भाग 1 भाग 2 उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल भाग 3 दिनेश कुमार माली -- छठा सर्ग सुमित्रा की दूरदर्शिता जैन ‘पाऊमचरीय’ के अनुसार कम...
उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल
भाग 3
दिनेश कुमार माली
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छठा सर्ग
सुमित्रा की दूरदर्शिता
जैन ‘पाऊमचरीय’ के अनुसार कमाल संकुलपुरा के राजा सुबंधु तिलक की पुत्री सुमित्रा थी। कौशल्या और कैकेयी से अलग उसका नाम रखा गया था। शायद वह किसी राजघराने से संबंध नहीं रखती होगी। जबकि कौशल्या का संबंध कौशल राज्य तथा कैकेयी का संबंध कैकेय राज्य से था। सुमित्रा नाम सुमंत्र से मिलता-जुलता है, इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि वह सुमंत्र की पुत्री रही होगी।
प्रात सुमित्रा नाम जग जे तिय लेहिं सनेम।
तनय लखन रिपुदमन सं पावहिं पति पद प्रेम।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित नारी-अंक (बाइसवें वर्ष का विशेषांक) के अनुसार महाराज दशरथ की रानियों की संख्या कहीं तीन सौ साठ और कहीं सात सौ बतायी जाती है। जो भी हो महारानी कौशल्या पट्टमहिषी थीं और महारानी कैकेयी महाराज को सर्वाधिक प्रिय थीं। शेष में सुमित्रा ही प्रधान थी। महाराज छोटी महारानी के भवन में ही प्रायः रहते थे। सुमित्रा जी ने उपेक्षिता-प्रायः महारानी कौशल्या के समीप रहना ही उचित समझा। वे बड़ी महारानी को ही अधिक मानती थीं।
कवि उद्भ्रांत के अनुसार सुमित्रा ने अपने दोनों पुत्रों- लक्ष्मण और शत्रुघ्न को माँ की भावनाओं से दूर रखने का निर्णय लिया। शायद उसे अपनी उपेक्षित अवस्था का पूरी तरह आभास हो गया था कि कौशल्या की तरह न तो वह राजमाता बन सकती है और न ही वह कैकेयी की तरह कूटनीतिज्ञ भी। शायद इसी नियति को भाँपकर उसने अपने बड़े पुत्र लक्ष्मण के सामने राम को आदर्श मानने तथा शत्रुघ्न को भरत की हर बात को शिरोधार्य करने का आदेश दिया। तभी तो उन्होंने लिखा है:-
“ मैंने सायास अपने पुत्रों को
दूर रखा
माँ की भावनाओं से;
लक्ष्मण के सामने
राम को आदर्श मानने का मंत्र रखा और
शत्रुघ्न को
भरत से संत भ्राता का हर वचन
शिरोधार्य करने का
माता की सीख को
दोनों भाइयों ने
ग्रहण किया अंतरात्मा से। ”
जबकि कथा के अनुसार यह कहा जाता है पुत्रेष्टि यज्ञ समाप्त होने पर अग्नि के द्वारा प्राप्त चारु का प्रथम भाग महाराज ने कौशल्या को दे दिया। शेष का आधा भाग कैकेयी जी को प्राप्त हुआ। चतुर्थांश जो शेष था, उसके दो भाग करके एक भाग कौशल्या और दूसरा कैकेयी के हाथों में रख दिया। दोनों महारानियों ने अपने-अपने वे भाग सुमित्रा को दे दिए। समय पर माता सुमित्रा ने दो तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया। उनमें से कौशल्या जी के दिए गए भाग के प्रभाव से लक्ष्मण जी श्री राम के तथा कैकेयी के दिए गए भाग के प्रभाव से शत्रुघ्न भरत के अनुगामी हुए। इस प्रसंग की तुलना में कवि उद्भ्रांत के द्वारा सुमित्रा की मनोस्थिति का आकलन ज्यादा सटीक व उपयुक्त प्रतीत होता है। क्योंकि उन्हें अपने आपको आधुनिक युग की नारीगत अवधारणओं को अपने भीतर अनुभव कर उस अंतर्द्वन्द्व को प्रकट करना था। इसलिए उसकी महत्वाकांक्षाएँ फलीभूत होती नजर आती देख दोनों रानियों से किस तरह सही-सही व्यवहार बना रहे हैं। भले ही, कैकेयी और कौशल्या के प्रति मन में दबी हुई ईर्ष्या के भाव क्यों न हो। कवि उद्भ्रांत ने अपनी दूरदर्शिता के आधार पर सुमित्रा के इस निर्णय को सही ठहराने की कोशिश अवश्य की है कि चाहे अयोध्या का महाराज राम बने या भरत बने, दोनों ही अवस्थों में उनका एक पुत्र अवश्य महाराज का परम विश्वसनीय होगा और वह उसके दूसरे सहोदर का अनिष्ट नहीं होने देगा, किसी भी परिस्थिति में। इस तरह वह राजमाता भले ही न बने मगर राजमासी तो अवश्य बनी रहेगी। मगर उसे पता नहीं था कि कैकेयी की कुत्सित कूटनीति और लक्ष्मण के अटूट भ्रातृप्रेम के कारण उसकी बहू उर्मिला को चौदह वर्षों का एक लंबा एकांत वास भोगना होगा। इसका एक और दुष्परिणाम यह सामने आया कि राम के वनवास के प्रारम्भिक वर्षों में प्रजा जनों में भरत के प्रति तीव्र आक्रोश व असंतोष की लहर फैली, वरन् अपने प्राणों से भी प्रिय भाई से लंबे बिछोह के साथ-साथ राजलिप्सा के व्यर्थ आरोप का सामना करना पड़ा। इस तरह विश्लेषण करके कवि उद्भ्रांत ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ-साथ मानवीय सम्बन्धों पर भी दृष्टिपात किया है। मगर सुमित्रा के संदर्भ में एक बात फिर भी उनसे छूट गई लगती है क्योंकि सुमित्रा पूरी तरह से असमंजस की स्थिति में थीं। राम के साथ लक्ष्मण के वन में जाने की अनुमति के समय राम-चरित मानस में सुमित्रा के विशाल हृदय का विशद वर्णन देखने को मिलता है।
“तात तुम्हारी मातु बैदेही। पिता रामू सब भाँति सनेही॥
अवध तहाँ जहाँ राम निवासु। तहहूँ दिवसु जहें आनु प्रकासु॥
जौ पै सीय रामू बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥
गुरु पितृ माह बंधु सुर साईं। सेईअहिं सकल प्रान की नाई॥”
इसके अतिरिक्त सुमित्रा जी के व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं पर कवि उद्भ्रांत जी का ध्यान नहीं गया है। जैसे-
1) चित्रकूट में माता सुमित्रा कैकेयी पर अपार रोष में जल रही जनक की महारानी अर्थात सीता की माँ महारानी सुनैना के मन को ‘देवी जाम जुग जामिनी जीती’ कहकर उसके उद्विग्न मन को शांत कर उस प्रसंग को वही समाप्त कर देती है, जबकि कौशल्या यह काम नहीं कर पाती है। और सुनैना सुनिअ सुधा, देखि गरल के समान, कटु उक्तियाँ सुनाती जाती हैं। जब लक्ष्मण के मूर्छित होने की खबर सुमित्रा को मिलती है और उनकी जान बचाने के लिए संजीवनी लेकर जाते हुए हनुमान जी को भरत के बाण से आहत होकर गिरना पड़ता है उस समय सुमित्रा की विचित्र मनोदशा का वर्णन कवि की कल्पना से पता नहीं क्यों परे रह गया। "छिन-छिन गात-सुखात मातुके छिन-छिन होत हरे हैं। " अर्थात सुमित्रा यह सुनकर प्रसन्नता से खिल उठती है कि मेरे पुत्र लक्ष्मण राम के लिए युद्ध में वीरता पूर्वक लड़ते हुए बेहोश हो गए हैं। इनके इस कृत्य पर राम को एकाकी पाकर उनका मुख सूख जाता है। पर यह सोचकर, क्या चिंता, अभी शत्रुघ्न तो है ही। " वह अपने पुत्र को "तात जाहु कपि संग" कहकर आज्ञा दे देती हैं। यह तो अच्छा हुआ कि महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें लंका भेजने से रोक दिया।
