संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 94 : मेरी शुक्रवारी यात्रा // समीक्षा तैलंग

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समीक्षा तैलंग प्रविष्टि क्र. 94 मेरी शुक्रवारी यात्रा समुंदर की यात्रा शुक्रवारी होती जा रही है. जैसे मंगल-बुध की हाट हो... हर शुक्रवार आँ...

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समीक्षा तैलंग

प्रविष्टि क्र. 94

मेरी शुक्रवारी यात्रा

समुंदर की यात्रा शुक्रवारी होती जा रही है. जैसे मंगल-बुध की हाट हो... हर शुक्रवार आँख खुली नहीं की सुबह समुंदर के किनारे. जहां, किनारे कभी नहीं मिलते.... बगैर मिले ही न जाने कितनी ही अनगिनत कहानियाँ गढ़ जाते हैं. हर कहानी का अपना अलग पहलू. शुद्ध कहानियाँ, देसी किरदार... लेकिन रंगीनीयत से भरे. ये रंगीनीयत न तो बेआबरू होते जिस्म की है और न ही उन तमाम जामों में बसे धुआँ उड़ाते शहरों की.... इस जहां में सब कुछ वैसा नहीं जिसे हम उथली आँखों से देखते हैं. गहराइयों तक पहुँचने के लिए गहरापन जरूरी है. जो अंधकार में उजलापन ढूंढ सके.

एकटक निगाहें घूरती जा रही थीं, उन बेजान पत्थरों को.... तेज होती सूरज की किरणें सीधे पानी पर पड़ती.... कहीं पानी हरा तो कहीं नीला दिखाई देता... मानो इंद्रधनुष आसमान से उतरकर समुंदर को सलामी ठोक रहा हो. किनारे पर बड़े-बड़े पत्थरों की बाड़ बनी है जिस पर मेरा ठिकाना होता है.... घंटों बैठती हूँ.... उन लहरों को आते-जाते देखना मन को तरोताजा करता है. हरेक लहर अपना सुख-दुख का अनुभव लेकर आती और लौट जाती. बाड में से खिसके हुये कुछ छोटे पत्थर किनारे पर धँसे हैं. जिन से लहरें बार-बार टकराती.... सूरज की किरणें जब पानी पर पड़ती, तब वे डूबे हुये पत्थर सोने के दिखने लगते. जैसे सोने की लंका की कुछ शिलाएँ बहकर वहाँ बस गई हों. वैसे भी रावण की लंका में कौन रहना चाहता है. न... जान, न... बेजान... कोई नहीं...

जैसे ही लहरें पीछे की ओर खुद को धकेलती, ये धँसे हुये पत्थर अपनी असली पहचान कराते. मान गई थी, हर पीली चमकदार चीज सोना नहीं होती. पर कुछ लोग ऐसे ही लाल-पीले हुआ करते और कुछ.... सोना न होते हुये भी तासीर से सोना ही रहते. पानी में पड़े उन छोटे पत्थरों के आसपास छिंगुली बराबर मछलियाँ अपने शिकार के इंतज़ार में सर...सरर... कर पलक झपकते ही इधर से उधर तेजी से निकल जाती. हर बार यही लगता कि शायद अभी-अभी यही वाली गुजरी थी. इसी तरह मनुष्य के झुंड में मनुष्य की पहचान बहुत कठिन है. कोई चारा डालता है, मछली फंसाने. जो एक्सपर्ट होते हैं, वे अपने जाल में सब तरह की मछलियों को आसानी से फंसा लेते हैं. शौकिया लोग हैं.... हफ्ते भर के खाने की तैयारी कर ही वहाँ से विदा होते हैं.

