत, मैं सुहागन नहीं-
सचमुच मैं बड़ी अभागन थी!
कवि उद्भ्रांत ने इस घटना को यहीं पर समाप्त न करते हुए राम के सीता की खोज का प्रसंग कर सुग्रीव हनुमान के साथ मैत्री संबंध स्थापित कर बाली का वृक्ष की ओट से छिपकर उनपर तीर चलाकर प्राणान्त कर दिया और सुग्रीव को पुनः राज्य प्राप्ति करा दी और अंगद को श्री राम का संरक्षण मिल गया। मगर तारा की जिंदगी उलझन में पड़ गई। यह बात अलग है कि समाज ने उसे पंचकन्या के रूप में गिनना शुरू किया। कवि उद्भ्रांत जी तारा के जीवन के बारे में लिखते हैं:-
किष्किंधा-राज्य के अधिकार के संग
सुग्रीव ने वापस पाई पत्नी अपनी,
और मुझ पर भी अधिकार;
अंगद को संरक्षण
मिल गया श्रीराम का।
मेरा तो किसी पर भी था नहीं
कोई अधिकार।
शेष मेरे लिए क्या
रह गया था जीवन में ?
अस्तु मैं भी स्वेच्छा से
निकल पड़ी ऐसी राह
जहां से नहीं वापसी होती;
और मुझे इसलिए
मानो घोषित करते हुए अमर
समाज ने कर दिया शुरू
परिगणित कराना
एक पंचकन्या के रूप में!
उन्नीसवाँ सर्ग
सुरसा की हनुमत परीक्षा
कवि उद्भ्रांत ने सुरसा के चरित्र का वर्णन करने के लिए सुरपुर के नरेश इंद्र को सीता के अपहरण की घटना के बारे में जानकारी होने तथा अपनी दत्तक पुत्री स्वयंप्रभा द्वारा सीता की खोज हेतु वन में तपश्चर्या में लीन होने, गिद्धराज जटायु के बड़े भाई सम्पाति के माध्यम से लंका के अशोक वन में सीता का पता लगाने पर जामवंत के परामर्श, किष्किन्धा नरेश सुग्रीव के मित्र हनुमान द्वारा लंका जाने के लिये समुद्र की उड़ान आदि घटनाओं को लेकर सुरसा का परिचय बताया है कि सुरपुर के नरेश इंद्र को रावण के शक्तिशाली होने की चिंता सता रही थी। यही नहीं रावण के पुत्र मेघनाद ने भी धोखे से इन्द्र को परास्त किया था। इसके अतिरिक्त, लंका के चारों तरफ एक अभेद्य दुर्ग है, गुप्तचरों का विशाल तंत्र है और अगर हनुमान असफल हो गए, तो अनर्थ हो जाएगा। इसलिए हनुमान की शक्ति, बुद्धिमत्ता के परीक्षण हेतु सुरसा को इंद्र ने समुद्र में जलपोत लेकर भेजा। कवि उद्भ्रांत जी की कल्पना यहाँ पर इस तरह हैं:-
“ चाहता हूं आओ जाओ तुम
वेश बदलकर अपना
और परीक्षण करो
हनुमत की शक्ति-बुद्धिमता का। ”
“तुमने यदि वापस आ
कर दिया आश्वस्त मुझे
तभी चैन की निद्रा
ले पाऊंगा मैं। ”
वायुगति से तैरते हुए हनुमान को रोक कर लंका जाने के उद्देश्य के बारे में समुद्र रक्षक के रूप में अपना परिचय देते हुए पूछा, तो हनुमान जी ने कहा मैं जल में हूँ और मुझमें है जल, प्राणवायु मुझमें आती जाती है लोग मुझे वायुपुत्र भी कहते हैं और मैं सीता की खोज में निकला हूँ। इन आध्यात्मिक भावों की अभिव्यक्ति कवि के शब्दों में,
हनुमान बोले-
“मैं जल में हूं
क्योंकि मुझ में है जल
श्वासरुपी हवा मुझमें
आती-जाती है;
अस्तु, वायु-पुत्र भी मुझे तुम कह सकती;
रामजी की पत्नी सीताजी को
लंकाधीश रावण ले गया है अपहरण कर,
जा रहा-
मैं उनके कार्य के निमित्त। ”
तो सुरसा ने उसे समुद्रों के बड़े-बड़े मगरमच्छों तथा लंका नगरी में लंका के विकट राक्षसों का डर दिखाया। अब हनुमान ने उत्तर दिया कि उसे सोने का न तो कोई लोभ है और न ही राक्षसों का भय। तब सुरसा ने स्त्रियोचित वशीकरण विद्या का प्रयोग करते हुए अपने अप्रतिम सौंदर्य की ओर ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया। मगर हनुमान के प्रति सम्मोहन की सुरसा की चेष्टा, विरत तृष्णा, इंद्रिय-निग्रह, बाल-ब्रह्मचारी हनुमान के समक्ष तृणवत थी। कवि उद्भ्रांत जी इसे इन शब्दों में प्रकट करते हैं:-
नहीं ज्ञात था मुझे कि
हनुमान स्वयं एक सिद्ध योगी,