इस प्रसंग को नजर अंदाज कर नारी के मन की संवेदना को स्पर्श नहीं कर पाए।
लक्ष्मण को आज्ञा देते समय सुमित्रा ने कहा था “राम सीय सेवा सूची है हो, तत्र जानिहों सही सुत मेरे। " और इस सेवा की अग्नि में तपकर जब उनका लाल कंचन की भाँति अधिक उज्ज्वल होकर लौटा, तभी उन्होंने उसे हृदय से लगाया।
सातवाँ सर्ग
महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
उद्भ्रांत जी ने कैकेयी के चरित्र को यथार्थ रूप से उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्होंने कैकेयी के अंतर्गत नारी मन के सूक्ष्म भावों को ठीक उसी तरह से प्रस्तुत किया है जिस तरह से नरेंद्र कोहली ने अपने राम चरित्र पर आधारित महाकाव्यात्मक उपन्यास “राम कथा”, में प्रस्तुत किया है। राजा दशरथ ने कैकेय नरेश को हरा कर आत्मसमर्पण करवाया था, तब उसने अपनी पुत्री का हाथ राजा दशरथ के हाथों में देना तय किया था। चूँकि कैकेय प्रदेश और उनका परिवार का भविष्य उस समय राजा दशरथ के हाथों में था। अतः समाज की भलाई, देश का कल्याण और अपने परिवार की रक्षा के लिए कैकेयी का कन्यादान ही एकमात्र विकल्प था। मगर कैकेयी कोई कोमल एवं साधारण राजकुमारी नहीं थी। वह तो हठीली उग्र, तेजस्विनी, महत्वाकांक्षी तथा असाधारण सुंदरी थी। उपन्यास में नरेंद्र कोहली ने राम के समक्ष कैकेयी से कहलाया है- "मैं वह धरती हूँ राम। जिसकी छाती करुणा से फटती है; तो शीतल जल उमड़ता है; घृणा से फटती है, तो लावा उगलती है। दोनों मिल जाते है तो भूचाल आ जाता है। मेरी स्थिति भूडोल की है राम! " कैकेयी का चेहरा लाल हो गया, “मैं इस घर में अपने अनुराग का अनुसरण करती हुई नहीं आई थी। मैं पराजित राजा की ओर से विजयी सम्राट को संधि के लिए दी गई भेंट थी। सम्राट और मेरे बीच का भेद आज भी ज्यादा है। मैं इस पुरुष को पति मान, पत्नी की मर्यादा निभाती आई हूँ, पर मेरे हृदय से इसके लिए स्नेह का उत्स कभी नहीं फटा। ये मेरी मांग का सिंदूर तो हुए, अनुराग का सिंदूर कभी नहीं हो पाए। मैं इस घर में प्रतिहिंसा की आग में जलती सम्राट से संबंधित प्रत्येक वस्तु से घृणा करती आई थी। तुम जैसे निर्दोष, निष्कलुष और प्यारे बच्चे को अपने महल में घुस आने के अपराध में मैंने अपनी दासी से पिटवाया था। "
वेबसाइट में प्राप्त जानकारी के अनुसार कैकेय देश यूक्रेन को कहा जाता है। वहीं पर कोकाश पर्वत शृंखला के आधार पर उस जगह को कैकेय प्रदेश कहा जाता है और वहाँ घोड़े बहुतायत में पाए जाते थे इसलिए वहाँ के राजा को अश्वपति कहा जाता था। एक कहानी के अनुसार देवराज इन्द्र शम्बरासुर से युद्ध कर रहे थे, मगर उन्हें पराजित नहीं कर पा रहे थे तो देवराज ने महाराज दशरथ से सहायता मांगी। महाराज जब अमरावती जाने लगे, तो कैकेयी को शस्त्र संचालन तथा रथ हाँकने की विधि की अच्छी जानकारी थी। युद्ध में शत्रु के बाण से रथ का धुरा कट गया था और महाराज गिरने ही वाले थे कि धुरे के स्थान पर कैकेयी ने अपनी पूरी भुजा लगा दी। महाराज युद्ध में तन्मय थे। शीघ्र ही दैत्य पराजित होकर भाग गए।
"प्रिये! तुमने दो बार आज मेरे प्राणों की रक्षा की है, अतः तुमको जो अभीष्ट हो, दो वरदान मांग लो। "
देव-वैद्यों ने महारानी की आहत भुजा को शीघ्र स्वस्थ्य कर दिया था। महाराज अत्यंत प्रसन्न थे।
“नाथ! आप मेरे आराध्य हैं, मैं आपकी कुछ सेवा कर सकी हूँ। यही मेरे लिए कम थोड़ा वरदान मिला है। आप दासी पर प्रसन्न हैं, मैं इसमें अपना सौभाग्य मानती हूँ। ” कैकेयी जी के मन में पतिसेवा के अतिरिक्त कोई इच्छा नहीं थी। महाराज ने जब बहुत आग्रह किया तो उन्होंने यह कहकर बात टाल दी "मुझे जब आवश्यकता होगी तब मांग लूँगी। "
आगे की कथा सब जानते हैं। दशरथ ने प्रसन्न होकर कैकेयी को दो वर मांगने को कहा और कैकेयी ने उचित समय आने पर वह मांगने का वचन लिया था। राम के विवाह के उपरांत जब महाराज दशरथ ने राम को युवराज बनाया और अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, तो उस समय कैकेयी ने महाराज को अपने वचनों की याद दिलायी और दो वर मांग लिए। पहले वर में भरत का राजतिलक और दूसरे में राम का वनवास। कैकेयी के दूसरे वचन से दशरथ मूर्छित हो गए और चल बसे।
तापस बेस बिसेस उदासी। चौदह बरस राम वनबासी॥
कवि उद्भ्रांत ने नारी मन के सूक्ष्म भावों को अपने इस सर्ग में व्यक्त किया है:-
“ मैं चाहती हूँ आज बताना यह
कि स्त्री की भी
होती है भावनाएँ कुछ,
जीवनसाथी उसका
सुंदर हो, युवा हो,
पौरुष के तेज से सम्पन्न हो,
आदर-सम्मान उसका करता हो
नहीं उसको होती चाह
महारानी बनने की;”
मानवता की दृष्टि से कैकेयी भले ही अपराधी हो पर राजतंत्र में स्त्री के जीवन और स्वप्न से जिस तरह खिलवाड़ किया जाता है उसे देखते हुए, उसके खिलाफ कैकेयी जैसी स्त्रियों का विद्रोह अपराध नहीं कहा जा सकता। कौशल्या और सुमित्रा जैसी अस्मिता और अस्तित्व-विहीन लाखों स्त्रियाँ हो सकती हैं, परंतु कैकेयी कोई एक ही पैदा होती है। जो अपनी अस्मिता और स्वतन्त्रता से जीना चाहती है और जब कोई उसके अरमानों को कुचल देता है, तो वह क्रूर भी हो जाती है।
इस दृष्टांत के माध्यम से कवि निम्न चीजों को हमारे समक्ष लाना चाहता है:-
1. प्रतिशोध की भावना मनुष्य को कितना निष्ठुर और विवेकहीन बना देती है कि जो स्त्री कभी अपने पति की सेवा करना अपना सौभाग्य समझती थी, वही स्त्री रोते-चिल्लाते क्रंदन करते मूर्छित होते पति को देखकर न केवल पाषाणवत् होकर चुपचाप स्थाणु बैठी है, वरन उल्टे व्यंग्य बाणों से उन्हें बींध भी देती है। गो-स्वामी तुलसी दास ने यहाँ तक लिखा है-
होत प्रातु मुनिबेष धरि, जौं न राम बन जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस, नृप समुझिअ मन माहिं॥
इसी बात को कवि उद्भ्रांत अपने शब्दों में ऐसे प्रस्तुत करते हैं--
“ स्वयं को तैयार कर लिया मैंने
अपने संभावित वैधव्य-हेतु!
