“इधर सियासत और उधर कबूतर का कुआ” मंज़र ३ राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित [मंच पर, रोशनी फ़ैल जाती है। रशीदा बेग़म के कमरे में ग़ज़ल बी रशीदा बेग़म से ब...
“इधर सियासत और उधर कबूतर का कुआ” मंज़र ३
राक़िब दिनेश चन्द्र पुरोहित
[मंच पर, रोशनी फ़ैल जाती है। रशीदा बेग़म के कमरे में ग़ज़ल बी रशीदा बेग़म से बात का रही है और आक़िल मियां चुप बैठे हैं, कुर्सी पर। अब, ग़ज़ल बी से कह रही है।]
ग़ज़ल बी – बड़ी बी। परेशानियां इंसान ख़ुद पैदा करता है। उसे अपनी गलतियाँ कभी नज़र आती नहीं।
रशीदा बेग़म – [नाराज़गी से, कहती है] – क्या बकती जा रही हैं, ग़ज़ल बी ? एजुकेशन महकमें ने तज़वीज़ आख़िर [फाइनल जजमेंट] लेने का हक़ मुझे दिया है, कमेटी की चेयरमें मैं ख़ुद हूँ। फिर किस हक़ से ये टटपूंजिये पूछते हैं मुझसे, कि ‘मैं उनको कमेटी का हिसाब, इनके सामने रखूँ ?’ अब बताइये ग़ज़ल बी, मैंने ख़ुद ने कौनसी परेशानी अपने लिए पैदा की है ?
ग़ज़ल बी – [घबराकर, कहती है] – मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा, बड़ी बी। आपका नाराज़ होना नागवर है, हमने तो ख़ाली मकबूले आम राय रखी है। बस आपको यही बताया है कि, ‘इंसानी फ़ितरत, क्या काम करती है ?’
आक़िल मियां – बड़ी बी, काफ़ी वक़्त बीत गया है मुझे यहाँ बैठे। अब आप, मुझे जाने की इज़ाज़त दीजिये।
[बड़ी बी कोई ज़वाब नहीं देती, उधर क्लासों में मेडमों के न होने से बच्चियों का शोर बढ़ जाता है। फिर क्या ? ग़ज़ल बी झट उठती है, उनको शक हो जाता है कि कहीं बड़ी बी उन पर क्लास ख़ाली रखने का आरोप न झड़ दें।’ वह इस डर को ज़ाहिर होने नहीं देती, और खिड़की के पास आकर बाहर झांकती है। मगर अब उसे शोर-गुल सुनायी नहीं देता है, ऐसा लगता है पी.टी.ई. मेडम के राउंड काट लेने से बच्चियां चुप-चाप क्लासों में बैठ गयी है। तसल्ली हो जाने के बाद, वापस आकर वह बड़ी के पास रखी कुर्सी पर बैठ जाती है। मगर आदत से लाचार, बड़ी बी से बिना बोले रह नहीं पाती। आख़िर, अपनी कैंची की तरह चलने वाली ज़बान चला देती है।]
ग़ज़ल बी – इंसान को सुधारा कैसे जाय, मेडम ? बस, आपको फ़ितरत के क़ानून को एक नज़र देखना होगा। इस तरफ़ ध्यान दीजियेगा, मैं एक गोपनीय ख़बर आपको सुनाती हूँ..मगर आप सुनने के बाद किसी को वापस मत कहना, यही मेरी रिक्वेस्ट है। यह भी मत कहिएगा कि, यह ख़बर मैंने आपको दी है।
रशीदा बेग़म – कहने में, क्या उज्र है ? वल्लाह भरोसे की बात है तो, आपको मुझ पर आपका भरोसा होना चाहिए। अगर भरोसा नहीं रहा, तब काहे कहने की तकल्लुफ़ करती हैं आप ? मत कहिये, मुझे क्या ?
ग़ज़ल बी – बात को समझिये हुज़ूर, मुझे डर है कही यह मामला बाइसेरश्क का न बन जाए ? जो ख़बर में आपको दे रही हूँ...[झट, ख़बर परोस देती है] बाद में इमतियाज़ बी यही कहेगी कि ‘जलन के कारण ग़ज़ल बी ने, मेरे खिलाफ़ यह मामला बड़ी बी को परोसा है।’ अब आगे क्या कहूं मेडम, आपको..
