प्रविष्टि क्रमांक : 117 यात्रा वृतान्त नन्दगाँव, बरसाना की यात्रा - डॉ॰ हरिश्चन्द्र शाक्य, डी0लिट्0 20 जुलाई 2011 से मैनपुरी छोड़कर मथुरा जन...
प्रविष्टि क्रमांक : 117
यात्रा वृतान्त
नन्दगाँव, बरसाना की यात्रा
- डॉ॰ हरिश्चन्द्र शाक्य, डी0लिट्0
20 जुलाई 2011 से मैनपुरी छोड़कर मथुरा जनपद के कोसीकलाँ कस्बे में पहुँच गया था। वहाँ मैं सरस्वती विद्या मंदिर सीनियर सेकेण्डरी स्कूल में हिन्दी अध्यापक बन कर गया था। 5 नवम्बर 2011 को विद्यालय के कम्प्यूटर शिक्षक श्री मुकेश कुमार पाण्डेय ने कहा कि भाई साहब कोकिला वन चलोगे? अभी तक मैं मथुरा और वृन्दावन में ही घूमा था। मथुरा जनपद के अन्य दर्शनीय स्थलों का भ्रमण नहीं किया था। मैं मुकेश जी के साथ बाइक पर सवार होकर कोकिला वन पहुँचा। वहाँ जाकर देखा कि वहाँ शनिदेव का भव्य मंदिर है। मंदिर के चारों तरफ लगभग एक किलोमीटर का परिक्रमा मार्ग है। बड़ी-बड़ी दूर के श्रद्धालु वहाँ शनिदेव की पूजा अर्चना करने, उनकी भव्य प्रतिमा के दर्शन करने तथा परिक्रमा करने आते हैं। मुकेश जी के साथ मैंने कोकिला वन में शनिदेव की परिक्रमा की इसके बाद शनिदेव के दर्शन किये। वहाँ शनिदेव के मंदिर में सरसों के तेल का दीपक जलाया जाता है। लोगों का विश्वास है कि वहाँ दीपक जला देने से उनकी राशि पर आया शनि का प्रकोप शान्त हो जाता है। हिन्दुस्तान में धार्मिक आस्थाओं की जड़ें बहुत गहरी हैं। कभी-कभी ये जड़े वास्तविक धर्म से भटक कर अन्धविश्वास की सतह तक पहुँच जाती हैं। भक्ति के नाम पर अंधविश्वास को पकड़े फिर रहे आस्थावानों का धूर्त व लम्पट पंडे-पुजारी दोहन करते हैं। छह-सात साल से मैं भी बहुत परेशानियों में चल रहा था। विभिन्न ज्योतिषियों व समाचार पत्रों में छपे विभिन्न ज्योतिष आलेखों से पता चला कि मेरी राशि पर शनि देव की साढ़े साती चल रही थी। मैंने भी आस्था का एक दीपक मुकेश पाण्डेय के साथ वहाँ जला दिया।
शनिदेव के परिक्रमा मार्ग में जगह-जगह भाट, भिखारी, अपंग तथा प्रसाद बेचने वाले बैठे थे। वे हर आगन्तुक को टोककर अपना काम बना रहे थे। मेरा नाम हरिश्चन्द्र होते हुए भी राजा हरिश्चन्द्र व कर्ण की तरह दान करने को मेरा हृदय नहीं पसीजा। मैंने वहाँ भिखारियों को एक भी पैसा दान में नहीं दिया। चलते समय एक छोटी बालिका मुझसे कुछ माँगने आ गयी। उसे देखकर मेरे हृदय में भगवान बुद्ध की तरह करुणा जाग पड़ी और मैंने उसे एक रुपया दे दिया। मुकेश पाण्डेय का गाँव खायरा वहीं पास में ही था। एक टी स्टॉल पर चाय पीकर हम लोग गाँव खायरा को चल पड़े। अब तक रात हो चुकी थी।