मेरे सम्मोहन का
नहीं उन पर
पड़ा कोई भी प्रभाव,
उन्होंने प्रति-सम्मोहन मुझ पर किया
और कहा,
“माता! तुम हो विराट तृष्णा की तरह किंतु,
इंद्रिय-निग्रह करने वाले व्यक्ति के समक्ष
तुम तृणवत हो। ”
ये सब परीक्षा होने के बाद सुरसा को इस बात का ज्ञान हो गया था कि लंका भेदने में हनुमान को अवश्य सफलता मिलेगी। यह कहते हुए उसने हनुमान को आशीर्वाद दिया कि आने वाला युग तुम्हारा कृतज्ञ होगा, तुम्हारी पूजा करेगा। ये पंक्तियाँ देखें:-
“उसमें तुम उत्तीर्ण हुए शत-प्रतिशत,
तुम्हें देती हूं मैं आशीर्वाद
अपने कार्य में तुम
सफल पूर्ण होओगे;
और वह भी इस तरह-
जगत तुम्हारे नाम
और काम को भी
रखेगा हमेशा स्मरण। ”
इसमें कवि उद्भ्रांत ने सुरसा को जलपोत द्वारा भेजने तथा हनुमान के वायुगति से समुद्र तैरने की कथा को आधुनिक दृष्टि देते हुए, अपनी मौलिकता के साथ-साथ मिथकीय चरित्रों में अलौकिकता का वर्णन किए बगैर अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पाठकों के सम्मुख रखा है।
बीसवाँ सर्ग
रावण की गुप्तचर लंकिनी
इस सर्ग में कवि उद्भ्रांत ने लंकिनी का परिचय अनोखे अंदाज में दिया है कि, तुलसी दास की काल-जयी कविता के माध्यम से सहस्रों साल बाद भी उसका नाम लंका के प्रतीक के रूप में लिया जाता है। कारण था लंका के प्रवेश द्वार पर उसका सोने जैसा सुंदर-सा महल और उसकी अटारी से समुद्र के अनंत जल राशि का अवलोकन करने के कार्य हेतु रावण अपने राजकोष से उसे मासिक वेतन देता था, नौकर-चाकर उसकी सेवा में लगे रहते थे। सही मायने में वह एक नगर वधू थी और रावण की अदम्य शक्ति थी। लंका से सामुद्रिक व्यापार करने आने वाले हर जलपोत उसे रावण की विश्वसनीय जानकर अंशदान देता था और वह उनलोगों से बात करके रावण के शत्रुओं के बारे में जानकारी हासिल करने का गुप्त काम ही करती थी। इसे उद्भ्रांत जी कहते हैं:-
“करते हुए उनसे वार्तालाप
मुझे ज्ञात हो जाता था-
कौन-रावण और लंका नगरी का
मित्र- कौन शत्रु है?
एक तरह से मैं
रावण के गुप्त भेदिए का ही
करती काम। ”
अधिकांश आदिवासी जाति के लोग लंका में आते थे और लंकिनी को देखकर नगरी में प्रवेश करना सौभाग्य का सूचक मानते थे। इस तरह रावण के राज्य में व्यापारिक गतिविधियों की दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति होती जा रही थी। इस वाणिज्यिक विधि को कवि उद्भ्रांत जी ने इन शब्दों में अभिव्यक्त किया हैं:-
उनका अवचेतन मन
रावण के अपरिमित बल-वैभव से
हो जाता आक्रांत;
और इस तरह रावण के निरंतर संवर्धनशील
राज्य के प्रसार में वे
सहायक बन जाते।
हनुमान से लंकिनी का परिचय भी अलग ढंग से कवि उद्भ्रांत ने करवाया है कि अचानक एक दिन समुद्र से निकल कर लाल-मुख वाला वानर लंका में प्रवेश करने जा रहा था। मगर बिना उसकी तरफ ध्यान दिए या अंशदान दिए वह बढ़ता ही जा रहा था। इस पदक्षेप को लंकनी ने अपने स्त्रीत्व का अपमान समझकर क्रोध से तिलमिला उठती है और उसे रोक कर उसके आने का कारण पूछती है, तो हनुमान अपने उद्देश्य के बारे में बताते हुए कहता है कि वह सीता कि खोज में वहाँ आया है, तो लंकिनी उससे सीमा शुल्क माँगती है। इस पर हनुमान क्रोधित होकर लंकनी के ऊपर मुष्टिका प्रहार कर देता है और लंकिनी को खून की उलटियाँ होने लगती है। उद्भ्रांत जी का यह काव्य बयान करता हैं:-
वानर था हृष्ट-पुष्ट
परम शक्तिशाली,
उसने किलकारी भरते हुए
और खौंखियाकर
अपनी मुष्टिका का
वज्र जैसा एक ही प्रहार
किया मुझ पर विद्युत की गति से,
-मेरे द्वारा
भवन के सशस्त्र प्रहरियों को
बुलाने से पूर्व!
