२८ फरवरी , विज्ञान-दिवस विशेष - ...तो क्या 84 लाख (?) योनियों में सर्वश्रेष्ठ बिल्ली है ??? " काश कि यह नारा राजनैत...
२८ फरवरी, विज्ञान-दिवस विशेष -
...तो क्या 84 लाख (?) योनियों में सर्वश्रेष्ठ बिल्ली है ???
" काश कि यह नारा राजनैतिक जुमले बाज़ी के श्राप से मुक्ति पा जाये ! ...और देश के सामने विज्ञान के विकास और वैज्ञानिक गतिविधियों के प्रोत्साहन के लिए कोई ऐसा मॉडल प्रस्तुत कर पाएं कि जिसमें विज्ञान के विद्यार्थियों को अधिक से अधिक प्रायोगिक ज्ञान मिल पाए, कि जिसमें विज्ञान-मॉडल के आयोजनों में वैज्ञानिक जाकर बच्चों का उत्साह वर्धन करें, कि जिसमें साइंस से ग्रेजुएट युवा कम से कम ब्यूरेट,पिपेट,स्क्रूगेज़ या वर्नियर -कैलीपर्स को तो भली भांति समझ -समझा सकें। "
२८ फ़रवरी १९३० को भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर व्यंकट रमन की खोज " रमन-इफेक्ट " का तहलका पूरी दुनिया में इस कदर मचा कि इस दिन को यादगार बनाने के लिए १९८६ से हम २८ फ़रवरी को विज्ञान दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं ! हिंदी - दिवस की औपचारिकताओं से भी बदतर ढंग से निपटने वाले इस दिवस की पहली बदहाली तो यही है कि गणित -विज्ञान के विद्यार्थियो की तो छोडो , उनके शिक्षकों- प्रोफेसरों को यह तारीख विज्ञान दिवस के रूप में याद तक नहीं रहता। ऊपर से ठीक परीक्षाओं का मौसम होने के कारण इस दिवस का औपचारिक निर्वहन करना -करवाना भी संस्था प्रमुखों के लिए बढ़िया बहाना बन जाता है ...और वैसे भी विज्ञान-शिक्षा , वैज्ञानिक -समझ , विज्ञान -मॉडल पर तमाम किस्म की छिट-पुट चलने वाले वैज्ञानिक सभा -संगोष्ठियों-प्रदर्शनियों का जनाज़ा, प्रत्येक सप्ताह के शनिवार के दिन रोड के चप्पे -चप्पे पर रखे -फेंके गए नींबू -मिर्च के साथ निकलते देखे ही जा सकते हैं। बैंगलोर ,पुणे ,हैदराबाद और चेन्नई से लेकर कलिफ़ोर्निया , सेनफ्रांसिस्को और टोरंटो सहित विदेशों में अपनी इंजीनियरिंग की डिग्री के बलबूते मल्टीनेशनल कंपनियों में पदस्थ भारतीय प्रतिभायें पैसे कमाकर अपने बलबूते भारत के अपने पैत्रिक स्थानों में जब अपना आलीशान नया घर/ बंगला बनाते हैं तो नवनिर्मित बिल्डिंग के टॉप फ्लोर में वे उल्टा काला मटका या काले जूते टांगना कतई नहीं भूलते।
विज्ञान दिवस के एक आयोजन में बच्चों के बीच से उठे अंगूठी, ताबीज , नीबू और बिल्ली से जुड़े सवालों का जवाब देने के बाद जब मैं अपनी जगह में बैठा तो ठीक मेरे बगल में बैठे समारोह के एक अतिथि ने अपनी हाथों की उंगलियाँ इस तरह से मोड़ लिए कि मुझे दिखाई न दे। दरअसल उनकी हर उँगलियों में अंगूठियाँ थी। वे एक कॉलेज में विज्ञान / बायोलॉजी विषय के प्रोफ़ेसर थे। विज्ञान दिवस के उस आयोजन में वे प्रमुख वक्ता के रूप में आमंत्रित थे। उस आयोजन में शहर के प्रतिष्ठित / MBBS वे डाक्टर भी अतिथि वक्ता के रूप में आये हुए थे जिन्हें एक बार बिल्ली के रास्ता काट देने पर रुकते देखकर जब मैंने पूछा कि सर ! आप भी इन सब पर विश्वास करते हैं ? तो उन्होंने मुझसे प्रतिप्रश्नन किया कि ..." थोड़ी देर रुक जाने में हर्ज़ ही क्या है ? " आगे उन्होंने यह भी जोड़ा ..." हालाँकि मैं इन सब को नहीं मानता...! " उनके सवाल में दम तो है ! क्या हर्ज़ है थोड़ी देर रुक ही जाने में ? पर हम जैसों की मोटी बुद्धि को यही लगता है कि फिर ८४ लाख ( ? ) योनियों में सर्वश्रेष्ठ तो बिल्ली की योनी हो गई जिसमें इतना दम तो है ही कि वह चलते -फिरते दिमागधारी आदमी को तक रोड से अपने गुजरते तक ( किसी मंत्री के काफिले की तरह ) रोक कर रख दे। लगभग २५ से ३० बर्षों तक विज्ञान विषय पढ-लिख कर ,उसकी डिग्री के दम पर डाक्टर -इंजीनियर बन कर , समाज में प्रतिष्ठित और हेंडसम सैलरी पाने -कमाने वाले को, एक गुरूजी-नुमा आदमी की बातों ,सलाहों और सवालों की परवाह भी आखिर कितना करना चाहिए ?? कई बार लगता है -पिछड़े हुए, अन्धविश्वाशी या दकियानूशी वे नहीं वरन हम ही हैं जो अभिशप्त भी हैं कथित वैज्ञानिकता के श्राप से ! मेट्रो से लेकर मॉल संस्कृतिओं और मल्टीनेशनल सिटीज से लेकर गाँव -कस्बों तक की युवा -पीढ़ियों के पैरों में बंधे काले धागे वाली भीड़ से क्यों , कैसी और कितनी वैज्ञानिकता की उम्मीद की जानी चाहिए ???
