(फ़ोटो - अहिल्या बाई) शस्यश्यामल भारत की पुण्य और महिमामयी धरा पर ऐसे अनेक महान नारियां पैदा हुई हैं जिन्होने अपने कमजोर और लड़खड़ाते कदमो...
(फ़ोटो - अहिल्या बाई)
शस्यश्यामल भारत की पुण्य और महिमामयी धरा पर ऐसे अनेक महान नारियां पैदा हुई हैं जिन्होने अपने कमजोर और लड़खड़ाते कदमों के बावजूद ,प्रबल वेग से चलते हुए इतिहास के कालखंड में अपना विशिष्ट स्थान सुरक्शित कर लिया है । आज के बदले हुए संसाधन युक्त परिदृश्य में भी ये हर क्षेत्र में बेमिसाल हैं । ऐसी पूज्य महिलाओं में महारानी अहिल्या बाई का नाम स्वर्णाक्षरों में सुशोभित है । इन्हें स्मरण करना अपने आप में बेहद सुखद प्रतीत हो रहा है ।
इनकी प्रारम्भिक जिंदगी देखें तो ये कोई राज घराने की बालिका नहीं थी । इनका जन्म 1725 ईसवी में औरंगाबाद जिले के बीड तालुका में स्थित छाड़ीग्राम में हुआ था ।
,देवी अहिल्या बाई मालवा के सूबेदार मल्हार राव होल्कर की पुत्र वधू थी । उनका विवाह सन 1735 में मल्हार राव होल्कर के पुत्र खांडेराव के साथ हुआ था। ऐसी कहानी है कि
पेशवाओं के सूबेदार मल्हार राव होल्कर अपने सैनिक अभियान में इस ग्राम से गुजर रहे थे ,तभी उन्होने एक लड़की को अत्यंत मधुर और भाव पूर्ण लय में स्थानीय शिवालय में भजन गाते हुए सुना । उन्होने निकट आकर उस बालिका को देखा और उस तेजोमयी बालिका के ,गायन और प्रदीप्त चेहरे से इतने प्रभावित हुए कि बालिका के घर जाकर पिता पालकोजी शिंदे से बात कर ली ।उन्हें ऐसी ही पुत्रवधू चाहिए थी । सौभाग्यशाली पिता ने भी इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर उनके पुत्र से उनकी विवाह करवा दी ।
विवाहो परांत देवी अहिल्या की नित्य दिनचर्या में पूजा पाठ सास ससुर की सेवा तथा गृह कार्य आदि सम्मिलित थे । अपनी सेवा तथा प्रेरणा से पति खांडेराव को युद्ध कौशल तथा राजकीय कार्यों में रुचि लेने के लिए अभिप्रेरित किया । सन 1745 में उन्होने एक पुत्र,मालेराव को जन्म दिया ,तथा तीन वर्ष बाद सन 1748 में एक पुत्री ,मुक्ताबाई को जन्म दिया ।
देवी का गृहस्थ जीवन बड़ा सुखमय चल रहा था ,तभी मार्च 24 1755 को उनके पति खांडे राव युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए । यह हृदय विदारक समाचार जब अहिल्या बाई के पास पहुंचा तो अपार दुख से विह्वल होकर सती होने के लिए उद्यत हो उठी । उधर राजा स्वयम बेहद दुखी थे ,मगर मल्हार राव होल्कर के विशेष आग्रह पर उन्होने सती होने का विचार त्याग दिया और राजकार्य में ससुर का हाथ बटाने के लिए तैयार हो गई ।
मल्हार राव के बाह्य अभियान के समय राज्य के सभी कार्य देवी अहिल्या को ही अपनी गरिमा और निष्ठा के साथ संभालने पड़ते थे । उनकी योग्यता और दूरदर्शिता पर मल्हार राव को पूरा विश्वास था ।
मगर विधि का विधान ! मल्हार राव का आलम पुर में दुखद निधन से अहिल्याबाई पर एक और बज्रपात हुआ । अन्य सभी राज्यों की भांति मालवा का यह राजपरिवार भी षडयंत्रकारियों का अड्डा बना हुआ था ।
पेशवा ने मालेराव होल्कर को उत्तराधिकारी नियुक्त किया परंतु 1767 में वे भी काल कवलित हो गए । मालेराव से कोई संतान भी नहीं थी । कुछ स्वार्थी तथा पदलोलुप अधिकारियों ने अहिल्याबाई को किसी लड़के को गोद लेने की सलाह दी ,किन्तु उन्होने दूरदर्शिता से काम लिया ,वे किसी शातिर चाल की काठ पुतली नहीं बनने वाली थी । देवी का अपना स्वतंत्र सिद्धान्त था कि किसी देश का राजा प्रजा की रक्षा एवं भलाई के लिए है । अतः प्रजा के हित के लिए देवी ने राज्य की बागडोर ,अपने अत्यंत विश्वास पात्र सलाहकारों के साथ ,यथाशीध्र अपने हाथों में संभाल ली थी ।
