माँ ने कहा था (सिन्धी कविताओं का हिंदी अनुवाद) देवी नागरानी अनुवादक : स्वयं समर्पण उस माँ को जिसकी ममता लफ़्ज़ों की मोहताज नहीं उसक...
माँ ने कहा था
(सिन्धी कविताओं का हिंदी अनुवाद)
देवी नागरानी
अनुवादक : स्वयं
समर्पण
उस माँ को
जिसकी ममता
लफ़्ज़ों की मोहताज नहीं
उसकी बेज़ुबान आंखों की नमी
ममता का प्रमाण है
.देवी नागरानी
माँ ने कहा था
विभाजन के प्रहार से दरकी हुई धरती, बँटे हुए देश, बँटी हुई भाषा, टूटे हुए मन, कराहते अंतर्मन, किन्तु संवेदनाओं के स्रोत्र वैसे के वैसे ही हैं। वह सिंध हो या हिन्द, आहत मन को राहत, प्यास को तृप्ति, धूप को छाँव इंसान को जीने के लिए चाहिए।
पुरुष की अहंता और वर्चस्व से आहत नारी की अस्मिता की पीर.यह सभी मनोव्यथाएँ अंतस को त्रास और पीड़ा देती ही हैं, वह हिन्द हो या सिंध। इस काव्य संग्रह में देवी नागरानी जी ने सिंधी लेखकों के इन्हीं मनोभावों का सिंधी भाषा से हिंदी भाषा में अनुवाद किया है। सिंधी से हिंदी में अनुवाद की प्रवीणता का लोहा देवी जी अपनी बीसियों रचनाओं से मनवा चुकी हैं। भाषाई सेतु के रूप में देवी जी का कृतित्व और व्यक्तित्व प्रणम्य है।
अंतर्मन की समग्र भावनाओं का पूंजीभूत स्वरूप इस काव्य संग्रह में दृष्टव्य है। पहली ही रचना ‘माँ ने कहा था’ बचपन के किसी हादसे को जीवन के अंतरंग हादसों से जोड़ते हुए बेबसी के दर्द को उकेरती है, साथ ही जमीर ही सर्वोपरि है का अहसास कराती हुई यह शीर्षक रचना मन को छू जाती है। आगे की काव्य यात्रा जीवन के सर्वांग पक्षों का निरूपण करती हैं।
‘अगर तुम समझते हो’.रचना में नारी के दासत्व को नकारते हुए अपने स्वाभिमान और इयत्ता की सत्ता की हुंकार है अर्थात मुझे कमजोर न समझना का सन्देश है। वहीं ‘औकात’.में अपनी अस्मिता के प्रति सजग नारी अपने अस्तित्व को बचाने में समर्थ होकर अपनी औकात भी बताती है। पुरुष की अहंता से त्रस्त नारी ‘तलाक’ पर बिलबिला कर अपनी बेलिबास क़ज़ा के लिए कज़ा का कफ़न जैसी शब्दावली में पीर तार-तार होती है। नारी की अस्मिता के लिए बेइन्तहा तड़प और इस बर्बर समाज के प्रति आक्रोश है। वही नारीत्व जब विकृत होता है तो गौरवमय नारीत्व.‘बदनाम औरत’.के रूप में नारीत्व की ही हिंसा करता है। यह कुंठित नारी मन का पक्ष है।
‘उत्पादन का ज़माना’.विकसित भौतिकता के युग में क्या कुछ खो रहा है, अनुपयोगी से होते वृद्धों के प्रति वितृष्णा और छुटकारा पाने जैसे भाव दिल में घाव कर देते हैं। ‘चौपाल’ में आकर्षण-विकर्षण का दर्शन उभर कर आता है.कि वस्तु मिलते ही आकर्षण खो देती है, अतः अच्छा है अनजान ही रहने दो। ‘दिल का चौपाल’ काल चक्र के क्रूर सत्य का विश्लेषण है.आज मैं कल तुम परसों कोई और गिरेगा। ‘अमीरी की भूख और ग़ुरबत का सूद’.‘क्यों ये औरत खुद के हाथों अपने तन को दफनाती है, जैसी रचनाएं कसक और बेबसी के दर्द से पाठक को भर देती हैं।
सोच का जंगल नितांत काव्य मन की उहापोह का जंगल है। ‘चक्रव्यूह’ में मन का कुरुक्षेत्र अपने ही रचित भावों के कुरु पाण्डु के द्वंद्व और ज्ञान से निष्कासित हुआ चित्त पावन हो शांति की ओर उन्मुख है। जगत की पीर से उपराम हुआ चित्त अब ‘गीता-सार’ से विज्ञ होकर देह धर्म को जान गया है क्योंकि जिससे तुम्हारा मरना न छूटे उसे लेकर क्या करना है। अब वाणी मुखर न होकर ‘जमीर की भाषा’ की परिधि में है। अब मौन मुखर है और प्रश्नायित है.धरती बँट गयी, आदमी बँट गए, यह आसमान क्यों नहीं बँटा?
देश बँटे, भाषा बँटी, सिंध हो या हिन्द, अंततः पीर-नीर और धीर की कहानी इस नीले आसमाँ के तले सबकी एक सी ही है।
डॉ मृदुल कीर्ति
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आत्मा की झंकार है कविता
लेखन कला ऐसा मधुबन है जिसमें हम शब्द बीज बोते हैं, परिश्रम का खाद जुगाड़ करते हैं, और सोच से सींचते हैं, तब कहीं जाकर इनमें इन्द्रधनुषी शब्द-सुमन निखरते हैं और महकते हैं।
किसी ने खूब कहा है ‘कवि और शब्द का अटूट बंधन होता है। कवि के बिना शब्द तो हो सकते हैं, परंतु शब्द बिना कवि नहीं होता।’ एक हद तक यह सही है, पर दूसरी ओर ‘कविता’ केवल भाषा या शब्द का समूह नहीं, उन शब्दों का सहारा लेकर अपने अपने भावों को भाषा में व्यक्त करने की कला है। यह उम्र की मौसम काटने के बाद के तजुरबात की अभिव्यक्ति है।
‘‘कविता लिखना एक क्रिया है, एक अनुभूति है जो हृदय में पनपते हुए हर भाव के आधार पर टिकी होती है। एक सत्य यह भी है कि यह हर इन्सान की पूंजी है, शायद इसलिये कि हर आदमी में एक कलाकार, एक चित्रकार, शिल्पकार एवं एक कवि छुपा हुआ होता है। वे किसी न किसी माध्यम द्वारा अपनी सभी भावनाएं प्रकट करते हैं, पर स्वरूप सब का अलग-अलग होता है। शिल्पकार पत्थरों को तराश कर एक स्वरूप बनाता है जो उसकी कल्पना को साकार करता है, चित्रकार तूलिका पर रंगों के माध्यम से अपने सपने साकार करता है और जब एक कवि की अपनी निशब्द सोच, शब्दों का आधार लेकर बोलने लगती है तो कविता बन जाती है।
कविता आत्मा की झंकार है। लेखक की रचना पढ़ते ही पाठक को अपने जज्बातों का प्रतीक लगने लगे तो यही रचना की सबसे बड़ी सफलता है और यही उसकी सम्प्रेश्नीयता। साहित्य के डगर पर अपनी एक पगडंडी बनाना महत्वपूर्ण है और उससे ज़्यादा प्रमुख है उसपर चलन! यहाँ मुझे श्री केदारनाथ सिंह की एक रचना की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं, जो मुझे हमेशा मुतासिर करती रही हैं। उनकी यादों में दीवार पर चिपकी हुई तितली और उसके छटपटाते उसके छोटे छोटे पर, विरुद्ध रूप में अब भी कहीं थरथराते हैं.‘‘तितली के उन परों का हिलना भी एक विस्फोट है, दुनिया के सारे विस्फोटों के ख़िलाफ़।’’ यह अपनी पहचान का प्रतीक है।
मैंने अपने काव्य में अपने भीतर और बाहर को जोड़ने की कोशिश की है। अपनी परिधि में, अपने परिवेश में कुछ सुनते हुए, कुछ देखते हुए, कुछ महसूस करते हुए उन जज़्बों को शब्दों का लिबास पहनाया है। यही मेरे याद के झरोखों से निकलकर ‘‘माँ ने कहा था’’ के रूप में आपके सामने आये हैं।
आपकी अपनी
देवी नागरानी
अनुक्रम
माँ ने कहा था 9
आत्मा की झंकार है कविता 11
1. माँ ने कहा था 13
2. याद आती है 15
3. आँसुओं की बाढ़ 16
4. अगर तुम समझते हो 17
5. औकात 18
6. बदनाम औरत 19
7. ज़ालिम वक़्त 20
8. नींव 21
9. याद के पन्ने 22
10. मत ललकारो...! 23
11. बेज़ुबान चीखें 25
12. ‘नारी कोई भीख नहीं’ 27
13. दर्द का अहसास 29
14. विडम्बना 31
15. वसीयत 32
16. भूख 34
17. वह दूध वाली 35
18. ज़रूरत और इच्छा 37
19. काला उजाला 38
20. घटना अतीत बन गई 39
21. आईना और मैं 40
22. उत्पादन का ज़माना 41
23. नीलकंठ 44
24. ज्वालमुखी 45
25. चौपाल 46
26. दिल का चौपाल 47
27. हम कुछ न कर सके 48
28. सच कहा था तुमने 49
29. मैं वही हूँ 50
30. गुरबत का सूद 51
31. मान्यता 53
32. सच की परख 54
33. मैं अपूर्ण असमर्थ 55
34. ज़िंदगी-लक्ष्मण रेखा 56
35. जिंदगी के आयाम 57
36. दस्तक 58
37. हकीकत 59
38. परिचय 60
39. मेरी यादों का आकाश 61
40. मैं कौन हूँ? 62
41. आज़ादी 63
42. जीवन की सच्चाई 64
43. वह छत नहीं मिली 66
44. यह पल 68
45. बाग़ी आजादी बोल पड़ी 69
46. चक्रव्यूह 71
47. मेरा वजूद 74
48. खुली किताब 75
49. डर 76
50. ता-उम्र की तड़प 77
51. आज और कल 78
52. अनकही दास्तां 79
54. सवाल 82
55. आस का दामन 83
56. फिर पता चला 84
57. गीता का सार 85
58. देह-धर्म 86
59. रेगिस्तान में 87
60. जीवन मिला है 88
61. ज़मीर की भाषा 89
62. वही नियति है 90
63. अनजान 91
64. मैं चोर नहीं हूँ 93
65. साजिश 94
66. मांगना 95
67. अस्तित्व 96
क्षणिकाएँ
1. याद का कैनवस 99
2. तुमने कहा था 99
3 तमन्ना 100
4. तेज़ाब 101
5. वह आईना है 102
6. सोचती हूँ 103
7. धरती-आसमां 104
8. याद 105
9. प्यार 106
10. ज़ामिन 107
11. दुआ 108
12. बारूद 109
13. नया सूरज 110
14. एकाकार 111
15. हादसे 112
16. चाय 113
17. निडरता 114
18. नींव 115
19. रचना का हिस्सा 116
20. गूंगी बहरी 117
21. रंग 118
22. सच की आवाज़ 119
23. सच! झूठ! 120
24. भय 121
25. धार 122
26. ग़ुलामी 123
27. हादसा 124
28. अमीरी की भूख 125
29. बेदार्गी 126
30. मिलन 127
31. आज़ादी क्या है? 128
32. कोई और है 129
33. नए साल के नये वादे 130
1. माँ ने कहा था
माँ ने कहा था.