मेरे भीतर की क्रूर स्त्री ने
अयोध्या के चक्रवर्ती
वयोवृद्ध महाराज दशरथ की
हत्या का सुनियोजित
कार्य कर दिया था पूर्ण;
छोड़ते हुए निर्मम शब्दों के अमोघ बाण! ”
1. स्त्री की भी कुछ भावनाएँ होती हैं, अगर उनका सम्मान नहीं किया गया तो विवशता या भावुकता में किए गए फैसले, खासकर विवाह विषयक निर्णय के कुपरिणाम देखने को मिलते हैं।
2. कवि ने मंथरा जैसे पात्रों के माध्यम से दर्शाया है कि -पारिवारिक रिश्तों में किस तरह दरारें पड़ती हैं, इससे बढ़कर और कोई उदाहरण, पौराणिक ग्रन्थों में नहीं मिलता। "मैं विष खाकर मर जाऊँगी; परंतु सपत्नी की दासी बनकर नहीं रहूँगी। " दुष्टों के अमंगलमय वचन पवित्र हृदय को कलुषित कर ही देते हैं। फिर यहाँ तो राम की इच्छा से रामकाज कराने के लिये भगवती सरस्वती कैकेयी की मति फेर गयीं और कुब्जा की जिह्वा पर आ बैठी थी। कैकेयी विलाप करने लगीं। मंथरा ने उन्हें आश्वासन दिया। महाराज से दोनों पूर्व के वरदान मांगने की स्मृति दिलायी। कोपभवन में मान करने की युक्ति भी उसी ने सुझायी।
3. कवि ने तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों का उल्लेख करते हुए यह बात सिद्ध करने से पीछे नहीं हटे हैं कि आए दिन शत्रुओं के धावों से प्रभावित हो कर राजा अपनी कमसीन उम्र की पुत्रियों का विवाह वयोवृद्ध राजाओं से कर देते थे, बिना अपनी पुत्री की इच्छा को जाने। दशरथ और कैकेयी की शादी इसकी पुष्टि करती है।
4. इस ग्रंथ में महाराज जनक के अनुज कुशध्वज की तीन पुत्रियों मांडवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति के वैवाहिक बंधन के लिए, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के पास प्रस्ताव भेजने का वर्णन मिलता है। मगर आमिष की पुस्तक “सीता’ज सिस्टर” के अनुसार उर्मिला, सीता की सगी बहन थी।
5. कवि ने मंथरा को दासी के पद से मुक्ति देते हुए उसे कैकेयी की सखी का दर्जा दिया है। इस तरह अपने समय से प्रभावित होकर भले ही यह प्रेरणा मिली हो, मगर स्त्री विमर्श का लाभ कैकेयी को न मिलकर मंथरा को दलित विमर्श का लाभ अवश्य मिला है।
नाम मंथरा मंदमती चेरी कैकेयी केरि।
अजस पिटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥
6. कवि कुछ विषयों पर स्पष्ट नहीं कर पाए हैं, जैसे- कैकेयी का पश्चाताप। जब भरत ने उसे माँ कहने से इनकार कर दिया और अपने आपको कैकेयी का पुत्र होने पर कोसने लगा। जितनी आशाएँ उसे भरत पर थी, सारी की सारी नष्ट हो गई। इसके अतिरिक्त, चित्रकूट पहुँच कर श्री राम के सम्मुख जाने से डरकर वह एक पेड़ की ओट में छिप गई। पूछने पर भी जब भरत ने कैकेयी के संबंध में मौन धरण किया तो राम ने स्वयं उन्हें खोज निकाला और उनके चरणों में अपना सिर रखकर कहने लगे,“आपने कोई अपराध नहीं किया है। देवताओं ने सरस्वती को भेजकर मंथरा की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न कर दिया था और मेरी भी ऐसी ही इच्छा थी। ” श्री राम ने माता को आदर देते हुए समझाया "देवकार्य के लिए मेरा वन आना आवश्यक था। मेरी ही इच्छा से आप इसमें निमित्त बनी हैं। आपने कोई भी अपराध नहीं किया। सम्पूर्ण संसार की निंदा, सदा के लिए अपयश लेकर भी आपने मेरे कार्य को पूर्ण होने में योग दिया है। मैं आपसे अत्यंत प्रसन्न हूँ। आप आनंद से अयोध्या लौटें। श्री भगवान का भजन करने में चित्त लगावें। आपकी आसक्ति का नाश हो गया है। अपमान तथा घृणा ने आपके प्रबल अहंकार को नष्ट कर दिया है। आप निश्चय ही भगवत धाम प्राप्त करेंगी। " कवि उद्भ्रांत ने कैकेयी के दोष-निवारण पर चुप्पी साधी है। आदि कवि वाल्मिकी ने कैकेयी की दुष्टता और कुटिलता का स्पष्ट शब्दों में चित्रण किया है। चित्रकूट की यात्रा करते समय राम को यह आशंका हमेशा बनी रहती है कि कहीं कैकेयी, कौशल्या व सुमित्रा को जहर खिलाकर मार न दे। भरत को राज्य दिलाने के लिए दशरथ के प्राण न ले ले। सीता के द्वारा रामायण में आगे जाकर कैकेयी के दोष निवारण का प्रयत्न किया गया है। जब भरद्वाज राम से कहते हैं- कैकेयी को दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि राम का निर्वासन सभी के हित में होगा। इसी तरह शापदोष सहित कैकेयी का भी उल्लेख मिलता है कि उसने कभी किसी ब्राह्मण की निंदा की थी और ब्राह्मण ने कैकेयी को शाप दिया था कि तुम्हारी भी निंदा की जाएगी। शाप का उल्लेख रामायण मंजरी, कृतिवास और बलराम दास के रामायणों में मिलता है। विमल सूरी के अनुसार कैकेयी ने भरत का वैराग्य दूर करने के लिए भले ही राज्य मांगा था, मगर राम के लिए वनवास नहीं। वे स्वेच्छा से वन की ओर प्रस्थान करते हैं। इसी तरह वसुदेवहिन्डी,धर्मखिणड़, तत्वसंग्रह रामायण आदि में अलग-अलग प्रसंगों का उल्लेख मिलता है। प्रतिमा नाटक में कैकेयी के दोष निवारण के लिए अलग भाव का प्रयोग किया है- जब राम को वशिष्ठ, आदि के परामर्श के पश्चात वन भेजने का निर्णय लिया जाता है, तो भरत उनसे पूछते हैं- आपने चौदह वर्ष का वनवास क्यों दिलाया तो, कैकेयी उत्तर देती है चौदह दिन के स्थान पर उनके मुंह से गलती से चौदह बरस निकल गया। भवभूति के महावीर चरित और मुरारीकृत अनर्घराघव में कैकेयी को दोषी न ठहराते हुए स्वयंवर के समय शूर्पणखा मंथरा के वेश में मिथिला पहुँचकर दशरथ को कैकेयी के फर्जी पत्र देने का उल्लेख मिलता है जिसमें वर के बल पर राम का निर्वासन मांगा गया।
इस तरह बाल रामायण, बलराम दास रामायण, तोरवे रामायण, रामलिंगमृत तथा राम चरित्र मानस में इस संबंध में अलग-अलग उल्लेख मिलता है।
