1 ... घर के किसी कोने-अंतरे में बिना पूछे जाँचे डाल देती अपना डेरा और धूप, हवा, तुलसी, ताखे की तरह घर का हिस्सा बन जाती। 2 ..... किसान के खड...
1
... घर के किसी कोने-अंतरे में
बिना पूछे जाँचे डाल देती अपना डेरा और
धूप, हवा, तुलसी, ताखे की तरह घर का हिस्सा बन जाती।
2
..... किसान के खड़े खेत की तरह
कट कट कर अलग हो रहे हैं
परिवार के सदस्य.....
........ कहीं कोई विक्षत अन्न
नहीं गिरता छिटक कर
नहीं घुसती कोई चिड़िया
चोंच में तिनका दबाए...
3
......चिड़िया अब तक
घर वापिस नहीं लौटी है
सात बरस सात महीने बीत गए हैं।
यह कवि रमेश पांडेय की उन कविताओं के अंश है जो उन्होंने गौरेया के ऊपर लिखी हैं। लेकिन भारत में लुप्त होती गौरेया की चिंता केवल कवि की नहीं, हर पर्यावरण प्रेमी की है। विकास के मॉडल पर सवार मानव ऐसी गलतियां कर बैठा है कि आज वह शुद्ध जल और हवा जैसी कुदरती नियामतों के लिए तरस गया है। मृत जानवरों को ठिकाने लगाने वाले गिद्ध गायब हो चुके हैं ,अब शायद गौरेया की बारी है। इस के जिम्मेवार हम विकसित मानव ही हैं। आज जंगली जीवों की संख्या कम हो ही रही है, यदि घरेलू नस्ल भी इस विनाशलीला में लीन हो गई तो क्या मानव जीवन रहेगा?
उल्लास की प्रतीक गौरेया आज आवास के लिए तरस गई है। मानव की दोस्त यह चिरैया ,मानव की उपेक्षा का शिकार हो रही है। फसलों को नुक्सान पहुंचाने वाले कीट, लारवा और घरों में जाले फैलाने वाली मकड़ियों तक को खा जाती है गौरेया। सो इसकी उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता। एक बच्चे के भीतर सबसे पहले “जिज्ञासाभाव” शायद गौरेया ही जगाती है। क्योंकि वही बेधड़क घरों के आँगन और छतों में प्रवेश करती है। और अपने हिस्से का दानापानी ग्रहण करती है ,जैसे घर की सदस्य हो।
एक संवेदशील व्यक्ति गौरेया पर आए संकट से अवश्य बेचैन होगा। तभी तो जनसत्ता जैसे राष्ट्रीय स्तर के वैचारिक दैनिक पत्र में नन्हीं सी गौरेया को केंद्र में रखकर समय समय पर आलेख छपते रहे हैं। पहल जैसी गंभीर साहित्यिक पत्रिका इस पर मर्मस्पर्शी कविताएं प्रस्तुत करती है। सालिम अली जैसे प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी अपनी आत्मकथा को शीर्षक देते हैं--- “ द फॉल ऑफ ए स्पैरो। ” मोहम्मद दिलावर जैसे वैज्ञानिक समर्पित भाव से गौरेया के सरंक्षण में जुट जाते हैं। उत्तरप्रदेश की लखनऊ विश्वविद्यालय जैसे उच्च शिक्षा संस्थान इस पर पूरा ध्यान देते हैं, शोध करवा रहे हैं। साइंस रिपोर्टर जैसी वैज्ञानिक पत्रिकाएं तो सामग्री देती ही रहती हैं। स्वानंद किरकरे जैसे गीतकार इस पर एक पूरा गीत रच देते है---“ ओ री चिरैया..... अंगना में फिर आ जा रे.......।”
