भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल भाग 5 दिनेश कुमार माली -- चौदहवाँ सर्ग शान्ता: स्त्री विमर्श की करु...
उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल
भाग 5
दिनेश कुमार माली
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चौदहवाँ सर्ग
शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
शान्ता महाराजा दशरथ की एक मात्र पुत्री थी और राम कथा में वह सदैव उपेक्षित रही है। यहाँ तक कि रघुवंश में कालिदास तथा वाल्मीकि ने भी अपने काव्य में संस्पर्श तक नहीं किया। कौशल्या की इस पुत्री ने महाराजा दशरथ के चेहरे पर चिंता की रेखा खींच दी थी, और धीरे–धीरे जैसे दशरथ की उम्र बढ़ती जा रही थी और वह अपने राज्य के उत्तराधिकार के लिए चिंतित रहने लगी। वैसे-वैसे शान्ता जैसी पुत्री को जन्म देने वाली माँ कौशल्या का अनुराग तिरोहित होते हुए पहले उपेक्षा फिर ठंडेपन में बदलता गया। कवि उद्भ्रांत की इस सोच ने गौरवशाली रघुकुल में ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’’ जैसे शास्त्रीय वचनों पर प्रश्नवाचक चिह्न खड़ा कर दिया। माँ कौशल्या ने पुत्री को जन्म देकर क्या ऐसा कोई अपराध कर दिया कि महाराज का सारा ध्यान कौशल्या से हटकर कैकेयी की रूप पिपासा पर केन्द्रित हो गया। कौशल्या धीरे-धीरे अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए, आँसुओं को पत्थर बनाते हुए ईश्वर आराधना में लीन रहने लगी। कवि उद्भ्रांत शान्ता के माध्यम से यह कहलवाना चाहते हैं “तत्कालीन राजवंश की पुरुष परंपरा के निर्मम हाथों में कौशल्या का शोषण हुआ और शान्ता का बचपन असहाय हो गया। पितृत्व की ओछी लालसा के राज सिंहासन पर शान्ता के जन्म के बाद न तो कभी मंगल गीत गाये गए और न ही राजमहल में कोई चहल-पहल, चारों तरफ केवल सन्नाटा ही सन्नाटा। दशरथ ने आपातकालीन बैठक बुलाकर कन्या जन्म की बदनामी से मुक्ति पाने के लिए, मुझ जैसी नवजात बालिका को दूर कहीं वन में छोड़ने अथवा सरयू की धारा में बहा देने अथवा मेरी अविलम्ब हत्या की अनेकानेक कर्कश ध्वनियाँ फूटने लगीं। दशरथ परम प्रतापी न होकर कायर व नपुंसक थे, लेकिन दुःख तो इस बात का भी है, तत्कालीन समाज के बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि प्रतिष्ठितगण रघुकुल के गुरु महामुनि वशिष्ठ, विश्वामित्र सभी ने उनके पक्ष में कोई आवाज नहीं उठाई। तब उसे ऐसा लगा कि मुझ जैसी नन्हीं बच्ची के अस्तित्व से घबराकर बड़े-बड़े वीर दार्शनिक चिंतक, ऋषि-महर्षि सभी ने एकजुट हो कर मेरे खिलाफ महायुद्ध का शंखनाद कर दिया हो। उस सभा में पुत्रेष्टि यज्ञ (पुत्र की कामना वाले यज्ञ के आयोजन) करने का सर्व सम्मति से निर्णय लिया गया और पुत्री जन्म के अमंगल सूचक अपशकुन मिटाने के लिए यथेष्ट दक्षिणा और दान करने का भी तय किया गया। ”
कवि उद्भ्रांत ने इस सर्ग में पुत्रेष्टी यज्ञ की सार्थकता पर संदेह प्रकट करते हुए अपनी जिज्ञासा हेतु पुत्रिष्टी यज्ञ के उद्देश्य पर भी शंका जाहिर की है कि महाराज दशरथ जैसे धनाढ्य और समृद्ध राजा क्या पुत्री वाले यज्ञ से डर गए थे और अपनी पुत्री शान्ता का विवाह वृद्ध श्रुंगी ऋषि के साथ बचपन में ही कर उसे बालिका वधू बना दिया। उसके खेलने, कूदने, पढ़ने-लिखने की इच्छाओं का ख्याल किए बिना। “मनु स्मृति” की संहिताओं ने मानो धरती माँ के कर्ण विवरों को पिघला शीशा डालकर बंद कर दिया हो। शायद इसी कारण दशरथ की पुत्री की प्रकृति पूरी तरह से शान्त हो गई और “शांताकारम् भुजग-शयनम” के अनुरूप उसका नाम ही सार्थक कर दिया। शान्ता की आत्मा को इस बात का अभी भी दुख होगा कि उसके पिता ने उसकी उपेक्षा कर पुत्रेष्टि यज्ञ के माध्यम से तीन रानियों के द्वारा चार छोटे-छोटे राजकुमारों को जन्म दिया। मगर आज भी शान्ता समाज के समक्ष परोक्ष-अपरोक्ष रूप में चेतन-अवचेतन मन पर कई सवाल उठा रही है।
देवदत्त पट्टनायक की पुस्तक “सीता रामायण” के अनुसार जब राम दंडक अरण्य में जाते हैं तो राम लक्ष्मण की मुलाक़ात एक सुन्दर-स्त्री से होती है। उस समय वह अपना परिचय देते हुए यह कहती है, “मैं राम की बड़ी बहन शान्ता हूँ” और सीता को समझाते हुए कहने लगती है,“अपने पति के साथ जंगल में जाने का निर्णय उत्तम है; मगर एक वधू के रूप में जंगल में वनभ्रमण करना ठीक नहीं है, वह भी दो सुन्दर पुरुषों के साथ। क्योंकि दोनों में से कोई भी तुम्हारी तरफ नहीं देखेगा, एक इसलिए कि वह संन्यासी है और दूसरा इसलिए कि तुम्हारे पति का भाई है। तुम्हारे चारों तरफ केवल चिड़ियों की चहचाहट, सर्पों की फुफकार, मेढ़कों की टर्रटर्र और जंगली जानवरों की दहाड़ मिलेगी। उस समय तुम अपने आपको किस तरह काबू कर पाओगी और वह भी उस अवस्था में जब, राक्षस जिनके लिए सतीत्व का कोई अर्थ नहीं है तथा अपने जंगल-जिसकी कोई सीमा नहीं है। ” सीता शान्ता की यह सारी बात नहीं समझ पाई कि वह सब रोमांटिक कहानियों और प्रेम-संगीत के बारे में बता रही है। यह सोचकर शान्ता ने उसे बताया “तुम अभी जवान हो और तुम्हारा शरीर लगातार बदल रहा है, मैं एक चीज का अनुभव कर रही हूँ; तुम भी अनुभव करोगी कि तुम्हारा जंगल में कदम रखना अपने आप में एक वरदान है। तुम वास्तव में इस धरती की पुत्री हो। ”