पूरा मथुरा जनपद भगवान कृष्ण की लीलाओं के लिए पूरे संसार में प्रसिद्ध है। मथुरा में मैं सर्वप्रथम सन् 1980 में गया था जब मेरी फिल्म ‘जलतरंग’ की शूटिंग हुई थी। इस फिल्म में मैं एक प्रमुख भूमिका में था। मेरा दुर्भाग्य यह रहा कि यह फिल्म कभी पूर्ण नहीं हो पायी। इसके बाद मुझे किसी फिल्म में काम नहीं मिला और मैं फिल्म कलाकार के रूप में चर्चित नहीं हो पाया। फिल्म के निर्माता निर्देशक डॉ0 आर0 श्याम भी अब स्वर्ग सिधार चुके हैं। फिल्म के एक चरित्र अभिनेता डॉ0 इज़हार अहमद खान ‘ऊमरी’ के साथ मैं वृन्दावन घूमने जा रहा था। दोनों लोग विरला मंदिर से पैदल चलते-चलते पागल बाबा के मंदिर तक पहुँच गये थे। उस समय शाम हो गयी। हम लोग वहीं से इसलिए लौट आये कि कहीं रात को शूटिंग में हम लोगों की आवश्यकता पड़ सकती थी। इसके बाद बत्तीस साल हो गये थे और न तो मैं वृन्दावन पहुँचा था और नहीं डॉ0 ऊमरी। डॉ0 ऊमरी से फिर मेरी कभी मुलाकात भी नहीं हुई। सिर्फ पत्र और फोन संपर्क रहा। उस वर्ष डॉ0 ऊमरी का देहावसान भी हो गया। वे लम्बे समय से अस्थमा से पीड़ित थे। वे तो वृन्दावन नहीं पहुँचे किन्तु मैं उस वर्ष पहुँच गया। वहाँ मेरे मित्र डॉ0 राजीव पाण्डेय अंग्रेजी के प्रवक्ता थे। उन्होंने वृन्दावन में घर भी बना लिया था। कुछ समय पहले उन्होंने मुझे वृन्दावन के कई मंदिरों की सैर करा दी थी। मथुरा में तो मैं विभिन्न कार्यों से कई बार आया किन्तु उसके पर्यटन स्थलों व तीर्थ स्थलों को देखने का अवसर नहीं मिला। मथुरा जनपद में रहने का अवसर 2011 में मिल गया। महाभारत, श्रीमद्भागवत एवं नाना कृष्ण कथाओं में वर्णित कृष्ण की लीला स्थलियों को साक्षात देखने की प्रबल इच्छा थी। नन्दगाँव और बरसाना के छात्र-छात्राओं को पढ़ाने का मुझे अवसर कोसीकलाँ जाकर मिल चुका था। नन्दगाँव के एक छात्र कपिल भारद्वाज द्वारा लाये गये जामुन भी मैं खा चुका था।
बाइक पर सवार होकर मैं और मुकेश पाण्डेय जी ग्राम खायरा को जा रहे थे। रास्ते में ‘जाव’ नाम का गाँव मिला। जाव गाँव का एक छात्र रवि चौधरी मेरे विद्यालय में कक्षा सात के ‘स’ सेक्शन में पढ़ता था। इसी कक्षा का मैं कक्षाध्यापक था। मुझे उस रवि चौधरी का स्मरण हो आया। चूँकि रात हो चुकी थी इसलिए मैं उससे संपर्क नहीं कर पाया। इसके बाद जलालपुर गाँव को पार कर हम लोग ग्राम खायरा पहुँचे। खायरा में मुकेश पाण्डेय जी के पूरे परिवार से मिले। इनका पूरा परिवार बड़ा ही सभ्य एवं सुसंस्कृत था। इनके पिताजी श्री राधेश्याम शर्मा, माताजी श्रीमती सोना शर्मा, ताऊ श्री धनीराम शर्मा, बड़े भाई श्री भूदेव शर्मा, भाभी श्रीमती गीता शर्मा, छोटे भाई श्री गणेश, अनुज वधू श्रीमती राधा शर्मा एवं मुकेश जी की पत्नी श्रीमती लतेश शर्मा ने विशेष प्रभावित किया। मुकेश के भाई श्री भूदेव शर्मा के दोनों बच्चे चि0 त्रिलोक शर्मा व चि0 नारायन मुझमें इतने घुल मिल गये जैसे मुझे वर्षों से जानते हो। रात को दोनों बच्चे मुझे टीवी पर ‘अलिफ लैला’ की कथाएँ दिखाते रहे। सिंदवाद के साहसिक कारनामे देखते-देखते मैं सो गया। सबेरे जागा तो 6 नवंबर हो चुका था। बच्चों ने मुझे पूछा कि सर आप क्या पढ़ाते हो। मैंने बताया कि हिन्दी पढ़ाता