हास्य नाटक - दबिस्तान-ए-सियासत - 4 // राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित

SHARE:

मंज़र ४ तन्हाई है..तन्हाई है। राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित [मंच रोशन होता है, आक़िल मियां के कमरे का मंज़र सामने आता है। आक़िल मियां वापस लौट आये...

मंज़र ४ तन्हाई है..तन्हाई है।clip_image002

राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित

[मंच रोशन होता है, आक़िल मियां के कमरे का मंज़र सामने आता है। आक़िल मियां वापस लौट आये हैं, शमशाद बेग़म पानी का लोटा लाकर उनके हाथ धुला चुकी है। अब वे अपनी सीट पर बैठकर, अंगड़ाई लेते हैं। शमशाद बेग़म कमरे के दरवाज़े के पास रखे स्टूल पर बैठ जाती है, फिर वह चुग्गा खां को कहने से नहीं चूकती।]

शमशाद बेग़म – [चुग्गा खां से, कहती है] – मियां। ख़ुदा के मेहर से आपको आज़ मौक़ा मिला है। बस, आप इसे इस्तेमाल कर लीजिएगा। मेरी यह नाकिस राय है, यह आपका इमतिहान है। हफ्ते-भर आप हाफ-इयरली एग्जामिनेशन के दौरान, इस नूरिये बन्ने को अपने साथ रखकर इसे माकूल तालीम दें दे।

चुग्गा खां – शुक्रिया ख़ालाजान, आपकी नाकिस राय के लिए। [आक़िल मियां से, कहते हैं] हुज़ूर, कुछ आपसे अर्ज़ करना चाहता था कि....

[इतना कहकर, चुग्गा खां चुप हो जाते हैं। फिर बरामदे की तरफ़ अपनी निग़ाहें डालते हैं। शमशाद बेग़म को लगता है, शायद मियां अकेले में आक़िल मियां से बात करना चाहते होंगे। यह सोचकर वह स्टूल से उठ जाती है, और वहां से चल देती है। अब वहां और कोई उनकी बात सुनने वाला नहीं, यह जानकर चुग्गा मियां बस बोलना ही चाहते हैं तभी आक़िल मियां अपनी सीट से उठ जाते हैं। और ज़नाब, चुग्गा खां से कह देते हैं।]

आक़िल मियां – चुग्गा मियां, वल्लाह आप बोलते-बोलते रुक जाया करते हैं। मियां, कहीं आपको बेग़म का खौफ़ है या आपका रास्ता बिल्ली काट गयी ? हम दोनों के सिवाय और कोई यहाँ मौज़ूद नहीं है, आप तसल्ली से अपनी बात रख सकते हैं।

चुग्गा खां – [धीमी आवाज़ में, कहते हैं] – कल ही गाँव से ख़ालाजान आयी है, और कल उनको वापस गाँव के लिए रुख्सत करना है ज़नाब। आप जानते ही हैं, महीने के आख़िरी दिन यानि कम्युनिष्ट दिन चल रहे हैं और हमारी जेबें ख़ाली है। बस ख़ुदा के वास्ते [थोड़ा रुककर]...आप फ़िक्र न करें, एक तारीख़ को तनख्वाह से काट लेना।

आक़िल मियां – [होंठों में ही, कहते हैं] - अब समझा। ज़नाब एक ही बुलावे से, कैसे झटपट आ गए स्कूल में ? ये ज़नाबे आली तो ऐसे हैं, जो घर बैठे कहला देते हैं कि डाक देने गए हैं या गाँव गए हैं..न मालुम ज़नाब क्या-क्या बहाने गढ़ लेते हैं ?

[आक़िल मियां को चुप पाकर, चुग्गा खां के चेहरे पर फ़िक्र की रेखाएं उभर जाती है। मगर, आक़िल मियां को उनकी फ़िक्र से क्या मतलब ? वे तो अभी भी, होंठों में ही बड़बड़ाते जा रहे हैं।]

आक़िल मियां – [होंठों में ही, बड़बड़ाते जा रहे हैं] – क्या करूं ? कभी-कभी इनकी बीबी घूंगट निकाले बाहर आती है, फिर टीच-टीच करती हुई कहती है कि “फ़कीरे की अब्बा, घर पर नहीं हैं।” इतना कहकर वह घर का दरवाज़ा बंद करके चली जाती है। वाह रे, वाह। इनकी अक्ल तारीफ़े क़ाबिल है। मगर आज़ यह ऊंट पहाड़ के नीचे आ गया है। अब इनकी सारी होशियारी, धरी रह जायेगी।

