संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 90 : ''देखा न ऐसा प्यार'' // संस्मरण पर आधारित एक प्रेम कहानी //

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प्रविष्टि क्र. 90 ''देखा न ऐसा प्यार'' संस्मरण पर आधारित एक प्रेम कहानी अखबार में आज पुण्यतिथि का विज्ञापन पढ़कर आयशा की आं...

प्रविष्टि क्र. 90

''देखा न ऐसा प्यार''

संस्मरण पर आधारित एक प्रेम कहानी

अखबार में आज पुण्यतिथि का विज्ञापन पढ़कर आयशा की आंखें डबडबा आईं। वर्षों बाद हाथों में उसका फोटो आया तो सिसकियां फूट पड़ीं। टप-टप बहते आंसू अखबार के उस विज्ञापन पर गिरते जा रहे थे और लंबे समय से खामोश आयशा के मुंह से सहसा बोल फफक पड़े -''कहाँ हो आशु..... ? तुम कहां चले गए हमें यूं अकेला तड़पने के लिए यहाँ छोड़कर। हो सके तो लौट के आ जाओ......।'' आशु का ख्याल आते ही आयशा के रोम-रोम में सिहरन दौड़ गई। आंसुओं के सागर से भरी आंखों में जैसे सारा मंजर घूम गया।

यूनियन काबाईड कारखाने से उठते एमआईसी गैस के गुबार में भोपाल का कुछ घण्टों के लिए गायब हो जाना......। भयानक मंजर आंखों के सामने तैरते हुए आयशा कुछ पल के लिए घबरा गई। दुपट्टे से आंसू पोंछती, अपने आपको संभालती....आयशा अनमने मन से उठी, अखबार रखने के बाद टेलीविज़न चला दिया। रिमोट से चैनल बदल ही रही थी कि एक चैनल पर टाइटेनिक फिल्म देखकर ठहर गई। आयशा की अंगुलियां वहीं थम गई। एक तरफ फिल्म चल रही थी दूसरी ओर आयशा विचारों में मग्न थी.....''कितना अजीब इत्तेफाक है....भोपाल गैस त्रासदी और टाइटेनिक में। दोनों ही हादसे भयावह खौफनाक.....।'' ''एक में हीरोइन ने अपने हीरो को खोया तो दूसरे में एक प्रेमिका ने अपने प्रेमी को हमेशा के लिए......।''

फिर सहसा दिल की गहराई से जैसे एक हुंकार उठी-''नहीं!!! वे तो जिंदा हैं....मेरे दिल में....मेरे ख्वाबों में....मेरी यादों में.......जिंदा है......प्यार करने वाले कभी नहीं मरते!!!!! कभी नहीं!!! प्यार हमेशा जिंदा रहता है...मेरा आशु भी.....यहीं कहीं है....!'', फिर अखबार उठाकर देखा...और तेजी से टेबिल पर पटकते हुए......''ये झूठ है''......फिर टेलीविज़न की ओर टकटकी आंखें.... टाइटेनिक जहाज के डूबते दृश्य से उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं.......शरीर में सिहरन-सी दौड़ जाती है.......''ये टाइटेनिक नहीं मेरा प्यारा भोपाल डूब रहा है गैस के आगोश में''.........और यहां कि हर वो चीज को गैस में डूबते हुए देखने लगी जो उसे प्रिय थी। गैस का गुबार ऊपर की ओर उठता जा रहा था और खूबसूरत भोपाल नीचे धंसता जा रहा था.....जैसे किसी ने बहुत ऊंचे भवन को धराशायी कर दिया हो और मलबा नीचे गिरता जा रहा हो और धूल ऊपर की ओर चक्रवात बनाते उठकर फैल रही हो। गैस ने पूरे भोपाल को कोहरे व धुंध की श्वेत-सी चादर से जैसे ढंक दिया हो......डबडबाई आंखों में जैसे ही ये मंजर घूमता है, अचानक आयशा अपने हाथों से दोनों कान बंद करते हुए तेजी से चिल्लाती है........''बस!!!!!!'' और धड़ाम से बिस्तर पर पीठ के बल गिर जाती है।

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कहते हैं पहला प्यार इंसान कभी नहीं भुला पाता......आयशा की जिंदगी अब अपने दिव्यांग बच्चे के साथ एक कमरे में सिमट कर रह गई। अपने पहले प्यार की यादें और अपने प्रेमी को खो देने की दुःख भरी टीस ही उसकी जिंदगी का हिस्सा हैं। बहुत दिन गुजर गए.......कभी घर से निकली ही नहीं, कभी खिड़की तो, कभी दरवाजे पर खड़े हो जाना और आसपास की दुकानों से जरूरी सामान लाकर घर में कैद हो जाना उसकी नियति बन गया। गुमसुम, उदास, निराश जैसे जिंदा लाश........। घरवाले भी देखकर हैरान.....''ये क्या हो गया मेरी प्यारी बच्ची को....पता नहीं किस की नजर लग गई.....!'' जिस जिंदादिली से आयशा ने जिंदगी जी और जिस खूबसूरती से प्यार की नई परिभाषा गढ़ी उससे उलट अब आयशा की जिंदगी बिल्कुल अलग हो गई। पर वह उस शहर से अलग नहीं हो पाई जहाँ उसका बचपन बीता....वह अपने सबसे प्यारे दोस्त और पड़ोसी को नहीं भुला पाई....जिसने जिंदगी में नई उमंगों को जवां किया। एक नाम को सुनकर वह आज भी चौंक जाती है और वह नाम है भोपाल..................।

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झीलों और शैल-शिखरों की यह नगरी अपनी प्राकृतिक सुंदरता और भाईचारे के लिए तो देश-दुनिया में मशहूर है ही, लेकिन इन सबसे ज्यादा एक कारखाने के कारण भोपाल समूचे विश्व में जाना-पहचाना गया। यह कारखाना है यूनियन कार्बाइड। जो अब स्मारक बन गया है। ये अब औद्योगिक त्रासदी से बचाने की प्रेरणा दे रहा है। कभी इस कारखाने से संसार की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी घटित हुई थी, जिसमें हजारों लोग मौत की नींद सो गए। वर्ष 1984, दो और तीन दिसम्बर सर्दियों की रात। भला कैसे भुलाई जा सकती है।

स्मृति में खोई आयशा, जैसे आपबीती सुना रही हो- ''आज इतने वर्ष हो गए पर ना जाने क्यूं जब भी यह तारीख सुनती हूं सारा बदन सिहर उठता है। याद आ जाते हैं वे चेहरे जो कभी मेरे आसपास हुआ करते थे, जिनकी सलामती के लिए मेरे हाथ आसमान की ओर उठा करते थे। काश वे आज जिंदा होते.......तो जिंदगी जीने का नया पाठ पढ़ा रहे होते...........। तभी हल्की-सी हवा चलने पर टेबिल पर पड़े समाचार-पत्र के कुछ पन्ने उड़ते हैं और वही आशु का पुण्यतिथि वाला चित्र दिखाई देता है।

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भीषण त्रासदी झेलने, लगातार पीड़ा का दंश भोगने के बाद भोपाल फिर जी उठा...........। फिर जिंदगी खिलखिलाई..........। फिर लौटा मौसम......। पर वह आंसू नहीं रोक पाया जो अपनों को खोने के बाद बह गये.....। वह दर्द नहीं रोक पाया जो आज भी उस रात की याद ताजा कर देते हैं.........। यह सिर्फ कारखाना नहीं.... कई कहानियों का ऐसा संस्करण है जिसमें समूची मानव जाति के लिए कई बड़े सबक छिपे हुए हैं कुछ कहानियां किवदंतियां बन गई हैं कुछ को लोग दोहराना नहीं चाहते। कुछ लोगों के साथ ही भुला दी गईं और कुछ अब भी लोगों की जुबां पर हैं.....।

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ऊपर से शांत दिखने वाला यह शहर अंदर उतना ही दर्द, दुःख, पीड़ा और टीस लिये तड़प रहा है। बेचारगी से ऊपर उठने को बेताब इस शहर में वह सब था जो मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जरूरी होता है। पर न थे वे लोग जो इस शहर में प्यार की नई इबारत लिख रहे थे। इस शहर की जिंदगी भी वैसे ही चल रही थी, जैसी आम शहरों की रफ्तार हुआ करती है। कई दिलों में सपने पल रहे थे....कई उमंगें जवां हो रही थीं,......कहीं उत्साह कुलांचे भरता तो कहीं खुशी की लहर दौड़ पड़ती........। दर्द था, पर ऐसा नहीं कि सबका एक जैसा ही हो.....। लोग एक-दूसरे के त्यौहार मिल-जुलकर प्रेम से मनाते....।

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खुशनुमा माहौल में एक ही मोहल्ले में पले-बढ़े बालिग हो रहे आशुतोष और आयशा के दिल में प्यार की कोंपलें कब फूट पड़ी, वे भी नहीं जानते....। आयशा एक बहुत खूबसूरत लड़की, कह सकते हैं, चेहरे से कहीं अधिक मन से सुंदर! जिसके रूप और सौंदर्य को देखकर कई लड़के उस पर मोहित....। आयशा अच्छी और संस्कारवान लड़की, जैसे कोई-न-कोई शौक सभी को होता है, आयशा को भी फिल्म देखने, नई-नई कहानियां पढ़ने का बहुत उत्साह रहता। दिनभर रेडियो सुनने में बिताती थी। अपनी बहिन से कहती-''पता है जल्द ही ऐसा रेडियो आने वाला है जिसमें चित्र भी दिखाई देंगे।'' छोटी बहिन को भी बहुत आश्चर्य कि रेडियो में कोई बोलता कहां से है? ये तो मालूम नहीं हो सका अब चित्र भला कैसे आ सकते हैं? आखिर एशियाड ओलम्पिक का वह समय भी आया जब चित्र वाला रेडियो यानी टेलीविज़न आयशा के घर आ गया। जिनके घर टीवी आया वे नाच-गाकर अपने अन्य दोस्तों को इठलाते हुए बताते....''पता है हमारे घर तो टीवी है होय ओय.........।'' तब दूसरे घरों के बच्चे भी अपने घर पर माता-पिता से घर में टीवी लाने की जिद करते.....एक अजीब-सी उत्सुकता थी...टीवी देखने की....शाम हो या रविवार का दिन सभी टीवी पर नजरें जमायें आसपास बैठ जाते.... कई जगह तो यह मिनी सिनेमाघर का काम करता.....। मोहल्ले में भले ही बिजली के खंभे पर लाइट न हो परंतु कुछ गिने-चुने घर के अंदर दालान में, उन्होंने फर्श पर ही चटाई बिछाकर टेलीविज़न देखने का इंतजाम कर रखा था। बच्चे इकट्ठे होकर एकटक टीवी देखा करते और पूरे कमरे की लाइट बुझा दी जाती, सिर्फ दूर से ही टेलीविज़न चमका करता और उसकी आवाज गूंजती रहती।

यूं तो आयशा के घर कभी टेलीविज़न नहीं आता, परंतु आयशा के पिता की ही इलेक्ट्रानिक्स की दुकान भोपाल के मुख्य बाजार में थी। जहां कोई भी नया इलेक्ट्रानिक सामान सबसे पहले बिकने के लिए मिलता। इसी वजह से टीवी भी सबसे पहले आयशा के घर आ पहुंचा। इसी बाजार में विशाल जामा मस्जिद पूरी शान से खड़ी थी। गगनचुम्बी इमारत को देखने दूर-दूर से लोग आते और खरीददारी करते। इसी मस्जिद से थोड़ी दूरी पर था इतवारा रोड जहां इलेक्ट्रानिक्स की दुकान पर आयशा के पिता और भाई बैठा करते थे। पिता की मोहल्ले में तूती बोलती थी, पुराने विवादास्पद मकानों को खरीदने-बेचने का कार्य भी वे किया करते थे। उनके सामने किसी की कुछ बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। लोग चर्चा में उनके विवादित मकान खाली कराने के किस्से एक-दूसरे को सुनाया करते। टेलीविज़न के आने और बिक्री की प्रतिस्पर्धा बढ़ने से पहले पिता-पुत्र जल्द-से-जल्द अधिक टेलीविज़न सेट बेचने की कोशिश में रहते और इसीलिए दुकान पर भी अधिक समय दिया जाने लगा। जब पिता दुकान पर होते तो पुत्र फील्ड में और जब पुत्र दुकान में होता तो पिता फील्ड में होते।

कुछ ही महीने पहले आयशा के यहां टेलीविज़न क्या आया वह उसी के सामने बैठी टीवी देखती रहती। फिर हुआ भी वही जो आयशा के पिता और भाई सपना देखा करते। पहले श्वेत-श्याम और फिर रंगीन टेलीविज़न की ऐसी बिक्री हुई कि आयशा के तो घर का नक्शा ही बदल गया।