स्तंभकार रमेशदत दुबे के अनुसार चीन में सर्वहारा की क्रांति के मसीहा माओ ने एक चिड़ीमार सांस्कृतिक आंदोलन चलाया था, उसे लगा यह किसानों की फसलों को हानि पहुंचाने वाली पूंजीवाद की ऐजेंट हैं। चिड़ियों में इतना मांस तो नहीं था कि उन पर गोलियां नष्ट की जाएं सो उन्हें ढोलधमाकों से तब तक उड़ाया जाता जब तक वे थक हार कर जमीन पर न गिर जातीं। यह क्रांति सफल हुई और चीन चिड़ियाविहीन हो गया। लेकिन बाद में पता चला कि ये चिड़ियां भक्षक नहीं किसान की रक्षक थीं। फसलों को नुक्सान पहुंचाने वाले कीटों को खाती थीं। तब आस्ट्रेलिया से चिड़ियों का आयात किया गया। इसी तरह सुनील मिश्र लिखते हैं,“ ऐसी दुनिया जिस में हम रहते हैं , पता नहीं क्या कुछ चल रहा है। इधर अपनी दिनचर्या में नितांत औपचारिकताओं से सुबह जागना और औपचारिकताओं के ही आदान-प्रदान में शाम हो जाना बहुत सारी निराशाएं देता है। ऐसे में ये नन्हें, नव-दंपत्ति प्यारे पक्षियों( गौरेया) की दुनिया में रोज कुछ समय काटना दरअसल जिंदगी से बड़े अनुराग के साथ रूबरू होने की तरह महसूस होता है। प्रकृति की यह छटा सचमुच विलक्षण है।
रामधारी सिंह दिवाकर लिखते हैं,“ पिछले महीने गांव में अपने दरवाजे पर बैठा गौरेयों का इंतजार करता रहा। चार दिन हो गए, नहीं दिखी एक भी गौरेया। बेटे वेदांत चंदन से गौरेयों के बारे में पूछा । उसने बताया- गौरेया विलुप्त होने के कगार पर है। मुझे हठात “ दि फॉल ऑफ स्पैरो ” की याद आ गई। चंदन ने बताया- गौरेया अपने नवजात बच्चे को जो कीट खिलाती है, वह मोबाइल टावरों से निकलने वाली लघु तरंगों के कारण नष्ट हो जाता है। पलेंगे कैसे गौरेया के बच्चे! ”
गौरेया ‘ पेसर ’ नामक चिड़िया के वंश की है। घरेलू माहौल में घुलमिलने की वजह से इसे वैज्ञानिकों ने “ पेसर डोमिस्टिकस ” नाम दिया है। गौरेया किसी परिचय की गुलाम नहीं है। इसकी चोंच, छोटी पतली टांगें और कोमल पंखों से पहचाना जा सकता है। नर की पहचान करना भी कोई मुश्किल काम नहीं है। उसकी पीठ के काले भूरे रंग और चोंच के बिल्कुल नीचे गर्दन पर काले धब्बे से पता चल जाता है कि यह चिड़ा है। इसका वजन 32 ग्राम तक और मादा का वजन 26 ग्राम तक हो सकता है। इनकी उम्र 13 वर्ष तक हो सकती है। जल और मिट्टी दोनों में नहाना इसे खूब पसंद है और वह दृश्य लाजवाब होता है।
नीड़ के लिए इसे मानव बस्ती ज्यादा सुरक्षित लगती है। घरों के आले इसकी प्राथमिकता हैं। उसके बाद यह बिजली या टेलिफोन के खंभों का सहारा लेती हैं। मानवों के साथ रहना गौरेया क्यों ज्यादा उपयुक्त समझती है , इसमें उसकी दूरदर्शिता झलकती है। खतरनाक प्राणी जैसे कि साँप, बाज, शिकरा पक्षी और कौव्वा मानव से स्वाभाविक भय खाते हैं और उससे दूरी बना कर रखते हैं। और गौरेया को इन्हीं से ज्यादा खतरा होता है। जबकि गौरेया जनमानस के पास नाममात्र की दूरी पर आराम से फुदकती रहती है। अपने हिस्से का दानापानी चुग लेती है।