[अब आक़िल मियां की अक्ल काम आने लगी, उन्होंने सोच ली सारी प्लानिंग..कि, पहाड़ के नीचे आये ऊंट को काम में कैसे लगाया जाय ? फिर थोड़ा ग़मगीन होकर, चुग्गा खां से कहते हैं।]

आक़िल मियां – [थोड़ा फिक्रमंद बनाकर, कहते हैं] – मियां आपका काम कर दें, तो ख़ुदा ज़रूर मेहर बरसायेगा हम पर। मगर, करें क्या ...?

चुग्गा खां – क्या हो गया, ज़नाब ? हमारा काम तो हो जाएगा ना..?

आक़िल मियां – आपका काम क्यों नहीं करते, मिया ? मगर ज़माना ज़ालिम है, आज़ तड़के आते ही दाऊद मियां ने उधार मांग लिए और ले गए जमा राशि..अब कुछ नहीं बचा, आपको देने के लिए। मियां, अब क्या करें ?

चुग्गा खां – क्या हो गया, ज़नाब ? [हताश होकर, कहते हैं] क्या भैंस पानी में बैठ गयी, हाय अल्लाह अब पैसों का काम कैसे सलटेगा ?

आक़िल मियां – काम नहीं हो सकता, यह मैंने कब कहा ? हो सकता है, अल्लाहताआला ने चाहा तो रुपयों का बंदोबस्त हो सकता है। [खिड़की के बाहर झांकते हुए] यह क्या ? यहाँ तो इतना कचरा पड़ा है, हाय अल्लाह यह बदबू यहाँ से आ रही थी ?

चुग्गा खां – क्या कह रहे हैं, आप ? क्या, वास्तव में रुपयों का इंतज़ाम हो जाएगा ?

आक़िल मियां - [मुंह अन्दर लाकर, कहते हैं] – देख नहीं रहे हो, मियां ? कितना कचरा पड़ा है, बाहर ? आप लोग कूड़ादान को, कहीं इसी स्थान पर ख़ाली तो नहीं कर देते...आज़कल ? अब लाओ फावड़ा, और बाहर जाकर यह सारा कूड़ा उठाकर बाहर फेंक आवो। कुछ कीजिये ना, इन बच्चियों की दुआ लगेगी। जानते हैं यहीं पास में, बगीचे में लगे पेड़ों के तले ये बच्चियां बैठकर खाना खाती है। ख़ुदा रहम, ये बेचारी कैसे इस बदबू को बर्दाश्त कर पाती है ?

चुग्गा खां – आप फ़िक्र न करें, ज़नाब। शाम को नाईट ड्यूटी पर आऊंगा तब हुज़ूर, ज़रूर मैं इस कूड़े को बीनकर बाहर फेंक आऊँगा। अभी तो आप, पैसों का इंतज़ाम कीजिएगा ना।

आक़िल मियां – किसने देखी है शाम, जब यहाँ एक पल का भरोसा नहीं...और आप शाम की बात करते हैं ? देख नहीं रहे हो, मियां ? शकील मियां को कोटन मिल गए केवल एक ही घंटा ही नहीं बीता, और ख़बर आ गयी कि दुर्घटना से बेचारे शकील मियां मारे गए। अब आप शाम की बात करना छोड़िये..

चुग्गा खां – [भौंचके होकर, कहते हैं] – क्यों हुज़ूर ?

आक़िल मियां - न तो कहीं से यह ख़बर आ जायेगी कि बच्चियां छुट्टियां लेकर चले गयी, और फ़ीस के रुपये जमा नहीं हुए। बाद में तो मियां, कल उन बच्चियों के आने के बाद ही रुपयों का बंदोबस्त होगा।

[फिर क्या ? मियां फावड़ा उठाते हैं और आ जाते हैं वहां, जहां आक़िल मियां के कमरे के पीछे ये जैलदार रोज़ कचरा डाला करते हैं। थोड़ी देर तक बराबर काम करने के बाद कचरा हट जाता है, चुग्गा खां अपने दोनों हाथ ऊपर ले जाते हुए अंगड़ाई लेते हैं। तभी, आक़िल मियां वहां तशरीफ़ लाते हैं। और उनसे कहते हैं।]

आक़िल मियां – वाह मियां, वाह। क्या सफ़ाई की है, ज़नाब ने। सदका उतार लूं, कहीं बुरी नज़र न लग जाए आपको। बस, एक कसर बाकी रह गयी है।

[चुग्ग खां घबरा जाते हैं, न मालुम अब और कौनसा काम उनके ऊपर आ पड़ा ? बेचारे घबराये हुए, कहते हैं!]

