भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 भाग 5 उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल भाग 6 दिनेश कुमार माली -- वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में ज...
उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल
भाग 6
दिनेश कुमार माली
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वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में जो वेदवती की कथा मिलती है, वह भी उस समय उत्पन्न हुई होगी। इस वृतान्त में सीता के पूर्व जन्म का वर्णन किया गया है, अतः उसकी उत्पत्ति के समय सीता के लक्ष्मी के अवतार होने का सिद्धान्त सर्वमान्य नहीं था, कथा इस प्रकार है:-
ऋषि कुशध्वज की पुत्री वेदवती नारायण को पति-रूप में प्राप्त करने के उद्देश्य से हिमालय में तप करती है। उसके पिता की भी ऐसी अभिलाषा थी। किसी राजा को अपनी पुत्री प्रदान करने से इंकार करने पर कुशध्वज का उस राजा द्वारा वध किया गया था। किसी दिन रावण की दृष्टि उस कन्या पर पड़ती है। उसके रूप-लावण्य से विमोहित होकर वह उसे उसके केशों से पकड़ता है। अपना हाथ असि के रूप में बदलकर वेदवती उससे अपने केशों को काटकर अपने को विमुक्त करती है। अनन्तर वह रावण को शाप देकर भविष्यवाणी करती है, कि मैं तुम्हारे नाश के लिए अयोनिजा के रूप में पुनः जन्मग्रहण करूंगी। अन्त में, वह अग्नि में प्रवेश करती है और बाद में जनक की यज्ञभूमि में उत्पन्न होती है।
श्रीमद् भागवतपुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में इस कथा में परिमार्जन किया गया है। कुशध्वज और उसकी पत्नी मलवाती लक्ष्मी की उपासना करते हैं और उनसे उनको पुत्री स्वरूप में प्राप्त करने का वर पाते हैं। जन्म ग्रहण करते ही लक्ष्मी वैदिक मंत्रो का गान करती है; इस कारण उन्हें वेदवती का नाम दिया जाता है। कुछ समय के उपरान्त वह हरि को पति रूप में वरण करने के लिए तप करने लगती है तथा रावण द्वारा अपमानित हो जाने पर वह उसे शाप देती है कि मैं तेरे विनाश का कारण बन जाऊँगी। अनन्तर वह योग के बलपर अपनी शरीर त्याग देती है और बाद में सीता के रूप में उत्पन्न होती है। यह स्पष्ट है कि सीता तथा लक्ष्मी के अपमानित होने के विश्वास की प्रेरणा से वेदवती की कथा को नवीन रूप दिया है।
3॰ रावणात्मजा – सीता-जन्म की कथाओं में, जिनका हमें यहाँ विश्लेषण करना है, सर्वाधिक प्राचीन तथा प्रचलित कथा वह है जिसमें सीता को रावण की पुत्री माना गया है। भारत, तिब्बत, खोतान (पूर्वी तुर्किस्तान), हिन्देशिया और श्याम में हमें यह कथा मिलती है। भारतवर्ष में इस कथा का प्राचीनतम रूप वसुदेवहिणिड में सुरक्षित है। इसके अनुसार विद्याधर मय ने रावण के पास जाकर उसके साथ अपनी पुत्री मन्दोदरी के विवाह का प्रस्ताव रखा। शरीर के लक्षणों का ज्ञान रखने वालों ने कहा कि मन्दोदरी की पहली संतान अपने कुल के नाश का कारण बनने वाली है, रावण मन्दोदरी का सौन्दर्य देखकर मोहित हो चुका था, अतः उसने उसकी पहली संतान का त्याग देने का निर्णय कर उसके साथ विवाह किया। बाद में मन्दोदरी ने एक पुत्री को जन्म दिया था। उसे रत्नों के साथ एक मंजूषा में रखकर मंत्री को आदेश दिया कि उसे कहीं छोड़ दिया जाए। मंत्री ने उसे जनक के खेत में रख दिया। बाद में जनक से कहा गया कि यह बालिका हल की रेखा से उत्पन्न हुई है। जनक ने उसे ग्रहण किया। महारानी धरिणी को सौंप दिया। गुणभद्र के उत्तरपुराण की निम्नलिखित कथा में वेदवती वृतांत तथा वसुदेवहिणिड की कथा का समन्वय किया गया है--
“अलकापुरी के राजा अमितवेग कि पुत्री राजकुमारी मणिमती विजयार्थ (विन्ध्य) पर्वत पर तप करती थी। रावण ने उसे प्राप्त करने का प्रयास किया। सिद्धि में विघ्न उत्पन्न होने के कारण मणिमती ने क्रुद्ध होकर निदान किया कि मैं रावण कि पुत्री बनकर उसके नाश का कारण बन जाऊँगी। उस निदान के फ्लस्वरूप वह मन्दोदरी के गर्भ से उत्पन्न हुई। उसका जन्म होते ही लंका में भूकंप आदि अनेक अपशकुन होने लगे। यह देखकर ज्योतिषियों ने कहा कि यह कन्या रावण के नाश का कारण होगी। इस पर रावण ने मारीच को यह आदेश दिया कि वह उसे किसी दूर देश में छोड़ दे। मन्दोदरी ने कन्या को द्रव्य तथा परिचयात्मक पत्र के साथ-साथ एक मंजूषा में रख दिया। मारीच ने उसे मिथिला देश कि भूमि में गाड़ दिया, जहाँ वह उसी दिन कृषकों द्वारा पाई गई। कृषक उसे जनक के पास ले गए। मंजूषा को खोलकर जनक ने उसमें से कन्या को निकाल लिया तथा उसका पुत्रीवत पालने का आदेश देकर अपनी पत्नी वसुधा को सौंप दिया। “महाभागवत पुराण” में भी इसका उल्लेख है कि सीता मन्दोदरी से उत्पन्न हुई है।
सीता मंदोदरीगर्भे संसुता चारूरुपिणी।
क्षेत्रजा तनयाप्यस्य रावणस्य रघुत्तम॥
गुणभद्र के उत्तरपुराण के अनुसार रावण की पटरानी की कन्या की जन्म पत्रिका में उसके द्वारा पिता का नाश होने की भविष्यवाणी के कारण वह समुद्र में फेंकी जाती है और बचाने पर कृषकों द्वारा पाली जाती है। इसका नाम लीलावती है।
4. पदमजा सीता - रामायण की भूमिजा सीता की कथा इसमें स्वीकृत है। सीता और लक्ष्मी का अभेद है। लक्ष्मी के अनेक नामों में एक नाम पदमा है और नामों ने सम्भवतः पदमजा सीता की आधारभूमि तैयार की है।
रावण एक विशिष्ट स्थान पर बार-बार जाता है। वह आरम्भ में वहाँ एक पर्वत देखता है, त्तपश्चात नगर देखता है,फिर जंगल देखता है, उसके बाद एक विस्तृत गड्ढा और अंत में कमलयुक्त एक सुंदर सरोवर। वहाँ एक लिंग स्थापित कर रावण सरोवर के कमलों से शिव उपासना करता है। एक कनक-पदम पर उसे एक कन्या दृष्टिगत होती है,जो लक्ष्मी की है। वह उसे पुत्री के रूप में ग्रहण कर लंका ले आता है और मन्दोदरी को दे देता है। नारद एक दिन मन्दोदरी के यहाँ पहुँचते है और उसकी गोद में उस कन्या को देखकर कहते है कि यह कन्या बाद में रावण की प्रेमपात्री बनेगी (कन्या भविष्यति अभिलाषभूमि चपलेद्रस्य)। यह सुनकर मन्दोदरी उस कन्या को स्वर्ण पेटिका में बंद करके किसी दूर देश में छोड़ आने का आदेश देती है। यज्ञ के लिए स्वर्ण हल चलाते हुए जनक उसे प्राप्त करते हैं।
5॰ रक्तजा सीता – सीता जन्म की अनेक अर्वाचीन कथाओं में सीता ऋषियों के रक्त से उत्पन्न मानी जाती है।
रावण दिग्विजय करते-करते दण्डकारण्यवासी ऋषियों से राजकर लेते हैं। द्रव्य के अभाव में वे रावण को रक्त की कुछ बूंदे प्रदान करते हैं, जिन्हें ऋषि गृत्समद के पात्र में एकत्र किया जाता है। उस पात्र में कुश का किंचित रस था, जिसमें गृत्समद के मंत्रो के फलस्वरूप लक्ष्मी विद्यमान थी। रावण उस पात्र को लंका ले जाता है और मन्दोदरी को उसे यह कहकर देता है:- “इसमें तीव्र विष भरा है” कुछ समय बाद रावण दूसरी विजय-यात्रा के लिए चला जाता है। यह सुनकर कि रावण परस्त्रियों के साथ रमण करता है, मन्दोदरी आत्महत्या के उद्देश्य से उस रक्त का पान कर लेती है और गर्भवती हो जाती है। इस पर वह तीर्थयात्रा के लिए निकलती है। और गर्भ प्रसव करके कुरुक्षेत्र में भ्रूण गाड़ देती है। बाद में जनक के यज्ञ के लिए वहाँ हल जोतते समय एक कन्या भूमि से निकलती है। जनक उसे पुत्रीवत ग्रहण कर उसका नाम सीता रखते है।
उत्तर भारत की एक अन्य कथा इस प्रकार है:- जनक ने महादेव के धनुष के प्रभाव से रावण को कई बार पराजित किया था। अद्भुत रामायण के वृतांत के अनुसार रावण राजस्व के स्थान पर ऋषियों का रक्त लेता है। इस पर ऋषि शाप देते है, कि इस रक्त से तुम्हारा नाश होगा। रावण उस शाप की अवज्ञा करता है और उस रक्त को एक घड़े में रखकर उसे लंका ले जाता है। उस समय से लंका राज्य में अनावृष्टि आदि अनिष्ट घटित होते हैं, शास्त्री रावण से कहते है कि जब तक यह रक्त लंका में विद्यमान है विपत्तियों का अंत नहीं होगा। यह सुनकर रावण जनक से प्रतिकार लेने के उद्देश्य से उस घड़े को मिथिला में गड़वाते हैं। अब वहाँ भी वे ही अनिष्ट घटित होने लगते हैं। मंत्री राजा को रानी के साथ जाकर हल जोतने का परामर्श देते है। ऐसा करते हुए जनक उस घड़े को प्राप्त करते हैं, जिसमे ऋषिरक्त से उत्पन्न सीता दिखलाई पड़ती है। इसके बाद सर्व अनर्थ शांत हो जाते है। अन्यत्र भी उसका उल्लेख किया गया है कि मिथिला में रक्त गड़ा था, कन्या नहीं।