देवदत्त पटनायक के अनुसार सीता और शांता के वार्तालाप दक्षिण भारत की लोक कथाओं में मिलते हैं। तमिल मंदिरों में तथा श्री वैष्णव परंपराओं के अनुसार सीता और राम सोते समय बीच में धनुष रखते थे। जो उनके ब्रहमचर्य पूर्वक जीवन जीने का प्रतीक था। यही नहीं, वनवास के पूर्व और वनवास के दौरान राम और सीता में शारीरिक संबंध बनने की धारणा को माना जाता है। वास्तव में संस्कृत नाटकों में यह दर्शाया गया है। मगर उन शारीरिक संबंधों में कोई पुत्र प्राप्ति नहीं हुई, जबकि दोनों की युवा अवस्था में असंभव प्रतीत होता है। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि दोनों ने ब्रह्मचर्य पूर्वक जीवन बिताने का निर्णय लिया था, राम ने संन्यासी के रूप में और सीता ने संन्यासी की पत्नी के रूप में।
देवदत्त पटनायक की पुस्तक “द बुक. ऑफ. राम” (The Book of Ram) के “दशरथ पुत्र” अध्याय में लिखा है कि वाल्मीकि रामायण में शांता की कहानियों में इस संदर्भ में कुछ जानकारी अवश्य मिलती है। विभाण्डक ऋषि तथा उर्वशी के पुत्र “ऋषि शृंगी का अभिशाप”- ऋषि शृंगी ने बादलों से अपने आपके भींगने पर नाराज होकर अभिशाप दे दिया कि वे ज्यादा बारिश न कर सके, ताकि उनकी तपस्या में किसी भी प्रकार का विध्न न पड़े, और उन्हें सिद्धियाँ प्राप्त हो सके। ऋषि शृंगी के इस अभिशाप से मुक्ति पाने का एक ही इलाज था, उनकी शादी कर देना। देवताओं ने स्थानीय राजा लोमपद (Lompada/Rompada) अंग देश के महाराज तथा भट का नामक वेर्शिनी (vershini) से कहा- जब तक उन्हें स्त्रियों का ज्ञान नहीं होगा तब तक अकाल पड़ता होगा। मगर लोमपद की कोई पुत्री नहीं थी, जो सन्यासी को गृहस्थ बना सके। इसीलिए उन्होंने राजा दशरथ की पुत्री शान्ता को गोद लेने की अनुमति प्रदान की। ऋषि शृंगी को पति के रूप में स्वीकार कर अकाल की समस्या से सामाधान पाया गया और लोमपद के राज्य में फिर से बारिश होने लगी। शान्ता और शृंगी की यह कहानी रामायण को गृहस्थ लोगों के काव्य में बदलता है, जहाँ दुनिया प्रति पल बदल रही है और अनित्यताओं से भरी हुई है, वहाँ उन चीजों से भागना या दुनिया का परित्याग करना खतरनाक और विनाशकारी साबित हो सकता है। इसीलिए जब ऋषि शृंगी पति के रूप में शान्ता को गले लगाते हैं, तो बारिश होती है और पृथ्वी खिलखिला उठती है। स्टार प्लस (star plus) पर दिखाया जा रहे टी॰वी सिरियल ‘सिया के राम’ (Siya ke Ram) के अनुसार शान्ता अपने जैविक माता-पिता के साथ रहती थी। मगर स्वेच्छा से राजमहल और अपने माता-पिता को त्याग कर ऋषि शृंगी से शादी करने के लिए चली गई। क्योंकि मात्र यही एक तरीका था जिसकी वजह से उसके पिता दशरथ को पुत्रों की प्राप्ति हो सकती थी। शान्ता और ऋषि शृंगी के वंशज सेंगर (Senger) राजपूत हैं। मात्र ऐसे राजपूत हैं जो ऋषिवंशी राजपूत हैं। शान्ता वेद, कला और शिल्प में सिद्धहस्त थी और अपने जमाने की बहुत ही खूबसूरत स्त्री थी। शान्ता का ऋषि शृंगी से शादी करने का मुख्य उद्देश्य अपने पिता की वंशावली में बढ़ोत्तरी करना था। ऋषि शृंगी ने अपने ससुर दशरथ के यहाँ पुत्र-कामेष्टि यज्ञ कर उनके वंश को आगे बढ़ाया और दशरथ के राम, भरत और जुड़वा लक्ष्मण और शत्रुघ्न पैदा हुए। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले से पचास किलोमीटर दूर पर ऋषि शृंगी का एक मंदिर है जिसमें ऋषि शृंगी की पूजा देवी शांता के साथ होती है। डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित के अनुसार त्रेता के कवि की सूझबूझ ने इस बात को लक्षित करके शान्ता के चरित्र का मौलिक गठन किया है और उसके माध्यम से नारी विमर्श से जुड़ी समस्यओं को काव्य में अंतर्निविष्ट कर लिया है। शान्ता का जीवन और मनोस्थिति रामकथा की अन्य राजकन्याओं से पूरी तरह भिन्न है। किसी के साथ वह घटित नहीं हुआ, जो शान्ता के साथ उसके जन्म लेते ही हुआ। कन्या जन्म आज भी एक समस्या है। भ्रूण हत्या, जन्म लेते ही परित्याग या हत्या, पराया धन मानकर कन्या की उपेक्षा, पुत्र की तुलना में उसे हीन मानना, उसकी शिक्षा का समुचित प्रबंध न करना, उसे बोझ समझना, उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं की संपूर्ति न कर उनका दमन करना आदि अनेक स्थितियाँ हैं, जो समाज के सामने कठिनइयाँ उपस्थित कर रही हैं। शान्ता का जीवन घनीभूत पीड़ा का जीवन है। सारी आपदाएँ-समस्याएँ जैसे उसी के भाग्य में लिख दी गई हैं। इसीलिए कवि उद्भ्रांत शान्ता सर्ग के माध्यम से कहलवाता है:- “शान्ता मैं महाराजाधिराज दशरथ की पुत्री एकमात्र / अकथ मेरे जीवन की कथा / ...कोई मुझे जानता तक नहीं / पहचानने की बात क्या करूँ में ! ” जैसे अवसादपूर्ण शब्दों से शुरू करती है। और मानती है कि “रघुकुल जैसे / गौरवशाली कुल में / जन्म लेकर भी / मैं रही अभागी ही। ”
शान्ता का अभाग्य यह तो है ही कि, “मेरे नाम को / मेरे काम को, नहीं मिला - किसी वाल्मीकि की तूलिका का / सामान्य संस्पर्श तक। ” (और शान्ता से ऐसा कहलाकर कवि उसे विषाद की व्यंजना के साथ-साथ वाल्मीकि से अपनी स्पर्द्धा की व्यंजना भी करता दिखाई देता है, उसके व्यथा के और भी अनेक कारण हैं। अन्यान्य कारणों में से पहला कारण है, उसके जन्म होते ही रघुवंशियों के मुखमंडल का निस्तेज और महाराज दशरथ के मुख का विवर्ण हो जाना / उनके मस्तक पर चिंता की रेखाएँ खिंच गईं / नंगी तलवार-सी / उत्तराधिकारी न पाने के कारण माँ का तिरस्कार भी हुआ- “महारानी कौशल्या के प्रति/ उनका अनुराग हुआ / तिरोहित / उसमें स्थान लिया शनैः-शनैः / उनकी उपेक्षा का” और वह अपेक्षा भी उनके प्रति ठंडेपन (coldness of behaviour) में बदलती चली गई। चोट खाई हुई शान्ता एक आधुनिका के समान प्रश्न पूछती है।
“माँ कौशल्या का दोष क्या था – / जो जन्म दिया / उन्होंने एक पुत्री को / महाराज भी / कारक थे / मेरे इस अभागे जन्म के। ” और शायद शांता ही नहीं, स्वयं कवि भी इसके औचित्य को प्रश्न चिहनांकित करता है :-
“पुत्री के प्रति ऐसा / भाव उपेक्षा का,
क्या था अनुकूल / गौरवशाली रघुकुल में?”
