मुक्तिबोध अंधेरे में–भाष्यालोचन–4 : शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

SHARE:

कुछ फैंटेसी के बारे में- मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में फैंटेसी शिल्प का प्रयोग किया है. यह “अँधेरे में” कविता तो पूरी फैंटेसी ही है. इसे हिं...

कुछ फैंटेसी के बारे में-

मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में फैंटेसी शिल्प का प्रयोग किया है. यह “अँधेरे में” कविता तो पूरी फैंटेसी ही है. इसे हिंदी में फंतासी भी कहते हैं. फंतासी का अर्थ है कल्पना. इसमें कल्पना द्वारा चित्रांकन किया जाता है अथवा इमेजेज बनाए जाते हैं. फ्रायड के अनुसार असंतुष्ट व्यक्ति अपनी अतृप्त इच्छाओं को व्यक्त करने के लिए फैंटेसी का सहारा लेते हैं. हिंदी साहित्य में फैंटेसी का सर्वप्रथम प्रयोग डॉ सम्पूर्णानंद ने सन 1953 में किया “पृथ्वी से सप्तर्षिमंडल” नामक अपना विज्ञान-फंतासी लिख कर. यह एक लघु उपन्यास है. इसमें उन्होंने पृथ्वी से दिख रहे सप्तर्षिमंडल का चित्र प्रस्तुत किया है. और उसमें कल्पना का पुट देकर उस चित्र को मनोहारी बना दिया है. लेकिन इस चित्रण में किसी भी स्तर पर वैज्ञानिक नियमों का उल्लंघन नहीं हुआ है. फैंटेसी वस्तुतः कोरी कल्पना नहीं है. इसमें कल्पना के सहारे अंतर्वस्तु का चित्रांकन किया तो जाता है, पर यहाँ कल्पना अनर्गल नहीं होने पाती. आधुनिक विज्ञान-फंतासी के जन्मदाता डेनियल डेफी ने अतरिक्ष यात्रा का कथानक लेकर अपना विज्ञान-फंतासी “कॉन्सोलिडेटर” लिखा है. इसमें अतरिक्ष यात्रा का कल्पना-प्रवण और प्राणवान चित्रण किया है, इसमें अंतरिक्ष के ज्ञान का आधार पूरी तरह वैज्ञानिक है पर यात्रा का आधार लेखक के मन की अपेक्षा के अनुसार है. कुछ विज्ञान-फंतासियों में कृतिकारों ने विज्ञान द्वारा ज्ञात तथ्यों के अलावे कुछ और भी होने की कल्पना है जिसकी आगे चलकर वैज्ञानिक खोजों द्वारा पुष्टि भी हुई है. यह फैंटेसी की सामर्थ्य को दिखाता है.

देखा जाए तो भारतीय साहित्य भी फैंटेसी से अपरिचित नहीं है किंतु यहाँ यह कोरी कल्पना है. यहाँ यह किस्सा के रूप में है जिससे केवल मन की कुतूहल को ही शांति मिलती है.

कविता में फैंटेसी का प्रथम प्रयोग संभवतः मुक्तिबोध ने किया है. उन्होंने अपनी अतृप्त इच्छाओं को व्यक्त करने के लिए इसका सहारा लिया है. ऐसा करना उनकी मजबूरी-सी लगती है. “अँधेरे में” कविता में इसकी साफ झलक मिलती है. इस कविता के आरंभिक खंड में उन्होंने जो कई कल्पना-चित्र बनाए हैं वे उनके अस्थिर मन के द्वारा निर्मित लगते हैं. इनके द्वारा वह कुछ कहने का प्रयत्न कर रहे हैं. उनके अस्थिर व बेचैन मन में के भीतर कुछ घुमड़ रहा है जिसे अभिव्यक्त करने की राहें उन्हें नहीं मिल रहीं. इन कल्पना-चित्रों में यथार्थ की झलकें मिलती नहीं दिखती. जबकि फैंटेसी-शिल्प में यथार्थ के चित्र ही कल्पना द्वारा लंबाए और प्रभावकारी बनाए जाते हैं. और यथार्थ की कोख में ही अतृप्त इच्छाभिव्यक्ति की लकीरें खींची जाती हैं. यहाँ तो सिर्फ इतना ही साफ दिखता है कि कवि के मन में जो प्रतीति उलझी हुई है उसे वह व्यक्त तो करना चाहता है पर अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा. कदाचित वह उसी अभिव्यक्ति की खोज में है जो उसके विचारों और अहसासों को स्पष्टता दे और संप्रेष्य बना सके.