मेरे मुख से
रक्तधार बह निकली।
इक्कीसवाँ सर्ग
सीता की सखी त्रिजटा
लंका के राजमहल में लाखों स्वामी भक्त दास–दासियाँ थीं। मगर एक दासी बिलकुल ही अलग-अलग थी, जिसे कभी भी पुरस्कार पाने की लालच में न तो मिथ्या सम्भाषण करने की आदत थी और न ही किसी प्रकार के चौर्य–कर्म में लिप्त रहने की इच्छा। कवि उद्भ्रांत के अनुसार त्रिजटा का जीवन सादगी भरा था। जो कुछ मिलता था उसी में संतुष्ट रहने वाला था। वह अन्य दासियों की तुलना में कभी भी अपने साजो-शृंगार में रुचि नहीं रखती थी। इस वजह से केश बढ़कर किशोरावस्था के पूर्व ही जटाओं का रूप लेने लगे, वह भी एक नहीं बल्कि तीन-तीन। कवि की कल्पना के अनुसार इन तीन जटाओं को देखकर लोगों ने शायद इस दासी को संन्यासिनी समझकर इसका नाम त्रिजटा रख दिया होगा। यही नहीं कवि अपनी कल्पना को निम्न पंक्तियों से और विस्तार देता है और त्रिजटा के मन को तीन भागों में बांटता है- पहला मन रावण के प्रति स्वामी भक्ति का, दूसरा मन मन्दोदरी के प्रति आदर श्रद्धा वाला और तीसरा जंगल के सभी जीव जन्तुओं के प्रति प्रेम और करुणा से भरा हुआ संवेदनशील भाव वाला।
पहली जटा महाराज रावण के प्रति
मेरी स्वामी भक्ति,
दूजी-मां मां मंदोदरी के महत्त जीवन
के प्रति आदर-श्रद्धा की;
और तीसरी अंतिम जटा थी ज्यों-
जगत के सभी जीव-जंतुओं के लिए
प्रेम और करुणा से भरा हुआ
संवेदनशील भाव।
कवि त्रिजटा के चरित्र की व्याख्या करने से पूर्व रावण के चरित्र पर भी प्रकाश डालते हैं। एक तरफ, जहाँ रावण परम विद्वान, शक्तिमान, शिव-भक्त और प्रजा-वत्सल थे, वहीं दूसरी तरफ महिलाओं के प्रति
उसका दृष्टिकोण ठीक नहीं था। वह जानती थी कि मंदोदरी के मन की घुटन को। मगर वह कुछ नहीं कर पाती थी, सिवाय मंदोदरी की सहिष्णुता और अपार धैर्य को देखकर आश्चर्य चकित होने के। एक बार जब मंदोदरी को उदास देखकर वह उसके पास गई तब भी मंदोदरी ने उसे कुछ नहीं बताया, मगर एक साथी के माध्यम से रावण द्वारा सीता के अपहरण की बात पता चलने पर वह मन ही मन दुःखी हुई। रावण ने सीता को अशोक वाटिका में अशोक वृक्ष के नीचे आदर पूर्वक रखा और दासियों में त्रिजटा को भी सीता की देखरेख करने का मंदोदरी ने निर्देश दिया। इस तरह वह अपहृता नारी की भयाक्रान्त, मानसिक प्रताड़ित अवस्था देखकर भावविह्वल हो उठी। तथा सशस्त्र दासियों से सीता को बचाने के लिए अपने स्वप्न दर्शन की युक्ति का सहारा लिया कि भोर-भोर उसने सपने में एक वानर को पूरी लंका नगरी को जलाते हुए देखा है, जिसका अर्थ लंका के अंतिम दिन आ गए हैं। यह देखकर बाकी दासियों ने सीता को सताना छोड़कर अच्छा व्यवहार करना शुरू किया।
मैंने उसी पल में
विचारी एक युक्ति-
वहां पहुंचकर कहा सशस्त्र दासियों से-
"क्या कर रही हो मूर्खो तुम?
मैंने आज भोर में ही
स्वप्न एक देखा है भयानक-
जिसमें एक लंका वानर लंका में घुसकर
जला देता है पूरी नगरी
और एक-एक कर
वे सभी लंकावासी
आग में होते हैं भस्म-
जिन्होंने अशोकवन में बैठी
अकेली स्त्री को
किया प्रताड़ित!