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इसी मोहल्ले में दो घर छोड़कर आशुतोष नाम का लड़का भी अपने माता-पिता के साथ रहता था, जिसे सब आशु कहते। वह पढ़-लिखकर अपना कैरियर बनाने को लालायित रहता। पर निर्धनता के चलते स्वयं अच्छी ट्यूशन नहीं कर पा रहा था। पिता पुलिस में थे। ईमानदार थे, लिहाजा किसी तरह घर खर्च चला लिया करते थे...बचत बहुत कम थी। घर भी कच्चा था....सारी आशाएं....उम्मीदें आशु पर ही टिकी हुई थीं। बेरोजगारी का आलम यह था कि अच्छी प्रतिभाएं भी गरीबी और बेकारी में बमुश्किल पनप पातीं।

आगे पढ़ने और जीवन में अच्छा अफसर बनने की लगन में आशु अपने से छोटी कक्षा के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर जेब खर्च चलाता। ट्यूशन से एक और लाभ ये हो रहा था कि उसकी पढ़ाई पर पकड़ बनी रहती। मोहल्ले में उसकी गिनती सभ्य और अनुशासित लड़कों में होती....। माता-पिता अक्सर बिगड़ैल बच्चों को आशु का उदाहरण देते। इससे कुछ आवारा किस्म के लड़के आशु से ईर्ष्या करने लगे थे। मौका मिलता तो उसे चिड़ाते भी, और साथ न रहने पर मजाक भी उड़ाते, पर उसका कुछ बिगाड़ न पाते। बल्कि पढ़ाई के लिए उसकी मदद ही लेते। आशु भी उनकी बातों को भुलाकर जब-तब सहायता करता रहता। जिस कक्षा में आशु पास हो जाता, उस कक्षा की सारी किताबें संभाल कर रखता और किसी गरीब बच्चे को पढ़ाई के लिए दे देता।

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आयशा और आशु दोनों स्कूल की अंतिम पायदान पर थे और कॉलेज जाने का उत्साह उन्हें पढ़ाई के लिए प्रेरित करता। स्कूल आते-जाते वे कब एक-दूसरे से इशारों में ही बात करने लगे........कब एक-दूसरे का इंतजार करने लगे और कब एक-दूसरे को न देखकर बेहाल रहने लगे उन्हें ही नहीं पता। आखिर परीक्षा हुई और कुछ दिन बाद ही रिजल्ट भी आ गया। दोनों पास हो गए और कॉलेज में एडमीशन भी ले लिया। दोनों के कॉलेज अलग थे पर रास्ते एक। मोहल्ले में कभी-कभार ही उनकी बात हुआ करती थी, लेकिन छत पर शाम को आ जाना और एक-दूसरे को देखना दोनों को बहुत सुहाता। आशु के यहां तो छत के नाम पर टिन की चद्दरें थीं। पर अमीरी-गरीबी, धर्म, जाति और रस्मों से अनजान यह प्यार यूं ही परवान चढ़ता गया। दोनों का एक-दूसरे के प्रति आकर्षण ऐसा बढ़ा कि वे ये भी भूल गए कि छत पर नियम से घण्टों टहलते कोई उन्हें भी देख रहा है। छत पर टहलते नजरें मिलाते, मुस्कुराते एक दिन आशु के पड़ोस में रहने वाले मित्र ने देख लिया। उससे आशु को और उकसाया। कहा-ऐसे टुकुर-टुकुर देखने से काम नहीं चलने वाला, प्यार का इजहार कर तब बात बनेगी। आशु को मित्र की यह बात जम गई। अब आशु असरदार पत्र लिखने की चेष्टा में खोया रहता। कभी नाम लिखने से डरता तो कभी पत्र सहित पकड़े जाने के भय से हिम्मत नहीं जुटाता। पर जब भी वह आयशा को देख लेता, पत्र लिखना ही उसे एकमात्र रास्ता नजर आता। फिर एक दिन आशु ने हिम्मत जुटा ही ली।

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प्रिय,

तुम देखकर मुस्कुराती हो तो खुदा याद आता है।

जो नजरें झुकाती हो, तो प्यार जवां हो जाता है।

मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ। तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो। क्या मुझसे दोस्ती करोगी?

सिर्फ आपका

आशु

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जब धीरे-धीरे दोनों में पढ़ाई को लेकर किताबों-नोट्स का आदान-प्रदान शुरू हो गया तो इन्हीं किताबों में एक दिन आशु ने आयशा की तारीफ से भरा पत्र रख दिया।

प्रिय आयशा। प्रिय इसलिए क्योंकि तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो, तुम्हारा सुहाना चेहरा किसी ताजमहल से कम नहीं, बचपन में आसमान पर चांद बहुत प्यारा लगता था और अब तुम्हें बार-बार देखने को मन करता है। तुम खिलते फूल की ताजगी से भरी हो.....तुम नहीं दिखती तो मौसम खराब लगता है मन, अनमना-सा हो जाता है। तुम जिस दिन दिख जाती हो उस दिन लगता है जीवन में बहार आ गई। मुझे नहीं पता तुम कितनी प्यारी हो। पर हाँ मुझे सचमुच बहुत-बहुत प्यारी लगती हो। तुम मेरे लिये ईद और दीवाली जैसी खुशियां हो, तुम्हें पाने को, तुम्हारे पास आने को तुमसे ढेर सारी बातें करने को मन करता है। तुम्हें खोने का डर सताता है। पर मुझे देखते ही तुम्हारा दिलकश अंदाज में मुस्कुराना विश्वास जगाता है कि तुम मेरी हो..........बस मेरी.......। इस फानी दुनिया में तुम ही हो जो मेरा साथ देने आयी हो जीवन में खुशियों की बरसात करने आई हो...........। मैं तुमसे दोस्ती करना चाहता हूं........सच्ची दोस्ती......। आई लव यू.........।

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इधर पत्र पूरा हुआ ही था कि आयशा ने मारे खुशी के पत्र को चूम लिया जैसे उसे भी किसी सच्चे प्यार की तलाश हो....और उसका इंतजार खत्म हो गया हो....।

''हाँ, इससे भी कहीं ज्यादा........बहुत ज्यादा........हम इतिहास बनायेंगे...........नया इतिहास........जिसमें प्यार करने वाले कभी जुदा नहीं होते..........जिसमें प्यार करने वाले कभी अलग नहीं होते....एक पल के लिए भी नहीं।'' पत्र पढ़ते ही आयशा के बोल फूट पड़े। मन मयूर नाच उठा...''आई लव यू टू......।'' वह झट से घबराई-सी उठी, इधर-उधर देखा....नजरें दौड़ाई किसी ने पत्र पढ़ते हुए तो नहीं देखा.......और दौड़ते हुए छत पर जा पहुंची वहाँ पड़ी फर्शियों के बीच पत्र को छिपा दिया। यह छत ही दोनों के लिए सारी दुनिया थी। न कहीं आना, न कहीं जाना। कॉलेज से घर और घर से कॉलेज.....इसके बाद छत. जैसे यहीं सारी दुनिया सिमट आई हो। इसी छत से भोपाल का खूबसूरत नजारा दिखाई देता। एशिया की सबसे बड़ी ताजुल मस्जिद, बड़ा तालाब, छोटा तालाब, करीने से सजाया गया बिड़ला मंदिर और हरियाली के बीच दूर नजर आते पहाड़। अध्यात्म की पावन बयार तो भौतिकता की चकाचौंध भी......आयशा को मानो पूरी दुनिया मिल गई......। वह इसी का इंतजार कर रही हो।

पत्र पढ़कर आयशा फूली नहीं समाई। मन की बात मन में कहां रहने वाली थी। किसी और को न बताने की शर्त पर आयशा ने अपनी सबसे खास सहेली को बताया तो आयशा के सपनों को जैसे पंख लग गए। पत्र का जवाब देने की ठानी। पर सबसे अच्छा पत्र लिखने की चाहत में वह घण्टों डूबी रहती....। ऐसा पत्र जो अब तक न तो लिखा गया हो और न ही पढ़ा गया हो....। कैसे लिखें....। फिर कुछ समझ ना आता देख उसने लिख दिया- ''क्यूं सामने कहने से डरते हो जो लिखकर दे रहे हो....। हिम्मत हो तो पत्र को ही मेरे सामने पढ़कर दिखाओ...।'' पत्र जैसे ही आशु के हाथ में आया वह दौड़कर छत पर जा पहुंचा। एक कागज पर पार्क में मिलने का समय देकर कागज की पुड़िया बनाई और छत पर फेंक दी। पर पुड़िया छत पर न जाकर नीचे नाली में जा गिरी और जब तक आशु उसे उठाने जाता वह तेज पानी के बहाव में बह गया। हैरान आशु ने इधर-उधर बहुत ढूंढा पर न मिला। तभी उसे किसी ने ऊपर से आवाज दी-''ऐई ! क्या ढूंढ रहे हो....।'' आशु ने ऊपर देखा तो कुछ पल एकटक देखता रह गया। ऊपर आयशा जो थी। आशु उसके रूप सौंदर्य को सुखद आंखों से निहारता रहा......सिर पर सफेद दुपट्टे से निकली काली-कत्थई जुल्फें, गोरा हल्का लंबा-सा चेहरा, इतनी सादगी भरी ताजगी और प्राकृतिक सुंदरता कि मुस्कुरा दे तो गुलाबी पड़ जाए। लाल होठों के बीच श्वेत दांत की पंखुड़ी ऐसे जैसे आयशा को बनाने वाले ने बहुत ही तल्लीनता से संवारा हो.........एक हंसी के बाद आयशा दौड़ते हुए नीचे घर के दरवाजे पर आ गई। सामने आयशा को देखकर आशु के मुंह से एक शब्द न निकला। आशु मुड़ता इससे पहले ही आयशा ने कहा-''जवाब मिल गया ना''....और मुंह पर हाथ रखकर फुर्र से हंसी का फव्वारा छोड़ दिया.....। आशु की उसके घर के सामने कुछ भी कहने में जैसे जान सूख रही थी, पर हिम्मत करके कह दिया-''मैं भी जवाब देना चाहता हूं गर तुम सुबह पार्क में मिल जाओ।'' आशु के मुंह से बोल क्या फूटे आयशा का मन जैसे हिरन की भांति कुलांचे मारने लगा। आशु का भी मन मयूर नाच उठा। तभी आयशा का पालतू भोंक उठा...........भौं......भौं.

अंदर से फिल्मी संगीत के बीच आवाज आई.......''आयशा देख तो जरा कौन आया है''....इतना सुनते ही आशु पलक झपकते गायब हो गया। आयशा उसे इधर-उधर देखती तब तक फिर आवाज ''आई कौन है''.........आयशा की बोली से जैसे शहद झड़ता हो, बोली-''कोई नहीं मम्मी यूं ही भौंक रहा है।'' पालतू ने सुना तो और जोर से भौंकता हुआ अंदर चला गया। मम्मी उठकर आई, बाहर झांककर गली में देखा फिर बोली.......''कोई तो जरूर होगा मेरा पालतू यूं ही नहीं भौंकता।'' आयशा चुपचाप अंदर जाकर टेलीविज़न खोलकर बैठ गई। टीवी में प्रेशर कुकर का विज्ञापन देखकर कुछ खाने का मन किया तो गीत गुनगुनाते हुए किचिन में गई और कुकर में से गर्मागर्म पुलाव ले आई। भांप निकलते पुलाव की चम्मच खाने ही वाली थी कि आशु का ख्याल आ गया.........प्लेट लेकर ही छत पर जा पहुंची। आशु भी पढ़ाई का बहाना कर किताब हाथ में लिये जैसे उसी का इंतजार ही कर रहा था। आयशा को पुलाव खाता देख आशु भी घर के किचिन में गया और बर्तनों को टटोलने लगा। तभी पीछे से माँ आ गई.........''क्या ढूंढ रहा है बेटा?'' आशु-''माँ भूख लग रही है.....कुछ बना नहीं क्या अब तक''?......''बना तो रही हूँ बेटा...थोड़ी देर रूक जा।'' आशु- ''नहीं मां, सुबह के चावल ही दे दे।'' ठण्डे चावल में ठण्डी दाल मिलाकर झटपट चम्मच ढूंढने लगा। मां बोली- ''अरे इतनी भी क्या जल्दी है कि ठण्डा खाना ही खा रहा है पहले कभी ऐसा नहीं किया। अब किधर जा रहा है यहीं बैठ कर खा, ना। भागे किधर जा रहा है।'' आशु भी छत पर आकर आयशा की देखादेखी एक-एक चम्मच भरकर खाने लगा। आयशा ने देखा कि मेरी नकल उतार रहा है तो मुस्कुराकर जीभ चिढ़ाने लगी। आशु ने भी ऐसा ही किया।