6. अग्निजा सीता – लंका के साथ सीता के सम्बन्ध का अंतिम रूप आनन्द रामायण में उपलब्ध है। सीता-जन्म का यह वृत्तान्त वेदवती की कथा पर आधारित प्रतीत होता है। कठोर तपस्या के उपरान्त राजा पदमाक्ष ने लक्ष्मी को पुत्रीरूप में प्राप्त किया था और उसका नाम पद्मा रखा था। पद्मा के स्वयंवर के अवसर पर युद्ध हुआ और उसका पिता पदमाक्ष मारा गया। यह देखकर पद्मा ने अग्नि में प्रवेश किया, एक दिन वह अग्निकुंड से निकालकर रावण द्वारा देखी जाती है। जिस पर वह शीघ्र ही अग्नि में प्रवेश करती है। किन्तु रावण अग्नि को बुझा देता है और उसकी राख में पाँच दिव्यरत्न देख कर उन्हें एक पेटिका में रख देता है और लंका ले जाता है। लंका में कोई भी उस पेटिका को उठा नहीं सकता, उसे खोला जाता है और उसमें से एक कन्या मिलती है। मंदोदरी के परामर्श से यह पेटिका मिथिला में गाड़ दी जाती है। बाद में उसे एक शुद्र पाता है और खोलकर तथा उसमें एक कन्या देखकर राजा को सौंपता है। जनक उसे पुत्री रूप में स्वीकार करते है।
7. फल अथवा वृक्ष से उत्पन्न – दक्षिण भारत के एक वृतांत के अनुसार लक्ष्मी एक फल से उत्पन्न होती है और वेदमुनि नामक एक ऋषि द्वारा उनका पालन पोषण होता है उनका नाम सीता है और बाद में वह समुद्र तट पर तपस्या करने जाती है। उनके सौंदर्य के विषय में सुनकर रावण उसके पास पहुँचता है, जिस पर वह अग्नि में प्रवेश कर भस्मीभूत हो जाती है। राख को एकत्र कर वदमुनि उसे एक स्वर्णयष्टि में बंद कर देता है। बाद में यह यष्टि रावण के पास पहुँच जाती है, जो उसे अपने कोषागार में रख देता है। कुछ समय के उपरान्त उस यष्टि से आवाज सुनाई पड़ती है। उसे खोला जाता है और उसमें एक लघु कन्या के रूप में परिणत सीता दिखाई पड़ती है। ज्योतिषी कहते हैं कि यह कन्या सिंहल के नाश का कारण सिद्ध होगी: इस कारण रावण उसे एक स्वर्ण मंजूषा में बन्द करके समुद्र में फेंक देता है। यह मंजूषा लहरों पर तैरती हुई बंगाल की ओर बह जाती है और गंगा में प्रविष्ट होकर एक खेत तक पहुँच जाती है। वहाँ कृषक उसे देखते हैं और अपने राजा को दे देते हैं।
8. दशरथात्मजा – दशरथ की पटरानी मन्दोदरी के सौंदर्य का वर्णन सुनकर रावण दशरथ के पास जाता है और मंदोदरी की याचना करता है। मन्दोदरी यह सुनकर कि उसका पति उसे दे देने को उद्यत–सा हो रहा है, अपने भवन में जाती है और जादू के द्वारा एक दूसरी मन्दोदरी उत्पन्न करती है, जिसे रावण ले जाता है। बाद में वास्तविक मन्दोदरी से सच वृतांत सुनकर दशरथ घबराते हैं। यह नई मन्दोदरी अक्षतयोनि है जिससे रावण को धोखा होने का पता चलेगा। अनन्तर दशरथ लंका जाते है और छिपकर उस नवीन मन्दोदरी से मिलते हैं। बाद में रावण-मन्दोदरी का विवाह मनाया जाता है और मन्दोदरी के एक पुत्री उत्पन्न होती है। उसकी जन्म कुंडली से पता चलता है कि उसका पति रावण-हंता सिद्ध होगा। अतः उसे पेटिका में बंद करके समुद्र में फेंका जाता है। महर्षि कली उसे पाते हैं और उसका पालन-पोषण करते हैं।
अग्नि परीक्षा के बाद सीता ने राम जैसे अविश्वासी पुरुष को त्याग क्यों नहीं दिया। शायद रचनाकार अपने कथानक में और मानविक पुट देना चाह रहा था। तभी तो सीता के गर्भ में पल रहे बच्चे की चिंता के लिए उसने जीवन के शेष दिन वाल्मीकि के आश्रम में बिताए। यह तो माँ की ममता ही थी कि इतना कष्ट सीता ने सहन किया। कँवल भारती के अनुसार हजारों साल की यात्रा के बाद भी हिन्दू जनता राम के अपराध में कोई प्रतिरोध नहीं देखती, राम को अपराधी नहीं मानती, दुःख तो इस बात का है कि स्त्री विमर्श से जुड़ी अनेक हिन्दू स्त्रियाँ सीता की पीड़ा से जुड़ न सकी। वे अभी भी स्त्री-विरोधी चौपाइयों का श्रद्धा से पाठ करती हैं और गद-गद होती हैं। कारण एक ही था अवतारवाद और कर्म-फल के सिद्धान्त की मान्यता ने जनता में यह विश्वास पैदा कर दिया कि राम मनुष्य नहीं हैं, वह विष्णु के अवतार हैं। जो कुछ कर रहे हैं या उनके साथ घट रहा है, वह सब उनकी लीला मात्र है। सीता एक विद्रोहिनी स्त्री थी। वह “असूर्यम्पश्या” की तरह नहीं रहकर अपने पति के साथ जाना, क्या विद्रोह नहीं था। सीता ही वह पहली स्त्री थी जिसने राम के द्वारा राक्षसों के वध किए जाने का घोर विरोध किया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार उसने कहा था– यह आप अच्छा काम नहीं कर रहे हैं। मुझे चिंता हो रही है कि इतनी हिंसा के बाद आपका कल्याण कैसे होगा? आप इन लोगों की क्यों हत्याएँ कर रहे है? इन्होंने आपका क्या बिगाड़ा है? बिना अपराध के ही लोगों को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझते हैं। यह अधर्म है। शस्त्र का उपयोग करने से आपकी बुद्धि कलुषित हो गयी है। जब आप वल्कल वस्त्र धारण कर वन में आ गए है; तो मुनिवृत्ति से ही क्यों नहीं रहते? हम अयोध्या में नहीं है, तपोवन में ही हैं। यहाँ के अहिंसामय धर्म का पालन करना ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए।
राम ने सीता को उत्तर दिया था,“ मैं अपने प्राण छोड़ सकता हूँ, तुम्हारा और लक्ष्मण का भी त्याग कर सकता हूँ, किन्तु ब्राहमणों के लिए की गयी अपनी प्रतिज्ञा को कदापि नहीं छोड़ सकता। ”
सवाल यह नहीं है कि राम ने क्या उत्तर दिया वरन् सवाल यह है कि जिस सीता ने मनु-व्यवस्था को तोड़कर राम को धर्म का उपदेश दिया हो, उसके उस विद्रोह को कवि उद्भ्रांत ने रेखांकित क्यों नहीं किया?
डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित के अनुसार त्रेता की सीता अपराध बोध से पीड़ित है। वह अपने आपको स्वर्णमृग की घटना के बहाने माया, मोह, लोभ से ग्रस्त स्वीकार करती है और श्री राम से अपने बिछोह के चौदह महीनों को उसके परिणाम स्वरूप ‘महादण्ड’ मानती है। यह उसका कर्मफल था। अपराध बोध के कारण ही वह इन त्रिदोषों की वार्ता को दीर्घ व्यवहार के रूप में अग्नि-परीक्षा की घड़ी तक खींच ले जाती है। शायद रामकथा-काव्य की परंपरा में अपराध-बोध-ग्रस्त सीता का चित्रण पहला ही है।
पहला है तो है, किन्तु तनिक ठहर कर सोचें कि न्यायालय में खड़ी हुई किसी अपहृता की यह आत्मस्वीकृति और अपहरणकर्ता के मर्यादायुक्त व्यवहार को सूचित करने वाला यह और इसी प्रकार के दूसरे बयान क्या अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिए जाने के पक्ष में नहीं जाते? क्या इन सब बयानों और आगे मन्दोदरी के कथनों के बाद भी उसके अपने पक्ष में कहने की आवश्यकता रह जाती है? यदि नहीं तो रावण के दोषमुक्त हो जाने के बाद रामावतार और रावण-बोध की सार्थकता क्या रहेगी? सीता द्वारा रावण को पितृवत आदृत किए जाने की बात जान (पढ़) लेने के बाद पाठक की क्या गति होगी? क्या उसके लिए रावण-वाद की कथावाला शेषांश अपरिहार्य और विश्वसनीय बना रहेगा; आस्वाद्द्य होगा? क्या पाठक पूछ सकता है कि जब सीता, रावण के मर्यादापूर्ण आचरण के प्रति इतनी आश्वस्त थी, तब उन्होंने अशोकवाटिका में हनुमान को इसका संकेत क्यों नहीं दिया। यदि दिया होता तो युद्ध रुक जाता? अनर्थ घटित होने से बच जाता। रावण के हठ और छद्मपूर्ण आचरण के कारण मान लें तो युद्ध अनिवार्यतः होना ही था; तो भी क्या अग्निपरीक्षा के पश्चात अयोध्या लौटने पर सीता ने जब कभी प्रसन्न भाव से राम को रावण के मर्यादित व्यवहार के बारे में बताया होगा, तब श्रीराम को अपने किए पर पछतावा नहीं हुआ होगा? इस प्रकार के प्रश्न पाठक को विकल कर सकते हैं। इससे कथा-नियोजन में व्याघात पहुँचता प्रतीत होता है। देखें, कदाचित मन्दोदरी या शूर्पणखा के वक्तव्य से इस समस्या का कोई समाधान मिल जाय।