कवितारंभ के कल्पना-चित्र कवि की अभिव्यक्ति की राहें बनाने की चेष्टा-से लगते हैं. जिस रक्तालोकस्नात पुरुष की, इस राह में, झलकी मिलती है वह कवि के मन की थाह देती है. वह थाह है कवि द्वारा जगत को (लाल रंग में रंगे) मार्क्सवादी नजर से देखने की. वह उसकी व्याख्या मार्क्सवादी दृष्टिकोण से ही करना चाहता है. किंतु उसका मन दोलायमान है. वह मार्क्सवादी व्यवस्था में भी लोकतंत्रात्मक अभिव्यक्ति के पाने की कामना करता है. चह आगे चल कर स्पष्ट होता है. “एक अरूप शून्य के प्रति” कविता की जड़ मार्क्सवादिता से वह बाहर निकलना चाहता है. उसमें उसकी दृष्टि केवल बाईबिल के इस वक्तव्य, कि ईश्वर ने इस जगत की सृष्टि छह दिन में की, तक ही सिकुड़ी है.

प्रथम दो खंडों को जब कवि स्वाभाविक विस्तार नहीं दे पाता है तब इसके तीसरे खंड में वह अकस्मात एक प्रोसेशन की फैंटेशी का प्रयोग करता है. दरअसल उसके मन में तत्कालीन भारतीय समाज का मार्क्सवादी विश्लेषण तैर रहा है उसके शोषक और शोषित में बँटे होने का. आजादी पाने के बाद उसे कुछ आशा थी कि उसमें कुछ परिवर्तन होगा, शोषकों पर नकेल कसी जाएगी. पर ऐसा होते उसे दिख नहीं रहा. उसके मन में शोषकों की भयावह शोषण-लीला का एक चित्र है जिसे वह अपने काव्य के माध्यम से लोगों को दिखाना चाहता है. उसकी इसी अतृप्त इच्छा की पूर्ति में सिविल लाईन्स के कमरे में पड़े पड़े उसके मन में किसी श्रमिक हड़ताल के दमन हेतु निकाले गए शोषकों के प्रोसेशन का चित्र उभर आता है. कवि अपने कमरे में पड़ा हुआ है, उसे सियारों का हो-हो और ट्रेनों के पहियों के घहराने की आवाज सुनाई दे रही है. पहियों के घहराने की आवाज से उसे संदेह होता है कि कहीं ट्रेन एक्सीडेंट न हो जाए. और इसी क्षण कविता का यह छंद बंद होता है और अगले ही क्षण कवि के मन में प्रोसेशन की बात कौंधती है. प्रोसेशन का कवि के मन में कौंध की तरह आना कविता में फैंटेसी का स्वाभाविक तौर पर आना नहीं माना जा सकता. तो क्या यह कहा जा जाए कि मुक्तिबोध की कविताओं में फैंटेसी स्वाभाविक विकास की तरह नहीं आती. इस प्रोसेशन का वर्णन कवि ने सामने घट रही घटना की तरह किया है किंतु प्रोसेशन में जो चित्र दिया गया है वह यथार्थ रूप में तत्काल घटित हो रही घटना का नहीं है. वह मार्क्सवादी दृष्टि से भारतीय समाज का विश्लेषित चित्र है, इस समाज को शोषक और शोषित में बाँट कर देखने का. इसमें शोषितों में दहशत पैदा करने के लिए शोषकों द्वारा निकाले गए भयंकर जुलूस का चित्र जो कवि के मन में है, वह उसके द्वारा कभी देखे जुलूस का है अथवा उसकी कल्पना द्वारा संयोजित है. ऐसा होने की उसके मन में आशंका है. यह सब प्रकृतिगत रात के अँधेरे में नहीं हो रहा, यह कवि के मन के अँधेरे में हो रहा है. ‘अँधेरे में’ शीर्षक कवि के मन के अँधेरे के लिए है. कवि के अपने अभिप्सित के कहने का यह अंदाज क्या काव्यमय है?