आश्चर्य नहीं यदि कोई पाठक भी कवि से यही जानना चाहे। कवि उद्भ्रांत ने शान्ता के इस प्रश्न को सांस्कृतिक स्तर पर जोड़कर उसे महार्घता प्रदान करते हुए कहा है:-
“महाराज पुरखों के / शास्त्रवचनों को - / कर गए थे क्यों विस्मृत / यत्र नार्यस्तु पुजन्ते / रमन्ते तत्र देवताः। ”
उनके राजसी चिंतन में / न आया क्यों ऐसे भाव की - /
नारी का अस्तित्व नहीं होता तो / महाराज स्वायंभुव मनु कैसे /
करते प्रारंभ / मानुषों से भरी / सृष्टि का। ”
और वे फिर शान्ता के साथ पुत्री-जन्म की दोषी मानी जाने वाली माता (कौशल्या) की इस नियति को लेकर चिंतित हो गए है कि पुरुष उसे दंडित करने के अभिप्राय से किस तरह रूप-सौंदर्यशालिनी सपत्नी के प्रति समर्पित हो जाता है! जैसे मानो – “उन्हें दंडित करने को संभवतः/महाराज दशरथ ने अपना चित्त केंद्रित कर दिया/माँ कैकेयी के/दिये की लौ जैसे/तप्त रूप पर! ” पुत्री-जन्म की प्रतिक्रिया इतनी ही नहीं हुई, बल्कि और भी भीषण प्रतिक्रियाओं का जैसे दौर ही चल पड़ा। कौशल्या ने अपने मन को नियंत्रित करके भगवदाराधना में लीन कर दिया। अश्रु पी लिए और मौन हो गई- नितांत निरीह और असहाय। जन्म पर मंगल विधाएँ तो हुई ही नहीं थी, राजदरबार से लेकर अयोध्या की गलियों तक, ‘शोकाकुल सन्नाटा’ पसर गया। महाराज ने मंत्रिमंडल की एक आपात बैठक बुला डाली। “जैसे राज्य पर / अनायास लगे मंडराने / कोई भयानक संकट / कोई महामारी फैल गई हो या -/ किसी प्रबल शत्रु ने / आक्रमण कर दिया हो अचानक / और घेर लिया हो समूचा राज्य! ”
मंत्रिमंडल की उस बैठक में “कन्या के जन्म से जो बदनामी मिली। महाप्रतापी रघुवंशी को- / उसे दूर करने हेतु / किसी ने अस्पष्ट स्वरों में / यह कहा फुसफुसाते हुए -/ नवजात बालिका को / दूर कहीं वन में छोड़ दें अथवा / सरयू की धारा में बहा दे। ”
महाराज दशरथ ‘कायर और नपुंसक’ की भांति देखते-सुनते रहे। रघुकुल गुरु महामुनि वशिष्ठ ने प्रतिद्वंदी महामुनि विश्वमित्र की उपस्थिति के कारण ‘कूटनीति के तहत’ मौन धरण कर लिया, मानो स्वीकृति दे रहे हों। उस काल में सोनोग्राफी की सुविधा भले ही नहीं थी, किन्तु ‘दिव्य-ज्ञान-चक्षु’ तो संभव थे। यदि उन ‘दिव्य-ज्ञान-चक्षुओं’ से जन्म के पूर्व ही उस बच्ची को देख लिया गया होता तो जन्म से पूर्व ही उसका दुखद अंत भी सुनिश्चित था। इस प्रसंग को कवि ने इतनी सूक्ष्मता से वर्णित किया है और आधुनिक स्थितियों को इस तरह उस काल पर आरोपित किया है कि पाठक का चित्त आकुल-व्याकुल हुए बिना नहीं रह सकता। आधुनिक तंत्र-ज्ञान सोनोग्राफी की जगह दिव्य चक्षुओं का बहाना भी उसे तत्काल मिल गया, किन्तु पाठक यह प्रश्न पूछे बिना शायद नहीं रह सकता कि प्रतापी रघुवंश पर इतनी बढ़ा-चढ़ाकर यह तोहमत क्यों लगाई जा रही है; जबकि कन्याएँ तो और राजाओं के यहाँ भी पैदा हुईं, पली-बढ़ी। महाराज चाहते तो पुत्री के जन्म होते ही उसे मृतक घोषित कराकर, कहीं दबा-फेंककर छुट्टी पा सकते थे। उसके लिए (आपात) मंत्रिमण्डल की बैठक बुलाने की क्या आवश्यकता थी? उतराधिकारी के लिए पुत्र-जन्म काम्य था, तो कुछ अनहोना नहीं था। उसके लिए विचार किया जा सकता था। कन्या की हत्या में बड़े-बड़े वीर, दार्शनिक, चिंतक, ऋषि-महर्षि और स्वयं ‘रघुकुलगुरु’ उपस्थित थे। माना कि महर्षि विश्वामित्र की उपस्थिति में ‘गुरु’ जी को कुछ कहते नहीं बना, पर क्या कहने भर को भी उस युग में कोई ऐसा न्यायनिष्ठ साहसी, सभासद नहीं था जो इस प्रकार की हिंसा का विरोध या प्रतिरोध करता? क्यों कवि ने ‘परम प्रतापी’ पिता को ‘कायर नपुंसक’ होने का आरोप करने का अवसर दिया है। क्यों कवि इसे ‘भ्रूण हत्या’ तक की घृणित स्थिति की कल्पना तक ले गया है? कवि ने इसका एक मात्र कारण बताया, महाराज की उत्तरोत्त्तर अवस्था-वृद्धि। लेकिन अवस्था-वृद्धि का संबंध उत्तराधिकारी न होने की चिंता से है, कन्या के जन्म होने पर उसके विरुद्ध कदम उठाने से नहीं है। कन्या होने पर आपात बैठक उत्तराधिकारी की समस्या का हल करने के लिए बुलाई गई होगी न कि सद्य जात बालिका का क्या किया जाए, इस पर विचार करने के लिए। बालिका के परित्याग या उसकी नृशंस हत्या से उत्तराधिकारी की समस्या हल नहीं होती। कवि उद्भ्रांत इस सारी स्थिति से अवगत न हो, ऐसा नहीं लगता ! इसलिए वे उस प्रस्ताव को फुसफुसाहट मात्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं। और शेष सारी घटना को बड़ी हुई शान्ता की प्रतिक्रियात्मक सोच के रूप में व्यक्त करते हैं। उस सोच में माँ की दुःस्थिति-जनित उसके प्रति पुत्री का स्नेहादर-भाव भी मिश्रित है। अतएव उसका स्वर आक्रोशात्मक तथा पिता के प्रति अनादरपूर्ण है।
इस आक्रोश और अनादर का एक और कारण भी है जो आगे पुत्रेष्टि यज्ञ किए जाने के प्रस्ताव के साथ प्रकट हुआ है। वह यह कि – “और पुत्री-जन्म के अमंगल-सूचक/ अपशगुन के दोष के निवारणार्थ / नवजात दान कर दी जाये / किसी विवाहित महर्षि को / देते हुए उन्हें यथेष्ट दक्षिणा /----”
· “पक्ष बीतते ही कन्या / वापस ले आयी जाये / राजमहल में ही / घोषित करते हुए कि / महाराज कृपालु हुए एक निर्धन जन पर / और उसकी कन्या के / पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा / और विवाहादि समस्त उत्तरदायित्वों को / निर्वहन के लिए उन्होंने -/ उसे गोद लेने का किया उपक्रम / असाधारण”
· “इससे कन्या जन्म का / असगुन तो मिटेगा ही /
राज्य में चहूँ और कीर्ति फैलेगी / राजा की। ”
पुत्रेष्टि यज्ञ और इस प्रकार का कन्यादानादि दोनों ही अंधविश्वास तो है ही, दूसरा तो छलावा भी है। त्रेता में यह सब प्रचलित रहा हो या न रहा हो, किंतु आधुनिक चिंतक को वह मान्य नहीं है। शान्ता उस आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करती हुई इन मान्यताओं का विरोध करती है। पुत्रेष्टि यज्ञ के विषय में वह प्रश्न करती है :-
“क्या पुत्रियों की / उत्पत्ति के लिए भी /
आयोजित होता है / ऐसे ही पुत्रीष्टि यज्ञ”
और क्या / उसी के पश्चात / जन्मी हूँ मैं भी?
“क्या पुत्री की कामनावाले यज्ञ में भी /
धन का होता है / असीमित व्यय?”