मैं गाड़ी के नीचे आते आते
बच गई थी!
तब मैं छोटी थी....
और
माँ ने ये भी कहा था
आने वाले कल में
ऐसे कई हादसों से
मैं खुद को बचा लूँगी
जब मैं बड़ी हो जाऊँगी.....
पर
कहाँ बचा पाई मैं खुद को
उस हादसे से?
दानवता के उस षड्यंत्र से?
जिसने छल से
मेरे तन को, मेरे मन को
समझकर एक खिलौना
खेलकर, तोड़-मरोड़ उसे
फेंक दिया वहाँ,
जहाँ कोई रद्दी भी नहीं फेंकता!
उफ़!
बीमार मानसिकता का शिकार
वह खुद भी,
ज़िन्दा रहने का सबब ढूँढता है!
सच तो यह है
वह मर चुका होता है...
जिसका ज़मीर ज़िन्दा नहीं होता!
याद आया
माँ ने ये भी कहा था
वह मर चुका होता है...
जिसका ज़मीर ज़िन्दा नहीं!
2. याद आती है
माँ जब जब मुझे
पालने में झुलाती है
तब तब मुझे याद आती है
उस पेड़ पर लटके झूले की,
झूले से बंधी रस्सियों की,
जो आरी की तरह घाव देती है
उस पेड़ की शाख को
जब भी माँ पालना झुलाती है!
3. आँसुओं की बाढ़
आँसुओं की बाढ़ में
जब
आँखों के किनारे डूबते हैं
तब मुझे
उस प्रवाह को
जबरन रोकना पड़ता है
थामना पड़ता है उस सैलाब को
जो डर बनकर मेरे भीतर सिहरता है
शायद
इस डर से कि कहीं मेरा वजूद
उसकी रौ में बह न जाए!
4. अगर तुम समझते हो
अगर तुम समझते हो
कि
तुमने मुझे जंजीरों में जकड़ लिया है
तो गलत समझा है
मत समझो कि मैं
तुम्हारी चाल के चंगुल से
खुद को आज़ाद कराने के रास्ते
अपने पीछे बंद कर आई हूँ.
यह तुम्हारी नादानी होगी!
इतनी नादां तो मैं नहीं,
जो अपनी आज़ादी को
तुम्हारी रीति-रस्मों के खूंटे से बाँध आऊँ, और
उस ताले की चाबी तुम्हें सौंप
गुलामी की ज़ंजीरें पहन लूँ!
वह चाबी तब भी मेरे पास थी
अब भी मेरे पास है,
कुछ जंग ज़रूर लग गई उसे
पर है तो वही चाबी,
अरसा हुआ इस्तेमाल करके
पर है तो वही चाबी
फिर भी जानती हूँ कि
जो चाबी ताला बंद करती है
वही उसे खोलती भी है!
5. औकात
औकात क्या है मेरी
जानती हूँ!
तुमसे जानने की ज़रूरत नहीं
आगाह करता है मेरा वजूद मुझको
कि मैं तुम्हारी मीठी-चिकनी-चुपड़ी
बातों में न आऊँ,
जो ज़हर की मीठी-गोली की तरह
हर दिन तुम मुझे यूँ देते हो,
जैसे तुम्हारे प्यार के बिना मैं मर जाऊँगी!
पर यक़ीन करो,
मैं खुद को जिन्दा रखने की खातिर
तेरी हर सोच के विरुद्ध
डंके की चोट पर,
विरोध का ऐलान करते हुए
अपने जीने का सामान इकट्ठा कर रही हूँ।
6. बदनाम औरत
बालक की कोख से जन्मी नारी
एक माँ, एक बहन, बेटी, बीवी,
और एक दाई माँ भी...!
हाँ, वही दाई माँ
जो थी तो औरत, पर
जच्चा की अनचाही मुराद के आगे
कुछ सिक्कों की खातिर
न जाने क्यों
बच्चे के गले पर अंगूठे का दबाव बढ़ाते हुए
उसकी साँसों को घोंट दिया
हाय...! बेरहम, नारी को कलंक लगाया
उस मासूम को मौत के घाट उतारा
जिसने खुली आँख से
दुनिया को नज़र भर देखा भी न था.
अब जाना, क्यों औरत बदनाम हुई है.
जब वह कैकेई बनी,
जब वह मंथरा बनी,
वही अब दाई बनकर आई है।
7. ज़ालिम वक़्त
कौन माँग रहा है जीवन भीख में!
भीख में तो
सांस लेने का अधिकार भी नहीं देता ज़ालिम,
हाँ ज़ालिम ही तो है यह वक्त.
जो कभी सालों साल तक बहुत कुछ देता है,
पर कभी
एक पल में बहुत कुछ छीन लेता है
अब बस इस कशमकश से
रिहाई चाहती है ज़िन्दगी
ऐ वक़्त
कुछ रियायत कर
जिन्दगी न सही मौत तो दे दे!
8. नींव
रिश्तों की बुनियाद
सुविधाओं पर रखी गर्ई हो, तो
रिश्ते अपंग हो जाते हैं
अर्थ सुविधा के लिए स्थापित हों, तो
रिश्ते लालच की लाली में रंग जाते हैं
और अगर...
रिश्ते साथ निभाने की नींव पर टिके हों, तो
जीवन मालामाल हो जाता है!
9. याद के पन्ने
मन की लाइब्रेरी में
पुरानी पुस्तकों की तरह
याद के पन्ने एकत्र होते रहते हैं...
और वक़्त के साथ
बिना उल्टे पल्टे
उन्हें याद के झरोखे से
देखा जा सकता है
पढ़ा जा सकता है....
सिर्फ़, हाँ सिर्फ़
उन्हें मिटाया नहीं जा सकता!
शायद धूल की तरह वे
याद के आईने से चिपके रहते हैं,
कुछ इस तरह, कि
उन्हें पोंछा नहीं जा सकता!
10. मत ललकारो...!
अभी पढ़ा है हाल दिल्ली का
दिल्ली का क्या?
है हर इक घर का
हर परिवार का किस्सा है....!
पहली पत्नी गई मायके
नालायक था, बेशर्म भी था...
पति मगर था....
यह कहते हुए ले आया दूजी-
‘‘दे दिया है तलाक़ उसको
कर ली है अब दूजी शादी!’’
वाह...वाह...!
रिश्ते क्या हुए
ज़िंदगी के गुलशन के
रंग बिरंगे फूल हुए
इक तोड़ा, सूंघ लिया
और मुरझाने से पहले, उसे
तोड़-मरोड़ कर फेंक दिया!
क्या होगा उस दिन?
सोचिये,
सोचिये मत ग़ौर कीजिये
जब औरत वही क़दम
उठा पाने की जुटा पाएगी हिम्मत!
तब....
तोड़ न पाओगे
न मोड़ पाओगे उस हिम्मत को ...
जो राख़ के तले
चिंगारी बनकर छुपी हुई है
दबी हुई है, बुझी नहीं है
मत छेड़ो, मत आज़माओ,
उसको जो जन-जीवन के
निर्माण का अणु है।
मत बनो हत्यारे
उन जज़्बों के, उन अधूरे ख्वाबों के
जो ज़िंदा आँखों में
पनपने की तौफ़ीक़ रखते हैं।
11. बेज़ुबान चीखें
दिल धड़क उठा, तब
जब,
दिल दहलाती चीख गूंज उठी
यहीं कहीं, आस-पास
अपने ही भीतर
बेसदा सी वह आवाज़
घुटती रही, घुटती रही
और
मैं कुछ न कर सकी!