कवि की यही परेशानी है. नेहरू युग तक भारत में पूँजीवाद अभी ठीक से आया भी नहीं था, न ही नेहरू पूँजीवाद के समर्थक थे. वह तो समाजवादी समाज की संरचना में लगे थे. और मुक्तिबोध पूँजीवादी समाज की खामियों के साथ उसमें उपस्थित शोषकों की भूमिका को रेखांकित करना चाहते थे. अतः यह प्रोसेशन का जो बिम्ब उल्होंने रचा है वह शोषितों को डराने के लिए शोषकों द्वारा निकाले गए संभावित जुलूस का है. यह शोषितों में दहशत पैदा करने की कोशिश का चित्रण है. इसमें फैंटेसी की यह कल्पना अनुस्यूत है कि पूँजीवाद किस प्रकार समाज पर अपना प्रभुत्व जमाने की चेष्टा करता है. मुझे तो इसमें विदेशी पूँजीवादी शक्ति का ही द्योतन दिखाई देता लगता है.

मुक्तिबोध की कविता : ‘अँधेरे में’, खंड 4

भाष्यः

अकस्मात.........................................................................................................गल रहा दिल

काव्य-नायक कवि गत खंड में अपनी प्रोसेशन की फैंटेसी में साँस ले रहा था. इस खंड में भी वह सिविल लाईन्स के कमरे में पड़ा पड़ा कल्पना में डूबा है. किंतु उसकी ज्ञानेंद्रियाँ सजग हैं. कवि को लगा था कि उस सैन्यबद्ध प्रोसेशन के किसी सैनिक की दृष्टि उसपर पड़ गई है. अतः इस डर से कि उनकी गतिविधि को नंगा (क्रूर रूप में) देख लेने के कारण वे उसे सजा देंगे, वह कमरे से भाग चला था (कल्पना में). इसी समय अकस्मात उसे दूर कहीं चार के गजर के खड़कने की (अर्थात चार बजने की) आवाज सुनाई देती है. घंटे की आवाज सुन उसका दिल धड़कने लगता है, जाने क्या हो. पकड़ जाने के भय से उसके मन पर मटमैले वल्मीकि जैसा आवरण पड़ा था अर्थात उदासी छा गई थी. उसके उस मनरूपी वल्मीकि में सहसा कुछ हलचल हुई. भय के मारे उसकी आँखों के सामने अनेक हायफन-डैसों जैसी काली काली लीकें अंदर बाहर लिकलने पैठने लगीं (जैसे चोट लगने से आँखों से चिनगी फूटने-मिटने लगती है). उसे चारो तरफ बिखराव महसूस होने लगा. वह स्वयं को अपने कमरे में लेटा हुआ पाता है. उसे लगता है कि उस कमरे की छत के काले काले शहतीर उसके हृदय को दबोचे ले रहे हैं. यद्यपि कमरे के बाहर आँगन के नल में जल के आने की खड़खड़ाहट है जैसे वह अपने आगमन की सूचना देने के लिए खँखार रहा हो और निर्भय होने को कह रहे हों. उस क्षण कवि अपने को एकाकी और कमजोर महसूस कर रहा है. उसे लगता है उसके शरीर में बल नहीं है, अँधेरे में उसका दिल गल रहा है अर्थात उसके हृदगत भाव में दृढ़ता नहीं है, अस्थिरता व्याप रही है.

एकाएक.................................................................................................................एक जन

रात के शान्त, नीरव वातावरण में प्रोसेशन की हलचल से कवि को एकाएक जग (जागतिक क्रिया कलाप) के होने का भान होता है. उसे लगता है सब ओर अखबारी दुनिया का फैलाव है (अखबार जिसे खबर का विषय बनाते हैं), उसी का फँसाव, घिराव और तनाव व्याप्त है. ये ही सारी विकृतियाँ अखबारों का मसाला बलती हैं. उसे महसूस होता है कि नगर में पत्ते न खड़के (नगर की शांति भंग न हो) इसलिए सेना ने शहर की सारी सड़कों को घेर लिया है. इस दृश्य को देख कवि की बुद्धि की नाड़ी समय की धक् धक् को गिनने लगती है अर्थात घड़ी घड़ी क्या हो रहा है, आगे क्या होने वाला है इसके प्रति उसकी बुद्धि चेतस हो जाती है. वह सोचने लगता है, आखिर यह सब है क्या. यह सैनिकों द्वारा शहर की घेरेबंदी क्यों. कवि भौंचक है कि क्या किसी जन-क्रांति के दमन के निमित्त यह मार्शल-लॉ लागू हुआ है! यह जनक्रांति की बात कवि के मन में कहाँ से आई, सवाल उठता है. पर यह फैंटेसी कुछ समीक्षकों के अनुसार वास्तव में एक घटी घटना का चित्रांकन है. कवि के समकालीनों का कहना है कि मध्यप्रदेश के एम्प्रेस कॉटन फैक्टरी में श्रमिकों की एक बड़ी हड़ताल हुई थी. हड़ताल में जो जुलूस निकला था उसे ‘नया खून’ पत्रिका की ओर से कवर (cover) करने के लिए स्वयं कवि उसमें सम्मिलित हुआ था. उसी हड़ताल को एक जन-क्रांति की तरह प्रस्तुत करने की भावना यहाँ की गई है.

