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नाटक ‘भोला विनायक’ का अंतिम खंड 8
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
ठोक सिंहजी – [क़िस्सा बयान करते हुए, कहते हैं] – इस बात को हुए १५ वर्ष बीत गए। पर इस काल के हेर-फेर से, क्या विनायक की बातें बिलकुल बदल गयी?
रशीद भाई – मेरे ख्याल से विनायक की प्रकृति में बदलाव नहीं आना चाहिए। यह ज़रूर है, बालकपने की कच्चे कोमल भावों में युवावस्था की परिपक्वता मात्र आ जानी चाहिए। और हृदय विनायक का पहले संकुचित कलि के समान था तो अब विकसित फूल के समान अपने सुगन्धित मनोहारी गुणों से सबों के चित्त को प्रसन्न करता होगा।
ठोक सिंहजी – सच्च कहा, आपने। यही बात रही, जो विनायक का नाम लेता वह अवश्य उसकी प्रकृति की प्रशंसा करता। सहज विश्वास करने का स्वभाव और परोपकार करने के लिए सन्नद्ध रहने की इच्छा वयक्रम के साथ बढ़ती ही गयी। इसी कारण विनायक को आस-पास के सामान्य ही लोग नहीं, वरन ठाकुर साहेब तक प्यार करने लगे थे। यहाँ तक कि, अधिकतर समय अपना विनायक ठाकुर साहेब के यहाँ बिताता।
सावंतजी – अरे ज़नाब, वह पौरष, कर्त्तव्य-परायणता, उद्यम, उत्साह, धीरज, काम में मुस्तैदी, सौजन्य आदि उत्तम गुणों के कारण तीनों में छोटे से छोटे काम पड़ने के समय, विनायक को ठाकुर साहेब अमूल्य रत्न मानते होंगे। क्योंकि ठाकुर साहेब ने कई बेर इस बात को जांच लिया होगा कि, ऐसे जून पर केवल विनायक के उपस्थित रहने ही से सब लोग प्रसन्न के प्रसन्न रहते होंगे और चौकसी भी अधिक होती होगी।
ठोक सिंहजी – आपका अनुमान सही है, एक समय ठाकुर साहेब को कहीं जाने के वास्ते कुछ दूर की यात्रा करनी पड़ी। विनायक उनके संग था। ठाकुर साहेब के लोगों का पड़ाव, एक छोटे से जंगल में पड़ा था। रात भर के निवास के लिए अच्छी जगह पाकर, इस स्थान पर उतर पड़े थे।अभी सांझ न होने पायी थी। सूर्यदेव भी अपना प्रकाश जगत से खींचते हुए, जहां ठाकुर साहेब उतरे थे उसी पहाड़ी के पीछे अस्त हुआ चाहते थे।
रशीद भाई – वास्तव में, क्या प्राकृतिक छटा थी? दिल मुग्ध हो जाता होगा। आज़कल हम माउंट आबू में जाते हैं सन-सेट पॉइंट देखने, वैसा दृश्य इसी पहाड़ी के शिखर पर दिखाई दे रहा होगा?
ठोक सिंहजी – सही कहा, आपने। इस पहाड़ी का शिखर, इस कारण मानों स्वर्ण रंजित-सा हो रहा था। ऐसा ज्ञात होता था कि, नीचे की वन-भूमि से शोभा सिमट कर इसी एक शिखर पर पुंजित-सी हो रही है। इतना सुन्दर वह नीचे से लगता था, भले जाड़े का अवसान था अभी से हवा में कुछ ठंडक आ चली थी। विनायक सैर के वास्ते, इस टीले पर चढ़ गया। वहां उसने विचित्र दृश्य देखा। नीचे ही गोदावरी नदी की चद्दर का निर्मल जल अति वेग से एक पहाड़ी पर नीचे गिरता था।
रशीद भाई – वाकई प्रकृति की छटा निराली मालूम होती है।
ठोक सिंहजी – जी हाँ। और सायं काल की लालिमा में इस जल के शुभ्र रंग के मोटी धारा की कुछ अद्भुत ही शोभा थी। यहाँ के वायु में जो जल कणों की ठंडक भर रही थी, उससे राह के थके विनायक को अत्यंत सुख मिला। नीचे उतरकर एक छोटे चट्टान पर अपने हथियार रख, मुंह-हाथ धो पानी पीने लगा। अभी प्यास भर पी न चुका था कि, पास ही जो नीचे दरी थी उसमें उसे शस्त्रों की झनकार सनाई दी...और ऐसा मालूम हुआ कि, दो-तीन आदमी लड़ रहे हैं।
सावंतजी – लो यह माता का दीना, अब तलवार लिए दौड़ा होगा उधर...आखिर जवानी का खून जो उबाल खा रहा होगा?