दिल सिसक उठा, तब
जब, जाना
काले बादलों की क़बा भी
उसकी अंग-रक्षक न बन पाई
बेनाम, बेनंग आदम हमशरीक़ रहे
उस गुनाह में
जिसकी सज़ा आज
मानवता के सर पर
तलवार बनकर लटक रही है
बाखुदा! उस सज़ा में
नारी का रुआं रुआं हाज़िरी भर रहा है
आज भी, अभी भी, इस पल भी
पर कोई कुछ नहीं कर रहा!
दिल रोता है
जब आँखें देखती हैं
बेधड़क, बेझिझक घूमती बेहयाई
दिशाहीन वे दरिंदे, साज़िशी गिद्ध बनकर
पाकीज़गी को चीर-फाड़ रहे हैं।
जख्मी जिस्म से निकलती
तेज़ नुकीली चीखें
इन्सानियत की ख़ला में
अपने लाचार पंजे गाढ़ रही है
इस उम्मीद में, हाँ इस उम्मीद में, कि
कोई तो एक होगा
मानवता का अंगरक्षक
जो इन लाख आवाज़ों के बीच
सुनकर दिल दहलाती वह चीख
एक उजड़ती ज़िंदगी को बचा पाये।
पर हर आस
बेआस होकर लौट रही है
और
कोई कुछ नहीं कर पा रहा है!
आज भी चीखें
लटक रही हैं फ़ज़ाओं में
आज भी कासा-ए-बदन
भिखारी की तरह मांग रहा है
अपने ही भाई-बेटों से
अपनी बेलिबास क़ज़ा के लिए
एक लजा का कफ़न!
इस आस में, कि शायद
कोई कुछ कर सके!
(अभया नारी के मान-सम्मान का प्रतीक हैं ये बेज़ुबान चीखें जो आज भी मानवता के कानों पर रेंगती तक नहीं। कोई कुछ कर सके इसी उम्मीद में आज भी सदाएँ कह रही हैं, सिसक रही हैं, चीख रही हैं।)
12. ‘नारी कोई भीख नहीं’
नारी कोई भीख नहीं
न ही मर्द कोई पात्र है
जिसमें उसे उठाकर उंडेला जाता है
जिसे उलट-पुलट कर देखते हुए
उसके तन की खुशबू का
मूल्य आँका जाता है
खरीदा जाता है, इस्तेमाल किया जाता है...!
तद्पश्चात उसे
तोड़ मरोड़ कर यूँ फेंका जाता है
जैसे कोई कूड़ा करकट भी नहीं फेंकता...!
अब अवस्था बदलनी चाहिए
अब वे हाथ कट जाने चाहिए
जो औरत को
अपना माल समझकर
आदान-प्रदान की तिजारती रस्में
निभाने की मनमानी करते हैं
यह भूल जाते हैं.
वह जिंदा है, सांस ले रही है,
आग उगल सकती है....
नहीं! सोच भी कैसे सकते हैं?
वे, जो अपने ही स्वार्थ की इच्छा के
सड़े गले बीहड़ में वास करते आ रहे हैं
गंद दुर्गंध उनकी सांसों में
मांसभक्षी प्रवृति व्यापित करती है
वही तो हैं, जो उसके
तन को गोश्त समझकर
दबोचते, चबाते, निगलते स्वाद लेते हैं
भूल जाते हैं कि
कभी वह गले में
फांस बनकर अटक भी सकती है...!
13. दर्द का अहसास
दामिनी के दर्द का अहसास
होगा उन धड़कते दिलों को
कभी तो होगा....
यक़ीनन आज नहीं तो कल
आने वाले कल में, या
होगा तब जब
उनकी अपनी माँ-बहन
बेटी-बहू, या बीवी खुद
रेंगती हुई छटपटाएगी
उन शिकंजों के चंगुल में,
जो पाठ मानवता का
कभी पढ़ न पाये, जिनके
दूध में और ख़ून में
शायद
कभी इंसानियत घुल ही न पाई!
क्या समझेंगे वे पीड़ा
नारी के अपमान की
निर्वस्त्र जब उसकी परतें हुईं
बेलिबासी जिस्म ने जब ओढ़ ली।
कोई पांडव, कृष्ण कोई
अंग-वस्त्र न ला सका!
कोई सुन न पाया
उस उबलते लहू की पुकार
जो किसी दुखियारी माँ की बद्दुआ की चीख थी
जो आग के बदले, आहों को उगलती रह गई
और उगलती ही रहेगी
उस समय तक, जब तक
उस आह के उगले पिघलते लावा में
धंस न जाएगी दरिंदगी,
दर्द की उस बाढ़ में
तब तक नहाएगी गंदगी!
तब अहसास होगा, ज़रूर होगा
उन्हें, दामिनी के इस दर्द का
जो ज़िंदगी में जीते जी
दाह पर आह भरती रह गई!
14. विडम्बना
यह कैसी विडम्बना है?
मेरे चाहने पर भी, कोई
खुली आँखों से देखता नहीं
मेरी छटपटाहट महसूस करता नहीं।
क्यों कोई,
मेरे भीतर झांक नहीं पाता?
कहीं ऐसा तो नहीं मैंने ख़ुद
अपने दिल का दरवाज़ा भीतर से
भींच लिया है और नज़रबंद कर लिया है
खुद को अपनी तनहाइयों के साथ,
जो घर बसाकर बैठी हैं मेरे भीतर
शायद, इस इंतज़ार में
कि एक न एक दिन
मैं दुनिया के शोर से
बेज़ार होकर, बेताबी से
अपने ही भीतर
उस बंद दरवाज़े पर दस्तक दूँ,
और
पल भर में मेरी तन्हाइयाँ
बिना कुछ कहे, बिना कुछ पूछे
मुझे अपने आलिंगन में भर लें!
15. वसीयत
वसीयत उसके सामने थी
उस पर सिर्फ़ और सिर्फ़
हस्ताक्षर करने थे!
वह जानती थी, सब कुछ जानती थी
क्या हो रहा है?
क्यों हो रहा है?
उसके मरने का इंतज़ार
हाँ, उसी का इंतज़ार था
पर,
उसके पहले ज़रूरी था
इन कोरे कागजों पर
लिखे काले अक्षरों के तले
हस्ताक्षर करना!
उसके सामने रखी वसीयत में
सभी ने अपनी चाहतों को
अपनी-अपनी जरूरतों को दर्ज किया
बस भूल गए वो मेरी चाहत
ज़रूरत तो बहुत दूर की बात थी...!
मैंने भी, लिखकर दो शब्द
हस्ताक्षर कर दिये
यही लिखा था.
‘‘आज तुम हाक़िम हो
कल तुम्हारे वंशज हुक़ूमत करेंगे,
यहाँ, इसी जगह
बिना तुम्हारी ज़रूरत जाने,
वे तुम्हारे हस्ताक्षर खुद ही कर लेंगे,
तुम्हारी उनको ज़रूरत नहीं रहेगी।
यहीं से नया इतिहास शुरू होगा।
16. भूख
भूख.
एक बीमारी, एक लाचारी है
यह एक नग्न अहसास है, जो
औरों के मुंह से निवाला तो छीन लेती है
लेकिन उसका पेट नहीं भरता।
गुरबत को निगल कर भी
डकार तक नहीं लेती...
शायद उसकी हालत
उस कंगाल से भी बदतर है
जो भूख के लिए भीख तो मांगता है, लेकिन
अपनी ही हवस की भूख के आगे
लाचार, मोहताज हो, घुटने टेककर
बीते पलों से
अपने ही जीवन की भीख माँगता फिरता है
और वे पल,
कभी उसकी हवस की भूख का
पेट न भर पाए...!
17. वह दूध वाली
ख़बर अभी है उसकी आई
लाती थी जो दूध हमारा
गुज़र गई है अब वो माई।
सुबह सवेरे छः बजे वो
खाली शीशों का ले खोखा
लम्बी सी लगी कतार में
खड़े खड़े ही सो जाती थी।
शरीर उसका जर्जर था
जर्जर उसकी हालत थी,
पेट को भी मिला नहीं कुछ
खाने को था अन्न न पानी...
बस!
औरों का वो दूध थी लाती
दस दिए थे मैने उसको
और किसी ने बीस रुपये
कुल मिलाकर इक सौ बीस
कमा लिया वो करती थी....!
ये थी उसकी जीवन चर्या
ये ही उसकी दुखद कहानी
मुक्त हुई इस भार से अब वो
जीवन के आज़ार से वो.....