नेट पर दिए मजदूर हड़ताल के इतिहास में एम्प्रेस मिल की हड़ताल को रोकने के लिए मार्शल-लॉ लगाने का जिक्र नहीं है. तिलक की गिरफ्तारी पर मुंबई (तब के बंबई) के कॉटन-मिल-श्रमिकों की हड़ताल को रोकने के लिए मार्शल-लॉ लगाया गया था. और वह वास्तव में एक जन-क्रांति थी. एम्प्रेस मिल की हड़ताल को जन-क्रांति कहना गले नहीं उतरता. क्योंकि जन-क्राति के मुद्दे व्यापक होते हैं, केवल वेतन-वृद्धि नहीं. फिर भी कविता में इस प्रकार की व्यंजना को स्थान देना कविता का कोई अवगुण नहीं कहलाएगा. किंतु यथार्थ को फैंटेसी में बदलने की कला पर यह चोट जरूर है. हाँ इस स्थिति को देख कर कवि को मार्शल-लॉ लगने की भ्रांति हो रही हो तो यह अलग बात है (हालाँकि मार्क्सवादी आलोचक वास्तविक रूप से मार्शल-लॉ लगने की बात करते हैं, कवि ने भी आगे मार्शल-सॉ लगने की बात की है).

शहर में मार्शल-लॉ के लागू होने जैसी स्थिति को देख कवि दम छोड़ गलियों में भाग खड़ा हुआ. उसकी साँसें फूलने लगीं. उसने महसूस किया, जमाने की जीभ निकल पड़ी है अर्थात इसे देख उसके साथ शहर के लोग भी हतप्रभ हैं. जुलूस में से किसी ने कवि को देख लिया था अतः उसे लग रहा है उसका कोई लगातार पीछा कर रहा है. और वह दम छोड़ कर भाग रहा है. भागते भागते कई मोड़ घूम जाने पर उसे एक चौराहा दिखता है. वहाँ रुक कर वह थोड़ी देर साँस लेना चाहता है क्योंकि उसके अनुमान में वहाँ फिलहाल कोई सैनिक पहरेदार नहीं होगा. फिर उसे अंधकार से बने स्तूप के समान एक विशाल बरगद का पेड़ दिखाई देता है जो बहुत भयंकर है. यह बरगद का पेड़ ऐसा है जहाँ सभी उपेक्षित, वंचित और गरीब शरण लेते हैं. यही स्थान उनका घर और बरगद के शीर्ष का फैलाव उनकी छत होता है. उसके ही तल के अँधेरे में जो एक खोह-सा दीखता है, उसमें गृह विहीन कई प्राणी इस समय सो रहे हैं. अँधेरे में डूबे डालों में जो मटमैले चीथड़े लटक रहे हैं, वे इन्हीं अत्यंत दीन हीनों के पूँजी-धन हैं. कवि दृढ़ता से कहता है कि उस बरगद के तल में एक सिरफिरा जन रहता है.

किंतु आज..........................................................................................................रह गए तुम

इस फैंटेशी में कवि द्वारा एक सिरफिरे जन की कल्पना की गई है. वह निरुद्देश्य नहीं है. सिरफिरे व्यक्ति बिना किसी डर भय के अपने अंतस्तल की बातें करते रहते हैं जिसमें अपनी और जगत दोनों की आलोचना के लिए स्थान होता है. कवि भी, जिन्हें जगत की वास्तविक प्रतीति होती है, सिरफिरे ही माने ताते हैं. वे केवल जीवन के पक्षधर होते हैं किसी मत विशेष के नहीं.