भरत आनंद कौसल्यायन ने तुलसीदास की सीता के बारे में उसे कन्यादान कहना तथा राजा जनक द्वारा दहेज देने की प्रथा का उल्लेख कर भारतीय संस्कृति की विकृति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। सीता का कन्यादान दान नहीं था। वह तो स्वयंवर था। जहाँ स्वयं वरण हो वहाँ दान कैसा? इसी तरह आज भी दहेज प्रथा न जाने कितनी लड़कियों के माता-पिता के जीवन का अभिशाप बनी हुई है। क्या यह हो सकता है? रामचरित्र की कथा जगह-जगह पर सुनाई जाए, मगर इस देश से दहेज-प्रथा समाप्त हो जाए। बालकाण्ड के श्लोक में यह बात आसानी से देखी जा सकती है--
· सुखमूल दुलहू देही दंपति पुलक तनु हुलस्यों हियो,
करि लोक वेद विधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो। - मानस बालकांड
· दाइज अमित न सकिय कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि॥३३३॥ - मानस बालकांड
तुलसीदास जी की सीता राम की सहयोगिनी नहीं, सह-धर्मिणी नहीं, वरन एकदम किंकरी है, तो क्या आश्चर्य है कि आज की इस विकृत संस्कृति में स्त्री को पाँव तले की जूती कहा जाए या समझा जाए।
“तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥”
इस तरह राम के विवाह के बाद राजतिलक के मंगल कार्य में किसी ने बाधा डाली तो वह स्त्री थी, राम वनवास का कारण भी स्त्री बनी। इसी तरह राजा दशरथ के मृत्यु का कारण भी स्त्री बनी।
अग्निपरीक्षा - राम-रावण युद्ध हो चुका है, सीता लौट आई है। यह तो ज्ञात ही नहीं था कि वास्तविक सीता का कभी हरण ही नहीं हुआ। वास्तविक सीता तो अग्नि में सुरक्षित रही। रावण तो केवल उनके प्रतिबिंब को उन जैसी बनावटी मूर्ति को ले गया था। तब भी लोकापवाद के लिए स्थान था ही। रामचन्द्र ने सीता को अथवा उनके प्रतिबिंब को सार्वजनिक तौर पर अपनी शुद्धि प्रमाणित करने के लिए कहा। प्रतिबिंब के अग्नि-प्रवेश द्वारा और आग में से वास्तविक सीता के सकुशल बाहर आने से सीता की शुद्धि प्रमाणित हुई।
प्रचलित वाल्मीकि रामायण में अग्नि परीक्षा के संदर्भ में जो कथा दी गयी है, उसी कथा को कँवल भारती ने अपनी पुस्तक ‘त्रेता-विमर्श और दलित चिंतन’ में प्रकट किया है कि जब राम ने सीता के चरित्र पर संदेह प्रकट किया कि जब वह दूसरे घर में रही है तो कोई आकर्षण नहीं रहा। वह जहाँ चाहे चली जा सकती है, राम के यह कठोर वचन सुनकर सीता के अपने सतीत्व की शपथ खाते हुये लक्ष्मण द्वारा तैयार की गयी चिता में प्रवेश करने का प्रसंग है। अंत में अग्नि देवता आग में से निकालकर सीता के सतीत्व का साक्ष्य देते हुए उसे ग्रहण करने का अनुरोध करते हैं। तब राम कहते है कि मुझे सीता के चरित्र पर संदेह नहीं था। अगर मैं अग्नि परीक्षा नहीं लेता तो लोग मुझे कामात्मा होने का आक्षेप लगाते।
शायद सीता के अग्नि परीक्षा का यह वर्णन बाद में जोड़ा गया है। इसीलिए महाभारत समेत प्राचीन पुराणों में भी उदाहरणार्थ – हरिवंश, विष्णुपुरण, वायुपुराण, भागवत पुराण, नृसिंह पुराण, अनामक जातकम, स्याम का रामजातक, खोतानी और तिब्बती रामायण, गुणभद्रकृत, उत्तर पुराण में अग्नि परीक्षा का निर्देश नहीं मिलता।
रामोपाख्यान में विभीषण और लक्ष्मण सीता को राम के पास ले जाते हैं।
पउमं चरीय में भी राम और सीता के पुनर्मिलन के समय देवताओं की पुष्पवृष्टि तथा सीता की निर्मलता के पक्ष में उनकी सक्षमता के अतिरिक्त किसी भी परीक्षा का उल्लेख नहीं मिलता। एक बात अवश्य लिखी गई है कि सीता त्याग और सीता के पुत्र द्वारा राम सेना से युद्ध के पश्चात राम अपने परिवार के साथ अयोध्या लौटे तो राम ने सीता को लोगों के सामने अपने सतीत्व का प्रमाण देने को बात कही तो सीता ने कहा- मैं तुला पर चढ़ सकती हूँ, आग में प्रवेश कर सकती हूँ, लोहे की तपी हुई लंबी छड़ धारण कर सकती हूँ अथवा मैं उग्र विष भी पी सकती हूँ। राम ने अग्नि परीक्षा को उचित समझा और 300 हाथ गहरा अग्निकुण्ड खोदने का आदेश दिया। अग्नि प्रज्वलित होने पर सीता ने सतीत्व की शपथ खाकर प्रवेश किया। सीता के प्रवेश करते ही वह कुण्ड स्वच्छ जल से भर गया। उसके बाद जब राम ने उससे क्षमायाचना की और अयोध्या में निवास करने का अनुरोध किया तो सीता ने इंकार कर दिया और जैन धर्म में दीक्षा लेने के लिए चली गई।
कथा सरितसागर में राम द्वारा सीता की परीक्षा लेने का उल्लेख नहीं है। मगर वाल्मीकि आश्रम में अन्य ऋषि सीता के चरित्र पर संदेह करते हैं, तो सीता स्वयं कोई भी परीक्षा देने को तैयार हो जाती है। उसके लिए लोकपाल टीटिभा सरोवर बनाते है। जब सीता जल में प्रवेश करती है, तो पृथ्वी देवी प्रकट होकर उसे अपने गोद में ले लेती है और सरोवर के उस पार पहुँचा देती है। यह देखकर ऋषि राम को शाप देना चाहते हैं, मगर सीता ऐसा नहीं करने का अनुरोध करती है।
अन्य रचनाओं में अधिकांश मध्यकालीन रामायणों में माया सीता अग्नि में प्रवेश करती है और वास्तविक सीता उसमें से प्रकट हो जाती है। आनन्द रामायण के अनुसार सीता अपने हरण के पूर्व तीन रूपों में विभक्त हो गई थी, अग्नि परीक्षा में समय वह एक हो जाती है। कृतिवास रामायण में मन्दोदरी का शाप अग्निपरीक्षा का कारण माना गया। मन्दोदरी ने राम के दर्शनों की आशा में सीता को यह कहकर शाप दिया था कि तुम्हारा यह आनन्द अकस्मात निरानन्द हो जाएगा। लंका की स्त्रियों ने भी उस अवसर पर सीता को शाप दिया था।
रामायणमसिही में मन्दोदरी सीता को राम के पास ले जाती और राम स्वयं सीता को आग में डालते हैं।
ब्रहमचक्र के अनुसार सीता ने राम का संदेह देखकर आग जलाने का आदेश दिया और सीता के अग्नि में प्रवेश करते ही अग्नि बुझ गई। कश्मीरी रामायण में सीता को चौदह दिनों तक जलते हुए दिखाया है और बाद में वह सोने की तेजस्विता की तरह बाहर निकलती है। ‘अद्भुत रामायण’ और ‘मलयन रामायण’ में रावण द्वारा सीता की छाया सीता या माया सीता का अपहरण किया जाता है, न की वास्तविक सीता का। यह वास्तव में वेदवती होती है, और अग्नि परीक्षा का अर्थ वास्तविक सीता को वापस लाना है। ग्रीक माइथोलोजी में भी मूल नायिका की जगह डुप्लिकेट नायिका के अपहरण के कथानक मिलते हैं। हेरोडोटस(Herodotus) कहता है कि पेरिस (Paris)द्वारा हेलेन (Helen) का अपहरण कर ट्रॉय (Troy) ले जाया गया है, वह असली हेलेन नहीं है, बल्कि उसके जैसे दिखने वाली है और असली हेलेन मिश्र में है, जिसके लिए ग्रीक और ट्रोजन (Trojan)आपस में युद्ध करते हैं। इस तरह विश्व–संस्कृति में पुरुषों का सम्मान पाने के लिए स्त्री की पवित्रता, सतीत्व और फीडेलिटी(fidelity)जरूरी है। अग्नि परीक्षा को शुद्धिकरण की दृष्टि से भी देखा जाता है। महाभारत में द्रौपदी जब तक एक पति से दूसरे पति के पास जाती है तो आग के माध्यम से गुजरकर अपने आप को शुद्ध कर लेती है।
अनय दृष्टान्तों में सीता की निम्नलिखित परीक्षाओं का उल्लेख मिलता है–
विषैले साँपों से भर घड़े में हाथ डालना, मदमस्त हथियों के सामने फेंका जाना, सिंह और व्याघ्र के वन में त्याग किया जाना, अत्यन्त तप्त लोहे पर चलना।
सीता-त्याग - आदि रामायण, महाभारत और प्राचीन पुराणों में सीता त्याग का अभाव है। जबकि दूसरी रचनाओं में सीता त्याग के भिन्न करणों में लोक अपवाद, धोबी की कथा, रावण के चित्र, परोक्ष कारणों में भृगु, तारा, शुक का साथ, लक्ष्मण का अपमान, सुदर्शन मुनि की निंदा, वाल्मीकि को प्रदत्त वरदान आदि से दिया गया है। जबकि गीतावली, अध्यात्म रामायण, मधुराचार्य, आनन्द रामायण में अवास्तविक सीता के त्याग की बात कही गई है।
सीता-त्याग के भिन्न-भिन्न कारण- रामकथा के अधिकांश लेखकों ने प्रचलित वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के अनुकरण पर सीतात्याग का वर्णन किया है। परित्याग के विभिन्न कारणों के अनुसार ये वृतांत तीन वर्गों में विभक्त किये जा सकते हैं।
· लोकापवाद – उत्तरकाण्ड की कथा इस प्रकार है। गर्भवती सीता किसी दिन राम के सामने तपोवन देखने की इच्छा प्रकट करती है। उनको अगले दिन भेज देने की प्रतिज्ञा करके राम अपने मित्रों के साथ बैठकर परिहास की कहानियाँ सुनते हैं – कथा बहुबिधा : परिहास समन्विताः। संयोगवश राम भद्र से पूछते है – “मेरे, सीता तथा भरत आदि के विषय में लोग क्या कहते हैं?” तब भद्र सीता के कारण हो रहे लोकापवाद और जनता के आचरण पर पड़नेवाले उसके कुप्रभाव का उल्लेख करता है। लोग कहते हैं – हमको भी अपनी स्त्रियों का ऐसा आचरण सहना होगा।