ठोक सिंहजी – बात यही थी, आखिर जवान खून था। वह कैसे वहां शांत बैठा रह पाता? अपनी तलवार भी हाथ में ले विनायक चट उधर दौड़ा, पर वह कभी इस जगह पहले आया न था इससे रास्ता तो मालूम था नहीं और इसके अतिरिक्त जहां से लड़ाई का शब्द आया था वहां पर पहुँचने में फिर भी चार-पांच मिनिट लगता इसलिए जब तक में विनायक वहां पहुंचे तब तक में शस्त्र की झंकार बंद हो गयी और कोई दूसरा शब्द न सुनायी देता था कि जिसके सहारे पर चलकर कोई बात देखें या तय करें।
[अब सावंतजी और रशीद भाई की आँखों के आगे उस पहाड़ी इलाके का मंज़र सामने आ जाता है, विनायक वहां एक क्षण जहां का तहां खड़ा रह जाता है। वह समझ रहा है कि, अभी यहाँ कुछ लोग लड़ रहे थे अब मेरे आते ही कदाचित विध्न होने की या डर की शंका से कहीं चले गए। यह बात उसके मन में आते ही वह यों समझ रहा है वे लोग फिर पास ही कहीं जाकर लड़ेंगे। इस विचार से, वह चारों तरफ़ देखता है। कुछ दूर, चोटी के पास ऊपर चढ़ते हुए दो मनुष्य दिखाई देते हैं। जो उसको ओर पीठ किये चले जा रहे हैं। ये दोनों ऐसे निराकुल भाव से ऊपर जा रहे हैं कि, उनको देखकर वह इस बात की ओर बिलकुल ध्यान नहीं दे रहा है कि ‘ये ही लोग यहाँ लड़ते थे।’ तभी पास ही किसी इंसान के कराहने कर चिल्लाने की, दारुण आवाज़ उसको सुनायी देती है। पीछे फिरकर वह देखता है कि, जो पास में जो गुफा है उसके सामने के पेड़ की आड़ में एक जवान पड़ा है। विनायक समझ जाता है कि, यही पुरुष लड़ रहा था, जो घायल होकर पेड़ के नीचे पड़ा है। देखने पर उसे मालूम होता है, उसके सर और मौढ़े में गहरी चोट आयी है। उस वक़्त विनायक से कुछ न बन पड़ता है, बस वह दौड़कर झरने से शीतल जल लाकर उसके मुंह पर छोड़ता है। रुधिर की धारा उसके घावों से निरंतर बहती जा रही है। ऐसा लग रहा है, वह इंसान अब थोड़ी देर का इस दुनिया का मेहमान है। विनायक अब उसे गौर से देखता है, तब उसे मालूम होता है कि यह वही डाकुओं का सरदार है जो १५ वर्ष पहले अपने साथियों के साथ उसके घर को लूटने आया था। वह उसकी ज़िंदगी की ऐसी घटना रही थी, जिसे वह भूल नहीं सकता था। इन डाकुओं के चेहरे उसके दिमाग़ पर ऐसी अमिट छाप छोड़ गए थे, इसी कारण वह इन डाकुओं की शक्ल अभी-तक भूल नहीं पाया। इस समय सरदार की ऐसी दशा देखकर विनायक बहुत दुखी हो जाता है, इस सरदार का वह प्रीतियुक्त स्मरण अभी भी उसके दिमाग़ में अंकित है। सरदार ने उस वक़्त दया करके, इसके घर को न लूटा था। इस वास्ते विनायक, उसे होश में लाने का यत्न करने लगा। सरदार के ये घाव ऐसे भी नहीं हैं, जो पट्टी बांधने से इसके बह रहे खून को रोका जा सके। थोड़ी देर बाद, सरदार होश में आता है, वह आँखें खोलता है..सामने एक सुन्दर हथियारबंद नवयुवक को अपनी चिकित्सा में लगा हुआ पाता है। विनायक को चिकित्सा में लगे देखकर, सरदार उससे पूछता है।]
सरदार – [दर्द से कराहता हुआ, कहता है] – कौन हो?