"सत्संग भोर का-
नहीं होता कभी असत्य,
और देख रही हूं तुम्हें-
सीताजी को भयाक्रांत और प्रताड़ित करते।
त्रिजटा ने अपना परिचय सीता को देते समय कहा कि भले ही उसका जन्म लंका में क्यों न हुआ हो, मगर रावण द्वारा तुम्हारा अपहरण एक बहुत बड़ा अपराध है। माता मंदोदरी की सेवा करते-करते मेरे भीतर भी वैष्णव वृति जाग गई है, इसलिए मैं दुखी और क्षुब्ध हूँ और तुम्हारे प्रति हुए अन्याय का प्रतिकार कर जल्दी से जल्दी राम के पास भेजने की व्यवस्था करवाने में सहयोग दूँगी। इस सर्ग में कवि की मनोभावनाएँ,
" यद्यपि मेरा जन्म
लंका नगरी में हुआ,
जिसके महाराज ने
बड़ा अपराध किया,
तुम्हारे अपहरण का;
"किंतु मैं नहीं हूं समर्थक
उनके राक्षसी आचरण की-
जन्म लेने पर भी इस पवित्र कुल में। "
"मैं हूं अपने बाल्यकाल से
शांत प्रकृति की,
माता मंदोदरी की सेवा में रहकर
मुझमें भी
वैष्णव वृत्ति जगी है। "
तब तक तुम्हारी समग्र सुरक्षा का भार मेरे कंधों पर है। इस तरह त्रिजटा की स्नेहिल बातें सुनकर सीता के चेहरे का भय, आशंका सब जाती रही और वह सीता से ऐसा घुल मिल गई मानो उसकी माँ हो। इस तरह कवि ने इन शब्दों के माध्यम से त्रिजटा के चरित्र को उदात्त बनाते हुए, सीता मिलन के क्षण को सबसे यादगार और पावन बना दिया है:-
मेरी स्नेहिल बातों का
प्रभाव इलेक्शन पड़ा सीता पर,
वह हुई प्रकृतिस्थ;
भय के, आशंका के सभी भाव
उनके मुख से हुए तिरोहित।
मुझे पास बैठाकर
मुझसे करने लगी वार्ता वे
घुलमिलकर ऐसे-
जैसे कोई बेटी
अपनी मां से
नि:संकोच करती हो!
.
बाईसवाँ सर्ग
मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
कवि उद्भ्रांत ने मन्दोदरी के चित्रांकन में विशेष ध्यान रखा है कि त्रेता की मुख्य पात्र सीता की तरह मन्दोदरी का चरित्र भी काफी उज्ज्वल रहा है। कवि के अनुसार मन्दोदरी के पिता ‘मय’ ने जब उसकी माता को मन्दोदरी के विवाह के बारे में बताया कि ऋषि पुलस्त्य के वंश के ऋषि विश्रवा के सबसे बड़े पुत्र रावण से तय हुआ है, तो वह फूली नहीं समायी। निम्न पंक्तियाँ देखें:-
मेरे ऋषिवर पिता मय ने जब
मेरी माता को हर्ष से भर बताया यह कि
मेरा विवाह विश्व-विश्रुत ऋषि पुलस्त्य के वंश में
ऋषिवर विश्रवा के सबसे बड़े पुत्र
सुंदर,बलिष्ठ
परम पराक्रमी,विद्वान,ज्ञानी
और महादेव के अनन्य भक्त
राजकुँवर रावण के साथ सुनिश्चित हुआ
तो मन-ही-मन मैं
फूली समाई नहीं।
मन्दोदरी ने रावण के पराक्रम की अनेक गाथाएँ सुन रखी थीं। रावण जितना सुंदर, बलिष्ठ, परम पराक्रमी, विद्वान, ज्ञानी था, उतना ही वह महादेव का अनन्य भक्त भी था। मन्दोदरी के नामकरण के बारे में अपनी चिर-परिचित शैली के तहत कवि उद्भ्रांत कहते हैं कि जन्म लेने के बाद माँ का स्तनपान अधिक नहीं करने के कारण उसका नाम मन्दोदरी रखा गया। वह अल्पभोजी भी थी और अल्पभाषी भी। पुरुष-सत्तात्मक समाज नारी के मितभाषी और मितभोजी होने की अपेक्षा सदैव करता है। उसके अनुसार अगर नारी ज्यादा बोलेगी तो वाचाल कही जाएगी और उसे कोई पसंद नहीं करेगा और अगर ज्यादा भोजन करेगी तो मांस-मज्जा बढ़ने के साथ-साथ पृथुलकाय हो जाएगी, तो बेडौल शरीर देखकर वैवाहिक संबंधों में रुकावट आएगी। तत्कालीन समाज में इस तरह के मानदंड स्वीकार्य थे। मगर संयोगवश मन्दोदरी की प्रकृति मंद वाणी, मंद उदर की थी इसलिए वह अप्रतिम सौंदर्य और लाखों स्त्रियों में विलक्षणता से भरी हुई थी। उद्भ्रांत जी अपने शब्दों में इसकी व्याख्या करते हैं:-