यह सुनकर राम लक्ष्मण को बुलाते हैं और सीता को गंगा के उस पार छोड़ आने का आदेश देते हैं। तपोवन दिखलाने के बहाने लक्ष्मण सीता को रथ पर ले जाते हैं और वाल्मीकि के आश्रम के समीप छोड़ देते हैं।
वाल्मीकि कथा कालिदास के रघुवंश में भी मिलती है। अंतर यह है कि इसे भद्र मित्र न होकर गुप्तचर बताया गया है। उत्तररामचरित, कुंदमाला, दशावतारचरित आदि प्राचीन रचनाओं में इस प्रकार का वर्णन किया गया है। उत्तररामचरित में गुप्तचर का नाम दुर्मुख है। आध्यात्म रामायण तथा आनन्द रामायण में इसका नाम विजय माना गया है।
“चलित राम” के अनुसार दो छद्मवेशी राक्षस राम को सीता के विरोध के लिए उकसाते है,जबकि “असमिया लवकुशर युद्ध” में राम के एक स्वप्न की चर्चा है।
विमलसुरीकृत पउमचरियं में सीता त्याग का विस्तृत तथा किंचित परिवर्द्धित वर्णन किया गया है।
राम स्वयं गर्भवती सीता को वन में विभिन्न चैत्यालय दिखला रहे थे कि राजधानी के नागरिक उनके पास आए और अभयदान पाकर उन्होंने अपने आने का कारण बताया, पहले वे साधारण जनता के दुष्ट स्वभाव का वर्णन करते हैं; जिसके निम्नलिखित अवगुण होते हैं– पवमोहित्यमई (पापमोहितमति), परदोसगहणरउ (परदोषग्रहरणरत), सहववको (स्वभाव–कुटिल), सठ्सिलों (शठशील), ऐसी जनता में सीता के अपवाद को छोड़कर किसी और बात की चर्चा नहीं होती। नागरिकों का यह भाषण सुनकर राम ने लक्ष्मण के साथ परामर्श किया, किन्तु लक्ष्मण ने सीतात्याग का विरोध किया। राम को सीता पर संदेह हुआ। अतः उन्होंने अपने सेनापति कृतान्तवदन को बुलाकर आदेश दिया कि जैन-मंदिर दिखलाने के बहाने सीता को गंगा के पार भयानक (निमानुष) वन में छोड़ दो। सेनापति ने ऐसा ही किया। संयोग से पुण्डरीकपुर के राजा बज्रपंध ने उस वन में सीता का विलाप सुन लिया। वह सीता को अपने भवन में ले आया और उसके यहाँ सीता के दो पुत्रों का जन्म हुआ।
रविषेण के ‘पदमचरित’ में सीता को ग्रहण करने के दुष्परिणाम के वर्णन में परिवर्द्धन किया गया है। समस्त प्रजा मर्यादा-रहित बताई जाती है। स्त्रियों का हरण हुआ करता है और बाद में पुनः वे अपने-अपने घर लौट कर स्वीकृत हो जाती हैं।
हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र में सीतात्याग के पश्चात की एक घटना का वर्णन किया गया है। इनके अनुसार राम अपनी पत्नी की खोज में वन गए थे, किन्तु सीता का कहीं भी पता नहीं चल सका। राम ने सोचा कि सीता कहीं किसी हिंस्र पशु द्वारा मारी गई है। अतः उन्होंने घर लौटकर सीता के श्राद्ध का आयोजन किया।
· धोबी का वृतान्त – सीता त्याग की कथाओं का एक दूसरा वर्ग मिलता है, जिसमें लोकापवाद का एक विशेष उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। एक पुरुष (बाद में यह धोबी कहा जाता है) अपनी पत्नी को, जो घर से निकली थी; वापस लेने से इन्कार करते हुए कहता है – “मैं राम की तरह नहीं हूँ, जिन्होंने दीर्घकाल तक दूसरे के घर में रहने के पश्चात सीता को ग्रहण किया। ”
इस वृतान्त का सर्व प्रथम वर्णन सम्भवतः आजकल गुणादय कृत वृहत्कथा में हुआ था और अब सोमदेव-कृत कथासरित्सागर में सुरक्षित है। कथा इस प्रकार है– एक दिन अपने नगर में गुप्त-वेश में घूमते हुए राजा ने देखा कि एक पुरुष अपनी स्त्री को हाथ से पकड़कर अपने घर से निकाल रहा है और यह दोष दे रहा है कि तू दूसरे के घर गई थी। इस पर वह स्त्री कहती है– राम ने सीता को राक्षस के घर रहने पर भी नहीं छोड़ा; यह मेरा पति राम से बढ़कर है, क्योंकि यह मुझे बंधु के गृह जाने पर भी अपने घर से निकाल रहा है। यह सुनकर राम को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने लोकापवाद के भय से गर्भवती सीता को वन में छोड़ दिया।
भागवतपुराण में जो वृतान्त मिलता है वह कथासरित्सागर की उपर्युक्त कथा से बहुत कुछ मिलता-जुलता है।
जैमिनीय अश्वमेघ तथा पदमपुरण की सीतात्याग विषयक कथाओं का मूल-स्रोत एक ही प्रतीत होता है; क्योकि दोनों में शाब्दिक समानता के अतिरिक्त एक ही नया तत्त्व मिलता है। जिस पुरुषों ने अपनी पत्नी को निकाला वह धोबी कहा जाता है।
आगे चल कर धोबी की यह कथा व्यापक हो गई है। तमिल रामायण का उत्तरकाण्ड, आनन्द रामायण, नर्मद्कृत गुजराती रामायण सार, रामचरितमानस के प्रक्षिप्त लवकुश-काण्ड आदि में इसका वर्णन किया गया है। तिब्बती रामायण का वृतान्त कथासरित्सागर तथा भागवत-पुराण की कथा से विकसित प्रतीत होता है। उसमें जनश्रुति का प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है। राम किसी पुरुष को अपनी व्यभिचारिणी पत्नी से झगड़ा करते सुनते हैं। पति कहता है– तुम अन्य स्त्रियों की तरह नहीं हो। इस पर पत्नी उत्तर देती है– तुम स्त्रियों के बारे में क्या जानते हो, सीता को देख लो; एक लाख वर्ष तक वह दशग्रीव के साथ रही, फिर भी राम ने उसे ग्रहण कर लिया।
यह सुनकर राम को सीता के विषय में संदेह उत्पन्न होता है और वह छिपकर उस स्त्री से मिलते हैं। स्त्रियों का स्वभाव समझाते हुए वह राम से यो कहती है– ज्वर-पीड़ित मनुष्य जिस प्रकार शीतल सरिता का निरन्तर स्मरण करता है, ऐसे से ही काम-पीड़ित स्त्री रूपवान पुरुष का निरन्तर स्मरण करती रहती है। जब तक उसे कोई देखता अथवा सुनता हो वह निंदनीय आचरण नहीं करती, लेकिन एकांत में बंधन से मुक्त होकर वह पर-पुरुष के साथ अपनी काम-पीड़ा शान्त कर लेती है।
यह सुनकर राम के मन में शंका सुदृढ़ हो जाती है। वह घर जाकर सीता को कहीं भी चले जाने का आदेश देते हैं और सीता अपने दो पुत्रों के साथ किसी आश्रम के लिए प्रस्थान करती है।
· रावण का चित्र – पउमचरिय के अनुसार राम को सीता के चरित्र पर संदेह होने के कारण सीता के पास रावण का चित्र होना बताया है। जैन साहित्य के टीकाकार मुनिचन्द्र सूरी के अनुसार सीता ने अपनी ईर्ष्यालु सपत्नी की प्रेरणा से रावण के चरणों का चित्र बनाया था। सपत्नी ने राम को यह चित्र दिखाया। इसीलिए राम ने सीता का त्याग कर दिया, राम ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया तो सपत्नियों ने यह बात दासियों के द्वारा जनता में फैला दी। बाद में राम जब गुप्त वेश धारण कर नगर के उद्यान में टहल रहे थे, तो सीता को ग्रहण करने के कारण अपनी निन्दा सुननी पड़ी। इस बात का गुप्तचरों ने भी समर्थन किया। लक्ष्मण ने सीता का पक्ष लिया था। मगर राम ने कृतांत-वदन की तीर्थयात्रा के बहाने सीता को जंगल में छोड़ने का आदेश दिया।
कृतिवास रामायण में इसी तरह का वृतान्त देखने को मिलता है। चन्द्रावली-कृत रामायण गाथा में कैकेयी की पुत्री ‘कुकुआ’ के बहकावे में आकर सीता रावण का चित्र खींचती है, जिसे कीकवी देवी (भरत और शत्रुघ्न की सहोदरी) उसे सोती हुई सीता की छाती पर रख देती है और यह अभियोग लगाती है कि उन्होंने चित्र का चुम्बन भी किया था।
हिंदेशीय के शोरीराम में यह दिखाया गया है कि रावण की पुत्री अपने पिता का चित्र सीता की छाती पर रख देती है, जिसका वह नींद में चुम्बन करती है। यह दृश्य देख राम सीता को कोड़ों से मारते हैं; उसके बाल काटते हैं और लक्ष्मण को बुलाकर मार डालने तथा प्रमाण स्वरूप उसका हृदय लाने का आदेश देते हैं।
सिंहल द्वीप की रामकथा, रामकीर्ति के अनुसार शूपर्णखा की पुत्री अदूल सीता से रावण का चित्र खिंचवाती है। ब्रह्मचक्र की कथा में शूपर्णखा स्वयं छद्मवेश में सीता के पास आती है। कश्मीरी रामायण में रामायण के दो भाग है, पहला “सरी राम अवतार चरितम्” तो दूसरा “लवकुश युद्ध चरितम्। " चोल साम्राज्य में दो कवि कम्बन और ओट्टाकोथार ने 12वीं शताब्दी में रामायण के ऊपर अपनी व्याख्या लिखी है। तमिल साहित्य में कहा जाता है कि पूर्व रामायण कम्बन द्वारा लिखी गई और उत्तर रामायण ओट्टाकोथार द्वारा। वाल्मीकि रामायण में इसे केवल स्ट्रीट गॉसिप माना है। जबकि तेलगु कन्नड़ और ओड़िआ कथाओं में सीता द्वारा रावण की परछाई बनाने का वर्णन आता है, तो कई गाथाओं में शूर्पणखा और उसकी पुत्री, मंथरा,कैकेयी, तो अन्य स्त्रियों द्वारा सीता को रावण की तस्वीर खींचने के लिए बाध्य किया जाता है। संस्कृत कथासरित सागर (11वीं शताब्दी) तथा बंगाली कीर्तिवास रामायण (15वीं शताब्दी) में धोबी और उसकी पत्नी के झगड़े का संदर्भ है।