विनायक – [होंठों में ही, कहता है] – अभी सरदार को अपना परिचय देना अच्छा नहीं है। [प्रगट में, कहता है] यहाँ जो ठाकुर साहेब का डेरा पड़ा है, हम उन्ही के संग हैं।
[यह सुनकर, कुछ हर्ष सा हुआ और उसकी आँखें जो बंद हुई जाती थी अब कुछ खुल गयी है और वह कहता है।]
सरदार – यदि दया करके मरते हुए आदमी का एक काम कर देते, तो बड़ा अहसान होता।
विनायक – [हर्षित होकर, कहता है ] – जो कहिये।
सरदार – तुम्हारे यहाँ विनायक नाम का एक आदमी है, जिसको ठाकुर साहेब बहुत मानते हैं। उससे यदि हमारा एक संदेशा कह देते तो बड़ा काम होता, क्योंकि हमें अच्छी तरह विश्वास है कि अब इस समय उसे स्वयं बुलाकर कहने का समय नहीं है। जब से तुम जाकर कहोगे और जब से वह आवें तब से तो हमारा काम हो जायेगा। इसलिए भाई तुम्हीं उससे कह देना और तुम्हारे सूरत से हमें विश्वास होता है कि जैसे हम तुमसे कहते हैं वैसे ही तुम उससे भी कह दोगे। पर तनिक दूसरा, इस बात को जानने न पावें।
विनायक – [कुछ कुतूहल मिली हुई श्रद्धा से, विनायक कहता है] - नहीं, नहीं। हम आपको भरोसा दिलाते हैं कि, सिवाय विनायक के और किसी के कान में इसकी भनक भी न पड़ेगी।
सरदार – पहले तो उससे कहना कि, हम स्वयं आकर उससे यह बात न कह सके...
[इतना कहने के बाद, सरदार आगे बोल नहीं पा रहा है। शायद ऐसा लगता है निर्बलता या किसी कारण से वह कुछ ठहर सा जाता है। विनायक समझता है, शायद सरदार कुछ कहने में हिचकिचा रहा है। तब वह उसे समझाता हुआ कहता है।]
विनायक – आप कुछ भी संदेह मत कीजिये आप यही समझें कि, विनायक आपके सामने खड़ा है। और आप, उसे ही अपना हाल कह रहे हैं।
सरदार – अच्छा तो उससे कहना उसको याद होगा। पर क्यों याद होगा, इसको तो पंद्रह वर्ष से भी अधिक हुए। खैर तुम यह कहना कि, एक दिन गरमी के दिनों में तड़के..पर यदि उसको न याद हुआ तो क्या करोगे? आह।
[इतना कहकर सरदार दु:ख से कुछ मुर्च्छित-सा हो जाया चाहता था कि विनायक ने उसे संभाल लेता है। और कुछ यत्न के उपरांत उसको होश में लाकर फिर वह उसे आश्वासन देता है। चेत जाने पर, सरदार यों कहता है।]
सरदार – [चेतन होकर, कहता है] – गरमी के एक दिन तीन डाकू विनायक के घर आये थे। उसे कहना कि, उसको याद होगा कि..
विनायक – उसको याद है ..!
[सुनकर सरदार चौंक जाता है, और विस्मित होकर कहता है।]
सरदार – [विस्मित होकर, कहता है] – तुमको कैसे मालूम कि याद है?