रशीदा बेग़म – इतना कह दिया है, तो बाकी की बात कह दीजिये। अब चूको मत, कहने में। नहीं कहने से अगर आपके पेट में दर्द हो गया तो खैरख्वाह आप मुझे दोष मत देना, कि ‘मैंने आपकी बात नहीं सुनी।’
ग़ज़ल बी – मैं कह रही थी, हुज़ूर। आज़ इमतियाज़ मेडम, दूसरी मेडमों को भड़का रही थी कि ‘ख़ुदा जाने इस ग़ज़ल बी के पास कितना मक्खन है, न मालुम वह कितना मक्खन लगा देती है बड़ी बी पर ? यही कारण है, इसका लोकल एग्जामिनेशन का इंचार्ज बनने का।’ अब कहिये, बड़ी बी। क्या आप इस तरह, अपनी चमचागिरी करवाना पसंद करती हैं ? बता दीजियेगा, क्या मैं आपके मक्खन लगाती हूँ ? [धीमे से, कहती है] मक्खन लगा देती तो, आपकी क़ीमती साड़ियाँ ख़राब हो जाती ?
रशीदा बेग़म – [गुस्से से, उबलती हुई कहती है] – उस इमतियाज़ की, इतनी हिम्मत ? [गुस्से को दबाती हुई, कहती है] और भी, कुछ कहा उस शैतान की ख़ाला ने ?
[ग़ज़ल बी के हाथ लग जाता है, बड़ी बी को भड़काने का हथियार। बस, फिर क्या ? वह क्यों नहीं, इस सुनहरे मौक़े का फ़ायदा उठायेगी ? झट इमतियाज़ के खिलाफ़, शिकायतों का पुलिंदा परोस देती है।]
ग़ज़ल बी – [अन्दर ही अन्दर, खुश होकर कहती है] – हुज़ूर। उसने आगे यह कहा कि ‘यह ग़ज़ल बी ठहरी शैतान की ख़ाला..जिसने बड़ी बी को भड़का रखा है। बड़ी बी को हम सबके खिलाफ़ एक-एक मोती पिरोकर, कहती है ‘देखिये बड़ी बी, यह पारी इंचार्ज आयशा कब आती है, कब जाती है ? और..और...
रशीदा बेग़म – और कुछ कहना है, आपको ?
ग़ज़ल बी – [थोड़ी सहमती हुई, कहती है] – आप ज़रा सोचिये, हुज़ूर। मैंने कुछ ग़लत नहीं कहा, बस यही कहा है कि ‘जब इंचार्ज ख़ुद बच्चों की तरह स्कूल छोड़कर घर भग जाती है, तब वह बच्चियों को कैसे स्कूल के क़ायदे सिखा पाएगी ?’
[चुप्पी छा जाती है, थोड़ी देर बाद रशीदा बेग़म आक़िल मियां पर निग़ाह डालती हुई कहती है। जो जाने की उतावली में खड़े हो गए हैं, न जाने कब से उनको बड़ी बी ने यहाँ बैठा रखा है ?]
रशीदा बेग़म – [आक़िल मियां से, कहती है] – बार-बार उचक लट्टू की तरह काहे खड़े हो जाते हैं, आप ? तसल्ली से तशरीफ़ आवरी रहिये, कुर्सी पर। अभी करते हैं, आपसे बात।
[आक़िल मियां वापस बैठ जाते हैं, कुर्सी पर। रशीदा बेग़म के सामने आयशा की बुराइयों का कच्चा चिट्टा खुल जाने पर, अब वह आयशा को सही रास्ते पर लाने की स्कीम सोचने लग जाती है।]
रशीदा बेग़म – [होंठों में ही, कहती है] – बहुत चालाक है, आयशा। अब मैं ऐसा करती हूँ जिससे, मज़बूर होकर आयशा ख़ुद मेरे पास आकर गिड़गिड़ाये और कहें कि ’पारी इंचार्ज उसे नहीं रखा जाय।’ फिर बनाऊंगी, इस ग़ज़ल की बच्ची को पारी का इंचार्ज। तब इसे मालुम हो जाएगा कि ‘स्कूल के क़ायदे, क्या होते हैं ? उलाहने देने जितना आसान है, उतना ही कायदों को निभाना मुश्किल है।’
[ग़ज़ल बी आयशा की बुराई करके, अब खुश हो गयी है। अब आगे का मंज़र क्या होता है, ऐसी बातें सोचनी उसकी फ़ितरत में नहीं है। उधर बड़ी बी अभी भी, सोचती जा रही है कि ‘अगला क़दम क्या उठाना है ? अब इन दोनों को सबक सिखाना ही होगा, अब ऐसा वक़्त आ गया है।’ फिर क्या ? उधर ग़ज़ल बी भी अपने दिल में सोचती जा रही है, कि ‘इस इमतियाज़ और आयशा नाम की चुहियों को, रशीदा बी नाम की बिल्ली के सामने किसी तरह लाना ही होगा।’ फिर क्या ? होने वाले इस वक़्ती इख्तिलाफ़ का फ़ायदा, कैसे उठाया जाय ?’ अब रशीदा बी के दिल में विचारों का मंथन अलग चल रहा है, वह सोचती जा रही है कि ‘किस तरह दोनों चुहियों को अपने काबू में लेना है ?’]