अबोध बालिका माँ के सामने एक से एक नए प्रश्न रखती रही, किंतु माता कौशल्या का मौन नहीं टूटा। उनके मुखमंडल पर उदासी, क्षोभ, करुणा और दुःख के मिश्रित भाव मेघ बनकर अवश्य छा गए। परिणामतः शान्ता भी मौन होती गई और समय से पहले परिपक्व होकर शान्ता हो गई, अपने नामके अनुरूप। इस बीच उसके जीवन में जैसे एक दुर्घटना और घटित हो गई – क्रीडा करने और ज्ञान बधू की अप्रतिम पदवी ‘देकर उसका असमय विवाह कर दिया गया। इस तरह एक समस्या उसके जीवन में जुड़ गई। समस्याओं का अंत यहाँ भी नहीं हुआ, बल्कि पुत्रेष्टि यज्ञ के बाद महाराज दशरथ के पुत्रों के जन्म के साथ उसके मन में एक नई ही शंका उभर आई – “पता नहीं, उसका ही प्रभाव था या- / महाराज को पौरुष – वर्ष ने / सूख चुकी पृथवी को / किया रस में सराबोर। ’’ उसके प्रश्नों का कोई अंत नहीं हुआ; चेतन-अचेतन में कोई-कोई प्रश्न उठते रहे।
पंद्रहवाँ सर्ग
सीता का महाआख्यान
कवि उद्भ्रांत ने 15वें सर्ग “सीता” में सीता की उत्पत्ति के बारे में उल्लेख करते हुए लिखा है कि मिथलांचल कि शस्य-श्यामला उर्वर भूमि किसी के अभिशाप से बंजर भूमि हो गई थी। न तो वहाँ अन्न की पैदावार होती थी और न ही किसी भी तरह की कोई वर्षा। देखते–देखते भयंकर दुर्भिक्ष के कारण वहाँ के निवासी लाखों की सख्या में अस्थि-पिंजरों में बदलने लगे, तब विदेही महाराज जनक ने प्रजा की आर्त पुकार सुनी। अर्द्धरात्रि में विवस्त्र होकर बंजर कृषिक्षेत्र में अगर वे हल चलाएँगे तो उनकी दयनीय अवस्था देखकर मेघराज इंद्र को दया आ जाएगी और वर्षाजल से सींचकर पुनः उस भूमि को उर्वर बना देंगे। शायद यह उस जमाने का लोक-प्रचलित अंधविश्वास अथवा टोना-टोटका था। मगर कवि के अनुसार हल चलाते समय अचानक उसकी नोक सूखी मिट्टी के ढेर में दबे ढँके कुम्भ से टकरा गई, उस कुम्भ में सुदूर प्रांत के ऋषि वंशज ब्राह्मण के किसी अप्सरा के साथ गोपनीय प्रणय का परिणाम था। यह परिणाम ही सीता थी। हो सकता है लोग उसे सामाजिक तिरस्कार के भय से कपड़ों में लपेट कर मटके में डाल मरने के लिए खुला छोड़ गए थे। क्या यह सीता का अवांछित जन्म था? संतानहीन महाराज जनक तो सीता जैसे अमूल्य कन्या-रत्न को धरती माता से प्राप्त कर हर्ष विभोर हो उठे। यह विचित्र कथा सुनने पर विश्वास नहीं हो पाता। कवि उद्भ्रांत सीता की कथा को आगे बढ़ाते हुए लिखते हैं कि जनकपुर में न केवल नगरवासियों से वरन् माता-पिता के भावाकुल हृदय में वह हमेशा बसी रही। शस्त्र-संचालन की सभी विद्याओ में वह पारंगत होती रही। शादी के लिए पिता ने सर्वश्रेष्ठ वर ढूँढने के लिए चारों दिशाओ में स्वयंवर का असाधारण न्यौता भेजा कि जो कोई वीर महादेव शिव के प्राचीनतम धनुष को उठाकर प्रत्यंचा खींचकर बाण को चढ़ा देगा, वही उसकी पुत्री के लिए योग्य वर होगा। भगवान शिव के प्रति सीता के हृदय में भी गहन श्रद्धा थी और आँगन में बने देवालय में रखे इस धनुष की सफाई के दौरान सीता ने उसे उठाकर एक जगह से दूसरी जगह रखा था। सीता के निवेदन करने पर फिर से उसे यथास्थिति पर रखने के लिए कहा। शायद वह यह नहीं जानना चाहते थे कि सीता कोई साधारण कन्या नहीं है, वरन दिव्य शाक्तियों से संपन्न है। तभी उन्होंने घोषणा कि जो कोई इसकी प्रत्यंचा को चढ़ाएगा,वही सीता का पति होगा। जब सीता को शिव धनुष की महिमा का ज्ञान हुआ तो उसने महादेव से अपराध क्षमा करने की प्रार्थना की। शिव मंदिर से पूजा अर्चना करके जैसे ही वह बाहर निकल रही थी, वैसे ही दो श्यामवर्ण वाले सुगठित, सुंदर, देहयष्टि के राजकुमार विश्वामित्र के साथ उधर से गुजर रहे थे, उनकी हँसी मधुर संगीत की ध्वनियाँ पैदा करते हुए सीता की चेतना को भंग कर दिया। लज्जा, संकोच के भाव रक्तिम वर्ण के रूप में सीता के चेहरे पर उभरने लगे। बाद में उसे ज्ञात हुआ कि वे दोनों राजकुमार अयोध्या के नरेश महाराज दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण हैं। राम को देखते ही शिव मंदिर में की गई प्रार्थना सीता को याद आ गई और पहली नज़र में ही राम को अपने वर के रूप में स्वीकार कर लिया। मगर सीता को यह चिंता होने लगी कि अगर राम शिव धनुष नहीं उठा सके या किसी दूसरे योद्धा ने उसे उठा लिया तो उसके जीवन पर क्या गुजरेगा। पुलस्त्य ऋषि के कुल में उत्पन्न लंकापति रावण शिव धनुष को उठाने में असक्षम रहा,जबकि राम इस परीक्षा में खरे उतरे। जैसे ही सीता राम को जयमाला पहनाने जा रही थी, वैसे ही वहाँ भगवान शिव के परम भक्त क्रोधी परशुराम का प्रादुर्भाव होता है और वे शिव धनुष को स्पर्श करने वाले राम की हत्या के लिए तत्पर हो जाते हैं। मगर राम ने अपने मधुर व्यवहार से माहौल को ठंडा कर दिया। और सीता की शादी हो जाती है। अयोध्या के राजमहल में नववधू सीता का दूसरा भविष्य इंतज़ार कर रहा था। कुछ समय बाद राम को चौदह वर्ष का वनवास हुआ और सीता ने हठ करके राम के साथ जाने का निर्णय किया, भले ही उसे अनेक असाधारण अग्नि–परीक्षाओं से गुजरना पड़ा। मगर सीता को इस बात की संतुष्टि है कि बाहर की अग्नि में बिना झुलसे यह भीतर ही भीतर आँसुओं को पिये एकाकी स्त्री के जीवन के विपरीत अपने पति के अनन्य और मूर्त्त अनुराग की अनुभूति को प्राप्त कर सकी। लक्ष्मण के भाई और भाभी के प्रति अनन्य प्रेम, वन में रहने वाले वनवासियों, वानरों, रीछों, राक्षसों की सदभावना, हनुमान जैसे महाबली से मातृवत् आदर सम्मान, निषादराज (केवट) के चतुर-प्रेम, गिद्धराज जटायु की आर्त पुकार, मेरे प्रति धर्मात्मा विभीषण का आदर, अशोक-वाटिका में सखी त्रिजटा का स्नेह, कुंभकर्ण का मेरे प्रति पुत्रीवत् सहृदय आचरण और रावण की निंदा – ऐसे सारे अनुभव चौदह वर्षों में सीता को प्राप्त हुए, जो कि आज भी वर्णनातीत है। आज भी शोधार्थी सीता के अपहरण के उद्देश्य को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं। कुछ विचारक शूर्पणखा के अपमान का प्रतिशोध लेना मानते हैं, तो अन्य विचारक अशोक वन में सीता को रख कर वन की विपतियों से बचने का उपकरण समझते हैं। तभी तो त्रिजटा को सीता की सुरक्षा के लिए नियुक्त किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि रावण सीता को अपनी पुत्री समझता था और सीता के पिता जनक के साथ उसका बंधुवत् व्यवहार था। कवि उद्भ्रांत ने