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शाम गहरी होती जा रही थी। छत पर अंधेरा होता जा रहा था। चांद अपनी रफ्तार से तारों के साथ गोल होता गया। आशु और भी रोमानी हो गया..............। ''ये चांद, ये तारे, ये आसमां जैसे सब जानते हैं सब देख रहे हैं। कितनी अजीब है यह कुदरत और इसका दस्तूर। जिसे हम ठीक से जानते तक नहीं वह आज अपना-सा लगने लगा है। कल से बेखबर आज लग रहा है जैसे ये दिन ढले ही ना और हम यूं ही बैठे एक-दूसरे को देखते रहें समझते रहें। काश! कि चांद जरा थम जाये ये शाम रात होने से पहले थोड़ा रूक जाए! कितने सारे प्रेमी ऐसे होंगे जो इतना सब सोचते होंगे पर क्या ऐसा हो पाता है।''

छत पर खंभे की रोशनी से अधिक दोनों के चेहरे ऊर्जावान हो चमक रहे हैं। आशु भावुक होकर कभी तारों भरे आसमान की ओर देखता कभी आयशा को देखकर विचारों के सागर में डूब जाता।

''ये प्रकृति ये चांद तारे, सूरज, धरती आकाश सब हमारे कितने अच्छे दोस्त हैं कभी साथ नहीं छोड़ते। हम जिनकी चिंता करते हैं जिनके लिए भगवान से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं वे भले ही हमारा साथ छोड़ दें, या हमें भुला दें पर ये चांद, सूरज हमारे हर सुख-दुःख में साथ देते हैं रोज चले आते हैं हमारा हाल-चाल जानने। हम होते हैं तो हमारा साथ देते हैं हम नहीं होते तो भी हमारी कहानियों के गवाह होते हैं। वाह भगवान क्या खूब दुनिया बनाई। बहुत-बहुत धन्यवाद! हमारे पहले प्यार को भी याद रखना.... हम हों ना हों पर हमारी कहानी लोगों की जुबां पर होगी। और फिर माहौल भी तो इसी कुदरत ने बनाया है। क्या पता कल क्या हो...।''

आशु की नींद छत पर ही लग गई। पिता ने हिलाया तो चौंक गया। ''कितना अच्छा सपना देख रहा था पिताजी।'' पिता-''अरे ठण्ड के दिनों में भी छत पर सो रहा है। बीमार होना है क्या? सब अपनी मर्जी का करता है।'' हल्की डांट के साथ पिताजी कमरे में ले गये। आशु की मां से बोले-''पढ़ाई-लिखाई तो ठीक है थोड़ा ध्यान रखा करो अपने लाड़ले का। कुछ बनना करना है कि मेरी तरह वर्दी पहनकर गुण्डों-मवालियों का पीछा करना है।''

आशु की तंद्रा टूटी तो बोला- ''नहीं पापा, मैं तो पत्रकार बनकर छा जाना चाहता हूं पूरे देश में। हर घर में टेलीविज़न पर लोग मुझे देखेंगे-सुनेंगे। सबके दिलों पर राज करूंगा मैं। देखना समाज में क्रांति ला दूंगा।''

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रात को सपने में आशु रिपोर्टर की भूमिका में खुद को देखने लगा। टीवी पर नजरे लगाये बैठे हैं आयशा के घर वाले और टीवी में रिपोर्टिंग कर रहा है आशु। ''दरअसल देश में यदि कोई सबसे बड़ी समस्या है तो वह गरीबी नहीं, वैचारिक भ्रष्टाचार है, धर्म, जाति और भाषा को लेकर लोगों के दिलोदिमाग में भरा हुआ जहर है। लोग समझना ही नहीं चाहते और ना ही उन्हें उनके अपनेवाले समझाना चाहते हैं। यही वजह है कि 21वीं सदी की ओर बढ़ते हुए भी हम इंसानियत को बढ़ावा देने के बजाय जाति-धर्म के मसलों में उलझे हुए हैं। राजनीति को जैसे बाजार बना दिया गया है कोई धर्म के नाम पर रोटियां सेंक रहा है तो कोई जाति के नाम पर वोट मांग रहा है पर असल मुद्दों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। जनता भी ऐसे ही लोगों को चुनकर सिर पर बिठा लेती है और फिर महंगाई, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, मिलावटखोरी, बेरोजगारी और माफियाओं का शिकार होती है। लोकतंत्र के नाम पर इतना अच्छा हथियार जनता के पास है पर वह अनजान है। अरे बंदूक, लाठी, तलवार चलाने से तो जेल चले जाओगे चलाना है तो वोट का..........विचार का...........हथियार चलाओ तो कुछ बात बनें।''........तालियां.........। आम जनता की आवाज बुलंद करता मैं हूं कैमरामेन तारिक के साथ आशु। आज बस इतना ही कल फिर मिलेंगे इसी जगह इसी समय। देखना ना भूलिये अवाम की आवाज़।

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच ही आशु की नींद खुल गई। ''अरे पढ़ना नहीं है क्या? सुबह का समय याद करने के लिए बहुत अच्छा होता है।''

तभी आशु को याद आया कि आज तो पार्क में मिलने जाना है। झटपट तैयार होने लगा। अपनी साइकिल उठाई और पार्क की ओर चल दिया। रास्ते में आयशा का घर दिखा तो साइकिल की दो-चार घंटियां बजा दीं।

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झीलों की नगरी खूबसूरत पार्कों के लिए भी जानी जाती है। यह वही जगह है जहां रानी कमलापति का आधा महल तालाब में डूबा हुआ है और छत पार्क में तब्दील। इसी पार्क में अप्सरा की मूर्ति के नीचे हाथ बांध कर आशु इंतजार करने लगा। पंछी पेड़ों पर चहचहा रहे हैं। मौसम में ठंडक.....कुछ लोग योगा करते..... कुछ बच्चे नए झूलों, फिसलपट्टी पर झूलते हुए.......हॉकर समाचार-पत्रों के बंडल ले जाते हुए.....दूध वाला ढबरे लटकाये.......... इक्का-दुक्का साइकिलें भी.........बगल में तालाब बहुत ही सुंदर, मनोरम दृश्य, अजीब-सी ताजगी और सुखद अनुभूति...........। ताजी बयार ने दिलोदिमाग को तरोताजगी से भर दिया। पर कुछ क्षण टहलने के बाद फिर मन में हलचल तेज हो गई। ''सचमुच कितनी सुंदर रचना की है उस शक्ति ने। काश की सभी देख-समझ पाते तो...........ये दुनिया और भी बेहतर होती...........! आखिर क्यों इंसान को धर्म, जाति, भाषा, संप्रदाय और क्षेत्र की बेड़ियों में बांध दिया गया ........क्यों........किसके पास है इसका जवाब.......! यकीनन प्यार इन सबसे ऊपर है। यही सर्वव्यापी है जो सभी प्राणियों में दिखाई देता है। सच, प्यार से बढ़कर दुनिया में कुछ नहीं............। प्यार ही ईश्वर की सबसे बड़ी इबादत है। बच्चे अपने माता-पिता को प्यार करें, माता-पिता अपने बच्चों को प्यार करें। भाई-बहिन, पति-पत्नी सभी रिश्तों में परिवार में, समाज में, देश में, दुनिया में प्यार हो तो फिर आधी से ज्यादा समस्याएं खुद ब खुद समाप्त हो जाती हैं............।'' दोनों एक-दूसरे के विचारों का......एक-दूसरे की खुशियों का और एक-दूसरे के माता-पिता को पूरा सम्मान देते.....।

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बड़ी-छोटी झील के बीच और शैल शिखरों से हरीतिमा ओढ़े भोपाल में रानी कमलापति के महल की छत पर ही यह पार्क बना हुआ है। यहां लगे पेड़ों पर चमगादड़ें बसेरा करती हैं। इन पेड़ों के नीचे ही दोनों घण्टों समय बिताने लगे। अपने सुख-दुःख में खोये दोनों को देर तक बातें करते रहना मन को भाने लगा। जब लगा कि पकड़े जाएंगे तो फिर रोज नई-नई जगह पर मिलने लगे। कभी मनुआभान की टेकरी तो कभी बोट क्लब.....। ये दोनों ही पिकनिक स्थल बारिश के बाद और मनमोहक हो जाते हैं। मानव संग्रहालय, भारत भवन और अरेरा हिल्स, लक्ष्मीनारायण मंदिर वाले पार्क के दिलकश नजारे किसी हिलस्टेशन का आभास कराते....। यहां घूमते हुए कभी-कभी तो दोनों दार्शनिक भी हो जाया करते। पार्क की हरी दूब में कीड़ों को देख अचानक आयशा चौंकी बोली-''देखों कितना बड़ा कीड़ा है। मच्छर भी बहुत होते जा रहे हैं।'' आशु बोला-''आने वाला समय इन कीड़ों का ही है।'' ''मतलब,'' आयशा ने जिज्ञासा भरे स्वर से पूछा तो आशु तपाक से बोला ''ऐ आयशा मैं तुम्हें यदि किसी और नाम से पुकारूं तो... चलेगा क्या....।'' आयशा मुस्कुराई.....होले से पास आकर बोली.....''आप मुझे जिस किसी भी नाम से पुकारें......मैं हूँ तो तुम्हारी ही ना........नाम से क्या फर्क पड़ता है...'' तब आशु ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कुछ इस तरह से समझाया जैसे बहुत बड़ा वैज्ञानिक हो-बोला, ''इस पृथ्वी पर जितने तत्व हैं सब ने राज किया है। जब यह पृथ्वी सूरज से अलग हुई थी तो गर्म सुर्ख लाल थी यहां आग ही आग थी। जब धीरे-धीरे सदियों बाद पृथ्वी ठंडी हुई तो आग से निकलने वाली गैसों हाइड्रोजन और ऑक्सीजन की क्रिया से यहां पानी आया। इतना पानी की पृथ्वी शनैः-शनैः ठण्डी होने लगी। धरती-आकाश के बीच तेज हवाओं ने आंधी-तूफान के रूप में भी राज किया। फिर पेड़-पौधे पनपे। एक से एक प्रजाति के वृक्ष पृथ्वी पर ऊगे। घना, भयानक, खतरनाक, डरावना जंगल रहा। ऊंचे पहाड़ और रहस्यमय गुफाएं रहीं। कभी पृथ्वी पर चलने वाले पेड़ भी हुआ करते थे। कुछ पेड़ तो आवाज निकालने वाले तो कुछ मांसाहारी भी होते थे। फिर बड़े-बड़े विशालकाय सरीसृप जीवों का राज रहा। मौसम में परिवर्तन और भौगोलिक परिस्थितियां बदलने के कारण इनके नष्ट होने के बाद इंसानों का उद्भव हुआ। धीरे-धीरे इंसान ने तरक्की की। ये इंसान दस-बारह फिट तक ऊंचे और हजारों साल जीया करते थे। तब इंसानेां की संख्या कम थी, अब इंसानों की संख्या बढ़ रही है लेकिन आयु, शक्ति दोनों घटती जा रही है। हमने कई बार देखा सुना है फला व्यक्ति एक सौ दस साल तक जीया। अब आयु घटकर प्रतिव्यक्ति 70 रह गई है। विशालकाय जानवरों और इंसानों के बाद अब बारी है कीड़े-मकोड़ों की। ये ही पृथ्वी को चट करेंगे।'' ''देखो, मच्छर और चींटी कैसे धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं। पहले मच्छर, आंख से नहीं दिखाई देता था अब एक इंच तक का हो गया है। काकरोंच किसी भी परिस्थिति में जिंदा रहने का माद्दा रखता है। ये प्रक्रिया सतत वैसे ही चल रही है जैसे पृथ्वी घूमती है और हमें पता नहीं चलता। ठीक वैसे ही इंसानों के घटने और कीड़े-मकोड़ों के बढ़ने की प्रक्रिया चल रही है। हम पता नहीं कर पाते। आने वाले एक अरब साल में पृथ्वी का स्वरूप ही कुछ और होगा। लेकिन, तब हम न होंगे।''

ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम होंगे...............गीत गुनगुनाने लगा।

''हो सकता है हमारे प्यार के किस्से इन फिजाओं में हों।'' यह कहते हुए आयशा ने आशुतोष की तंद्रा भंग की। तो अपनी ही दुनिया में खोया आशु चौंक पड़ा।

सामने चौराहे की ओर इशारा करते हुए। ''बताओ आयशा अब महाराणा प्रताप जैसे शूरवीर क्यों पैदा नहीं होते? आयशा दिमाग पर जोर देते हुए बोली....... नहीं पता। तुम्हारा सवाल है, जवाब भी तुम्हीं दो ना!