चुग्गा खां – [घबाराकर, कहते हैं] – ऐसी क्या कमी रह गयी, हुज़ूर ? रुपये तो मिलेंगे, ना ?

आक़िल मियां – अब ऐसा करो, मियां। इस साफ़ किये गए स्थान पर, केली के पौधों का रोपण कर दीजियेगा। फिर इन पौधों पर, कोई माई का लाल कचरा डालने की हिम्मत न करेगा। इस तरह इस स्थान की ख़ूबसूरटी देखकर स्कूल की बच्चियां कहेगी “वाह, चुग्गा मियां की केलियाँ क्या ख़ूबसूरत बहारे बिखेर रही है ?”

[जिस स्थान को साफ़ किया गया, वह पहले यहाँ बगीचे में बदबू फैला रहा था और स्कूल की बच्चियां इसके नज़दीक बैठकर लंच में खाना नहीं खाती थी। अब यह स्थान यहाँ खड़ा रहने के लायक बन गया है। यहाँ से कुछ दूर खड़े मेमूना भाई, पाइप से पानी दे रहे हैं। वे आक़िल मियां की कही बात, सुन लेते हैं। ज़नाब से बिना बोले रहा नहीं जाता, और वे बरबस बोल उठते हैं।]

मेमूना भाई – अरे ज़नाब, वह क्या मंज़र होगा ? जब इन कलियों के पीले-लाल फूल ख़िल उठेंगे और इन पर तितलियाँ और भंवरे मंडराते रहेंगे। कोयले कूहू कूहू करती, कुहुक रही होगी। ऐसा मंज़र तो हुज़ूर, जन्नत में भी दिखायी न देता होगा। इस मंज़र को देखकर बच्चियां कहेगी कि फूल कह देने से अफ़्सुर्दा कोई होता है,

सब अदाएँ तिरी अच्छी हैं नज़ाकत के सिवा

आक़िल मियां – [दाद देते हुए, कहते हैं] – वाह, मेमूना भाई वाह। क्या पेश किया है ? ‘सब अदाएं तिरी अच्छी है नज़ाकत के सिवा” अब तो मेमूना भाई एक नज़्म हो जाय, इनके साहसी काम पर। जो इस बगीचे में इन फूलों पर मंडराते हुई तितलियाँ, कोयले और ये भ्रमर गाकर हमें सुनायेंगे, कि ‘हमारे बहादुर चुग्गा खां ने, क्या किया ?’

मेमूना भाई – [गाते हुए] – खिड़की के पास किस चमान ने कूड़ा करकट डाल दिया, हाय अल्लाह क्या देखूं मैं ? उज़ले धवल कपड़े पहने बाबूजी ने, सारा कूड़ा करकट हटा दिया। अब क्या देखूं, हाय अल्लाह..

चुग्गा खां – [गुस्से से, कहते हैं] – अरे मरियल, क्या बोल रहा है ? अभी ठहर..