7. रामकथा के अनुसार कैकेयी को वरप्राप्ति की संख्या और उनके विषय में भिन्नता पाई जाती है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार कैकेयी को दो वर प्राप्त हुए थे। जबकि महाभारत, रामकियन और पदमपुराण के अनुसार उन्हें केवल एक वर मिला था जिसके आधार पर वह भरत के लिए राज्य और राम के लिए वनवास मांग सकती थी। आनंद रामायण के अनुसार- एक मुनि ने बालिका कैकेयी की सेवा से संतुष्ट होकर यह वरदान दिया था कि समय पड़ने पर तुम्हारे हाथ वज्र जैसे कठिन हो जाएंगे। जबकि तेलुगू द्विपद रामायण के अनुसार शम्बर ने दशरथ से युद्ध करते समय माया का सहारा लिया था। लेकिन धबलंग से सीखी हुई माया के द्वारा कैकेयी ने शंबर की माया का प्रभाव नष्ट कर के दशरथ को बचाया था। इसी तरह ‘भावार्थ रामायण’ में कैकेयी ने राजा दशरथ के इन्द्र के विरोध युद्ध में सहयोग करने, कृतिवास रामायण तथा असमिया बालकांड में शम्बर युद्ध के अवसर पर कैकेयी को एक वर मिला था। लोक गीतो में कैकेयी दशरथ के पैर से काँटा निकालकर वर प्राप्त करती है। पाश्चात्य वृतांत के अनुसार कैकेयी ने बिच्छू से डसे हुए दशरथ को स्वस्थ कर दूसरा वर प्राप्त किया था। इसी तरह संधदास की वसुदेवहिण्डी में कैकेयी की वरप्राप्ति का वर्णन मौलिक है। प्रथम वर उनको कामशास्त्र में निपुणता के कारण दिया जाता है। दूसरे वर की कथा इस प्रकार है। किसी दिन एक सीमावर्ती राजा ने दशरथ को यद्ध में कैदी बना लिया था। यह सुनकर कैकेयी ने सेना का नेतृत्व लेकर विरोधी राजा को हराया तथा दशरथ को मुक्त किया था। इसी तरह पउमचरिय, दशरथ जातक, दशरथ कथानक में कैकेयी को एक वर देने का उल्लेख मिलता है, वह भी भरत के जन्म के अवसर पर। जबकि ब्रह्म पुराण में कैकेयी को तीन वर प्राप्त होते हैं।
आठवाँ सर्ग
रावण की बहन ताड़का
कवि उद्भ्रांत ने रामायण के अनुरूप ही ताड़का के चरित्र का गठन किया है। ताड़का यक्ष की पुत्री थी। डॉ. अम्बेदकर ने अपने निबंध “शूद्राज एंड द काउंटर रिवोल्यूशन” में स्पष्ट किया है कि आर्यों के प्राचीन धार्मिक साहित्य का अध्ययन करने पर लोगों के अनेक समुदायों और वर्गों का पता चलता है। सबसे पहले आर्यों का पता चलता है, जो चार वर्गों में विभाजित थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनके अतिरिक्त और इनसे भिन्न थे-1)असुर, 2)सुर या देव, 3) यक्ष 4) गंधर्व, 5) किन्नर, 6) चारण, 7) अश्विन और 8) निषाद। निषाद जंगल में बसी, आदिम जनजातियाँ और असभ्य थे। असुर एक जातिगत नाम है, जो बहुत-सी जनजातियों को दिए गए अनेक नामों में से है। नए नामों में दैत्य, दानव, दस्यु, कलंज, कलेय, कलिन, नाग निवात-कवच, पौलम, पिशाच और राक्षस हैं। हम नहीं जानते कि सुर और देव भी उसी तरह के जनजातीय लोग थे। जिस तरह के असुर थे। हम सिर्फ देव समुदाय के प्रमुखों को जानते हैं, जिनमें ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सूरी, वरुण, सोम आदि हैं। वे एक अन्य निबंध, एनशिएन्ट इंडिया आन एकसीइमूमेशन में यह भी बताते हैं कि यक्ष, गण, गन्धर्व और किन्नर मानव परिवार के सदस्य थे और देवों की सेवा में थे। यक्ष महलों के प्रहरी होते थे।
इस सर्ग में कवि उद्भ्रांत ने ताड़का को रावण की बहन बताते हुए लंका में जंगल से जड़ी-बूटियों और खनिज पदार्थों को भेजने का कार्य करने वाला बताया है। उसके साथ उसका भाई मारीच तथा बलशाली पुत्र सुबाहु सहयोग करते थे। उसी जंगल में विश्वामित्र भी अपने शिष्यों के साथ यज्ञ कर्म में लीन थे, एक दिन अपने साथ फलमूल लेकर जा रहे थे कि भूख से पीड़ित ताड़का उनकी तरफ लपकी। उनके पीछे थे राम और लक्ष्मण। विश्वामित्र के आदेश पर राम ने तीर चलाकर ताड़का को हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त कर दिया।
कवि के इस संकेत को देवदत्त पट्टनायक की पुस्तक “सीता” में दूसरे दृष्टिकोण से देखा गया है कि रामायण में कई औरतों को राक्षसी का दर्जा देकर या तो उन्हें मारा या फिर उन्हें परेशान किया गया। इनमें ताड़का का नाम सबसे पहले आता है। शूर्पणखा का नाम भी किसी से छुपा हुआ नहीं है, मगर यथोमुखी, सिंहिका, सुरसा लंकिनी, मंदोदरी(रावण की पत्नी) तथा चंद्रसेणा(महीरावण की पत्नी) के नाम भी शामिल है। इन्हें जंगली और पालतू प्रकृति के रूप में मानना मुश्किल है। सीधी-सी बात है उस जमाने में औरतों के प्रति पुरुष हिंसा बहुत ज्यादा होती थी।
विश्वामित्र के यज्ञ की तुलना इंद्रप्रस्थ नगर बसाने के लिए पांडवों द्वारा खांडव जंगल जलाने से की जा सकती है। यज्ञ का मतलब जंगल साफ करना, आदमियों के रहने योग्य कॉलोनी बनाने का प्रतीक है। उस जमाने में गंगा के मैदान से दक्षिण के घने जंगलों में वैदिक जातियों का प्रवेश माना जा सकता है। तत्कालीन संघर्षों के कार्य मिशनरी तथा evangelist की तरह होते थे, जो यक्ष के माध्यम से उपनिवेशवाद की स्थापना करते थे। फिर अपने शासक, सामन्त, जमींदार और पुरोहित जातियों को अपने बचाव के लिए वहाँ शरण देते थे।
ताड़का प्रसंग में कवि ने स्वयंप्रभा के बारे में भी उल्लेख किया है। वे पंक्तियाँ भिन्न में है-
“उसी निचोट सूने क्षेत्र के निकट
आश्रम एक बनाकर
तपस्या में लीन रहती थी
मेरुसावर्ण ऋषि की कन्या
स्वयंप्रभा। ”
स्वयंप्रभा के बारे में कामिल बुल्के की ‘रामकथा’ में उल्लेख आता है- हनुमान तथा उसके साथी विन्ध्य की गुफाओं में सीता की खोज करते हुए एक निर्जल तथा निर्जन वन में पहुँच गए। कण्ड ने अपने द्वादश वर्षीय पुत्र की अकाल मृत्यु से शोकातुर हो कर उस प्रदेश को शाप दिया था। इस स्थल पर अंगद ने एक असुर का वध किया। सभी तृप्त वानरों ने विन्ध्य की दक्षिण-पश्चिम कोटि पर ऋक्षबिल नमक गुफा से जल पक्षियों को निकलते देखा। अंगद ने घर पर पहरा देने वाले दानव को मार डाला और सब वानर हनुमान के नेतृत्व में अंधेरी गुफा में प्रवेश कर गए। एक योजन तक आगे बढ़कर उन्होंने एक ज्योतिर्मय सुवर्णनगरी में एक वृद्धा तपस्विनी से भेंट की। उसने अपना परिचय देकर कहा- “मैं मेरुसावर्ण की पुत्री स्वयंप्रभा हूँ, मय नामक दानव ने इस नगर का निर्माण किया था। किन्तु हेमा नामक अप्सरा पर आसक्त हो जाने के कारण इन्द्र ने मय का वध किया था। बाद में ब्रह्मा ने हेमा को यह वन प्रदान किया था और मैं हेमा के लिए इसकी रखवाली करती हूँ; तब स्वयंप्रभा ने वानरों को भोजन दिया और आँखें बंद कर लेने का आदेश देकर वह उनको गुफा से बाहर ले गई। वानरों को विन्ध्याचल तथा समुद्र दिखलाकर उसने पुनः गुफा में प्रवेश किया (सर्ग48-52)।