रामायण के अन्य परोक्ष कारणों में दुर्वासा मुनि का शाप, भृगु पत्नी-वध, तारा का शाप (बालीवध के बाद), उद्यान में शुकों के साथ, पूर्व जन्म में सीता द्वारा मुनि सुदर्शन की निन्दा, सीता द्वारा लक्ष्मण पर आक्षेप, वाल्मीकि की तपस्या द्वारा लक्ष्मी के पिता बनने के वरदान की कथा, जैसे अनेकानेक कथानक देखने को मिलते हैं।
तुलसीदास की गीतावली, अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण आदि में राम के चरित्र के आदर्श को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से अनेक अर्वाचीन राम कथाओं में सीता त्याग के वृतान्त को एक अन्य रूप देकर अवास्तविक बनाने का प्रयास किया गया है। गीतावली के अनुसार दशरथ अपनी आयु के पूर्ण होने से पहले ही स्वर्गवासी हो गए थे और राम को उनकी शेष आयु मिली थी। पिता की आयु सीता के साथ भोगना अनुचित समझकर राम ने अपनी आयु के समाप्त होने पर सीता का निर्वासन किया।
अर्वाचीन रामकथा साहित्य में काल-क्रम के अनुसार सीता-त्याग की कथाओं के विकास की पुष्टि होती है। धोबी द्वारा लोकापवाद, रावण के चित्र और अंत में सीता की एक रजस्तमोमयी छाया मात्र का हरण होने तथा सत्वगुण से अदृश्य रूप से राम के वामांग में निवास करना।
रविषेण के अनुसार राजा जनक की विदेहा नामक महाराणी की एक पुत्री सीता और एक पुत्र भामण्डल उत्पन्न हुआ। राम म्लेच्छों के विरोध के समय जनक की सहायता करते हैं। जिसके फलस्वरूप राम और सीता का वाग्दान हुआ। सीता हरण के बारे में विमल सूरी लिखते है, कि चंद्रनखा और खरदूषण का पुत्र सूर्यहास खंग की सिद्धि के लिए बारह साल तक साधना करते हैं। जब उसकी साधना सफल हो जाती है, खंग प्रकट होता है; संयोगवश लक्ष्मण वहाँ पहुँचते हैं और खंग को उठाकर बाँस काटकर शंबुक का सिर काट देते हैं। चंद्रनखा अपने मृतपुत्र को देखकर विलाप करते-करते वन में फिरने लगती है। वह राम और लक्ष्मण के पास पहुँचकर उनकी पत्नी बनने का प्रस्ताव रखती है। असफल होकर वह अपने पति खरदूषण को पुत्रवध का समाचार सुनाती है और रावण को भी खबर कर देती है। रावण अपनी अवलोकनी विद्या से सिंहनाद करके राम और लक्ष्मण को वहाँ से हटाकर सीता का हरण करने में सफल हो जाता है।
उत्तरचरित में राम की आठ हजार पत्नियाँ बताई गयी है, जिनमें से सीता, प्रभावती, रतिनिभा और श्रीदामा प्रधान है। जबकि लक्ष्मण की दस हजार पत्नियाँ बताई गयी है। सीता के पुत्रों के नाम लवण, (अनंग लवण) तथा अंकुश (मदनांकुश) माने गए हैं।
वैदिक काल में पशु पालन करने वाले आर्यों के लिए जो स्थान गायों का था, वही स्थान कृषकों के लिए खेतों की सीता का था। फलस्वरूप गायों का हरण सीता हरण में बदल जाते हैं। डॉ वेबर के अनुसार रामकथा का मूलस्वरूप बौद्ध दशरथ जातक में सुरक्षित है। इस कथा में सीता हरण और रावण का युद्ध का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। डॉ. वेबर के अनुसार सीता हरण की कथा का मूल-स्रोत होमर में वर्णित पैरिस द्वारा हेलन का हरण है और जो लंका में युद्ध हुआ था, उसका आधार संभवत यूनानी सेना द्वारा त्राय का अवरोध है।
हनुमान शब्द संभवत एक द्रविड़ शब्द का संस्कृत रूपान्तरण है। इसका अर्थ है ‘नर कपि’। इसी कारण अनुमान किया गया है कि वृषाकपि तथा हनुमान दोनों किसी प्राचीन द्रविड़ देवताओं के नाम है।
दूसरे मत के अनुसार रामायण के अन्य वानर, ऋक्ष और राक्षस विन्ध्य प्रदेश और मध्यभारत की आदिवासी अनार्य प्रजातियाँ थीं। वाल्मीकि रामायण में इन्हें आदिवासी ही कहा गया है। मगर आदिकाव्य के अनेक स्थलों से पता चलता है कि प्रारम्भ में यह सभी मनुष्य ही माने जाते थे। जैन रामायण के विद्वानों के अनुसार उन जातियों की ध्वज के कारण नाम पड़े। अर्थात जिस जाति के ध्वज पर बंदर का चिह्न था,वह वानर जाति कहलाए और जिसकी ध्वज पर रीछ का चिह्न था वह रीछ कहलाए। आज भी क्रिकेट खेल में आस्ट्रेलिया को ध्वज के कारण कंगारू, अंग्रेज़ों की ध्वज पर शेर का चिह्न होने के कारण ब्रिटिश लॉयन और रुस की ध्वज पर बियर(रीछ) का चिह्न होने के कारण रूसी लोगों को बियर कहते है। कुछ विद्वानों के अनुसार आदिवासी जातियाँ पशु या वनस्पति की पूजा करती थी और उसी के नाम से पुकारे जाते थे जिन्हें ‘टोटम’ या ‘गोत्र’ कहते है। रामायण में वानर, ऋक्ष (जम्बुवान) और गिद्ध (जटायु, सम्पाति और रावण) आदि इन्हीं टोटमों के परिणाम है। ध्यान देने योग्य बात यह है उराँव, असुर तथा खरिया आदि आदिम जातियों की भाषा में रावण का अर्थ गिद्ध ही है। जैन रामायण में विमलसूरी के अनुसार रावण का एक ही सिर था,जब उसका जन्म हुआ था। तो माँ ने नौ दर्पण वाला हार उनके गले में डाला था, जिसमें उसकी छाया थी। इसलिए माँ दशानन के नाम से पुकारती थी,जो आगे जाकर उसका नाम बन गया। मगर दूसरे कवियों ने अदभुत रस और अतिशयोक्ति का सहारा लेते हुए रावण के दस सिर होने, हनुमान द्वारा समुद्र लाँघने तथा आकाश में उड़कर पर्वत लाने जैसे वाक्यों का प्रक्षेपण किया है- ऐसा अनुमान लगाया जाता है।
रामायण के अनुसार सीता अपने आपको साधारण स्त्री मानती है और अपने इस जन्म को दुःखों का कारण पूर्व जन्म के किए हुए पाप को समझती है। राक्षसों के प्रति राम की हिंसात्मक प्रवृति देखकर राम के परलोक की चिन्ता करती है और रावण उनसे अनुरोध करता है कि वह राम जैसे साधारण मनुष्य को छोड़ दे तो वह उत्तर नहीं देती है। राम साधारण मनुष्य नहीं है। युद्ध के समय भी वह राम को अमर नहीं समझती है। रामकथा की लोकप्रियता का एक कारण बौद्ध और जैन साहित्य से मिलता है। बौद्ध ने राम को बोधिसत्व मानकर लोकप्रियता और आकर्षकता का साक्ष्य दिया है और जैनियों ने वाल्मीकि की रचनाओं को मिथ्या कहकर राम को नए रूपों में अपनाने का प्रयत्न किया है। कृपा निवास, मधुराचार्य (रसिक संप्रदाय के आचार्य) के अनुसार न तो वास्तव में सीता का हरण हुआ और न ही स्वयं ब्रह्म राम ने एक तुच्छ राक्षस के वध के लिए धनुष बाण उठाया। वनयात्रा के समय राम, लक्ष्मण और सीता चित्रकूट से आगे तक नहीं गए।
तत्वसंग्रह रामायण के अनुसार माया सीता का वृतांत सामने आता है, जिसके अनुसार वास्तविक सीता राम के वक्ष स्थल में छुप जाती है और शतानन रावण का वध खुद सीता ही करती है।
कथासरितसागर में राम और सीता का मिलन दिखाकर रामकथा का सुखांत किया है।
असुर और राक्षस अधिकांश एक दूसरे के लिए प्रयुक्त होते है, मगर दोनों में अंतर है। असुर कश्यप के वंशज थे, जो जमीन पर रहते थे और देवताओं से लड़ाई करते थे। जबकि राक्षस पुलस्त्य की संतान थे, जो जंगलों में रहते थे और आदमियों से लड़ाई करते थे। वास्तुविदों के अनुसार रावण को दक्षिण दिशा(यम की दिशा) तथा कुबेर को उत्तर दिशा (स्थायित्व / धन संग्रह) का प्रतीक माना है।
कुछ विद्वानों के अनुसार धनुष तोड़ने का अर्थ अनासक्ति से लिया जाता है। शायद सीता की आसक्ति से मुक्त होने के लिए राम को वनवास जाना पड़ा, जो एक राजा के लिए अनिवार्य शर्त थी। वैदिक विचारों के अनुसार मनुष्य समाज को चार अवस्थाओं में गुजरना पड़ता है। व्यतिक्रम क्रेता (4), त्रेता (3), द्वापर (2), कली (1) और उसके बाद प्रलय (0) और उसके बाद 4, 3, 2, 1... हर समाज आदर्शवादिता से शुरू होता है और धीरे-धीरे करके अपने समापन को प्राप्त करता है। हर युग की समाप्ति एक अवतार से होती है, जैसे क्रेता में परशुराम, त्रेता में राम, द्वापर में कृष्ण और कलि में कल्की। रामबाण का अर्थ अपने उद्देश्य का अचूक निशाना है।
