श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग: रावण की तीन अभिलाषाएं जो पूर्ण न हो सकीं // मानसश्री डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता

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रामनवमी 25 मार्च , 2018 के पावन प्रसंग पर मानसश्री डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति कश्मीरी रामावतारचरित रचयिता श्री ...

रामनवमी 25 मार्च, 2018 के पावन प्रसंग पर


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मानसश्री डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता

मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति

कश्मीरी रामावतारचरित रचयिता श्री प्रकाशराम कुर्यगामी ने अपने ग्रन्थ में श्रीराम एवं रावण के युद्ध का वर्णन करते हुए बताया है कि श्रीराम द्वारा रावण के दस सिर ब्रह्मास्त्र से गिरा देने और 20 भुजाएं काट डालने के पश्चात् का वर्णन छन्द 31 से 60 तक बड़ा ही रोचक तथा अन्य रामकथाओं से भिन्न वर्णित किया है।

दपन आकाशि प्युठ् वोयुख नकारह।

सपन्य तिम पंज्य तु वान्दर जिन्दु दुबारह।।

रामावतारचरित 31 (कश्मीरी)

रामावतारचरित में वर्णन है कि रावण के श्रीराम द्वारा युद्ध में मारे जाने के उपरांत आकाश में नक्कारे बज उठे और सभी मृत वानर और रीछ पुन: जीवित हो गये। रावण जैसा वीर बेहाल हो गया। यह सत्य है कि देव की गति के समक्ष किसी की कुछ नहीं चलती। जब श्रीरामचन्द्रजी ने रावण को धराशायी कर दिया तो ऐसा कहते हैं कि उन्होंने लक्ष्मणजी से कहा कि तुम रावण के पास जाकर यह पूछ लो कि हे महाराज! आपकी कोई इच्छा तो शेष नहीं रह गई। तब लक्ष्मणजी रावण के पास गये और विचार करने लगे कि यहां पर किससे क्या पूछूं। तब लक्ष्मणजी जाकर रावण के सिर की ओर खड़े हो गये। लक्ष्मणजी ने कहा है दशानन! मुझे रामचन्द्रजी ने यह कहने के लिए भेजा है कि रावण से यह बात पूछो कि हे महाराज! आपकी कोई अभिलाषा तो नहीं है? श्रीराम के पास आपका संदेश लेकर जाऊँगा (और श्रीरामचन्द्रजी उसे पूर्ण कर देंगे क्योंकि वे सर्वशक्तिमान हैं)।

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ध्यान देने योग्य बात यह है कि यही बात लक्ष्मणजी ने रावण के कान में तीन बार इस प्रकार कही – हे महाराज! जल्दी कहिए क्योंकि मुझे देरी हो रही है। ऐसा कहते हैं कि रावण ने उत्तर में कुछ नहीं कहा और लक्ष्मणजी वापस रामजी के पास आ गये। लक्ष्मणजी ने हाथ जोड़कर पूरी बात ज्य़ों की त्यों बता दी। इतना सुनकर श्रीराम ने लक्ष्मणजी से कहा कि हे लक्ष्मण! तुमने किस प्रकार वार्तालाप किया?

तुम्हें ज्ञात नहीं कि दशानन कौन था? तब लक्ष्मणजी ने कहा कि मैं सिर की ओर से उसके निकट गया किन्तु रावण ने प्रयत्न करने पर भी कुछ नहीं कहा। तभी क्रुद्ध होकर श्रीरामजी ने लक्ष्मणजी को उपाय बताते हुए कहा कि जाकर उसकी तीन परिक्रमाएँ लगाओ तथा हाथ जोड़कर पुन: निवेदन करो। तब लक्ष्मणजी ने दशानन को प्रणाम कर विनती की कि मेरे अपराध को क्षमा करें क्योंकि मैं उसमें कैद हो गया था। असल बात यह है कि जब बार-बार रोते हुए लक्ष्मणजी ने प्रणाम किया तो दशानन प्रसन्न हो गये। रावण को प्रसन्न देखकर लक्ष्मणजी ने वही दोहराया जो वह पहले कह चुके थे। तब दशानन ने कहा, मेरी तीन अभिलाषाएं थीं -