उन पत्थर को धकेलते हुये अंदर तक गुजरने की कोशिश में मेरी नजरें न जाने किन-किन रहस्यों को टटोलती आगे बढ़ती जा रही थीं. धँसती हुई रेत और उसमें धँसे बड़े-बड़े जीवित शंख. अनगिन रंगों से बने ये सीपी और शंख गवाह थे, कि ऊपरी सतहों पर हमेशा ही सब कुछ रंगीन होता है..... जैसे कोई जादू-नगरी.... ये इस बात का भी द्योतक हैं कि ईश्वर रचित सारी कायनाथ में सारे रंग शामिल हैं. पर आखिर में सारे रंग मिलकर उस काले रंग से सफेदा तैयार करते हैं. शुभ्र सफ़ेद... श्वेत-श्याम का भेद जानने का यह अंतिम मार्ग है. इस मार्ग पर पहुँचते-पहुंचते सत्य पूरा सफ़ेद होने लगता है.

रेत आगे-आगे और और धँसती जाती है. रेत का धंसना और पानी का गहरा होना समानान्तर चलता जाता है. वहीं ढेर सारे कवक, अलग-अलग प्रजातियों के, मुझसे मिलने आतुर थे. पर मैं उन सबसे अनजान थी. इसलिए परिचय होने में जरा वक्त लगा. लेकिन वक्त के साथ-साथ आगे बढ़ती नजरें सबको अपने में समेटती हुई बढ़ती जा रही थी. अलग-अलग आकृति और भुजाओं वाले शैवाल, जैसे स्वागत के लिए ही बिछे हुये हों. उनको शायद मनुष्यों का साथ थोड़ा भाता है. तभी जल्द ही दोस्ती करने में माहिर थे.

मेरी आँखें अब और तेजी से पानी को भेदती हुई बढ़ती जा रही थी. पानी की धार के विपरीत बढ़ना बड़ा ही कष्टप्रद होता है. पर यह एक अत्यंत सुखद अनुभव था. इसीलिए उस कष्टप्रद यात्रा को झेलने के लिए बार-बार तैयार.... आगे बढ़ने पर छोटे-छोटे टीलेनुमा आकृति कुछ चकित करने वाली थी. ऐसा लग रहा था- कोई व्यक्ति एक पैर पर खड़ा हो तपश्चर्या कर रहा हो. दो भुजाएँ ऐसी, जैसे प्रणाम की मुद्रा में जुड़ी थीं. दो और भुजाएँ दूर तक फैली हुई थी. जिस पर कुछ गोल आकृति के शैवाल लिपटे हुये थे रुद्राक्ष की माला की भांति. गले में एक विचित्र सर्पाकार शैवाल था. आभास सर्प का ही हो रहा था, उससे.... एक शिव रूप.... शैवाल में शैव भी और शव भी.... पर दोनों ही अ-शव की स्थिति में... पूर्णतः जागृत....

उफ़्फ़.... क्या था यह अनुभव- विचित्र किन्तु सत्य.... फिर सत्य था तो विचित्र क्यों? जिज्ञासा अधिक बढ़ने लगी... पलकें अपलक ही रहीं... यात्रा का संघर्ष और आकर्षण दोनों ही आनंददायक था. ये क्या?? आगे बढ़ने पर मेरी आँखें भौचक्की रह गईं. पूरा का पूरा ब्रह्मांड जैसे इसी समुंदर में समाया हो... हिमालय-सी दिखने वाली ऊंची-ऊंची पर्वत शृंखलाएं, बड़े-बड़े दैत्याकार वृक्ष, न जाने कितनी ही आकृतियाँ जो बार-बार उनके मानव होने का अहसास करा रही थीं. क्या यही वह जगह थी जहां मनुष्य देह त्यागने के बाद आता है? क्यों मेरी आँखें सब देखकर पथरा गई थीं? ये मानवकृति इस समाधि की अवस्था में क्या कर रही थी? क्या ऐसा ही अनुभव होता है जब मनुष्य समाधि में होता है? उन मानवों के बीच कुछ असुर भी थे. कोई अनगिनत मुंडों वाले थे तो कोई अनगिनत भुजाओं वाले... पर मेरी आँखें अभी थकी नहीं थीं. किस खोज में थी, इसका अंदाजा मुझे भी नहीं था. लेकिन वो जो भी खोज रही थी, बहुत ही रहस्यमय था. शायद ये इसी बात को इंगित कर रहा था, पृथ्वी के रहस्यों की खोज जारी रहनी चाहिए.... इतना आसान नहीं उसके रहस्य जानना, न ही खुद के अस्तित्व को जानना आसान है. जिस दिन गर्भ को जान लिया, ब्रह्मांड को जानना आसान हो जाएगा.