हूँ तो दोनों बच्चे अपनी हिन्दी की पाठ्य पुस्तकें ले आये। मैंने उन्हें पढ़ाया तो वे काफी खुश हुए। प्रातःकाल नित्य कर्मों से निवृत्त होकर मुकेश जी के गाँव में स्थित सड़क पर गया। प्राकृतिक वातावरण में ताजी हवा में साँसें लेना बहुत अच्छा लगा। वहाँ स्थित नाले की पटरी पर मैंने दौड़ भी लगायी। नाले की पुलिया पर मुकेश जी के चाचा श्री सत्यभान शर्मा व मुकेश जी के तायेरे भाई श्री नन्दकिशोर शर्मा से मुलाकात हुई। उन लोगों को मैंने अपनी तथा कुछ अन्य कवियों की कविताएँ सुनाईं तो काफी प्रभावित हुए वे लोग। कोसीकलाँ के आस-पास किसी गाँव में घूमने का मेरा यह पहला अवसर था। गाँव में सड़क पर मुकेश जी का एक अन्य मकान बन रहा था।
बाइक पर सवार होकर हम दोनों लोग बरसाना पहुँचे। बरसाना राधा रानी की जन्म भूमि है। बरसाना आने का मेरा पहला अवसर था। बचपन से एक गीत सुनता आ रहा था जिसके बोल थे, ‘‘कान्हा बरसाने में आइ जइयो बुलाइ गई राधा प्यारी।’’ यह लोकगीत किस लोककवि ने लिखा था कुछ भी पता नहीं। कवि तो गुमनाम हो गया पर रचना अमर हो गयी। फिल्म निर्माता-निर्देशक शिव कुमार ने जब ब्रजभाषा की पहली फिल्म ‘ब्रजभूमि’ बनाई तो गीत संगीत की जिम्मेदारी प्रसिद्ध गीतकार-संगीतकार रवीन्द्र जैन को सौंपी थी। रवीन्द्र जैन जी ने उक्त लोकगीत की प्रथम पंक्ति का इस्तेमाल अपने एक गीत में किया था। बरसाना पहुँच कर मन में सुखानुभूति हुई। मुकेश जी की बाइक में कुछ खराबी आ गयी थी जिसे उन्होंने एक मिस्त्री के यहाँ मरम्मत हेतु डाल दिया और हम लोग राधा रानी के दर्शन हेतु निकल पड़े। सबसे पहले ‘रंगीली महल’ नाम की भव्य इमारत देखने गये। कृपालु महाराज जी के ट्रस्ट द्वारा निर्मित यह इमारत वास्तव में देखने योग्य है। इसके विशाल हॉल में राधा कृष्ण की भव्य मूर्तियाँ हैं जो पर्यटकों व श्रद्धालुओं का मन मोह लेती हैं। हॉल के अन्दर छत पर चित्रकारों ने बादलों की इतनी अच्छी चित्रकारी की है कि देखते ही बनता है। चित्रकारों द्वारा बनाये गये बादलों के चित्र असली लगते हैं। हॉल के बाहर तमाम फुलबारियाँ दिलों-दिमाग को प्रसन्नता से भर देती हैं। वहाँ से निकल कर पैदल-पैदल राधा रानी के मंदिर की ओर चल पड़े। राधा रानी का मंदिर एक बहुत ऊँचे पहाड़ी पर था। सीढ़ियों पर चढ़ते-चढ़ते थक गये तब राधा रानी के मंदिर के पास पहुँचे। सीढ़ियों के सहारे तमाम प्रसाद बेचने वाले तथा भिखारी आदि मिले जो अपना स्वार्थ सिद्ध करने को बराबर टोक रहे थे। मुकेश पाण्डेय चूँकि पास के गाँव के निवासी थे इसलिए उन्हें सारी जानकारी थी। किसी पंडे पुजारी की हम लोगों को गुमराह कर पैसा ऐंठने हेतु दाल नहीं गली। इतनी ऊँचाई पर से बरसाना कस्बे का नजारा देखा। पूरे कस्बे का हवाई दृश्य आँखों के सामने था। पूरे कस्बे की छतें ही छतें दिख रही थीं। वहीं बैठकर मैंने मुम्बई में रह रहे अपने अनुज अजय शाक्य व नौनिहाल भतीजों चि0 