[विनायक को अपनी चूक मालूम हो जाती है, अब वह अपनी भूल सुधारता हुआ यों कहता है।]
विनायक – हमको मालूम है। इस सन्दर्भ में, विनायक और उसके पिताजी से मेरी बातचीत हो चुकी है।
[इससे सरदार को कुछ और ज्यादा तसल्ली हो जाती है। फिर, वह कहता है।]
सरदार – खैर, अब हम बेखटके तुमसे सारा हाल कह देंगे। क्योंकि, ऐसा लगता है तुम विनायक के मित्र ही मालूम होते हो।
[कुछ श्रम के उपरांत सरदार पीड़ा को सहन करता हुआ कहता जा रहा है। दर्द नाकाबिले बर्दाश्त ठहरा, इस कारण उसके वाक्य कहीं-कहीं टूटते जा रहे हैं।]
सरदार – [दर्द बर्दाश्त करता हुआ, कहता है] – उन डाकुओं का एक सरदार था जिसके साथ विनायक ने ऐसा सलूक किया जिससे वह सरदार अपने साथियों का ख्याल न करके विनायक का आमंत्रण पाकर वह सीधा उसके घर में दाख़िल हो गया। मगर उसने वहां पड़ी एक भी वस्तु के हाथ नहीं लगाया और वापस अपने साथियों के साथ वापस चला गया। उस दिन से उसके साथियों के साथ, खटपट बराबर चलती जा रही है। उसके बाद कई जगह..
[यहाँ से आगे सरदार मानों अपना हाल कह चला बिना रुके। वह बताता जा रहा है, कि ‘कई बार इसके साथी उससे दबते रहे और कई बार उसके साथ खुलकर लड़ाई भी करते रहे। मगर, उसका प्रयास यही रहता कि वे किसी पर जुल्म न करें। अभी इन लोगों ने सुना है कि, ठाकुर साहेब का डेरा यहाँ पड़ा हुआ है और यह भी सुन चुके हैं कि विनायक उनके संग है और उसको ठाकुर साहेब बहुत मानते हैं।’ इतनी बात कहता हुआ वह ठहर जाता है, अब उससे कष्ट के साथ बोला जा रहा है इससे विनायक को बहुत दु”ख पहुंचता है। वह मुंह फेरकर अपनी नाम आँखों से आंसू पोंछ लेता है। अब उसे सरदार की दर्द से भरी आवाज़ सुनायी देती है।]
सरदार – [दर्द को बर्दाश्त करता हुआ, कहता है] – नि:संदेह विनायक इसी योग्य है कि उसे सब मानें। यदि हमारा ऐसा साथी होता तो आज़ हमारी यह दशा न होती। पर भला कहाँ विनायक, और कहाँ हम? कहीं इस योग्य हैं कि, वह हमारा साथी हो? अच्छा है, वह जहां है वही रहे।
[इतना कहकर इसी बात को सोचता हुआ, सरदार बहुत संताप करता नज़र आने लगा। मगर विनायक उसकी पीड़ा कुछ नहीं समझ नहीं पा रहा है। मगर उसे मालूम हो जाता है कि, सरदार अब भावना में बहकता जा रहा है। अब वह संदेशा कहने के स्थान पर अब वह अपने जीवन की पिछली बातों पर, सोचता जा रहा है। अचानक, सरदार स्वयं बोल उठता है।]
सरदार – हमारी केवल इतनी सी अभिलाषा थी कि एक बार और विनायक से मिल पाता और विनायक से मिलते ही उससे अपने अपराधों की क्षमा मांग लेता। पर भगवान की तो कुछ और ही इच्छा थी। आह। अब हम इस योग्य नहीं हैं कि हम विनायक ओ हम अपना मुंह दिखावें।
[इतना कहकर, सरदार फूट-फूटकर रोता है, सरदार की ऐसी स्थिति देखकर अब विनायक से रहा नहीं जाता, और वह कह उठता है।]
विनायक – सरदार यदि विनायक तुम्हारे सामने आ जाय तो, क्या आप उसे पहचान लेंगे?
सरदार – क्यों नहीं, तुम्हारे पूछने का या तात्पर्य है?
विनायक – [धीरे से, कहता है] – सरदार। विनायक तो आपकी सेवा में कब का खड़ा है। ऐसा तुमको भूलना न चाहिए।
सरदार – [आश्चर्य से चौंकता हुआ, कहता है] – ओ हो हो..., तुम विनायक हो?