भार उठाया जीवन भर का
अब वो ख़ुद ही भार बनी
पड़ी निश्चल लाचार रही।
उसे उठा कर ले जायेंगे
अपने कंधों पर चार कांधी
वहाँ, जहाँ वह सो सके
अटूट चिर-निद्रा स्थाई।
18. ज़रूरत और इच्छा
हमारी ज़रूरतें
इच्छाओं के अनुपात में
कहीं ज़्यादा हैं
हमने उनके असंख्य बीज
अन्तर्मन की मिट्टी में बो दिये हैं
अब
उनके उगने के इंतज़ार में
हम खुद शिकस्ता होकर
खुरदरी सी उस ज़मीन पर
काँटों की ख़लिश महसूस करते हैं, जो
भीतर से बाहर की ओर
अपना विकास कर रही है।
19. काला उजाला
वह एक धोबन
अपनी ही दरिद्रता की गंदगी में
अमीरी की मैल धोती है।
उस बाहरी उजलेपन को
देखने वाली आँखें
उसके पीछे का मटमैलापन
नहीं देख पातीं।
काश अमीरी भेद पाती
तो यक़ीनन महसूसती
उस गंदगी की बदबू को
जिसका गिलाफ उसे घेरे रहता है
सच मानिए,
तब वह एक उजला रुमाल
अपनी नाक पर ज़रूर धर देती!
20. घटना अतीत बन गई
‘क्या हुआ?’
‘कुछ घटा है।’
‘किसके साथ घटा है?’
‘पता नहीं!’
कहकर भीड़ जमा हुई
वारदात पर पुलिस आई
‘तहक़ीक़ात होगी’
कहकर
वह अगले पड़ाव के लिए रवाना हुई...
और फिर भीड़ तितर-बितर हुई
ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो...
और बस
आज की घटी घटना
अतीत बन गई!
21. आईना और मैं
आईना पुराना ही सही
खूब जानता है साथ निभाना
जवानी की दहलीज़ से
अधेड़पन की चौखट तक
निभाता आ रहा है साथ।
पर, अब उस पर गर्द जमी है
कितना भी साफ़ करो
मुझे उसकी आँखों से
अपना चेहरा देखना पड़ता है...!
न वो बदला है,
न मैं.................!
22. उत्पादन का ज़माना
अर्थ शास्त्र का अर्थ है उत्पादन!
सभी को उत्पादक होना है
वर्ना फिज़ूल है अस्तित्व!
समय से समय निकालकर
इन फिज़ूल अस्तित्व वालों को
समय देना भी
फिज़ूल ख़र्ची मानी जाती है,
समय का सदुपयोग है उत्पादन में
जहाँ संसार भर की सुविधाएँ
उपलब्ध हों, लेकिन
उनका भोग करने के लिए
किसी के पास समय न हो!
यह कैसा अर्थशास्त्र है
जिसके अर्थों में
अनर्थों की संभावना पनप रही है
परिवार नामक संस्था की
नींव रखने वाले
निर्वासित हो रहे हैं
ऐसे में घरों में सन्नाटा बस गया है
बूढ़े कहीं दिखाई नहीं देते!
जवानी की दहलीज़ पार करते ही
एक अवस्था आती है जीवन में
जहाँ आदमी न जवान रहता है, न बूढ़ा
यह उसी समय की व्यथा है--
उत्पादन का न होना।
जवान बड़े होते हैं,
बूढ़ों को बूढ़ा होने के पहले,
बूढ़ा करार दिया जाता है
नौजवान, उनके लिए स्थापित किए गए
वृद्धाश्रम में उन्हें छोड़ आते हैं,
वहीं, जहाँ उन्हें
अपना कल महफ़ूज नज़र आता है।
अब सोचिए,
नव पीढ़ी के इस सोच का आविष्कार
क्या क्या न देगा,
आने वाले कल के वारिसों को
जब घर में बूढ़े न होंगे?
कौन सुनाएगा उन बच्चों को
वे लोरियाँ, जो
सपनों के संसार से उन्हें जोड़ती हैं,
वो बचपन के किस्से...
तोता मैना की कहानी...
वो बाबा की बातें...
वो अम्मा की लोरी...
वो गायत्री मंत्र का पाठ,
घर आँगन में तुलसी का रोपना...
और...
हनुमान चालीसा का दोहराया जाना...
सभी कुछ तो छूट जाएगा
समय की तंग गलियों में खो जाएगा
और ऐसे संकीर्ण जीवन के
सूत्रों से जुड़कर आदमी
असमय ही, जीवन जीने के पहले
बूढ़ा हो जाएगा।
पर,
कोई क्या कर सकता है
इस उत्पादन के ज़माने में?
यह वक़्त की मांग है
अपने ही स्थापित किए हुए वृद्धाश्रमों में
उन्हें जाना होगा......
आश्रय लेना होगा!
23. नीलकंठ
कहाँ से आया है यह ज़हर...!
जो
हमारे आस-पास
भीतर-बाहर,
शिराओं में बह रहा है
पिघले शीशे की मानिंद!
समाज में रहते हुए
मानवता के प्रतिनिधित्व में
बचा नहीं पाते ख़ुद को
उस ज़हर से,
ज़ब्त करना पड़ता है उसे
पचाना पड़ता है!
शायद इसलिए, कि उगलने की
संभावनाएं कम है, बहुत कम
निगल पाना और मुश्किल...!
हक़ीक़त तो यह है
कि हम सब नीलकंठ हो गये हैं...
हाँ नीलकंठ!
24. ज्वालामुखी
मैं
इस सूखी ज़मीन पर फैले
नीले आसमान के दरिया को
अगर लाँघ पाऊँ
उसके बीच के बादलों से, और
बारिश की शबनमी बूँदों से
ख़ुद को भिगोकर, गर
उस ठंडक का लुत्फ़ उठा पाऊँ
तो फिर,
सदियों से गूंगी
इस धरती की पीड़ा को व्यक्त कर पाऊँ
जो काँटों के इर्द-गिर्द लिपटी
नागमणि बनकर
उस नर्म स्पर्श को पाने के लालच में
गोल गोल घूम रही है
कि शायद
उसके भीतर का ज्वालामुखी
शांत हो जाय,
इस अथाह नीले समुद्र के पानी की
शीतलता उसके अंदर समा जाए।
25. चौपाल
चौपाल में
आमने सामने हैं हम खड़े
पहले भी कई बार मिले हैं
मूकता की महफ़िलों में
आस-पास बैठे हैं
बनकर दोनों अजनबी!
और
मैं चाहती हूँ
मैं अनजान ही रहूँ तुम्हारे लिए,
और तुम भी मेरे लिए
शायद३३
पहचान हर रिश्ते का
अंत कर देती है।
26. दिल का चौपाल
दिल के चौपाल में
हम दोनों
मैं और मेरी तन्हाई
अक्सर
ख़ामोशी की आहटें सुनते हैं
कभी बारिश की रिमझिम
कभी हवाओं की सरसराहट
कभी गिरते सूखे पतों की चरमर-चरमर
जो अपनी ही निरूशब्दता में कह रहे हैं
‘‘आज मैं, कल तुम
परसों कोई और गिरेगा
हमारी ही तरह ज़ख्मी होकर
और फिर
इतिहास खुद को यूँ ही दोहराएगा।’’
27. हम कुछ न कर सके
बम फूटे, यहाँ, फिर वहाँ
फिर भी
हम कुछ न कर सके...
उखड़ती रही ज़मीन
जहाँ हम खड़े थे
फिर भी
हम कुछ न कर सके...
बीज बोने के पहले
ज़मीन उकेर कर किसान
बोता है बीज, फिर
सींचता है खून पसीने की खाद से
पर आज--
वहशियत कर रही है वही काम
लाशों के बीज बोकर
धरती माँ के आँचल को
लहू से सींच कर।
अब भी हम चुप हैं
हम न तब कुछ कर सके
न अब कुछ कर रहे हैं।
28. सच कहा था तुमने
सच कहा था तुमने
‘कौवे हंस बनकर जी रहे हैं’
अधिकार है उन्हें
जीने का, उड़ने का
इन्कार नहीं है मुझको
पर ये क्या हुआ?
ये कौन सी यह बात हुई
वे उड़ रहे आकाश में
हम रेंग रहे हैं धरती पर!
29. मैं वही हूँ
तुम सोच भी नहीं सकते...!
मैं वही हूँ
जो छीनकर निवाला
तेरी थाली से
हर रोज़ वही रोटी
अपने पेट में ठूँसता रहा!
पर, वह रोटी
मिटा न पाई मेरी भूख, जो
निरंतर बढ़ती रही समय के साथ
और आज
आज, हाथ में हथियार लिए
मैं ज़माने के सामने
हाँ, ज़माने के सामने खड़ा हूँ
छीन लेता हूँ उनसे
हाँ! छीन लेता हूँ उनसे
वह सब कुछ, जो
मेरी इच्छा से मेरा न बन सका!
30. गुरबत का सूद
नहीं चुका पाऊँगी मैं
उस बनिए के बिल को
गिरवी जिसके पास रखी है
मेरी गुरबत,
यही तो मेरी पूँजी है
जो निरंतर बढ़ती जा रही है
कर्ज़ के रूप में
जिसे खाती जा रही है
निगलती जा रही है
मेरी इच्छाओं की भूख!
और साथ उसके
बढ़ रहा है सूद भी
हाँ सूद! उन पैसों पर
जो मैंने कभी लिए ही न थे
हाँ! पेट की खातिर ले आई थी
दो मुट्ठी आटा, चार दाने चावल
कभी दाल तो कभी साबू दाने,
उबाल कर अपने ही गुस्से के जल में
पी जाती हूँ।
पिछले कई सालों से
हाँ, गुज़रे कई सालों से लगातार
झुकते झुकते
मेरी गुरबत की कमर
अब दोहरी हो गई है
न कभी सीधी हुई, न होगी
अमीरों के आगे
कर्ज़दार थी, और सदा रहेगी!