देश में विज्ञान शिक्षा की दशा को आंकड़ों के तर्कों के साथ लिखने -पढ़ाने की बोझिलता में न ले जाकर केवल अपने ही प्रदेश का बहुत छोटा सा उदाहरण जान लेना बहुत है - 11 और 12 क्लास तक विज्ञान- गणित के साथ मेरिट में आ जाने वाले विद्यार्थियों तक को भी यदि ये पूछा जाये की 12 तक की शिक्षा लेने के अपने 17 से 18 वर्षों की अपनी उम्र में आपने कितनी बार प्रैक्टिकल किया है या आप कितनी बार प्रैक्टिकल रूम तक गए हैं तो जो जवाब मिलेगा उस पर चुप्पी ही साध लेना एक मात्र विकल्प होगा क्योंकि ये हाल सरकारी ही नहीं बल्कि इंटरनेशनल स्कूलों का बैनर धरे रंग-बिरंगी झंडा फहराते आलीशान शिक्षण संस्थानों से निकले बच्चों का भी है ! गैलिलियो और सुकरात से लेकर पडोसी प्रदेशों तक ज्यादा विज्ञान -विज्ञान चिल्लाने वालों का क्या हश्र होता रहा है इसके उदाहरणों से इतिहास और वर्तमान दोनों भरा हुआ है। पर उनकी परवाह किसे है ?
वैसे तो विज्ञान के विकास के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा हम आज तक धर्म और राजनीति को मानते - मनवाते आये हैं। यह सच है कि धर्म और विज्ञान दोनों ही अपने -अपने ढंग से सत्य की ही खोज में लगे हुए हैं। आग के डर से आदमी को विजय दिलाने वाले विज्ञान के आविष्कारों ने आज साइबर बम के दहशत का तोहफा भी हमें दिया है ... तो दरअसल सच यह भी है कि विज्ञान की देन को अभिशाप या वरदान में बदलने वाली मानसिकता का कुछ हद तक धार्मिक ( माफ़ करें , आध्यात्मिक ) होने की भी जरुरत है।
परन्तु धार्मिक- कर्मकांडों , राजनैतिक -उदासीनता या राजनैतिक- चतुराई से विज्ञान को क्या उतना आघात पहुंचा है जितना आघात गणित -विज्ञान विषयों के सेमिनारों ,सभा -संगोष्ठियों और शोध - सभाओं को संबोधित करने वाले, हजारों शोधार्थियों के गाईड बनकर उन्हें पीएचडी करवाने वाले विज्ञान के ऐसे विद्वानों और प्रोफेसरों से पंहुच रहा है जिनके नमूनों की बात ऊपर वर्णित है ?
मुक्तिबोध के ब्रम्ह्रराक्षस नुमा अपनी रिजर्व - विद्वत्ता और गभीर मुद्रा के साथ अपनी कुंठित मानसिकता का सारा रोष ये स्कूल-कॉलेजों के प्रैक्टिकल रूम में निकालते हैं। विज्ञान के विकास हेतु विभिन्न सभा -संगोष्ठियों के लिए UGC से मिले ग्रांट की उपयोगिता सर्टिफिकेट तैयार करने -करवाने में माहिर हमारे प्रोफेसरों की वैज्ञानिक (व्यावहारिक ) समझ पर ऊँगली उठाना सरासर हमारी निगेटिव मानसिकता का प्रतीक है ! एक सच यह भी है -"उनकी " नज़रों में।
और जाते जाते ... जय जवान -जय किसान - जय विज्ञान !
काश कि यह नारा राजनैतिक जुमले बाज़ी के श्राप से मुक्ति पा जाये ! ...और देश के सामने विज्ञान के विकास और वैज्ञानिक गतिविधियों के प्रोत्साहन के लिए कोई ऐसा मॉडल प्रस्तुत कर पाए कि जिसमें विज्ञान के विद्यार्थियों को अधिक से अधिक प्रायोगिक ज्ञान मिल पाए, कि जिसमें विज्ञान-मॉडल के आयोजनों में वैज्ञानिक जाकर बच्चों का उत्साह वर्धन करें, कि जिसमे साइंस से ग्रेजुएट युवा कम से कम ब्यूरेट,पिपेट,स्क्रूगेज़ या वर्नियर -कैलीपर्स को तो भली भांति समझ -समझा सकें।
--- योगेश अग्रवाल ,सृष्टि कॉलोनी राजनंदगांव छत्तीसगढ़ ।
ईमेल- mitrindia@gmail.com
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