[फिर क्या ? चुग्गा खां आंखें तरेरते हुए मेमूना भाई को इस तरह देखते हैं, मानों बकरीद के दिन बकरे की ठौर इस मेमूना भाई को ही क़ुरबानी का बकरा उनको बनाना हो ? बेचारे चुग्गा खां वैसे ही खफ़ा हैं, कई लोगों से रुपये उधार मांगकर देख चुके हैं, मगर ऐसा कोई माई का लाल मिल नहीं जो उनको बिना ब्याज रुपये उधार दे सके ? यहाँ तो चुग्गा मियां अपने आपको इतना होशियार समझते आये हैं, कि स्कूल का कोई बन्दा क्या जानता होगा...कि, ज़नाब ने कई रुपये-पैसे बचत करके बैंक में जमा कर रखे हैं। अल्लाह मियां के फ़ज़लो-करम से चुग्गा मियां ने कभी बैंक से अपने बचत किये रुपये-पैसे बाहर निकालना सीखा ही नहीं। यह नहीं कि उनको विड्रोल करना आता नहीं हो ? वे तो बड़ी मेडम के हुक्म से, अक्सर स्कूल के बॉयज फण्ड के रुपये बैंक से निकलाकर लाया करते हैं। इसलिए बात यह है कि, जहां आक़िल मियां जैसे रहम-दिल जैसे इंसानों से बिना ब्याज उधार रुपये मिल सकते हैं, तब कौन ऐसा उल्लू का पट्ठा होगा जो बैंक से मिलते ब्याज को छोड़ना चाहेगा ? जबकि इस्लाम में ब्याज लेना और देना, ग़ैरमज़हबी है। जहां स्वार्थ सामने आ जाता है, वहां ऐसा कौनसा इंसान है जो मज़हबी हुक्म को लोहे की लकीर की तरह मानता रहेगा ? सभी अपने-अपने मतलब में होशियार, यही ख़िलक़त का कायदा रहा है। इसलिए उन्होंने सोच रखा है कि, “बैंक से रुपये बाहर आते ही, जुड़ रहा ब्याज कम हो जाता है।” यही कारण है, मियां इधर-उधर कहीं से रुपये बिना ब्याज पर लेकर अपना काम चला लिया करते हैं। मगर, अब यहाँ उनकी क़िस्मत उनका साथ दे नहीं रही है ? और इधर यह ख़ालाजान ठहरी जिद्दी फ़ितरत की, कई दफ़े समझा दिया चुग्गा खां ने कि “प्लीज़ ख़ाला, दो-तीन दिन और रुक जाओ, एक तारीख के बाद चली जाना। ऐसा बार-बार मौक़ा मिलता कहाँ है साथ रहने का ?” मगर एक बात उसने मानी नहीं, और ऊपर से इनकी खातूनेखान यानि इनकी बीबी ने यह बात कहकर गुड़-गोबर कर डाला। बीबी कहने लगी कि, “हाय अल्लाह, कैसी बात कह रहे हो मियां ? जानते नहीं, ख़ानदानी औरतें ज़्यादा दिन ससुराल से बाहर नहीं रहती है।” फिर तो मियां के पास, एक ही चारा रहा...कहीं से, रुपये-पैसों का इंतज़ाम करना। यहाँ तो पहले से ही आक़िल मियां के साथ ऐसा रसूखात चल रहा है, कि ‘महीने के लास्ट दिनों में आक़िल मियां से रुपये उधार लेना, और अगले माह तनख्वाह के रोज़ उधार लिए रुपयों को चूका देना।’ अब इस वक़्त यही मियां की मज़बूरी है, किसी तरह आक़िल मियां से उधार के रुपये लेना। इस कारण अब वे झट जुट जाते हैं, काम पर। सरकारी दफ़्तरो का काम, ख़ुदा के भरोसे चलता है। कौन ऐसा शख्स होगा, जो बिना स्वार्थ मन लगाकर काम करता हो ? फिर क्या ? वे बगीचे के उस हिस्से की तरफ़ क़दम बढ़ा देते हैं, जिधर केली के पौधों के झुरमुट लगे हैं। वहां पहुँचकर उस झुरमुट से, केली के रोप निकाल लाते हैं। फिर उसी ख़ाली स्थान पर, कतार में केली के पौधों का रोपण कर देते हैं। फिर पानी से भरी बाल्टी लाकर, उन उन नए रोप को पानी दे डालते हैं। पूरा काम निपट जाने के बाद वे तनकर सीधे खड़े होते हैं, फिर चारों-तरफ़ अपनी निग़ाहें डालते हैं। उनको कहीं भी आक़िल मियां और मेमूना भाई के दीदार होते नहीं। वे बेचारे इस काम में इतना डूब गए कि, उन्होंने ध्यान भी नहीं रखा आक़िल मियां और मेमूना भाई कब छू-मंतर हो गए ? अभी थोड़ी देर पहले मेमूना भाई उनकी शान में तारीफ़ के कसीदे निकाल रहे थे, और आक़िल मियां सुन रहे थे। हाय ख़ुदा..आसमान की हवा उड़ाकर ले गयी, या धरती के फटने से ज़मीन के अन्दर चले गए आकिल मियां ? फिर क्या ? मियां झट बगीचे के बिलकुल बीच में आ जाते हैं। अब वहां खड़े रहकर, वे बगीचे का नज़ारा देखते हैं। अब उनको साफ़-साफ़ दिखायी देता है, मेमूना भाई तो बगीचे के किनारे पर लगी केली के पौधों को पाइप से पाने दे रहे हैं। और आक़िल मियां, अपने कमरे की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा चुके हैं। काम करते-करते चुगा खां के बदन से पसीना बाहर निकलने लगा। इस वक्त ग्रीष्म ऋतु चलने के कारण चुग्गा खां की कमर पर घमोरियां हो गयी है, अब इस पसीने से उनके बदन की घमोरियां जलने लगी। इसके साथ-साथ, कमर पर खुजली भी बढ़ने लगी। इस पसीने से उनका पूरा कमीज़ भींग चुका है, उसे सूखाने के लिए मियां उस कमीज़ को बदन से उतार लेते हैं। और पास में लगे नीम के पेड़ की डाल पर, उसे सूखाने के लिए उसे टांक देते हैं। पानी देता हुआ मेमूना भाई उस नीम के पेड़ के पास चले आते हैं। इधर आता है, ठंडी हवा का झोंका। यह झोंका उनके खुले बदन को छूता है। और, उनकी कमर पर छायी घमोरियों की खुजली को बढ़ा देता है। बेचारे चुग्गा खां घमोरियों को खुजाते-खुजाते जलन को और बढ़ा देते हैं। अब यह खुजली, नाक़ाबिले बर्दाश्त हो जाती है। बस, फिर क्या ? वे तेज़ी से खुजाने लगते हैं। तभी ख़ुदा जाने कहाँ से, एक खुजली वाला कुत्ता बगीचे में दाख़िल हो जाता है। और आते ही, वह ठंडी-ठंडी घास के ऊपर लोटने लगता है। बगीचे में पानी दे रहे मेमूना भाई उस कुत्ते को घृणा से देखते हैं, जो बगीचे की घास से अपनी ख़ाल रगड़कर खुजली मिटा रहा है। अब मेमूना भाई कभी कमर को खुजाते चुग्गा खां को देखते हैं, तो कभी देखते हैं उस खुजली वाले कुत्ते को। बस, फिर क्या ? वे इस मंज़र को देखकर, न मालुम उनको ऐसा क्यों लगता है कि ‘कहीं यह खुजली की सिहरन, उनके बदन पर शुरू तो नहीं हो रही है ?’ अब इन दोनों का लगातार बदन खुजाने का यह मंज़र, उनके लिए देखना बर्दाश्त के बाहर है। अब वे, गुस्से से बेनियाम हो जाते हैं। फिर क्या ? मुग्गल्लज़ गालियां बकते हुए, कुत्ते पर सारा गुस्सा उतार बैठते हैं। ज़मीन से पत्थर उठाकर उस खुज़ली वाली कुत्ते पर फेंक-फेंककर, आख़िर उसे बगीचे से बेदख़ल करके ही इतमिनान की साँस लेते हैं।]