क्या चुका पाएगी, वह कर्ज़,
हाँ, वह कर्ज़ जो गुरबत ने लिया
उस सूदखोर अमीरी से।
न जाने कितनी सदियाँ बीतेंगी
उसे चुकाने में
खुद को आज़ाद करा पाने में!!
31. मान्यता
सत्य, असत्य
न्याय अन्याय
धर्म, अधर्म
मात्र शब्द नहीं,
और न ही उस परिभाषा
में उनका अस्तित्व छुपा है
यह तो मान्यता है,
जो आधार बन जाती है
सत्य असत्य
को अपनी ही नजरों से
परखने के लिये
सत्य धर्म बन जाता है
असत्य अधर्म!
32. सच की परख
जो कल का सच है
वह आज की कसौटी पर
अगर पूरा नहीं उतरता
तो सच मानिये
वह सच था ही नहीं
सच कभी नहीं बदलता
शब्दों की परिभाषा से परे
वह एक अहसास है
जो किसी प्रमाण का मोहताज नहीं!
33. मैं अपूर्ण असमर्थ
भाषा की परिभाषा में भी
पूर्णता के दायरे में अपूर्णता!
भावों को प्रकट करने का अभाव
समझने की संभावना हीन
खुद को न समझ पाना
एक असमर्थ क्रिया है....
दीन हीन अधीन मैं
किस दिशा की पथिक हूँ
जाना है कहाँ, जा रही हूँ कहाँ?
अँधेरे में रौशनी, रौशनी में अँधेरा
क्यों टटोल रही हूँ राह को
मँजिल नहीं मैं पा सकती
लक्ष्य है भटका हुआ
और मैं
पूर्णता के दायरे में
अपूर्ण, असमर्थ
34. ज़िंदगी-लक्ष्मण रेखा
ज़िंदगी अपने आप में
एक लक्ष्मण रेखा है!
जब तक वह
मौत की हदों को नहीं छूती
तब तक,
मौत भी उसे नहीं छेड़ती
जीना उसको फिर भी
उसी लक्ष्मण रेखा के तंग दायरे में
फिर भी नाम उसका है ज़िंदगी!
35. जिंदगी के आयाम
जिंदगी
कागज़ का कोरा पन्ना नहीं,
न ही स्याह रँग की पुतन है जिंदगी
‘जिंदगी है एक रिश्ता’
लहर का लहर से
धूप का छाँव से
रात का दिन से
सुख का दुख से
अँधेरे का रौशनी से।
जिंदगी इक फ़ासला है
सूर्योदय की पहली किरण से
सूर्यास्त की अंतिम किरण तक का
जीवन की हद से,
मौत की सरहद तक का।
जिंदगी सुबह की पहली किरण है
मौत साँझ की आखिरी किरण है
36. दस्तक
हर आहट पर
कान खड़े हो जाते हैं
कौन दे रहा है दस्तक?
बार बार उठती हूँ,
पकड़ कर कुंडी, दर खोलती हूँ
जो भीतर से बाहर खुलता है
खड़ी-खड़ी मैं सोच रही हूँ
कौन है? कौन है वो, जो
दस्तक तो देता है, पर
सामने नहीं आता
और मैं, इतनी नादान
दस्तक सुनते सुनते
दर खोलना भूल गई
जो बाहर से
भीतर की ओर खुलता है!!
37. हकीकत
आज वो मेरे सामने
बनकर ठूंठ खड़ा है
देख रही हूँ...
निरंतर उस पेड़ को
पिछले तीन माह से
उसकी अठखेलियाँ,
हरी भरी लहलहाती वो शाखें
हँसती, झूमती, गाती वो पत्तियाँ
मौसम के हर रंग में भीगा
भूल गया वह उस सच को,
कि उसको झड़ जाना है
उम्र ढले घर जाना है।
फिर भी
हर बदलता मौसम
उसे तन्हा करता जाता है
और आज
वह मेरे सामने उदास सा
ठूंठ बनकर खड़ा है
मैं भी खड़ी खड़ी उसे देख रही हूँ
वह खिड़की के उस पार
मैं खिड़की के इस पार....!
38. परिचय
सोच की हदों के बाँध तोड़कर
सरहदों के उस पार
मेरा वजूद
नए सिरे से फिर खड़ा है
कुछ इस तरह
खामोश, खोया-खोया सा
उस जुबां की तलाश में
जो कह सके
‘अपनी पहचान खोकर
अंधे कुएं में गिरने वालो-
बेमतलब के हैं वो शब्द सारे
जो,
परिचय के लिए बांधे हैं तुमने’
39. मेरी यादों का आकाश
मेरी यादों के आकाश तले
दबी हुई है मेरे ज़मीर की धरती
थक चुकी है, बोझ उठाकर
अपने जेहन के आँचल पर
झीनी चुनरिया जिसकी
तार-तार हुई है
उन दरिंदों के शिकंजों से
उन खूंखार नुकीली नज़रों से, जो
शराफ़त का दावा तो करते हैं, पर
दुश्वारियों को खरीदने का
सामान भी रखते हैं।
बिक रहा है ज़मीर यहाँ
बस बची है अंगारों के नीचे
दबी हुई कुछ राख़ मेरे
ज़िन्दा जज़्बों की
जो धाँय धाँय उड़कर
काला स्याह कर रही है
मेरे यादों के आकाश को
40. मैं कौन हूँ?
मैं वो कविता हूँ
जो कोई क़लम न लिख पाई
रात के सन्नाटों में
तन्हाइयों के शोर में, जाने क्यों?
ज्वालामुखी बन कर उबल पड़ता है
इक अनकहा दर्द, जो सदियों से
मेरे भीतर बनकर चट्टान, जम सा गया था
वही रात के अंधेरे में
आंसुओं की आंच से पिघलता हुआ
बनकर पारदर्शी लावा बह गया
जब मैं खाली हुई,
तब जाकर जाना कि मैं कौन हूँ!
41. आज़ादी
आज़ादी बाहें पसारे
हमारे इंतज़ार में, बरसों से ख़ुद
बेबसी की बेड़ियों में जकड़ी हुई
उदास आँखों से
मानवता को देख रही है
जो
निराशा में आशाओं के
दीप तो जलाये रखती है
लेकिन
दिलों में रौशन ज़मीर के
दीप बुझा बैठी है!
42. जीवन की सच्चाई
जीवन को
मौत के शिकंजे से
आज़ाद करवाना है।
अवसर है यही
जानती हूँ, पर पहचानती नहीं
उस सच को, जो
निरंतर कहता है--
‘‘जीवन पाना है, तो
विष को पीना होगा’’
विष!
विष तो जीवन को मार देगा
जीवन दान कैसे दे सकता है?
जो ख़ुद कड़वाहटों का जाम है
अमृत कैसे बन सकता है?
इसी अविश्वास में मैं,
हर इक पल जीती हूँ, जीते जीते मरती हूँ
गर यही जीवन है
तो इस बार,
इस बार उस सत्य को
जो निरंतर कहता है
‘‘जीवन पाना है, तो
विष को पीना होगा’’
उस सत्य पर विश्वास करके
अपने भीतर के
सारे अविश्वास मिटाना चाहती हूँ।
शायद इस जीवन को जीते जीते
मैं जान गई हूँ
कि मैं उस विष को पिये बिना
जीवित नहीं रह सकती।
43. वह छत नहीं मिली
सोच का जंगल भी,
किसी सियासत से कम नहीं,
कभी तो ताने-बाने बुनकर
एक घरौंदा बना लेता है
जहाँ उसका अस्तित्व आश्रय पा जाता है,
या, फिर कहीं
अपनी ही असाधारण सोच के नुकीलेपन से
अपना आशियाँ उजाड़ देता है।
जब होश आता है, तब उसे लगता है
पांव तले धरती नहीं,
और वह छत भी नहीं,
जो एक चुनरी की तरह
ढांप लेती है उसका मान सम्मान!
मन की सियासत, उफ़!
यह सोच भी शतरंज की तरह
कुछ यूँ बिछ जाती है
बस, उसूलों की पोटली भरकर
हम एक तरफ़ रख देते हैं
और
सियासत के दायरे में
पाँव पसार लेते हैं
जहाँ आवरण तो नसीब होता है, पर
वह छत नहीं मिलती,
जो स्वाभिमान को महफूज़ रख पाये
ज़मीर को जिंदा रखकर जीवन प्रदान करे
वह छत,
जिसकी छत्र छाया में
सच पलता है
मिलकर भी नहीं मिलती...!
44. यह पल
कल और आज के बीच का
यह पल मेरा है
और यही वह समय है
जिसमें मैं
उस सचाई से परिचित हुई हूँ
कि मैं वो नहीं
जो कुछ करती हूँ
करता कोई और है
मैं वो नहीं जो सुनती हूँ
सुनता कोई और है
मैं वो नहीं जो जीती हूँ
जीता कोई और है
मैं तो खुद को जीवित रखने के लिए
रोज़ मरती हूँ!
45. बाग़ी आजादी बोल पड़ी
देश हमारा, हम हैं इससे
हम हैं राजा, प्रजा भी हम ही
फिर भी भान हुआ जाता है
आज़ादी की हरेक हद की
सीमाएं हम लाँघ रहे हैं.
छोटे बड़े हैं बनकर बैठे
बड़े बने हों छोटे जैसे
बेटा जैसे बाप हुआ हो
बेटी सास की सास हो जैसे!!