[अब सरदार उछ चेतकर, यत्न पूर्व आंखें खोलार उसे ग़ौर से देखता है, और उसे पहचान लेता है। अब वह उसके पैर गिरने की चेष्टा से उठना चाहता है पर बदन पर लगे घाव उसे उठने नहीं देते हैं। तब वह प्रीति से विनायक का हाथ पकड़कर, क्षण भर चुप-चाप लेटा रहता है। और उसकी नाम आंखों से अविरल प्रेमाश्रु बहने लगते हैं। विनायक की आंखों में आंसू भर आते हैं और वह भी चुप रहता है। कुछ देर बाद, सरदार कहता है!]
सरदार – विनायक। हमें मालूम होता है कि, अब मौत हमको तुमसे बहुत कम बतियाने देगी। पर हमको कुछ भी शोक नहीं, हमारी अभिलाषा अब पूरी हो गयी। आज़ हम जिस काम के लिए तुम्हारे पास स्वयं आते थे वह काम..वह काम हो गया। विनायक जब हमको मालूम हुआ कि, तुम यहीं हो तो हमने इरादा किया कि इसी न इसी ढब से तुमसे मिलते। आज़ हमारे साथियों का इरादा है कि रात को ठाकुर साहब के माल पर छापा मारें।
विनायक – आपने ज़रूर, उन लोगों को रोका होगा?
सरदार - हमने उनको मना भी किया, पर उन लोगों ने न माना। इतने दिन मैं उनका सरदार रहा हूँ, केवल इसी कारण कभी-कभी मुझसे कुछ दबते हैं। नहीं तो भला कौन किसकी सुनता है? और फिर मिलते हुए माल को छोड़ना तो वे लोग अपने धर्म के विरुद्ध समझते हैं। आज़ सांझ को मैंने इरादा किया कि जो चाहे सो हो पर एक बेर तुमसे मिलकर और सब हाल तुमसे कहकर इन लोगों का साथ सदा के लिए छोड़ दूं। इसी इरादे से मैं चला था कि, इस गुफा तक आते-आते मेरे साथियों ने मुझे घेर लिया।
विनायक – फिर?
सरदार - मुझसे पूछा कि, कहाँ जाते हो? मैंने कहा विनायक के पास। यह कह सुनकर वे जल उठे और हथियार लेकर मुझ पर दौड़े। वे दो थे और मैं अकेला। एक के वार से अपने-आपको बचा लिया, मैंने। मगर, दूसरे के वार को मैं झेल न सका और उसने मुझको घायल कर डाला। पर हर्ज़ नहीं, मौत आने का अब हमें तनिक भी रंज नहीं पर हाय हम क्षमा तुमसे किस मुंह मांगें?
[अब इस सोच में सरदार व्याकुल हुआ चाहता था, मगर विनायक उसे दिलासा देता हुआ कहने लगा।]
विनायक – सरदार क्षमा करने वाला केवल एक ही है, वह है भगवान। तुम उसी से क्षमा मांगो।
सरदार – उससे भला मैं किस तरह मांगूं? बिना तुम्हारे क्षमा किये तो मैं उसका नाम लेने लायक नहीं हो सकता।
[सरदार की आयु का दीपक धीरे-धीरे बुझता जा रहा है, तब विनायक उसकी ऐसी स्थिति देखकर उसे कहता है।]
विनायक – अस्तु। यदि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को क्षमा कर सकता है तो मैं तुमको दिल से क्षमा करता हूँ और ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि, वह भी तुम्हारे पापों को क्षमा करें।
[अब सरदार में बोलने की शक्ति न रहती है। विनायक के इन वचनों को को सुनते ही, सरदार अपनी आँखें बंद कर लेता है। और “ईश्वर कल्याण” इस तरह के कुछ शब्द कहकर, चुप हो जाता है। और उसके अंग-अंग शिथिल और ठन्डे पड़ जाते हैं। इस मंज़र को देख रहे विनायक की आँखों से, आंसू बहने लगते हैं। अब वह स्वर्गारोहण करने वाली सरदार की आत्मा को नमन कर ठाकुर साहेब के डेरे की ओर अपने क़दम बढ़ा देता है। मंच पर अँधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच रोशन होता है। ठाकुर साहेब के डेरे का मंज़र सामने आता है। वह डाकूओं द्वारा छापा मारने की पूर्व सूचना ठाकुर साहेब को अवगत करवाकर, अब वह उनसे डाकूओं से मुकाबला करने की योजना पर विचार-विमर्श करता है।]