“ किंतु यह संजोग है हमारी बेटी
पुरुष समाज द्वारा घोषित-
ऐसे दुर्गुणों से है दूर बहुत
अपनी प्रकृति से ही-
“ मन वाणी, मंद उदर वाली हमारी बेटी,
स्त्रियों के लिए वांछित-
सब गुणों-आभूषणों से सुसज्जित;
अप्रतिम सौंदर्य की धनी,
लाखों स्त्रियों में विलक्षण। ”
कवि उद्भ्रांत ने मन्दोदरी के भाग्य में मिट्टी का सोना नहीं, सोने की मिट्टी में जीवन-यापन करने का विधाता की स्वर्ण तूलिका से भाग्य लिखा। लंका एक भव्य नगरी, गगनचुम्बी इमारतें, ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ, स्वच्छ चमचमाते राजमार्ग और उनके दोनों किनारे हरीतिमा बिखेरते विशाल वृक्षों के झुंड, किसे आकर्षित नहीं करते होंगे! सोने से बने भवनों के गुम्बद, प्रवेश द्वारों पर जब सूरज की किरणें टकराती थीं तो अत्यंत चमक होती थी। उन दृश्यों की कल्पना करें, जब सोने के रथ पर आसीन होकर मन्दोदरी रावण के साथ राजमहल की ओर प्रवेश करती तो राजमार्ग के दोनों तरफ खड़े सहस्त्रों नर-नारी, सशस्त्र सैनिक उनका अभिनन्दन करते हुये जय-जयकार करते होंगे, उस समय ऋषि-कन्या मन्दोदरी का मन खुशी से फ़ूला नहीं समाता होगा। उनके माता-पिता को भी उसके भाग्य पर गर्व होता होगा। मगर क्या नियति की रेखाओं को टाला जा सकता है? कवि की भाषा में:-
स्वर्ण-रथ पर होकर आसीन
राजकुमार रावण के संग जब
जा रही थी मैं राजमहल की ओर,
राजमार्ग के दोनों ओर खड़े
सहस्त्रों नर-नारी
सशस्त्र सैनिकों के साथ
अभिनंदन करते हुए मेरा
राजकुँवर की
जय-जयकार कर रहे थे।
और उस क्षण सोच रही थी मैं कि-
‘क्या मेरे बाबा मेरे पिता ने
इसलिए कहा मेरी माता से कि
हमारी परम लाडली मंदा बेटी का
भाग्य नहीं मंद,
उसे लिखा है विधाता ने
स्वर्ण-तूलिका से, उमगते हुए वात्सल्य में?
जहाँ ऋषि आश्रम में पली मन्दोदरी लोक को सत्ता का सर्वोच्च बिन्दू मानती, उसी मन्दोदरी को क्रूर और निरकुंश अधिनायकवादी सत्ता से परिपूर्ण राज्य में अपनी प्रकृति को बदलना पड़ रहा था। शिवस्त्रोत के रचयिता रावण ध्वन्यालंकार से परिपूर्ण पाठ का वाचन करते तो सुनने वालों के समक्ष मानों मंत्रों के प्रभाव से समस्त देव, ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र और यहाँ तक कि साक्षात शिव उपस्थित हो जाते थे। ऐसा लगता था मानो रावण ने उन्हें अपने वश में कर लिया हो और जब रावण सुध-बुध भुलाकर अपने अहंकार रूपी सिर को काट-काट कर दस दिनों तक चलने वाले शिव जी के रुद्राभिषेक यज्ञ में चढ़ाते तो दसों दिशाओं से ज्ञान-चक्षुओं द्वारा अमृत सिर से उनके कंधों पर आकर जुड़ते और उनकी मानसिक शक्ति को दस गुना बढ़ाते हों। इस तरह रावण के दस सिर होने की मौलिक कल्पना कवि ने अपने ढंग से की है:-
दस दिन तक चलने वाले
शिव जी के रुद्राभिषेक यज्ञ में
रावण ने अपने अहंकार-शिर को
काटकर चढ़ाकर बार-बार,
जिसके फलस्वरुप दसों दिशाओं में
ज्ञान-चक्षुओं से देखने वाले दस अमूर्त शीश
उनके कंधों से आ जुड़े-
करते हुए उनकी मानसिक शक्ति दस गुणा!