इस छंद में कवि महसूस करता है कि बरगद के तल में इस रात कुछ अजीब बात हो रही है. वह सिरफिरा व्यक्ति जो कत्तई पागल था आज प्रज्वलित घी के समान लग रहा है. वह आज जाग्रत-बुद्धि के समान है, जैसे उसकी बुद्धि जाग्रत हो गई हो. इस समय उसका सिरफिरापन जाता रहा लगता है. वह एक प्रबुद्ध कवि की तरह उँचे गले से कोई पद गा रहा है. पद के भाव से लगता है जैसे वह अपने को उद्बोधित कर रहा है. वह पद उसके आत्मोद्बोधन से भरा है. सड़कों पर निकल रहे सैनिक-जुलूस से उत्पन्न हुई उस असहज स्थिति में उस सिरफिरे का गान कवि को अद्भुत लगता है. वह उसपर टिप्पणी कर बैठता है- यह भी खूब है. क्या उसे पता नहीं कि नगर में वाकई सैनिक प्रशासन कायम है. क्या उसकी बुद्धि भी इस क्षण जग गई है और वह आत्मविश्लेषण में लग गया है. कवि महसूस करता है कि उस सिरफिरे पागल के गीत में करुणा-रस से भरे हृदय की रस-ध्वनि है. वह उस स्वर से जगत को परिचित कराना चाहता है, इस हेतु वह इस कविता में उसका गद्यानुवाद देता है अर्थात गद्यरूप कविता में उसे बताता है.

वह बुद्धिप्रज्वल पागल अपने मन को संबोधित करते हुए कह रहा है, हे मन! तुम तो आदर्शवादी और सिद्धांतवादी थे. तूने अबतक क्या किया. कैसा जीवन तूने जिया कि वह पूरा व्यर्थ हो गया. अपना पेट भरना ही तुम्हारा ध्येय बन कर रह गया और इसतरह तुम आत्मा से हीन हो गए. तुम्हारी स्थिति ऐसी हो गई मानो प्राणियों की शादी में कनात-से तनने लगे और किसी व्यभिचारी के लिए बिस्तर बनने लगे अर्थात तुम ऐसे कार्यों में लग गए जो तुम्हारे आदर्शों और सिद्धांतों के विपरीत थे.

इस छंद में कवि आत्मग्लानि में डूब रहा है. वह आत्मकथन करता हैः अपने आदर्शों को लेकर मैंने अनेक दुख सहे, ऐसे कि दुखों को तमगों की तरह पहन लिया, अपने ख्यालों में ही दिन रात रहने लगा, बुद्धि का भी साथ छूट गया, अकेलापन मेरा संगी साथी हो गया, जिंदगी निष्क्रिय-सी हो गई जैसे कोई तलघर हो जिसका कभी उपयोग न होता हो. पागल यह सोच कर पीड़ित है कि वह अबतक कुछ न कर सका, उसका जीवन जीना व्यर्थ हो गया. वह अपने होने से ही पूछता है, बताओ, किस किस के लिए तुम जीए, दौड़े. करुणा के कितने क्षणों से तुम रूबरू हुए और कितने से मुँह मोड़ लिए और पत्थर बन गए. तुमने लिया बहुत ज्यादा और दिया बहुत कम. अर्थात तुम्हारे आदर्शों और सिद्धांतों से देश को कुछ भी न मिला. एक तरह से देश मरा हुआ-सा ही लगने नगा और तुम्ही एक जीवित बच रहे. तुमने लोक-हित-पिता (मार्क्सवादी विचार तंतु?) को घर से निकाल दिया अर्थात उसके महत्व को ठीक से समझा नहीं. अतः अपनी विचारणा में उसे स्थान नहीं दिया. हे मेरे आत्म! तुमने जन-मन की करुणा-सी माँ को अर्थात जन के मन में उमड़ने वाली करुणा को जो माँ की ममता-सी होती है, कोई महत्व नहीं दिया, और स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया अर्थात पूँजीवादी उत्पादों को अपना लिया. शोषितों और गरीबों के प्रति जो तुम्हारे भावनागत कर्तव्य थे उसे तुमने छोड़ दिया. हृदय के मंतव्य मार डाले अर्थात हृदय से सोचना बंद कर दिया. गरीबों के प्रति जो सहानुभूतिमय भावना तुम्हारे मन में उमड़ती थी वह जैसे सूख गई. बुद्धि का तो तुमने कपाल ही फोड़ दिया अर्थात तुम्हारी बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया. अब तुम तर्क करने से कतराने लगे. तुम्हारी चेतना जैसे जम गई, जाम हो गई और उसी जड़ता में तुम फँस गए और अपने द्वारा उत्पन्न किए गए कींचड़ में धँस गए. परिणति ऐसी हो गई कि अपने ही स्वार्थों के तेल में अपने विवेक को बघार डाला, याने विवेक से काम लेना बंद कर दिया, और अपने आदर्श को ही खा गए अर्थात अनदेखा कर दिया. सोचो, अबतक तुमने क्या किया, क्या और कैसा जीवन जीया जिसमें केवल लिया, दिया बहुत कम. इससे देश मर गया पर तुम जीवित रह गए.