''क्योंकि अब लोग घोड़े पर नहीं बैठते।'' कहकर हंसने लगा तो आयशा ने अपने होंठो को दांतों से दबाते हुए, हाथों की मुट्ठी बनाकर आशु के कंधे पर मार दी। तब आशु थोड़ा दूर हटते हुए बोला-''सही तो कह रहा हूं, समझो, गाड़ियां पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। आशु का जवाब सुन आयशा मुस्कुरा दी। फिर दोनों हंसी के फव्वारे छोड़ते हुए आगे बढ़ने लगे। हंसी को किसी तरह रोकते आयशा बोली-''तुम भी कमाल करते हो। इतना मत सोचा करो।'' आशु- ''क्यों।'' आयशा- ''मेरे लिये सोचने का समय ही नहीं मिलेगा।'' आयशा गुलाबी रंगत से मुस्कुराते हुए बोली तो आशु भी मुस्कुरा दिया। फिर दोनों एक दूसरे को देखते हुए हंस पड़े। फिर गंभीर होते हुए-''काश! हमारी ये दोस्ती कभी न टूटे।''

आयशा बोलीः ''बहुत समय हो गया अब घर चलें।'' आशु थोड़ा रूककर गंभीर होते हुए बोला : ''अभी तो तुमसे बहुत-सी बातें करना हैं.....कसमें खाना है वादे करना हैं.'' ये कहते हुए उसका फूल-सा कोमल हाथ पकड़कर आशु ने अपने दिल के पास रख लिया और भावुक होते हुए बोला.....''तुम्हारे सिवा मेरा ऐसा कोई नहीं जिससे इतनी बातें मन लगाकर करता हूँ''......''पर पार्क में भीड़ बढ़ती जा रही है घर में सब ढूंढ रहे होंगे''.....आयशा बोली तो आशु ने कहा : ''तो चलो मेरे घर चलते हैं''......''पागल हो गए हो क्या?'' शर्माते हुए आयशा बोली तो आशु बोला-''क्यों एक दिन तो मेरे ही घर आना है, फिर !!''.......आयशा भी गंभीरता से आशु को छूकर बोली.......''मैं उस दिन का इंतजार करूंगी''.... दोनों एक-दूसरे की आंखों में खो गए।

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प्यार के परवान चढ़ने का सिलसिला चल ही रहा था कि एक दिन आयशा के भाई ने दोनों को साथ देख लिया.......फिर क्या था? भाई ने अपने पिता को यह जानकारी दी तो उन्होंने भी आयशा पर नजर रखने को कह दिया। पहले तो भाई चुप रहा, लेकिन जब मिलने-मिलाने का सिलसिला जारी रहा तो भाई से रहा नहीं गया, बहिन को कुछ कहने से पहले भाई ऐसे वक्त के इंतजार में रहने लगा, जब आशु की माँ घर पर अकेली हो.....अपने दोस्तों के साथ आशु के घर पहुंचकर उसने समझाईश भरे लहजे में जता दिया कि एक ही मोहल्ले में यह मेलजोल ठीक नहीं....। माँ ने आशु पर नजर रखना शुरू कर दिया।

ऊंची-ऊंची दीवारों सी इस दुनिया की रस्में न कुछ तेरे बस में न कुछ मेरे बस में.........जब यह गाना रेडियो पर आशु सुन रहा था, तभी माँ ने बेटे को सहलाते हुए समझाया, ''बेटा! अच्छी तरह मन लगाकर पढ़ाई कर ले फिर नौकरी लगते ही तेरी शादी कर देंगे। अभी इतना उतावलापन ठीक नहीं। तेरे पापा को पता चलेगा तो भूचाल आ जाएगा। फिर हमारी और उनकी क्या बराबरी। ऐसा मुमकिन नहीं....।'' एकाएक मॉ की इस समझाइश पर आशु झल्ला उठा। उसकी आंखों के सामने तो बस आयशा का चेहरा ही घूम रहा था बोला-''मुमकिन नहीं तो नामुमकिन भी नहीं।'' फिर थोड़ा संभलकर-''वो मेरी अच्छी दोस्त है बस!'' इतना कहते ही आशु की आंखें भींग गईं, भावुक होकर बोला' ''मैं आपका बेटा हूँ माँ, कुछ गलत नहीं करूंगा, जिससे बदनामी हो!'' अपने बेटे के ऐसे वचन सुनकर मॉ हौले-से मुस्कुराई। आशु-''मॉ आप ही तो कहती हो-जो ईश्वर चाहता है वही होता है फिर!!'' उधर आयशा भी अपनी माँ को कुछ इसी तरह विश्वास दिला रही थी, लेकिन दोनों का ही खुद पर काबू नहीं था। वे जगह बदल-बदलकर मिलने लगे....। ना मिलने पर बैचेन रहते....। जब तक एक-दूसरे को देख नहीं लेते ठीक से सो नहीं पाते। एक-दूसरे के ख्यालों में खोये रहते। आशु- ''क्या करें कैसे कोई रास्ता निकालें....। न जाने कैसे लोग हैं एक ही जाति, धर्म में शादी करने वाले लोग कहां के खुश हैं। यदि ऐसा होता तो आए दिन दहेज हत्या और तलाक के मामले अखबारों की सुर्खियां नहीं बनते।''

आयशा- ''क्या हम एक-दूसरे से इतने अलग हैं कि हमारे माता-पिता हमें मिलने नहीं देंगे? मैं आम लड़कियों की तरह ही लड़की हॅू और आपके जैसे किसी भी अनजान आम लड़के से ही मेरी शादी की जाएगी। फिर मेरी खुशी.....मेरे अरमान......क्या माता-पिता जहां मेरी शादी करेंगे वहां मेरे खुश रहने की गारंटी है? मेरा मन तो आपको चाहता है.... फिर आपसे ऐतराज कैसा?'' आयशा के सवाल पर आशु गहरी सोच में डूब गया।

''देखना हमारी शादी.... हमारा प्यार एक नई मिसाल पेश करेगा। सभी धर्मों के धर्मगुरू हमें आशीर्वाद देने आएंगे.... देखना हम दुनिया को बता देंगे कि एक ही जाति और धर्म के लोग भले ही सफल वैवाहिक जीवन नहीं जी पाते हों पर अलग-अलग धर्म का होने के बाद भी हम सुखी रह सकते है। देखना आयशा हम दो अतिरिक्त फेरे भी लेंगे.......एक पर्यावरण को बचाने और दूसरा धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वालों को प्रेम का संदेश देने के लिए युवाओं का नया जत्था तैयार करने का। हम मदर्स डे.......फादर्स डे की तरह सर्वधर्म सम्भाव दिवस मनायेंगे......हम धर्मनिरपेक्ष दिवस मनाने की शुरूआत करेंगे और दुनिया में अलख जगायेंगे.......जागरूक करेंगे लोगों को बतायेंगे कि धर्म के नाम पर झगड़ा करने वाले दरअसल इंसान हैं ही नहीं.......काफिर वे हैं जो इंसान और इंसानियत के दुश्मन हैं''.....आयशा ने आंखें बंद कर ली और गहरी सांस छोड़ते हुए, बोली...काश....सब अच्छा ही हो....!!!!

पर पता नहीं एक पल को क्या हुआ.....तभी आयशा सीने से चिपककर फफक पड़ी। ''डर लगता है कहीं हमारे सपने कोई रौंद न दे.......तुमसे जुदा होकर मैं खुश नहीं रह पाऊँगी आशु!'' ''न जाने तुमसे दूर मेरी जिंदगी कैसी होगी?'' आशु काठ की लकड़ी की तरह एकटक खड़ा रहा कुछ कह नहीं पाया। बस इतना बोला-''कुछ करना पड़ेगा आयशा!'' आयशा-''हम किसी तरह आज बचते-बचाते दुकान पर खाना पहुंचाने के बहाने थोड़ी देर के लिए आ पाए हैं। अब हमारा, घर से निकलना बंद कर दिया है। कॉलेज भी नहीं जा पा रही हूँ। मेरा तुमसे मिलना नही हो पाएगा आशु!!!'' और आयशा रो पड़ी!!! आशु ने अपने हाथों की मुट्ठियां भींचते हुए आयशा को विश्वास दिलाया!!! ''जीत हमारी ही होगी, देखना दुनिया हमारे प्यार की मिसाले देगी.......। डरो नहीं.... घर वाले जैसा कहते हैं फिलहाल वैसा ही करो.....।'' और आयशा सिसकियां लेते हुए आशु से जुदा हो गई.......।

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घर पर विचारमग्न आशु दोनों हाथों को सिरहाना बनाकर सोचते हुए। ''क्या अब भी हमें दुनिया को समझाना होगा कि सबका मालिक एक ही है। भगवान एक है........उन्हें हम अपनी-अपनी भाषा में पुकारते हैं। धर्म इंसान को इंसान बनाने के लिए है। इसमें हैवानियत कैसी? फिर लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि तोड़ने वाले से जोड़ने वाला बड़ा होता है। फिर चाहे वह किसी पुल को जोड़े या किसी रिश्ते को। फिर जो हो रहा है वह भी तो उसी मालिक की मर्जी से ही हो रहा है फिर उसी के नाम पर यह अवरोध क्यों? अजीब लोग हैं किसी दुर्घटना में कोई मारा जाता है तो सब चुप्पी साधे रहते हैं लेकिन यदि एक गैर धर्म या जाति का व्यक्ति किसी को गलत बात पर चांटा भी मार दे तो लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं ये कैसा मानव व्यवहार है....।''

सोचने का क्रम जारी था.... आशु को नींद नहीं आ रही थी। करवट बदल-बदल कर सोने की चेष्टा करते हुए आशु आज किसी निर्णय पर पहुंच जाना चाहता था। ''भगवान को किसी ने नहीं देखा, कोई नहीं जानता भगवान कैसा है। ईश्वर कण-कण में है यह सारी कायनात उसी की बनाई हुई है इसलिए आस्था और विश्वास के चलते कई श्रद्धालु देवताओं को भी भगवान मानने लगते हैं। पर उससे भगवान का महत्व खत्म नहीं हो जाता। जैसे सूरज है कोई माने या ना माने। सूरज अपना काम कर रहा है। जो सूरज के महत्व को समझता है वह लाभ प्राप्त करता है जो नहीं समझता वह सूरज के लाभों से वंचित रह जाता है। यही हाल धर्म का भी है। दरअसल यह पूरा कार्य कई श्रेणियों में विभक्त है। जैसे इसी धरती पर उपजने वाले तरह-तरह के अनाज या फलों की श्रेणियां होती हैं वैसे ही इंसानों में भी होता है। जो ईर्ष्या, राग द्वेष, शत्रुता, नकारात्मक शैली का, दूसरों को हमेशा नुकसान पहुंचाने वाला धर्म विरूद्ध आचरण करता है वह शैतान और जो धर्म के अनुसार, प्यार मोहब्बत से मिलजुलकर, सबकी खुशहाली के लिए इंसानियत के कार्य करता है वह इंसान होता है। जो इंसानियत से भी ऊपर उठकर सभी की भलाई के लिए मिसाल बन जाता है वह देवता होता है। और भगवान, वो जो हम सबको जीवन और मृत्यु देता है जो हमारे भाग्य का विधाता है।''

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सोचते-सोचते आशु नींद के आगोश में चला गया। बाहर रात गहराती जा रही थी। दिसम्बर का महीना लगते ही ठण्ड भी अपना असर दिखाने लगी थी। इस शहर में जहां ऊंची एक से बढ़कर एक सुंदर अट्टालिकाएं हैं वहीं दूसरी ओर भयंकर गरीबी में जीवन-यापन करते बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग और जवान भी हैं इनमें से कई तो ठण्ड, गर्मी और बारिश की मार सहते फुटपाथ पर ही जीवन बसर करने को विवश हैं। दिनभर भरपेट भोजन के लिए इधर-उधर भटकते, भीख मांगते, गिड़गिड़ाते फटेहाल लोग। रात गहराते ही प्लेटफार्म, बस अड्डे या फिर जहां जगह मिल जाए वहीं कुछ पल को सो जाते। यह सोचते हुए कि शायद आने वाला कल, आज से बेहतर हो......।

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(स्मृतियों में डूबी आयशा, जैसे किसी को अपने बीते दिनों के बातें बता रही हो)

पर शायद इस शहर को किसी की नजर लगी थी, तभी तो एक ही रात में सब कुछ तबाह हो गया। न तूफान आने की संभावना, न बाढ़ का डर और न ही भूकंप की चेतावनी। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सब आराम से सो रहे थे। आने वाले सुनहरे कल के सपने लिये.........। शहर की किस्मत भी ऐसी कि गंगा-जमुनी तहजीब वाला यह शहर किसी दंगे में नहीं उजड़ा, किसी आग में नहीं झुलसा....। इसे तो दुनिया को अलग ही सबक देना था इसलिए पूरे शहर को जहरीली मिथाइल आइसोसाइनाड गैस ने लील लिया।

2 और 3 दिसम्बर 1984 की वो रात सचमुच बहुत भयानक थी बहुत ही भयावह, डरावनी.....जैसे कोई तीसरी शैतानी शक्ति इस शहर को बर्बाद कर देने पर आमादा हो........।

