वो माई बरसों बाद जाना हुआ उस घर में, खटखटाया किवाड़, वो न थी वहाँ, बड़ी बहू ने खोला कमरा, बताया अम्मा बाहर वाले कमरे में हैं दलान पार कर पहुँच...
वो माई
बरसों बाद जाना हुआ
उस घर में,
खटखटाया किवाड़,
वो न थी वहाँ,
बड़ी बहू ने खोला कमरा,
बताया अम्मा बाहर
वाले कमरे में हैं
दलान पार कर पहुँची,
ओह, भूस वाला कमरा
व अम्मा की खटिया,
मुझे देख, ‘‘कहाँ बिठाऊँ?’’
का प्रश्न कौंध गया उसके
मुख पटल पर,
हाथ पकड़ मैं बाहर वाली
खटिया तक आई, उन्हें भी
बिठाया व खुद भी बैठी।
वह पानी लाई व बताने लगीं,
ब्याह दिये उसने सारे लड़के,
एक-एक कमरा दे दिया
सबको,
दिखाने लगी अपनी शादी का
संदूक,
जो कोने से झांक रहा था,
ऊपर संदूकड़ी जिसमें
पहरा दे रहा था
पुराना ताला।
वह उठी और दिखाने लगी
बहुओं के सजे कमरे,
सिहर उठी मैं
कि वह नींव का पत्थर
जो किसी को दिखता नहीं
पर थामता सारी इमारत
क्यों नज़र अंदाज़ किया गया।
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आस
निकल गई पूरी ज़िन्दगी
कल की आस पर,
कभी तो सूरज चमकेगा,
देगा मेरी छुपी हुई,
दबी हुई इच्छाओं को गरमाहट,
व पूरी होंगी वो छोटी-छोटी
बातें भी, जो सोची गई, दब
गई, फिर कभी जबान पर न आई,
वक्त रेत़ सा फिसलता,
कई परतें चढ़ा गया,
जीवन की चादर पर,
कभी बचपन, कभी जवानी,
कभी माँ, कभी पत्नि,
बना लूटता रहा ये संसार
मेरी भावनाओं का खज़ाना,
और आ गई मैं जीवन के
अन्तिम छोर पर,
जहाँ कभी नहीं आती, सूरज
की गरमी, चाँद की ठंडक
और तारों की छाँव।
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शिक्षक
इतना आसान नहीं है
शिक्षक बनना
उतरना पड़ता है
हर हृदय, हर मस्तिष्क
की उन छोटी-छोटी नसों में,
जो दिल से होकर दिमाग
तक जाती, और जीवन का
सच्चा मोल बताती।
बनाती हर बच्चे को
इक प्यारा सा इन्सान
जो, अपना हर किरदार
सही पथ पर, सही समय
पर निभा सके।
शिक्षक, सिर्फ शिक्षक नहीं होता,
वह एक मित्र है, भाई है,
माँ है, बाप है,
वर्तमान है, भविष्य है
रक्षक है, भक्षक है
क्यूंकि शिक्षक का कहा
एक - एक शब्द
उसके बच्चों के लिये
भगवान का शब्द होता है,
त्यागना होता है
अपना सर्वस्व
और उड़ेलनी है
अपनी हर खुशी
जनहित में।
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वो आँगन
सजा मंडप,
आई बारात,
ले जा रही वो उन संग
घर की सारी रौनक,
सजी दुलहन, भीगी आँखें,
रोते हुए दिल के साथ
चल देती, इक अनजानी
दुनिया में,
कितने निष्ठुर हो जाते सब,
साँझे करती कुछ आँसू,
बहन, माँ भी टुकुर-टुकुर ताकती,
बेटी को जाते हुए,
पर बोलती निगाहें, कि
बहुत कुछ छूट गया,
उसका इस छोटे से आँगन में,
उसके गिट्टे, उसकी सहेलियाँ,
उसका कमरा, वो सामने
वाला आम का पेड़, उसकी छाँव,
और दादी की कहानियाँ,
बाबुल की दुलारियाँ,
उसकी किलकारियाँ
सब छूट गई हैं।
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दर्द
गिरी कई बार,
तुड़वा ली टाँग-बाजू,
कुछ दिन बाद सब
सही हो गया,
दर्द असहनीय था
टूटते वक्त,
पर धीरे-धीरे ज़ख्म
भर गये व मैं ठीक हो गई,
कल रात ओढ़कर चादर,
बैठी थी घर के विशालकाय
कमरे में,
मैंने बत्तियाँ बुझा दी,
दरवाजे बंद कर दिये,
कि चीखने लगे वो दर्द
जो न कभी दिखे,
न बोले, न रोये,
छूकर देखा,
तड़प् उठे थे वो,
कुछ वक्त के दर्द,
कुछ शब्दों के,
तो कुछ अपनों के दिये
वो दर्द, जो कभी
बताए नहीं जाते।
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दलील
छिन गई थी मेरी खुशियाँ,
बिखर गया घर मेरा,
फिर भी खेती रही मैं,
नाव ज़िन्दगी की,
घर में रह पल भर भी
वे मेरा न था,
परवाह तो क्या, इक
नज़र भी मेरा न था,
कह ही दिया मैंने
उसे घर ले आओ,
या तुम चले जाओ,
ये दोहरी ज़िन्दगी
गवारा नहीं,
कि तपाक से बोला
कब लाया घर,
झूठे इल्ज़ाम ही
लगाती रहती हो,
घर ले आते, तो
कोई बात न थी
पर जो बसाया दिल
के घर में,
निकाल पाओगे उसे?