रशीदा बेग़म – [होंठों में ही, कहती है] – ये दोनों आपस में लड़ेगी, बाईसे इफ्तिराक से मेरे पास आयेगी और वे एक दूसरे की कमज़ोरियां बताती जायेगी। इन दोनों की कमज़ोरियां मालुम करने के बाद, हम बताएँगे कि “क़ायदे किसे कहते हैं ? और, इन कायदों को कैसे लागू किया जा सकता है ?”
[पूरी प्लानिंग सोचकर अब, रशीदा बेग़म आक़िल मियां से कहती है।]
रशीदा बेग़म – आक़िल मियां। ज़रा आयशा बी के खिलाफ़ दफ़्तरे हुक्म तैयार करें। उसमें यह कलमबंद करें कि “उनके पारी इंचार्ज होने व टेंथ क्लास की क्लास टीचर होने की हैसियत से, हमने हुक्म दिया कि..
आक़िल मियां – क्या हुक्म दिया था, आपने ?
रशीदा बेग़म – हुक्म यह दिया था, “जो बच्चियां सेकेंडरी बोर्ड में बैठ रही है, उनकी डेट ऑफ़ बर्थ स्कॉलर रजिस्टर से मिलान करके आपको वेरीफाई करनी है। मगर आपने ऐसा न करके, हमारे हुक्म की परवाह नहीं की।”
आक़िल मियां – अच्छा ज़नाब। इसके आगे क्या लिखूं ?
रशीदा बेग़म – आगे लिखिए कि “अभी-तक आपने हुक्म तामिल करने की रिपोर्ट पेश नहीं की।
आक़िल मियां – ठीक है जी, अब इसके आगे क्या लिखूं ?
रशीदा बेग़म – अभी-तक, रिपोर्ट पेश नहीं की है।
आक़िल मियां – लिख दिया जी, अब इसके आगे कहिये क्या लिखना है ?
रशीदा बेग़म – लिखिए, इसलिए आज़ छुट्टी के पहले वे अपना ज़वाब लिखित में तैयार करके मेरे सामने पेश करें। इतना लिखने के बाद आप यह भी लिखिए कि “उन्होंने हुक्म अदूली क्यों की ? क्यों नहीं आपके खिलाफ़, प्रशासनिक कार्यवाही प्रस्तावित की जाए ?” समझ गए, आक़िल मियां ?
आक़िल मियां – [मंद-मंद मुस्कराते हुए, कहते हैं] – हुज़ूर आपके मेहर से पूरा ड्राफ्ट तैयार कर लूंगा। अब हुज़ूर, जाने की इज़ाज़त दीजिये..दफ़्तर का काफ़ी पेंडिंग पड़ा है।
रशीदा बेग़म – अभी कहाँ रुख्सत हो रहे हो, मियां ? अभी-तक आपने यह नहीं बताया कि “नूर मोहम्मद का क्या करना है ?” यह एक बार और सोच लेना कि “उसका शराबी की तरह लड़खड़ाकर चलना, और मेरे सामने कमर पर हाथ रखकर जंगली जानवरों की तरह लाल-लाल आँखों से घूरना..यह उसकी यह बदसलूकी नाक़ाबिले बर्दाश्त है। और, उसका इस तरह...”