सबसे ज्यादा दिक्कत गौरेया को अपने आवास के लिए आ रही है। इस दिशा में “बायोडाइवरसिटी एण्ड वाइल्ड लाईफ कंजर्वेशन लैब, युनिवर्सिटी ऑफ लखनऊ” ने प्रयोग आरंभ किया है। उसके तत्वाधान में लकड़ी के बक्से, जूतों के पुराने बॉक्स व मिट्टी के बर्तनों को इस तरह तैयार किया गया है कि उनमें गौरेया अपना घोंसला बना सके। इसी तरह भारतीय वैज्ञानिक मोहम्मद दिलावर द्वारा “ नेचर फॉरइवर सोसाईटी ” 2006 में शुरु की गई है। यह भी गौरेया के संरक्षण के लिए कई सारे उपक्रम कर रही है। इस ने प्रथम “ वर्ल्ड स्पैरो डे ” 20 मार्च, 2009 को भारत में मनाया था। नासिक के रहने वाले दिलावर ने 2005 में गौरेया पर एक अध्ययन किया और पाया कि इस चिड़िया की संख्यां में कमी आ रही है। पुस्तकालयों में जाकर पत्र-पत्रिकाओं को खंगाला। भारतीय कृषि अनुसंधान की एक रिपोर्ट के मुताबिक उसने पाया कि दक्षिण भारत में गौरेया की आबादी घट गई है । इसका कारण यह बताया गया कि आधुनिक वास्तुकला से बनाए जा रहे घर और सिकुड़ते बाग-बगीचे। उसमें यह भी बताया गया कि बढ़ते कीटनाशकों के प्रयोग ने इनकी प्रजनन क्षमता को भी बुरी तरह से प्रभावित किया है। अपने अध्ययन की पुष्टि होते ही मोहम्मद दिलावर ने गौरेया के सरंक्षण के लिए कमर कस ली। इसके लिए उसने बाघों के साथ काम करने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। गौरेया के लिए दिलावर ने लकड़ी के खास बक्से डिजाइन किए हैं और इन्हें बिना लाभ के बेच रहे हैं।
आप को मालूम है यह नन्हीं सी चिड़िया दो बड़े राज्यों का ‘ राज्य पक्षी ’ है। 9 जनवरी,2009 को बिहार के मुख्यमंत्री श्री नितिश कुमार ने गौरेया को राज्य पक्षी घोषित किया। दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित ने भी 15 अगस्त, 2012. के खास दिन गौरेया को राज्य पक्षी का सम्मान दे दिया। भारत सरकार द्वारा 9 जुलाई,2010 को गौरेया पर डाक टिकट जारी किया गया है। बंगलौर जैसे बड़े नगरों में गौरेया पर अंतर्राष्ट्रिय सम्मेलन भी किए जा चुके हैं। कई देशों ने इसे संकटग्रस्त प्राणियों की सूची में डाल दिया है ताकि इसके सरंक्षण की तरफ ज्यादा ध्यान दिया जा सके।
गौरेया मात्र एक चिड़िया नहीं है। यह हमारे लोकजीवन, साहित्य और संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके संवर्धन के लिए हमें यत्न करने चाहिए। घर में यदि एक दो आला इसके लिए बनादें तो साजसज्जा में कोई कमी नहीं आ जाएगी। हमारे कुछ दाने और अनाज ग्रहण करना इसका कुदरती हक है। इसके लिए खुले आँगन, बाग और छज्जे बनवाएं जहां ये आराम से चहके, फुदके और मनपसंद आहार प्राप्त कर सके। कीटनाशकों को अलविदा कहें इसकी जगह नीमपत्ती जैसे प्राकृतिक उपाय व्यवहार में लाएं। और अंत में महादेवी वर्मा की कविता -
कहां रहेगी
अब यह चिड़िया कहां रहेगी?
आंधी आई जोर-शोर से
डाली टूटी है झकोर से,
उड़ा घोंसला बेचारी का
किससे अपनी बात कहेगी?
अब यह चिड़िया कहां रहेगी?
घर में पेड़ कहां से लाएं
कैसे यह घोंसला बनाए,
कैसे फूटे अंडे जोड़ें
किससे यह सब बात कहेगी!
अब यह चिड़िया कहां रहेगी?
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हरदेव कृष्ण ,
ग्राम डाक – मल्लाह-134102
जिला पंचकूला (हरियाणा)
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उत्तम
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