कंवल भारती ने अपनी पुस्तक “त्रेता विमर्श और दलित चिन्तन” में कवि उद्भ्रांत पर ताड़का वध की पृष्ठ भूमि के बारे में सवाल उठाया है कि ताड़का वध को जाने बिना उसके औचित्य पर विचार करना अनुचित है। इस बात की पुष्टि के तौर पर डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित ने अपनी पुस्तक “त्रेता एक अंतर्यात्रा” में लिखा है कि किसी रचनाकार/कलाकार का जन्म-स्वीकृत आदेशों में तनिक-सा भी हस्तक्षेप कठिनाइयाँ उपस्थित कर देता है। यहाँ तक कि उदार समाज भी विपरीत आचरण वाले परिवर्तन को इतनी सरलता से स्वीकार नहीं कर पाते। नहीं तो, लेन को की महाराज शिवाजी विषयक पुस्तक, M.F.Hussain के हिन्दू देवी-देवताओं के निर्वस्त्र चित्रों, माइकल मधुसूदन दत्त की “मेघनाथ वध" और भगवान सिंह लिखित उपन्यास “अपने-अपने राम” विवादों के घेरे में नहीं होते।
रामायण के अनुसार अगस्त्य मुनि ने ताड़का के यक्षपति सुन्द की हत्या कर दी थी। वह अपने पति की हत्या का बदला लेना चाहती थी। मगर अगस्त्य के शाप ने उसे राक्षसी बना दिया। तभी से वह अगस्त्य के रहनेवाली जगह के इर्द-गिर्द प्रदेश को उजाड़ने लगी। चूँकि ताड़का में एक हजार हाथियों का बल था और अगस्त्य मुनि उसका सामना नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने अपने शिष्य विश्वामित्र को अयोध्या भेजकर राम को लाने का आदेश दिया था, तो विश्वामित्र ने उन्हें यह कहते हुए समझाया था “villains have no gender॰shoot! ”. तुम्हें स्त्री हत्या का विचार करके दया दिखाने की जरूरत नहीं है। बल्कि गौ और ब्राह्मणों के हित के लिए इस दुराचारिणी का वध करना आवश्यक है। राम तो आखिर राम ठहरे। वह अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकते थे? राम ने लक्ष्मण के साथ मिलकर अत्यंत ही क्रूरता के साथ ताड़का को मार डाला। इस प्रसंग को देवदत्त पट्टनायक वीरेंद्र सारंग के उपन्यास “वज्रांगी” के कथानक की तरह अपने विचार प्रस्तुत करते हैं कि दण्डकारण्य की जन-जातियाँ आर्यों के घुसपैठ को रोकना चाहती थी। क्योंकि वे अपनी सांस्कृतिक शालाएँ और सैनिक छावनियाँ स्थापित कर उस पूरे क्षेत्र को अपने कब्जे में करना चाहते थे और इन गतिविधियों के मुखिया अगस्त्य मुनि थे, जो उनको दीक्षित कर अपनी दूरगामी महत्वाकांक्षी योजना को फलीभूत करना चाहते थे, जबकि जनजातीय समुदाय आर्य प्रभुत्व को स्वीकार नहीं कर यक्ष को ध्वस्त करते हुए आश्रमों को उजाड़ देते थे।
एक बात और कंवल भारती ने उठाई है कि अगस्त्य ऋषि ने अपना शाप देकर उसे राक्षसी बना दिया था। महात्मा ज्योतिबा फुले अपनी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ में “शाप, मन्त्र, जादू तंत्र” आदि का पूरी तरह खंडन करते हैं। उनके मतानुसार वे अनपढ़ लोगों को अलौकिक शक्ति के प्रदर्शन के प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर न केवल उन्हें लूटते है वरन उनका आर्थिक शोषण भी करते हैं। क्या विज्ञान में आज तक कभी ऐसा कोई सबूत है कि किसी ने शाप देकर राक्षस, पशु, कोढ़ी, पत्थर आदि बना दिया हो। यह केवल एक आतंक फैलाने वाली चाल है। हुआ कुछ और होगा, मगर उसे अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए दूसरा नाम रख दिया। कंवल भारती के अनुसार अगस्त्य मुनि ने ताड़का के चेहरे पर या तो तेजाब डाला होगा या फिर किसी धारदार हथियार से उसके चहेरे को विकृत कर दिया होगा।
इन सब तथ्यों को नकार कर आज तक के फिल्म निर्माता, कहानीकार, अथवा कलाकार राम को हीरो बनाने के लिए अथवा राम के जन्म-स्वीकृत हीरो होने का आर्थिक फायदा उठाने के लिए अक्सरतया दूरदर्शन अथवा फिल्मों में इस तरह का अंकन किया जाता है कि मानो ताड़का एक विलियन के रूप में खतरनाक स्त्री की भूमिका अदा कर रही हो। उदाहरण के तौर पर स्टार प्लस पर दिखाए जा रहे धारावाहिक “सिया के राम” में ताड़का को ताड़ के पेड़ के ऊपर चिपक कर बैठने वाली रक्त पिशाच चमगादड़ के रूप में देवदत्त पट्टनायक जैसे मुख्य कहानी सलाहकार होने के बावजूद भी दिखाया जाता है। जो कि यथार्थ से कोसों दूर है, मगर उसे राम के जीवन के अनछुए प्रसंग के रूप में प्रस्तुत करना भारतीय संस्कृति और मिथकीय इतिहास के साथ न केवल एक खिलवाड़ है वरन् आर्थिक लाभ के लिए उठाया गया एक क्षुद्र कदम के सिवाय और कुछ क्या हो सकता है? यह कहा जाता है कि “सिया के राम” धारावाहिक बनाने का आइडिया प्रोड्यूसर ने ‘त्रेता’ से ही लिया,जिसे वर्ष 2010 में मुंबई में ‘प्रियदर्शनी सम्मान’ से भी सम्मानित किया गया था और जिस पर बीएन प्रोडक्शन के रवि चोपड़ा सीरियल बनाना चाहते थे,मगर अस्वस्थ हो जाने के कारण नहीं बना सके।
तुलसीदास ने रामचरितमानस में बालकांड के दोहा 209/56 में लिखा है-
चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहि बान प्राण हरि लिन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥
जाते-जाते मुनि ने ताड़का राक्षसी दिखा दी, वह राक्षसी उन तीनों का उस रास्ते निकलना सुनकर क्रोधित हो दौड़ी। रामचन्द्र ने एक ही बाण में उसके प्राण हर लिए और उसे गरीबनी जान कर निज पद दे दिया।
यदि रामचन्द्र को ईश्वर मान तुलसीदास के ‘ईश’ के बारे में कुछ विचार ही न किया जाए, तब तो खैर कुछ कहना ही नहीं, अन्यथा इसमें कहाँ का आर्य शौर्य है कि निशस्त्र दौड़ी चली आती हुई एक अबला को दूर से ही बाण मारकर उसकी हत्या कर दी गई और आगे फिर यह लिखना, क्या जले पर नमक छिड़कने के समान नहीं है कि उसे गरीबनी जान अपना पद अर्थात् बैकुंठ दे दिया?