[कहती-कहती, रशीदा बेग़म हांप जाती है। फिर लम्बी सांस लेती हुई, आगे कहती है।]
रशीदा बेग़म – [लम्बी-लम्बी सांस लेती हुई, आगे कहती है] – हा..ह..उसकी बदतमीज़ी..शराबी की तरह लाल सुर्ख आँखों से घूरना..[हाम्पती है] अब बर्दाश्त के बाहर है। [तल्ख़ आवाज़ में] मैं एक मर्तबा उसे, दफ़्तर में देखना नहीं चाहती।
आक़िल मियां – उसको नाईट ड्यूटी दे देंगे, हुज़ूर। आप बिलकुल फ़िक्र न करें, सब इन्तिज़ाम हो गया है। परसों हाफ इयरली एग्ज़ाम में नाईट ड्यूटी के लिए दो आदमी चाहिए, एक तो चुग्गा खां है ही..और दूसरा यह नूरिया उनकी शागिर्दगी में साथ रह जाएगा। बाद में..
रशीदा बेग़म – ख़ाक ड्यूटी देगा, यह कोदन ? अरे मियां यह कोदन इतना शातिर है, आप जानते नहीं। कमबख्त पूरे मोहल्ले के लोगों को नींद से जगाकर, उनको नचवा देगा डिस्को डांस।
आक़िल मियां – नहीं हुज़ूर, ऐसा नहीं होगा। [अन्दर ही अन्दर, मुस्कराते हुए आगे कहते हैं] चुग्गा खां एक क़ाबिल सरकारी मुलाज़िम है, वे अपने इस शागिर्द को सिखा देंगे कि ‘नाईट ड्यूटी कैसे की जाती है ? फिर क्या ? क़ाबिले एअतबार है, आप ख़ुद बेक़रार रहेगी यह मुज़्दा सुनने के लिए, कि “नूर मोहम्मद सुधर गया।”
रशीदा बेग़म – [रोब से, कहती है] – चुग्गा खां से कह देना कि, पूरी ज़िम्मेदारी के साथ यह काम करें। साथ में उसे हिदायत दे देना कि, काम में चूक आने पर वे गाँव जा नहीं पायेंगे। क्योंकि, इस स्थिति में उनकी छुट्टियां क़ाबिलयत एतराफ़ नहीं होगी।
आक़िल मियां – [थकावट महशूश करते हुए, कहते हैं] – ज़रा एक बार, अपने कमरे में जाकर आ जाऊं ? फिर, तसल्ली से आपको रिपोर्ट दे दूंगा।
[आक़िल मियां सीट छोड़कर, उठ जाते हैं और अपने कमरे की ओर क़दम बढ़ा देते हैं। जाते हुए उनके पांवों की पदचाप सुनायी देती है। मंच पर अँधेरा छा जाता। थोड़ी देर बाद, मंच रोशन होता है आक़िल मियां के कमरे का मंज़र सामने आता है। आक़िल मियां सीट पर बैठे-बैठे इन जैलदारों की ड्यूटी लगाने का रजिस्टर देख रहे हैं, और सोचते जा रहे हैं कि ‘अब आने वाले दिनों में, किस जैलदार की कब ड्यूटी लगायी जाय ? तभी याद आ जाते हैं, चुग्गा खां। अब उनकी याद आते ही, वे होंठों में बड़ाबड़ाने लगते हैं।]
आक़िल मियां – [होंठों में ही, बड़बड़ाते हैं] – यह चुग्गा खां फिर चला गया, घर। यहाँ स्कूल के मैदान में, कबूतरों को दाना क्या डालता है ? कमबख्त अब ख़ुद भी, कबूतर जैसा बन गया। अब इसके घर को कुआ ही कहें तो कोई ग़लत नहीं।
[अलमारी खोलकर, मियां निकालते हैं इन जैलदारों का ड्यूटी चार्ट। फिर उसे टेबल पर रखते हैं और फिर उनका बड़बड़ाना फिर चालू हो जाता है।
आक़िल मियां – बस...! इस नामाकूल को ख़ाली कुआ ही नज़र आता है, कमबख्त बार-बार चला जाता है अपने कुए में...घूटर गूं घूटर गूं करने। अब बड़ी बी के हुक्म का क्या करूं ? इसके वालिद से थोड़ी सी जान-पहचान ठहरी, और इस नूरिये-जमालिये ने फंसा डाला मुझे।
[कमरे के बाहर जहां चाय तैयार की जाती है, वहां खड़ी शमशाद बेग़म उनका बड़बड़ाना सुन लेती है, और लपककर वह कह देती है।]