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भागो........भागो.........भागो! गैस निकल गई। सिलेण्डर फट जाएगा....भागो !!....गैस फैल रही है। अजीब-सी आवाज़ें सुनकर आशु बाहर निकला.....। पीछे से उसके माता-पिता भी आ गए। बाहर काफी चहल-पहल दिखी। कोई किसी के दरवाजे को खटखटा कर उठा रहा तो कोई किसी को आवाज देकर भागने को उकसा रहा। बर्दाश्त न होने वाली गंध और लगातार खांसी ने आशु को भी बेचैन कर दिया। दम घुंटता देख आशु अंदर की ओर भागा। कुछ समझ नहीं आया कि क्या करें........। बाहर काफी अफरा-तफरी मची थी। फिर घर की लाइट जलाकर जैसे ही खिड़की खोलकर देखा हवा के साथ गैस का ऐसा झौंका आया कि आशु का दम घुंटने लगा, खांसते हुए उसने देखा, आयशा और उसके घर वाले भी जैसे थे वैसी हालत में बदहवास से भागने की तैयारी में....। आयशा ने पलट कर आशु के घर की ओर देखा.....आशु ने भी आयशा को देखा.....। जैसे आशु को भी अपने साथ चलने को बुला रही हो.....जैसे कह रहे हों, साथ जीयेंगे साथ मरेंगे।

खिड़की को खुला ही छोड़कर आशु पलटा ही था कि खांसते हुए पिता बोले...... ''ये खिड़की क्यों खोल दी, जल्दी बंद कर, लाइट भी और कंबल ओढ़कर सो जा''.......आशु ने वैसा ही किया....लेकिन तब तक गैस घर में प्रवेश कर चुकी थी दम घुंटता देख पिता ने फैसला लिया कि घर खाली करना पड़ेगा। घर में काफी गैस घुस रही है। पूरा मोहल्ला ही भाग रहा है। लगता है कहीं सिलेंडर फट गया है और गैस फैल रही है यह बहुत खतरनाक हो सकता है। मां का गैस के कारण बुरा हाल हो रहा था। बोली-''बेटा अब बर्दाश्त नहीं हो रहा। ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने ढेर सारी मिर्चियां जला दीं हों और उसकी धांस से सबका खांस-खांस कर बुरा हाल हो रहा है, चलो बाहर निकलते हैं।'' तब तक कुछ पड़ोसी भी आ पहुंचे। ''चलो जल्दी खाली करो नहीं तो सब मारे जाएंगे।'' शायद कुछ दूर मैदान तक जाना होगा यह सोचकर वे निकलने को राजी हुए। खास बात ये भी थी, कि अधिकतर घरों में चूल्हे, सिगड़ी और स्टोव में ही भोजन बना करता था। गैस सिलेण्डर के बारे में लोग अधिक जागरूक नहीं थे। इसलिए कुछ लोगों को लगा कि किसी घर में गैस सिलेंडर लीक हो गया है।

एक तो ठण्ड....उस पर रात में पहनकर सोये कम और हल्के कपड़े और ये गैस। कंपकंपाते हुए, लड़खड़ाते हुए सब एक के बाद एक जिस गली में जगह दिखी जिसे जो समझ पड़ा, चल पड़े। सड़क पर कहीं पांव रखने की जगह भी नहीं बची। पिंजरों में पंछी फड़फड़ा उठे, रस्सी, जंजीर से बंधे पालतू पशु भी भागने के लिए बैचेन.....बकरियां मिमियाने लगीं, गाये-भैंसे तेजी से रंभाने लगीं, श्वान भौंकते-भौंकते कुकियाने लगे.....तांगे से अलग खड़े घोड़े हिनहिनाकर टांगे जमीन पर पटक रहे हैं.....गली से निकलते ही मुख्य सड़क पर आए तो देखा बड़ी संख्या में औरत, बच्चे, मर्द, बुजुर्ग सभी बदहवास-से भागे चले जा रहे हैं। जैसे किसी घनी, धुएं से भरी अंधेरी सुरंग में धांय-धांय की डरावनी आवाज के साथ लोग घुसे चले जा रहे हैं, कहते हैं कि न चाहते हुए भी गुफा में समाते जा रहे हैं, किसी की सांस फूल रही तो कोई लड़खड़ाकर गिर पड़ा। कोई चलने में असमर्थ धक्के खाते, संभलते-संभलाते....बढ़ रहा....जैसे कोई रैली या जुलूस हो.. लोगों का रेला का रेला आगे बढ़ा जा रहा था। कहां जाना है कैसे जाना है....क्या हुआ, कैसे हुआ कितना और चलना है कुछ पता नहीं.......। बस जान बचाना है तो बढ़े चलो...........। जहां भी जाओ, गैस की एक धुंध एक चादर सी बिछी दिख रही थी। सभी का खांस-खांस का बुरा हाल था। न कोई युद्ध, न कोई विस्फोट........फिर भी सभी ओर कोहराम-सा मच गया। आधी रात को जहां देखो वहीं लोग ही लोग। बीमार, खांसते..... खुद से लड़ते लोग.........। अफरा-तफरी में फंसे लोग.....सनसनी में सन्न हुए लोग........ऐसे में जब सबको अपनी जान की परवाह थी और सभी भागमभाग में लगे हुए थे। तब अपना घर छोड़ते हुए, अपना मोहल्ला छोड़ते हुए कईयों के आंसू निकल पड़े।

आयशा अपने पापा का हाथ पकड़े आगे जा रही थी। पर उसे आशु की चिंता भी खा रही थी.....। वह अपने पिताजी का हाथ छुड़ाकर थोड़ा रूककर पीछे की ओर देखना चाहती थी कि आशु का हाल क्या है.......। जो मेरी आंखों के सामने रहता है, वो इतनी भीड़ में क्यूं दिखाई नहीं दे रहा है। आशु भी अपनी लाल हो चुकीं आसुंओं से भरी आंखों से अपनी आयशा को खोज रहा था। गैस के कारण आंखों से धुंधला दिखाई दे रहा था। आंखे मलते....धक्के खाते किसी तरह जान बचाते, भूखे-प्यासे आगे बढ़ते लोगों का कारवां। पता ही नहीं कहां जाना है? सीने और आंखों में जलन के बाद भी आयशा और उसके घर वाले भी तेजी से आगे बढ़ रहे थे। आयशा का गला सूखा जा रहा था। पापा कराहते हुए बोले-''अरे चल न, तेज चल नहीं तो बच नहीं पाएंगे''.......किसी तरह लड़खड़ाती जुबां से आयशा बोली-''पापा गला सूख रहा है प्यास लग रही है। पानी!!!!!! चाहिए.......पेट फूल रहा है.....छाती और आंखों में तेज जलन हो रही है...'' खुल्ल-खुल्ल खांसने की आवाजों के बीच.....कुछ लोगों को उल्टियां होने लगीं,. पापा को कुछ समझ नहीं आया....उन्हें तो एक ही धुन थी किसी तरह भीड़ से अलग आगे निकला जाए। बोले-''आयशा पागल मत बन...चल जल्दी निकल नहीं तो हम मारे जाएंगे।'' ''नहीं पापा अब नहीं चलते बन रहा....।'' पापा का भी बुरा हाल था। कदम लड़खड़ा रहे थे। कई लोग जो गैस को बर्दाश्त नहीं कर पाये वे यहां-वहां गिर चुके थे। किसी को चक्कर आ गया तो कोई बेहोश हो गया। मौत का मंजर देखते हुए आयशा और भी घबरा गई। पता नहीं आशु कहां चला गया। बार-बार मुड़कर देखती.....प्यार परवान चढ़ता इससे पहले ही.........नये-नये प्यार का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था.........एक उमंग थी साथ जीने-मरने की......दम भी निकले तो चाहने वाले के साथ ही, एक साथ मिलने का उत्साह......किसी फिल्मी हीरो के माफिक अपने साथी को विपरीत हालात से निकालने का रोमांच.....आशु उसके पीछे किसी चमत्कार की उम्मीद लिये ही आ रहा था। आशु कसमसा रहा था......शक्ति बटोर रहा था किसी तरह....यही मौका है आयशा के घर वालों का दिल जीतने का.... आयशा भी कितनी खुश होगी!!...जैसे फिल्मों में होता है......हीरो, हीरोइन की जान बचा लेता है और फिर दोनों सदा के लिए एक हो जाते हैं... तभी आयशा का हाथ छूटा और वो घरवालों से बिछड़ गई। कुछ देर रूकी और गश खाकर वहीं जमीन पर गिर गई। सभी ओर चीख पुकार मची हुई थी। फिर अचानक न जाने क्या हुआ आयशा उठी और पीछे की ओर दौड़ लगा दी.......आशु!!!!!!!!!!! तुम कहां हो........तब तक आशु भी बदहवास भागती भीड़ में अपने माता-पिता से बिछड़ चुका था। अपनी ओर आयशा को गिरते-पड़ते दौड़ते आते देख आशु को भी हिम्मत आ गई। मूर्छा-सी अवस्था में बांहे फैलाते आयशा की ओर लपका। जैसे पता हो अब साथ छूटने वाला है....। दोनों करीब आए और गले लग गए।

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रोते खांसते हुए आयशा बोली- ''ये क्या हो गया आशु.....क्या हो गया.....सब कुछ उजड़ गया......आशु!!'' ''हमारे सपने, हमारे जज्बात, हमारे अरमान !!'' तभी आयशा ने अपने हाथों से आशु के सिर के बालों पर हाथ फेरा और बालों को मुट्ठी में दबाते हुए नम लाल आंखों से बोली-''आशु ! तुम ठीक तो हो ना'' फिर आशु के चेहरे को अपने सामने करके देखते हुए! खांसते हुए, जलन से कराहते हुए......आशु भी हैरत में था इससे पहले कि वह कुछ कहता दिलासा देने के सिवा उसके पास कुछ नहीं था.....अपनी बेबसी, अपनी कमजोरी पर झुंझला रहा था........''सब ठीक हो जाएगा आयशा....सब ठीक हो जाएगा।'' भीगीं पलकों के साथ, ''हमें हिम्मत रखना होगा.....ये परीक्षा की घड़ी है.....किताबी नहीं जीवन की परीक्षा, हमारे सांसों का, हमारे प्यार का इम्तहान,'' ''और.....और....औ....और....रर! आशु कुछ कह पाता इससे पहले ही आयशा- ''हां, बोलो आशु....बोलो''

आशु :- '' और, प्यार करने वालों के साथ ऊपर वाला होता है हमें कुछ नहीं होगा....'' कहते हुए वापस गले लग जाता है फिर दूर होकर खांसते हुए जैसे उसका कलेजा मुंह को आने लगा। अब तो दोनों से बोलते हुए भी नहीं बन रहा था। सांसे उखड़ती जा रही थीं, ऐसे हांफ रहे थे जैसे एवरेस्ट की चढ़ाई करके चोटी पर पहुंचे हों। आयशा बोली-''थोड़ा संभालो अपने आपको आशु.....नहीं तो''.......कहकर तेजी से रोने लगी। खांसते हुए थूक बाहर निकल आया था आशु बोला-''अब नहीं चला जाता। पर जान बचाने के सिवाय हमारे पास कुछ नहीं है....'' ''थोड़ा रूको'' आयशा बोली तो आशु ने भी किसी जख्मी फौजी की तरह हाथ से आगे की ओर इशारा करते हुए कहा......''नहीं हमारे माता-पिता सब आगे निकल गए हैं हमें उन तक पहुंचना होगा''.....उखड़े-उखड़े कदमों से किसी तरह आगे बढ़ते हुए-आशु बोला-''इस जमाने ने तो हमें मिलने नहीं दिया पर इस गैस ने हमें इतने करीब जरूर ला दिया कि आज हम गले लगकर रो लिये।'' गालों पर लुढ़क आए आंसुओं के साथ हल्के से मुस्कुराते हुए ''अजीब जमाना है, अजीब लोग हैं'' ''चलो कम-से-कम मुसीबत में तो एक हैं!'' फिर आसमान की ओर देखने के बाद वापस अपने लड़खड़ाते कदमों से सड़क पर बिखरे-पड़े जूते-चप्पल और जहां-तहां पड़े शवों को देखते हुए आयशा और आशु एक-दूसरे का हाथ थामे वहीं बैठ गए। जब कुछ होश संभाला तो देखा, आयशा बेसुध पड़ी है। खांसते हुए धुंधली आंखों से देखा...लोगों के पैर ही पैर नजर आ रहे थे। समीप में देखा आयशा निश्चिंत सो रही थी.... आशु ने आंखे मलते हुए देखा और उसके गालों को थपथपाते हुए उसे उठाने की कोशिश की...जब वह नहीं उठी तो तेजी से चिल्लाया ''आयशा!!!!!!!!'' आसमान की ओर मुंह करके फिर आयशा की ओर देखा और चिल्लाया। आयशा को होश भी नहीं वह तो सिर्फ आशु का साथ चाहती थी.......।