नौवां सर्ग
अहिल्या के साथ इंद्र का छल
उद्भ्रांत प्रगतिशील विचारधारा के अग्रणी कवि है। इसलिए उन्होंने इस कविता में अहिल्या को तुलसीदास की अहिल्या से विपरीत रूप दिया है। क्योंकि इस संदर्भ में तुलसी दास ने जो कथा अपने मानस में प्रस्तुत की है,वह न केवल नारी विरोधी है वरन् पुरुष सत्ता को ज्यादा बढ़ावा देती है। मानस के बालकांड (210/11,12) में तुलसीदास कहते है-
आश्रम एक दीख मग माहीं,खग मृग जीव जन्तु तंह नहीं।
पूछा पुनिही सिला प्रभु देखि,सकल कथा मुनि काही विसेषी॥ (मानस,बाल210/11-12)
मार्ग में उन्होंने एक आश्रम देखा जिसमें कई पशु-पक्षी और जीव जन्तु नहीं थे,वहाँ एक शिला को देखकर श्री रामचन्द्र ने मुनि से पूछा तो मुनिवर ने सारी कथा विस्तार से कह सुनाई।
कथा का संक्षेप इतना ही है:-
गौतम नारी श्राप बस उपल देह धरि धीर
चरण कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर। (मानस,बालकांड-210)
हे रघुवीर! गौतम की स्त्री ने शाप के कारण बड़े धीरज से पत्थर का शरीर धारण कर रखा है,यह आपके चरण कमलों के धूल चाहती है,इस पर कृपा कीजिए।
विस्तृत कथा यह है कि इन्द्र और चंद्रमा ने मिलकर गौतम ऋषि तथा गौतम नारी दोनों को ठगा। गौतम नारी ने इन्द्र को गौतम ऋषि समझकर ही उससे सहवास किया था। बाद में गौतम ऋषि के आने पर इन्द्र से पूछने पर उसे पता लगा कि वह ठगी गई है। असाधारण विकट परिस्थिति में अहिल्या ने झूठ का आश्रय लिया तो ऋषि ने उसे शाप दे दिया कि तू पत्थर हो जा।
अहिल्या दो अपराधों की अपराधिनी थी,पहला परपुरुषगमन की तथा दूसरा,झूठ बोलने की। परपुरुषगमन उस ने वंचिता हो कर किया था और झूठ बोलने का अपराध भयवश। इन दोनों अपराधों के लिए ही उसे युग युगों तक पाषाण हो कर रहना पड़ा। सारे पौराणिक साहित्य में कोई एक भी ऐसा उदाहरण है जहां ऋषिमुनि इस तरह के अपराध के लिए किसी के शाप के कारण पाषाण बन गए हो? युगों-युगों से पत्थर बनी पड़ी रहने के बाद रामचन्द्र के चरण-स्पर्श से जब अहिल्या प्राणवान होती है तो वह प्रार्थना करती है-
“मैं नारि अपावन प्रभु जगपावन रावनरिपु जन सुखदाई” -मानस,बाल 211/छंद2
मैं अपवित्र नारी हूँ और आप जगत को पवित्र करने वाले रावणरिपु हैं और भक्तों को सुख देने वाले हैं।
सोचने की बात है कि इस अपराध के कारण चंद्रमा अपवित्र नहीं हुआ,वह चंद्र देवता बना रहा। इन्द्र अपवित्र नहीं हुआ,इन्द्र देवता बना रहा,गौतम अपवित्र नहीं हुआ,वह गौतम ऋषि बना रहा। एकमात्र अहिल्या ही अपवित्र हुई,इसके सिवा इसका दूसरा कौनसा कारण बताया जा सकता है कि वह नारी है? राम लक्ष्मण का जनकपुरी जाना,धनुष तोड़ना,परशुराम संवाद आदि ‘रामचरित मानस’ के अत्यंत प्रसादगुण पूर्ण स्थल हैं। श्री रामचन्द्र जब जनकपुरी जाते है तो वहाँ सीता की सखियों में से एक रामचन्द्र के बारे में विश्वास प्रकट करती हुई कहती है:-
परसि जासु पदपंकज धूरि,तरी अहिल्या कृत अधभूरी।
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु चरें,यह प्रतित परिहरिअ न भोरें।
-मानस,बाल 223/5-6
जिन रामचन्द्र के चरणकमलों के धूलि लगते ही घोर पापिन अहिल्या भी तर गई,क्या वह शिव के धनुष को तोड़े बिना रहेंगे! यह भरोसा भूल कर भी न छोड़ना चाहिये।
अब सीता स्वयंवर समाप्त हो चुका है। राजा और रानी प्रेममग्न होकर रामचन्द्र के पवित्र चरणों को धोने लगे। वे चरण कैसे हैं-
जेपरसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई (-मानस,बाल324/छंद2)
जिनका स्पर्श कर के मुनि पत्नी अहिल्या जो महा पापमयी थी,वह भी मति पा गई अर्थात् उसका भी उद्धार हुआ या नहीं,यह भी किसी संदेहवादी नास्तिक की जिज्ञासा ही हो सकती है। किन्तु यहाँ प्रश्न यह नहीं है। प्रश्न है कि बिचारी अहिल्या को यहाँ फिर इतनी जल्दी पातकी कहकर क्यों स्मरण किया गया है? उसे छलने वाले चंद्र तथा इन्द्र दोनों देवता बने रहकर पूजे जा रहे हैं? इन दोनों देवताओं द्वारा ठग गया मुनि भी किसी की अवज्ञा का पात्र नहीं बना। तब दोनों देवताओं द्वारा वंचिता अबला एकमात्र अहिल्या ही क्यों पाषाण बनने पर मजबूर हुई? एक ही उत्तर है-वह तुलसी दास के कल्पनालोक की नारी थी।
अलग-अलग ग्रन्थों में अहिल्या के उद्धार के बारे में तरह-तरह की कहानियाँ देखने को मिलती है। वैदिक साहित्य के टीकाकारों ने इसे एक रूपक माना है। ‘अहिल्या भूमि’ अर्थात् जिस भूमि में हल नहीं चलाया गया है,उस भूमि का वर्षा के अधिष्ठाता देवता इन्द्र का संबंध होना स्वाभाविक प्रतीत होता है। परवर्ती साहित्य में अहिल्या की कथा का पर्याप्त विकास हुआ और उसमें अहिल्या-उद्धार का संबंध राम से जोड़ा गया। महाभारत में गौतम को अहिल्या का पति माना गया है। वास्तव में वैदिक साहित्य में लिखा है कि इन्द्र अपने को गौतम कहलवाते थे।
षडबिश ब्राह्मण - इस पुस्तक में एक कथा आती है,जिसमें देवता तथा असुर दोनों युद्ध कर रहे थे,गौतम दोनों सेनाओं के बीच तपस्या कर रहे थे। इन्द्र ने उनसे अपना गुप्तचर बनने का अनुरोध किया,मगर गौतम ने उसे ठुकरा दिया। तब इन्द्र ने गौतम का रूप धारण कर गुप्तचर बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। शायद इसी कथा के आधार पर यह माना जाने लगा कि अहिल्या के पति का नाम गौतम ही था और इंद्र को अहिल्या जार नाम से पुकारा जाने लगा।
वाल्मिकी उत्तराकांड में इस संदर्भ में एक दूसरा वृतांत प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार ब्रह्मा ने दूसरे प्राणियों के सर्वश्रेष्ठ अंग लेकर एक ऐसी स्त्री का निर्माण किया,जिसमें ‘हला’(कुरूपता) का पूरी तरह अभाव था। इसलिए उसका नाम अहिल्या रखा। इन्द्र अहिल्या की अभिलाषा करते थे, मगर ब्रह्मा ने इसे धरोहर के रूप में गौतम ऋषि के यहाँ रखा। बहुत वर्षों के बाद गौतम ने उसे ब्रह्मा को लौटाया और ब्रह्मा ने तपस्वी गौतम ऋषि की सिद्धि को देखकर उसे पत्नी स्वरूप प्रदान किया।
हरिवंश पुराण के अनुसार वघ्यश्व और मेनका की दो संताने थी,दिविदास और अहिल्या। अहिल्या ने गौतम की पत्नी बनकर शतानंद को जन्म दिया। ब्रह्म पुराण इस संदर्भ में कुछ और ही बात कहती है। उसके अनुसार अहिल्या को प्राप्त करने के लिए यह शर्त रखी थी कि जो देवता पृथ्वी की परिक्रमा करके सबसे पहले मेरे पास आए,उसे अहिल्या दी जाएगी। समस्त देवता पृथ्वी की परिक्रमा करने निकले,मगर गौतम ने अर्धप्रसूता सुरभि तथा शिव-लिंग की प्रदक्षिणा की और अहिल्या को प्राप्त किया।