रावण के दोनों भाई कुम्भकर्ण और विभीषण की प्रकृति रावण से पूरी तरह भिन्न थी। कुम्भकर्ण शिव उपासक थे, मगर उन्हें सत्ता की कोई भूख नहीं थी। भांग का सेवन करने के कारण उन्हें भयानक भूख लगती और वे रात-दिन सोते रहते थे। लोगों ने मज़ाक-मज़ाक में उनके बारे में अफवाह उड़ा दी कि वे छः महीने सोते हैं, एक दिन उठते हैं फिर छः महीने के लिए सो जाते हैं। इस परिहास का वे कोई मुँह खोलकर उत्तर नहीं देते थे, अपनी भोली प्रकृति के कारण। विभीषण विष्णु भक्त थे, छोटा डीलडौल था। अनुशासित जीवन था। ब्राह्ममुहूर्त में उठकर और रात्रि में शयन के समय नित विष्णु सहस्र नाम का जप करते थे। कवि के अनुसार रावण को उनकी जीवनचर्या भीषण हास्यास्पद लगती थी। इसलिए शायद उन्हें विभीषण कहा जाने लगा। विभीषण को सत्ता से कोई विरक्ति नहीं थी, मगर कनिष्ठ होने के कारण उन्हें सत्ता मिलने की कोई उम्मीद न थी। वे अक्सर यह सोचा करते कि अगर उन्हें सत्ता मिलती तो वे रावण के निरंकुश शासन के विपरीत आदर्श शासन व्यवस्था को स्थापित कर दिखा सकते हैं। रावण को शिव ने अमरत्व का वरदान दिया था। चूँकि वे द्रविड़ शासक थे, इसलिए उन्हें आर्य जाति से नफरत थी। मन्दोदरी के बड़े पुत्र के जन्म के समय मेघ गर्जन की तरह उसने चीत्कार किया था। तभी रावण ने उनका नाम मेघनाद रख दिया। यह वह घड़ी थी, जब वह अपने द्वारा निर्मित रुद्र वीणा में भावाकुल होकर पुत्र जन्म की प्रतीक्षा कर रहे थे। कवि ने अपनी कल्पना का विस्तार करते हुये आगे लिखा है कि मेघनाद के जन्म होते ही इंद्रपुरी में राजा इन्द्र को परास्त कर मेघों को बरसने का निर्देश दिया है। ताकि लंका का कृषि-व्यापार समृद्ध हो सके। मन्दोदरी ज्यादा खुश होती, अगर पुत्र के स्थान पर उसे पुत्री प्राप्त होती, क्योंकि वह पुत्र जन्म के साथ-साथ महाराज के साम्राज्य विस्तार की लालसा को बढ़ते हुए देख रही थी। उनके आचरण में क्रूरता, हिंसा जैसी घातक प्रवृत्तियाँ भी दिखाई देने लगी थीं। मन्दोदरी के प्रति अनुराग खत्म हो गया था और रावण अकर्मण्य विलासी जीवन बिताने के अभ्यस्त हो गए थे। स्त्रियों के प्रति वासनात्मक आकर्षण बढ़ता हुआ नजर आने लगा था। इन्हीं अवस्थाओं में मंदोदरी के एक और पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया, अक्षय कुमार। रावण की यश और कीर्ति को अक्षय रखने की आकांक्षा में प्रतीकात्मक नाम रखा गया था। मेघनाद बचपन से ही ईश्वर भक्त था, मगर अक्षय कुमार शक्ति और सत्ता के मद में चूर। यह नियति थी मन्दोदरी के जीवन की। मेघनाद का विवाह सुलोचना नामक सुंदर कन्या से हुआ। कवि उद्भ्रांत ने मन्दोदरी के चरित्र में यहाँ एक मरोड़ (twist)लिया है कि मेघनाद के जन्म के पूर्व मन्दोदरी ने गर्भ धारण किया था, लेकिन अचानक एक दिन गर्भपात हो गया तो राजमहल के अनुचरों ने मृत बच्चे के जन्म के बाद किसी दूसरे देश में फेंक दिया था। शायद कवि ने यहाँ दो बातों की ओर ध्यान आकर्षित किया है; पहला क्या वह कन्या सीता थी? दूसरा रावण पुत्री के जन्म को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे? कन्या शिशु के जन्म होते ही उसकी निर्मम हत्या कर दी जाती थी? मन्दोदरी के चरित्र में कन्या शिशु की हत्या का और उसके बाद मन में उपजे घोर विषाद का मर्मान्तक वर्णन कवि ने किया है कि मन्दोदरी अवसादग्रस्त हो कर किस तरह अपनी पुत्री के बारे में दिवास्वप्न देखती है और वह मन ही मन निश्चित कर लेती है कि आने वाला समय गहनतम अंधकार में होगा। इस आशंका की पुष्टि और गहराने लगती है जब उसे पता चलता है कि रावण ने जंगल से किसी सुंदर नारी का अपहरण कर लंका के अशोक वन