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आशु को लगा उसे ही कुछ करना होगा...। पास में आयशा निढाल पड़ी थी.......सामने देखा एक बच्चा बुरी तरह रो रहा था, ''अब नहीं चला जाता माँ!!!'' ''मुझे यहीं छोड़ दो! और कहां तक ले चलोगी.....।'' लड़के से चलते नहीं बन रहा था.... वह दर्द से कराह रहा था.....माँ भी कहां मानने वाली थी.....12-15 साल के लड़के को गोद में लादे भरी भीड़ में चल रही थी। तभी किसी का धक्का लगा और मां-बच्चे सड़क पर गिर पड़े..... बच्चा तेजी से कराह उठा.... माँ!!! ''तू भाग जा मां!!'' ''लगता है मेरे पैर का फोड़ा फूट गया है अब नहीं''..........शब्द वहीं के वहीं रूक गए.....''नहीं बेटा इस माँ का साथ नहीं छोड़ना बेटा...तेरे सिवा मेरा इस दुनिया में कोई नहीं.......बस तुझे देखकर ही तो जी रही थी......बेटा हौसला रख हम जीतेंगे''.......''देख यहां गैस का प्रभाव कम होने लगा है, यदि थोड़ी, दूर और चल ले तो हम बच जाएंगे।'' उठ बेटा, एक बेबस माँ की खातिर यहां से दूर भाग चल!!! बच्चा दहाड़े मार कर रो रहा था कुछ कह नहीं पा रहा था इशारे से बस सिर और हाथ हिला कर मना करे जा रहा था।

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अपनी जान बचाने की खातिर स्वार्थी बने लोगों में कुछ ऐसे जिगर वाले अनुभवी भी थे जिनका यह भ्रम टूटते देर नहीं लगी कि यह गैस सिलेण्डर फटने का कारण नहीं....असल वजह कुछ और ही है.....यदि वजह पता चल जाए तो लाखों की जान बचाई जा सकती है। फिर भीड़ से अलग जब सब लोग आगे की ओर बढ़ रहे थे.... दो नौजवान भाईयों ने हाथ भिड़ाये और भीड़ में जगह बनाते हुए विपरीत दिशा की ओर बढ़ने लगे...। ''मरना तो यहां भी है फिर मौत का क्या ठिकाना........चलो कुछ बेहतर करके ही मरते हैं''......आंखों में लालिमा लिये इन्होंने गिड़गिड़ाते अंदाज में पूछा-''भीड़ कहां से आ रही है।'' किसी को कुछ पता नहीं। सब भेड़ चाल में भागे चले जा रहे हैं जाने कहां? किसी ने कुछ बताया तो किसी ने अनभिज्ञता जाहिर कर दी। पूछताछ में इन्हें पता चला कि शहर से सटे औद्योगिक क्षेत्र में यूनियन कार्बाइड के कारखाने से मौत की गैस रिस रही है। इन्हें आजादी के महापुरूषों का स्मरण हो आया। देश की खातिर फांसी के फंदे को चूमते अमर शहीद भगत सिंह, अशफाक उल्ला खान, राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई.....और न जाने कितने अनाम शहीद..... इन विपरीत हालातों में इन्हें सूझा....''यही कुछ कर गुजरने का वक्त है दोस्त.....'' ''पर वहां तक पहुंचा कैसे जाए.......भीड़ से निकलना ही पहली चुनौती थी......''

गाड़ियों का भी लंबा जाम लग चुका था जब देखा गाड़ियां आगे नहीं बढ़ सकती तो दम घुटता देख लोग गाड़ियों से निकल-निकल कर भागे। ऐसे में इन्होंने मुंह पर गीला कपड़ा लपेटा.....आंखों में चश्मा लगाया और पास ही खड़ी एक मोपेड को उठा कर चल दिये विपरीत दिशा से। कभी फुटपाथों से होते हुए तो कभी बीच सड़क से बचते-बचाते गिरते-पड़ते घायलावस्था में किसी तरह कारखाने तक पहुंचने में सफल हो गए.... इंसान यदि ठान ले तो क्या नहीं कर सकता....।

अब चुनौती थी कि कैसे कारखाने से रिस रही गैस को बंद किया जाए कुछ समझ नहीं आ रहा था....। हालांकि कारखाने के ठीक नीचे गैस का असर बिल्कुल नहीं था। तभी इनकी नजर कारखाने में तैनात कुछ कर्मचारियों पर पड़ी....। इन्हें झकझोरते हुए इन युवकों ने गैस रिसाव बंद करने पर जोर दिया। कर्मचारियों ने रोकना चाहा.. धमकाया भी....''आगे मत बढ़ो मारे जाओगे...'' गैस लीकेज रोकने के लिए इंजीनियर को बुलाया गया है''....दूर से ही हाथ के इशारे से सबको कहते हुए दोनों युवक :- ''अरे हटो कैसा काम चल रहा है जो अब तक गैस नहीं रूक रही है....!!! जब सब मारे जाएंगे तब रोकोगे गैस.....'' इनपर तो जैसे समाज सेवा का भूत सवार था......हम भले ही मर जाएं पर लाखों लोगों की जान बचाकर ही दम लेंगे। इंसानियत के पहरेदार बने ये दोनों युवक ऊपर की ओर लड़खड़ाते हुए बढ़ने लगे। जैसे किसी पहाड़ की बाधायें लांघ रहे हों........इनकी जिजीविषा देखकर कर्मचारियों में भी जोश जाग गया। इन्होंने पड़ताल की और किसी तरह मुंह पर कपड़ा बांधे हुए उस टैंक तक पहुंचने में सफल हो गये जिससे गैस लीक हो रही थी। जान जाती इससे पहले ही इन्होंने टेंक के बाल्व को बंद करने के लिए ताकत आजमाना शुरू कर दिया। पर सांस फूलने के कारण वे बॉल्व को अधिक जोर से नहीं कस सके और गैस धीमी-गति से अभी भी रिस ही रही थी। इन्होंने अपने कपड़े उतार कर बॉल्व को कस दिया। कहीं शर्ट ढूंस दी तो कहीं पेंट। ये दोनों युवक अनजान ही बने रहे....। जैसे आजादी की लड़ाई लड़ रहे हों... अंत तक एक सेना की तरह जज्बा भरा रहा इन युवकों में। हार नहीं मानी। जब देखा कि गैस रिसना बंद हो गया है तब कहीं जाकर राहत की सांस ली, लेकिन तब तक दोनों की संासें उखड़ने लगीं.... इनमें से एक युवक की शादी होने वाली थी। शहनाई बजती इससे पहले ही खुशियां मातम में बदल गईं। जबकि दूसरे युवक का एक छोटा-सा बच्चा था....वह कहां भागे....कैसे हैं कुछ पता नहीं.....। वह भीड़ में पापा!!! पापा!!!! चिल्लाता रहा, पर पापा तो उस जैसे सैकड़ों बच्चों की जान बचाने को आतुर........कुछ ही पलों में एक दोस्त ने दूसरे दोस्त की गोद में सिर रखकर जान गंवा दी औरों की खातिर....... आंखों से ओझल होते नजारे में .....संासे उखड़ने से पहले वह मुस्कुराया जैसे जीवन सफल हो गया......उसे अपनी बूढ़ी मां याद आई जो चंद रोज पहले ही उसकी शादी की तैयारी में मंगलगीत गाकर खुशी से नाच रही थी......अपनी बहिन, पिता और भाईयों को भी याद किया......और वह भी जो जीवनसंगिनी बनने जा रही थी.......शादी की तैयारियों का नजारा दुनिया को अलविदा करने से पहले आंखों में तैर गया।

कर्मचारी ने ये नजारा देखा तो उसकी आंखें डबडबा आईं.... निर्झर आंसू बह निकले......दोस्त-दोस्त को हिलाते हुएः- ''तू मुझे छोड़कर नहीं जा सकता...'' ज्यादा देर नहीं लगी प्राण निकलने में.... कुछ कह पाता इससे पहले ही शब्द अधूरे ही खांसते-खांसते दम फूलते अटक गए....। कुर्बानी की ऐसी प्रत्यक्ष मिसाल कर्मचारी ने पहली बार देखी.........।

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इधर रेल्वे स्टेशन पर भी जब स्टेशन मास्टर को लगा कि कुछ बड़ा हादसा हो गया है तो वह भी ड्यूटी छोड़कर नहीं भागा। अकेले ही मिर्ची की धांस जैसी गंध में कूलते हुए उसने प्लेटफार्म पर आने वाली सभी रेलगाड़ियों को टेलीफून कर-कर के रोका। नहीं तो मरने वालों की तादाद कहीं ज्यादा होती। नतीजा यह हुआ कि रेलगाड़ियों में यात्रियों को देर जरूर हुई पर वे भयावह हादसे से बच गए। स्टेशन मास्टर ने प्राण पखेरू उड़ने से पहले तक एक बड़ा काम कर दिया.....उसकी जान भले ही चली गई पर पटरियों को खाली देखकर मरने से पहले स्टेशन मास्टर मुस्कुराया और फिर खुली आंखों से ही इस संसार को अलविदा कह गया....। अपने फर्ज को निभाते हुए महत्वपूर्ण ड्यूटी निभाने का सुकून उसके चेहरे पर झलक रहा था....उसने संकट में भी नहीं छोड़ा काम....और जो रेलगाड़ियां जहां थीं वहीं रोक दी गईं....। बस स्टेण्ड, प्लेटफार्म और फुटपाथों पर रात गुजारने वाले दिहाड़ी मजदूर, गरीब वर्ग के यात्री और भिखारियों ने दम घुंटने से वहीं दम तोड़ दिया। अस्पतालों में तो और भी बुरा हाल था.....कई नवजात बच्चों ने बिलख-बिलख कर माँ की गोद में ही अंतिम सांस ली....बच्चे को संभालते कभी खुद संभलती बेसुध पड़ी माताओं को भी नहीं पता चल सका कि उनकी गोद अब सूनी हो गई है। कुछ ने रात अंधेरे विशाल पेड़ों से लिपटकर किसी तरह ऑक्सीजन पाने की कोशिश में जीने का प्रयास किया। धरती पर राहत नहीं मिली तो कईयों ने बचने के लिए तालाब में छलांग लगा दी। इंसान ही नहीं जानवरों और परिंदों के भी बुरे हाल रहे......कई जानवरों और पक्षियों ने भी फड़-फड़ाते, तड़पते हुए जान दी। ऐसे में कई ऐसे भी थे जिनपर जिम्मेदारी थी प्रजा की रक्षा की वे आनन-फानन में ऐरोप्लेन से भाग निकले.....।

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गैस रिसाव बंद होने के बाद अब तक आशु को बहुत कुछ राहत-सी मिल गई, कुछ हिम्मत आई तो किसी तरह अपने बोझिल हो चुके शरीर को घसीटते हुए आशु हांफते.....दम लेते नगर निगम के हाइड्रेंट तक पहुंच गया। यहां काफी भीड़ जमा थी। कुछ पानी पी रहे थे कुछ आंखें धो रहे थे। पानी, पी-पी कर आशु का पेट फूल गया, पर प्यास थी कि बुझ ही नहीं रही थी। उसे समझते देर नहीं लगी। उसे कुछ पल को अपने माता-पिता का ख्याल भी आया वे भीड़ में उसे ही ढूंढ रहे थे। फिर उसने पानी ले जाने के लिए इधर-उधर बॉटल को तलाशा जब कुछ नहीं दिखा तो पीछे की जेब से रूमाल निकाला। धक्का-मुक्की के बीच किसी तरह रूमाल को गीला किया और वापस चल दिया आयशा की ओर..........। जब लड़खड़ाते वह आयशा के पास पहुंचा तो वह वहां दिखी नहीं. लाल धुंधलाती आंखों से उसने जोर देकर उसे आसपास देखना चाहा। पर धुंध के साये में भीड़ के सिवा कुछ नजर नहीं आया। जहां भी नजर दौड़ाई लोग ही लोग......चीख-पुकार....शोर शराबा। आशु भटक गया, बड़बड़ाने लगा....''कहां चली गई मेरी आयशा''....''तुम ने भी मेरा साथ छोड़ दिया।'' फिर देखा दो लोग एक लड़की का हाथ पकड़कर घसीट रहे हैं पास पहुंचा तो देखा आयशा ही थी....आशु चिल्लाया....''हटो...कौन हो तुम लोग.......दूर हटो''......''तुम ऐसा नहीं कर सकते''........आशु के विरोध के चलते दोनों युवक आयशा को छोड़ कर भीड़ में भाग खड़े हुए....आशु ने गीला रूमाल निकाल कर आयशा की आंखों पर रख दिया। कुछ बूंदें माथे पर टपकायी तो आयशा ने होले से आंखे खोली....''आयशा तुम ठीक हो चलो....यहंा से निकलना होगा....समय कम है.....। नहीं तो बेमौत मारे जाएंगे....।'' आयशा को आशु ने हाथों में उठाने की कोशिश की, पर बेदम आशु काफी बेबस हो चुका था। किसी तरह दोनों एक-दूसरे को थामे आगे बढ़ते चले गए। समतल सड़क पर तो सब ठीक रहा, पर अब घाटी चढ़ने में सांसें फिर उखड़ने लगीं। कई लोग तो चलते-चलते खड़े के खड़े धड़ाम से जमीन पर गिर रहे थे.....।