ठाकुर साहेब – विनायक अच्छा रहा तूने बता दिया कि, आज़ डेरे पर डाकूओं का हमला होगा। अब तुम इस योजना के अनुसार सभी रक्षकों को सावधान कर दो। आधी रात को धावा बोला जाएगा, सभी रक्षकों को मुस्तैद कर देना।
विनायक – मालिक, ठीक है। आपका हुक्म तामिल होगा।
[विनायक चला जाता है, मंच पर अन्धेरा छा जाता है। मंच रोशन होता है, रात का मंज़र नज़र आता है। आधी रात न होने पायी है कि, दस-बारह आदमियों का दल ठाकुर साहेब के डेरे पर आ टूटता है। इन आदमियों की संख्या से ज़्यादा तो ठाकुर साहेब के आदमी है। इसलिए, इन डाकुओं की एक न चलती है। इस लड़ाई में दो-तीन इधर के घायल होते हैं, और दो-तीन उधर के घायल होते हैं। प्रात:काल होने पर लोगों को दो डाकुओं की लाशें नज़र आती है, जो रात की लड़ाई में ठाकुर साहेब के आदमियों के हाथों मारे गए हैं। चेहरे पर लगे घावों के कारण इन डाकुओं की सूरत बिगड़ गयी है। अब विनायक को ऐसा लगता है कि, इन दोनों डाकू को उसने कभी देखा है? मंच पर अँधेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है। रेल गाड़ी का मंज़र सामने आता है। रेल गाड़ी पटरियों पर तेज़ रफ़्तार से दौड़ रही है। किस्सा समाप्त हो गया है, ठोक सिंहजी चुप होकर रशीद भाई की तरफ़ देखते हैं। बैठे-बैठे रशीद भाई की कमर में दर्द पैदा होने लगा है। इसलिए अब रशीद भाई दोनों हाथ ऊपर ले जाते हुए, अंगड़ाई लेते हैं। इस अंगड़ाई के साथ-साथ, उनके पिछवाड़े से तेज़ आवाज़ के साथ तोप छूट जाती है। बदबू फैलते ही, अब, पड़ोस के केबिन में बैठी हमीदा बी उस दुर्गन्ध को बर्दाश्त नहीं कर पाती। वह वहीं से चिल्लाती हुई ज़ोर से कहती है।]
हमीदा बी – [ज़ोर से, कहती है] - पादा रे, पादा।
कमालुद्दीन – किसने पादा? अल्लाह की कसम, मैंने नहीं पादा।
हमीदा बी – [गुस्से से उफ़नती हुई, कहती है] – तुम्हें कहा, किसने? तुममें कहाँ है, इतनी हिम्मत..जो तुम मेरे सामने सामने पाद सको?
नूरिया – [भूतों का ख़्वाब देखता हुआ, ऊंघ में चिल्लाकर कहता है] – अम्मी..तुम अम्मी नहीं हो, भूतनी हो। गाज़ा रे, गाज़ा..ज़ोर से गाज़ा। अम्मी...
[वह आगे क्या बोल पाता, बेचारा? क्योंकि हमीदा बी उठकर, एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर रसीद कर देती है। फिर, शेरनी की तरह गरज़ती हुई चिल्लाकर कहती है।]
हमीदा बी - [नूरिये के गाल पर थप्पड़ रसीद करती हुई, कहती है] – हरामी के बच्चे। मैं तेरी मां हूँ, भूतनी नहीं हूँ। अब सुना तूने, मेरे झन्नाटेदार थप्पड़ की गाज़? अब पड़िया-पड़िया क्या ऊंघ ले रिया है, कमबख्त? जा, पास वाले केबिन में, और पकड़कर ला इस अब्दुल अज़ीज़ के नेक दख्तर रशीदिये को। आज़ तो मैं, इस कमबख्त रशीदिये का पादना भूला दूंगी।
नूरिया – [ऊंघ से उठता हुआ, कहता है] – अरे अम्मी..! [अंगड़ाई लेता हुआ, कहता है] आहा आहा..क्या कहा, अम्मी? अब किसे सुलाने का कहती जा रही हैं, आप? मैं तो पहले से ही सो रहा था, और अब आपका हुक्म हो तो एक बार और झपकी ले लूं?