अस्तित्व शाक्य व चि0 अर्पित शाक्य से मोबाइल फोन पर बात की। अजय को मेरा इस तरह भ्रमण करना अच्छा लगा। मैंने अपने साथी मुकेश पाण्डेय जी से अजय की बात करबाई। एक पंडा साधु ने मुझे अच्छे कपड़ों में देखकर गुमराह कर चन्दा माँगने की कोशिश की। मुकेश पाण्डेय ने उसे शुद्ध हिन्दी में समझा दिया कि हम लोग बाहर के नहीं हैं। यहीं पास के ही गाँव खायरा से आये हैं। फिर वह पंडा साधु हम लोगों से कुछ नहीं बोला। वहाँ जो बुजुर्ग लोग राधा रानी के दर्शनार्थ आते हैं उनको पहाड़ी पर ले जाने के लिए डोली वाले तैयार मिलते हैं। उनसे मनमाने पैसे वसूल कर वे उन्हें राधा रानी के दर्शन कराते हैं। बरसाना के वृषभान की लाड़ली राधा कितनी बड़भागी थी जिनका नाम सारे संसार में अमर है। विदेशी पर्यटक भी उनके दर्शनार्थ वहाँ आते हैं। राधा रानी के दर्शन करने के उपरान्त हम लोग मोटर साइकिल के मैकेनिक के पास गये। उसने कहा कि दो घंटे से पहले आपकी बाइक नहीं मिल पायेगी। फिर हम लोग टैम्पो में बैठकर नन्दगाँव को रवाना हो गये।
बरसाना से नन्दगाँव जाने वाली सड़क अच्छी नहीं थी। टैम्पो पर हम लोगों को पीछे खड़े होने को मिला। ऊबड़-खाबड़ सड़क पर टैम्पो ईचक दाना बीचक दाना करता हुआ आगे को बढ़ रहा था। हमारे विद्यालय के संगीताचार्य श्री जागेश चन्द्र शर्मा ने मुझे बताया था कि जिस जगह पर राधा और कृष्ण का प्रथम मिलन हुआ था वह जगह संकेत कहलाती है और आजकल वहाँ संकेत नाम का गाँव है। यह संकेत बरसाना और नन्दगाँव के बीच में पड़ता है। इस संकेत का मुझे भी इन्तजार था। आखिर राधा और कृष्ण के इस प्रथम महामिलन के स्थान को मैं भी तो देखूँ। थोड़ी देर में संकेत आ गया। संकेत की धरती पर मैं पैर भी रखना चाहता था किन्तु टैम्पो वहाँ रुका ही नहीं इसलिए मेरी यह मनोकामना अधूरी ही रह गयी। संकेत से निकल ही रहे थे कि एक लम्बा काला नाग अपना फन उठाये टैम्पो के सामने से गुजरा। वह नाग नहीं साक्षात काल था। यह गनीमत रही कि टैम्पों में बैठी सवारियों को उसने छेड़ा नहीं। वह सड़क के बायीं ओर से आया था और दाँयी ओर की झाड़ियों में सरक गया। वह इस तरह फन उठाये चला आ रहा था जैसे उस इलाके का राजा वही हो। इस तरह फन उठाकर चलते नाग मैंने या तो सपेरों के पास देखे थे या फिर फिल्मों व दूरदर्शन में। रास्ता चलते इस तरह फन उठाकर चलते नाग को मैंने पहली बार ही देखा था। थोड़ी देर में नन्दगाँव आ गया। काफी बड़ा गाँव है। नन्द बाबा का महल यहाँ भी बहुत ऊँची पहाड़ी पर है। मुकेश पाण्डेय के साथ मैं सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ नन्द बाबा के महल में पहुँचा। यहाँ भी भिखारियों, प्रसाद बेचने वालों की लाइन लगी मिली। नन्दबाबा के महल में कपाट बन्द थे। पूछने पर पता चला कि भोग लगाया जा रहा है। थोड़ी देर में कपाट खुले और हम लोगों को अन्दर बुला लिया गया। कपाट फिर बन्द हो गये। लगभग तीस साल की उम्र का