मेमूना भाई – अरे, हरामी के पिल्ले। कमज़ात तुझको यही बगीचा मिला, खुजाने के लिए ? अब तू जाता है, बाहर ? या मारूं, तेरे पिछवाड़े पर चार लात। कमबख्त मेरे बगीचे में पड़िया-पड़िया खुजा रिया है ?

[इतना कहकर, ज़मीन से पत्थर उठाकर, उस पर बार-बार फेंकते हैं। आख़िर उसे बगीचे से बेदख़ल करके ही, दम लेते हैं। इधर चुग्गा खां के बदन की खुज़ली, बर्दाश्त के बाहर ? बेचारे चुग्गा मियां, अब हाय तौबा मचाने लगे। और उधर कुत्ते की फज़हत में बोले गए मेमूना भाई के बोल वे अपने ऊपर ले लेते हैं। फिर क्या ? झल्लाते हुए, वे कहते हैं।]

चुग्गा खां – [झल्लाते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – हाय..हाय। पूरा बदन इन जानलेवा घमोरियों से जल रहा है, ख़ुदा रहम। और यह दोज़ख़ का कीड़ा मुझे गालियां बकता हुआ मेरे घाव पर नमक छिड़क रहा है, हाय अल्लाह..इसे ज़रूर जहन्नुम नसीब करें। [सोचते हुए] अब, इस बदन को कैसे ठंडा करूं ? अब तो आक़िल मियां के पास जाता हूँ, फिर उनसे कोल्ड ड्रिंक मंगवाकर उधार के रुपये ले लेता हूँ।