हमीदा बी – [गुस्से से, बिफ़रती हुई कहती है] – कैसी औलाद पैदा की मेरे इस बेलखन के शौहर ने? सुनता नहीं, कमबख्त? [नूरिये का कमीज़ पकड़कर, उसे खड़ा कर देती है, फिर आगे उससे कहती है] अब जा, मरदूद पास वाले केबिन में। और पकड़कर ला, उस रशीद को। साले को ठोक-ठोककर, उसको तोप छोड़ना भूला दूंगी।
[नूरिया लड़खड़ाता हुआ, पास वाले केबिन की तरफ़ क़दम बढ़ा देता है। उधर बाबा का हुक्म मिल जाने से रशीद भाई झट सीट से उठ जाते हैं, और बैग से साबुन की टिकिया और नेपकीन निकालकर दोस्तों से कहते हैं।]
रशीद भाई – अब बाबा का हुक्म मिल गया है, अब चलते हैं। किसी को चलना है साथ में, निसंकोच चलिए मेरे साथ में।
ठोक सिंहजी – ले जाइये, ज़रूर ले जाइए चाची हमीदा बी को। कब से, आपकी की शान में कशीदा निकाल रही है?
[हमीदा बी का नाम सुनते ही, रशीद भाई घबरा जाते हैं कहीं यह बुढ़िया खूसूट यहाँ आ गयी तो ख़ुदा जाने क्या हाल बना देगी मेरा? यह सोचकर रशीद भाई तपाक से अपने क़दम बढ़ा देते हैं, पाख़ाने की तरफ़। उनके जाने के बाद नूरिया आता है, केबिन में। और पूछता है, रशीद भाई के बारे में।]
नूरिया – कहाँ चले गए, रशीद भाई?
ठोक सिंहजी – [हंसते हुए, कहते हैं] – भाई नूरिये, अगर तू रशीद भाई के पास जाना चाहता है तो चला जा बाएं से बाएं।
सावंतजी – पीर बाबा दुल्हे शाह के हुक्म से आली ज़नाब बहुत खुशबूदार स्थान पर बैठने गए हैं, अब तू भी वही चला जा खुशबू लेने। साथ में ले जा, चाची को। वह बार-बार याद करती जा रही है, रशीद भाई को।
नूरिया – अम्मी से कह देता हूँ, पहले। वहां बैठकर मैं भी नींद ले लूंगा। ठंडी-ठंडी सुंगंधित हवा के झोंके आते रहेंगे, और मैं आराम से नींद लेता रहूँगा।
[तभी सी.आई.डी. टीम का सिपाही चम्पा लाल आ जाता हैं, वहां। यह वही सिपाही है, जिसने तस्कर सौभाग मलासा को रंगे हाथ पकड़ने के लिए सी.आई.डी. इन्सपेक्टर गुलाब सिंह के साथ चम्पाकली नामक हिज़ड़ा बनकर इस गाड़ी में रोज़ आने-जाने की यात्रा की थी। [पढ़िए पुस्तक – हास्य नाटक कहाँ जा रिया है, कढ़ी खायोड़ा] अब यह चम्पाकली पुरुष वेश में सिपाही बना आता है, मगर नूरिये की आँखों से वह बच नहीं पाता। वह झट, उसे पहचान लेता है। और उसके दिमाग़ में, वे सारी पुरानी सारी यादे उभर आती है। याद आ जाता है, उसने किस तरह इस हिज़ड़े चम्पाकली के घागरे का नाड़ा खोला डाला था? और यह चम्पाकली नूरिये को लात मारकर उस दिन बच गया, और तपाक से उसने अपना घागरा थाम लिया था। न तो वह उस दिन सरे आम नंगा हो जाता, बेचारा। याद आते ही वह तपाक से जाता है, उस चंपा लाल के निकट। और झट उसकी पतलून के बटन खोलने के लिए पकड़ लेता है, उसकी पतलून। फिर चिल्लाकर, कहता है।]
नूरिया – [पतलून पकड़े, ज़ोर से कहता है] – पकड़ लिया, पकड़ लिया..