क्यों आभास हुआ जाता है
जैसे छीनी है आज़ादी
इस पीढ़ी ने उस पीढ़ी से।
उम्र नहीं जो छीन पाते....
छीनते हैं अख्तियार सारे
जो मिले हैं उस पीढ़ी को
अनगिनत बीते मौसमों से!
वाह वाह गाँधी!
क्या आज़ादी का अर्थ है बदला
हमें दिलाकर आज़ादी
तुम तो मुक्त हुए हर बंधन से
मुक्ति का जो द्वार था खोला
बहुत ही चौड़ा आज हुआ है, शायद
दे रही है स्वतंत्रता सबको
ज़्यादा से कुछ और ज्यादा....!
स्वतंत्रता, लाँघ रही है मर्यादा की सीमा।
क्यों बख्शी आज़ादी ऐसी
जिसमें कोई नहीं परिधी
बाँध सके जो उन रिश्तों को
आज़ादी के दायरे में...!
कहाँ गया वो स्वाभिमान ?
अभिमान हुआ करता था जिस पर
क्या मोल चुकाया बापू तुमने?
ओढ़ कर के फ़क़त लंगोटी
किस मूल्य ख़रीदा है मान?
अपमान की सीमा लाँघकर!
आज नाच रही है नग्नता
भँग हुई है शीलता
क़त्ले-आम हो रहा है
इन्सानियत का।
नहीं चाहिये, यह आज़ादी जो,
घर में देश न ला सके
स्वतंत्रता, जो हक़ है इन्सां का
चारदीवारी में न समा सके,
जहाँ आज़ादी से साँस ले सके
हर छोटा बड़ा, बिन गर्दन झुकाये शर्म से
जिये वो शान से, मरे वो शान से!
46. चक्रव्यूह
लड़ाई लड़ रही हूँ मैं भी अपनी
शस्त्र उठाये बिन
खुद को मारकर जीवन चिता पर लेटे लेटे।
गाँधी का उदाहरण, सत्याग्रह, बहिष्कार
तज देना सब कुछ, अपने तन, मन से
ऐसा ही कुछ मैं भी कर रही हूँ खुद से वादा,
अपने अंदर के कुरूक्षेत्र में
मैं ही कौरव, मैं ही पाँडव
चक्रव्यूह जो रिश्तों का है
तोड़ कर उसे
निकलना है बाहर मुझको
पर मैं यह नहीं कर सकती
क्योंकि मैं अर्जुन नहीं हूँ,
अपने प्यारों का विनाश--
नहीं! नहीं है संभव!
यही है मान्यता मेरी३
हाँ, दूसरा रास्ता सामने है
जोड़कर ख़ुद को ख़ुद से मज़बूत करूँ
मेरे तन की गुफ़ा में
वह किला
जिसकी दीवारें छेदी नहीं जा सकती
क्योंकि
पहरा पुख्ता है वहाँ
पहरेदार, एक नहीं, पाँच हैं
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहँकार!
मेरी इच्छा मेरी कमज़ोरी है
शायद इसलिये कि, मैं
अकेली इनसे नहीं लड़ सकती।
पल भर में मैं कमज़ोर पड़ जाती हूँ
सामने उनके, अति निर्बल!
पर अब, गीता ज्ञान
का पाठ पढ़ा है,
ज़ब्त कर लिया है उसका सार--
‘‘सब अच्छा हो रहा है
जो भी होगा अच्छा होगा
जो गया कल बीत वो भी अच्छा था’’
प्राणी मात्र बनकर मैं
अच्छा सोच सकती हूँ
अच्छा सुन सकती हूँ
अच्छा कर सकती हूँ
यह प्रकृति मेरे बस में है
पर,
मेरे मोह के बंधन अति प्रबल
और सामने उनके आज भी
मैं निर्बल!
अब,
समय आया है मैं तय करूँ
उस राह पे चलना,
जो मेरे सफ़र को मंजिल तक का अंजाम दे
कहीं पाँव न रुक पाए
कहीं कोई पहरेदार,
मेरी राह की रुकावट न बने।
पर, फिर भी उन्हें जीतना
मुशकिल है, नामुमकिन नहीं!
मैं निर्बलता के भाव को
मन से निकाल चुकी हूँ
मैं, सबल, प्रबल और शक्तिमान हूँ
क्योंकि मैं मनुष्य हूँ
मेरी चेतना जाग चुकी है,
अब,
रिश्तों के चक्रव्यूह को छेदकर
जाना नामुमकिन नहीं, क्योंकि
मैंने मन को सारथी बना लिया है
साथ जिसके रात के अंधेरे में
रौशन राहें खुलती हैं
उस आराध्य की परिधि में!
47. मेरा वजूद
सोच की हदों के बाँध तोड़कर
सरहदों के उस पार
मेरा वजूद
फिर नए सिरे से खड़ा है
सन्नाटों की तरह खामोश
खोया-खोया सा
उस जुबां की तलाश में
जो कह सके
‘‘अपनी पहचान खोकर
ख़ुद अंधे कुएं में गिरने वालो!
बेमतलब के हैं वो शब्द सारे
जो
परिचय के लिए बांधे हैं तुमने’’
48. खुली किताब
सोच की सिलवटें
मेरी पेशानी पर तैरती हैं
और जैसे-जैसे
वो गहरी हुई जाती हैं
एक उलझन बनकर
चेहरे की झुर्रियों के साथ
तालमेल खाती
मेरे माथे पर चिपक कर रह जाती हैं
और, उस वक्त
एक खुली किताब का सुफ़्आ
बन जाता है मेरा चेहरा
जिसे
वक़्त के दायरे में
कोई भी पढ़ सकता है
49. डर
आंखें बंद हैं मेरी
तीरगी से लिपटा हुआ
ये मन,
गहरे, बहुत गहरे
धंसता जा रहा है
पर,
जब बेबसी में ख़ुद को छोड़ दिया
तो लगा
मैं रौशनी से घिर गया हूँ
अब मुझे डर किस बात का।
50. ता-उम्र की तड़प
एकांत की गहराइयों में
डूबकर खो जाना
एक सत्य को पाना है,
जो ज़ाहिर करता है--
अपने वजूद से बिछड़ना,
ख़ुद से जुदा होने की वेदना,
एक ख़ालीपन में खोकर
खुद को पाने की तलाश
एक छटपटाहट, जो
ता-उम्र की तड़प बनकर रह जाती है!
51. आज और कल
आज अभी ये समय है
वक़्त के गलियारे से गुज़रते
अपने बीते हुए ‘कल’ का किवाड़
अपने पीछे बंद कर दें
और, आने वाले कल को
खुली बाहों से अपनाने के लिए
‘आज’ का दरवाज़ा खुला रखें
आज का वक़्त अध्ययन में बीते
तो फिर शायद वो ग़लतियां
न दोहराई जाएं, जो
कल के किवाड़ के पीछे
हम बंद कर आए हैं।
52. अनकही दास्तां
मूक ज़ुबान
कुछ कहने की कोशिश में चुस्त
फिर भी व्यक्त नहीं करती
उन अहसासों को,
याद के ज़हन से जो
जुबां के अधर तक तो आ जाते हैं
पर,
अधूरी भाषा में
कुछ अनकही दास्तां
कहे बिन ही शांत हो जाते हैं।
53. साँस ले रही है
हाहाकार मचा हुआ है
उस राख के ढेर तले
जहाँ,
जलकर भी नहीं जली
वो जिंदा आहें
वो सिसकियाँ, जो दब गयीं
शायद
मुर्दा लोग पूरी तरह से
मरे नहीं,
उनमें जिंदा थी
जीने की चाह
ऊपर उठने की चाह
पर
मौत के बेरहम शिकंजों के
शिकार बन गए, दफ़नाये गए
और साथ उनके,
दफ़नाया गया
उनका प्यार, उनका दर्द, उनकी आशाएं
सभी राख के तले,
और अब वे,
बेक़रार हैं
उस मलबे से ऊपर उठने के लिए!
हवाओं में एक ख़ामोश शोर है
एक हलचल है
जैसे वे खामोश सिसकियाँ
राख के तले अब भी
सांस ले रही हैं
54. सवाल
उसके होने
और
न होने के बीच का फ़ासला
दरारें पैदा कर रहा है
और
दिल की दीवारें
उनके गहरे होने से चरमरा रही हैं।
मैं जब आईना देखती हूँ
मेरे चेहरे की झुर्रियाँ
गहरी होती दिखाई देती हैं
नहीं मिटा पाती मैं
अपनी सोच की दीवार से
वह तस्वीर
जो दिल में बसी थी इक बार
जिसे चेहरे बदलते हुए देखा था
एक नहीं, अनेक बार
मगर तब वह था
और अब
उसके न होने का आभास
ज़िंदा रहता है!
आज सोचती हूँ
क्या जीवन की चरम सीमा
मिलना बिछड़ना है
या होना, न होना है
अर्थ और अर्थहीन होने का फ़ासला
अब सवाल बन के सामने खड़ा है!
55. आस का दामन
यक़ीन की डोर पकड़ कर
आस का दामन छूने की तमन्ना
मेरे इस मासूम मन को
अब तक है,
सामने सूरज की रौशनी
आस की लौ बनकर
जगमगा रही है
पर, जाने क्यों?