पउंमचरियं के अनुसार अहिल्या जवालानसिंह और वेगवती की पुत्री है। जिसने अपने स्वयंवर के अवसर पर राजा इन्द्र को ठुकराकर राजा नंदिमाली (अथवा आनंदमालाकार) को चुन लिया था। बाद में नंदिमाली का वैराग्य हुआ और उन्होने दीक्षा ली। किसी दिन इन्द्र ने उस ध्यानस्थ नंदिमाली को बांधा था,जिसका परिणाम यह हुआ कि इन्द्र रावण से हार गये। पाश्चात्य वृतांत में अहिल्या को भूल से विश्वामित्र की पत्नी माना गया है। स्कन्द पुराण और महाभारत में गौतम के पुत्र चिरकारी का उदाहरण प्रस्तुत होता है,जो अपने पिता गौतम के आदेश को ठुकरा देता है कि वह अहिल्या की व्यभिचारिणी होने के कारण हत्या करे। चिरकारी की दृष्टि में उसकी माँ निर्दोष थी,क्योंकि इन्द्र गौतम की अनुपस्थिति में रूप बदलकर अहिल्या के पास गए थे। असमिया बालकांड,रंगनाथ रामायण, के अनुसार गौतम की तपस्या में विध्न डालने के उद्देश्य से इस कृत्य को अन्जाम दिया था। ‘ब्रह्मवैब्रतपुराण’ इन्द्र को दुराचारी तथा अहिल्या को निर्दोष मानती है। कीर्तिवास रामायण,के अनुसार इन्द्र गौतम का प्रियतम शिष्य था। इसी तरह गौतम के शाप के कई रूप मिलते है।
महाभारत के अनुसार इन्द्र के दाढ़ी पीली होने,वाल्मिकी उत्तरकाण्ड के अनुसार मेघनाद द्वारा इन्द्र को हराने तथा मनुष्य के पापों का आधा दोष इन्द्र को मिलने,वाल्मिकी बालकांड में इन्द्र को नंपुसक होने,बलराम दास,कंबन रामायण,पदमपुराण के अनुसार सहस्रनयन बनने जैसे अभिशापों का उल्लेख मिलता है। महाभारत में अहिल्या को कोई अभिशाप नहीं मिलता है। पाषाणभूता अहिल्या का उल्लेख सबसे पहले रघुवंश और आगे चलकर नरसिंह पुराण,स्कन्ध पुराण,महानाटक,सारलादासकृत महाभारत, गणेश पुराण अभी में मिलता है। वाल्मिकी के बालकांड में गौतम यह कहते है कि राम का आथित्य सत्कार करने के पश्चात तुम पूर्ववत अपना शरीर धारण कर मेरे पास आओगी अर्थात् वपुरधरियिष्यसि। शायद यहीं से अहिल्या के शिला बनने की धारणा पैदा होती है।
रामकियेन के अनुसार गौतम ने यह अभिशाप इसलिए दिया था कि रामावतार के समय वह सेतु बनाने में काम आए और सदा-सदा के लिए सागर में दफना दिया जाए। गौतम का एक शाप जिसके अनुसार अहिल्या शुष्क नदी बन गई थी,(शुष्कनदी भव) कम प्रचलित है।
एक कथा के अनुसार अहिल्या की पुत्री अंजना का उल्लेख मिलता है। जब गौतम ने अपनी दिव्यदृष्टि से अहिल्या के व्यभिचार के बारे में जाना तो उसने अहिल्या से असलियत के बारे में पूछा। अहिल्या ने उत्तर दिया यह मार्जार है, इसके दो अर्थ हैं। इन्द्र के दो रूप धारण करने अथवा माँ के जार होना। इस पर वह अहिल्या का शिला बनने तथा इन्द्र को सहस्रयोनि बनने का अभिशाप देते है। किवदंती के अनुसार अहिल्या और गौतम के दो पुत्र बाली और सुंग्रीव होते हैं।
अध्यात्म रामायण के रचयिता ‘पाषाणभूता अहिल्या’ की कथा के रूप में अहिल्या को शिला पर खड़ी होकर तपस्या करने से जोड़ा है। इस तरह अहिल्या उद्धार की एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा ब्राह्मण ग्रन्थों के अहिल्या जार इन्द्र से प्रारम्भ होकर अनेक रूप धारण करती हुई अहिल्या तारक राम की भक्ति में विलीन हो जाती है। नाटककारों ने राम की कथा को बदलाने में किसी भी तरह का कोई संकोच नहीं किया है। जानकी परिणय में अहिल्या उद्धार की कथा इस प्रकार आती है कि जब राम मायावी सीता के प्राण संकट में देखकर चट्टान से कूदकर अत्महत्या करना चाहते है तो राम के स्पर्श से चट्टान से प्रकट होकर अहिल्या राम को इस राक्षसी माया का रहस्य बताती है।
यूरोपियन स्कॉलर इन्द्र की तुलना ग्रीक मिथक जिउस(zeus)से करते है। दोनों आकाश के देवता है और स्त्रियॉं से प्रेम सम्बन्धों के लिए प्रसिद्ध है। जिउस नेवला,सूर्य की किरण या उनके पतियों के छद्म रूप धारण कर अनेकानेक राजकुमारियों तथा निंफ (nymph) के साथ बलात्कार करते है और अनेकानेक पोरसेउस(Porseus)और हरकुलस(Hercules) जैसे बड़े नायकों को जन्म देते हैं। कुछ आलोचक पुरुषों को आकाश,संस्कृति तथा स्त्रियों को पृथ्वी संस्कृति से जोड़ते हैं तो कुछ देव संस्कृति और आर्य संस्कृति के सम्बन्धों के प्रतीक के रूप में देखते हैं।
नरेंद्र कोहली ने अपने उपन्यास ‘रामकथा’ में अहिल्या और गौतम की कथा को एक नए रूप में आधुनिक समय के सापेक्ष रखने का प्रयास किया है। जिस तरह कवि उद्भ्रांत अहिल्या के बारे में अपनी बात रखते है कि गौतम और अहिल्या के बीच काफी प्रेम था। मगर एक बार पड़ोसी राजा इन्द्र को अपने यहाँ रुकने का न्यौता देकर अपने पारिवारिक जीवन में आग लगा दी। इन्द्र पास के सुरपुर राजा का नरेश था। वह अहिल्या को देखकर मोहित हो गया। गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में अपने मन की कुत्सित मुराद पूरी करने के लिए अमावस्या की रात में गौतम का वेश धारण कर अहिल्या के पास जाने का प्रयास किया। मगर अहिल्या की छठी इंद्रिय ने इन्द्र के इरादों को भाँप लिया और उसे बाहर निकलने का इशारा दिया,मगर तभी गौतम ऋषि के प्रवेश ने उसे स्तम्म्भित कर कोप भाजन का शिकार बना दिया। गौतम ऋषि के मन में अपने पत्नी के प्रति संशय पैदा हुआ और उसे शिला की तरह निस्पंद एकांतवाश में ज़िदगी जीने के लिए अकेला छोड़ दिया। तत्कालीन रूढ़िग्रस्त समाज में निरपराध स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्हें समाज से निष्कासित कर दिया जाता था। जब राम अपने स्थान से नहीं हिलने वाली अहिल्या के संपर्क में आए तो फिर से अहिल्या को सामाजिक स्वीकृति मिल गई। उद्भ्रांत जी लिखते हैं:-
“मैं अवाक सुन रही थी
राजा इंद्र के वचन।
कुछ भी कहना उचित नहीं जान मैंने
तर्जनी उठा दी द्वार की ओर
इंद्र को संकेत देते हुए
बाहर जाने का।
और देखा गौतम ऋषि
द्वार पर खड़े थे
आंखों में लाल अंगारे लिए/
मेरे क्रुद्ध संकेत पर ही इंद्र
वापसी के लिए भूल चुके थे
ऋषिवर को देखकर-
क्षण भर को सहमे
फिर तीव्र गति से निकल गए
बाहर। ”