में बन्दी बनाकर रखा है। इतना बड़ा पापकर्म! सोच-सोच कर मन्दोदरी की आँखों से खून के आँसू बहने लगते हैं कि अपने पति से अलग होकर किस तरह वह विवाहित स्त्री रह पाएगी? इसलिए उसने अपनी परम विश्वसनीय सखी सेविका त्रिजटा को सीता की देख-रेख के लिए वहाँ नियुक्त किया। मन्दोदरी खुद सीता को देखने के लिए नीरव सुनसान रात में त्रिजटा के साथ अशोक वन में गई थी। जब वह सीता के पास पहुँची तो उसने खड़ी होकर चरणस्पर्श करते हुए आशीर्वाद माँगा और कहने लगी कि आप जनक पुरी की मेरी माँ की तरह हो और मुझे ऐसा लग रहा है, मानो शादी के बाद जैसे स्त्री मायके लौटती है वैसे ही मैं अपनी माँ को देखने के लिए यहाँ लाई गई हूँ। जिस तरह दामाद से असन्तुष्ट क्षुब्ध पिता, पुत्री को अकेली पाकर बलपूर्वक अपने घर ले आया हो और दामाद को उससे पृथक रहने की सजा दे रहा हो। यह सुनकर मन्दोदरी को अपनी कोख में पली मृत अवस्था की बेटी की याद हो आई कि यही तुम्हारी बेटी है। अयोध्या नरेश की तरह बेटी का जन्म होते ही लंका नरेश ने उसकी या तो हत्या करने का या दूर देश में छोड़ने का संकल्प लिया होगा। मन्दोदरी रावण के इस कुत्सित कार्य के बारे में समझ नहीं पा रही थी। क्या यह वही लड़की है, जिसे रावण ने वस्त्रों में लपेट कर जनकपुरी की कृषि-योग्य भूमि में थोड़ी-सी मिट्टी में ढँका होगा और राजा जनक के हल की नोंक से टकराने पर वह कुम्भ मिल गया होगा? क्या रावण ने यह सुनोयोजित प्रबन्ध किया था। इस तरह के अनेक कथानक कवि की कल्पना में साकार रूप लेते हैं। मन्दोदरी सीता को समझाते हुए उसे आश्वासन देती है कि वह शीघ्र ही अपने पति राम के पास सुरक्षित पहुँचेगी- यह कहकर वह उसके मस्तिष्क पर लंकावासियों की कु-दृष्टि से बचाने के लिए काला टीका लगा लेती है। मगर उसके बाद वह यह सोचना शुरू कर देती है कि लंका के अंतिम दिन अब ज्यादा दूर नहीं है। धीरे-धीरे अपने पुत्र अक्षय की हनुमान के हाथों मृत्यु, बाली के पुत्र अंगद द्वारा रावण की सभा का अपमान, लंका दहन, देवर विभीषण का निष्कासन, मन्दोदरी को धीरे-धीरे तोड़ने लगे। मन्दोदरी को मन ही मन सीता में अपनी बेटी नजर आने लगी। इन सारी बातों में रावण सहमत थे मगर उस निर्णायक घड़ी में सत-परामर्श को मानने का सवाल ही नहीं उठता था। अपनी रावण संहिता के अनुसार वीर-पुरुष द्वारा एक बार कदम आगे बढ़ाने के बाद पीछे हटाने का सवाल ही नहीं उठता था। सीता अपहरण के पीछे भी एक सुनिश्चित उद्देश्य था। शूर्पणखा का प्रतिशोध, नारी के अपमान का प्रतिकार। सीता तो बालिका थी। उसके मन में स्वर्ण मृग के चर्म की आकांक्षा बाल सुलभ थी, मगर राम तो विद्वान थे, वे तो समझा सकते थे कि हर चमकती हुई वस्तु सोना नहीं होती। सोने का यह लोभ किस तरह प्राणियों को अंधे कुएँ में ढकेल देता है। राम का उस हिरण के पीछे दौड़ना क्या उचित था? लक्ष्मण का सद्-विवेक क्या मार खा गया था, जिसने राम के आदेश का उलंघन किया था? अगर मैं सीता का अपहरण नहीं करता तो उसके द्वारा पहने हुए स्वर्ण आभूषणों के लिए कोई वन-दस्यु करता, तो शायद सीता जीवित भी नहीं बचती या तो वे लोग उसे मार डालते या फिर वन के जंगली पशु शेर, चीते, बाघ, शूकर, विषैले कीट, अजगर उसे जिंदा खा जाते। मैं उसका अपहरण कर समाज को यह संदेश देना चाहता था कि हर साधुवेशधारी व्यक्ति पर विश्वास करना ठीक नहीं है।