उन पर्वतों से गुजरना सुगम्य बिलकुल नहीं था.... जितने जानवरों को हम धरती पर देखते हैं, उससे कहीं अधिक इस पाताल लोक में थे. बहुत ही अलग.... हम जो जानवर देख पाते हैं उससे हजारों गुना अधिक बड़े आकार और प्रकार के प्राणी उस लोक में थे. पृथ्वी का पूरा भू-भाग हूबहू जल के अंदर.... बचपन में अक्सर परिकथाओं-कथाओं में सुना था, लेकिन देखने का सुकून अलग था ... यहाँ शांति थी. किसी की किसी से वैमनस्यता नहीं थी. न कोई खून का प्यासा था. मेरी आँखों ने ऐसी शांति पहली बार महसूस की थी. और उसमें गूँजती वह आवाज.

वह क्या था? कैसी आवाज थी? क्या यही पृथ्वी के गर्भ की आवाज थी, वही तरंगें जो एक सुमधुर स्वर में तब्दील हो रही थी? खड्ज का स्वर.... हाँ, यही था... वही गूंज रहा था.... उसकी तरंगदैर्ध्य भी निश्चित अंतराल की थी. कोई संगतकार नहीं था, न ही कोई स्वरपेटी.... जैसे कोई संगीतज्ञ गहन रियाज में केवल खड्ज का रियाज कर रहा हो. बस एक ही स्वर... ओम कहो चाहे खड्ज कहो.... कहने से ज्यादा सुनना अत्यंत ही मधुर. पूरे शरीर में उसकी तरंगों को महसूस किया जा सकता था. मेरा पूरा शरीर उसी आवाज को सुनने शून्य में था. शायद इसे ही अ-शव या समाधि की अवस्था कह सकते हैं. यह वही ध्वनि थी जो ब्रह्मांड में गूंजायमान है. और यह वही शून्य की स्थिति थी जिसे प्राप्त करने न जाने कितने ही लोग क्या-क्या नहीं करते. मैं उस दृश्य को देखने और उस ध्वनि में ऐसी अंतर्ध्यान थी, एक ही क्षण में इतना मोह. वहाँ से बाहर आना बहुत ही कष्टप्रद था. बस वहीं रुक जाना चाहती थी. इससे सुंदर यात्रा और इससे मधुर ध्वनि कोई हो ही नहीं सकती थी.

उतने में ही पास खड़े एक बच्चे ने पानी में कुछ उछाला, जिससे पानी के छींटे मेरे चेहरे पर थे.... और मैं अपनी तंद्रा से बाहर निकली. न जाने कितनी ही यात्राएं की अभी तक के सफर में... और न जाने कितनी ही करनी होंगी... पर ये मेरे जीवन की सबसे सफलतम यात्रा थी. जिसने न केवल हृदय पर बल्कि जीवन पर भी अमिट छाप छोड़ी है. मेरी, यह मनमोहक स्तब्ध करने वाली यात्रा, सम्पूर्ण यात्राओं में सर्वोपरि है....

समीक्षा तैलंग, आबुधाबी (यू.ए.ई.)

snehal123ind@gmail.com

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रचनाकार: संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 94 : मेरी शुक्रवारी यात्रा // समीक्षा तैलंग
संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 94 : मेरी शुक्रवारी यात्रा // समीक्षा तैलंग
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8MXiFNkl6ZEtFC-XSjr-jQ3WdIX7IlxmAWcUo3B-cf98BT3kI1Ko__FceZnWUrdx4DOIPLG3la4tPZ-lcTqmNNR_-xYEc13O-rcwvvDQFOs1ift2PUjeAipWxbDCrIRHsZiJE/?imgmax=800
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/03/94.html
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