ज़िंदगी की दलदल में
विवशता धँसती ही जा रही है
मेरी मुफ़लिसी की,
मेरी अपंगता की
जो मेरी अक्षमताओं को
प्रदर्शन करने में कोई कसर नहीं छोड़ती
पर सांसें निराशा का दामन
छोड़ कर, आज भी
जीवन का हाथ थाम रही हैं
शायद उन्हें अपना मूल्य कथने की
आज़ादी है।
56. फिर पता चला
तुमने कहा.
‘तुम चलती चलो आगे आगे
मैं तुम्हारे पीछे पीछे हूँ’
मैं बहुत आगे निकल आई
फिर पता चला.
मैं जिंदगी हूँ, और
तुम मौत!
57. गीता का सार
गीता का सार है.
संसार इक क़ब्रिस्तान
चलते फिरते सभी जीव
पहले से ही मरे हुए....
अगर सभी मुर्दे हैं तो,
हम क़ब्रिस्तान की सैर कर रहे हैं
आस पास, आगे पीछे, चारों ओर
हर एक की क़ब्र खुदी हुई,
गहरी काली क़ब्र
जिसमें उसे दफ़्न होना है
सोचने लगा है मन.
अगर ऐसा है तो
कोई तो सुरंग होगी
जहाँ से जीवन की आशा
रौशनी बनकर घिर आएगी
और तीरगी से अपनी राह बनाकर
इस तन में क़ैद आत्मा को
परमात्मा में विलीन होने का,
अवसर प्रदान करेगी!
मुक्ति पर अधिकार है प्राणी का
शर्त पर एक ही है
ख़ुद को पहचानना
अपनी जात को पहचानना
और प्रयास के रथ पर
आगे बढ़कर
अपने प्रियतम को पाना!
58. देह-धर्म
जिस दिन से मैं जन्मी हूँ
उसी दिन से इस देह में रहते हुए
रोज़ थोड़ा थोड़ा मरती हूँ
गिनी गिनाई सांसें मेरे हिस्से की हैं
हर आने वाले पल में वे
कम होती ही रहती हैं
जानती हूँ
जीते जी भी कोई जी रहा है,
आँखों को सच लगता है,
पर भ्रम है
सच तो यह है :
मैं जीती ही उन पलों में
उस चैतन्य सत्ता से जुड़ते हुए
जिसके न होने से
इस देह को मृतक शरीर कहकर पुकारा जाता है!
59. रेगिस्तान में
सन्नाटों के रेगिस्तान में
खाली ख़यालों के बीज बोकर
सोच की शबनम से सींचा
बस देखते ही देखते
मन में मख़मली अंकुर फूटे
और खिल उठा
उदास मन का चमन
महकने लगे शब्दांकुर
बनकर लाला!
60. जीवन मिला है
जीवन मिला है
मात्र सीमित समय के लिए
पर जीना अभी बाक़ी है..!
आना हुआ है
फिर एक दिन जाना होगा
निशब्द भावना को लेकर अपने साथ
जाना सभी को है!
जो जाते हैं, बस चले जाते हैं!
रह जाती है उनकी याद,
मात्र याद...!
जो दोहराई जाती है बार बार लफ़्ज़ों में
घर में, महफ़िल में, सभाघर में
उनका नाम ले लेकर,
और फिर
यादों में टंगी रह जाती है
वह याद भी...
दीवार पर टंगी तस्वीर पर
सूखे फूलों की तरह..!
61. ज़मीर की भाषा
‘‘मौन की भाषा
चुप नहीं रहती
सदा कहती’’
मूक भाषा में मन मेरा
मुझसे बतियाता है
गिर कर उठना
उठ के संभलना
मनोबल का प्रयास है!
पर
अपनी आँखों में गिरना
हार का ऐलान है!
जो जीत के मैदान में
न टिक सकी शान से
थक कर गिर पड़ी
गिर कर हार गई,
मूक खामोशियाँ
अन्याय नहीं करती
ज़मीर की भाषा,
न्याय का मूल आधार!
62. वही नियति है
निभाने की रस्में
फ़क़त ज़रिया है
दिखावे की, नज़दीकियाँ बढ़ाने की
क्षमताओं की परीक्षा देना
कठिन है, बहुत कठिन है
पर असंभव नहीं!
खरा उतरना एक सिरा
खोटा साबित होना दूसरा सिरा
जो धार मिलाकर दोनों की
जीवन पथ पर चल रहा
अपने लक्ष्य की ओर
वही नियति है!
63. अनजान
जब तक खुद से मिली न थी।
अनजान थी!
एक नहीं, अनेक सच्चाइयों से
जिन्हें मैं अपने ही कफ़स से ढकती रही
गंधारी की तरह खुली आंखों पर
पट्टी बांधकर
हर सच्चाई को टटोलते हुए
नकारती रही
क्या कभी देखा अनदेखा.
एक हो सकता है?
जुर्म और सज़ा को एक तराजू में तोला जा सकता है?
नहीं ना?
तो फिर क्यों सवाल किया?
मन ने युधिष्ठिर की तरह
कि सौ जनम तक कोई गुनाह नहीं हुआ है मुझसे
क्यों फिर यह बीनाई मेरे हिस्से में आई?
कृष्ण ने कहा था.
नियति टल नहीं सकती
किसी की भी नहीं!
जन्मों का कर्ज एक जनम में तो
उतरने वाला नहीं
यह मानव जनम बड़ा ही मुश्किल
मंद बुद्धि के कारण
समझ पाना मुश्किल
पर अपना ही बोया हुआ
खुद की काटना पड़ता है।
यह तय है।
बस मानना है,
स्वीकारना है,
बिना किसी दलील के
यही बेबसी का अंतिम चरण
नियति बन जाता है।
64. मैं चोर नहीं हूँ
‘‘नहीं, मैं चोर नहीं हूँ’’
थैली में पैसे डालते हुए
वह बुजुर्ग कहता जा रहा था
‘‘देख लो इसमें ये छुट्टे पैसे
मेरे अपने हैं, मेरी कमाई के,
तुम्हारे घर से मैंने कुछ नहीं उठाया!
चाहो तो मेरी तलाशी ले लो!’’
उसकी आवाज़ में क्रंदन था
सुनने वाले सब कुछ समझते हैं
जानते हैं सबको खाली हाथ जाना है
किसी को कुछ नहीं ले जाना, उन्हें भी नहीं.
तो क्यों अपनी गठरी को पापों से
भरने पर आमादा है ये नादां इंसान!
65. साजिश
षड्यंत्र है,
मेरे खिलाफ़ साजिशों का,
जो अपने तंग दायरे में
मुझे घेरती है, कसती है,
मेरे धड़कते अहसासों का गला घोंट कर
ज़िंदगी के नाम पर,
मौत के दायरे में धकेले जा रही है,
और करम देखिये .
जतला रही है, फ़क्र से बतला रही है.
मैं तुम्हें जीना सिखा रही हूँ!
क्या कभी सुना है, घुटन देने वाला.
आज़ादी की सांस की कीमत जानता है!
66. मांगना
मांगन से मरना भला, मत कोई मांगे भीख.
शतरंज के खेल है ज़िंदगी
कभी चोर सिपाही, कभी सिपाही चोर
अपना हक़ माँगने पर
कर्जदार सारे रंग भरकर फरेबी आँखों में
सवालों का तांता सामने धर देता है .
‘‘क्यों चाहिये, कितने चाहिए, किसे देने हैं?’’
लेने के समय कोई शर्त न थी!
एक वादा था समय पर लौटाने का.
पर अब मेरी बंद मुठियों से जैसे
रेत फिसलती जा रही है
क्या अब अपनी बंद मुठियाँ खोल दूँ?
67. अस्तित्व
आज,
हवाओं में उछाले जा रहे हैं
शब्द
कुछ नए प्रयोगों के लिए
जो निशब्दता में
अपने अर्थ पाने कि लालसा में
लुप्त हो रहे हैं
और
यह भी सच है.
कि, शून्यता तक
उनके अस्तित्व का कोई अंश
रचना में ढलकर
अपना अस्तित्व कायम नहीं रख पाया!
क्षणिकाएँ
1. याद का कैनवस
दर्द की एक नन्हीं लौ,
जगमगाती है, मेरे भीतर
याद दिलाती है
कि हर रोज़
नया सूरज उगता है।
अँधेरों के गर्भ से!
फिर भी सोचती हूँ.
क्यों देखकर आशाओं के खुले आकाश को
छूकर नज़र जिसे निराश लौट आती है?
फिर सोचती हूँ
क्यों धरती बंट गई है
आदमी बंट गए हैं
क्यों यह आसमां
टुकड़ों टुकड़ों में नहीं बंटा?
आखिर देखकर इस जहान को सोचती हूँ.
क्यों होती है जंग
जब छाँव सबके हिस्से की है
क्या कोई लौ
उन तारीक दिलों को
रौशन नहीं करती?
2. तुमने कहा था
झूठी कसम खाकर
तुमने कहा था
मैं मांसाहारी नहीं हूँ!
यह सच नहीं,
क्योंकि
तुम ग़रीबों का खून पीते हो!
3. तमन्ना
उसके पास जाने की तमन्ना में
मैं ख़ुद से
कितना दूर हुई
यह तब जाना
जब वह पास आया!
4. तेज़ाब
नफ़रत का तेज़ाब
अपने ही तन-मन की
अस्त-व्यस्त अवस्था पर
टपका कर आँख से आँसू
जलन पैदा करता रहा
निश्चित ही उस तेज़ाब का असर होगा
जो मेरे भीतर नफ़रत के उबाल ने
पैदा किया है!