राम और लक्ष्मण तो क्षत्रिय थे मगर उन्होंने साधुवेश क्यों धरण किया? मैं तो जन्म से ब्राह्मण था इसलिए साधुवेश धारण कर भिक्षा मांगने गया। मैंने कोई छल-कपट नहीं किया है। न मेरे मन में कोई कुत्सित भावना थी। मै तो तीर चलाकर एक साथ कई लक्ष्य साधना चाहता था, ताकि समाज में स्त्रियाँ विशेषकर सजग हो जाएँ। मैं तो खुद नहीं चाहता था कि सीता राम से अलग रहे, और न ही मेरे मन में सीता के प्रति कोई खराब भावना थी। मैं तो उसे अपनी बेटी की तरह मानता था। जंगल के बीहड़ों में वह सुरक्षित नहीं थी और वनवास की शेष अवधि में उसके लिए कोई सुरक्षित स्थान भी नहीं था। इसलिए लंका की सुन्दर मनोहर अशोक वाटिका के सर्वाधिक घने और विशाल छायादार पवित्र अशोक वृक्ष के नीचे उसे रखना मेरे लिए श्रेयस्कर था। सपने में भी सीता को लेकर कोई निंदनीय विचार मेरे मन में नहीं आया।
रावण की वागविदग्धता का मन्दोदरी मन ही मन लोहा मानती थी, फिर भी उसकी शंकाओं का समाधान नहीं हुआ कि रावण ने सीता की रक्षा करनेवाले जटायु का वध क्यों किया? सशस्त्र दासियों से डराने का प्रयास क्यों किया? मगर रावण ने सभी प्रश्नों का अविचलित होकर उत्तर दिया कि जटायु तो मुर्दों के शरीर को नोंच-नोंच कर खाने वाला हिंस्र गिद्ध जाति का पक्षी है, उसपर कैसे विश्वास किया जा सकता है? हो सकता है वह सीता को अपना शिकार बना सकता था? इसी तरह हनुमान रामदूत था, मगर राम नहीं। इसलिए राम के वानर दल की शक्ति की परीक्षा लेना भी मेरा उद्देश्य था ताकि मैं उसके बल का अनुमान लगा सकूँ कि वह कितना बुद्धिमान, तेजस्वी या योगी पुरुष है। इसी तरह अंगद मेरे प्रतिद्वन्द्वी बाली का सुपुत्र था। मैंने उसके बाल मन को रखने के लिए उसका पाँव उठाने का नाटक मात्र किया था। सभी महारथी योद्धाओं ने तनिक भी अपनी शक्ति नहीं लगाई। विभीषण शुरू से मुझे अपना भाई न समझकर शत्रु समझता था। उसकी दृष्टि हमेशा लंका के राज्य पर लगी रहती थी। वह मेरे आराध्य देव शिव को न मानकर विष्णु की भक्ति करता है और दुश्मनों के साथ हमेशा साँठ-गाँठ बनाए रखता था। इसलिए आस्तीन के साँप से छुटकारा पाने के लिए मैंने लात मारकर उसे राज्य से निष्कासित कर दिया। रही सीता को डराने की बात तो मेरा दासियों को स्पष्ट निर्देश था कि वह उसे तनिक भी क्षति न पहुँचाएँ, केवल भयाक्रान्त करें, क्योंकि मैं उसके साहस, संकल्प और आत्मबल की परीक्षा लेना चाहता था। राजमहल में उसे लाना भी उसकी सुरक्षा के लिए था। मैं जानता हूँ, किसी स्त्री के आँसू की एक बूँद मेरा हृदय भेदने के लिय पर्याप्त है। अगर फिर भी तुम्हें विश्वास न हो तो क्या रात में तुम अकेले मिलने जा सकती या तुम्हारी विश्वस्त सखी त्रिजटा उसके नजदीक पहुँच पाती? मेरे गुप्त सूचना तंत्र इतने भी कमजोर नहीं हैं कि मुझे यह सारी बातें पता न चलती। मैं जानता हूँ हमारी राक्षस जाति, जो दूसरों की रक्षा के लिए विख्यात हो सकती है, मद में चूर और नित्य सुरापान में कमजोर हो चुकी है। इसलिए इस जाति का नष्ट होना जरूरी है। राम रावण का युद्ध तो केवल निमित्त मात्र है। इस यज्ञ में मुझे अपने बेटों और भाइयों की भले आहुति ही क्यों न देनी पड़े। इस तरह रावण ने मंदोदरी की सारी शंकाओं का समाधान कर दिया और उससे कहा मैं तुमसे केवल यह अपेक्षा रखता हूँ कि युद्ध की समाप्ति के बाद सीता को ससम्मान उसके घर अर्थात पति के पास पहुँचा देना, यह कहते हुए कि वह पवित्र अग्नि की तरह लंका में रही है। जैसे कोई विवाहित बेटी अपने मायके में रहती। तुम्हारी गणना त्रेता युग की सर्वश्रेष्ठ नारियों में होगी। तुम्हारी बात पर सारी दुनिया बात करेगी। ऐसा कहकर रावण अपने कक्ष में लौट गए और रह गया मन्दोदरी का सजल आर्त्तनाद, भीषण चीत्कार, अग्निकण बरसते बादलों की तरह और स्वर्ण कुम्भ फूटने से दिगभ्रमित दशों दिशाओं की तरह।
(क्रमशः अगले भाग में जारी...)
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