इस सर्ग में दिखाया है कि रावण ने कभी भी स्त्री के अधिकारों और मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। साधु के वेश में भिक्षा माँगते समय भी चाहता तो वो उसे अकेला देख कुटिया में प्रवेश कर सीता का शील हरण कर सकता था, मगर लक्ष्मण रेखा (मर्यादा रेखा) तो स्वयं सीता ने पार की थी। क्या जरूरी था उसके लिए अनजाने पुरुष को भिक्षा देना, जबकि वह यह जानती थी कि किसी स्त्री के घर से बाहर निकला हुआ एक पग उसे नर्क की और ले जा सकता है? क्या कहीं रावण अपनी पुत्री (सीता) को महाराज जनक द्वारा दिए गए व्याहारिक शास्त्र ज्ञान की परीक्षा तो नहीं ले रहा था? आज के इस युग में चतुर, चालाक, धूर्त्त, लम्पट लोगों के सामने भोला होना क्या मूर्खता का पर्याय तो नहीं है। इस तरह कवि उद्भ्रांत ने अपराध का सारा ठीकरा सीता के सिर पर फोड़ दिया, यही नहीं और कुछ अपराधों पर प्रकाश डालते हुए सीता को भर्त्सना का पात्र बनाया, जैसे स्वर्णवर्ण वाले हिरण की चमड़ी को प्राप्त करने का लोभ छोड़ न कर पाना, वन गमन की विपतियों, सकटों और असुविधाओ के बारे में पति राम द्वारा समझाने पर भी, स्त्री हठ कर बैठना और माया, मोह, लोभ, काम से विरक्त रहकर जीवन यापन करना। परम-त्यागी देवर लक्ष्मण की उपस्थिति से तो भले ही सीता ने काम पर विजय पा ली थी, मगर सोने के आभूषणों के प्रति उसके अवचेतन मन में समाया मोह स्वर्णवर्ण बाले हिरण के चर्म को प्राप्त करने की इच्छा में बदल गया। क्या मिट्टी से पैदा हुई सीता यह भूल गई थी कि सच्चा सोना तो मिट्टी ही है, तब सुन्दर वन्य जीव की निर्मम हत्या करने की इच्छा उसके मन में क्यों जागृत हुई? इस हत्या का दण्ड विधाता ने महादण्ड के रूप में परिणत कर दिया। सोने की लंका में एक दीर्घ अवधि तक पति से बिछुड़कर एकाकी निस्सार जीवन जीने पर विवश कर दिया। क्या राम के अनन्य प्रेमरूपी सोने के सामने सुनहरे हिरण का चर्म बड़ा था? सीता की आँखों पर से पर्दा तो तब हटा जब हनुमान ने पलक झपकते ही सारी सोने की लंका को अपनी पूँछ के माध्यम से जला दिया और अपनी पहचान बताने के लिए राम-नाम से अंकित सोने की मुद्रिका फेंककर सोने की असत्यता को उजागर किया। तपस्वी हनुमान उन्हें चमकती हुए माया के वश से भरे कनक से मुक्त करना चाहते थे।
कवि यह कहना चाहते हैं कि सोने की लंका को अग्नि में जलते देख सीता को जीवन की अग्नि-परीक्षा का अहसास हो गया और समुद्र तट पर धधकते अंगारों पर चलकर अग्नि परीक्षा देकर, सीता ने अपनी गहरी संवेदना के फफोलों पड़े पाँवों से अयोध्या पहुँचकर फिर से एक बार पत्नी प्रताड़ित तुच्छ व्यक्ति की वार्ता से दुखी होकर अपने चरित्र के संबंध में शंका के विषैले कीट से ग्रस्त होकर राज-आज्ञा का अंधानुपालन किया। लक्ष्मण को गर्भवती भाभी को रामराज्य से दूर जंगल राज्य का रास्ता दिखाना पड़ा। गर्भवती सीता के सामने और सर्जनात्मक विस्फोट करने का उचित अवसर प्रदान किया। राम-यश की आधारशिला के रूप में कथानक को लेकर आदिकवि ऋषि वाल्मीकि सीता के दूसरे पिता बनकर उभरे और उनके स्नेह संरक्षण में सीता ने दो पुत्रों लव और कुश को जन्म दिया, उन्हें सर्वोत्तम संस्कार दिए, शस्त्र-शास्त्र में शिक्षित किया, सुयोग्य बनाया। महाकवि के संसर्ग में उनकी वाणी में संगीत का जादू उतर गया। राम की इस कथा का मधुर पाठ करते हुए जब वे अयोध्या पहँचे तो उन्हें आदर के साथ राज दरबार में बुलाया गया और जब उन्हें अपना परिचय देने के लिए पूछा गया तो बालोचित चपलता से उन्होंने उत्तर दिया कि राजा प्रजा-जनों का पिता है, इसलिए आप ही हमारे पिता हैं। दुख इस बात का है कि उन्होंने किसी मूर्ख प्रजा की घरेलू निरर्थक बकवास सुनकर अपनी गर्भवती पत्नी सीता को देश निकाला दे दिया। यह क्या समूचे रघुवंश का सिर ऊँचा कर सकता है? हमारी माता सीता है। हमारी दूसरी चुनौती और क्या हो सकती थी! मगर उन परिस्थितियों ने सीता के भीतर छुपी महाशक्ति पिता भी है, आप तो केवल कहलाने के लिए पिता हैं। यह कहते हुए लव और कुश समूचे राम दरबार को स्तब्ध और अवाक् छोड़कर वाल्मीकि आश्रम लौट गए। उनका अनुसरण करते हुये भावाकुल राम, लक्ष्मण, हनुमान, भरत,शत्रुघ्न, मंत्री सुमंत सभी वाल्मीकि आश्रम पहुँचकर अयोध्या वापस ले जाने के लिए आग्रह किए थे। मगर सीता ने उसे अस्वीकार कर दिया और हनुमान के माध्यम से अपनी अनिर्वचनीय पीड़ा को राम के पास पहुँचाया कि उसे उचित समय की प्रतीक्षा है, अपने पुत्रों लव और कुश को योग्य बनाना है, साथ ही साथ समाज में व्याप्त अंध-विश्वासों, कुरीतियों, स्त्री विरोधी पाखंडों से युद्ध कर उन्हें पराजित भी करना है। कुछ समय बाद राम ने अश्वमेध यज्ञ की घोषणा की। जिसके अश्व को युवा लव-कुश ने पकड़ लिया और युद्ध की चुनौती देते हुये राम के समस्त दल को मूर्च्छित कर जब राम पर धनुष चढ़ाने लगे, तो सीता ने उन्हें रोक दिया कि शस्त्र का ज्ञान रखने वाले को शस्त्र की उपयोगिता जाननी चाहिए। पिता पर शस्त्र उठानेवाला पुत्र अपयश का भागी होता है। सीता के निदेश पर राम की चरण वंदना करते हुए छोड़ दिया। उस समय भी राम ने सभी को अयोध्या चलने का आग्रह किया। मगर सीता ने उनके इस आग्रह को ठुकरा दिया कि उसे घर लौटने पर पहले जैसी प्रतिष्ठा नहीं मिल सकती है, चाहे वह कितनी भी निरपराध क्यों न हो। मैं तो अपने लिए उसी समय मर गई थी, जिस समय आपने मुझे वन में छोड़ने का निर्देश दिया था। मेरे जीवन का अंतिम दिवस होता, अगर महर्षि वाल्मीकि वहाँ नहीं होते। मैं अब तक लव-कुश के लिए केवल ज़िंदा थी, अब अपको सौंपते हुए इस अटल विश्वास के साथ कि उनके प्रति सदैव प्यार में आप किसी भी प्रकार की कमी नहीं रखेंगे, मैं अपसे विदा लेती हूँ और उस मिट्टी में मिल जाना चाहती हूँ, जिस मिट्टी के पट के माध्यम से मेरे पिता ने मुझे सुरक्षित आश्रय दिया था। लंका-दहन के समय में इस बात को समझ गई थी कि आखिरकार मिट्टी में मिलना है तो क्यों नहीं ऐसे कुछ कार्य किए जाए जिसके माध्यम से इस मिट्टी को अमरता प्रदान हो।
यह कहते हुए पहले से ही खोदे हुए मौत के अंधे कुँए में छलांग लगाते हुए उसने सूर्यवंशियों के सामने कई अनुत्तरित और प्रज्ज्वलित प्रश्न छोड़ दिये, जिसका उत्तर सोचने के लिए उन्हें आगामी सहस्रों वर्षों तक कई साधना की यात्रा करनी होगी, जबकि समय के विचित्र उस अंधे कुँए में सूर्य की कोई भी किरण प्रवेश नहीं पा सकती है।