[फिर क्या ? चुग्गा खां फावड़े को औजारों के बॉक्स में रखकर, वापस बगीचे में आ जाते हैं। फिर आक़िल मियां के पास जाने के लिए, पांवों में चप्पल डालते हैं। इसके बाद कमीज़ पहनने के लिए, नीम के डाल की तरफ़ अपना हाथ बढ़ाते हैं...ताकि, वे अपना सफ़ेद कमीज़ पहन सके। मगर यह सफ़ेद कमीज़ जो दिखने में ऐसा लगता है, मानों मियां ने उसे टीनाफोल से धोया हो ? मगर मियां के नसीब में लिखा नहीं, कि वे उस उज़ले, सफ़ेद और चमकदार कमीज़ पहनकर इतराए। ख़ुदा जाने क्यों नीम की डाल पर बैठा क़लाग़ [कौआ] उड़ता है, और कमबख्त उड़ते-उड़ते गर्म-गर्म बींट छोड़ देता है। कुछ बींट गिरती है, कमीज़ पर। तो कुछ गर्म-गर्म बींट गिरती है, उनकी सुराहीदार कमर के ऊपर। गर्म-गर्म बींट उनकी कमर पर गिरते ही, उनकी कमर इस जलन बर्दाश्त नहीं कर पाती है। जलन के मारे, चुग्गा खां चिल्ला उठते हैं। फिर क्या ? फिर ज़नाब, बिना देखें बोल देते हैं!]

चुग्गा खां – [गुस्से से उबलते हुए, कहते हैं ज़ोर से] – हाय अल्लाह, तू रहम कर। [उड़ते क़लाग़ के ऊपर निशाना साधकर पत्थर फेंकते हैं] क़लाग़ तेरी ऐसी की तैशी, कमबख्त यह मेरी कमर है, तेरा पाख़ाना नहीं। जब मर्ज़ी आये तब इस पर बींट छोड़कर उड़ जाता है ?

[गुस्से से उबलते हुए, उस उड़ते क़लाग़ [कौए] का निशाना बनाते हुए एक पत्थर फेंकते हैं..मगर निशाना चूक जाता है। फिर क्या ? वह पत्थर उसे न लगकर चोट लगा देता है मेमूना भाई के सर पर। फिर दर्द के मारे मेमूना भाई के हाथ से पाइप छूट जाता है, जो गोल-गोल घूमता हुआ चुग्गा खां के मुंह पर आकर गिरता है। इस पाइप से निकला जा रहा पानी, मुंह के साथ-साथ उनके कमीज़ के ऊपर भी गिर पड़ता है। अपने गीले कमीज़ को देखकर, चुग्गा खां का गुस्सा बढ़ जाता है और लाल-पीले होकर वे ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगते हैं।]

चुग्गा खां – [चिल्लाते हुए, कहते हैं] – मार डाला रे, अभी कमर अंगारे की तरह धधकती है तो कभी हमारे कमीज़ का हो जाता है सत्यानाश।

[उनकी चीख-पुकार सुनकर मेमूना भाई पाइप को बरामदे में रखकर वापस झट बगीचे में लौट आते हैं, और आकर चुग्गा खां से कहते हैं।]

मेमूना भाई – अमां यार, क्या हाय तौबा मचा रखी है ? यदा-कदा कभी आपकी बिरादरी वाले आपकी सुराहीदार कमर को पाख़ाना समझकर बींट कर भी दे, तो क्या बिगड़ता है तुम्हारा ? मियां आपको खुश हो जाना चाहिए, आख़िर ये क़लाग़ ठहरे आपकी बिरादरी के।

चुग्गा खां – [नाराज़गी के साथ, कहते हैं] – होंगे तुम्हारी बिरादरी के, आ गए कमबख्त यहाँ.. इस नामाकूल क़लाग़ की हिमायत करने ?

[तभी छुट्टी का वक़्त हो जाता है, शमशाद बेग़म झट जाकर छुट्टी की घंटी लगा देती है। फिर क्या ? उधर मेमूना भाई को भी घर जाने की उतावली मचने लगी है ] वे झट, चुग्गा खां से कह देते हैं।]

मेमूना भाईआप तो ज़नाब, बड़े बाबूजी ठहरे हम तो ठहरे, छोटे जैलदार इसलिए सुबह ही हमने दी थी आपको, नत्थी करने के लिए हमारी जोइनिंग की दरख्वास्त [मंद-मंद मुस्कराते हैं] हुज़ूर, अब आप रुके रहना दफ़्तर का काम बहुत पेंडिंग पड़ा है, उसे पूरा करते आना रवाना होते समय, स्कूल के ताले-वाले भी देख लेना हुज़ूर जिम्मेदारी का काम ठहरा आपका, कहीं चूक न हो जाय ? अच्छा, अब हम चलते हैं