जो चल सकते थे उन लोगों का कारवां एक-दूसरे को रौंदते हुए आगे बढ़ता चला गया। जो सड़क पर पड़े थे उन्हें नहीं पता कि वे कहां पड़े हैं........कैसे पड़े हैं। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया......सबको अपनी परवाह, अपने से मतलब, अपने-पराये का कोई भान नहीं.......बस भेड़ चाल में बढ़ते चले गए.....गिरते चले गए.......। किसी तरह दोनों घाटी चढ़े....चौराहे पर लाइट जल रही थी काफी रोशनी थी.....कई लोग इधर-उधर बेतरतीब ढंग से पड़े हुए....पता ही नहीं कि सो रहे हैं या मर गए....। जब लगा कि यहां थोड़ा मेहफूज हैं वहीं घुटनों के बल लुढ़क गए। दोनों की हिम्मत जवाब दे गई....। ठण्ड भी काफी थी लिहाजा दोनों एक-दूसरे से लिपटे पड़े रहे। न तन ढंकने को चादर, कंबल न बिछाने को बिस्तर........। ऊपर धुंध भरा आसमान और नीचे खुरदरी जमीं.....।

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रातभर सारा शहर इधर-उधर भागता रहा। इधर जब गैस लीक होना बंद हो गई। आंख लगी भी नहीं थी ठीक से कि झट सुबह भी हो गई। सुबह तक स्टेशन पर उतरे यात्रियों ने मरघट में तब्दील भोपाल की तस्वीर देखी तो रूह कांप उठी। स्टेशन मास्टर जैसे जाबांज सिपाही को सलाम करना नहीं भूले....। ये यात्री समझ गए कि देर आए पर दुरूस्त आए... और जान बची तो लाखों पाये.........।

जैसे हर रात के बाद सबेरा होता है.....भोपाल ने भी सबेरा देखा....पर न तो चिड़ियों की चहचहाहट......न ही भोर का वैसा उजाला.....। मंदिर की घंटियां खामोश.......मस्जिद का लाउडस्पीकर शांत.....। ठण्ड की ठिठुरन से आयशा की नींद खुली.......देखा तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा था....पास ही आशु पड़ा हुआ था जैसे घोड़े बेचकर सोया हो....आयशा ने थपकियां देकर बहुत उठाने की कोशिश की, पर वह नहीं उठा। आयशा उससे लिपटकर रोने लगी.....आशु निश्चिंत किसी मुर्दे की तरह पड़ा रहा। आयशा किसी तरह कूलते हुए खड़ी हुई....हल्का-सा दिखाई पड़ते ही, चारों ओर नजरें घुमाईं.....और दर्द, आंसुओं के जरिए बह निकला...बहुत रोना आया....फिर दोनों हाथों को मुंह पर रखकर फूट-फूटकर आयशा रोने लगी। जैसे जंग के मैदान में वह सब कुछ हार बैठी थी। कुछ देर बाद किसी ने उसके सिर पर हाथ फेरा तो आयशा चौंक गई....देखा, सामने पापा और भाई खड़े हैं....आयशा घर आ गई।

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छत से देखा तो भोपाल एकदम शांत....जैसे हवा की सरसराहट भी बंद हो गई.....कई घरों के दरवाजे ज्यों-के-त्यों खुले पड़े रहे.....नीचे नल पर कुछ कोलाहल जरूर था। फिर नजर आशु के घर की ओर दौड़ गई। उदास चेहरे से देखते ही आयशा के गालों पर फिर आंसू लुढ़क आए। भागते हुए नीचे आई, आइना देखा तो आंखें टमाटर जैसी लाल.....बिखरे बाल, नाक का अग्रसिर भी गुलाबी... आयशा कभी ऐसी नहीं रही। घर में मन नहीं लगा तो मोपेड निकाली और चल दी उसी घाटी की ओर जहां आशु से बिछड़ी थी। पर यहां अब तेजी से राहत और बचाव का कार्य चल रहा था। लाशों के ढेर में आशु को पहचानना बड़ा मुश्किल था। उसकी मां और पिता का भी पता नहीं.....बड़े उदास मन से घर लौट आई....।

कहीं लाशों के ढेर के ढेर जलाये जा रहे थे....कहीं लाशों के ढेर दफन करने की तैयारी चल रही थी। जो बच गए वे अस्पतालों में इलाज को दौड़े..... कुछ घरेलू उपाय बताने... परिचितों की खैर-खबर लेने भागे.....।

कईयों ने सुबह का सूरज नहीं देखा....। लाशों के ढेर बिछ गए। जैसे कोई युद्ध के बाद का नजारा हो.....। कहीं किसी के कपड़े........किसी का सामान.........तो कहीं किसी की लाश........। और बस सन्नाटा ही सन्नाटा!!!!! चहल-पहल और भागदौड़ भरे शहर में सब कुछ थम-सा गया।

इतना सब होने के बाद भी पूरी बेशर्मी से यदि कोई खड़ा था तो वो था यूनियन कार्बाइड का कारखाना!! इसी कारखाने के टैंक नंबर 204 से जहरीली गैस रिसी और मौत का तांडव हुआ था।

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जिंदगी पटरी पर लौटती इससे पहले ही दोपहर में अफवाह फैल गई कि गैस फिर लीक हो रही है... शहर खाली करो.....। लोग फिर पलायन को मजबूर हो गए........। प्रशासन ने किसी तरह जगह-जगह एलान करके स्थिति को नियंत्रित किया। आयशा ने समाचार-पत्रों में पढ़ा और रेडियो पर सुना तो उससे रहा न गया, बार-बार आशु से आखिरी पलों की, वो मुलाकात और पुरानी यादें ताजा हो जातीं......उसका मुस्कुराता चेहरा, उसके हाव-भाव....। माँ ने देख लिया तो गले से लगा लिया....बोली-''रो नहीं मेरी बच्ची, नहीं तो आंखें फिर सूज जाएंगी....।'' ''कितना बुरा हादसा हुआ न मम्मी ....जैसे सब कुछ हार गए....सब लुट गया''.......और फफककर रो पड़ी आयशा......कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मम्मी ने दिलासा दिया.....''सब ठीक हो जाएगा....बस हौसला रख.......ईश्वर के घर देर है अंधेर नहीं..........विश्वास रख.....। जो बीत गया उसे भूल जा....'' आयशा फिर झुंझला उठी......बिफरकर बोली.....''माँ कैसे भूल जाऊँ....कैसे.??...क्या आप भूल सकतीं हैं......बचपन की वो बातें जो आपने इसी गली में बिताईं......मॉ आप तो उस पालतू को भी नहीं भुला सकतीं, जो मामा ने दिया था....तो आप कैसे कह सकती हैं कि मैं भुला दूं, वो सुनहरे दिन, वो स्वस्थ और मस्ती में तरोताजगी से भर देने वाले दिन......। हम तो बीमार हो गए हैं माँ........भरी जवानी में बीमार''......फिर बोलते....बोलते हांफ गई....खांसने लगी......

''पता नहीं मम्मी हमारा क्या होगा.... इससे तो अच्छा होता गैसकांड हमें भी उठा लेता''......माँ ने आयशा के मुंह पर हाथ रख लिया.....''बस मेरी बच्ची बस, सब्र रख. कुछ न कह.... इतनी जल्दी हार मान जाएगी क्या.....जिंदगी में संघर्ष करना सीख.....तेरी माँ कह रही है.... सब ठीक हो जाएगा''.....और दिलासा देते-देते माँ की भी आंखें आसुंओं से छलछला उठीं.....एक बेबस माँ और कर भी क्या सकती थी....ऐसे विपरीत समय में। तभी आयशा के भाई और पिता भी आ गए......बोले-''बाजार में सन्नाटा पसरा है। कहीं कोई कुत्ता तक भौंकने वाला नहीं...मातम पसरा है शहर में मातम........शुक्र है मालिक का कि हम किसी तरह बच गए.....ठीक भी हो जाएंगे। पूरा शहर जैसे कब्रिस्तान में तब्दील हो गया है। देखा नहीं पूरा अखबार शुरू से लेकर आखिर तक इसी खबर से पटा पड़ा है।'' आयशा दुपट्टे से मुंह छिपाते हुए तेजी से रो पड़ी......और अपने कमरे की खिड़की से बाहर झांकने लगी। अंदर उसकी मां ने उसके पिता से कहा....''अब बस भी करो....अभी बच्चे हैं बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे.......शहर वैसे भी खाली हो रहा है....हम भी कहीं दूर चलते हैं....जब सब ठीक हो जाएगा तो आ जाएंगे....।'' बाहर ओझल आंखों से आयशा को लगा कि दूर सड़क पर आशु चला आ रहा है.......वह रोते-रोते थोड़ी मुस्कुराई....लेकिन पास आने पर पता चला वह कोई और ही था।

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आशु तो एक खाली खुले परिसर में मुर्दों के बीच पड़ा था....और उसके माता-पिता अपने इकलौते बच्चे को खोज रहे थे....। जब लाशों के ढेर के ढेर जलाये जा रहे थे तभी आग से धमस से अचानक ही आशु को खांसी उठी.....राहतकर्मियों को कुछ अंदेशा हुआ.....पर वे समझ नहीं पाए कि किसने....कहां से खांसा.....उन्हें तो जैसे बस किसी तरह लाशों को ठिकाने लगाना था, लेकिन जैसे ही आशु को दोनों ओर से राहतकर्मी उठाने लगे उन्हें कुछ अंदेशा हुआ.....दोनों राहतकर्मियों ने एक-दूसरे को देखा......और साइड में रखते हुए बोले......इसे बाद में देखते हैं...अलग रखते ही आशु ने करवट ले ली....लाशों के ढेर में जिंदगी को पुनः लौटते देखना राहतकर्मियों के लिए भी खुशी का संचार कर गया। दोनों राहतकर्मियों ने एक-दूसरे को देखा और तुरत-फुरत हाथों में ही पानी लाए और चेहरे पर पानी की बौछार मारकर आशु को थपकियां दीं....आशु ने अनमने मन से आंखें खोली तो हैरत में पड़ गया.....आंखें मिचमिचाते, मलते हुए ''ये कहां आ गया मैं''.......इधर-उधर घूमकर खड़े होते हुए ''ये सब कैसे हुआ''......फिर धूल भरे कपड़े झाड़ते.......लोगों को बड़ी बेचैनी और घबराहट से ताकते हुए.......अरे !! और फिर खांसने लगा......बचाव दल के सदस्य - ''चलो इन्हें अस्पताल ले जाना पड़ेगा.......।'' कुछ राहतकर्मियों ने आशु को अस्पताल में भर्ती करा दिया.......कॉलेज के परिचय पत्र से आशु के घर पर संदेशा भिजवाया......तो माता-पिता दौड़े-भागे अस्पताल पहुंचे....आशु को जिंदा देखकर जैसे उन्हें नई जिंदगी मिल गई....। ''हम तो तुझे खो ही चुके थे बेटा....पर मालिक ने हमारी सुन ली। तू कहां चला गया था.....तुझे ढूंढने में दिन-रात एक कर दिये......।''

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आशु और आयशा जैसे सैकड़ों मरीजों की हालत में अब सुधार आता जा रहा था.....। मौसम बदले और जिंदगी में फिर से बहार आने लगी......लेकिन दर्द.....पीड़ा....को झेलते हुए कई गैस पीड़ित अपने सम्मान, स्वाभिमान के लिए संघर्ष करते रह गए.....। शायद गरीब थे......इसलिए सुनवाई को...........न्याय को जीवनभर तरसते रहे और दुनिया से विदा ले ली........इस उम्मीद में कि शायद अब कोई 1984 वाला भोपाल न बने.......अब कोई गैस कांड जैसी विभीषिका का शिकार न हो......।

शहर से पलायन के बाद जब कुछ सामान्य होने लगा तो लोग एक बार फिर घरों को लौट आए और जीवन-यापन करने लगे।

लोगों ने दुःख का वो मंजर भी ऐसा देखा कि रंजिशों से भरा दिल भी पसीज गया। बदलते मौसमों और ऋतुओं के साथ ही भोपाल फिर उठ खड़ा हुआ....। मुसीबतों से जूझते हुए आयशा और आशु का प्यार और भी मजबूत और गंभीर हो चला। संवेदनाओं के सागर में उमड़ते हुए प्यार को देखकर उनके घर वालों ने भी चुप्पी साध ली....यह सोचकर कि बच्चों की खुशी में ही हमारी खुशी है। बड़े-बुजुर्ग आपस में राजी होते या रिश्तेदार कहा-सुनी....टोका-टाकी के बीच उन्हें बदनाम करते.....बीमार हो चुके आशु ने ही आयशा को समझाया.....