इस सर्ग में कवि ने जिन चरित्रों का मुख्य रूप से उल्लेख किया है उनमे परशुराम, सीता, लक्ष्मण, राम आदि हैं। सीता की व्याख्या करने से पूर्व परशुराम के बारे में जानना भी उतना ही जरूरी है। जहाँ ब्राह्मण वर्ग परशुराम को विष्णु भगवान का अवतार मानते हैं, वहीं महात्मा ज्योतिषि फूले उन्हें मातृहन्ता व निर्दयी प्रवृति वाला मानते हैं। “उनकी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ के अनुसार ईरान से आए हुए ब्रह्मा ने यहाँ के मूल क्षेत्र-वासियों को अपना गुलाम बना दिया था। लोग उन्हें प्रजापति के नाम से जानने लगे। उसके मरने के बाद ब्राहमणों के जाल में फँसे हुए अपने भाइयों को गुलामी से मुक्त करने के लिए यहाँ के मूल निवासियों ने इक्कीस बार युद्ध किया। वे इतनी दृढ़ता से लड़े कि उनका नाम द्वैती पड़ गया। और उस शब्द का बाद में अपभ्रंश दैत्य हो गया। जब परशुराम ने इन सभी को परास्त किया तो यह दक्षिण में जाकर रहने लगे। जैसे-जैसे मुसलमानों की सत्ता इस देश में मजबूत होती गई, वैसे-वैसे ब्राह्मणों द्वारा यह अमानवीय परंपरा समाप्त होती गयी। लेकिन इधर क्षत्रियों से लड़ते-लड़ते परशुराम के इतने लोग मारे गए कि ब्राह्मणों की अपेक्षा ब्राह्मणों की विधवाओं की संख्या ज्यादा हो गई। इस हार से परशुराम इतना पागल हो गए थे कि निराधार गर्भवती विधवा औरतों को खोज-खोज कर मारने की मुहिम शुरू कर दी। हिरण्याक्ष से बलि राजा के पुत्र को निर्वंश करने तक उस कुल के सभी लोगों को तहस-नहस कर दिया। उधर क्षेत्रपतियों के दिमाग में यह बात जमा दी गयी कि ब्राह्मण लोग जादू विद्या में माहिर हैं। वे लोग ब्राह्मणों के मंत्रों से डरने लगे। उस समय वहाँ के क्षेत्रपति के रामचंद्र नामक पुत्र ने परशुराम के धनुष को जनक राजा के घर में भरी सभा में तोड़ दिया तो उसके मन में प्रतिशोध की भावना भर गई। उसने रामचंद्र को अपने घर जानकी को ले जाते हुए देखा तो रास्ते में युद्ध छेड़ दिया। इस युद्ध में उसकी करारी हार हुई। इस युद्ध से वे इतना शर्मिंदा हो गए कि उसने अपने सारे राज्य को त्याग कर अपने परिवार और कुछ निजी संबंधियों को साथ लेकर कोंकण के निचले हिस्से में जाकर रहने लगे। वहाँ उन्हें अपने बुरे कर्मो का पश्चाताप हुआ। जिसका परिणाम इतना बुरा हुआ कि उसने अत्महत्या कर ली। ”
सीता को कई नामों से जाना जाता है जैसे वैदेही, जानकी, मैथिली और भूमिजा। सीता जनकपुर के राजा जनक और रानी सुनयना की दत्तक पुत्री है, भूमि देवी की वास्तविक पुत्री है। दण्डक वन से इनका अपहरण हो जाता है और अशोक वाटिका में रखा जाता है। जनकपुर नेपाल के दक्षिण बिहार के उत्तर पूर्वी मिथिला के जनकपुर और सीतामढ़ी, नेपाल की सीमा के पास, सीता का जन्म स्थान माना जाता है। वाल्मीकि रामायण में सीता को भूमि से उत्पन्न बताया जाता है, जबकि “रामायण मंजरी” में जनक और मेनका से उत्पत्ति, तो महाभारत रामोपाख्यान तथा विमल सूरी की ‘पउम चरियम’ में सीता को कुछ जनक की वास्तविक पुत्री, तो रामायण के कुछ संस्करणों में रावण के अत्याचारों से प्रताड़ित वेदवती का सीता के रूप में जन्म लेना तो उत्तर पुराण के गुणभद्र के अनुसार अलकापुरी के अमित वेदय की पुत्री मीनावती, रावण और मंदोदरी के गर्भ से जन्म लेकर रावण का अंत करने के लिए अवतरित, तथा अवधूत रामायण और संघदास के जैन संस्करण में सीता को रावण की पुत्री वसुदेव वाहिनी के रूप में माना जाता है जो कि रावण की पत्नी विद्याधर माया की पुत्री है। स्कन्द पुराण में वेदवती का जिक्र आता है जो पदमावती बनती है और विष्णु के अवतार लेने पर वे उनसे शादी करते है। वेंकटेश्वर बालाजी के तिरुमलाई में उनका निवास है। रामायण के परवर्ती संस्करणों में वेदवती रावण की मृत्य के लिए जन्म लेने की कसम खाती है, क्योंकि रावण ने उसके साथ छेड़खानी की थी। अग्नि देवता उसे जला नहीं सकते, वह उसे छुपाकर सीता की जगह अपहरण के पूर्व रख देते हैं। इस तरह यह डुप्लीकेट सीता थी, जिसे रावण उठाकर लंका लाया। वास्तविक सीता वेदवती की अग्नि-परीक्षा के बाद राम के पास लौट जाती है। जम्मू में वेदवती को वैष्णो देवी के रूप में जाना जाता है। जिसने भैरव की गर्दन काट दी थी, जो उसे जबरदस्ती अपनी पत्नी बनाना चाहता था। बाद में भैरव के कटे सिर ने माफी मांगते हुए, यह कहा कि- वह उन परम्पराओं का अभ्यास कर रहा था। जिसके लिए एक स्त्री की आवश्यकता थी, जो उसे पुनर्जन्म के चक्रों से मुक्ति प्रदान कर सके। तब उसने कहा- "तुम मेरी पूजा करो, मैं तुम्हें मुक्त कर दूँगी" कहते हुए वह देवी में बदल गयी। अधिकांश देवियों के शक्ति पीठ स्थल पर रक्तबलि दी जाती है, जबकि वैष्णोदेवी एक अलग शक्ति पीठ है, क्योंकि वह शाकाहारी देवी है। जो वैष्णव संप्रदाय की पुष्टि करती है। क्या राम-लक्ष्मण–सीता जंगल में रहते समय माँस भक्षण करते थे? आज भी यह सवाल अनुत्तरित है। जबकि प्राचीन काल में मांसाहार को घृणित निगाहों से नहीं देखा जाता था। कई पेटिंग में राम और लक्ष्मण को जंगली जानवरों का आखेट करते हुए दिखाया गया है, कुछ-कुछ में तो मांस भूनते हुए भी। यह दृश्य क्षत्रिय परिवार के अनुरूप है। संस्कृत में मांस का अर्थ फूलों के मांस से लिया जाता है। बाद मै बौद्ध, जैन धर्म और वैष्णव संप्रदाय के विस्तार के साथ शाकाहारी को जातिप्रथा में उच्चता का प्रतीक माना जाने लगा। वाल्मीकि रामायण में जानवरों के आखेट से सीता अप्रसन्न रहती है।
इस तरह अलग-अलग कहानियों को अलग-अलग रूप देकर आज भी पढ़े-लिखे लोगों को भी सत्यता से दूर रखा जाता है। क्या साहित्य हमें वैचारिक गुलामी की ओर ले जाता है अथवा साहित्य सच्चा जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है? यह बात सत्य है कि सीता ने अपने जीवन को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर सम्पूर्ण विश्व में यह बात अवश्य स्थापित की है कि भारतीय स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध अत्यंत ही घनिष्ठतम होता है।
कवि उद्भ्रांत की पंक्तियाँ :-
किसी व्याघ्र के तीर से अबिद्ध
चंचुपात करते हुए प्रणय में निरत क्रोंच –युगल के
नरपक्षी के वध को देखकर...