भारतवर्ष में सभी बच्चों को चंद्रमा के प्रति राम के प्रेम के बारे में सुनया जाता है। मगर कुछ विद्वानों के अनुसार सीता और शूर्पणखा पर किए गए अत्याचारों के कारण उनके सूर्यवंशी परिवार की आभा धूमिल होने की वजह से उन्हें रामचन्द्र कहा जाने लगा। राम को मर्यादा पुरषोत्तम कहा जाता है, जिनके लिए नियम कानून ही सब-कुछ होता है, भावना और संवेदनाओं की कोई कद्र नहीं होती है। तत्कालीन समाज में कानून को ज्यादा मान्यता देने का अर्थ यह नहीं था कि अपने पिता का दिल दुखाना अथवा अपनी पत्नी पर अत्याचार करना। नियम का अनुसरण करने वाला कभी भी न तो आज्ञाकारी पुत्र हो सकता है और न ही एक अच्छा पति। इससे ऐसा लगता है कि उस समाज में नियम कानून को व्यक्ति की तुलना में ज्यादा मान दिया जाता था। पाँचवी शताब्दी तक राम एक अच्छे मानवीय नायक थे। वाल्मीकि ने भी उन्हें देवता के रूप में स्वीकार नहीं किया। धीरे-धीरे राम को पृथ्वी पर विष्णु का अवतार तथा एक आदर्श राजा माना जाने लगा और उनकी कहीं हुई हर बातों को दिव्यता से परिपूर्ण देखा जाने लगा। कंबन के तमिल ‘रामायण-ई-रामवताराम’ में राम अपने देवत्व से संघर्ष करते हैं और अपने देवत्व के विपरीत किए गए कार्यों की वजह से नीरवता में लोप हो जाते हैं। मगर बारहवीं शताब्दी के शुरूआत में वेदान्त के प्रवर्तक रामानुज ने राम की तुलना भगवान से कर राम भक्ति की शुरूआत की।
आज भी महाकाव्यों में यह सवाल हमेशा बना रहता है कि सीता राम का अनुकरण क्यों कर रही थी। वह इसे अपना कर्तव्य समझती थी, अथवा वह राम को अत्यधिक प्यार करती थी। क्या सीता का यह निर्णय सामाजिक नियमों पर आधारित था, अथवा भावना केंद्रित? राम जब नियमों की बात करते है तो सीता भावनाओं की तरफ झुक कर संतुलित करती है। सीता की परंपरागत कथाओं में आज्ञाकारी पत्नी होने के विपरीत वाल्मीकि रामायण में उसे अपने मस्तिष्क का प्रयोग करने वाली सजग नारी के रूप में चित्रित किया गया है। वह राम के पौरुष को ललकारती है। जिसके कारण वह उन्हें अपने साथ जंगल में नहीं ले जाना चाहते। कई संस्करणों में अभी तक यह भी गुत्थी बनी हुई है कि सीता ने राम के साथ शाही परिधानों में वन गमन किया था अथवा वल्कल पहन कर।
भारत में रामायण की घटनाओं के अनुरूप महानगरों को विभाजित किया गया है। उदाहरण के तौर पर वाराणसी में अयोध्या (राम नगर) और लंका के कुछ हिस्से हैं – जो गंगा नदी के आमने-सामने वाले तट पर हैं। इसी तरह चित्रकूट (जहाँ राम का भरत से मिलाप होता है) तथा पंचवटी (जहाँ से सीता का अपहरण होता है) आदि स्थान गंगा के आस-पास ही हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार रामायण की घटनाओं का विस्तार मध्य भारत से आगे नहीं जा सका, मगर तीर्थों की कहानियाँ और रामायण के स्थानों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए इसका विस्तार प्रायदीप तथा इससे आगे श्रीलंका तक माना जाने लगा। जहाँ राम के पाँवों के निशान तथा अपने हाथों से ही स्थापित किए गए शिव मंदिर के अवशेष नजर आते हैं।
भास द्वारा रचित ‘प्रतिमा नाटक’ के अनुसार राम की अपने पिता की अंत्येष्टि कर्म न करने की निराशा के अवसर का फायदा उठाते हुए, रावण ने अंत्येष्टी नियमों में पारंगत होने का बहाना बनाकर राम को अपने पिता की आत्मा की शांति के लिए हिमालय में पाए जाने वाले सोने के हिरण समर्पित करने की सलाह दी। इस वजह से सीता कुटिया छोड़कर जा सके और वह सीता का अपहरण कर सके। गया में पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए आज भी हिन्दू लोग श्राद्ध करते हैं।
अधिकांश रामकथाओं में राम को रावण के अत्याचार से दुनिया को बचाने के लिए विष्णु के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। साहित्यिक दृष्टि से दक्षिण भारत में राम की यात्रा का अर्थ औपनिवेशवाद तथा अग्नि-पूजक, वैदिक आर्यों के धीरे-धीरे विस्तार होने की दिशाओं में संकेत है। प्रतीकात्मक रूप में जंगल का अर्थ अपालतू, डरपोक और इधर-उधर भटकने वाले मन से लिया जाता है। उसके पश्चात राम और साधुओं के पहुँचने का अर्थ मानवीय शक्तियों के उजागरण से लिया जाता है। कुछ लोग रावण को रक्ष संस्कृति के प्रवर्तक के रूप में मानते है। जिसने ऋषि संस्कृति का विरोध किया। संस्कृति में ऐसा क्या था, जिसका स्वागत और आदान-प्रदान नहीं हुआ; दोनों संस्कृतियों में आपसी टकराव के क्या कारण थे? क्या दोनों संस्कृतियाँ एक-दूसरे से स्वतन्त्र रह सकती थी अथवा उन्हें एक-दूसरे को प्रभावित करते हुए बदला जाना चाहिए था। वाल्मीकि ने रावण के पिता ऋषि तथा माता राक्षस होने के कारण इस सवाल पर बहुत ज्यादा विचार किया। राक्षसों का वर्णन अस्पष्ट है, उन्हें उग्र हथियार लिए हुए, बड़ी-बड़ी आँखों वाले, बड़े-बड़े नाखूनों वाले पंजे तथा खून से सने हुए दिखाया जाता है। कभी-कभी उन्हें बहरूपिया, तो कभी–कभी उन्हें सुंदर, संवेदनशील और सभ्य दिखाया गया है। राक्षसों को डरावने और दैत्य के रूप में दिखने के पीछे मुख्य उद्देश्य उन्हें अमानवीय बताकर उनकी हत्या करने के कारणों को न्याय-संगत सिद्ध करना है। यह ऐसा ही है कि सभ्य देश अपने युद्ध के कारणों को उचित ठहराते हैं। मानवीय मस्तिष्क में निहित जन्तु-पिपासा कभी–कभी उसके चरित्र पर हावी हो जाती है, उसे सुरक्षित स्थान प्रदान करना भी ऐसा ही है। राक्षस अगर पालतू नहीं है या उन्हें छोड़ दिया गया है, वे भी हमारे ऊपर प्रभुत्व जमाकर हमें समाप्त कर देंगे। इसीलिए उनका व्यस्त रहना अत्यंत ही अनिवार्य है।
भारत में राम-लक्ष्मण-सीता की गुफाएँ देखने को मिलती है। कई जगह तीनों गुफाएँ अलग-अलग है। अर्थ यह लगाया जाता है कि साथ रहने के बावजूद भी वे लोग अलग-अलग रहते थे। विभिन्न सूत्रों का अध्ययन करने से तरह-तरह की बातें सामने आती है कि किस तरह घुमक्कड़ बंजारा जाति एक जगह इकट्ठी होकर खेती-बाड़ी का काम करने लगी, किस तरह जंगल में रहने वाली जतियों ने गाँव और नगरों का निर्माण किया, किस तरह अग्नि-पूजक परम्पराएँ मंदिर की कथात्मक परम्पराओं में तब्दील हो गई? अमरता और परिवर्तन को स्वीकार करने के द्वन्द्व और अस्थायित्व में किस तरह मूल वैदिक अवस्थाएँ बरकरार रही। शायद इन्हीं आस्थाओं ने कर्म, काम, माया और धर्म के विचारों को जन्म दिया।
अनेक कहानियों के अनुसार राम-लक्ष्मण और सीता जंगल में जाते समय किशोरावस्था में थे। जंगल में उनका विकास हुआ। यह विकास उस समय हुआ,जब उनके दिमाग बचपन की निश्चिंतता को चुनौती दे रहे थे। और उस दौरान वे सामाजिक संरक्षण के कृत्रिम रूप को आसानी से देख सकते थे। जंगल में जानवर अथवा पेड़-पौधों ने उनके साथ कोई अलग व्यवहार नहीं किया। इसलिए कि वे राजसी घराने से संबंध रखते थे। उन्हें शिकार अथवा शिकारी के दृष्टि से ही देखा गया। यह कथानक ग्राम, क्षेत्र, उपनिवेश को वन या अरण्य से पृथक करता है। कुछ विद्वान वनगमन की घटना को मीमांसा अर्थात् आत्म-अवलोकन की दृष्टि से देखते हैं, अर्थात राजसी घराने के उन तीनों ने मीमांसा के माध्यम से अपने आप को साधुओं में बदल दिया।
राम-लक्ष्मण-सीता के नाम पर कई पोखरियों का नाम रामकुण्ड, लक्ष्मणकुण्ड, सीताकुण्ड रखा गया है, जो उनके संन्यासी जीवन का प्रतीक है कि वे कभी भी एक तलाब में नहीं नहाते थे। महाराष्ट्र के नासिक, तमिलनाडु के रामेश्वरम्, बिहार के हजारीबाग और ओड़िशा के शिमलीपाल में यह कुण्ड पृथक-पृथक देखे जा सकते हैं। पितृसत्तात्मक प्रवृतियों के विपरीत उस समय उन ब्रहमचारियों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था, जिनका नियंत्रण अपनी इंद्रियों से खत्म हो जाता था।
उद्भ्रांत जी के ‘सीता-सर्ग’ में सोने का हिरण खुशियों के अंत का प्रतीक है। युद्ध के बाद जब राम और सीता मिले तो सामाजिक प्रोपराइटी(Propriety)और फ़िडेलिटी (Fidelity)के मुददों की वजह से उनके संबंध तनाव में रहे। ओड़िशा की मिनिएचर क्लॉथ पेंटिंग(Miniature cloth painting)में दो सिर बाला हिरण दिखाया जाता है। गुजरात में रहने वाले भीलों के रामायण में भी यह बात दिखाई गई है। कई कहानीकारों को सीता द्वारा हिरण पकड़ने अथवा उसका आखेट करने का कथानक स्वीकार नहीं है। इसलिए भील रामायण (राम सीता नि वार्त्ता) में यह दिखाया गया है, दो मुखवाला सोने का हिरण सीता के बगीचे को नष्ट करता है, और उसे परेशान करता है; इसलिए राम क्रोध में आकर मारने का निश्चय करते हैं। मारीच के रूप में जो हिरण मरता है, वह तो केवल वास्तव में राम और रावण के युद्ध का निरीह शिकार है, जो अपने मालिक की खातिर प्राण-त्याग देने वाला समान्य नौकर का प्रतीक है।