पंडा वहाँ आया और उसने प्रवचन देने शुरू कर दिये। उसने नन्दगाँव की प्रशंसा करते हुए किसी कवि का प्रसिद्ध दोहा, “वृन्दावन सो वन नहीं, नन्दगाँव सो गाँव, वंशीवट सो वट नहीं कृष्ण नाम सो नाम’’ प्रस्तुत कर अपनी बात प्रारम्भ कर दी। बताते-बताते वह अपने मूल उद्देश्य पर आ गया। उसने बताया कि यहाँ गायों की सेवा के लिए, साधु सन्तों की व्यवस्था के लिए आप लोग दो सौ एक रुपये का दान श्रद्धा से करें। सच्चा वैष्णव वह होता है जो गौ सेवक होता है। देखते ही देखते तमाम दानवीरों ने 201-201 रुपये की बरसात पंडा के हाथों में कर दी। पंडा के चेहरे पर धनलक्ष्मी की बरसात ने चमक ला दी थी। मैं तो वहाँ केवल नन्दबाबा का तथा उनके परिवार की भव्य मूर्तियों के दर्शन करने गया था। कोई नोटों की गठरी तो साथ बाँध के ले नहीं गया था। मनुष्य की आस्थाओं के साथ कैसा खिलवाड़ था। बाहर निकल कर आया तो एक पंडा मेरे पास आया और बोला, ‘‘भाई साहब ब्राह्मण को दान कर लो दस पाँच रुपये।’’ मैंने खीजकर कहा, ‘‘नहीं करूँगा।’’ यह सुनकर वह पंडा खीसें निपोरता खड़ा रह गया। नन्द बाबा, माता यशोदा, कृष्ण, राधा आदि के दर्शन कर हम लोग सड़क पर आ गये। एक टी स्टाल पर चाय पिलाकर मुकेश जी ने मुझे कोसीकलाँ जाने वाले टैम्पो में बैठा दिया और वे वापस बरसाना चले गये।
कोसीकलाँ आकर मेरे मन में इच्छा हुई कि यहाँ के प्रसिद्ध लोकगायक मदन मोहन ब्रजवासी जी से मिला जाये। ब्रजवासी जी को मैंने सन् 89-90 में अपने गृहजनपद मैनपुरी में एक लोकगीत के कार्यक्रम में देखा था। मैं उनका घर तो जानता नहीं था। मैंने अपने विद्यालय के संगीताचार्य श्री जागेश चन्द्र शर्मा जी को फोन मिलाया। शर्मा जी ब्रजवासी जी का घर जानते थे। शर्मा जी आनन-फानन में साइकिल पर सवार होकर आ गये और मुझे ब्रजवासी जी के घर ले गये। अति सरल, सौम्य व्यक्तित्व के धनी ब्रजवासी जी ने हम लोगों को बैठाया, चाय पिलाई। 78 वर्षीय ब्रजवासी जी में वही ताजगी और वही उत्साह था जो मैंने बीस साल पहले देखा था। मैंने उनसे अंतरंग बातचीत की और उन्हें अतीत में ले गया तो उनको बेहद सुखद अनुभूति हुई। ब्रजवासी जी तब राधारानी की भक्ति में लीन रहते थे। वे दिल्ली, जोधपुर, जयपुर, अहमदाबाद, बड़ौदा, नैनीताल, अल्मोड़ा, शिमला, आगरा, मथुरा, लखनऊ, नजीबाबाद, बनारस, इलाहाबाद, रामपुर, गोरखपुर, छतरपुर, ग्वालियर, जालंधर, रौहतक आदि आकाशवाणी केन्द्रों पर अपना लोकगायन प्रस्तुत करते रहे थे। मेरे आग्रह पर उन्होंने एक भजन श्अब तो जीवन हर इक बात हो बरसाने की, दिन हो बरसाने का और रात हो बरसाने की’ सुनाया। काफी सुखद रही नन्दगाँव और बरसाने की मेरी यह यात्रा।
- डॉ॰ हरिश्चन्द्र शाक्य, डी0लिट्0
शाक्य प्रकाशन, घंटाघर चौक
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स्थाई पता- ग्राम कैरावली पोस्ट तालिबपुर
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