5. वह आईना है
अपने भीतर के उस ‘मैं’ से
जब मैं मिली
तब यही जाना
मैं कुछ भी नहीं
वही मेरी प्रेरणा है
वही मेरी शक्ति--
वही मेरा लाइफ फोर्स है--
वह आईना है
जिसमें मैं खुद को देखती हूँ!
6. सोचती हूँ
आँखों में बसे धूप के साए
देखकर सोचती हूँ...
क्यों होती है जंग
जब छाँव सबके हिस्से की है?
सोचती हूँ...
याद के कैनवस से
धुंधले होते होते
वे कल के सारे चिन्ह
मिटने लगे हैं क्यों?
सोचती हूँ...
क्यों यादें स्थायी नहीं होतीं?
क्यों आती जाती बहारों की तरह
हर मौसम में अपना रूप बदलती हैं।
7. धरती-आसमां
सामने है आशाओं का खुला आसमान
दूर-दूर तक नज़र जाकर
निराशाओं को ओढ़कर लौट आती है
सोचती हूँ, क्यों धरती बंट गई है
आदमी बंट गए हैं....
क्यों यह आसमान
टुकड़ों टुकड़ों में नहीं बंटा?
8. याद
याद जब आती है
तो आ ही जाती है
सैलाब की तरह
दुनिया की सारी हदों की फसीलें फांदकर
उस पार से इस पार
उफनती नदी की तरह
हर बांध को तोडकर
आ ही जाती है।
9. प्यार
प्यार के दावेदार
मुश्किल राहों पर
दुश्वार हालातों में
तन्हा छोड़ दें....
तो यह उनका परिचय है
तुम्हारा नहीं!
प्यार का दावा उन्होंने किया
तुमने नहीं!
10. ज़ामिन
किसका ज़मीर ज़िंदा है.
जो ज़ामिन बनकर
आईने से आँख मिलाकर
गुनहगार से कह दे.
तुम कसूरवार हो!
11. दुआ
न लब हिले
न हाथ उठे
फिर भी
ऐसे लगा जैसे ...
हाथ उठने से पहले
कबूल कर ली गई मेरी अर्जी
और वह सामने आई बनकर दुआ!
12. बारूद
उन खिलौनों से अब खौफ होता है....
ये वही खिलौने हैं
जो बचपन में
ज़िद करके मैं हासिल किया करता था
पर आज
वही खिलौने
अपने बच्चे के हाथ में देखकर
मैं सोच रहा हूँ
क्या मैंने अपना घर
बारूद के ढेर पर बसाया है?
13. नया सूरज
दर्द की एक नन्ही लौ
भीतर कहीं जगमगाती है
रौशन होकर याद दिलाती है
कि हर रोज नया सूरज उगता है
14. एकाकार
एक से एक मिलकर
दो हो गये.
ज्ञान बढ़ गया!
एक से एक मिला.
एकाकार हो गया
लक्ष्य मिल गया!
15. हादसे
दहशतें
हमारे भीतर ही
मंडराती रहती हैं
घुटन को तोड़कर
जब बाहर विस्फोटित होती हैं
तब हादसे होते हैं!
16. चाय
चाय की प्याली
रखी है सामने
मैं नहीं
कोई और मुझमें बैठा
भर रहा है चुस्कियाँ!
17. निडरता
निडरता वहीं दफ़्न हो जाती है
जहाँ कहीं भी
अपने भीतर का डर
ख़तरा बनकर
सामने मंडराता है!
भय तन से ज़्यादा
मन के कमज़ोर कोनों में
अपनी धाक जमा बैठता है।
18. नींव
रिश्तों की बुनियाद
सुविधाओं पर रखी गई हों, तो
रिश्ते अपंग हो जाते हैं
अर्थ सुविधा के लिए स्थापित हों, तो
रिश्ते लालच की लाली में रंग जाते हैं
और अगर...
रिश्ते साथ निभाने की नींव पर टिके हों, तो
जीवन मालामाल हो जाता है!
19. रचना का हिस्सा
मैं तो रचना का हिस्सा हूँ
वो भी मुझ बिन रहती नहीं,
नाम तन को है मिला यह
मैं तो कोई देवी नहीं
पत्थरों में पूजे जो देव देवी
मैं वो पत्थर भी नहीं
20. गूंगी बहरी
मैं गूंगी हूँ...!
शायद इसीलिए,
अपने भीतर की सोच के सैलाब को
अपनी ज़बान दे नहीं पाती।
मैं बहरी हूँ ...!
शायद इसलिए अपने भीतर
की आवाज़ को इस शोर में
सुन नहीं पाती!
मैं बे-पर पंछी
बेबस, बेआवाज़
उड़कर आकाश की ओर
उसे छू नहीं पाती!
21. रंग
कालेपन का प्रतीक- काला रंग
कालिख से जुड़ा होता है, पर
सफेद ‘चॉक’ से काले बोर्ड पर उकेरी लकीरें
उस काले बोर्ड का कमाल है...!
ज्ञान के आगाज़ का पहला अक्षर
उसी नक्काशी से अपना परिचय करता है।
22. सच की आवाज़
बोलबाला है आज काले बाज़ार का
पतन के परचम फहरा रहे हैं
रौशनी में तारीक भष्टाचार,
बुद्धि मंद कर देते हैं,
शोर में मंद पड़ जाती है
सच की आवाज़
पर सच भी ज़हन में डेरा डाले,
कर देता है भ्रष्टाचारियों की नींदे हराम
पर उनके विवेक में
रौशनी का इजाफा नहीं कर पाता।
23. सच! झूठ!
सच!
सूर्योदय के पहले की रोशनी
और झूठ!
सूरज के ढलने के बाद का अँधेरा
24. भय
निडरता वहीं दफ़न होती है
जहाँ कहीं भी
अपने भीतर का डर
ख़तरा बनकर सामने मंडराता है!
वही भय, तन से ज़्यादा
मन के कमज़ोर कोनों में
अपनी धाक जमा बैठता है!
25. धार
छुरी में धार ऐसे कहाँ आती है?
जब फीता तेज़ी से घूमता है
तब उसके धारदार तेज़ छुहाव से
छुरी में मनचाही धार आती है।
26. ग़ुलामी
दरिंदगी
घूम रही है खुलेआम
आज़ादी के विस्तार में
और
ग़ुलाम मानवता की दहलीज़ पर
अमानुष कर रहे हैं चौकीदारी!
27. हादसा
वार हुआ
हाथ अदृश्य
आँखें पथराई सी
होंठ सिले हुए!
पूछा गया.‘क्या हुआ?’
कहा गया.
‘हमने कुछ नहीं देखा
कुछ नहीं सुना।’
पर
सिसकियाँ कहती रहीं
‘शायद वो हादसा था’
28. अमीरी की भूख
अमीरी की भूख
दरिद्रता को खा जाती है
बच्चों की भूख
ममता को बिकवाती है
खुदगर्ज़ी की राहों पर
क्या समझेगा बेदर्द ज़माना
क्यों ये औरत अपने हाथों
खुद के तन को दफ़नाती है?
29. बेदार्गी
चादर की बेचैन सलवटें
ज़ाहिर करती हैं
उस बेदार्गी को
जो तड़प की सेज पर
वो ‘सब’ हासिल करती हैं
जो फूलों की सेज पर
सोकर नहीं पाया जा सकता!
30. मिलन
पानी से आती आवाजें
प्यासे को
अपनी ओर खींचती हैं
प्यास और पानी की...
परिपूर्णता मिलन में है!
31. आज़ादी क्या है
आज़ादी क्या है?
इस अक्षर की नक्काशी कर आओ
क़ैद की दीवारों पर
और
फिर पूछो इसका मतलब
लोहे की सलाखों के पीछे क़ैद
आज़ादी के उन परवानों से!
32. कोई और है
शायद,
जो वह सोचता है
वह मैं कागज पर उतारती हूँ
यक़ीनन कलम मैंने थामा है
पर लिखने वाला कोई और है!
33. नए साल के नये वादे
नया साल आकर चला जाता है
पुनः नए वादे कर जाता है
और वादे अनुसार फिर नया साल आता है!
अपने ही नक़ाबपोश चेहरे में
जाने कितने स्याह राज़ छुपाकर
जाने से पहले
बारूदी पटाखों से
शरारों की दीवाली मनाता है,
दिलेरों की छाती को छलनी करवाता है,
शहादतों के नारे लगवाता है,
उनकी बेवाओं को ता-उम्र रुलाता है,
माँ बहनों की आशाओं के दीप
अपने नापाक इरादों से बुझवाता है,
और
फिर वही अहसान फ़रामोशी का चलन
कुछ नया करने के लिए
नया आवरण ओढ़कर आ जाता है
पर अब,
उसका स्वागत कौन करे?
कौन उसके सर पर खुशियों का ‘ताज’ रखे
जिसे खँडहर बनाकर
उसने रक़ीबी हसरतें पूरी कर लीं
पर क्या हासिल हुआ?
हाहाकार मचा, भूकंप आया
ज़लज़ला थरथराया
और फिर सब थम गया
सिर्फ धरती का आंचल लाल हो गया
उन वीर सपूतों के लहू से
जिनकी याद हर साल
फिर ताज़ा हो जाती है
जब
पुराना साल जाता है
और नया साल आता है!!!
(2008 -मुंबई में हुए ज़ख्मी ‘ताज’ की फरियाद)
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