शमशाद बेग़म – [लपककर, कहती है] – ज़नाब, क्यों फ़िक्र करते हैं आप ? हुज़ूर आप तो बड़े दानिश हैं, कभी आपने कहा था कि “हज़रत मोहम्मद ने कई भूले-भटके लोगों को राह दिखलायी।
आक़िल मियां – [तमतमाते हुए, तल्ख़ आवाज़ में कहते हैं] – और कुछ कहना बाकी रह गया, ख़ाला ? अब आप दिल में ऐसी-वैसी कोई बात रखना मत, जो हो वह उगल दीजियेगा।
शमशाद बेग़म – [लबों पर मुस्कान बिखेरती हुई, कहती है] – क्यों नाराज़ होते हैं, ज़नाब ? मैं तो यह कह रही थी ज़नाब कि, ‘महात्मा बुद्ध ने अपने दुश्मनों के दिल में मुहब्बत का चिराग़ जलाया, और महात्मा गांधी ने इस ख़िलक़त में मुहब्बत क़ायम करने के लिए अपने सीने पर गोलियां खायी।’
आक़िल मियां – जानता हूँ, ख़ाला। इन सबको आज़ भी, यह ख़िलक़त याद करता है। मगर यहाँ तो मैं ख़ुद ही फंस गया पेश की गयी अपनी तकरीरों के आगे। [संभलते हुए, कहते हैं] आप क्या कहना चाहती हैं, ख़ाला ? वही बात बताएं, आप। बाकी, लग्व करने की कहाँ ज़रूरत ?
शमशाद बेग़म – बस...बस। इंसान को इस लायक बनने के लिए, मशक्कत करनी पड़ती है। पाक परवरदीगार के दिए गए दिमाग़ से जुगत लड़ानी पड़ती है।
आक़िल मियां – [खिन्न होकर, आगे कहते हैं] – समझ गया, ख़ाला। आप आगे यही कहना चाहती हैं कि, ‘हमारा नाम आक़िल है, हम ठहरे दानिश...इसलिए लोगों को मश्वरे देकर उनकी...
शमशाद बेग़म – हमने यह कभी नहीं कहा कि, आप नसीब बी और सितारा मेडम को बिना मांगे मश्वरा दे दिया करते हैं। कि, “ब्लड प्रेसर का अलील आपने ख़ुद ने पैदा किया है। फ़िक्र करती-करती, इस मर्ज़ को हवा आपने दी है। और अब गोलियां फांककर, अब पैसे बरबाद करती जा रही हैं।
आक़िल मियां – [अपनी बात को क़ायम रखते हुए, आगे कहते हैं] – मैंने क्या ग़लत कह दिया, ख़ाला ? यही कहा कि ‘आप अल्लाहताआला पर वसूक रखती हुई, अब आप सारी तकलीफें भूल जाइए। दिमाग़ में कोई तकलीफ़देह बात रहेगी नहीं, तब काहे की फ़िक्र ? फिर ब्लडप्रेशर होगा कहाँ से ? ना ब्लडप्रेशर होगा, ना बढ़ेगा अलील।
शमशाद बेग़म – तब यही बात आप पर लागू होती है, आप क्यों इस नूरिये की फ़िक्र करते जा रहे हैं ? अल्लाह ने बनाए हैं, ये मिट्टी के पुतले। जिसमें एक ख़ास चीज़ डाली है, वह है नूर। जिसे यह ख़िलक़त पसंद करता है, बस आपको उस ख़ास चीज़ यानि नूर को अल्लाह के मेहर से ढूँढ़ना है।
[फिर क्या ? आक़िल मियां को, सारी बात समझ में आ जाती है। कि, अब किस तरह इस नूरिये को काम में लेना है ? इस नूरिये में ऐसी क्या ख़ासियत है, जिसे स्कूल के हित में काम लिया जा सके। तभी मियां को याद आ जाते हैं, चुग्गा मियां। अब झटपट, वे शमशाद बेग़म से कह देते हैं।]
आक़िल मियां – [शमशाद से, कहते हैं] – जाओ ख़ाला, चुग्गा खां को उनके घर से बुला लाओ और उनसे कहना कि उनको ज़रूरी काम से स्कूल में बुलाया है।
शमशाद बेग़म – [मुंह बनाकर, कहती है] – अभी-अभी चुग्गा खां रुख्सत हुए ही हैं, और अब तक घर पहुंच गए होंगे। जब मियां यहाँ थे, तब आप उनसे कह देते कि, “क्या काम है ?”