तुकोरावजी को अपनी सेना का सेनापति बनाकर सन 1767 में माहेश्वर को जो एक अत्यंत प्राचीन नगरी थी और ,जो बाद में माहेश्वरी साड़ी{ उन्होने गुजरात आदि बाहर से कारीगरों को बुला कर इस साड़ी उद्योग की स्थापना करवाई थी } के लिए प्रसिद्ध हुआ ,अपनी राजधानी बनी रहने दी ।
उन्होने पेशवा के काका राघोबा दादा एवं मंत्री चंद्रचूड़ के षडयंत्रों का साहस पूर्वक मुक़ाबला किया । इस घटना के समय पेशवा माधवराव की सहानुभूति अहिल्याबाई के साथ थी । सरदार महाद्ज सिंधिया भोंसले तथा गायकवाड की सेनाए भी अहिल्याबाई की मदद के लिए महेश्वर पहुँच गई थी । उसी समय देवी ने एक महिला फौज भी तैयार की थी । रानी की दूरदर्शिता और साहस पूर्ण मुक़ाबला करने को तैयार देखकर राघोबा दादा को बहाना बनाना पड़ा कि वह महेश्वर पर अधिकार करने नहीं ,अपितु ,देर से ही सही ,मगर वास्तव में ,मालेराव के निधन का शोक व्यक्त करने के लिए आ रहे थे ।
देवी ने होल्कर राज्य में होने वाले विद्रोहों तथा षडयंत्रों का कठोरतापूर्वक दमन किया । चोरों और डाकुओं का उस समय भीषण उपद्रव था । रानी ने घोषणा की कि जो वीर पुरुष चोरों और लुटेरों ,डाकुओं का दमन करेगा , उनकी एक मात्र राजकुमारी मुक्ता की शादी उसी से कर दी जाएगी ।यह चुनौती यशवंतराव फनसे नामक वीर युवक ने स्वीकारी,और उसकी शादी मुक्ता से कर दी गई ।
अपने तीस वर्ष के शासन काल में उन्होने काफी सुधार कार्य किया होल्कर राज्य का किला ,अनेक मंदिर . भवन सड़कें,नर्मदा किनारे विशाल सीढ़ियों वाली घाट बनवाई ,स्त्री शिक्षा पर बल दिया । वे एक सक्षम शासिका होने के साथ साथ ही अत्यंत ईश्वर भक्त थीं ,प्रतिदिन घंटो पूर्ण विधि विधान से पूजा पाठ करने के बाद ही वह सत्ता व राजकार्य संभालती थी । मूर्तिकारों ने उनकी मूर्ति बनाई जिसमें एक हाथ में शिवलिंग और दूसरे में फूल की डाली थामी हुई हैं । माहेश्वर में नर्मदा के किनारे का उनका महल ,महल में रखा सामान आज भी उनकी इस अपार भक्ति की कथा बाँच रहा है ।
कहा जाता है कि वह बहुत ही सादगी पसंद महिला थी । एक बार जब किसी दरबारी कवि ने उनकी प्रशस्ति में कविता लिख कर ,पुस्तक उनको भेंट की तो उन्होने उसे लेकर सामने बहते नर्मदा नदी में फेंक दिया था । उनका मानना था राजा का काम प्रजा की भलाई के लिए होना चाहिए न कि खुद के यशोगान के लिए । उनका जीवन वास्तव में पूर्णतया स्वधर्म और अपनी प्रजा के कल्याण के लिए समर्पित था । जब वे हाथी ,घोड़े पर सवार होकर राजकीय दौरे पर निकलतीं तब उनकी चपलता , साहस और धैर्य उनकी रियासत को गौरवान्वित ,आकर्षित करने वाला होता था । अंग्रेज़ लेखकों ,कवियों ने भी उनकी शान मेन कविताएं आलेख आदि लिखे हैं ।
सन 1795 में सत्तर वर्ष की उम्र में प्रातःस्मरनीय अहिल्या बाई ने दक्षिण भारत के रामेश्वरम को अपनी आखिरी पड़ाव के लिए पसंद कर लिया और यहीं की मिट्टी में वह अपना नश्वर शरीर त्याग कर सदा के लिए सो गई थी ।
मगर उनकी अमरता की कहानी कुछ और है । उन्होने सम्पूर्ण भारत वर्ष में अनेक प्रख्यात प्राचीन मंदिरों का ,।निर्माण करवाया ,जीर्णोद्धार करवाया ,उनको आर्थिक सहायता दी । मंदिरों में विद्वान पंडितों की नियुक्ति कारवाई ,शास्त्रार्थ करवाए , चारों तरफ धर्म का परचम लहराया । आज हिंदुस्तान के तकरीबन सारे मंदिर उन महान स्त्री को आशीर्वाद देते हुए अभय मुद्रा में खड़े है जैसे ।
इंदौर का एयरपोर्ट और इंदौर विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम पर समर्पित है ।
भारत सरकार द्वारा सन १९९६ में उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया गया था।
॥ कामिनी कामायनी ।।
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