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अगस्त
महीना अगस्त का आते ही,
मेरी कलम की सिसकने
की आवाज़ें रुला देती मुझे,
ये अमन, ये आज़ादी, भारत माँ
की रक्षा हेतु, दिये गये
अनगिनत त्याग,
वो संकरें कारावास,
अंग्रेजों की क्रूरता,
करोड़ों का बलिदान,
कंकंपा देता मुझे,
धन्य हैं वो माँए, बहनें, पिता,
जिन्होंने तनिक उफ न किया,
अपने लाल निछावर करते।
हर वर्ष, हर दिन आँखों
के सामने खड़े हो जाते,
सुभाष, भक्त, गोखले व
वो चेहरे, जो खून से सने,
हँसते-हँसते सूली
चढ़ गये,
नतमस्तक हैं हम,
उन सभी के सामने।
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घर
घर को घर ही रहने दो,
कोई शोरुम मत बनाओ,
शोकेस में टिके कीमती
खिलौने,
नन्हें बच्चों की प्यासी,
ललचाई नज़रें,
दे दो उन्हें, तोड़ने दो,
फोड़ने दो, उनके बचपन
का हिस्सा बनने दो,
घर को घर ही रहने दो,
कुछ पल जीने दो,
जिसमें ये न कहो,
‘‘मत कर टूट जायेगा,
गुम हो जायेगा,
तू गिर जायेगा,
पापा की मार खायेगा’’
लगाने दो छलाँगे,
गुदगुदे सोफे पर,
मत रोको उसे
सिलवटों के डर से
खाने दो हाथ से चावल,
लिपटाने दो मुँह
दूध, दाल से,
पहनने दो उसे उलटे-सीधे कपड़े,
और उल्टे जूते-मौजे,
बाँचो ये सब कर ने पर
उसके आत्मविश्वास के क्षण,
मत रोको हर बात पर
उसे स्वच्छंद रहने दो,
घर को घर ही रहने दो।
ये क्षण लौट कर कभी आते नहीं,
यादें रख लो, सभी सहेजकर,
कभी उन क्षणों के लिये
जब हम अव्यवस्थित होंगे
और ये नन्हें बालक
व्यवस्थित।
दिखाना-बताना पोपले मुँह से
उनकी ये शरारतें,
कि वो भी बनाएँ अपनी
औलाद को स्वतंत्र व
घर को घर ही रहने दें।
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तुम्हारी याद
तुम्हारी याद कुलाँचे
भरती कभी भी
आ जाती,
पसर जाती मेरे
दिल के आँगन में,
तुम्हारा जन्म, व
धीरे-धीरे तुम्हारा
लालन-पालन,
बदलती शकलें,
धरती पर खिसकना,
ठुमक-ठुमक कर
कभी गिरना, कभी चलना,
दो-चार दाँतों से
खिलखिलाकर हँसना,
कभी मेरी चप्पलों में
नन्हें पाँव फंसाना,
चुन्नी की साड़ी बना
लपेटना।
दिन बीतते गये,
महिने-वर्ष बीत गये
अ से ज्ञ, ए से जेड,
ज़िन्दगी का सीख गई
गिनती भी पूरी आ गई थी
कि पूरा सवाल,
हल करके चल दी तू,
किसी और के घर का
चिराग बनकर,
जहाँ अपनी है तेरी साड़ी
जूती और घर,
जहाँ कभी झाँकती होंगी
यादों की चंद किरणें
जो मायके के सूरज
से आती हैं।
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बहुत काम आसान हो गए,
जब से कम उनके अहसान हो गए,
कदम उठते न थे जिन्हें देखकर,
आज वही रास्ते फरमान हो गए,
थकते न थे हम जिनकी तारीफ में
‘‘क्या कहें अब,’’ हम बेजुबान हो गए,
नाम की जिनके ज़िन्दगी हमने,
वही किसी और के नाम हो गए,
इश्क जबरदस्ती का बस का नहीं,
इरादे हमारे भी अब गुमान हो गए,
फर्क पड़ता नहीं मेरी मौजूदगी का,
हम भी जाने का अब सामान हो गए।
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अनमोल कुंज, पुलिस चौकी के पीछे, मेन बाजार, माजरा, तह. पांवटा साहिब, जिला सिरमौर, हि.प्र. – १७३०२१
आज के इस दौर में ऐसे शब्दो का पिरोना काबिले तारीफ हैं.
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