प्रथम यह कि अग्नि के धुएं का नाश कर दूं। कोई प्रेम से यज्ञ रचकर अग्नि में आहुति देता है। कई प्रकार की सामग्री व अन्य चीजें इधर-उधर से जमा करता है। जाप करने के लिए ब्राह्मण अथवा पंडित बैठाता है। किन्तु इस धुएं से आँखों में आँसू आ जाते हैं और आँखें दुखने लगती हैं।

दूसरी अभिलाषा यह थी कि धरती से आकाश तक एक सीढ़ी बनाऊँ ताकि कोई भी योगी बिना किसी कठिनाई के स्वर्ग लोक में प्रवेश कर चला जावे।

clip_image005तीसरी अभिलाषा यह थी कि सोने में सुगंध (मुश्क) रूपी जान डालता जैसे गुलों में मुश्क (खुशबू) होती है अन्यथा पीतल और सोने में एक जैसी न दिखने वाली बात ही क्या रहती है। अमाँ किन्तु अब क्या हो सकता है?

देव को मेरी यह बात प्रभावित न कर पाई। अब मैं कर ही क्या सकता हूँ, अब तो मेरी दोपहरी शाम में बदल गई है। यह बात रावण से सुनकर लक्षमणजी श्रीरामजी के पास लौट आये। उनका मन काँप रहा था। श्रीराम के पास पहुँचकर श्रीलक्ष्मणजी ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि आप ही कहें कि कहीं भला आदमी ऐसा भी कर सकता था? जो कुछ भी हो जैसा रावण ने कहा था वह तो आज तक कोई भी नहीं कर सकता है।

तब श्रीरामजी ने कहा ऐसी कौन-सी तीन बातें हैं जो न हो सकें। सच तो यह है कि हर बात हो सकती है और अटूट भक्तिभाव रखने से पूर्ण हो सकती है। हे लक्ष्मण! ध्यानपूर्वक सुनो – रावण बहुत बड़ा शिवभक्त था। नित्य शिवजी की पूजा सुमेरू पर्वत पर करता था। उसने अपने सभी दस मस्तक काटकर शिवजी को भेंट कर दिये थे। जब पूजा समाप्त हो जाती तो पुन: उसके 10 मस्तक जीवित होकर वापस आ जाते थे।

इतना सुनकर लक्ष्मणजी आश्चर्य करने लगे और श्रीराम ने उन्हें उपदेश दिया कि मनुष्य को सदैव स्मरण रखना चाहिये कि महाबली रावण का अंत कैसे हुआ। उसकी मृत्यु निश्चित उसके चरित्र एवं उसके अभिमान के कारण हुई। यदि मनुष्य ईश्वर का मान सदैव मन में धारण कर लेता रहे तो वह सदा सत्य के पथ पर चलकर चरित्रवान-अभिमानरहित होकर मोक्ष के मार्ग पर चलकर मेरे लोक में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करता है। ईश्वर का भजन ही सब दुर्गुणों को नष्ट कर देता है तथा हमारी अभिलाषाएँ पूर्ण कर सकता है। श्रीरामचरितमानस में काकभुशुण्डी संवाद में वर्णित है:

“जो इच्छा करिहहु मनमाही, हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।”

श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड 113-2

अच्छे कर्म, उत्तम चरित्र एवं ईश्वरभक्ति सभी अभिलाषाएं पूर्ण करती है। रावण में इन गुणों की न्यूनता थी, अत: वही हुआ –

“राम कीन्ह चाहहि सोई होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई”।।

श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड 127-1

इति

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मानसश्री डॉ.नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानस शिरामणि एवं विद्या वाचस्पति’

Sr. MIG-103, व्यास नगर,

ऋषि नगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.) 456 010

Email: drnarendrakmehta@gmail.com

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