सीता आज्ञाकारी लक्ष्मण को अवज्ञाकरी बनाने का भरसक प्रयास करती है। यहाँ तक कि डरकर वह उस पर झूठा दोषारोपण करती है। सीता स्त्री गुणों की पराकाष्ठा का प्रतीक है। इसलिए अधिकांश पाठक इस बात को नहीं मानते हैं। भारत की कई जातियों में आज भी उत्तर-पश्चिम और गंगा के मैदानी घाटों में विधवा भाभी की देवर के साथ शादी की जाने की रस्म है। पति के मरने के बाद उसके बच्चे को तथा विधवा महिलाओं को सहारा प्रदान करने के लिए यह परिपाटी बनाई गई होगी। लोक-संगीतों में भी दोनों के बीच काम-जन्य तनाव के उदाहरण दिये जाते हैं। बाली के मरने के बाद सुग्रीव द्वारा तारा को अपनी पत्नी बनाने तथा रावण के मरने के बाद विभीषण द्वारा मन्दोदरी को अपनी पत्नी बनाने का उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि रामायण में कहीं पर भी लक्ष्मण रेखा का उल्लेख नहीं है। वाल्मीकि रामायण के हजारों साल बाद तेलगु और बंगाली रामायण में इसका उल्लेख आता है। अनेक शुरुआती संस्कृत नाटकों में सीता के अपहरण में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता। बद्द रेड्डी की तेलुगू ‘रंगनाथ रामायण’ में लक्ष्मण सीता की झोंपड़ी के सामने भूमि पर सात रेखाएँ खींचता है, एक नहीं। जैसे-जैसे रावण इन रेखाओं को पार करता है, वैसे-वैसे आग निकलती जाती है। वाल्मीकि रामायण में इस बात में कोई संदेह नहीं है कि रावण ने सीता को हाथ से पकड़कर खींचा था, जबकि परवर्ती हजारों सालों के क्षेत्रीय संस्करणों में रावण सीता को स्पर्श नहीं करता है। ‘कम्बन’ रामायण में वह उसे झोंपड़ी समेत लंका ले जाता है। यह विचारधारा मध्ययुग में प्रकट हुई कि भारतीय समाज में स्पर्श से प्रदूषण अथवा व्यभिचारी प्रवृतियाँ बढ़ती है। दक्षिण भारतीय कहानियों के अनुसार रावण सीता का एक प्रेमी था। राम सभ्य, वफादार और मर्यादा में रहनेवाला प्रेमी था, जबकि रावण भाव-प्रवण और अमर्यादित, जो किसी भी हालत में इन्कार को स्वीकार नहीं कर सकता था।
नवीं शताब्दी के शक्ति भद्र द्वारा रचित संस्कृत नाटक ‘आचार्य चूड़ामणि’ में राम और सीता को साधुओं द्वारा उपहार दिये जाते हैं, राम को अंगूठी और सीता को हेयर पिन (hair pin)। ये जेवर कुछ खास होते हैं। जब तक वे लोग इसे पहने रहेंगे,तब तक कोई भी दानवीय शक्ति उन्हें स्पर्श नहीं कर सकती। यहाँ तक कि राक्षसों के मायाजाल का पर्दाफाश करती है। नाटक में रावण सीता के पास साधु के वेश में न आकर, रथ पर राम के रूप में आरूढ़ होकर आता है। जिसका सारथी लक्ष्मण होता है और वह सीता से कहता है कि दुश्मनों की सेना ने अयोध्या पर आक्रमण किया है। सीता यह विश्वास कर रथ पर चढ़ती है। रावण हेयर पिन के डर से उसे स्पर्श नहीं करता है। मगर जब सीता उसे स्पर्श करती है, तो रावण अपने वास्तविक रूप में प्रकट होता है। इसी तरह शूर्पणखा राम को सीता के रूप में मिलती है और अंगूठी की वजह से स्पर्श नहीं करती है। मगर जब राम उसे स्पर्श करता है, तो वह अपने मायावी रूप में प्रकट हो जाती है। कहानी कहती है, राम के जीवन पर आधारित शक्ति भद्र का यह नाटक जब वेदान्त ज्ञाता शंकर को समीक्षा के लिए दिया जाता है, मगर जब वह उस पर कोई टिप्पणी नहीं करते हैं तो वह इस नाटक जला देते हैं। बाद में जब शंकर उस कार्य की तारीफ करते हैं तो शक्ति भद्र को अपने किए पर पश्चाताप होता है। रावण के रथ या कुबेर के रथ को पुष्पक विमान कहा जाता है। जिससे यह विश्वास किया जाता है कि प्राचीन भारतीयों को सर्वोत्कृष्ट तकनीकी उपलब्ध थी। इस बात को इंगित करते हैं। सिंहल देश में रावण के रथ को दानदु मोनारा (dandu monara) कहते हैं, जिसका अर्थ होता है उड़ने वाला मोर, श्रीलंका में वेरागंतन (weragantotan)(महियांगन से 10 कि॰मी. दूर) रावण का एयरपोर्ट है।
सीता का अपहरण वनवास के अंतिम वर्ष में हुआ था। महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के तट पर नासिक के नजदीक पंचवटी से सीता का अपहरण हुआ था। संस्कृत और प्राकृत भाषा में “नासिका” का अर्थ नाक होता है, जो शूर्पणखा के नाक काटने की घटना पर आधारित है। हेयर पिन या चूड़ामणि स्त्रियों द्वारा बालों में लगाया जाने वाला जेवर होता है। खुले बाल प्रतीकात्मक रूप से आजादी तथा जंगलीपन का प्रतीक है। जबकि बंधे हुए बाल बंधन एवं संस्कृति का प्रतीक है। महाभारत में द्रौपदी के खुले बाल सभ्य, आचरण के खत्म होने का संकेत करते हैं।
भारतीय दर्शन आदमी और उसके आधिपत्य की सामग्री को पृथक करता है। हमारे अपने विचार हैं और हमारी अपनी वस्तुएँ हैं। राम अपने विचारों से शक्ति पाते हैं, जबकि रावण अपने सामानों से शक्ति खोजते हैं। रावण के पास ज्ञान है, वह समझदार हो सकता है, मगर बुद्धिमान नहीं। रावण के माध्यम से लोक-गीतों में यह ध्यान आकर्षण किया गया है कि भले ही आप अच्छी तरह से मंत्र उच्चारण कर सकते हैं, मगर उनका अर्थ समझकर अपने आपको बदल नहीं सकते है। सीता रेणुका नहीं है, जो कार्त्तवीर्य की इच्छा करती हो, न ही वह अहिल्या है, जो इन्द्र की जालसाजी में फँसती हो। उसे राम के प्यार पर पूरा भरोसा है। रामायण यह सवाल पूछती है, प्यार क्या है? क्या यह आसक्ति है? क्या यह नियंत्रण है? क्या प्यार बदला जा सकता है? क्या प्यार को खास होना चाहिए? क्या यह शारीरिक, बौद्धिक या संवेदनशील होता है? क्या राम की चुप्पी या रावण का बड़बोलापन प्यार का प्रतीक है। रामायण के खलनायक रावण की कई पत्नियाँ हैं। अगले जन्म में जब राम, कृष्ण बनते हैं तो उनकी भी अनेकों पत्नियाँ होती हैं। कृष्ण का प्यार और रावण का प्यार अलग–अलग है। रावण का प्यार वासना, अधिकार और नियंत्रण का प्रतीक है, जबकि कृष्ण का प्यार स्नेह, समझ और स्वतन्त्रता का प्रतीक है। अधिकांश पाठक रामायण की कहानी पढ़ते समय सीता के विपरीत “स्टॉकहोम सिंड्रोम ” (falling in love with one’s captors) के शिकार हो जाते हैं और रावण के गुणों की तारीफ करना शुरू कर देते है, भले ही वह किसी औरत को अपने घर में जबरदस्ती खींचकर लाता हो और जबरदस्ती बंधक बनाता हो। कुछ विद्वानों के अनुसार “नाक काटना” एक मुहावरा है, जिसका अर्थ होता है, किसी की इज्जत का मटियामेट करना। जब सुपर्नखा की नाक काटी गई तो रावण रघुवंश के परिवार की मर्यादा का प्रतीक सीता का हरण कर राम की नाक काटना चाह रहा था। सीता का शारीरिक शोषण हुआ हो या नहीं, मगर राम की इज्जत को दाग अवश्य लग गया था। आधुनिक समय में भी इज्जत के गहरे संस्कार औरतों के प्रति हिंसा व दमन को उचित ठहराने में किए जाते हैं।