मेरा सिर....................................................................................................विक्षिप्त मस्तिष्क

उस सिरफिरे का गीत स्वप्न में परिचालित मुक्तिबोध के मन को विचलित कर गया. उस गीत में उल्लिखित बातों को सोच कर उनका सिर गरम हो गया. उनके विचारों के स्वप्नों में आलोचन-प्रत्यालोचन का दौर चल पड़ा. मन में विचारों के चित्र उभरने लगे या कहें कविता में कही गई बातें उनके मन में चित्रवत आने लगीं. और वह चिंतनग्रस्त हो गए. वह निजता से मुक्त हो बेचैन हो गए अर्थात अपने बारे में सोचना छोड़ जगत-जीवन की चिंता में पड़ गए. वह असमंजस में पड़ गए कि जग-जीवन की पीड़ा के लिए वह क्या करें, किससे कहें, कहाँ जाएँ, दिल्ली या उज्जैन. संभवतः दिल्ली की याद उनके मन में इसलिए आती है क्योंकि राजसत्ता दिल्ली में थी जिसमें प्रवेश कर ही कुछ किया जा सकता था, और उज्जैन की इसलिए कि उज्जैन में ही उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ का एक सम्मेलन कर आंतरिक शक्ति बटोरी थी. उस पागल सिरफिरे की कविता के अर्थानुगमन के बाद कवि यह समझता है कि उस पागल की अपनी स्थिति वैदिक ऋषि शुनःशेप के शापभ्रष्ट पिता अजीगर्त के समान ही है जिसने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए पुत्र को बलि के लिए वरुण के यज्ञ में प्रस्तुत कर दिया था. इस पागल ने भी जगत-जन के संघर्ष में देश को मरने दिया अपने स्वार्थ के लिए, और अपने को बचा लिया. उस पागल का अपना एक अलग ही व्यक्तित्व है, वह अपने आप में खोया हुआ है. मुक्तिबोध का कवि सोचता है कि वही पागल उसे रात में अकस्मात मिलता था (इसकी पूर्व के कविता खंडों में चर्चा है) और दिन में पागल की तरह रहता था, सिरफिरा विक्षिप्त मस्तिष्क लेकर. तो क्या यह समझा जाए कि तालाब के तम-श्याम जल में उर्ध्व उठती हुई द्युति, मशालों के साथ प्रकटित रक्तालोकस्नात पुरुष और कमरे की साँकल को खटखटाता ‘कोई’ में इसी सिरफिरे की आत्मा थी? क्या उस सिरफिरे के आत्मोद्बोधन में मुक्तिबोध के स्वयं का आत्मोद्बोधन ध्वनित है जिसमें उसके मन की बेचैनी को अभिव्यक्ति देने की चेष्टा है.