[यहाँ की बकवास को अधूरी छोड़कर, मेमूना भाई हंसी के ठहाके लगाते हुए अपने क़दम बरामदे की तरफ़ बढ़ा देते हैं।]

चुग्गा खां – [दुखी होकर, कहते हैं] – आख़िर, यह भांडा किसने फोड़ा ? किसने बताया, इस कमबख्त को..कि, हम दफ़्तरेनिग़ार नहीं हैं ? अक्सर, रात को चौकीदारी करने वाले, चौकीदार ठहरे।

[छुट्टी की घंटी लगने से, बगीचे में बैठी बच्चियां यकायक बस्ते उठाकर चिल्लाती हुई भागती है गेट की तरफ़।]

बच्चियां – [चिल्लाती हुई, ज़ोर से कहती हुई भगती है] – छुट्टी हो गयी, भागो..भागो।

[रास्ते के बीच में खड़े चुग्गा खां को धक्का देती हुई ये बच्चियां, बस्ता उठाये गेट की तरफ़ बढ़ जाती है। बेचारे चुग्गा खां का कोमल बदन, उनके धक्के को क्या झेल पाता ? बेचारे धक्के से, चारों खाने चित्त हो जाते हैं। जब वे उठते हैं, तब-तक बगीचे से बाहर निकालने का रास्ता पूरा पैक हो जाता है। अब इनका आक़िल मियां के पास जाना, हो जाता है मुश्किल। उनसे रुपये उधार लेने, अब कैसे जाया जाय ? अब तो मियां के नसीब में, ख़ाली इन्तिज़ार करना ही लिखा है। अपनी बुरी दशा देखकर, मियां बरबस मुख से बड़बड़ाने लगते हैं।]

चुग्गा खां – [बड़बड़ाते हैं] – हाय रे, मेरे नसीब। ख़ुदा रहम। अब कैसे पहुंचा जाय, आक़िल मियां के पास ? ए मेरे परवरदीगार, यह बच्चियों की दीवार अब कब ख़त्म होगी ? मेरे ख़ुदा, कब मिलेंगे आक़िल मियां से रुपये ?

[गेट पार करके, बच्चियां जा चुकी है, मगर यह दूरी की दीवार अभी-तक ख़त्म नहीं हुई है। बहुत दूर से आक़िल मियां अपना बैग लिए, स्कूटर की तरफ़ क़दम बढाते नज़र आ रहे हैं। मगर, उनके पास शीघ्र पहुँच जाना आसान नहीं है। क्योंकि, उनके आगे-आगे ये स्कूल की मेडमें स्कूटर पर बैठी बाहर निकल रही है। इधर इन मेडमों का झुण्ड गेट से बाहर निकलता है, और उधर सड़क पर एक चरवाहा भेड़ों का झुण्ड लिए गुज़रता नज़र आता है। मेडमों के झुण्ड के कारण भेड़ें इधर-उधर बिखर जाती है। जिससे वह नाराज़ होकर, चिल्लाता हुआ कह बैठता है।]

चरवाहा – [मारवाड़ी भाषा में, चिल्लाकर कहता है] – औ बैनजियां रौ रेवड़ सांतरों है, अरे मालक इनौ चरवाहों कठै मरियौ है म्हारा बाप ?

[बाहर मनु भाई की दुकान के सामने वाली बेंच पर बैठे साबू भाई उस चरवाहे की बात सुन लेते हैं, वे उसे सुनाते हुए ज़ोर से बोलकर ज़वाब देते हैं।]

साबू भाई – [ज़ोर से बोलते हुए, ज़वाब देते हैं] – ग़नीमत है रे, इनका चरवाहा नहीं होना ही अच्छा। अभी-तक इस रेवड़ के चरवाहे ने तुझको देखा नहीं है, देख लिया होता तो छुट्टी के वक़्त तेरा यहाँ से निकलना बंद हो जाता ?

[मेडमों के गुज़र जाने के बाद, नूरिया बन्ना दिखायी देते हैं। जो डिस्को डांसर का फ़िल्मी गीत गाते हुए अपनी साइकल उठाते हैं। उनको बाहर रुख्सत होते देखकर, चुग्गा खां उन्हें ज़ोर से आवाज़ देकर पुकारते हैं।]

चुग्गा खां – [ज़ोर से आवाज़ देते हुए, उसे पुकारते हैं] – अरे ओ, नूरिया बन्ना। ज़रा ठहरना भाई, स्कूल के ताले जड़ने हैं, आकर मदद...!