सीता के अपहरण और हनुमान के अशोक वाटिका में पहुँचने तक कम से कम एक ‘वर्षा ऋतु’ का अंतर है। बारिश से पहले गर्मियों में सीता का अपहरण हुआ था और राम ने बारिश के बाद दशहरे के त्यौहार (Autumn) में रावण से युद्ध किया। सीता और हनुमान का मिलना भी कई तरीके से दिखाया गया है। वाल्मीकि रामायण में रावण द्वारा सीता को उसे स्वीकार न करने पर रावण द्वारा मारने की धमकी पर हनुमान का आगमन, तेलगु रामायण में सीता द्वारा अत्महत्या करते समय, मराठी रामायण में राम के नाम का उच्चारण करते समय तथा ओड़िआ रामायण में हनुमान द्वारा उसके प्रहरियों के सो जाने पर अँगूठी फेंक कर उसका ध्यान आकर्षित कर मिलने का उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि रामायण में हनुमान सोचते हैं कि वे सीता से देव वाचन (देवताओं की भाषा) अर्थात् संस्कृत अथवा मनुष्य वाचन (मनुष्यों की भाषा) अर्थात् प्राकृत (कोई-कोई तमिल कहते है) भाषा में बात करें, मगर एक बंदर को ये भाषाएँ बोलते सुनकर सीता को आश्चर्य होगा। वाल्मीकि की कहानियों में राम की दिव्यता को अलग रखा गया है। राम को अपनी दिव्यता का ज्ञान है, मगर वह पृष्ठभूमि में है। जैसे-जैसे शताब्दियाँ पार होती जाती है, वैसे-वैसे राम की दिव्यता सामने आने लगती है और उनका नाम एक मंत्र बन जाता है। राम विष्णु से जुड़ने लगते हैं, हनुमान शिव के साथ या तो रुद्र अवतार बनकर या फिर उनके पुत्र के रूप में और सीता देवी बनती चली जाती है। इस तरह रामायण में हिंदुओं की तीनों मुख्य शाखाओं- शैव, वैष्णव और शाक्त संप्रदायों का सम्मिश्रण हो जाता है। संस्कृत के हनुमान नाटक में रुद्र के ग्यारह रूप बताए गए हैं, जिसमें से दस रुद्र रावण के दस सिरों की रक्षा करते है। जबकि ग्यारहवाँ हनुमान के रूप में अवतरित होता है। राम नाम से अंकित मुद्रिका जो सीता को हनुमान जी देते है, उसमें राम का नाम क्या संस्कृत, हिन्दी, मराठी अथवा गुजराती में लिखा हुआ था? मुद्रिका पर लिखा हुआ राम का नाम आज भी विद्वानों को राम के समय में प्रचलित लेखन की पद्धति के प्रयोग की और ध्यानाकृष्ट करती है। यह कथा दांडी (गलियाँ) में गाई जाती है, संस्कृत को चाहने वाले पण्डितों के भय से,आम आदमी को खुश करने के लिए। तुलसीदास के रामचरित मानस पढ़ने के उपरान्त 19वीं और 20वी’ सदी में शंकाओं का समाधान करने के लिए लिखी गई विशेष पुस्तक “शंकावली” के अनुसार वह अंगूठी वास्तव में सीता की थी जो उसने केवट (गुहा) को देने के लिए राम को दी थी। मगर गुहा ने स्वीकार नहीं की, इसलिए राम के पास रह गई थी।
राम का दुःख उनके व्यक्तिगत जीवन की झाँकी है। जब तक कि वह सामाजिक, मर्यादा और शाही आभिजात्य (stoicism) को व्यक्तिगत रूप से देखते हैं। जब बुद्धि लड़खड़ाने लगती है और भावुकता आने लगती है, लक्ष्मण भी उन्हें अपनी भावनाओं के अनुचित प्रदर्शन के लिए फटकारते हैं। कहीं-कहीं इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि शिवजी की इच्छा के विरुद्ध पार्वती सीता का रूप धारण कर राम के दुख को कम करने के लिए उनसे मिलती है। मगर वह राम को मूर्ख नहीं बना पाती, राम उसे देवी के रूप में पहचान लेते हैं और उसे प्रणाम करते हैं। महाराष्ट्र की पौराणिक गाथा तूलजा भवानी का यह अंश है। तुलसीदास जी इसी कहानी को अपने संस्करण में लिखते हैं कि शक्ति द्वारा राम की दिव्यता को पहचानने में विफल होने पर वह उसकी सती दाह के रूप में परीक्षा लेना चाहते हैं। रामायण में कैकेयी, राम, लक्ष्मण और सीता सामाजिक निश्चिंतता के अंत, अस्तित्व से जुड़े भाव तथा wilderness से घिरे हुए प्रतीक हैं,जिसे तंत्र में मूलाधर चक्र से प्रकट किया गया है। तंत्र की भाषा में हिरण का यहाँ अर्थ लोभ, मोह, माया से ऊपर उठना है,उसके बाद विरोध,सूपर्नखा,अयोमुखी आदि की यौन-इच्छा स्वाधिष्ठान चक्र, कबन्ध की भूख मणिपुर चक्र, रावण की भावुक आवश्यकताएँ अनाहत चक्र, हनुमान संवाद विशुद्धि चक्र, जिससे अंतरात्मा की रोशनी, आत्म-चेतना का विकास होता है, और विभीषण का सहयोग आज्ञाचक्र तथा अंत में बुद्धि की सहस्र पदमचक्र पर पुष्पवृष्टि होती है। कई बार यह भी सवाल उठता है कि राम शाही परिधान तथा जेवरों का त्याग कर वनवासी हो गए थे, तब उनके पास सोने की अंगूठी कहाँ से आई? इसी तरह वानर को वा+नर अथवा वन+नर के रूप में पढ़ा जा सकता है, जिसका अर्थ होता है नर से कम अथवा वन में रहने वाले नर। वाल्मीकि कपि शब्द का भी प्रयोग करते है,शायद प्रतीकात्मक रूप से बंदर गोत्र की जंगली जातियाँ। मगर उनकी पूँछ के बारे में रहस्य नहीं खुलता है। जैन रामायण बोलने वाले बंदर की जतियों के होने से इन्कार करती हैं। विमल सूरी हनुमान को विद्याधर कहते हैं। शायद ये वे विशेष जातियाँ है,जो अपनी ध्वजाओं पर बंदरों का चिह्न रखते हैं। पुराणो में सभी सजीव प्राणियों का प्रादुर्भाव ब्रह्मा से हुआ है। जिनकी कोई पत्नी नहीं है, मगर उनके मानस पुत्रों की पत्नियाँ होती हैं। प्रत्येक पुत्र विभिन्न प्रजातियों का जनक है। इस तरह आसानी से विभिन्न प्रजातियों जैसे मछली, पक्षी, सर्प, मनुष्य, celestials being, subterranean being, आदि आदि। अलग-अलग तरीकों से सोचने के कारण मनुष्य को भी अलग-अलग विभाग में रखा जाता है। जो मनुष्य अधिकार अनुभव करते हैं (देवता), जो मनुष्य trick प्रयोग में लाते हैं (असुर), जो मनुष्य पकड़ते हैं (राक्षस), जो मनुष्य संग्रह करते हैं (यक्ष) और जो मनुष्य कला-प्रेमी होते हैं (बंदर) आदि। वानर किष्किन्धा में रहते हैं जो वर्तमान में कर्नाटक और आन्ध्रप्रदेश के प्रान्तों के रूप में जाना जाता है। आर्यावर्त्त में मनुष्य रहते हैं और लंका में राक्षस। किष्किन्धा की कल्पना भौगोलिक जगह होने की तुलना में मानो वैज्ञानिक ज्यादा है। लंका की जातियों में हनुमान के द्वारा सीता की खोज के पीछे वाल्मीकि का उद्देश्य है, राक्षसों के घर पर पाठकों की दृष्टि को आकृष्ट करना। वे कभी मनुष्य की तरह लगते हैं, तो कभी दानवों की तरह, कभी दुर्दान्त, तो कभी पालतू। एक तरफ संवेदना पैदा करना, तो दूसरी तरफ भय की सृष्टि करना। वाल्मीकि का बिस्तर पर रावण का कई स्त्रियों के साथ दिखाया जाना उत्तेजना-प्रद है। इच्छा और संतुष्टि के अलग-अलग स्तर पर दिखाया गया है। कई स्त्रियों ने अपने पति को छोड़ दिया है, ताकि रावण के द्वारा आनन्द प्राप्त कर सके। इन दृश्यों से हनुमान का मुँह फेरना, उनकी सन्यासी प्रवृति को दर्शाता है। कीर्तिवास रामायण से हनुमान को एक ऐसा घर मिलता है, जहाँ राम का उच्चारण होता है। बाद में पता चलता है, वह रावण के भाई विभीषण का घर है। मराठी में “लंकेछी पार्वती” का अर्थ उस धनवान स्त्री से होता है जो कभी गहने नहीं पहनती है। साज-शृंगार करने का अर्थ स्त्री की अप्रसन्नता है। सीता ने कोई गहने नहीं पहने थे। तथापि वह सोने के शहर में बैठी थी, जो उसके मन की दुखी अवस्था का प्रतीक है। हनुमान के द्वारा रावण से मिलकर राम का संदेश पहुँचाने तथा उसके लोगों को डराने का अर्थ एक मुक्त आत्मा से लिया जाता है, जो किसी के आदेश का इंतजार नहीं करती। कई लोक कथाओं में राम, हनुमान द्वारा लंका में किए गए तहस-नहस की निंदा करते हैं। मगर अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ के क्या यही वह कार्य है जिसकी प्रशंसा नहीं की गई अथवा बिना अनुमति के हनुमान ने इस कार्य को अंजाम दिया। रंगनाथ रामायण में सीता हनुमान को एक बाजू-बंध प्रदान करती है ताकि वह लंका के बाजार से फल खरीद सके। मगर हनुमान कहते हैं, दूसरों के तोड़े गए फलों को मैं नहीं खाता। अपने नगर में रावण को पहली बार अपनी हार का आभास होता है। उसका पुत्र अक्षय अपने पिता की संपति की रक्षा करते हुए मारा जाता है। वह कोई खलनायक नहीं था। शहीद घोषित किया जाता है। इस तरह नायक और खलनायक के बीच धुंधली रेखा स्पष्ट नहीं होती है।
रामसेतु बनाते समय हनुमान ने राम का नाम किस शैली में लिखा; वाल्मीकि के समय में शायद लिखने की पद्धति का विकास नहीं हुआ था। सारे साहित्य मौखिक या श्रुतियों पर आधारित थे। खरोष्टी और ब्राह्मी लिपि बहुत बाद में आई। शारदा लिपि कश्मीर में कभी लोकप्रिय हुई थी और सिद्धाम(siddham)लिपि आज भी तिब्बत में चलती है। 12वीं शताब्दी के बाद में देवनागरी लिपि का विकास हुआ। जबकि हनुमान को देवनागरी लिपि में लिखते हुए दर्शाया जाता है। रामसेतु रामेश्वर से श्रीलंका के मन्नार टापू तक लाइमस्टोन की चट्टानों (limestone shoals) से बना हुआ है। हिंदुओं का मानना है कि बंदरों ने इस पुल का निर्माण किया था। मगर श्रीलंका के इतिहास-विज्ञ इस बात को नहीं मानते। आज के जमाने में इस प्राकृतिक बैरियर को सामरिक गतिविधियों के लिए तोड़ने की भी बात चल रही है। इस योजना के कई पक्ष में है तो कई विपक्ष में हैं। कई लोग इसे ऐतिहासिक मोनूमेंट मानते हैं तो कोई इसे प्राकृतिक परिस्थिति संवेदी स्थल मानकर किसी भी कीमत पर उसे बचाए रखने की आवाज उठाते हैं। बलराम दस ने जगमोहन रामायण लिखी थी जिसे दाण्डी रामायण के रूप में भी माना जाता है।
(क्रमशः अगले भाग में जारी...)
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