हाय, हाय! ……………………………………………………………………………नींद गँवा दी

उस पागल का गान सुन मुक्तिबोध का मन हाय, हाय कर उठा. वह अचंभित हो उठे कि उस सिरफिरे ने यह क्या गा दिया. प्रत्यक्ष में यह क्या नयी बात कह दी उसने. कवि उसे सुन कर किसी छाया-मूर्ति के समान स्वयं अपने ही सामने खड़ा हो गया (अपने ही से बातें करने लगा). उसकी अपने से ही बहस होने लगी और उनपर परस्पर तमाचे लगने लगे. अर्थात कवि का व्यक्ति उसके अपने होने से ही उलझ गया. किंतु उसे तत्काल ही महसूस हुआ, छिः, अपने से ही लड़ना तो पागलपन है. परस्पर आलोचना प्रत्यालोचना वृथा है. गलियों में भयावह अंधकार फैला हुआ है. उसे (कवि को) लगा शायद उसी के कारण यह मार्शल-लॉ लगा है, उसी के मन-मस्तिष्क की निष्क्रियता ने इस दुर्घटना को आमंत्रित किया है. वह यहाँ तक सोच बैठता है कि उसी के कारण यह दुर्घट घटना घटित हुई है. इसी वर्णित प्रतीति को गुन कर कुछ समीक्षकों ने मुक्तिबोध को एक प्रखर आत्माभियोगी कवि के रूप में प्रस्तुत किया है. कवि कहता है चक्र से चक्र लगा हुआ है अर्थात घटनाएँ भी अनायास नहीं घटतीं. वह सोचता है, बाहरी दुनिया में कियाओं और घटनाओं का जितना तीव्र द्वंद्व है उतनी ही तीव्र गति से वह द्वंद्व भीतरी दुनिया में भी चल रहा है. फिक्र से फिक्र लगी हुई है याने एक फिक्र खत्म हुई नहीं कि दूसरी सामने आ खड़ी होती है. कवि बड़ी तीव्रता से अनुभव करता है कि उस पागल ने उसके दिन रात के चैन को तो भुला ही दिया है, उसकी रात की नींद भी गवाँ दी है.

मैं इस बरगद....................................................................................................छटपटा रही है

कवि अपनी रची पैंटेसी में उस बरगद के पास खड़ा पाता है. वहाँ वह अपने चेहरे को किसी अथाह गंभीर साँवले जल से घुलता अर्थात विकृत होता महसूस कर रहा है. उसका मन दूर सामने झुके हुए, गुमसुम, टूटे हुए घरों में (टूटे हुए घर जिसमें सन्नाटा है) फैले अतल (जिसका कोई ओर छोर न हो) अंधकार को देख कर दुखित हो रहा है. इसके अतिरिक्त ओस से धुली हुई इस साँवली रात में उसे किसी गुरु गंभीर महान अस्तित्व की महक भी आ रही है (यहाँ कभी कर्मठ लोगों का वास रहा होगा) मानो किसी खंडहर के प्रसारों में गुलाब, चमेली आदि फूलों से भरे उद्यान रात के अंधकार में पल पल मँहक रहे हों. मगर वे उद्यान अब कहाँ हैं, अँधेरे में कुछ पता नहीं चलता. सब ओर मात्र सुगंध का ही प्रसार है. किंतु कवि अनुभव करता है कि इस सुगंध की बहती लहर में कोई छिपी वेदना, कोई छिपी गुप्त चिंता छटपटा रही है. कदाचित उक्त से कवि का यह कहना है कि कभी यहाँ दीन, दुखिया और पीड़ितों से सहानुभूति रखने वाले रहते होंगे. यह उन्हीं के सद्कर्मों और सदाशयता की सुगंध है जिसमें उन निराश्रितों, शोषितों की छटपटाती वेदना का आभास मिलता है.

समीक्षाः

यह कविता-खंड ‘अकस्मात’ पद से शुरू होता है. पिछले खंड से इसकी निरंतरता देखी जाए तो कवि सैन्य-जुलूस के किसी सदस्य के द्वारा देख लिए जाने के कारण पकड़े जाने के डर से गलियारे में भाग लिया. भागने की धुन में वह समय के प्रति चेतनशील नहीं रहा. जब रात के चार बजने के घंटे से उसका ध्यान भंग हुआ तो उसे लगा, वह चार का गजर कहीं अचानक खड़क गया है. इस खड़क से उसके भीतर कुछ हलचल-सी होने लगी है. मन चल-विचल हो उठा. उसे चारो ओर विखराव दिखाई देने लगा. किंतु कमरे के भाग चला कवि इस कविता खंड में कहता हैः “मैं अपने कमरे में यहाँ लेटा हुआ हूँ.” उसका यह काव्य-वाक्य हमें अचंभे में डाल देता है- अभी अभी वह गलियारे में भाग रहा था और अभी अपने को कमरे में लेटा हुआ बता रहा है. इसतरह की अभिव्यक्ति से कविता की निरंतरता और उनकी फैंटेसी बाधित होती है. पर इसको कलागत दोष मानने के बजाय यह कहा जा सकता है कि कवि अपनी एक स्वप्न-कल्पना की फैंटेसी बनाता है फिर अगली स्वप्न-कल्पना की फैंटेसी रचने हेतु थोड़ी देर के लिए जाग्रति में आ जाता है. हर फैंटेसी के रचने के समय वह एक ही परिवेश में रहता है. उसकी स्वप्न-कल्पना बदलती रहती है. यह कहना ही उपयुक्त लगता है कि वह जाग्रत स्वप्न की अवस्था में है.