[नूरिया ठहरा, उस्ताद। वह तो आकाश की तरफ़ ऊंचा देखता हुआ, आराम से साइकल बाहर ले आता है। फिर साइकल पर सवार होकर नौ दो ग्यारह हो जाता है। अब चुग्गा खां स्कूल के चारों तरफ़ निग़ाहें दौड़ाते हैं, मालूम होता है कि सिवाय चुग्गा खां के सभी रुख्सत हो चुके हैं। स्कूल में सन्नाटा छाया हुआ है। अब वे आगे बढ़कर सामने की दुकान पर नज़र डालते हैं, जहां अक्सर आक़िल मियां घर जाते वक़्त थोड़ी देर के लिए वहां रुक जाया करते हैं, साबू भाई से दुआ-सलाम करने। इसीलिए वे वहां आक़िल मियां का स्कूटर देखना चाहते हैं, शायद वहां पड़ा हो तो वे उनसे मिलकर रुपये उधार ले लें। मगर, यह क्या ? वहां कहाँ है, स्कूटर ? पता नहीं, आक़िल मियां ने कब अपने कमरे का ताला लगा डाला, और रुख्सत हो गए ? बदक़िस्मत उनकी यही रही कि, दिन-भर बगीचे में काम करते रहे और उनसे रुपये उधार माँगने जा नहीं पाए। हताश होकर चुग्गा खां बरामदे की ओर अपने क़दम बढ़ाते हैं, वहां पहुँचकर वे सभी कमरों के ताले जड़ देते हैं। इस काम से फारिग़ होकर, वे मेन गेट के बाहर आकर खड़े हो जाते हैं। अकस्मात उनकी निग़ाह मनु भाई की दुकान पर आकर टिकती है। वहां उनको नूरिया बन्ना खड़े नज़र आते हैं। जो खड़े-खड़े गुटका अरोग रहे हैं। और साथ में वे मनु भाई को शेर सुनाते जा रहे हैं।]

नूरिया – “वो गुनगुनाते रास्ते, ख़्वाबों के क्या हुआ। वीरान क्यूँ है बस्तियां, बासिन्दे क्या हुए। हम इतने पागल नहीं हैं, जितना ज़माना समझे। हम क्या शागिर्द बनते, जो ख़ुद शागिर्द रखते हैं।

[अब बेचारे चुग्गा खां अपने आपको तन्हाई में पाकर, दुखी हो जाते हैं। ऐसा लगता है, इस स्टाफ का कोई बन्दा उनका नहीं है, सभी उनको छोड़कर चले गए हैं। बेचारे अब होंठों में ही शाइर सीन काफ़ निज़ाम का शेर गुनगुनाते रह जाते हैं।]

चुग्गा खां – [होंठों में ही, गुनगुनाते हैं] – माजी की हर चोट उभर आयी है ये दर्द मिरी जाँ का तमन्नाई है... जाओ किसी तरह कि ताहेद्द-नज़र तन्हाई है, तन्हाई, तन्हाई है

[चुग्गा खां हताश होकर, साइकल उठाते हैं अपनी। संध्या होने जा रही है। चुग्गा खां अपने घर की ओर चल देते हैं। उनके ऊपर उड़ता रहा कबूतरों का झुण्ड भी, अपने घर कुए की तरफ़ उड़ता जा रहा है। दोनों का मक़सद अब एक ही है..बस, कुएं की ओर जाना।]

(समाप्त)

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: हास्य नाटक - दबिस्तान-ए-सियासत - 4 // राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित
हास्य नाटक - दबिस्तान-ए-सियासत - 4 // राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguqXnxi4QdqTmY9wtslvX-4O9YhgomaLvP8mh3IDLr9v8IxzYj81WC8rijcn8i4y2DxSWQ09cMB_D0hul6JKzIa4nF6bXzauQuYMWcxdHO2Ldl9U-nBTyR8Em8wNz48VcUT1Bt/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguqXnxi4QdqTmY9wtslvX-4O9YhgomaLvP8mh3IDLr9v8IxzYj81WC8rijcn8i4y2DxSWQ09cMB_D0hul6JKzIa4nF6bXzauQuYMWcxdHO2Ldl9U-nBTyR8Em8wNz48VcUT1Bt/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/04/4_16.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/04/4_16.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content