हमीदा बी – [नूरिये की आवाज़ सुनकर, अपने केबिन में बैठी हमीदा बी ज़ोर से कहती है] – वहां क्या ऊबा है, कमीने? इस कमीने को, यहाँ पकड़कर ला। आज़ तो मैं इसको इतना मारूंगी, जितना उस फुठर मल को न पीटा होगा।
[फुठर मलसा की पिटाई को यह चम्पा लाल कैसे भूल सकता है, यह गधा तो उस वक़्त प्रत्यक्षदर्शी गवाह रहा है उसने यह पिटाई अपनी आँखों से देखी थी। अब बेचारा हमीदा बी की गरज़ती आवाज़ को सुनकर सहम जाता है, उसके मुंह से एक शब्द नहीं निकल पाता? नूरिया उसे घसीटता हुआ, अपने केबिन में ले आता है।]
नूरिया – ले आया अम्मी। [उसे पटक देता है, हमीदा बी के पांवों में] अब आप इस हिज़ड़े के मालीपन्ने उतार डालिए, कमबख्त ने मेरे मोरों पर लात मारी थी...उस रोज़।
[हमीदा बी उस चम्पा लाल का चेहरा देखती है, उसके चेहरे की रंगत उतर गयी है। डरा हुआ चम्पा लाल मिमिया रहा है। उसका चेहरा देखकर, हमीदा बी के मुंह से हंसी फूट पड़ती है। वह ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसती है। अब तो चच्चा कमालुद्दीन भी, उसे पहचान जाते हैं। वे भी हंसी में उसका साथ देते हैं। अब पूरे डब्बे में, हंसी के ठहाके गूंज उठते हैं। अब सबके मुख से एक ही वाक्य निकल जाता है “वाह रे, वाह। यह चम्पाली हिज़ड़ा तो कमाल का रहा।” रशीद भाई पाख़ाने से निपटकर आ जाते हैं, अपने केबिन में। साबुन की टिकिया और नेपकीन को वापस रख देते हैं, अपने बैग में। तभी गाड़ी का इंजन ज़ोर से सीटी देता है, अब गाड़ी की रफ़्तार कम होती जा रही है। पाली का स्टेशन आ जाता है, अब सभी यात्री प्लेटफार्म पर उतर आते हैं। सावंतजी, रशीद भाई और ठोक सिंहजी बैग थामे प्लेटफार्म पर उतर आते हैं। तभी उनको नूरिये की तेज़ आवाज़ सुनायी देती है, वह कह रहा है “आज़ पकड़ा गया, गुलाबो हिज़ड़ा।” ये लोग, पीछे घूमकर क्या देखते हैं? वह नूरिया गुलाब सिंह इन्सपेक्टर की पतलून पकड़े खड़ा चिल्लाता हुआ कह रहा है। और साथ में, वह अपनी अम्मीजान को पुकारकर बुला रहा है।]
नूरिया – अरे ओ, अम्मीजान। झट इधर आइये, मैंने गुलाबा हिज़ड़े को पकड़ रखा है। आइये, देखिये। आज़ गुलाबो हिज़ड़ा, मर्द कैसे बन गया?
[चारों ओर हंसी का माहौल बन जाता है, हंसी के फव्वारे छूटते हैं। बेचारे गुलाब सिंह का चेहरा अब देखने लायक हो जाता है, अब-तक किसी को उसके हिज़ड़ा बनकर जासूसी काम करने की जो बात मालूम न थी..वह बात अब सबको मालूम हो गयी है। इधर हंसी के ठहाके लगाते हुए सावंतजी, रशीद भाई और ठोक सिंहजी पटरियां पार करके दफ्तर जाते नज़र आ रहे हैं। मंच पर, अँधेरा छा जाता है।]
पाठकों से मिवेदन -: अभी-अभी आप, मेरी लिखी गयी पुस्तक नाटक “भोला विनायक” पढ़ चुके हैं। कहिये, यह पुस्तक आपको कैसी लगी? कृपया आप मेरे ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com पर आप अपने विचार भेजकर मुझे अवगत करें कि यह पुस्तक आपको कैसी लगी।
आपका हितेषी
दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक]
निवास -: अँधेरी-गली, आसोप की
पोल के सामने, जोधपुर [राजस्थान.]
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[समाप्त]
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