आक़िल मियां – ख़ाला आपका फ़र्ज़ है, हुक्म तामिल करना। यह आप ख़ुद जानती हैं कि, मैं आपको बिना वज़ह आपको ज़हमत नहीं देता। अब जाइए, जल्द। जल्दी बुलाकर ले आइये, चुग्ग खां को।
शमशाद बेग़म – [होठों में ही, कहती है] – हाय अल्लाह, अभी-अभी चाय से फारिग़ हुई हूँ...और इधर ज़र्दे को मुंह में भी नहीं डाला और न खोला टिफन को। बस आक़िल मियां ने चला दी हुक्म की दुनाली। ख़ुदा रहम, अब इन पांवों को तकलीफ़ देनी होगी।
[आख़िर, शमशाद बेग़म चुग्गा खां को बुलाने निकल पड़ती है। मंच पर, अंधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच वापस रोशन होता है। स्कूल का बरामदा नज़र आता है। दीवार पर लगी घड़ी टन-टन की आवाज़ करती हुई, जुहर के दो बजे का वक़्त बताती है। आक़िल मियां घुसल जाने के लिए उठते हैं। तभी बरामदे में, चुग्गा खां शमशाद बेग़म के साथ आते दिखायी देते हैं। उनको आते देखकर, आक़िल मियां कमरे में आकर वापस कुर्सी पर बैठ जाते हैं। स्वर्गीय फिल्म स्टार मीना कुमारी की तरह, चुग्गा मियां के हाथ की सबसे छोटी अंगुली नदारद है। इस कारण वे, अपनी इस हथेली को रुमाल से ढांपते हुए कमरे में दाख़िल होते हैं। आते ही, वे आक़िल मियां को सलाम करते हैं, फिर कहते हैं।]
चुग्गा खां – सलाम। माफ़ करना, हुज़ूर। सुबह स्कूल में आया था, मगर आपसे बात न हो सकी। उस वक़्त अचानक बीबी का फोन आ गया, मुझे जाना पड़ा हुज़ूर।
आक़िल मियां – कुछ नहीं, अब भी आप गुफ़्तगू कर सकते हैं बरखुदार। देर आये, दुरस्त आये। [नाक-भौं की कमानी को ऊपर चढ़ाते हुए, कहते हैं] ऐसा करो, मियां। अपनी रात की ड्यूटी में, इस नूरिये बन्ने को साथ ले लो।
चुग्गा खां – [चहकते हुए, कहते हैं] – किब्ला, उसको तो हम शागिर्दगी में कब का ले चुके हैं...बस, अब तो ज़नाब नाईट ड्यूटी का इन्तिज़ार है। आपने हुक्म दिया हुज़ूर, मगर आज़ की बात है...
आक़िल मियां – [बात काटते हुए, कहते हैं] - जाने दीजिये, बेचारा नादान है। मियां ऐसा करो टेबल पर रखा है ड्यूटी रजिस्टर, उसमें आप-दोनों की नाईट-ड्यूटी के हुक्म इज़रा है बस आप दोनों तामिल करने के दस्तख़त कर देना। अब आप याद कीजिये, नाईट ड्यूटी न मिलने पर आप क्या फ़रमाते रहे हैं, कि “ए बाबा पीर दुल्हे शाह। बाबा तू भली कर। यह नाईट ड्यूटी, मुझे ही मिले। किसी दूसरे को काहे लगाते हैं, नाईट ड्यूटी पर ?”
[अब शमशाद बेग़म धुले हुए चाय के बरतन पटवार साइज़ अलमारी में रख रही है, और उधर चुग्गा खां खुश हो गए और सोचने लगे कि “ज़नाब को एक आदमी मिल गया है, अब वे सीनियर होने के नाते ज़रूर उस पर ज़रूर रोब जमायेंगे। अब आक़िल मियां से घरेलू समस्या की बात करनी है, अब झट इनको कह देते हैं।” चुग्गा खां अपना मुख खोले उसके पहले आक़िल मियां उठ जाते हैं, और चल देते हैं अपने कमरे के पिछवाड़े की तरफ़.. जहाँ मेल स्टाफ पेशाब करने जाता है। चुग्गा खां कुछ बोल नहीं पाते, मंच पर अँधेरा छा जाता है।]
(अगले अंक में क्रमशः जारी ….)
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