माता वाणी की प्रेरणा से जिनकी वाणी से
फूटा आदिश्लोक...
करुणा-कातर हो-
दस्यु जीवन को
क्षण में तिलांजलि देने वाले
आदिकवि
ऋषि वाल्मीकि ही वे
मेरे हो गए
एक और पिता
बचपन में जब सीता अपने साथियों के साथ बगीचे में खेल रही थी तो दो तोते किसी पेड़ पर बैठकर राम-कथा का गान कर रहे थे। सीता की यह बाल्य अवस्था थी। रामकथा का माधुर्य और सुनहरे भविष्य की कल्पना में सीता ने दोनों पक्षियों को पकड़कर अपने घर ले जाना चाहा, मगर उन्होंने मना कर दिया यह कहकर कि वे स्वतंत्र पक्षी है और गगन में उन्मुक्त होकर विचरण करना चाहते थे। मगर सीता अपने बालोचित हठ के कारण उन्हें छोड़ना नहीं चाहती थी। तोती के लिए अपने पति का वियोग असह्य हो गया और वह बोली “मुझ दुखिनी को गर्भवती अवस्था में अपने पति से अलग कर रही है, तो तुझे भी उसी अवस्था में अपने पति से अलग होना पड़ेगा। यह कहकर उसने प्राण त्याग दिए। " पत्नी के वियोग में तोते ने भी प्राण त्याग दिए। इसी बैर का बदला लेने के लिए वे दोनों अयोध्या में धोबी–धोबन के रूप में प्रकट हुए। इस प्रकार सीता के जीवन में विरह दुःख का बीज उस समय से पड़ गया था। इस तरह का भय दिखाकर रामकथा में एक नया अध्याय लिखा जाता है।
जबकि महात्मा ज्योतिष फूले अपनी "सार्वजनिक सत्यधर्म" पुस्तक में रामायण की बातों को काल्पनिक व अविश्वसनीय मानते हैं। धनुष यज्ञ में रावण की छाती पर पड़े हुए शिव / परशुराम के धनुष को कभी घोड़ा बनाकर खेलने वाली जानकी को भेड़िये की तरह आसानी से कंधे पर डालकर भागने में रावण कैसे सफल हो गया? दूसरी बात यह कि यदि रावण की मानव के अलावा अलग जाति थी, तो जनक राजा ने दूसरी जाति के रावण को अपनी लड़की के स्वयंवर समारोह में आने का निमंत्रण कैसे दिया? इससे यह सिद्ध होता है कि राम और रावण की जाति अलग–अलग नहीं थी। ऐसा लगता है कि रामायण का इतिहास उस समय केवल लोगों का दिल बहलाने के लिए कल्पना के आधार पर लिखा होगा।
कँवल भारती भी इस सर्ग में सीता के विद्रोह को देखते हैं कि राम ने सीता को सास-ससुर की सेवा करने से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है, कहकर उससे जंगल में जाने से रोकना चाहा। मगर सीता ने यह कहकर विद्रोह का बिगुल बजाया कि राम के बिना विरह के शोक में एक पल भी वह ज़िंदा नहीं रह सकती है। सत्यवान और सावित्री का दृष्टान्त देकर वन-गमन का औचित्य सिद्ध किया। उद्भ्रांत ने जिस सीता का चरित्र-चित्रण किया है, वह रावण की पुत्री जैसी है। मगर वाल्मीकि के अनुसार राजा जनक यज्ञ के लिए भूमि शोधन करते समय खेत में हल चला रहे थे, उसी समय हल के अग्रभाग से जोती गयी भूमि से एक कन्या प्रकट हुई। जिसका हल द्वारा खोदी गई रेखा को सीता कहते है,इसलिए इस तरह उत्पन होने के कारण सीता नाम रखा गया। जबकि लोक विश्वास के आधार पर अंधविश्वास को जन्म देनेवाली कहानी का विस्तार किया गया है। यह बात अलग है कि राजा दशरथ ने कन्या का तिरस्कार किया था। मगर राजा जनक अवैध संतान के रूप में सीता को पाकर खुश हुए थे। यही नहीं, उसे पढ़ाने, लिखाने, शस्त्र संचालन सभी की शिक्षा में दक्ष भी किया था। संतानहीन होकर भी राजा जनक ने पुत्रेष्टि यज्ञ नहीं करवाया और न ही अपनी पुत्री को किसी वृद्ध-ऋषि को समर्पित किया। वरन् धूमधाम से स्वयंवर करके उसका विवाह किया। ‘त्रेता’ की सीता रावण की प्रशंसा करती है कि उसने कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया, अपहरण के समय में भी नहीं। स्वयंवर में रावण की उपस्थिति से सीता विचलित हो जाती है। अगर स्वयंवर के बारे में सोचा जाए तो यह एक वाहियात और स्त्री विरोधी परंपरा थी। क्योंकि उसमें योग्य-अयोग्य, युवा-वृद्ध कोई भी आदमी भाग ले सकता है। अगर रावण शिव-धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा लेता तो नियमानुसार उसकी शादी रावण से हो जाती। रावण एक राजा था तो फिर वह भिक्षा कैसे मांगता! रावण तो राक्षस संस्कृति का प्रवर्तक था, आर्य संस्कृति का घोर विरोधी था। कँवल भारती के अनुसार उद्भ्रांत ने रावण को ब्राह्मण इसीलिए माना कि वह सीता को उसकी पुत्री बनाना चाहते थे। अपने इतिहास पर परदा डालने के लिए कुछ ब्राह्मण लेखकों ने रावण को ब्राह्मण बना दिया, पर यह विचार नहीं किया कि ब्राह्मण की हत्या पर प्रतिबंध था। यह प्रतिबंध तो 1817 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने समाप्त किया। राम ने रावण को मारकर ब्रह्म हत्या को प्राप्त किया।
कवि उद्भ्रांत ने इन मिथकों को वैज्ञानिक रूप देने के लिए स्वर्ण के रंगवाले हिरण, स्वर्ण आभूषण का मोह, सोने की लंका, आदि से जोड़कर विपत्तियों के आवाहन का कारण नारी के लोभ को ठहराया है। सीता के चरित्र-चित्रण में स्त्री विमर्श की भरपूर गुंजाइश थी। राजमहलों के भीतर कैद रहनेवाली महिलाओं की मर्यादाओ पर आधुनिक चिंतन भी अपरिहार्य है। सीता को लंका पुरी में चौदह माह तक निर्वासित जीवन जीना पड़ा। रावण वध के बाद जब सीता राम से मिलने आयी तो उसका खिला हुआ चेहरा देखकर राम ने कहा– “मैंने तुम्हें प्राप्त करने के लिए यह युद्ध नहीं जीता है। तुम पर मुझे संदेह है। जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति अच्छी नहीं लगती, वैसे ही तुम मुझे आज अप्रिय लग रही हो। तुम स्वतंत्र हो, यह दस दिशाएँ तुम्हारे लिए खुली है। मैं अनुमति देता हूँ,तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ। रावण तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है। ऐसी अवस्था में, मैं तुमको ग्रहण नहीं कर सकता। तुम चाहो तो लक्ष्मण, भरत या शत्रुघ्न किसी के भी साथ रह सकती हो और चाहे तो सुग्रीव या विभीषण के साथ भी रह सकती हो। " (वाल्मीकि रामायण युद्धखण्ड)