नरेंद्र कोहली उद्भ्रांत जी के इस तथ्य को दूसरी निगाहों से देखते हैं। उस जमाने में आश्रम,आधुनिक स्कूल अथवा विश्वविद्यालय के प्रतीक ये और ऋषि कुलपतियों की तरह उन संस्थानों के विभागाध्यक्ष होते थे। नरेंद्र कोहली अपने उपन्यास की अंतर्वस्तु में इन्द्र को पड़ोसी देश का राजा बताते हुए गौतम ने वहाँ शरण दी थी। अहिल्या अपने ज्वर पीड़ित पुत्र शत के साथ सो रही थी, मगर इन्द्र के कामुक मन ने अत्यंत रूपवती स्त्री को देखकर उसे एक कंगाल ऋषि से जुड़ी रकर कष्ट भोगना व्यर्थ माना। इन्द्र गौतम के यहाँ आतिथ्य स्वीकार कर मदिरा पान करते हुए गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में अहिल्या को अकेले देख उसका भोग करना चाहते थे। अहिल्या नींद में थी,मगर उस अनजान स्पर्श को अच्छी तरह अनुभव कर पा रही थी। जब अहिल्या की मुख से छींक निकली और उसका बेटा शत ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। आस-पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए,उस समय गौतम ऋषि अपनी कुटिया में लौटे तो इन्द्र ने निर्लज्ज दुष्टता के साथ एक वाक्य भीड़ की ओर उछाल दिया,“पहले तो स्वयं बुला लिया और अब नाटक कर रही है” -- यह कहते हुए वह अपने विमान में बैठकर अपने देश चला गया। विश्वामित्र द्वारा राम लक्ष्मण को यह कहानी सुनाने के पीछे न केवल जीवन में संघर्ष की भूमिका वरन् जन-मानस में अन्याय के रूप को स्पष्ट कर उसके विरुद्ध आक्रोश भड़काना,क्रांति की पृष्ठभूमि प्रस्तुत करना होगा। यदि एक स्त्री परपुरुष को काम आव्हान देती है और पुरुष उसे स्वीकार कर उसके पास आता है तो समाज उसके लिए स्त्री को ही दोषी ठहराएगा,इन्द्र ने ऐसे ही चाल चली है। अहिल्या को लांछित कर वह अपने आतिथेय ऋषि की पत्नी के साथ बलात्कार जैसे गंभीर अपराध तथा पाप को छिपा जाना चाहता है। गौतम ऋषि ने अहिल्या के अपमान की बात ऋषि समाज के समक्ष रखी तथा उनसे देव संस्कृति के पूज्य और ऋषियों के संरक्षक पद से दु:श्चरित्र इन्द्र को पदच्युत करने का आव्हान किया,मगर भले ही,एक वर्ग अहिल्या को निर्दोष मानता था,फिर भी तो उसका सतीत्व भंग हो चुका था। इन्द्र को दंड देने या न देने से अहिल्या का उद्धार नहीं हो सकता था। सामाजिक प्रतिष्ठा के अवमूल्यन के कारण गौतम ऋषि के आश्रम के कुलपति रहने पर तरह-तरह के सवाल उठने लगे। सवाल ये उठता है कि अगर कोई पापी आदमी किसी निर्बल नारी के साथ अत्याचार करता है तो क्या उसके आश्रम भी भ्रष्ट हो जाएंगे?केवल इस आधार पर जिस पर अत्याचार हुआ है,वह स्त्री है। यही नहीं,जहां भी गौतम जाएंगे तो उसकी तरफ हर व्यक्ति के मन में इन्द्र की भोग्या अहिल्या की तरह उस पर उंगली उठेगी और जब उसका बेटा बड़ा हो जाएगा,तब भी समाज उस पर छींटाकशी करने से बाज नहीं आएगा। इस तरह की दुर्घटनाएँ पद की शक्ति,धन की शक्ति,सत्ता की शक्ति को सर्वोपरि ठहराते हुए जन सामान्य में सत्ता धारी वर्ग के विरुद्ध खड़ा होने के लिए तैयार नहीं कर पाती। ज्ञान,यश और सम्मान के क्षेत्र में अग्रणी गौतम ऋषि जैसे नागरिकों के अस्तित्व को खतरे में डाल देता है,जो न केवल उनके विकास वरन् भविष्य का भी भक्षण करती है,ऐसे ही विचारों से अहिल्या ने गौतम ऋषि को दूसरे प्रदेश भेजकर स्वयं को भूमिगत कर एकाकी जीवन जीने के लिए बाध्य किया। जब राम जैसे महान पुरुषों ने विश्वामित्र के कहने पर उस परित्यक्त आश्रम को खोजकर अहिल्या का उद्धार किया तो फिर से उसे मानवीय समाज में असंपृक्त,एकाकी,जड़वत,शिलावत जीवन जीने से मुक्त होकर सामाजिक मर्यादा को प्राप्त किया। राम का संरक्षण पाने पर जड़-चिंतक,ऋषि,मुनि,पुरोहित,ब्राह्मण समाज नियंताओं ने अहिल्या को सामाजिक और नैतिक स्तर पर अपराधी मानना बंद कर दिया।
इस संदर्भ में अगर कंवल भारती की बात को अगर छोड़ा जाए तो यह कड़ी अपूर्ण रह जाएगी। वे इसे आर्य और देव संस्कृति के संबंध के रूप में मानते है। रामायण की अहिल्या निर्दोष नहीं है। रामायण के अनुसार,जब महर्षि गौतम आश्रम पर नहीं थे,शचिपति इन्द्र गौतम मुनि का वेश धारण कर वहाँ गया और अहिल्या से बोला, “सदा सावधान रहने वाली सुंदरी! रति की इच्छा रखने वाले प्रार्थी पुरुष ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते हैं। सुंदर कटि प्रदेश वाली सुंदरी। मैं तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूँ। ” अहिल्या ने मुनि के वेश में भी इन्द्र को पहचान लिया। ‘अहो! देवराज इन्द्र मुझे(भोगना) चाहते है’- कौतूहलवश उसने उसके साथ समागम करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। रति के पश्चात अहिल्या ने कहा- “मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गई,अब आप गौतम के आने से पहले ही शीघ्र चले जाइए और मेरी रक्षा कीजिए। ”
तब इन्द्र ने भी अहिल्या से कहा, “सुंदरी! मैं भी संतुष्ट हो गया। अब जैसे आया था। उसी तरह चला जाऊंगा। ” इसी समय गौतम आ गए और दोनों को देख लिया। तत्काल इन्द्र को शाप दे दिया कि उसके अंडकोष गिर जाए और वह अंडकोष रहित हो गया। इसके बाद उन्होंने अहिल्या को शाप दे दिया। दुराचारिणी! तू यहाँ कई हजारों वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुई राख़ में पड़ी रहेगी और समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर इस आश्रम में निवास करेगी। बाद में इन्द्र के अनुरोध पर पितृ देवताओं ने भेड़ के अंडकोष लगाकर इन्द्र का तो उद्धार कर दिया, पर अहिल्या का उद्धार राम ने उसके चरण छूकर किया। इस कथा से निम्नलिखित प्रश्न उभरते हैं-
1) इन्द्र ने यह क्यों कहा कि रति की इच्छवाले पुरुष ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते है?
2) अहिल्या ने मुनिवेश में भी इन्द्र को कैसे पहचान लिया?
3) इन्द्र को पहचानने के बाद अहिल्या ने यह क्यों कहा कि अहो,देवराज मुझे भोगना चाहते हैं?
4) अहिल्या ने इन्द्र का प्रस्ताव क्यों स्वीकार किया?
5) संभोग के बाद अहिल्या ने ऐसा क्यों कहा कि मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गयी?
6) संभोग के बाद अहिल्या ने इन्द्र को तुरंत भाग जाने के लिए क्यों कहा ?
7) भदेत आनन्द कौसल्यायन विश्वामित्र के गुरुकुल में रहने वाले राम लक्ष्मण की युगलमूर्ति का किसी स्त्री को पाषाण मूर्ति तक को स्पर्श करने को दूसरी दृष्टि से देखते है। अगर स्पर्श करना ही था तो हाथ से क्या किया नहीं जा सकता था? वहाँ क्या ‘पग धुरी’ होना अपेक्षित थी।
“मुनि तिय तरी लगत पग धुरी, किरति रही भुवन भरी पूरी”
इन प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि अहिल्या और देवराज इन्द्र के बीच परस्थर सहमति से शारीरिक संबंध बने थे। इन्द्र ने अहिल्या को इसलिए पहचान लिया था, क्योंकि उसे पहले से ही उसके मुनिवेश में आने की सूचना थी। अहिल्या स्वयं इन्द्र से संभोग करने को इच्छुक थी। इसलिए उसने इन्द्र का प्रस्ताव स्वीकार किया और संभोग के बाद दोनों को ही पूर्ण संतुष्टि मिली।
(क्रमशः अगले भाग में जारी...)
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