''मैं कितने दिन का मेहमान हूं मुझे ही नहीं पता....शरीर अंदरूनी अंग खराब हो चुके हैं....ज्यादा दिन साथ नहीं निभा पाउंगा....घरवाले जहां कहते हैं वहां शादी कर ले''....पर आयशा कहां मानने वाली थी.....आशु ने एक ही सवाल किया....''मुझसे प्यार करती है......फिर जैसा मैं कहता हूँ वैसा ही कर..... मैं तो लड़का हूँ जैसे-तैसे बाकी जीवन गुजार लूंगा....पर तेरे सामने तो पूरी जिंदगी पड़ी है और तू अभी अच्छी-खासी है...। मेरे चक्कर में जीवन बर्बाद मत कर....।''

आशु :- ''मुझे तो मरना ही है''.....''नहीं'' एकाएक आयशा ने आशु के मुंह पर हाथ रखकर बंद कर दिया। ''नहीं, फिर कभी ऐसा नहीं कहना'' ''हमें सिखाया गया है कि हमें कभी किस्मत को दोष नहीं देना चाहिए।''

आयशा :- ''वादा करो, फिर कभी मरने की बात नहीं करोगे, ये जीवन ऊपर वाले की हमपर मेहरबानी है। मैंने तो यहां तक पढ़ा है कि खुदकुशी पाप है, ईश्वर का अपमान नहीं करना चाहिए।''

आशु :- ''अरे, तुम तो बहुत समझदारी की बातें करने लगीं। कहाँ पढ़ लिया इतना सब।''

आयशा :- ''पता है, राम के भाई लक्ष्मण, कितना बड़ा त्याग भाई के लिए किया, अपना परिवार, राजपाट छोड़कर भाई के साथ वन-वन भटके, उनकी रक्षा की, लेकिन वे भी खुदकुशी के पाप से नहीं बच सके, जब रामजी ने उन्हें अपने से दूर कर दिया तो उन्होंने जलसमाधि ले ली और वापस उन्हें शेषनाग बनना पड़ा, वो तो उनके पुण्य कर्म थे जो कृष्णजी ने द्वापर में उनका उद्धार किया।''

आशु :- आश्चर्य से ''अच्छा!!'' और ''क्या-क्या पता है मेडम जी को''

आयशा :- ''यही कि हमारे प्राण शरीर से दो तरह से निकलते हैं एक ऊर्ध्वगामी और दूसरे अधोगामी। जब प्राण प्राकृतिक तरीके से निकलते हैं तो ऊर्ध्वगामी यानी मुंह, कान, नाक से निकलते हैं और ऊपर की ओर जाते हैं, और जब अधोगामी प्राण निकलते हैं तो नीचे की ओर। तभी तो खुदकुशी करने वाले के शरीर में मलमूत्र बाहर आ जाता है और वह धरती पर रेंगने वाला जीव बन अगला जीवन बिताने को विवश होता है। इसीलिए भले जीवन कितने भी झंझावातों से जूझे पर खुद से मरना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं।''

आयशा की बातें सुनकर आशु ने आयशा के हाथों पर अपना हाथ रख दिया जैसे वादा कर लिया कि वह कभी आत्महत्या का विचार भी मन में नहीं लायेगा।

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इधर मौसम भले अनुकूल होता जा रहा था पर घर वालों का दबाव और आशु की समझाइश के बीच आयशा बड़े भारी मन से एक ऐसे निकाह के लिए राजी हो गई जिसमें उसकी सहमति कम और घरवालों की दखलअंदाजी ज्यादा थी। उधर आशु अस्पताल में अपनी सांसे गिन रहा था उधर दुल्हन बनी आयशा नई जिंदगी में प्रवेश कर रही थी.......शहर में एक ऐसा विवाह भी हुआ जिसमें एक तरफ शादी के नाम पर दिखावा था तो दूसरी तरह इस जोड़े ने अपने प्यार की अनूठी मिसाल पेश कर अपनी तमाम खुशियों को तिलांजलि दे दी।

आयशा गृहस्थी में व्यस्त हो गई..... गैस पीड़ित होने के कारण वे समय-समय पर स्वास्थ्य परीक्षण भी कराते रहते......। इसी बीच इन्हें पता चला कि वे अपने परिवार को बढ़ा भी सकते हैं.........तो दोनों की खुशियों का ठिकाना न रहा.......। एक छोटी-सी जांच के बाद दोनों ने परिवार बढ़ाने और नये मेहमान का स्वागत करने की तैयारी में जुट गए......। घर में नये मेहमान की किलकारी गूंजीं.......।

''क्योंकि सब कुछ संभव है''......कुछ यही सोचकर बड़े ही अरमान से आयशा ने अपने पहले बेटे के जन्म पर उसका नाम संभव रखा। ताकि उसके लिये कुछ भी असंभव न हो, लेकिन, कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। पिता का दुलार और मां के ममता भरे आंचल के बजाय संभव को पैदा होते ही मिला वेन्टीलेटर। जब 39 दिन बाद वह अस्पतालों की दीवारों से लड़कर बाहर आया तो लगा जैसे इतनी सुंदर दुनिया उसके लिये ही बनाई गई है।

रात-रातभर जागना और पैर पटककर रोते हुए वह बड़ा होने लगा। लेकिन, अपने पैरों पर खड़े होना तो दूर बैठना तक संभव नहीं हो सका। सेरेब्रल पाल्सी की जकड़ से आजाद होने के लिए वह झटपटा रहा है। उसके माता-पिता इलाज के लिए कई जगह भटके। कई अस्पतालों और धर्मस्थलों तक में एड़ियां रगड़ी, जहां भी पता चलता कि उनका लाड़ला इकलौता बेटा ठीक हो सकता है। वहां बड़े ही आस-विश्वास में उसे गोद में उठाये माता-पिता चल देते। अब वह दूसरे बच्चों की तरह न तो स्कूल ही जा पा रहा है और न ही खेलकूद सकता है। फिजियोथैरेपी से उसका इलाज किया जा रहा है लेकिन कब तक ठीक हो जाएगा, कोई नहीं जानता।

चार साल का होने पर उसे स्पेशल स्कूल में भेजा जाने लगा। यहां उसे आत्मनिर्भर बनाने की कसरत कराई जाने लगी। कई जगह संपर्क करने के बाद पता चला कि सेरेब्रल पाल्सी का कोई ठोस इलाज नहीं है और न ही यहां इतनी उच्चस्तरीय चिकित्सा की व्यवस्था है कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके।

सुना है कि दुनिया में सब कुछ संभव है तो फिर सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित बच्चे का उपचार कैसे असंभव हो सकता है? क्या वह भी और बच्चों की तरह कामकाज नहीं कर सकता? क्या वहं भी सपने देखने और उन्हें साकार करने की क्षमता प्राप्त नहीं सकता? क्या उसे निःशक्तता के अभिशाप के साथ ही जीना होगा? क्या उसकी जिंदगी वरदान नहीं बन सकती? कुछ ऐसे ही सवाल आयशा के मन में जब-तब उमड़ते-घुमड़ते, जिनके बच्चे सेरेब्रल पाल्सी जैसे रोग से ग्रस्त हैं। क्या इन्हें कभी इनके सवालों का जवाब मिल सकेगा? ऐसे कई बच्चे हैं जो अपनी जिंदगी पराश्रित रहकर गुजारने को विवश हैं। फिजियोथैरेपी सेंटर जाकर उसे पता चला कि गैसकांड के बाद जहरीले, हवा-पानी के असर से ऐसे कई बच्चों ने जन्म लिया। वह अकेली मां नहीं है ऐसी कई मांएं हैं........पर उसे तो घर वालों की घुड़की के साथ ही जीना था। परिवार में रहकर भी तन्हा.... मानसिक तनाव और जीवन, जिंदगी और मौत के अधर में। यह दास्तां एक दो नहीं ऐसे हजारों बच्चों की है जो गैस कांड के बाद आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए चुनौती बने हुए हैं।

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अतीत की यादों में खोई आयशा के मन-मस्तिष्क में किसी सपने या सिनेमा की तरह एक बार फिर से वही सब ताजा हो गया, जो कभी उस पर बीती थी। वह सिर को हल्के से हिलाकर सहसा वर्तमान में आती है और टेबिल से उड़कर फर्श पर गिरे अखबार उठाकर फिर से देखने लगती है। आयशा के चेहरे पर अब पहले जैसी रौनक नहीं, कमरे में सामने ही टेलीविज़न चल रहा है वह देख रही है : गैस कांड की बरसी पर स्मारक के आसपास मशाल जलाये पोस्टर लिये लोग एकत्रित हैं और श्रद्धांजलि के लिए मोमबत्ती जला रखी हैं। समीप ही कमरे में आयशा का दिव्यांग बच्चा पैर पटककर कुछ कहना चाह रहा है। आयशा रिमोट से टेलीविज़न बंद कर आंखों को बंद कर लेती है और फिर अपने बच्चे की ओर देखती है-बच्चा हाथों से आंखों की लुकाछिपी को देखकर मुस्कुरा रहा है.......!

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एक बहुत पुरानी कहावत है, टाइम इज द बिगेस्ट हीलर यानी वक्त सारे घाव भर देता है, लेकिन भोपाल की भीषणतम औद्योगिक गैस त्रासदी के पीड़ितों के घाव वर्षों बाद भी नहीं भर पाए। शारीरिक और मानसिक आघातों से उबरने में उन्हें न जाने अभी कितना और वक्त लगेगा। परिवार के हर सदस्य को अब संभव और उस जैसे कई बच्चों के चलने और आत्मनिर्भर होने का इंतजार है।


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लेखक परिचय

पूरा नाम : आशीष सहाय श्रीवास्तव

पिता श्री : श्री रघुवीर सहॉय श्रीवास्तव

माता श्री : श्रीमती राधा श्रीवास्तव

शिक्षा : बी.एससी, एम.ए. जनसम्पर्क स्नातक(प्रवीण्य सूची में)

निवासी : एलआईजी : 204, कोटरा, खेल मैदान के पास

भोपाल मप्र 462003

ईमेल : ashish35.srivastava@yahoo.in

लेखन कार्य : राष्ट्रीय और प्रादेशिक दैनिक, साप्ताहिक मासिक समाचार-पत्र, पत्रिकाओं में लेखन कार्य, आकाशवाणी, दूरदर्शन एवं न्यूज चैनल में विशेष कार्यक्रम, जेल बंदियों के सुधार, पार्क विकास, पर्यटन प्रोत्साहन, स्वरोजगार और प्रेरक सेवा कार्यों पर आधारित सामाजिक वृत्तचित्र निर्माण, गीत, कविता, स्लोगन स्वयंसेवी संगठनों के समसामयिक विशेषांक में लेखन, प्रकाशन कार्य।

शताब्दियों की यात्रा, श्री राम महिमा, स्वरोजगार से सफलता, उद्यमिता, खेत और बाजार, साइंस टेक एन्टरप्रेन्योर, कुरूक्षेत्र, समाज कल्याण, अहा जिंदगी, मधुरिमा में लेखन/प्रकाशन कार्य

स्क्रीनप्ले लेखन, स्टोरी आइडिया लेखन, प्रकाशन की प्रतीक्षा में 2 पुस्तकें

COMMENTS

BLOGGER: 19
  1. कहानी पढ़ते हुए कई बार आंखें नम हो गईं, गैस कांड की तस्वीर सामने आ गई।

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  2. MAHENDRA KALODIYA BHOPAL9:54 pm

    पहले कभी पढ़ी न ऐसी प्रेम कहानी.....अग्रिम बधाई, आशीष भाई

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  3. rahul-santosh mitra mandli12:20 pm

    ye to upaniyas lagta hei

    जवाब देंहटाएं
  4. KRISHNA KUMAR SHARMA7:48 pm

    MERI BHI SHUBHKAMNAYEIN

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  5. Poore safar me aapko hi padhata raha yatra aanand dayak rahi....Meri shubhkamnayein

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  6. deepak kumar9:18 pm

    fir se padhha.....mann kar raha tha....bahut achhe vichar sabke liye pathniye
    writer ko thank u aur editor ko aabhar

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  7. un sabhi ke liye bahut-bahut dhanyawad jo kisi karanvash apni pratikriya vyakt nahi kar paaye....aap sabhi ke aashirwad aur shubhkamnaoo ka aabhilashi

    जवाब देंहटाएं
  8. Hardik Badhai bahut sundar abhivyakti hei....meri aur se badhai apko....aise hi likhte rahiye aur hamare liye padhate rahiye...hume khushi hoti hei

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर 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रचनाकार: संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 90 : ''देखा न ऐसा प्यार'' // संस्मरण पर आधारित एक प्रेम कहानी //
संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 90 : ''देखा न ऐसा प्यार'' // संस्मरण पर आधारित एक प्रेम कहानी //
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