राम के ऐसे कठोर शब्द सुनने के बाद सीता के दिलो-दिमाग पर क्या गुजरी होगी, इसका उद्भ्रांत जी ने लेशमात्र भी उल्लेख नहीं किया है। इन कठोर शब्द–बाणों ने सीता का हृदय छलनी कर दिया था और उसके भीतर एक विद्रोहिणी नारी ने जन्म ले लिया था। इस विद्रोहिणी नारी को आदि कवि वाल्मीकि ने उभारा है, क्योंकि राम के व्यवहार से वह भी उद्वलित हो गए थे। राम का गुण-गान करने वाले वाल्मीकि भी तब सीता के पक्ष में खड़े हो गए थे और सीता पूरे प्रतिशोध के साथ राम पर बरस पड़ी। उसने सबके सामने ही राम से कहा –
कि मामसदृशं वाक्यमीदृशं श्रोत्र दारुणम।
रुक्ष श्रवयरो वीर प्राक़ृतः प्रकटमिव॥
आप ऐसी कठोर, अनुचित, कर्णकटु और रूखी बात मुझे क्यों सुना रहे हैं। जैसे बाजारू आदमी किसी बाजारू स्त्री से बोलता है, वैसे ही व्यवहार आप मेरे प्रति कर रहे हैं। जब आपने लंका में मुझे देखने के लिए हनुमान को भेजा था, उसी समय मुझे क्यों नहीं त्याग दिया? यदि आप मुझे उसी समय त्याग देते, तो मैंने भी हनुमान के सामने ही अपने प्राण त्याग दिए होते। तब आपको जीवन को संकट में डालकर यह युद्ध आदि का व्यर्थ परिश्रम नहीं करना पड़ता और न आपके मित्र लोग अकारण कष्ट उठाते। आपने मेरे शील-स्वभाव पर संदेह करके अपने ओछेपन का परिचय दिया है। इसके बाद सीता ने लक्ष्मण से कहकर चिता तैयार करवायी और वह यह कहकर कि “यदि मैं सर्वथा निष्कलंक हूँ, तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें”, अग्नि–चिता में कूद पड़ी। वाल्मीकि ने लिखा है कि अग्नि ने सीता को रोममात्र भी स्पर्श नहीं किया। किन्तु वास्तव में हुआ यह होगा कि सीता को अग्नि में कूदने से पहले ही बचा लिया गया होगा, वरन् आग की लपटें किसी को नहीं छोड़ती। जनता के सामने राम की शंका समाप्त हो गई थी और उन्होंने उसे अंगीकार कर लिया था। अधिकांश लेखकों द्वारा सीता के जीवन को वन में त्रासदी (tragedy) के तौर पर व्यक्त किया जाता है। वे जंगल में जीवन को गरीबी के साथ जोड़कर देखते हैं, न कि बुद्धि के तौर पर। साधु के पास कुछ नहीं होने पर भी कभी भी गरीब नहीं होता। वे लोग भूल जाते है कि भारत में धन-संपदा केवल कार्यकारी तौर पर मानी जाती है न की स्व-निर्माण के सूचक के तौर पर। सीता भी महाभारत की कुंती, उपनिषदों की जाबाला और भरत की माँ शकुंतला की तरह एकल माता है। महाभारत में अष्टावक्र की कहानी में वह अपने दादा, उद्दालक को अपना पिता मानता है। जब तक कि उसका चाचा श्वेतकेतु संशोधन नहीं कर लेता। यह ठीक इसी तरह है जिस तरह वाल्मीकि के राम के पुत्रों लव-कुश को समझा नहीं देते। केरल के वायनाड़ (wayanad)में सीता का उसके दोनों पुत्रों के साथ मंदिर बना है। केरल की रामायण में कई मोड़ ऐसे हैं जो वाल्मीकि रामायण में नहीं मिलते, वायनाड़ के स्थानीय लोगों का मानना है कि रामायण की घटनाएँ उनके इर्द-गिर्द हुईं।
फादर कामिल बुल्के की पुस्तक ‘रामकथा’ के अनुसार सीता के जन्म को लेकर तरह-तरह की कहानियाँ कही जाती हैं। इण्डोनेशिया, श्रीलंका तथा भारत के आसपास के क्षेत्रों में सीता के पिता के रूप में कभी राजा जनक, तो कभी रावण और यहाँ तक कि दशरथ को भी दर्शाया गया है।
1. जनक आत्मजा– वाल्मीकि द्वारा रचित आदि रामायण में राम के क्रिया-कलापों की तारीफ में सीता को जनक की पुत्री बताया गया है। महाभारत में चार बार रामकथा की आवृति होती है। मगर कहीं पर भी सीता के रहस्यमय जन्म की कहानी का वर्णन नहीं है। यहाँ तक कि रामोपाख्यान में भी नहीं, सब जगह उसे जनक आत्मजा ही कहा है। रामोपाख्यान की शुरुआत में विदेहराजो जनकः सीता तस्य आत्मणाविभो।
हरिवंश की रामकथा में भी सीता की अलौकिक उत्पत्ति का उल्लेख नहीं मिलता।
जैन पउमचरियं के अनुसार जनक की पत्नी विदेहा से सीता अपने धवल आभामण्डल के साथ उत्पन्न हुई थी। जन्म होते ही आभामण्डल को एक देवता ने उसे उठा लिया था और किसी अन्य राजा के यहाँ छोड़ दिया। वाल्मीकि रामायण में जनक का कोई पुत्र नहीं है, किन्तु ब्रह्माण्ड पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण में ‘अनुमान’ जनक का पुत्र कहा गया है। कालिका पुराण में ऐसा उल्लेख है कि नारद निसंतान जनक को यज्ञ कराने का परामर्श देते हुए कहते है, कि यज्ञ के प्रभाव से दशरथ को चार पुत्र उत्पन्न हुए हैं। तदनुसार जनक यज्ञ के लिए क्षेत्र तैयार करते समय एक पुत्री के अतिरिक्त दो पुत्रों को भी प्राप्त करते हैं।
2॰ भूमिजा– सीता की अलौकिक उत्पत्ति का वर्णन वाल्मीकि रामायण में दो बार कुछ विस्तारपूर्वक किया गया है; कतिपय अन्य स्थलों पर भी इनके संकेत मिलते हैं। एक दिन जबकि राजा जनक यज्ञ–भूमि तैयार करने के लिए हल चला रहे थे, एक छोटी-सी कन्या मिट्टी से निकली। उन्होंने उसे पुत्री–स्वरूप ग्रहण किया तथा नाम सीता रखा। सीता जन्म का यह वृतान्त अधिकांश रामकथाओं में मिलता है।
संभव है कि भूमिजा सीता की अलौकिक जन्म-कथा सीता नामक कृषि की अधिष्ठात्री देवी के प्रभाव से उत्पन्न हुई हो। कृषि की उस देवी से सम्बन्ध रखने वाली सामाग्री का वर्णन किया गया है। मैं यह नहीं कहता कि यह वैदिक देवी और रामायणीय सीता अभिन्न है। वैदिक सीता ऐतिहासिक न होकर सीता अर्थात् लांगल-पद्धति के मानवीकरण का परिणाम है।
बलरामदास (अरण्यकाण्ड) लिखते हैं कि हल जोतते समय जनक ने मेनका को देखकर उसी के समान एक कन्या प्राप्त करने कि इच्छा प्रकट की थी। मेनका ने उनकी यह इच्छा जानकार उसको आश्वासन दिया कि मुझसे भी सुंदर कन्या तुझको प्राप्त होगी।
(क्रमशः अगले भाग में जारी...)
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