कवि अगले छंद का आरंभ भी ‘एकाएक’ पद से करता है. नगर में सैन्य-जुलूस निकला है तो नगर में तनाव होगा ही, यह अखबारों का विषय बनेगा ही, इसकी कल्पना कर एकाएक उसे संसार का भान हो उठा, सेना ने सड़कें घेर ली है, यह गुन उसकी बुद्धि की रग धड़कने लगी है- कहीं किसी जन-क्रांति के दमन-निमित्त यह मार्शल-लॉ तो नहीं लगा है. क्योंकि ऐसी व्यवस्था तभी की जाती है. मार्क्सवादी आलोचक कहते हैं मुक्तिबोध की कविता भविष्य की ओर लक्ष्य करती है. पर भारत में किसी स्तर पर कभी मार्शल-लॉ लगा हो ऐसा पता नहीं चलता. हाँ, इंदिरा-शासन में हुए जनांदोलन (यह जन-क्रांति नहीं थी) को दबाने के लिए इंदिरा ने इमर्जेंसी लगाई थी जरूर पर वहाँ जीत लोकतंत्र की हुई थी. सत्ता के दुरूपयोग के खिलाफ लोकतंत्र का हथियार भी सफल हो सकता है मुक्तिबोध को इसकी कल्पना भी नहीं थी.

कविता में कवि द्वारा निर्मित बरगद का बिंब बहुत ही जीवंत और सार्वजनिक चित्त से सरोकार रखने वाला है. बरगद का पेड़ विशाल और छायादार होता है. इसकी छाया में बहुत सारे गरीब और गृहहीन जन शरण लेते हैं. वे अपना एकमात्र धन अपने मटमैले कपड़े उसी की शाखों पर डाल कर निश्चिंत खर्राटे लेते है और कुछ जीवन-चर्या भी निपटाते हैं. ऐसे लोगों के बीच कुछ भटकते विक्षिप्त-से दिखने वाले व्यक्ति भी मिलते हैं जो वास्तव में विक्षिप्त नहीं होते. कहीं कद्र न पाकर वे ऐसे सरल लोगों के बीच आ रमते हैं. कवि की फैंटेसी में यहाँ इस बरगद के नीचे एक सिरफिरा व्यक्ति रहता है जो कभी भी कुछ भी कहता रहता होगा. उसकी बातें, यहाँ शरण लिए जन कभी चाव से सुनते होंगे, कभी उसपर हँसते होंगे. कवि ने, अपने कल्पनानुभव की रात में (जिस रात में वह मार्शल-लॉ लगने की कल्पना करता है), लक्ष्य किया कि वह सिरफिरा इस समय किसी से कुछ कह नहीं रहा वल्कि कुछ गा रहा है. उसका गीत करुणा और व्यथा से भरा है. उस गीत के बहाने लगता है कवि स्वयं आत्मलोचन कर रहा है. वह अपने पर ही अभियोग लगाता है कि जगत-जन के लिए उसने कुछ नहीं किया, जो भी किया केवल अपने लिए किया. जिससे जगत में मृत्यु की छाया जैसा मार्शल-लॉ लग गया और उसने इस कोठरी में कैद होकर अपने को बचा लिया-शापग्रस्त जीगर्त की तरह. उसे लगता है उसी की अकर्मण्यता के कारण यह मार्शल-लॉ लगा है. वह लोगों को ठीक से जगा नहीं सका, साम्यवाद के प्रति उद्बोधित नहीं कर सका.

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: मुक्तिबोध अंधेरे में–भाष्यालोचन–4 : शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मुक्तिबोध अंधेरे में–भाष्यालोचन–4 : शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMFGf2GRlxzDcfSfR2seUmsFA4rprEHupR7GqBBbEHv05grlQxFPdmg3UJ0DyvjX2ywKEdoE3pQc6-6TlhTN5h55k68-rKlrdZUbu48P8DPeM9QZ7yqr3YBJycLqgTTsSGKfIY/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMFGf2GRlxzDcfSfR2seUmsFA4rprEHupR7GqBBbEHv05grlQxFPdmg3UJ0DyvjX2ywKEdoE3pQc6-6TlhTN5h55k68-rKlrdZUbu48P8DPeM9QZ7yqr3YBJycLqgTTsSGKfIY/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/04/4_11.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/04/4_11.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content